मंगलवार, 28 जून 2011

पत्रकारिता के सरोकारों को बचाए रखने का संघर्ष



आमने-सामने



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मुकेश कुमार गजेंद्र, पत्रकार
ट्रेन आपनी रफ़्तार से दौड़ रही थी. खचाखच भरे हुए उस डिब्बे के एक कोने में किसी तरह जगह मिल सकी थी. मेरे सामने बैठे एक सज्जन बगल में बैठे एक दूसरे सज्जन से चीखते हुए बोल रहे थे - "अरे मेरा भतीजा पत्रकार में भर्ती होना चाहता है. इसके लिए उससे 1500 रूपया बतौर सिक्योरिटी माँगा जा रहा है." 
दूसरे सज्जन बड़े उत्सुकता से पूछे - "पत्रकार में भर्ती होने से क्या होता है? " पहले सज्जन सचेत हुए फिर गर्व से बोले - " आपको पता नहीं! पत्रकार में भर्ती होने के बाद सिक्योरिटी देकर एक परिचय पत्र मिलता है. इसे दिखाकर किसी भी आधिकारी से यह पूछा जा सकता है की अमुक काम क्यों, कैसे और कब हुआ और क्यों नहीं हुआ? टिकट के लिए कतार में नहीं लगना होता, कभी-कभी तो यात्रा करने के लिए टिकट भी लेने की जरुरत नहीं होती. अगर कुछ गलत करता है तो परिचय पत्र की वजह से आसानी से बच सकता है." दूसरे सज्जन बहुत खुश होकर बोले - "तब तो हम भी अपने बेटे को पत्रकार ही बनायेंगे. बहुत दिन से बैठा हुआ है."
आसपास बैठे लोग दोनों की बात चुप्पी साधे सुन रहे थे. सबकी आँखे चमक रही थी. शायद सभी आपने भैया, बेटे और भतीजे को पत्रकार बनाने के बारे में सोच रहे थे. ट्रेन किसी स्टेशन पर रुकी. भीड़ होने कारण लोगों ने दरवाजा भीतर से बंद कर रखा था. बाहर कुछ लोग दरवाजा खोलने के लिए चिल्ला रहे थे. इतने में एक रोबदार आवाज आई - "गेट खोल दो, वरना अकल ठिकाने लगवा दूंगा. मैं पत्रकार हूँ."
मेरे साथ मुश्किल यह थी की मैं भी इसी बिरादरी का सदस्य होने के बावजूद भी इस तरह के सपनों और खयालो से रूबरू नहीं था. अब तक यही सोचता था की आपने भीतर के इंसानी सरोकार को बचाए रखने में यह क्षेत्र मेरी मदद करेगा. लेकिन ट्रेन के डिब्बे में दोनों लोगों की बातचीत और बाहर खड़े व्यक्ति की धमकी ने यह सोचने पर मजबूर कर दिया की क्या पत्रकार वक्त का फायदा उठाने या लोगों की अक्ल ठिकाने लगाने के लिए होता है. अब तक तो यही मानता हूँ की पत्रकार भी आम आदमी होता है और वह आम आदमी की आवाज उठाने के लिए होता है; और की प्रेस लोकतंत्र का चौथा स्तंभ होता है.
लोगबाग यह समझने लगे है की प्रेस ऐसी ताकत है जिसके सहारे दूसरो के गलत कामों की तरफ उंगली उठाई जा सकती है.और आपने गलत कामों पर पर्दा डाला जा सकता है. भारत में अंग्रेज छापाखाना लेकर आये, ताकि गुलामी की जंजीर को और मजबूती से जकड़ा जाये. लेकिन हमारे जूझारू नेताओं ने छापाखाने को हथियार की तरह प्रयोग किया. अंग्रेजों को भारत से भागने पर मजबूर कर दिया.
आज स्थिति उलट है. अब जहां-तहां मीडिया का इस्तेमाल अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए किया जा रहा है. चुनाव में मीडिया का एक बड़ा हिस्सा जिस तरह बड़े पैमाने पर पैसे लेकर विज्ञापनों को खबर की सकल में छापता है, उसे एक मिशन की नीलामी नहीं कहा जायेगा? उसे लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का गला घोटना नहीं कहा जाएगा? हां, यह दीगर बात है कि कुछ मीडिया समूह अब भी अपने सिद्धांतों पर कायम रहने की कोशिश कर रहे हैं, पर पूंजी की आवश्यक्ता उनका रास्ता रोक देती है। अब तो इस क्षेत्र में कदम रखने वाले कुछ युवा भी खास सपने ले कर आते हैं। ग्लैमर के चकाचौंध में खोए पत्रकारों से और क्या अपेक्षा की जा सकती है। 
हाल ही में बंगाल और तमिलनाडु में विधान सभा चुनावों के दौरान जो कुछ हुआ वो सबके सामने है। पिछले लोकसभा चुनाव में तो हद ही हो गई थी। उस समय कुछ प्रखर पत्रकारों ने इस मसले को जोर-शोर से उठाया, लेकिन आन्दोलन से व्यवसाय बना चुके पत्रकारिता के कथित कर्णधारों को कोई खास फरक नहीं पड़ता. मुश्किल और चुनौती उन सबके सामने है जो आज भी इस पेशे के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध है. और मानते है की पत्रकारिता को अपने मूल रूप में आम आदमी आवाज और व्यवस्था परिवर्तन का वाहक होना चाहिए.
लेखक दैनिक भास्कर समूह से संबंधित हैं।

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