शनिवार, 25 जून 2011

हिनदी और अखबार

अखबारों की हिंदी और हिंदी के अखबार


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डॉ. महेश परिमल, वरिष्ठ पत्रकार
आजकल हिंदी के अखबारों की खूब चर्चा है, गोया इन अखबारों से देश में क्रांति ही आ जाएगी। आज यदि हिंदी के अखबारों में काम करना है, तो हिंदी की जानकारी हो या न हो, चल जाएगा, पर अंग्रेजी की जानकारी होना आवश्‍यक है। इसलिए हम यह आशा नहीं रख सकते कि हिंदी के अखबारों में देश में किसी प्रकार का महान परिवर्तन हो
जाएगा।
हिंदी की सबसे अधिक वकालत करने वाले आज के समाचार पत्र ही हिंदी के साथ खिलवाड़कर रहे हैं। किसी भी अखबार का शहर का संस्करण हिंदी में है?  सिटी, जस्ट भोपाल, सिटी एक्सप्रेस, ग्लैमर, वूमन, आदि न जाने किस-किस अंग्रेजी नाम से निकलने वाले शहर के संस्करणों को पाठक अब चाव से पढ़ते हैं। पाठक वही पढ़ते हैं, जो उन्हें परोसा जाता है। अखबार वाले यही कहते हैं कि पाठक जो चाहते हैं, वही हम परोसते हैं। पर चस्का अखबार वाले ही लगाते हैं, इस सच से इंकार नहीं किया जाता। आजकल अखबार वाले समाचार का आक्रामक शीर्षक लगाते हैं, ताकि वह पाठक के सीधे मस्तिष्क में चोट करे। उनका मानना है कि शीर्षकों में रोमांच होना चाहिए। तभी पाठक उसे पढ़ेगा। अच्छी पेकिंग वाले सामान अपनी पेकिंग के कारण उस समय तो बिकजाते हैं, पर बाद में क्या उपभोक्ता उस सामाने को पुन: लेने आता है? इसे जानने की आवश्यकता किसी ने नहीं समझी। अखबार भी पूरी तरह से उपभोक्तावादी बनकर रह गया है। बाजार जो चाहता है, वही उपभोक्ता खरीद रहा है। उपभोक्ता केवल खरीदने के लिए बना है। उसकी मनमर्जी अब कुछ भी नहीं रही। घर में क्या सामान आएगा, यह तो बच्चे ही तय करने लगे हैं। बाजारवाद बच्चों को आकर्षित करने का कोई मौका नहीं चूक रहा है।
ऐसे में हिंदी भला कहाँ कैसे टिक पाएगी? जब हिंदी का एक सशक्त संशाधन ही अंग्रेजीपरस्त हो गया है, तो फिर हिंदी की सेवा के नाम पर अपनी साख बेचने वाले यह चौथा पाया, भला हिंदी की सेवा क्यों करेगा? वास्तविकता यह है कि हमने अभी तक हिंदी को हृदय से स्वीकार नहीं किया। इसके पीछे देश की राजनीति की महत्वपूर्ण भूमिका रही। वोट की राजनीति के चलते आज हिंदी दोयम दर्जे की भाषा बनकर रह गई है। हमारे देश में आज हिंदी बोलने वाले को जाहिल समझा जाता है। बच्चों में ही क्यों हमारे सामान्य जीवन में अंग्रेजी इस कदर हावी हो गई है कि यदि हम हिंदी बोलेंगे, तो मुँह की ही खाएंगे। बच्चे की अंग्रेजी कमजोर है, तो पालक उसके लिए कोई शिक्षक ढूँढ़ने में लग जाते हैं, पर हिंदी कमजोर है, तो उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। क्या करेगा हिंदी पढ़कर। आज किसी को धाराप्रवाह हिंदी बोलकर प्रभावित नहीं किया जा सकता। इसके बजाए अंग्रेजी में धाराप्रवाह बात करें, तो हमारी गिनती विद्वानों में होने लगेगी। भले ही वह अंग्रेजी कितनी भी लचर क्यों न हो? यह तो हाल है हमारे देश का। जब देश में ही हिंदी का सम्मान नहीं, तो फिर विदेश में कैसे सम्मान हो पाएगा?
आज जापान में कोई भी किताब आती है, तो पहले उसका जापानी में अनुवाद होता है, उसके बाद ही उसे लोग पढ़ पाते हैं। आज हमारे देश में कोई यह दावा कर सकता है कि उसने देश की राष्ट्रभाष में तकनीकी या स्वास्थ्य शिक्षा प्राप्त की हो। हिंदी बहुत ही सरल और सहज भाषा है, पर इसे साहित्य के नाम पर गुम्फित बनाने का काम भी चल रहा है। अदालत की हिंदी आज भी किसी को समझ में नहीं आती। आखिर यह भाषा आज तक हमारे बीच चल कैसे रही है? इसे जानने की आवश्यकता किसी ने नहीं समझी। कभी पुलिस विभाग की हिंदी समझने की कोशिश की आपने? दिमाग घूम जाएगा। इन सब बातों से परे होकर यदि हम हिंदी को सर्वभाषा बनाने का संकल्प लें, तो हिंदी को विश्वभाषा बनने में देर नहीं लगेगी। हिंदुस्तान बसता है हर हिन्‍दुस्‍तानी के जीवन में और हमारे हिन्‍दुस्‍तान का सबसे बड़ा धन है यहाँ की राष्ट्रीय भाषा हिन्दी। हर भाषा को माँ का दर्जा प्राप्त है। माँ कभी भी अच्छी या बुरी नहीं हो सकती, माँ केवल माँ होती हैा कोई भी भाषा बुरी नहीं होती। उस भाषा को बोलने वाले को सब से प्रिय अपनी भाषा होती है और अक्सर हिंदी में दक्षता प्राप्त लोग महज अपना प्रभाव स्थापित करने हेतु विदेशी भाषा को अपने गले में बसा लेते हैं। जिज्ञासा और ज्ञानार्जन के लिये अन्य भाषाओं को सीखना अच्छी बात है, विदेशी भाषा की जानकारी होना अच्छी बात है लेकिन अपनी भाषा में अपने उद्गार व्यक्त करना उससे भी अच्छी बात है। किसी भी राष्ट्र की उन्नति का कारण भाषा प्रेम होता है। सोवियत रूस, जर्मनी और फ्रॉस को बीते वर्ष में महाशक्ति का दर्जा प्राप्त हुआ है। ये गौरव उन्हें सिर्फ अपनी मातृभाषा के प्रति अटूट प्रेम के कारण मिला है। नई महाशक्तियाँ चीन और जापान ये दो उदाहरण हैं जो अपनी मातृभाषा प्रेम के कारण विश्व-पटल पर अपना सुदृढ नाम अंकित कर सके। यही मातृभाषा कारण बनी इनके अंदर मौजूद कण-कण  में बसी राष्ट्रीयता की भावना की। इन्होंने अपनी मातृभाषा को राष्ट्रभाषा के रूप में अंकित कर कोने कोने में मौजूद जन-जन से सार्थक संपर्क स्थापित किया अगर हिन्दुस्तान को सन् 2020 तक जैसा कि माना जा रहा है विश्व के पटल पर महाशक्ति के रूप में स्थापित होना है तो उसे भी राष्ट्रभाषा हिन्दी की कोने-कोने में अलख जगानी होगी। जो राष्ट्र अपनी ही भाषा का, राष्ट्रभाषा का सम्मान नहीं करेगा, परित्याग करेगा वह राष्ट्र निश्चित ही श्री हीन हो जायेगा। आइये हम सब यह संकल्प करें कि राष्ट्रभाषा की मान-प्रतिष्ठा में कभी कोई कभी नहीं आने देगें और उसे कदम दर कदम ऊँचाइयाँ देने का प्रयास करेंगे। हर तरफ की पुरवाई में अपनी इस हिंदी को फैलाने का प्रयास करेंगे।

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