प्रिंट मीडिया का स्कोर
पी. के. खुराना
ज़माना बदलता है, ज़माने के साथ तकनीक बदलती है, तकनीक के साथ ज़रूरतें बदलती हैं, ज़रूरतों के साथ आदतें बदलती हैं और आदतें बदलने से उत्पादों की खपत के तरीके बदलते हैं। बहुत से नये आविष्कार ऐसे होते हैं जो क्रांति ही ला देते हैं। इंटरनेट भी एक ऐसा ही युगातंरकारी आविष्कार है। इन दिनों वर्ल्ड कप का ज़ोर है और समाचार माध्यमों पर राजनीति के अलावा क्रिकेट का ही शोर है। राजनीति में कोई उथल-पुथल हो जाए या मैच चल रहे हों तो प्रिंट मीडिया का स्कोर घट जाता है और लोग टीवी या इंटरनेट का सहारा लेते हैं। करुणानिधि की पार्टी डीएमके द्वारा यूपीए सरकार से बाहर होने की घोषणा हो मैच का हाल जानना हो तो लोग उसे टीवी पर तभी के तभी ‘लाइव’ देखना चाहते हैं। सचिन तेंदुलकर का शॉट लगे तो उसे देखने का जो मज़ा है, उसका वर्णन किसी भी प्रकार से नहीं किया जा सकता। कमेंटेटर चाहे कितना ही कहे कि ‘सचिन ने क्या बढिय़ा शॉट लगाया है!’, वह वर्णन शॉट देखने के आनंद के आस-पास भी नहीं आ सकता। लेकिन जब आदमी काम पर हो और टीवी देखने की सुविधा उपलब्ध न हो तो अपने मोबाइल से इंटरनेट पर जाकर भी क्रिकेट का हाल जाना जा सकता है और बॉल-टु-बॉल स्कोर का वर्णन लाइव जाना जा सकता है।
इसी प्रकार राजनीति की उथल-पुथल के समय भी टीवी और इंटरनेट पर तो खबर तुरंत आ जाएगी लेकिन चूंकि अखबार अपने समय से पहले नहीं छप सकते अत: ऐसे मामलों में वे पिछड़ जाते हैँ। इस सब के बावजूद भारतवर्ष में भाषाई अखबारों की बढ़ती बिक्री के कारण भारतीय मीडिया घरानों ने इंटरनेट का लाभ उठाने की फुर्सत नहीं निकाली है। हमारे देश के बहुत से बड़े अखबारों के ऑनलाइन संस्करण भी उपलब्ध हैं, परंतु वे प्रिंट संस्करण की छाया मात्र हैं। फिलहाल बहुत से मीडिया घरानों के लिए उनका ऑनलाइन संस्करण एक फैशन मात्र है, उनका कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व नहीं है, उनके लिए कोई योजना भी नहीं है और न ही उनकी स्वतंत्र मार्केटिंग के साधन हैं। परिणाम यह हुआ है कि पत्र-पत्रिकाओं के इंटरनेट संस्करण आय का स्रोत नहीं बन पाये हैं कि मीडिया घरानों के मालिक उनकी ओर ध्यान दे पायें। यह एक ऐसा चक्कर है जिसमें फंसकर मीडिया घराने घनचक्कर बने हुए हैं।
जब टीवी आया तो लगा कि प्रिंट मीडिया समाप्त हो जाएगा, जब इंटरनेट आया, तब फिर लगा कि प्रिंट मीडिया समाप्त हो जाएगा। इंटरनेट का बहुत शोर होने के बावजूद प्रिंट मीडिया के प्रसार में वृद्धि जारी है। ज्यादातर अंगरेजी अखबारों की प्रसार संख्या घटी है, जबकि भाषाई अखबारों का प्रसार बढ़ा है। इससे दोनों को लाभ हुआ है। अंगरेज़ी अखबारों का प्रसार घटा है लेकिन उन्हें विज्ञापनों से हाने वाली आय में कमी नहीं आयी है और भाषाई अखबारों की प्रसार संख्या बढऩे से विज्ञापनदाताओं का फोकस भाषाई अखबारों की तरफ बढ़ा है।
एक अवसर ऐसा भी आया जब यह माना जाने लगा था कि पत्रिकाओं का युग समाप्त हो गया है लेकिन वर्ग विशेष पर फोकस वाली पत्रिकाओं की बढ़ती संख्या और प्रसार ने सफलता के नये कीर्तिमान गढ़े हैं। अत: यह कहना गलत है कि प्रिंट मीडिया खतरे में है। प्रिंट मीडिया की अपनी संभावनाएं हैं, हां, यह सही है कि उन्हें टीवी और इंटरनेट के कारण कई नई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।
इंटरनेट से दरपेश चुनौतियों के कारण अमरीका में बड़े-बड़े अखबार बिकने के लिए विवश हुए। नये प्रकाशकों ने अखबारें खरीद तो लीं पर प्रकाशन व्यवसाय से अनजान होने के कारण उनमें से ज्यादातर लोग सफल नहीं हो पाये। भारतीय प्रकाशकों को अभी ऐसी नौबत का सामना नहीं करना पड़ रहा है, परंतु उन्हें यह याद रखना चाहिए कि इंटरनेट में 3-जी की शुरुआत हो चुकी है और संपन्न वर्ग के युवा लोग खबरों को मोबाइल फोन पर ही देखने के अभ्यस्त होते जा रहे हैं। जैसे-जैसे इंटरनेट का प्रसार बढ़ेगा, लोगों की आदतें कुछ और बदलेंगी और ज्य़ादा से ज्य़ादा लोग समाचारों के लिए अपने मोबाइल फोन पर निर्भर होते जाएंगे।
प्रिंट मीडिया की खासियत यह है कि अखबार या पत्रिका को आप कहीं भी साथ ले जा सकते हैं, किसी समाचार, लेख या कहानी को कई टुकड़ों में पढ़ सकते हैं, कई-कई बार पढ़ सकते हैं। लेकिन यह एकांगी माध्यम है। इसी प्रकार अखबार पढऩे के लिए आपको पढ़ा-लिखा होना जरूरी है। रेडियो के आविष्कार ने साक्षरता की सीमा को लांघ कर रेडियो को गांवों तक में लोकप्रिय बनाया, पर केवल श्रव्य माध्यम होने से यह भी एकांगी ही है। दृश्य और श्रव्य का मेल होने की वजह से टीवी ने समाचारपत्रों और रेडियो, दोनों को पीछे छोड़ दिया। टीवी पर आप घटनाएं लाइव देख सकते हैँ या उन्हें हूबहू घटते हुए देख और सुन सकते हैं। टीवी जहां दृश्य और श्रव्य का संगम है, वहीं इंटरनेट उससे भी एक कदम आगे बढक़र दृश्य, श्रव्य और प्रिंट की त्रिवेणी है, अत: इंटरनेट का प्रसार बढ़ा तो कई बदलाव आयेंगे ही, जिनकी आहट हम आज भी सुन सकते हैं।
हम यह नहीं कहते कि पारंपरिक मीडिया समाप्त हो जाएगा। पारंपरिक मीडिया शायद कभी भी समाप्त न हो। यही नहीं, भविष्य का कोई और आविष्कार लोगों की आदतों में क्या नये परिवर्तन लाएगा, उसका अंदाजा लगाना अभी संभव नहीं है। हो सकता है कि किसी नये आविष्कार के बाद आज का ‘नया मीडिया’ तब ‘पारंपरिक मीडिया’ की श्रेणी में आ जाए। तो भी भविष्य की चुनौतियों का सामना करने की तैयारी के मामले में लापरवाही महंगी साबित हो सकती है।
इस सारे विश्लेषण का निष्कर्ष यही है कि पारंपरिक मीडिया के पास अभी वक्त है और मीडिया घरानों को इस समय का सदुपयोग करते हुए नई चुनौतियों का सामना करने की तैयारी कर लेनी चाहिए। समझदारी इसी में है कि ऑनलाइन संस्करण का अलग व्यक्तित्व उभरे, उसके विकास के लिए समग्रता में योजना बने, योजना का सही-सही कार्यान्वयन हो ताकि बाद में अखबार बंद करने या घाटे में बेचने की नौबत न आये।
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