बुधवार, 10 जून 2020

सबकी आशाओ के प्रकाश राम विलास /श्याम बिहारी श्यामल





■■■■  संस्मरण 🌺 © श्‍याम बिहारी श्‍यामल  ■■■■
■■   वे दिन जो कभी ढले नहीं- 40   ■■
■■     रामविलास का 'वाग्विलास'     ■■
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इन्कार लंबा खिंच रहा हो और नायिका की अदाएं एक पर एक मुद्राएं बदलती चली जा रही हों तो प्रेम-गीत को गहरा होते जाने से भला कौन रोक सकता है!

अनुभवी वक़ील बताएंगे कि अदालत में लंबी बहस की तलब कब होती है! मेरिट केस में या लेस मेरिट में? साक्ष्य वास्तविक हों और गवाह अडिग तो फ़ैसला भारी-भरकम या विलंबित क्यों!

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'निराला की साहित्य-साधना' के तीसरे खंड के 92 से 117 तक 25 पन्नों का विस्तार रामविलास जी ने जानकी वल्लभ को नकारने में किया तो 'निवेश' है लेकिन यह चला गया है 'निष्फल'! वह बताना चाह रहे कि जानकी वल्लभ मूलतः निराला के विरोधी रहे और ऐसे तनावों की वजहों में से एक जो अन्ततः उन (निराला) के जीवन के लिए घातक बने, लेकिन जो 'सुबूत' रख रहे उनसे सिद्ध हो रहा उनका स्वयं का मिथ्याचार.

 रामविलास जी आरोप लगाते हुए इनवर्टेड कॉमाज के भीतर जितने 'साक्ष्य' पेश कर रहे, उनमें कोई संगति-समन्वय नहीं है. साक्ष्य और दावे एकसार नहीं, एकदम फटे दूध की तरह. 'ठोस' अस्त-व्यस्त, तरल ढरक कर तबाह, अलग! ज़्यादातर स्थलों पर तो साक्ष्य ही सीधे-सीधे उनके दावे-निष्कर्षों को तत्क्षण काट दे रहे!

यथा, रामविलास स्वयं बता रहे कि 1935 से 46 के बीच का समय निराला के लिए अहम है जबकि उनके जीवन में पुत्री सरोज से लेकर अंतरंग प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, नवजादिक लाल श्रीवास्तव और परिजनों में साले रामधनी द्विवेदी व पुत्रवधु फूलदुलारी आदि की मौत की घटनाएं होती हैं. इसी अवधि में निराला गंभीर रूप से बीमार पड़ते हैं और दूसरे महायुद्ध के दौरान मानसिक संतुलन खो देते हैं. इधर, साहित्य में छायावाद का स्वर क्षीण हो रहा है, हिंदी कविता प्रगतिवाद की ओर अग्रसर हो रही है! तात्पर्य कि रचनात्मक मोर्चे पर भी वह अलग चुनौती का सामना कर रहे.

निराला ऐन इसी अवधि में जानकी वल्लभ को 98 पत्र लिखते हैं. पत्रों में कालिदास प्रकरण को लेकर दोनों की परस्पर असहमतियों के अलावा तनाव जैसा कोई दूसरा मुद्दा नहीं, बल्कि श्रद्धा-स्नेह का पूर्ववत भाव-विनिमय अबाध क़ायम है. तो, यह दोनों के भीतर उच्चतर बौद्धिक आदान-प्रदान और स्नेह-समन्वय का द्योतक है या कुछ और?

उसी तरह, रामविलास स्वयं 1953 में कलकत्ते में हुए आयोजन का विवरण रखते हैं. इसमें निराला का अभिनंदन हो रहा है. इस क्रम में सौ या सवा सौ रुपयों का बटुआ भी भेंट किया गया. निराला ने स्वीकार कर बटुआ तुरंत जानकी वल्लभ को दे दिया.

रामविलास ही विवरण दे रहे कि बटुआ लेकर जानकी वल्लभ बोले, '..इसे रामकृष्ण को दे देंगे!..'. निराला बोलते हैं, '..तुम कौन हो!..'

गौर करने की बात है कि रामविलास जी 1935 से '46 के बीच, जबकि महाप्राण ने जानकी वल्लभ को 98 पत्र लिखे, की अवधि के तनाव को जानलेवा वजहों में से एक बता रहे और कलकत्ते का आयोजन इसके छह-सात साल बाद हो रहा. निराला जी इस आयोजन में जानकी वल्लभ को सार्वजनिक रूप से अपने पुत्र रामकृष्ण के समतुल्य या उनसे कुछ बीस ही घोषित कर रहे. इसका क्या अर्थ हैं? अगर 35 से 46 के बीच का संबंध घातक ढंग से व्यक्तिगत तनावपूर्ण रहा होता तो निराला ऐसा पितृ-स्नेह लुटाते?

विडंबना तो यह कि सारा विवरण व्यंग्यात्मक लहज़े या मनमुताबिक़ व्याख्या के साथ पेश खुद रामविलास जी ही कर रहे लेकिन बिना किसी ठोस तर्क के गंभीर आरोप के साथ.

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रामविलास जी ने मुख्यतः 'निराला के पत्र' (जानकी वल्लभ शास्त्री को लिखे निराला के पत्रों का संग्रह : राजकमल) और 'स्मृति के वातायन' (संस्मरण : जानकी वल्लभ शास्त्री : लोकभारती) से उद्धरणों की झड़ी लगा दी है. ऐसी कि विश्वास करना कठिन हो रहा है कि यह किसी 'व्यस्क' की टिप्पणी है या परीक्षा में कतरनें देख भरी किसी 'अव्यस्क' चुटकेबाज की कॉपी!

हर उद्धरण या तो शास्त्री जी को लिखे निराला के पत्र का अंश है या जानकी वल्लभ के आत्मसंस्मरण की पंक्तियां!
रामविलास जी कोई बात अपनी विश्वसनीयता के दम पर नहीं कह रहे, सब में चिप्पी! यह क्या है? कोई पुराना गुस्सा या षडयंत्र अथवा निराला से जानकी वल्लभ की तरह स्नेह नहीं मिल पाने की स्वयं की कुंठा की कुत्सित अभिव्यक्ति?

आश्चर्य यह कि अपनी पंक्तियों में निराला या शास्त्री चाहे जो भी कह रहे हों, रामविलास जी ने प्रत्येक की व्याख्या नख-दंत युक्त की है और उसे जानकी वल्लभ के उग्र विरोध में ढाल कर ही दम लिया है.

जानकी वल्लभ शास्त्री के पिता पर लिखे संस्मरण 'पितृदेव' की चीर-फाड़ करते हुए वह न्यूनतम मर्यादा का निर्वहन तक भूल गए हैं. शास्त्री जी ने अगर अपने पिता के उग्र स्वभाव का स्पष्ट वर्णन किया है और बात-बात पर  भद्दी गालियां उगलने या बच्चे को पीट डालने जैसी उनकी आदतों का विवरण  लिखा है तो यह मखौल उड़ाने की बात है या सहानुभूति की?

कोई विधवा अगर बालक या किशोर जानकी वल्लभ को पिता की क्रूरता से बचाकर अपने घर ले जा रही और दुलार रही तो इस प्रसंग में किसी भी व्यक्ति का पहला ध्यान कहां खिंच रहा? बच्चे की संकट-मुक्ति में या इसके पीछे विधवा की किसी कुत्सित कुंठा में? बिना किसी ठोस जानकारी के रामविलास ने संस्मरण में प्रयुक्त एकाध शब्द को पकड़ कर उसी का मनमाना अर्थ निकालते हुए इस प्रसंग को जिस तरह विकृत करके पेश किया है, यह स्तब्धकारी ही नहीं उनके सम्पूर्ण सोच-विवेक को संदिग्ध बना देने वाला है!

क्या रामविलास जी ने गांधी जी की आत्मकथा नहीं पढ़ी थी? अब तो वह हैं नहीं कि पूछा जाए. तब भी 'निराला की काव्य-साधना' में जानकी वल्लभ को लेकर जिस तरह वह एकाध शब्द पकड़ बात का बतंगड़ करते दिख रहे हैं, यह सवाल उठना लाज़िमी है कि बापू की आत्मकथा पर लिखने का मौका मिलने पर वह कितनी कूद-फांद मचाते! अपना कैसा-कैसा कापालिक वेश दिखाते!

क्या व्यक्तिगत ईर्ष्या-द्वेष इस कोटि के विद्वान को भी ले जाकर उसी घाट पटकता है?

रामविलास शर्मा (जन्म : 1912) आयु में रामकृष्ण त्रिपाठी (निराला जी पुत्र, जन्म : 1914) से दो और जानकीवल्लभ शास्त्री (जन्म : 1916) से चार वर्ष बड़े थे और महाप्राण से 16 साल छोटे. स्वाभाविक है कि कोई व्यक्ति मन से कैसा भी निर्गाँठ हो और चाहे  जितना उदार बन हर दूरी को नकारता चले, पुत्र की आयु का दूसरा व्यक्ति उसके लिए अंततः पुत्रवत ही रहेगा. दूसरे शब्दों में पिता की जोड़ का कोई उदारमना चाहे कितनी भी तरजीह दे, किसी भी सभ्य व्यक्ति को उसका समकक्षीय होने का भरम कदापि नहीं पालना चाहिए.

अधूरे और संदर्भ-च्युत तर्क गलत निष्कर्ष की गर्त में धकेल सकते हैं! दो आंखें, दो हाथ, दो पांव की समानता बताकर क्या दुनिया के प्रत्येक मनुष्य को एक ही जैसा घोषित किया जा सकता है!

वह निर्णयात्मक तौर पर कुछ सीधे कह देते तो कुछ लोग, जो बिना अनिवार्य हुए झंझटों में भरसक पड़ना नहीं चाहते, मान कर आगे बढ़ जाते.

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■ ज़ारी ■

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