बुधवार, 27 जुलाई 2011

सेक्सी सरदार-ख़तरनाक 'सेक्सुअल टेरेरिस्ट' हैं खुशवंत सिंह

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अतुल अग्रवालअतुल अग्रवाल और खुशवंत सिंह का बहुत गहरा नाता होता जा रहा है,जहा एक जाना जाता है फालतू की बकबास और अश्लीलता के लिए तो दूसरा जाना जाता है उसके विरोध के लिए.जी हाँ हम बात कर रहे है अतुल अग्रवाल जी की जिन्होंने खुशवंत सिंह के गैर सामाजिक लेखों का एक सटीक शैली में विरोध किया था..तो आपके सामने एक बार फिर हाजिर है उसी सटीकता के साथ लिखा गया एक और लेख इस मुद्दे पर आप अपनी राय दे सकते है की क्या सच में खुशवंत सिंह कुछ अच्छा काम कर रहा है या फिर अतुल अग्रवाल का विरोध करना नाजायज है?आकी राय को प्रकाशित किया जायेगा!

मशहूर लेखक खुशवंत सिंह सुधर नहीं सकते। अब मुझे इसका यकीन हो चला है। कहते हैं उम्र के आखिरी पड़ाव में इंसान भगवान को याद करता है और पूजा-पाठ तथा ईश-भक्ति कर अपने पापों के लिए क्षमा मांगता है ताकि उसका परलोक सुधर सके। लेकिन यहां तो उल्टी ही गंगा बह रही है। क्षमा मांगने की तो छोड़िए जनाब, पाप पर पाप किए जाने की लत लगातार बदतर होती जा रही है। दिन-ब-दिन वयोवृद्ध लेखक की ठरक नई-नई हदें बनाती और लांघती जा रही है। ऐसा लग रहा है कि 93 साल की इस कंपकंपाती उम्र में खुशवंत सिंह साहब ने कसम खा ली है कि जनाब वो सभी पाप अभी ही कर लेंगे जो उन्होने ताउम्र नहीं किए या नहीं कर पाए। तभी तो अपनी लंपटता की नई-नई मिसालें देते अघा नहीं रहे हैं वो। वो खुद को भारत का 'अकेला बास्टर्ड' कहवाने में भी गर्व महसूस करते हैं। कोई अगर उन्हे 'पाकिस्तानी रंडी की औलाद' कहे तो भी उनका खून उबाल नहीं मारता और वो मुस्कुराते हुए इसे कुबूल कर लेते हैं। न सिर्फ इस गंदी गाली को सिर-माथे पर लेते हैं बल्कि अपने तमाम जानने वालों को दिखा कर खुश भी होते हैं।
सवाल ये है कि क्या कोई भी गैरतमंद इंसान अपने होशोहवास में इतनी गलीज़ बात सोच अथवा कह सकता है? मैं अपने पाठकों से पूछता हूं कि अगर मैं आपको 'पाकिस्तानी रंडी की औलाद' या 'पाकिस्तानी कुत्ता' या 'लंपट' कहूं तो क्या आपको मुझ पर क्रोध नहीं आएगा? क्या आपका जी नहीं करेगा कि झपट कर मेरा मुंह नोच लें? तो फिर इतनी भद्दी-भद्दी गालियां सुनने या पढने के बावजूद खुशवंत सिंह को खुद पर रश्क क्यों नहीं आता? सवाल ये भी है कि क्या वाकई खुशवंत सिंह अपने होशो-हवास में हैं? या वो इस सूत्र पर अमल कर रहे हैं कि 'बदनाम हुए तो क्या, नाम न होगा'। 'नेगेटिव पब्लिसिटी' को आत्मसम्मान मानने के फेर में तो कहीं खुशवंत ऐसी ऊल-जुलूल बातें नहीं लिख देते? कहीं ये खुशवंत सिंह का 'शाब्दिक आतंकवाद' तो नहीं? कहीं अतृप्त यौन कुंठाओं के शिकार होकर 'सेक्सुअल टेरेरिस्ट' तो नहीं बन गए हैं खुशवंत सिंह? ज़ाहिरा तौर पर इन सवालों के जवाब तलाशे जाने होंगे।
2 मई के 'दैनिक हिंदुस्तान' अख़बार में अपने कॉलम में खुशवंत सिंह ने मेरे लेख का जवाब दिया। ये लेख मैनें खुशवंत सिंह के 18 अप्रैल को लिखे लेख के जवाब में http://www.hindikhabar.com/ पर लिखा था। शीर्षक था 'खुशवंत सिंह की अतृप्त यौन फड़फड़ाहट' (http://www.hindikhabar.com/article_details.php?NewsID=127) इस लेख में मैनें खुशवंत सिंह को 'ठरकी खुशवंत' कहा और उसके पीछे प्रमाणिक तर्क दिए। तर्क ऐसे अकाट्य तथ्यों पर आधारित थे कि खुद खुशवंत सिंह साहब उन्हे गलत नहीं साबित कर सकते थे और न ही उन्होने ऐसा करने का ख़तरा मोल लिया।
अपने ताज़ा लेख में खुशवंत सिंह ने खुद पर गर्व करते हुए कहा है कि "मुझे हमेशा से ही नफरत भरी चिट्ठियां मिलती रही हैं। आमतौर पर मुझे इस तरफ की चिट्ठियां तब आती हैं जब मैं हिंदुस्तान-पाकिस्तान पर कुछ लिखता हूं। या अपने देश में मुसलमानों की दिक्कतों पर लिखने की कोशिश करता हूं। इन चिट्ठियों में अमूमन ये सलाह होती है कि 'पाकिस्तान लौट जाओ' या गालियां होती हैं 'पाकिस्तानी कुत्ते' या 'पाकिस्तानी रंडी की औलाद'। मैं इन्हे संभाल कर रखता हूं और अपने यहां आने वालों को दिखलाता हूं।" खुशवंत आगे लिखते हैं कि "पिछले कुछ महीनों से मुझे ऐसी गालियों भरी चिट्ठियां जब नहीं मिलीं तो मुझे लगा कि मैं लिखने में कुछ गड़बड़ कर रहा हूं और तभी अचानक नफ़रत भरी चिट्ठियों की 'ऑस्कर' आई।"
खुशवंत सिंह ने खुद अपने ठरकपन को उजागर करते हुए लिखा है कि "मैनें अपने एक कॉलम में 4 औरतों के बारे में लिखा था। मुसलमानों से उनकी नफरत को मैनें उनकी ज़िंदगी में सेक्स से जोड़ा था, उनमें उमा भारती भी थीं। उमा ने मुझे हिंदी में चिट्ठी लिखी है। मुझे औरतों के खिलाफ साबित कर दिया है। काश, ये सच होता। मैं तो औरतों को चाहने के चक्कर में बदनाम हूं।" लगे हाथों वो उमा भारती और उनके 'किस के किस्से' को भी कुरेदने से बाज़ नहीं आते।





देखिए आप, खुशवंत सिंह को कितनी बड़ी खुशफहमी है? 93 साल का ये धूर्त इंसान किस हद तक मक्कारी कर रहा है? पहले 4 हिंदू औरतों का मान-मर्दन करता है और बाद में उसे सही करार देने की कुत्सित कोशिश भी करता है? उसे शर्म नहीं आती कि जिन औरतों के बारे में वो अभद्र भाषा का इस्तेमाल कर रहा है अगर उनकी जगह उसके अपने घर की औरतें होतीं तो? क्या तब भी वो इसी तरह से यौन-आतंकवाद का मुज़ाहिरा करता? आखिर अपनी बेटी, बहू अथवा पत्नी के बारे में खुशवंत सिंह ऐसी गंदी बातें क्यों नहीं लिखते? अगर खुशवंत सिंह में हिम्मत है और वो खुद के बड़ा 'तीस मार खां' लेखक होने का ढिंढोरा पीटने का दम भरते फिरते हैं तो अपने परिवार की औरतों के बारे में ऐसी ऊट-पटांग बातें लिख कर दिखाएं। उन्ही के घर की औरतें मार-मार कर उन्हे घर के बाहर फेंक देंगी और फिर लोग कहेंगे कि धोबी का कुत्ता, न घर का न घाट का।

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