पहचाना मुझे? भूल तो नही गये ना?
मै वही पुरानी, जो कभी कविताएं और कभी लेख लिख देती थी,
जो मेरे मन मे आये वो बातें क्ररती थी….
आज फ़िर हाजिर हूं, अपने मन के साथ…
** आजकल दिलीप बहुत अच्छी कविताएं लिख रहे हैं.. उन्होने ’मन’ को कुछ सलाह दी तो मेरे मन ने भी कुछ कहा.
मन है चंचल, मन अधीर है,
वो कभी न है ठहरता!
सांस के संग हमकदम हो,
वो अथक, अविराम चलता!
सपनों को ऊंचाई मिलती,
मन के घोडे दौडते जब,
दुख हटा, स्वच्छन्द मन से,
हम निराशा छोडते जब!!
यूं तो मन मे राम ही है,
पर कभी रावण आ बसता!
मन है चंचल, मन अधीर है,
वो कभी न है ठहरता!
तर्क हों दिमाग के जब,
और हों मन की भावनाएं!
किसको छोडें, किसकी सुन लें,
ऐसी दुविधा मे फ़ंस जाएं!
आगे कर दिमाग को तब ,
मन बेचारा पीछे हटता!
मन है चंचल, मन अधीर है,
वो कभी न है ठहरता!
काम अच्छे हम करें जो,
सब दिमाग के खाते जाएं,
और सब गलतियां हमारी,
भावुक मन के माथे आएं!
जिन्दगी के सुख मे, दुख मे,
केवल मन ही साथ रहता!
मन है चंचल, मन अधीर है,
वो कभी न है ठहरता!
कोइ लगते बैरी हमको,
कोइ लगते हमको प्यारे!
प्यार के या बैर के हों,
मन के हैं सम्बन्ध सारे!
मन मे जैसा बस गया जो,
मन से फ़िर वो न निकलता!
मन है चंचल, मन अधीर है,
वो कभी न है ठहरता!
जीत मिलती हमको मन से,
मन के हौंसले हैं न्यारे
हार हमसे दूर होगी!
जब तक मन से हम न हारे!
साथ चल, संघर्ष कर,
मुझसे मेरा मन ये कहता!
मन है चंचल, मन अधीर है,
वो कभी न है ठहरता!
सांस के संग हमकदम हो,
वो अथक, अविराम चलता!
रचना
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