सोमवार, 13 जून 2011

हिन्दी के विदेशी सेवक



हिंदी के दिलदार विदेशी


उमेश चतुर्वेदी
उमेश चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार
हिंदी तो जबान है हमारी..
कहते न बनै हमन को मारी.
हिंदी को अपनी जबान बताते वक्त महमूद बहरी हकीकत में अपनी ही भावनाओं को अभिव्यक्त कर रहे थे। आलमगीर के शासनकाल के दौर के कवि बहरी के ये भाव उनके सैकड़ों साल बाद पैदा हुए विदेशी हिंदी सेवियों पर भी उसी शिद्दत से लागू होता है। ये सच है कि 1835 में ब्रिटिश सरकार के अधिकारी मैकाले ने जो शिक्षा योजना लागू की, उसी का नतीजा है कि भारत की देसी संस्कृति पर अंग्रेजियत पूरी तरह हावी हो गई। आजादी के बासठ साल बीत गए हैं। विकास की समाजवादी धारा से होते हुए हमने उदारीकरण की व्यवस्था को पूरी तरह आत्मसात कर लिया है। इसके चलते हमारी रोजाना की जिंदगी पर बाजार की संस्कृति हावी हो गई है। यह बाजार ही है कि अब हमारी हिंदी को ज्यादा स्वीकार्य बनाता जा रहा है। इसके बावजूद आज भी हमारी सोच से अंग्रेजियत का भूत उतरने का नाम नहीं ले रहा है। लेकिन ये भी सच है कि कई विदेशी भी हुए हैं, जिनके लिए हिंदी उतनी ही अपनी थी, जितनी हमारे लिए है। हिंदी हमारे लिए महज भाषा ही नहीं, मां का दूध है। कुछ उसी तरह उन विद्वानों ने भी हिंदी से वैसे ही प्यार किया है, जैसा कोई भी बेटा अपनी मां से करता है।
इस कड़ी में सबसे पहला नाम आता है फादर कामिल बुल्के का। 17 अगस्त 1982 को उनकी मौत के बाद तत्कालीन हिंदी सेवी सांसद शंकर दयाल सिंह ने कहा था -, जब  “ जब कभी अब हिन्दी के बारे में कोई संयत विचार होगा,चाहे वह विश्व हिन्दी सम्मेलन के मंच पर हो या केन्द्रीय समिति की बैठक में अथवा किसी विश्वविद्यालय में या कि किसी सभा-समिति में, रह-रहकर सभी को बस एक चेहरा याद आयेगा -फादर कामिल बुल्के का । इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि कामिल बुल्के ने हिंदी के लिए क्या योगदान दिया। आज जब भी हमें अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोश की याद आती है, हमारी जबान पर सबसे पहला नाम फादर कामिल बुल्के के शब्द कोश का ही आता है। संत साहित्कार के रूप में प्रसिद्ध बुल्के ने रांची के सेंट जेवियर्स कॉलेज में हिंदी का अध्यापन करते वक्त इस शब्दकोश की रचना की थी। कहां भारत और कहां बेल्जियम, लेकिन कामिल बुल्के के लिए भारत अपनी मातृभूमि से भी कहीं ज्यादा प्यारा था। बेल्जियम के वेस्टफ्लैडर्स प्रांत के एक गांव राम्पस में एक सितंबर 1909 को पैदा हुए बुल्के के घरवाले उन्हें इंजीनियर बनाना चाहते थे। माता-पिता की ख्वाहिश पर उन्होंने 1930 में वहां के सबसे बेहतर लुवैन विश्वविद्यालय से इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की। लेकिन उनका मन इंजीनियरिंग में नहीं रमा। फिर उन्होंने रोम का रूख किया और वहां के ग्रिगोरियन विश्वविद्यालय से 1932 में दर्शनशास्त्र में एम ए किया। यहीं उनका भारतीय दर्शन से परिचय हुआ और उन्होंने भारत आने का निश्चय किया। 1935 में जब उन्होंने भारतीय धरती पर कदम रखा तो मानो उनकी मुराद ही पूरी हो गई। यहां तुलसी साहित्य से उनका परिचय हुआ। लेकिन उसे समझने के लिए हिंदी सीखना जरूरी था। लिहाजा 1936 में उन्होंने हिंदी सीखना शुरू कर दिया. हिंदी के प्रति इस प्यार ने उन्हें संस्कृत से भी जोड़ दिया और बुल्के ने 1945 में बाकायदा कलकत्ता विश्वविद्यालय से संस्कृत की डिग्री हासिल की। इसके बाद आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने इलाहाबाद का रूख किया और 1947 में यहां से एम ए और 1949 में डी फिल की डिग्री हासिल की। 1939 से 1942 के बीच वे धर्मशास्त्र का भी अध्ययन करते रहे। धर्मशास्त्र, संस्कृत और हिंदी के अध्ययन ने उन्हें हिंदी का ही बनाकर छोड़ दिया। इसी का नतीजा था कि उन्होंने 1950 में रामकथा पर पीएचडी की डिग्री हासिल की। जो बाद में रामकथा-उत्पत्ति और विकास के नाम से प्रकाशित हुई। इसके बाद जीविका के लिए उन्होंने अध्यापन का पेशा अख्तियार कर लिया और जीवन पर्यंत वे रांची के सेंट जेवियर्स कॉलेज में हिंदी पढ़ाते रहे। मौत के वक्त वे हिंदी विभागाध्यक्ष की भूमिका निभा रहे थे। उनकी सबसे विख्यात पुस्तक अंग्रेजी हिंदी शब्दकोश है, जो 1968 में प्रकाशित हुआ था। इसके पहले 1955 में उनकी पुस्ती हिंदी अंग्रेजी लघुकोश भी प्रकाशित हो चुकी थी। उन्होंने बाइबिल का हिंदी में अनुवाद भी किया है, जो नीलपक्षी नाम से 1978 में प्रकाशित हुआ था। इसके अलावा उनकी एक और पुस्तक मुक्तिदाता और नया विधान भी प्रकाशित हो चुकी है। फादर कामिल बुल्के का भारत से कितना लगाव था, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने 1950 में भारत की नागरिकता ग्रहण कर ली। इसी साल उन्हें बिहार राष्ट्रभाषा परिषद की कार्यकारिणी का सदस्य भी बनाया गया। हिंदी के प्रति उनके काम को भारत सरकार ने भी मान्यता दी। यही वजह है कि उन्हें 1972 से 1977 तक केंद्रीय हिंदी समिति का सदस्य बनाया गया। 1973 में बेल्जियम सरकार ने भी अपने इस पूर्व नागरिक को अपनी रॉयल अकादमी का फेलो बनाकर सम्मानित किया।
हिंदी के विदेशी क्षितिज पर चमकते सितारों की लिस्ट इतनी लंबी है कि अगर उनमें से खास-खास विद्वानों पर भी चर्चा की जाय तो अखबार का पूरा का पूरा पन्ना भी कम पड़ जाए। बहरहाल जिस ब्रिटेन के शासकों ने अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए भारत के भाल की बिंदी हिंदी को दोयम दर्जे का बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी, उसी ब्रिटेन की धरती पर आज हिंदी फल-फूल रही है। लंदन के हाउस ऑफ लार्ड्स के हॉल में हिंदी कथाकारों को हर साल तेजिंदर शर्मा कथा सम्मान से सम्मानित किया जाता है। लंदन की धरती पर हिंदी को प्रतिष्ठित करने में जितना योगदान भारतीय मूल के लोगों को हो, उतना ही योगदान ब्रिटेन के अंगरेज हिंदी सेवियों का भी है। उन्हीं में से एक हैं रूपर्ट स्नेल। उन्हें भारत में हिंदी सेवी के नाम से जाना जाता है। कुछ साल पहले उन्होंने एक प्रमुख हिंदी पत्र को लेखनुमा चिट्ठी भेजी थी तो उसमें उन्होंने खुद को हिंदी सेवी के तौर पर ही पेश किया था। डॉ. स्नेल इन दिनों लंदन विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के प्राचार्य हैं। हित चौरासी नामक प्राचीन ग्रंथ पर शोध के लिए विख्यात रूपर्ट स्नेल ने ब्रिटेन की धरती पर हिंदी के क्लासिक रूप को प्रचारित – प्रसारित करने में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हरिवंश राय बच्चन की आत्मकथा को अंग्रेजी के विशाल पाठक वर्ग से परिचित कराने वाले रूपर्ट स्नेल ही है। आज हिंदुस्तान में भले ही ब्रजभाषा मुख्यधारा की भाषा नहीं रही। लेकिन रूपर्ट स्नेल अगर हिंदी के कवि के तौर पर जाने जाते हैं तो इसीलिए कि वे ब्रजभाषा में कविताएं लिखते हैं। ब्रज में लिखे उनके सुंदर दोहों को ब्रिटेन के हिंदी प्रेमी काफी शिद्दत से पढ़ते-गुनते रहे हैं। सबसे बड़ी बात ये कि वे अच्छी हिंदी बोलते हैं। उनका सबसे बड़ा योगदान विदेशी छात्रों के लिए हिंदी सीखने के लिए शिक्षण पाठ तैयार करना है। उन्होंने विदेशी छात्रों के लिए हिंदी शिक्षण पर कई पुस्तकें ऑडियो टेप के साथ लिखी हैं। उनकी लिखी टीच योरसेल्फ हिंदी और बिगिनर्स हिंदी स्क्रिप्ट विदेशी छात्रों के बीच हिंदी सीखने में काफ़ी लोकप्रिय है। ये पुस्तकें अपनी रोचकता और उपयोगिता के कारण विभिन्न देशों के स्कूलों और विश्वविद्यालयों में हिंदी शिक्षा हेतु शिक्षकों द्वारा शिक्षण कार्यक्रमों में प्रयोग में लाई जा रही हैं। इतना ही नहीं ब्रज भाषा पर उनके शोध को, ना सिर्फ भारत, बल्कि पूरी दुनिया में गंभीरता से लिया जाता है।
विदेशी धरती पर हिंदी की अलख जगाने वाले विद्वानों की कड़ी में अगला नाम चेकोस्लोवाकिया के डॉक्टर ओदोलेन स्मेकल का है। 18 अगस्त 1928 को चेकोस्लोवाकिया के ओलोमोउत्स नगर में जन्मे ओदोलेन स्मेकल अपनी चमत्कारित हिंदी कविताओं के लिए काफी विख्यात हैं। उनसे इन पंक्तियों के लेखक को करीब एक दशक पहले एक संक्षिप्त मुलाकात का मौका मिला था। तब वे दिल्ली में चेकोस्लोवाकिया के राजदूत थे। नृतत्वशास्त्र की पढ़ाई करते वक्त स्मेकल भारतीय संस्कृति से प्रभावित हुए। संस्कृति से इस जुड़ाव ने उन्हें हिंदी का बनाकर रख दिया। उनकी पत्नी हेलेना भी उनकी ही तरह ना सिर्फ नृतत्वशास्त्री हैं, बल्कि भारत प्रेमी भी हैं। उनके भारत प्रेम का उदाहरण उनकी दोनों संतानें भी हैं। जिनका नाम उन्होंने इंदिरा और अरूण रखा है। ओदोलन स्मेकल ने प्राग विश्वविद्यालय से हिंदी में एम ए और  पी.एच.डी. की डिग्री प्राप्त की। उसके बाद वहीं हिंदी के प्राध्यापक नियुक्त हुए। तीस वर्षो तक प्राध्यापक के पद को सुशोभित करने के उपरान्त आप कई वर्षो तक भारत-विद्या-विभागाध्यक्ष भी रहे।  ओदोलेन स्मेकल ने हिंदी साहित्य की कई रचनाओं को चेक भाषा में अनुदित किया है, जिनमें प्रमुख हैं गोदान (1957),  आधुनिक हिन्दी कविता संकलन (1975), भारतीय लोक कथाएं (1967, 1974)। इसके अलावा हिंदी कवियों की ढेरों रचनाओं और लोक कथाओं का  अनुवाद भी किया है, जिन्हें संकलित किया जाना अभी बाकी है। ओदोलन स्मेकल ने भारतीय संस्कृति और समाज को कितनी गहराई से समझा है, इसे जानने का जरिया है उनका निबंध संग्रह  भारत के नवरूप, जो 1974 में प्रकाशित हुआ है।  रूपर्ट स्नेल ने जहां लंदन की धरती से हिंदी के प्रचार-प्रसार में खास भूमिका निभाई है तो स्मेकल ने प्राग विश्वविद्यालय से  हिंदी वार्तालाप (1968), हिन्दी पाठमाला (1968), हिंदी भाषा (1956), हिंदी क्रियाएं (1970, 1971) जैसी कई पाठ्यपुस्तकें भी प्रकाशित की, जिनके जरिए यूरोपीय छात्रों को हिंदी सीखने में आसानी हुई है। इतना ही नहीं, स्मेकल ने केंद्रीय हिंदी निदेशालय के सहयोग से हिंदी-चेक तथा चेक-हिंदी शब्दकोश भी तैयार किया है। हिंदी और भारत के प्रति उनका ये प्यार ही रहा कि उन्हें चेक सरकार ने भारत में अपना राजदूत नियुक्त किया था।
विदेशी सितारों की इस लिस्ट में अगर पोलैंड के क्षितोफ मारिया ब्रिस्की का नाम ना रखा जाय तो यह लिस्ट पूरी नहीं हो पाएगी। क्षितोफ मारिया ब्रिस्की नब्बे के दशक के शुरूआती दिनों में भारत में पोलैंड के राजदूत थे। तब दिल्ली में हिंदी की गोष्ठियों में उनकी उपस्थिति अनिवार्य समझी जाती थी। दिल्ली के राष्ट्रीय अभिलेखागार संग्रहालय में में उन्होंने अनंतशायी का अंकगणित जैसे विषय पर धाराप्रवाह हिंदी में भाषण देकर लोगों का दिल जीत लिया था। ब्रिस्की ने संस्कृत की पढ़ाई काशी हिंदू विश्वविद्यालय से की है। इसके बाद वे पोलैंड लौट गए। वहां उन्हें प्राच्यविद्या अध्ययन संस्थान में प्राध्यापक की नौकरी मिल गई। जहां बाद में उन्हें निदेशक बना दिया गया। 1932 से स्थापित ये संस्थान पोलैंड में भारतीय संस्कृति और हिंदी और बांग्ला भाषा के अध्ययन-अध्यापन का प्रमुख केंद्र रहा है। ब्रिस्की के प्रयास से ही बाद में यहां एक और भारतीय भाषा तमिल की भी पढ़ाई होने लगी। चूंकि ब्रिस्की भारत में रहे हैं और भारतीय धर्म-संस्कृति के साथ ही पर्व और त्यौहारों को ना सिर्फ गहराई से देखा-समझा है, बल्कि उसे जिया भी है। शायद यही वजह है कि हिंदी शिक्षण को लेकर उनके मन में खास भाव रहा है। खालिस हिंदी रचनाकारों की कविताओं को पोलिश भाषा में अनुवाद के जरिए पोलैंड में लोकप्रिय बनाने में भी ब्रिस्की की खास भूमिका रही है। ब्रिस्की को भारतीय भाषाओं के शब्दों की गहरी समझ है। यही वजह है कि उनके अनुवाद पोलैंड में ना सिर्फ क्लासिक के तौर पर सम्मानित हुए हैं, बल्कि वे लोकप्रिय भी हुए हैं। हिंदी कविताओं के अलावा उनकी दिलचस्पी लोकनाटकों और नाटकों में भी रही है। भारतीय लोकनाट्य परंपरा से पोलैंडवासियों को पहली बार ब्रिस्की ने ही भारतीय लोकनाटक नामक लेख लिखकर परिचित कराया है। नाटकों में अपनी दिलचस्पी की ही वजह से उन्होंने कई मशहूर नाटकों मसलन लक्ष्मीनारायण लाल का नाटक तोता-मैना और सर्वेश्वरदयाल सक्सेना के नाटक बकरी का अनुवाद किया है। ब्रिस्की हिंदी में भी लिखते रहे हैं।
हिंदी के दूसरे सितारे हैं जापान के मिवाको कोईजुका। जापान के ओसाको शहर में रह रहे कोईजुका ने जापान में हिंदी को लोकप्रिय बनाने में खास भूमिका निभाई है। आज भी हिंदी साहित्य के शिक्षण में हिंदी सिनेमा को उचित और गंभीर स्थान नहीं मिल पाया है। साहित्य के शिक्षण में सिनेमा की चर्चा आते ही लोग नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं। हिंदी के प्रचार में बालीवुड के सिनेमा के योगदान को की तो चर्चा जमकर होती है। लेकिन साहित्य और भाषा के शिक्षण में उसके योगदान को अभी तक खास स्थान नहीं मिल पाया है। लेकिन जापान के विद्वान मिवाको कोईजुका ने हिंदी सिनेमा के ही जरिए जापानी धरती पर हिंदी शिक्षण में नई क्रांति ला दी है। इतना ही नहीं, वहां हिंदी फिल्मों के साथ ही टी व़ी स़ीरियलों और नाटकों का भी हिंदी शिक्षण में व्यापक उपयोग किया जा रहा है। इस सिलसिले में हिंदी के सुप्रसिद्ध धारावाहिक रामायण को हिंदी पाठ्य सामग्री के तौर पर तैयार किया गया है। कोईजुको जैसे विद्वानों की मेहनत और निष्काम हिंदी सेवा का क्या योगदान है, इसकी चर्चा जापान जाने वाले हिंदीभाषी लोगों को अच्छी तरह से पता है। जब उनके सामने टोकियो या ओसाका की धरती पर हिंदी में विनम्रतापूर्वक बात करते छात्र मिल जाते हैं। सकता है। उन्होंने आगे बताया कि पिछले वर्ष उनके नेतृत्व में जापानी छात्रों ने भारत के प्रमुख शहरों में हिंदी नाटकों का सफलतापूर्वक मंचन किया था। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर गिरीश बख्शी के सहयोग से रामायण के लोकप्रिय सीरियल को हिंदी पाठ्य सामग्री के रूप में तैयार करने के लिए लिप्यंकित करके प्रकाशित भी करवाया है।
विदेशी धरती पर हिंदी की सेवा करने वाले सितारों में रूस के पीए वारान्निकोव और जर्मनी के लोठार लुत्से का भी नाम शिद्दत से लिया जाता है। लोठार लुत्से भारत में जर्मनी के सांस्कृतिक केंद्र मैक्समूलर केंद्र के निदेशक रहे हैं। उनकी पत्नी बारबरा लोत्स भी नब्बे के दशक के आखिरी दिनों में मैक्समूलर भवन की निदेशक रहीं। पति-पत्नी दोनों के कार्यकाल में दिल्ली के दिल कनॉट प्लेस स्थित मैक्समूलर भवन में हर महीने हिंदी कवियों की रचनाओं के पाठ और हिंदी गोष्ठियों का आयोजन होता रहा है। लुत्से दंपत्ति को हिंदी में बातचीत करते देख अच्छे-भले लोग हैरत में पड़ जाते थे। लोठार लुत्से ने हिंदी के कई मशहूर कवियों मसलन विष्णु खरे और अशोक वाजपेयी की कविताओं का अनुवाद किया है। जर्मनी में वे भारत विद् के तौर पर मशहूर हैं। वहीं रूस के पीए वारान्निकोव ने रामायण का रूसी भाषा में अनुवाद किया है। इसके साथ ही हिंदी में वे लिखते रहे हैं। मास्को विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाते वक्त वारान्निकोव हिंदी अखबारों के लिए समय-समय पर लेख भी लिखते रहे हैं। जन्म से विदेशी लेकिन दिल से हिंदी इन हिंदी सेवियों के योगदान की चर्चा के बिना हिंदी भाषा और साहित्य का इतिहास पूरा नहीं होता। बाजारवाद के इस दौर में अंग्रेजियत के खिलाफ खड़े होने के लिए इन हिंदी सेवियों की याद ही काफी है। 
(योजना से साभार)

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