विवादों में रहने वाले लेखक खुशवंत सिंह अपनी साफगोई और बेखौफ फितरत के लिए जाने जाते हैं। अंग्रेजी-हिंदी में समान रूप से पढे जाने वाले खुशवंत 94 की उम्र में भी युवा ऊर्जा एवं रचनात्मकता से भरपूर हैं। हमेशा कुछ न कुछ करते रहना इन्हें अच्छा लगता है। यूं तो इनकी जिंदगी एक खुली किताब की तरह रही है, लेकिन इनके जीवन के कुछ ऐसे पहलू भी हैं, जो पूरी तरह दुनिया के सामने नहीं आए। इनके व्यक्तित्व के चंद पहलुओं पर रोशनी डाल रहे हैं निर्माता-निर्देशक महेश भट्ट। हमारी सभ्यता मुनाफेपर चलती है। समाज में उसी की इज्जत व शोहरत होती है, जो मुनाफा ला सके। इसलिए जब कोई वृद्ध मुनाफे में सहायक नहीं होता तो उसे इतिहास के डस्टबिन में डाल कर समाज भूल जाता है। इसी कारण मानव सभ्यता के आरंभिक काल से जीवन के अंतिम 15-20 वर्षो के प्रति लोग डरे रहते हैं। माना जाता है कि जीवन के अंतिम वर्षो में हमारे दिल-ओ-दिमाग में क्रिएटिविटी की धधकती आग बुझने लगती है। रचनाकारों की वास्तविक मौत से पहले सृजनात्मक मौत हो जाती है। यह बात ज्यादातर लोगों के बारे में सच हो सकती है, लेकिन एक व्यक्ति ने इसे झुठला दिया है। उनका नाम खुशवंत सिंह है। इतिहासकार, लेखक, स्तंभकार व लतीफेबाज, चाहे जिस नाम से भी पुकारें। सच तो यह है कि 94 की उम्र में भी वे जिंदा ज्वालामुखी की तरह हैं, जो हमेशा ऊर्जावान रहते हैं। उनके लेख-स्तंभ आज भी प्रकाशक छापते हैं, वे बेस्ट-सेलर की तरह बिकते हैं। स्थिर बैठना फितरत नहीं 1950 में उनका पहला कथा संकलन छपा था। तब से उन्होंने द हिस्ट्री ऑफ सिख समेत दर्जनों किताबें लिखी हैं। हाल ही में उनकी किताब ह्वाई आई सपोर्टेड द इमरजेंसी: एसेज एंड प्रोफाइल छप कर आई है। अधिकतर लोग नहीं जानते कि खुशवंत सिंह पत्रकारिता में अपने जीवन के छठे दशक में आए। एक इंटरव्यू में उन्होंने स्वीकार किया था, मेरा सबसे बडा पाप यह है कि मैं स्थिर बैठना नहीं जानता। किसी बेचैन नदी की तरह हैं वे। बेचैन नदी बहती है और करोडों व्यक्तियों को जिंदगी देती है। इस रहस्यमय सरदार की बेचैन आत्मा लिखती है और करोडों पाठकों को इस जटिल दुनिया को समझने की अंतदर्ृष्टि देती है। उनसे मेरी पहली मुलाकात 1973 में टाइम्स ऑफ इंडिया की एक पुरानी लिफ्ट में हुई थी। मेरी पहली फिल्म मंजिलें और भी हैं बुरी तरह सेंसर में फंस चुकी थी। रफीक जकारिया की बेटी तसनीम मुझे लेकर उनके पास गई थीं। हम उन्हें राजी करना चाहते थे कि वे मेरी फिल्म के प्रिव्यू में आएं और उसके बारे में इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया में लिखें। उनसे मिलकर खुशी हुई थी। उन्होंने मुझसे कहा, हमें सेंसरशिप का विरोध करना चाहिए। मैं फिल्म देखने के लिए किसी को भेजूंगा। करियर का उत्कर्ष खुशवंत ने 1969 में इलस्ट्रेटेड वीकली की कमान संभाली थी। उसके पहले वे अमेरिका में तुलनात्मक धर्म और समकालीन भारत का अध्यापन करते थे। तब वीकली में शादी की तस्वीरें छपती थीं। उन्हें मालूम था कि वे क्या चाहते हैं? खुशवंत को फॉर्म में आने में दो से तीन महीने लगे। उन्होंने वीकली का लुक व फील बदल दिया। उन्होंने तीन फॉर्मूलों का सटीक पालन किया- सूचना दो, चौंकाओ व उत्तेजित करो। इन फार्मूलों ने नतीजे भी दिए। खुशवंत सिंह ने वीकली को देश के अंग्रेजी पढने-लिखने वालों की साप्ताहिक आदत बना दिया था। वीकली में रॉक एन रोल, वियतनाम युद्ध के विरोध, समांतर संस्कृति और मुक्ति की तलाश में भटक रहे हिप्पियों को जगह मिलने लगी। गोवा में बिकनी पहनी लडकियों की तसवीरों ने सभी को चौंका दिया था। टैबलॉयड जर्नलिज्म की सनसनी थी उनमें, लेकिन उन तसवीरों से यह साफ झलक मिल रही थी कि युवा उस समय क्या सोच रहे थे। खुशवंत के संपादन काल में ही यह टैबलॉयड संस्कृति बढी। उन्होंने कवर पर कम वस्त्रों में फिल्म सिद्धार्थ की सिमी ग्रेवाल को छापा। उस अंक ने देश में हंगामा मचा दिया था। वीकली का सर्कुलेशन बढ गया था। सच बोलने की हिम्मत खुशवंत ने वीकली का सर्कुलेशन 60,000 से बढाकर चार लाख तक पहुंचा दिया। आलोचक भी मानते हैं कि उनमें वह सब करने की हिम्मत थी, जिनके बारे में बाकी संपादक सपने में भी नहीं सोच सकते थे। उन्होंने खुल कर लिखा और जीवन के सूर्यास्त में भी वही काम कर रहे हैं। वह खुद को धार्मिक नहीं, सांस्कृतिक सिख कहते हैं। उनमें आजादी के बाद देश को टुकडे करने वाली ताकतों के खिलाफ अकेले खडे होने की हिम्मत थी। उन्होंने अतिवादियों का विरोध किया। एक बार उन्होंने जिंदगी दांव पर लगा कर दिल्ली में दो ऐसे मुसलमानों की रक्षा की, जिन पर गोहत्या का आरोप था और भीड ने उन्हें मारने के लिए घेर लिया था। यह भारत-पाकिस्तान विभाजन के कुछ दिनों बाद की बात है। मैं इन दोनों को छूने नहीं दूंगा। वे निर्दोष हैं। आप चाहें तो पुलिस में रिपोर्ट कर सकते हैं। आप उनसे मारपीट नहीं कर सकते। ऐसी हत्याएं बंद होनी चाहिए। उन्होंने अकेले भीड से बात की। भीड के लौटने के बाद खुशवंत घर लौटे तो उन्हें जबर्दस्त डांट पडी। घर वालों ने पूछा, हीरो बनने की क्या जरूरत थी? लेकिन खुशवंत को कोई डर नहीं था। वे समझते थे कि बुरे वक्त में सभी भारतीयों को यही करना चाहिए। खुशवंत ने खालिस्तान के पैरोकारों की खुली आलोचना की। उन्होंने जरनैल सिंह भिंडरावाले को नरसंहार के लिए उतावला कहा। इस बयान से वे मुश्किल में फंस गए थे। आतंकवादियों ने उन्हें जान से मारने की धमकी दी। लगभग दस सालों तक उनके घर के बाहर सुरक्षाकर्मी तैनात रहे, लेकिन प्रतिक्रियावादियों के खिलाफ वे लिखते रहे। मैंने दक्षिणपंथियों के खिलाफ बात की तो उन्होंने मेरा समर्थन किया। मेरे सिख दोस्त बताते हैं कि सिख धर्म से उन्हें जुडाव है। उन्होंने ऑपरेशन ब्लूस्टार के बाद मिले पद्मश्री को लौटा दिया और स्वर्ण मंदिर में सेना भेजने के लिए इंदिरा गांधी की आलोचना की। आलोचनाओं का दौर खुशवंत की दो आलोचनाएं होती हैं। उनका जिक्रकरना जरूरी समझता हूं। एक तो वे इंदिरा और संजय गांधी के कट्टर समर्थक रहे और उन्होंने इमरजेंसी का अक्षम्य समर्थन किया। दूसरी, अभिव्यक्ति की आजादी के समर्थक उन्हें सलमान रूश्दी की पुस्तक द सैटेनिक वर्सेज पर लगी पाबंदी का जिम्मेदार मानते हैं। उनके मुताबिक राजीव गांधी ने उनसे आग्रह किया था कि वे किताब पढकर बताएं कि इस पर पाबंदी लगनी चाहिए कि नहीं? उन्होंने किताब पढकर उस पर पाबंदी लगाने की सिफारिश की। इस खबर पर अयातुल्लाह खुमैनी ने रूश्दी के खिलाफफतवा जारी किया। खुशवंत के करीबी कहते हैं कि उन्होंने पेंगुइन इंडिया से कहा था कि द सैटैनिक वर्सेज की वजह से दंगे हो सकते हैं। उन्होंने लिखा है, पेंग्विन को एक सलाहकार की हैसियत से मैंने द सैटेनिक वर्सेज न छापने की सलाह दी, क्योंकि इसके छपने से हिंसा हो सकती है। मैं द सैटेनिक वर्सेज पर पाबंदी के खिलाफ था। जो नहीं पढना चाहते, वे न पढें। लेकिन धार्मिक सनक व कट्टरता का क्या करेंगे? पेंगुइन ने किताब प्रकाशित की होती तो उसके दफ्तर में तोड-फोड होती, कर्मचारियों को मारा जाता। लेकिन कई लोग इस वक्तव्य से संतुष्ट नहीं हैं। उनका मानना है कि वे खुद को विवाद से अलग रख सकते थे। उनके एक आलोचक कहते हैं, खुशवंत ने सत्ता के करीब रहने के लोभ में किताब पर पाबंदी लगाने की सिफारिश की। वे अभिव्यक्ति की आजादी के समर्थक थे या नहीं, इससे पता चल जाता है। कुछ तो खास है लोग कहते हैं कि जिंदगी परफेक्ट नहीं हो, तभी चकित करती है। आरोपों के बावजूद इसमें शक नहीं कि वह विशेष हैं, राष्ट्रीय धरोहर हैं और हम जैसे व्यक्तियों के आदर्श हैं। उनकी जिंदगी में झांकने पर पता चलता है कि सही चैंपियन वही है, जो अंतिम लक्ष्य तक पहुंचने की सदियों पुरानी धारणा को नहीं मानता। खुशवंत जैसे व्यक्ति सैकडों लक्ष्यों को छूना चाहते हैं, लेकिन उनकी कोई मंजिल नहीं है। वे जज्बे-जुनून के साथ जीते व काम करते हैं। इकबाल के शब्दों में खुशवंत सिंह की जिंदगी और सफर के बारे में कहा जा सकता है कि- ढूंढता फिरता हूं मैं इकबाल अपने आपको आप ही गोया मुसाफिर, आप ही मंजिल हूं मैं। |
महेश भट्ट |
देव औरंगाबाद बिहार 824202 साहित्य कला संस्कृति के रूप में विलक्ष्ण इलाका है. देव स्टेट के राजा जगन्नाथ प्रसाद सिंह किंकर अपने जमाने में मूक सिनेमा तक बनाए। ढेरों नाटकों का लेखन अभिनय औऱ मंचन तक किया. इनको बिहार में हिंदी सिनेमा के जनक की तरह देखा गया. कामता प्रसाद सिंह काम और इनकi पुत्र दिवंगत शंकर दयाल सिंह के रचनात्मक प्रतिभा की गूंज दुनिया भर में है। प्रदीप कुमार रौशन और बिनोद कुमार गौहर की भी इलाके में काफी धूम रही है.। देव धरती के इन कलम के राजकुमारों की याद में .समर्पित हैं ब्लॉग.
बुधवार, 27 जुलाई 2011
रचनात्मक ऊर्जा से भरपूर हैं खुशवंत सिंह: महेश भट्ट
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जरा गांव में कुछ दिन ( या घर लौटकर ) तो देखो 😄😄
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