बुधवार, 15 जून 2011

साहित्यकार समाज सुधारक नहीं होता---महुआ माजी


साहित्यकार समाज सुधारक नहीं होता

नवोदित उपन्यासकार महुआ माजी का मानना है कि साहित्यकार समाज सुधारक नहीं होता. वह सिर्फ लिखता है, ताकि लोग उस विषय पर मंथन करें कि क्या सही है और क्या ग़लत. अपने उपन्यास मैं बोरिशाइल्ला के लिए वर्ष 2007 में अंतरराष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान पाने वाली महुआ माजी रांची की रहने वाली हैं. पिछले दिनों चौथी दुनिया के एक कार्यक्रम में हिस्सा लेने आईं महुआ माजी से फिरदौस खान ने एक लंबी बातचीत की. प्रस्तुत हैं मुख्य अंश:
सबसे पहले तो आप अपने बारे में कुछ बताइए?
मेरा जन्म रांची में हुआ. मैंने समाजशास्त्र में एमए किया और फिर पीएचडी. 17 वर्ष की उम्र में मेरा विवाह हो गया. मैंने अपनी पढ़ाई विवाह के बाद पूरी की. लेखन के लिए मुझे कई सम्मान मिल चुके हैं, जिनमें अंतरराष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान भी शामिल है.
घरेलू महिला से लेखिका बनने तक का स़फर कैसे तय किया?
मेरी एक सहेली थी, वह अ़खबारों में लिखती थी. उसने मेरी कुछ कविताएं अ़खबारों में प्रकाशित कराईं और उसी के बाद से लिखने का सिलसिला शुरू हो गया. इसके साथ ही मैं कुछ साहित्यिक संस्थाओं से जुड़ गई, उनकी गोष्ठियों में जाने लगी. इस तरह लेखन का वातावरण बनता गया और मेरी रचनाएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगीं.
बांग्लाभाषी होकर हिंदी में उपन्यास लिखने का विचार कैसे आया?
मेरे पूर्वज बांग्लादेश के रहने वाले थे, लेकिन हमारे घर में हिंदी ही बोली जाती है और मेरी शिक्षा भी हिंदी में ही हुई है, इसलिए मैंने हिंदी को लेखन का माध्यम बनाया.
मैं बोरिशाइल्ला के विषय में कुछ बताइए?
बांग्लादेश में एक सांस्कृतिक जगह है बोरिशाल. बोरिशाल के रहने वाले एक पात्र से शुरू हुई यह कथा पूर्वी पाकिस्तान के मुक्ति संग्राम और बांग्लादेश के रूप में एक नए राष्ट्र के जन्म तक ही सीमित नहीं रहती, बल्कि उन परिस्थितियों की भी पड़ताल करती है, जिनमें सांप्रदायिक आधार पर भारत का विभाजन हुआ और फिर भाषाई एवं भौगोलिक आधार पर पाकिस्तान टूटकर बांग्लादेश बना. उपन्यास में उस दौरान हुईं लूट, हत्या, बलात्कार एवं आगज़नी की घटनाओं, मानवीय आधार पर भारतीय सेना द्वारा पहुंचाई गई मदद, मुक्तिवाहिनी को प्रशिक्षण देने के लिए भारतीय सीमा क्षेत्र में बनाए गए प्रशिक्षण शिविरों और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत सरकार की भूमिका का ज़िक्र किया गया है.
यह कथानक क्यों चुना?
लड़ाई धर्म की नहीं होती, बल्कि स्वार्थ की होती है. इंसान स्वार्थ को धर्म का नाम दे देता है, केवल यही बात पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास किया है. यह बात मैंने अपने उपन्यास के एक पात्र के माध्यम से सामने रखी है, जो घरों, इंसानों और इंसानियत को जलते हुए देख रहा था. धार्मिक उन्माद की उस आंच से झुलसते हुए इंसानों को देखकर वह सोच रहा था कि क्या यह लड़ाई वाक़ई धर्म की लड़ाई है? क्या यह उन्माद स़िर्फ धर्म के लिए है? यदि ऐसा होता तो धर्म के नाम पर भारत से अलग होने के बाद पाकिस्तान के दोनों हिस्सों में अवश्य गहरा रिश्ता होता, प्यार का रिश्ता होता. दोनों हिस्सों के समानधर्मी भाइयों के बीच इतिहास का यह क्रूर अध्याय न लिखा गया होता. क्या धर्म से अधिक महत्वपूर्ण कुछ और तत्व हैं, जो धर्म के साथ शामिल हैं या धर्म उनमें शामिल है? क्या हैं वे तत्व? यह तो हम सबने देखा कि पूर्वी पाकिस्तानियों के लिए धर्म से अधिक महत्वपूर्ण संस्कृति रही. तभी तो बांग्ला भाषा, साहित्य एवं संस्कृति के लिए भाषा आंदोलन हुआ और फिर तो आंदोलनों का एक सिलसिला शुरू हो गया. पश्चिमी पाकिस्तानियों के लिए निश्चय ही धर्म से अधिक महत्वपूर्ण सत्ता रही. वर्चस्व का सुख, शोषण से प्राप्त ऐश्वर्य का सुख हमेशा उनके धर्म पर हावी रहा. इसका मतलब यह है कि धर्म उतना महत्वपूर्ण नहीं, जितना जताया जाता है. महत्वपूर्ण होते हैं दूसरे कारक. धर्म तो स़िर्फ एक मुखौटा है, जिसके सहारे कुछ लोग अपना स्वार्थ साधते हैं.
लेखन को लेकर भविष्य की क्या योजनाएं हैं?
झारखंड के आदिवासी जीवन पर आधारित एक उपन्यास लिख रही हूं. इसमें आदिवासियों की समस्याओं, उनके संघर्ष और डायन जैसी कुप्रथा का उल्लेख किया गया है. इसमें बताया गया है कि आदिवासी किस तरह संघर्ष करने के लिए मजबूर हैं.
आप कवयित्री भी हैं, आपने कविता संग्रह के बारे में अभी तक क्यों नहीं सोचा?
हां, मैंने कविताएं भी लिखी हैं, लेकिन मुझे अपनी कविताएं हल्की लगती हैं. इसलिए कविता संग्रह के बारे में कभी नहीं सोचा. वैसे आलोचक मेरा उपन्यास पढ़कर कहते हैं कि यह एक कविता ही है. मेरी कहानियों के बारे में भी कहा जाता है कि वे कविताएं ही होती हैं. मैं कविता को कहानी और उपन्यास में इस्तेमाल करती हूं.
देश और समाज के प्रति एक साहित्यकार की क्या ज़िम्मेदारी है?
साहित्यकार कोई समाज सुधारक नहीं होता है. वह समाज में जो कुछ देखता है, उसे ही लिखता है. उसका काम तो समाज की समस्याओं को अपनी रचनाओं के माध्यम से प्रस्तुत करना और लोगों को उनके समाधान के लिए जगाना है. दु:ख इस बात का है कि हमेशा ऐसा हो नहीं पाता. अपनी फिल्मों को ही लीजिए, फिल्मकार सीता के दु:ख को तो संवेदनशीलता के साथ दिखाने का प्रयास करते हैं, लेकिन उर्मिला के दु:ख के बारे में नहीं सोचते. सीता तो फिर भी अपने पति राम के साथ रहीं, लेकिन उर्मिला ने तो अपने पति लक्ष्मण के बिना 14 वर्ष बिताए. यहां उर्मिला के साथ न्याय नहीं किया गया.
देश और समाज से लेखक खुद क्या अपेक्षा रखता है?
साहित्यकार देश और समाज से यही अपेक्षा रखता है कि वह उसकी रचनाओं को पढ़े और उस पर विचार करे. विचार और विकास व्यक्तिवादी न होकर समूहवादी होना चाहिए. विकास का नया मॉडल आना चाहिए. सुख-सुविधाएं जुटाना ही विकास नहीं है. प्रकृति हमारी ज़रूरतों को तो पूरा कर सकती है, लेकिन लालच का निवारण नहीं कर सकती. प्रकृति के अत्यधिक दोहन से समस्याएं पैदा होती हैं. देश और समाज को इस बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए.
साहित्यकार खुश कब होता है और दु:खी कब होता है?
समाज में फैली विसंगतियों को देखकर साहित्यकार को दु:ख होता है, लेकिन जब उम्मीद की कोई किरण नज़र आती है तो उसे खुशी होती है, जैसे भ्रष्टाचार के मामले में अन्ना हज़ारे के आंदोलन ने लोगों में एक आस पैदा की.
महिला लेखकों की स्थिति के बारे में आप क्या सोचती हैं?
वे अच्छा लिख रही हैं. पहले महिलाओं के लिए एक निश्चित दायरा था, लेकिन अब ऐसा नहीं है, वे खुलकर लिख रही हैं. जिन विषयों के बारे में पहले महिलाएं लिखते हुए यह सोचती थीं कि लोग क्या कहेंगे, अब वे उन पर भी बेबाकी से क़लम चला रही हैं.
लेखकों में आप किससे प्रभावित हैं और लेखिकाओं में आपको कौन पसंद है और क्यों?
मैं हर लेखक की हर कृति से प्रभावित नहीं होती. विभिन्न लेखकों एवं लेखिकाओं की ऐसी कृतियां प्रभावित करती हैं, जो कुछ सोचने के लिए मजबूर कर दें, लेकिन मैं किसी का नाम नहीं लेना चाहती.
युवा लेखकों के लिए आपका क्या संदेश है?
उन्हें धैर्य से काम लेना चाहिए, अपनी भाषा को साधना और खुद को लगातार मांजते रहना चाहिए.

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