साम्प्रदायिक सद्भाव के आदर्श सदगुरू कबीर साहब / डा.नजीर मुहम्मद
रचनाकार: डा.नजीर मुहम्मददेश की सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक सभी प्रकार की समस्याओं का समाधान वैयक्तिक जीवन के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयत्न संत कबीर ने किया। उन्होंने बाँह उठाकर बलपूर्वक कहा--
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- कबिरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ।
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- जो घर जारे आपना, चले हमारे साथ॥
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आज से लगभग छः सौ साल पूर्व संत कबीर ने साम्प्रदायिकता की जिस समस्या की ओर ध्यान दिलाया था, वह आज भी प्रसुप्त ज्वालामुखी की भाँति भयंकर बनकर देश के वातावरण को विदग्ध करती रहती है। देश का यह बड़ा दुर्भाग्य है कि यहाँ जाति, धर्म, भाषागत, ईर्ष्या, द्वेष, बैर-विरोध की भावना समय-असमय भयंकर ज्वालामुखी के रूप में भड़क उठती है। दस बीस हताहत होते हैं, लाखों-करोड़ों की सम्पत्ति नष्ट हो जाती है। भय, त्रास और अशांति का प्रकोप होता है। विकास की गति अवरूद्ध हो जाती है।
कबीर हिन्दू-मुसलमान में, जाति-जाति में शारीरिक दृष्टि से कोई भेद नहीं मानते। भेद केवल विचारों और भावों का है। इन विचारों और भावों के भेद को बल धार्मिक कट्टरता और साम्प्रदायिकता से मिलता है। हृदय की चरमानुभूति की दशा में राम और रहीम में कोई अंतर नहीं। अन्तर केवल उन माध्यमों में है जिनके द्वारा वहाँ तक पहुँचने का प्रयत्न किया जाता है। इसीलिए कबीर साहब ने उन माध्यमों-पूजा-नमाज, व्रत, रोजा आदि का विरोध किया। अल्लाह, भगवान, कृष्ण, करीम, खुदा, राम आदि जन-प्रचलित ईश्वर वाचक सब शब्दों का अपनी वाणियों में प्रयोग करके सबका ईश्वर एक है, यह दिखाने का प्रयत्न किया--
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- कहै कबीर मैं हरि गुन गाऊँ,
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- हिन्दू तुरक दोउ समझाऊँ।
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- हिन्दू तुरक का करता एकै,
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- ता गति लखी न जाई॥
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- हिन्दू कहे मोहि राम पियारा, तुरक कहै रहमाना।
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- आपस में दोउ लरि लरि मुए, मरम न काहू जाना॥
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- पूरब दिशा हरी को बासा, पश्चिम अल्लह मुकामा।
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- दिल में खोजि दिलहि मा खोजो, इहै करीमा रामा॥
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- अव्वल अलह नूर उपाया, कुदरत के सब बन्दे।
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- एक नूर ते सब जग उपज्या कौन भले को मन्दे॥
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कबीर के काल में जितना भयंकर हिन्दू-मुसलमान का भेद था, उतना ही भयंकर ब्राह्मण और शूद्र का भी भेदभाव था। भारतवर्ष में वर्णव्यवस्था, जाति-प्रथा और ऊँच-नीच की भावना प्राचीनकाल से चली आ रही है। हिन्दू विचारों में उदार लेकिन व्यवहार में कट्टर रहे, वसुधैव कुटुम्बकम् की दुहाई देकर भी आठ कनौजिया नौ चूल्हे बनाये रहने का व्यवहार रहा। ज्यों कला के पात में पात, पात में पात, त्यों हिन्दुन की जात में जात, जात में जात का प्रचलन रहा। यह देश की बड़ी विडम्बना है कि किसी जाति में जन्म लेने से कितने भी उच्च आचरण करने वाले व्यक्ति को केवल जन्म के कारण इतना नीच समझा जाये कि उनके छूने मात्र से छूत लगने और पापी बनने का भय हो। इस घातक प्रभाव को कबीर की आँखें बड़ी करूणा और क्षोभ से देख रही थीं। उन्होंने अहंकारी ब्राह्मण को फटकारा और हीनता की भावना से पराभूत शूद्र को झकझोर कर जगाते हुए कहा--
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- काहे को कीजै पांडे छोत विचारा।
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- छोत ही से उपजा सब संसारा॥
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- हमारे कैसे लोहू तुम्हारे कैसे दूध।
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- तुम कैसे ब्राह्मण पांडे हम कैसे सूद॥
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- एक बूँद एकै मल मूतर, एक चाम एक गूदा।
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- एक जोति थे सब जग उतपना, को ब्राह्मन को सूदा॥
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- ऊँचे कुल का जनमियाँ, करनी ऊँच न होय।
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- सुवरन कलस सुरा भरा, साधू निन्दा सोय॥
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इन निर्गुणियाँ संतों ने अपने हाथों से अपना काम करके जीविकोपार्जन को ही श्रेष्ठ समझा। मन से वैरागी होते हुए भी उन्होंने किसी मठ-मंदिर का सहारा लेकर जीवन यापन नहीं किया। वे समाज के कांधों पर बोझा कभी नहीं बने। कपड़ा बुनने, मजदूरी करने और जूते गाँठने में भी उन्होंने बुरा नहीं माना। ईमानदारी के साथ किसी भी कार्य को करना ही उन्होंने श्रेष्ठ बताया। कबीर साहब ने कहा--
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- कोई धंधा कीजै। चौखो काज करीजै॥
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- जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजियो ग्यान।
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- मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान॥
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कबीर कभी किसी धर्म विशेष से बँधकर नहीं रहे। वे प्रेम का ढाई आखर पढ़ाकर मानव को मानव के सन्निकट लाना चाहते हैं। सच्चे मानव धर्म का प्रसार करना चाहते हैं।
भारत जैसे कृषि प्रधान देश में आय का मुख्य साधन कृषि ही रहा है। यहाँ की आर्थिक विषमता का एक मुख्य कारण भूमि का असमान वितरण भी रहा है। जागीरदार और बड़े किसानों के पास अधिक भूमि रही और छोटे किसान तथा मजदूर भूमि के छोटे-छोटे टुकड़ों पर ही गुजारा करने को मजबूर रहे। बड़े किसान छोटे किसानों को हड़पने में मत्स्य न्याय चलाते रहे। भूमि वितरण की इस असमान पद्धति और उससे उत्पन्न समस्याओं की ओर आज के कुछ सच्चे समाज सेवकों का ध्यान गया। सौभाग्य से वे भी संत ही थे-संत बिनोवा भावे। इस दुर्दशा की ओर आज से लगभग छः सौ साल पहले संत कबीर का ध्यान गया। उन्होंने सशक्त शब्दों में कहा कि भूमि का वितरण व्यक्तियों की संख्या और आवश्यकता के आधार पर होना चाहिए - जेते जिब तेजी भुइ दीजै।
इस प्रकार समस्त अभावों के मध्य जीवन व्यतीत करने वाले कबीर ने कार्ल मार्क्स से लगभग चार सौ साल पहले भारतवर्ष में समानता और समाजवाद के भावों की बुनियाद डालने का स्तुल्य प्रयत्न किया। जहाँ सभी धर्मावलम्बियों के पास समान साधन तथा भूमि होती तो धर्म निरपेक्षता और एकता की भावना को पर्याप्त बल मिलता। कबीर का समाजवाद वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना से ओत-प्रोत था। जिसमें ईश्वर में आस्था, शांति, सत्य, धर्म निरपेक्षता और सरलता का रसामृत भरा हुआ था। उनके द्वारा बताये गये कुछ आदर्श आज भारत में ही नहीं अपितु विश्व में भी अपनाये जा रहे है। कबीर साहब ने व्यावहारिक योग साधना पर बल दिया। आज योगा विश्व प्रसिद्ध हो गया है।
इस प्रकार संत कबीर दास के द्वारा स्थापित किये गये एकता, समता धर्म निरपेक्षता के आधार पर देश के भव्य भवन का निर्माण कार्य अब होने लगा है। डॉक्टर अम्बेडकर ने छूत-अछूत के भेद-भाव को मिटाकर सबको समान स्थान दिलाने का प्रयत्न किया था। हम देखते हैं कि देश में छूत-अछूत की भावना का ह्रास हुआ है। समाज में अब स्पृश्य-अस्पृश्य की भावना उतनी नहीं रहीं। संत विनोवा भावे ने भूमिहीन कृषकों को भू-वितरण कराने के लिए भू-दान यज्ञ चलाया था। उनका यह मिशन अधूरा ही रहा। महात्मा गाँधी ने धर्म निरपेक्षता और हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए जीवन उत्सर्ग कर दिया। लेकिन यह एकता कायम न हो सकी। बड़े दुख के साथ कहना पड़ता है कि यह फूट देश को बर्बाद कर रही है। बुद्धिजीवियों का परम कर्तव्य है कि एकता, समानता, धर्म निरपेक्षता और भ्रातृत्व भावना का समाज में अधिकाधिक प्रचार-प्रसार करें। मौलाना रूमी ने फरमाया था--
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- तू बराये बस्ल करदन आमदी।
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- ने बराये फस्द करदन आमदी॥
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- झगड़ा न करें मिल्लतो मजहब का कोई याँ।
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- जिस राह में जो आन पड़े खुश रहे वो वाँ॥
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- जुन्नार गले या कि बगल बीच हो कुरआँ।
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- आशिक तो कलन्दर है न हिन्दू न मुसल्माँ॥
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- मेरे विचार से शांति, समन्वय, सामंजस्य का, एक सुखी संसार बने।
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- मानव सब सदस्य हों इसके, विश्व एक परिवार बनें॥
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- सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया।
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- सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुःख भाग भवेत्॥
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- कबिरा खड़ा बाजार में, सबकी माँगे खैर।
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- ना काहू सों दोसती, ना काहू से बैर॥
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