पिछले कुछ सालो में लिव इन रिलेशनशिप हमारे सभ्य समाज में सबसे आधुनिक विचार के रूप में उभर कर सामने आया है.आज की युवा पीढी इस रिश्ते की सबसे बड़ी हिमायती है.और ना सिर्फ इसकी वकालत करती है बल्कि खुले आम इसे अपना भी रही है.अतिआधुनिकता का जामा पहने इन रिश्तो पर सर्वोच्च नयायालय ने जायाजता का मोहर लगा इसका लाइसेंसीकरण भी कर दिया है.तो मेरा इस विषय की आलोचना करना आपको बेमानी लगे पर ये एक निरी आलोचना नहीं विश्लेष्णात्मक आलोचना है.अत:पाठको से निवेदन है क़ि इस ओर गौर फरमाए.और चूँकि ये आधुनिक जीवन शैली भारतीय परम्परागत मर्यादाओ और वर्जनाओ का उल्लंधन करती है. तो मेरे दृष्टिकोण और भाषा में तल्खी आना लाजिमी है.मै इस नए सामाजिक संस्करण की घोर विरोधी हूँ और विरोधी स्वर कटु और उग्र होने के साथ सत्य संभाषण करने की क्षमता होना चाहिए.फिर भी मेरे विचार और भाषा शैली अगर वर्जनाओ का परिशीलन करने लगे तो उसके लिए अग्रिम रूप से क्षमा प्रार्थी हूँ.
आज का युवा वर्ग (युवक- युवातिया दोनों ) वर्जनारहित जीवन शैली चाहता है.सामाजिक रीती-रिवाज ,रिश्ते-नाते ,संस्कार ,परम्पराए उन्हें बंधन या उबाऊ लगते हैं.औरइन्हें वे दकोसलेबजी,सड़ी-गली मान्यताये कह कर सीधे तौर पर नकार चुके हैं. उनके रहन-सहन में एक अजीब तरह का खुलापन आ गया है.अब वो चाहे लड़का हो या लड़की सब एक ही राग अलापते है वो है आजादी का..अपनी जिंदगी जीने क़ि आजादी .रहने-सहने की आजादी ,खाने-पीने सब की आजादी.अर्थात बेरोक-टोक जीवन .और उपर से तुर्रा ये क़ि उनका ये खास जुमला है क़ि जिंदगी ना मिलेगी दोबारा ..तो दोस्तों मजे करो एन्जॉय करो.युवा वर्ग के इस बेलौस सोच ने उन्हें इतना आत्म-केन्द्रित कर दिया है क़ि वे सही गलत का फर्क जाने बिना पश्चिमी देशो की जीवन -शैली की कार्बन कॉपी बन चुके हैं, जिसे अपना कर वे खुद को आधुनिक समझते हैं,और लिव - इन रिश्ता तो जैसे इनके अत्याधुनिक होने का पक्का certificate है।
वैसे भी पिछले एक-डेढ़ दसक में हमारे भारतीय समाज के जीवन स्तर में क्रांतिकारी परिवर्तन आये हैं.हम अपने गरिमामयी संस्कार से पलायन कर पूर्णतया भौतिकवादी बन चुके है.हम अपने अधिकारों के प्रति अतिजागरुक और कर्त्तव्य विमुख बन चुके हैं.लिव - इन उसका नवीन संस्करण है.आज लोग जिस बंधन मुक्त ,आजाद जीवन की बात करते है उसमे सबसे बड़ी बाधा "विवाह - संस्कार"है,.हमारे समाज में विवाह ना सिर्फ एक संस्कार है बल्कि एक सामाजिक संस्था है जो कर्तव्यों और दायित्वों का कभी ना खतम होने वाला एक पुलिंदा होता है.जिसमे शुरू से लेकर अंत तक सिर्फ बंधन ही बंधन होता है ,जैसे सामाजिक बंधन ,परिवारों का बंधन,दांपत्य बंधन ,दो आत्माओ का बंधन ...bla ..bla ..bla ...जाने क्या क्या दृश्य और अदृश्य बन्धनों का रिश्ता और वो भी एक नहीं 7 -7 जन्मो का..तौबा -२ ..तो इन बन्धनों से बचने का सीधा ,सरल सहज उपाय लिव इन रिलेशन है.अपनी आजादी से जीने के साधनों में से एक यानि पैसा,आराम,शोहरत के साथ एक ऐसे विपरीत लिंगी साथी का साथ जो जीवन साथी हरगिज न हो पर निजी आवश्यकताओ की पूर्ति का सहज सुलभ साधन हो.एक ऐसा सम्बन्ध जो उनकी तमाम शारीरिक आवश्यकताओ की पूर्ति करे वो भी तमाम बन्धनों और दायित्वों रहित..according to them ताकि वे अपनी जिंदगी का पूरा २ मजा ले सकें fully एन्जॉय (?)कर सके ..
उनके नजरिये से विधिवत विवाहित जोड़ो की भूमिका पर गौर करे तो पाते है की शादी के बाद पति की जिम्मेदारी बाद जाती है पत्नी,बच्चे ,घर -परिवार .इन सब के चलते वे जल्द ही परेंट्स की भूमिका में आ जाते है.इस reletion में दोनों ही बच्चो की जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहते है .लड़का ये सोचता है की कौन पत्नी और बच्चो में सर खपाए..और लड़की ये चाहती है की कौन बच्चे पैदा करके अपना फीगर और कैरिअर खराब करे .!!!.अच्छा, इसके साथ एक और भी बात देखने को आती है कीआज के समय में किसी लड़की के लिए पति और उसके परिवार वालो के साथ तालमेल बिठाना बड़ा नागवार टास्क है.भले ही वो अपने ऑफिस में, कैरिएर में टीम वर्क की हिमायती हो .अपने सहयोगियों ,बॉस के साथ तालमेल ,सामंजस्य बिठाना उसका परम कर्त्तव्य हो पर घर-परिवार को साथ ले कर चलना ओल्ड फैशन ,backword thought लगता है,.तो उन्हें भी लिव इन ही सुहाता है.चलिए इसके सुखद -दुखद पहलू पर नजर डालें.
इस रिश्ते की परिणति अगर युगल की परिणय में होती है तो अंत भला सो सब भला मान लिया जाये..जेसा ये युगल इस रिश्ते के हक़ में तर्क देते हैं.की अभी हम एक -दुसरे के बीच understanding creat कर रहे हैं.जिस दिन हम एक दुसरे को भली- भांति समझ लेंगे शादी कर लेंगे.ये कितना बेतुका तर्क है.इस जहान में कोई भी व्यक्ति मानसिक रूप से दुसरे के सदृश्य नहीं होता.माता-पिता ,भाई-बहिन जेसे जन्मजात रिश्तो में भी सोच का बड़ा फर्क होता है.उन सबके साथ सामंजस्य बिठाना पड़ता है हर रिश्ते में समझदारी की दरकार होती है ..समझदारी सहयोग तो साहचर्य के नियम की नीव है.ये स्वमेव पैदा होती है.जहा समर्पण है वहा ये गुण स्वमेव आ जायेंगे.पर यहाँ ये एक प्रश्न उभरता है की इन रिश्तो में समर्पण किस चीज का है.यदि समर्पण सिर्फ शरीर का है और वो भी कुछ समय के लिए तो सिर्फ शरीर का ही सुख मिलेगा वहा मानसिक या आत्मिक सुख की कामना करना मुर्खता है.
आज युवा जीवन का एकमात्र फंडा है fun /मस्ती .जिसके मुख्या घटक है पैसा और शारीरिक इच्छाओ की आपूर्ति.आज का युवा वर्ग इन चीजो का मोहताज हो गया है.जिंदगी जीने के इस खुले रवैये ने उन्हें भावनाहीन कर दिया है.जब तक जी में आये साथ रहो वरना ...कोई और ..फिर कोई और,.खुलेपन के इस दौर में प्रेम का कोई महत्व नहीं रहा.आज तो बस शारीरिक आकर्षण ही मुख्य है.वेसे भी गर्ल फ्रेंड -बॉय फ्रेंड सरीखे सतही रिश्ते में उलझे युवा वर्ग से प्रेम की पवित्रता की बात करना बेमानी है.अगर प्रेम होता तो शादी बंधन नहीं लगता कोई व्यक्ति थोड़े समय का साथी न हो कर जीवन भर का साथी होता .समर्पण जीवन भर का होता न की मात्र शरीर का...काफी पहले फॅमिली प्लानिंग वालो का एक नारा हुआ करता था दो या तीन बच्चे होते है घर में अच्छे.. उसके बाद हम दो हमारे दो का अति famous स्लोगन आया और अब स्तिथिये है की... हम हमारे तुम तुम्हारे,,,,क्योकि वे सिर्फ कुछ आवश्कताओ की पूर्ति के लिए साथ में रहते है..जब तक मन रहा साथ रहे वरना अपने अपने रस्ते...
सुप्रीम कोर्ट ने इन रिश्तो को चाहे जिस भी कारन से वैधता प्रदान की उस पर मैं नहीं जाना चाहती.पर ऐसे विषमलिंगी युगल माफ़ कीजियेगा क्योकि उनका नामकरण तो हुआ नहीं और अगर वे गर्ल फ्रेंड -बॉय फ्रेंड है तो common factor फ्रेंड को हटा दिया जाये तो लड़का -लड़की ही हुए ना तो उन्हें विषम लिंगी कहना अशोभनीय नहीं होगा ..असे विषमलिंगी युगल का जीवन आनंद उठाने का शर्त हीन तरीका क्या रिश्तो की कोमलता संवेदनशीलता को नष्ट कर मनुष्य को एकाकी नहीं बना रहा ?? इनसे पारिवारिक मूल्यों का हास हो रहा है और समाज में अनेक विषमताए और विकृतिया जनम ले रही है.
इस रिश्ते में महिलाओ की स्तिथि क्या होती है ?क्या वे सचमुच इसे सुखद या healthy मानती हैं,एंजोयमेंट के नाम पर किसी लड़की का खुद को ऐसे व्यक्ति के सामने परोस देना जिसका उससे कोई संबंध नहीं या उसका होगा इसकी कोई गारंटी नहीं..लाइफ एन्जॉय करने के नाम पर वे अपने बॉय फ्रेंड या लिव इन पार्टनर की इच्छा पूर्ति का साधन नहीं बन गयी हैं.और वो भी....@@@@@.....जाने दीजिये ज्यादा कडुवी बात कहना मेरा उदेश्य नहीं.पर सच है लडकिय ऐसे रिश्तो में उलझ गयी है जिसमे उन्हें कुछ नहीं मिलेगा..वे इंजॉय करती हैं या करवाती हैं .वो ही जाने...एक विवाहित जीवन में स्त्री के समर्पण का बड़ा मूल्य होता है.बड़ा मान होता है.बाकी के सम्बन्ध उसके नारीत्व का मखौल ही उड़ाते है.जब उसे इस बात का बोध होता है तब....???
जिन्दगी में हर एक घटना ,हर एक आवश्यकता का अपना महत्त्व होता है.अपवादों और बुराइयों को न ले..क्योकि वे चिरंतर होती हैं और जीवन में समानांतर रूप से विद्यमान होती हैं,अपनी जरूरतों की पूर्ति सम्मान जनक तरीके से करे ये व्यक्ति पर निर्भर करता है.क्या इन्हें हम use एंड थ्रो के केटेगरी में रख लें.? चाहे जो भी कहे दुस्परिनाम तो है ही चाहे नैतिक -पारिवारिक मूल्यों का हास हो या फिर अवसाद,डिप्रेसन ,टेंसन और तमाम तरह की यौन जनित रोग..जो की विशेषतया लडकियों पर ही पड़ता है.लडको पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता मानसिक जुडाव तो उन्हें होता नहीं और प्रकृतिनुसार उनमे कोई शारीरिक विकार पैदा नहीं होता.अगर होता है तो सिर्फ लडकियों पर.उन्हें ऐसे रिश्तो के अवांछित परिणामो से बचने के लिए सचेत रहना पड़ता है.दवैय्या ,उपाय जो उनके शारीर अवम स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालते हैं.और अगर ऐसे अवांछित परिणामो में स्वांसो का संचरण होने लगे तो फिर उसके पास दो विकल्प या तो अगले से उसकी शर्तो पर शादी करो और वो करता हे तो उसकी बड़ी मेहरबानी या फिर...उस अवांछित परिणाम से छुटकारे का ऐसा विकल्प जो नारीत्व की सम्पूर्णता को कलंकित करे.या सीधी और सच्ची बात ये है की लडकियों के तथाकथित एंजोयमेंट का दूरगामी परिणाम एक अबोध जीव की हत्या पर जाकर समाप्त होता है.
वैसे इसके कुछ क़ानूनी उपबंध भी हैं,पर रिश्तो के टूटन की चुभन कमोवेश एक जेसी ही होती है..और रही इन रिश्तो में पुरुषो की बात तो माफ़ कीजियेगा भारतीय पुरुषो जैसी दो-मुही मानसिकता वाले पुरुष दुनिया में कहीं और नहीं.उन्हें घुमने -फिरने और मौज मस्ती करने के लिए एक अलग और शादी कर घर बसने के लिए एक अलग लड़की की जरुरत होती है..उनकी संक्षिप्त व्याख्या ये हे की वे हमेशा दोहरे मापदंड ले कर चलते हैं.शादी के लिए एक virgin लड़की उनकी फर्स्ट prioity होती है..और लिव-इन संबंधो में उनके तर्क बेकाट्य होते है.तुम अपनी मर्जी से, अपने शर्तो पर साथ रह रही हो.. तुमने भी एन्जॉय किया.. इसी तरह की न जाने कितनी भयंकर बाते..जिससे रिश्तो का पूरी तरह पोस्ट मार्टम हो जाता है. दोस्तों इसके क़ानूनी,गैरकानूनी ,वैधता ,अवैधता की बात नहीं मैं नहीं कह रही ...सिर्फ एक सामान्य सोच को विस्तार दे रही हूँ.
सोचने वाली बात ये है की क्या जिंदगी का इस तरह इन्जोय्मेंट या जीने का ये बंधन रहित तरीका मानवीय मूल्यों ,संबंधो का पोषक है? अत्याधुनिक समझा जाने वाला ये विचार , ये नवीन सामाजिक संस्करण क्या सच में हमें सभ्यता के नए आयामों की ओर ले जा रहा है या फिर हम बर्बर पाषाण युग की ओर पलायन कर रहे हैं,??? क्योकि आज फिर हम अपनी आवश्यकता कम इच्छा के दास बन गए हैं,और अपनी इच्छा पूर्ति के लिए जो संसाधन जुटा रहे हैं या जिनका सहारा ले रहे हैं उनमे सभ्य, शिक्षित मनुष्यों का कोई गुण नहीं, .न प्रेम है,न भावना, न लगाव है न जुडाव...हम में और पाषाण प्रतिमाओ में यही तो अंतर है..प्रेम विहीन ,भावना शुन्य मानव एक असभ्य या पाषाण प्रतिमा ही तो होगा....
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dipti pouriya ,advcat,
आज का युवा वर्ग (युवक- युवातिया दोनों ) वर्जनारहित जीवन शैली चाहता है.सामाजिक रीती-रिवाज ,रिश्ते-नाते ,संस्कार ,परम्पराए उन्हें बंधन या उबाऊ लगते हैं.औरइन्हें वे दकोसलेबजी,सड़ी-गली मान्यताये कह कर सीधे तौर पर नकार चुके हैं. उनके रहन-सहन में एक अजीब तरह का खुलापन आ गया है.अब वो चाहे लड़का हो या लड़की सब एक ही राग अलापते है वो है आजादी का..अपनी जिंदगी जीने क़ि आजादी .रहने-सहने की आजादी ,खाने-पीने सब की आजादी.अर्थात बेरोक-टोक जीवन .और उपर से तुर्रा ये क़ि उनका ये खास जुमला है क़ि जिंदगी ना मिलेगी दोबारा ..तो दोस्तों मजे करो एन्जॉय करो.युवा वर्ग के इस बेलौस सोच ने उन्हें इतना आत्म-केन्द्रित कर दिया है क़ि वे सही गलत का फर्क जाने बिना पश्चिमी देशो की जीवन -शैली की कार्बन कॉपी बन चुके हैं, जिसे अपना कर वे खुद को आधुनिक समझते हैं,और लिव - इन रिश्ता तो जैसे इनके अत्याधुनिक होने का पक्का certificate है।
वैसे भी पिछले एक-डेढ़ दसक में हमारे भारतीय समाज के जीवन स्तर में क्रांतिकारी परिवर्तन आये हैं.हम अपने गरिमामयी संस्कार से पलायन कर पूर्णतया भौतिकवादी बन चुके है.हम अपने अधिकारों के प्रति अतिजागरुक और कर्त्तव्य विमुख बन चुके हैं.लिव - इन उसका नवीन संस्करण है.आज लोग जिस बंधन मुक्त ,आजाद जीवन की बात करते है उसमे सबसे बड़ी बाधा "विवाह - संस्कार"है,.हमारे समाज में विवाह ना सिर्फ एक संस्कार है बल्कि एक सामाजिक संस्था है जो कर्तव्यों और दायित्वों का कभी ना खतम होने वाला एक पुलिंदा होता है.जिसमे शुरू से लेकर अंत तक सिर्फ बंधन ही बंधन होता है ,जैसे सामाजिक बंधन ,परिवारों का बंधन,दांपत्य बंधन ,दो आत्माओ का बंधन ...bla ..bla ..bla ...जाने क्या क्या दृश्य और अदृश्य बन्धनों का रिश्ता और वो भी एक नहीं 7 -7 जन्मो का..तौबा -२ ..तो इन बन्धनों से बचने का सीधा ,सरल सहज उपाय लिव इन रिलेशन है.अपनी आजादी से जीने के साधनों में से एक यानि पैसा,आराम,शोहरत के साथ एक ऐसे विपरीत लिंगी साथी का साथ जो जीवन साथी हरगिज न हो पर निजी आवश्यकताओ की पूर्ति का सहज सुलभ साधन हो.एक ऐसा सम्बन्ध जो उनकी तमाम शारीरिक आवश्यकताओ की पूर्ति करे वो भी तमाम बन्धनों और दायित्वों रहित..according to them ताकि वे अपनी जिंदगी का पूरा २ मजा ले सकें fully एन्जॉय (?)कर सके ..
उनके नजरिये से विधिवत विवाहित जोड़ो की भूमिका पर गौर करे तो पाते है की शादी के बाद पति की जिम्मेदारी बाद जाती है पत्नी,बच्चे ,घर -परिवार .इन सब के चलते वे जल्द ही परेंट्स की भूमिका में आ जाते है.इस reletion में दोनों ही बच्चो की जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहते है .लड़का ये सोचता है की कौन पत्नी और बच्चो में सर खपाए..और लड़की ये चाहती है की कौन बच्चे पैदा करके अपना फीगर और कैरिअर खराब करे .!!!.अच्छा, इसके साथ एक और भी बात देखने को आती है कीआज के समय में किसी लड़की के लिए पति और उसके परिवार वालो के साथ तालमेल बिठाना बड़ा नागवार टास्क है.भले ही वो अपने ऑफिस में, कैरिएर में टीम वर्क की हिमायती हो .अपने सहयोगियों ,बॉस के साथ तालमेल ,सामंजस्य बिठाना उसका परम कर्त्तव्य हो पर घर-परिवार को साथ ले कर चलना ओल्ड फैशन ,backword thought लगता है,.तो उन्हें भी लिव इन ही सुहाता है.चलिए इसके सुखद -दुखद पहलू पर नजर डालें.
इस रिश्ते की परिणति अगर युगल की परिणय में होती है तो अंत भला सो सब भला मान लिया जाये..जेसा ये युगल इस रिश्ते के हक़ में तर्क देते हैं.की अभी हम एक -दुसरे के बीच understanding creat कर रहे हैं.जिस दिन हम एक दुसरे को भली- भांति समझ लेंगे शादी कर लेंगे.ये कितना बेतुका तर्क है.इस जहान में कोई भी व्यक्ति मानसिक रूप से दुसरे के सदृश्य नहीं होता.माता-पिता ,भाई-बहिन जेसे जन्मजात रिश्तो में भी सोच का बड़ा फर्क होता है.उन सबके साथ सामंजस्य बिठाना पड़ता है हर रिश्ते में समझदारी की दरकार होती है ..समझदारी सहयोग तो साहचर्य के नियम की नीव है.ये स्वमेव पैदा होती है.जहा समर्पण है वहा ये गुण स्वमेव आ जायेंगे.पर यहाँ ये एक प्रश्न उभरता है की इन रिश्तो में समर्पण किस चीज का है.यदि समर्पण सिर्फ शरीर का है और वो भी कुछ समय के लिए तो सिर्फ शरीर का ही सुख मिलेगा वहा मानसिक या आत्मिक सुख की कामना करना मुर्खता है.
आज युवा जीवन का एकमात्र फंडा है fun /मस्ती .जिसके मुख्या घटक है पैसा और शारीरिक इच्छाओ की आपूर्ति.आज का युवा वर्ग इन चीजो का मोहताज हो गया है.जिंदगी जीने के इस खुले रवैये ने उन्हें भावनाहीन कर दिया है.जब तक जी में आये साथ रहो वरना ...कोई और ..फिर कोई और,.खुलेपन के इस दौर में प्रेम का कोई महत्व नहीं रहा.आज तो बस शारीरिक आकर्षण ही मुख्य है.वेसे भी गर्ल फ्रेंड -बॉय फ्रेंड सरीखे सतही रिश्ते में उलझे युवा वर्ग से प्रेम की पवित्रता की बात करना बेमानी है.अगर प्रेम होता तो शादी बंधन नहीं लगता कोई व्यक्ति थोड़े समय का साथी न हो कर जीवन भर का साथी होता .समर्पण जीवन भर का होता न की मात्र शरीर का...काफी पहले फॅमिली प्लानिंग वालो का एक नारा हुआ करता था दो या तीन बच्चे होते है घर में अच्छे.. उसके बाद हम दो हमारे दो का अति famous स्लोगन आया और अब स्तिथिये है की... हम हमारे तुम तुम्हारे,,,,क्योकि वे सिर्फ कुछ आवश्कताओ की पूर्ति के लिए साथ में रहते है..जब तक मन रहा साथ रहे वरना अपने अपने रस्ते...
सुप्रीम कोर्ट ने इन रिश्तो को चाहे जिस भी कारन से वैधता प्रदान की उस पर मैं नहीं जाना चाहती.पर ऐसे विषमलिंगी युगल माफ़ कीजियेगा क्योकि उनका नामकरण तो हुआ नहीं और अगर वे गर्ल फ्रेंड -बॉय फ्रेंड है तो common factor फ्रेंड को हटा दिया जाये तो लड़का -लड़की ही हुए ना तो उन्हें विषम लिंगी कहना अशोभनीय नहीं होगा ..असे विषमलिंगी युगल का जीवन आनंद उठाने का शर्त हीन तरीका क्या रिश्तो की कोमलता संवेदनशीलता को नष्ट कर मनुष्य को एकाकी नहीं बना रहा ?? इनसे पारिवारिक मूल्यों का हास हो रहा है और समाज में अनेक विषमताए और विकृतिया जनम ले रही है.
इस रिश्ते में महिलाओ की स्तिथि क्या होती है ?क्या वे सचमुच इसे सुखद या healthy मानती हैं,एंजोयमेंट के नाम पर किसी लड़की का खुद को ऐसे व्यक्ति के सामने परोस देना जिसका उससे कोई संबंध नहीं या उसका होगा इसकी कोई गारंटी नहीं..लाइफ एन्जॉय करने के नाम पर वे अपने बॉय फ्रेंड या लिव इन पार्टनर की इच्छा पूर्ति का साधन नहीं बन गयी हैं.और वो भी....@@@@@.....जाने दीजिये ज्यादा कडुवी बात कहना मेरा उदेश्य नहीं.पर सच है लडकिय ऐसे रिश्तो में उलझ गयी है जिसमे उन्हें कुछ नहीं मिलेगा..वे इंजॉय करती हैं या करवाती हैं .वो ही जाने...एक विवाहित जीवन में स्त्री के समर्पण का बड़ा मूल्य होता है.बड़ा मान होता है.बाकी के सम्बन्ध उसके नारीत्व का मखौल ही उड़ाते है.जब उसे इस बात का बोध होता है तब....???
जिन्दगी में हर एक घटना ,हर एक आवश्यकता का अपना महत्त्व होता है.अपवादों और बुराइयों को न ले..क्योकि वे चिरंतर होती हैं और जीवन में समानांतर रूप से विद्यमान होती हैं,अपनी जरूरतों की पूर्ति सम्मान जनक तरीके से करे ये व्यक्ति पर निर्भर करता है.क्या इन्हें हम use एंड थ्रो के केटेगरी में रख लें.? चाहे जो भी कहे दुस्परिनाम तो है ही चाहे नैतिक -पारिवारिक मूल्यों का हास हो या फिर अवसाद,डिप्रेसन ,टेंसन और तमाम तरह की यौन जनित रोग..जो की विशेषतया लडकियों पर ही पड़ता है.लडको पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता मानसिक जुडाव तो उन्हें होता नहीं और प्रकृतिनुसार उनमे कोई शारीरिक विकार पैदा नहीं होता.अगर होता है तो सिर्फ लडकियों पर.उन्हें ऐसे रिश्तो के अवांछित परिणामो से बचने के लिए सचेत रहना पड़ता है.दवैय्या ,उपाय जो उनके शारीर अवम स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालते हैं.और अगर ऐसे अवांछित परिणामो में स्वांसो का संचरण होने लगे तो फिर उसके पास दो विकल्प या तो अगले से उसकी शर्तो पर शादी करो और वो करता हे तो उसकी बड़ी मेहरबानी या फिर...उस अवांछित परिणाम से छुटकारे का ऐसा विकल्प जो नारीत्व की सम्पूर्णता को कलंकित करे.या सीधी और सच्ची बात ये है की लडकियों के तथाकथित एंजोयमेंट का दूरगामी परिणाम एक अबोध जीव की हत्या पर जाकर समाप्त होता है.
वैसे इसके कुछ क़ानूनी उपबंध भी हैं,पर रिश्तो के टूटन की चुभन कमोवेश एक जेसी ही होती है..और रही इन रिश्तो में पुरुषो की बात तो माफ़ कीजियेगा भारतीय पुरुषो जैसी दो-मुही मानसिकता वाले पुरुष दुनिया में कहीं और नहीं.उन्हें घुमने -फिरने और मौज मस्ती करने के लिए एक अलग और शादी कर घर बसने के लिए एक अलग लड़की की जरुरत होती है..उनकी संक्षिप्त व्याख्या ये हे की वे हमेशा दोहरे मापदंड ले कर चलते हैं.शादी के लिए एक virgin लड़की उनकी फर्स्ट prioity होती है..और लिव-इन संबंधो में उनके तर्क बेकाट्य होते है.तुम अपनी मर्जी से, अपने शर्तो पर साथ रह रही हो.. तुमने भी एन्जॉय किया.. इसी तरह की न जाने कितनी भयंकर बाते..जिससे रिश्तो का पूरी तरह पोस्ट मार्टम हो जाता है. दोस्तों इसके क़ानूनी,गैरकानूनी ,वैधता ,अवैधता की बात नहीं मैं नहीं कह रही ...सिर्फ एक सामान्य सोच को विस्तार दे रही हूँ.
सोचने वाली बात ये है की क्या जिंदगी का इस तरह इन्जोय्मेंट या जीने का ये बंधन रहित तरीका मानवीय मूल्यों ,संबंधो का पोषक है? अत्याधुनिक समझा जाने वाला ये विचार , ये नवीन सामाजिक संस्करण क्या सच में हमें सभ्यता के नए आयामों की ओर ले जा रहा है या फिर हम बर्बर पाषाण युग की ओर पलायन कर रहे हैं,??? क्योकि आज फिर हम अपनी आवश्यकता कम इच्छा के दास बन गए हैं,और अपनी इच्छा पूर्ति के लिए जो संसाधन जुटा रहे हैं या जिनका सहारा ले रहे हैं उनमे सभ्य, शिक्षित मनुष्यों का कोई गुण नहीं, .न प्रेम है,न भावना, न लगाव है न जुडाव...हम में और पाषाण प्रतिमाओ में यही तो अंतर है..प्रेम विहीन ,भावना शुन्य मानव एक असभ्य या पाषाण प्रतिमा ही तो होगा....
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