सोमवार, 8 जून 2020

बरखा आई रे / सुरेंद्र ग्रोस





झूम   झूम   कर   बरखा   आई   हो   बरखा   आई
जागा  कन   कन   धरती   का   ले   उठा   अंगडाई
भीगी   भीगी   झुमे   खुशी   से   ललनाएं   भरमाई
खिलने  लगी  है   धीरे - धीरे   धरती   की  योवनाई
झूम   झूम   कर   बरखा   आई   हो   बरखा   आई

खेतीहरों  ने   खेत   संभाले    करने   लगे    बोहाई
बचपन  नंगे   बदन   है   भीगे   नाचे   धूम   मचाए
पानी    एक   दूजे   उड़ाता   शोर    मचाता    जाए
उल्हसित  हूई  डोली  वसुंदरा  लहर लहर  लैहरायी
झूम    झूम   कर  बरखा   आई   हो   बरखा   आई


मस्त   हुआ   गगन अपने   आप   संभल  न   पाये
जोर   शोर  से  गरज  गरज  के  पानी   है  बरसाए
चुगना   छोड  के  पंछी  अपने   घरटों  उडते  आये
दसों‌  दिशाओं  जगह  जगह  पर  खुशी  है  बरसाई
झूम   झूम   कर   बरखा  आई    हो   बरखा   आई

वर्शा बनकर  धरा को   मिलने  प्यासा  सागर  आया
बाहों  में भर  कर बड़े प्यार  से  धरा  ने  अंग लगाया
वर्शा   रूपी   सागर   ने   जब   पृथ्वी  को  नहलाया
महक उठा कन  कन धरती का कली कली मुस्कराई
झूम    झूम    कर   बरखा  आई    ओ   बरखा  आई
जागा   कन   कन   धरती   का   ले   उठा   अंगडाई
भीगी   भीगी    झुमें    खुशी   से   ललनाएं   भरमाई
खिलने   लगी   है   धीरे   धीरे   धरती   की  योवनाई
झुम   झूम   कर    बरखा   आई   हो    बरखा   आई

(स्वयं रचित )

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किशोर कुमार कौशल की 10 कविताएं

1. जाने किस धुन में जीते हैं दफ़्तर आते-जाते लोग।  कैसे-कैसे विष पीते हैं दफ़्तर आते-जाते लोग।।  वेतन के दिन भर जाते हैं इनके बटुए जेब मगर। ...