बुधवार, 13 जुलाई 2011

भ्रष्टाचार, क्रांति और साहित्य




जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

राजनीति में भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा है लेकिन साहित्य में यह कभी मुद्दा ही नहीं रहा। यहां तक संपूर्ण क्रांति आंदोलन के समय नागार्जुन ने भ्रष्टाचार पर नहीं संपूर्ण क्रांति पर लिखा,इन्दिरा गांधी पर लिखा। जबकि यह आंदोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ था। क्या वजह है लेखकों को भ्रष्टाचार विषय नहीं लगता। जबकि हास्य-व्यंग्य के मंचीय कवियों ने भ्रष्टाचार पर जमकर लिखा है। साहित्य में भ्रष्टाचार की अनुपस्थिति इस बात का संकेत है कि लेखक इसे मसला नहीं मानते। दूसरा बड़ा कारण साहित्य का मासकल्चर के सामने आत्म समर्पण और उसके साथ सामंजस्य बिठाने की कोशिश करना है। साहित्य में मूल्य,नैतिकता,परिवार और राजनीतिक भ्रष्टाचार पर खूब लिखा गया है लेकिन आर्थिक भ्रष्टाचार पर नहीं लिखा गया है। आर्थिक भ्रष्टाचार सभी किस्म के भ्रष्टाचरण की धुरी है। यह प्रतिवाद को खत्म करता है। उत्तर आधुनिक अवस्था का यह प्रधान लक्षण है। इसकी धुरी है व्यवस्थागत भ्रष्टाचार। इसके साथ नेताओं में संपदा संचय की प्रवृत्ति बढ़ी है। अबाधित पूंजीवादी विकास हुआ है। उपभोक्तावाद की लंबी छलांग लगी है और संचार क्रांति हुई है। इन लक्षणों के कारण सोवियत अर्थव्यवस्था धराशायी हो गयी। सोवियत संघ और उसके अनुयायी समाजवादी गुट का पराभव हुआ। फ्रेडरिक जेम्सन के शब्दों में यह ‘आधुनिकीकरण की छलयोजना’ है। अस्सी के दशक से सारी दुनिया में सत्ताधारी वर्गों और उनसे जुड़े शासकों में पूंजी एकत्रित करने,येन-केन प्रकारेण दौलत जमा करने की लालसा देखी गयी। इसे सारी दुनिया में व्यवस्थागत भ्रष्टाचार कहा जाता है और देखते ही देखते सारी दुनिया उसकी चपेट में आ गयी। आज व्यवस्थागत भ्रष्टाचार सारी दुनिया में सबसे बड़ी समस्या है। पश्चिम वाले जिसे रीगनवाद,थैचरवाद आदि के नाम से सुशोभित करते हैं यह मूलतः ‘आधुनिकीकरण की छलयोजना’ है , इसकी धुरी है व्यवस्थागत भ्रष्टाचार।रीगनवाद-थैचरवाद को हम नव्य आर्थिक उदारतावाद के नाम से जानते हैं । भारत में इसके जनक हैं नरसिंहाराव-मनमोहन । यह मनमोहन अर्थशास्त्र है। भ्रष्टाचार को राजनीतिक मसला बनाने से हमेशा फासीवादी ताकतों को लाभ मिला है। यही वजह है लेखकों ने आर्थिक भ्रष्टाचार को कभी साहित्य में नहीं उठाया। भ्रष्टाचार वस्तुतः नव्य उदार आर्थिक नीतियों से जुड़ा है। आप भ्रष्टाचार को परास्त तब तक नहीं कर सकते जबतक नव्य उदार नीतियों का कोई विकल्प सामने नहीं आता।

भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन प्रतीकात्मक प्रतिवादी आंदोलन रहे हैं। इन आंदोलनों को सैलीब्रिटी प्रतीक पुरूष चलाते रहे हैं। ये मूलतःमीडिया इवेंट हैं। ये जनांदोलन नहीं हैं। प्रतीक पुरूष इसमें प्रमुख होता है। जयप्रकाश नारायण के सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन से लेकर अन्ना हजारे के जन लोकपाल बिल आंदोलन तक इसे साफ तौर पर देख सकते हैं। मीडिया पुरूष हैं। इवेंट पुरूष हैं। इनकी अपनी वर्गीय सीमाएं हैं और वर्गीय भूमिकाएं हैं। प्रतीक पुरूषों के संघर्ष सत्ता सम्बोधित होते हैं जनता उनमें दर्शक होती है। टेलीविजन क्रांति के बाद पैदा हुई मीडिया आंदोलनकारियों की इस विशाल पीढ़ी का योगदान है कि इसने जन समस्याओं को मीडिया टॉक शो की समस्याएं बनाया है। अब जनता की समस्याएं जनता में कम टीवी टॉक शो में ज्यादा देखी -सुनी जाती हैं। इनमें जनता दर्शक होती है। इन प्रतीक पुरूषों के पीछे कारपोरेट मीडिया का पूरा नैतिक समर्थन है।

उल्लेखनीय है भारत को महमूद गजनवी ने जितना लूटा था उससे सैंकड़ों गुना ज्यादा की लूट नेताओं की मिलीभगत से हुई है। नव्य उदार नीतियों का इस लूट से गहरा संबंध है। चीन और रूस में इसका असर हुआ है चीन में अरबपतियों में ज्यादातर वे हैं जो पार्टी मेंम्बर हैं या हमदर्द हैं,इनके रिश्तेदारसत्ता में सर्वोच्च पदों पर बैठे हैं। यही हाल सोवियत संघ का हुआ।

भारत में नव्य उदारतावादी नीतियां लागू किए जाने के बाद नेताओं की सकल संपत्ति में तेजी से वृद्धि हुई है। सोवियत संघ में सीधे पार्टी नेताओं ने सरकारी संपत्ति की लूट की और रातों-रात अरबपति बन गए। सरकारी संसाधनों को अपने नाम करा लिया। यही फिनोमिना चीन में भी देखा गया। उत्तर आधुनिकतावाद पर जो फिदा हैं वे नहीं जानते कि वे व्यवस्थागत भ्रष्टाचार और नेताओं के द्वारा मचायी जा रही लूट में वे मददगार बन रहे हैं। मसलन गोर्बाचोव के नाम से जो संस्थान चलता है उसे अरबों-खरबों के फंड देकर गोर्बाचोव को रातों-रात अरबपति बना दिया गया। ये जनाव पैरेस्त्रोइका के कर्णधार थे। रीगन से लेकर क्लिंटन तक और गोर्बाचोब से लेकर चीनी राष्ट्रपति के दामाद तक पैदा हुई अरबपतियों की पीढ़ी की तुलना जरा हमारे देश के सांसदों-विधायकों की संपदा से करें। भारत में सांसदों-विधायकों के पास नव्य आर्थिक उदारतावाद के जमाने में जितनी तेजगति से व्यक्तिगत संपत्ति जमा हुई है वैसी पहले कभी जमा नहीं हुई थी। अरबपतियों-करोड़पतियों का बिहार की विधानसभा से लेकर लोकसभा तक जमघट लगा हुआ है। केन्द्रीयमंत्रियों से लेकर मुख्यमंत्रियों तक सबकी दौलत दिन -दूनी रात चौगुनी बढ़ी है। नेताओं के पास यह दौलत किसी कारोबार के जरिए कमाकर जमा नहीं हुई है बल्कि यह अनुत्पादक संपदा है जो विभिन्न किस्म के व्यवस्थागत भ्रष्टाचार के जरिए जमा हुई है। कॉमनवेल्थ भ्रष्टाचार, 2जी स्पैक्ट्रम घोटाला आदि तो उसकी सिर्फ झांकियां हैं। अमेरिका मे भयानक आर्थिकमंदी के बाबजूद नेताओं की परिसंपत्तियों में कोई गिरावट नहीं आयी है। कारपोरेट मुनाफों में गिरावट नहीं आयी है। भारत में भी यही हाल है।

इसी संदर्भ में फ्रेडरिक जेम्सन ने मौजूदा दौर में मार्क्सवाद की चौथी थीसिस में लिखा है इस संरचनात्मक भ्रष्टाचार का नैतिक मूल्यों के संदर्भ में कार्य-कारण संबंध के रूप में व्याख्या करना भ्रामक होगा क्योंकि यह समाज के शीर्ष वर्गों में अनुत्पादक ढंग से धन संग्रह की बिलकुल भौतिक सामाजिक प्रक्रिया में उत्पन्न होती है। इस बात पर बल देना अनिवार्य है कि कार्य-कुशलता, उत्पादकता और वित्तीय संपन्नता जैसे संवर्ग तुलनात्मक हैं। अभिप्राय यह है कि उनके परिणामों की भूमिका उस क्षेत्र में आती है जिसमें अनेक असमान परिघटनाएं प्रतिस्पर्धा कर रही हों। अधिक कार्यकुशल और उत्पादक तकनीकी पुरानी मशीनरी और पुराने संयंत्र को तभी विस्थापित करती हैं, जब पुरानी मशीनरी और संयंत्र अधिक कार्यकुशल तथा आधुनिक तकनीकी के कार्यक्षेत्र में प्रवेश करते हैं और उनके साथ प्रतिस्पर्धा करते हैं।


इसी बात को सोवियत संघ के संदर्भ में आगे बढ़ाते हुए जेम्सन ने लिखा सोवियत संघ अकुशल हो गया और जब इसने अपने को ‘विश्व-तंत्र’ के साथ एकीकृत करने का प्रयास किया, तो यह विघटित हो गया क्योंकि विश्व-तंत्र आधुनिकता से उत्तरआधुनिकता की ओर अग्रसर था। यह एक ऐसा तंत्र था जो संचालन के नए नियमों के हिसाब से उत्पादकता की अतुलनीय द्रुत गति से दौड़ रहा था। वहीं सोवियत संघ में ऐसा कुछ भी नहीं था, जिसकी इससे तुलना की जा सके। सांस्कृतिक अभिप्रेरकों (उपभोक्तावाद, नई सूचना प्रौद्योगिकी आदि) द्वारा प्रेरित, सुविचारित सामरिक-तकनीकी प्रतिस्पर्धा में आकृष्ट होकर, ऋण तथा तीव्र होते वाणिज्यिक सह-अस्तित्व के रूपों के प्रलोभन में आकर रूस एक ऐसे तत्व में प्रवेश कर गया जहां इसका अस्तित्व समाप्त हो गया। यह दावा किया जा सकता है कि सोवियत संघ और इसके अनुषंगी देश, जो अब तक अपने ही विशिष्ट दबाव क्षेत्र में अलग-अलग थे मानो किसी विचारधारात्मक सामाजिक, आर्थिक, भूगणितीय उभार (गुंबज) के नीचे दबे हों,इसने अविवेकपूर्ण ढंग से बिना अंतरिक्ष-पोशाक तैयार किए ही वायुबंध खोलना आरंभ कर दिया और इस प्रकार स्वयं को और अपने संस्थानों को बाह्य विश्व के तीव्र और अपरिमेय दबाव के हवाले कर दिया। इसके परिणाम की तुलना हम प्रथम परमाणु बम के विस्फोट से हुई उन तुच्छ ढांचों की हालत से कर सकते हैं जो इस बम विस्फोट के स्थल के सबसे नजदीक थे, या फिर उन असुरक्षित जीवों की हालत से कर सकते हैं जो समुद्र तल पर उपस्थित थे जब जल में उत्पन्न विकृत दबाव का भार उन पर पड़ा होगा, खासकर जब यह दबाव से ऊपर की ओर उठ रहा होगा। यह परिणाम वॉलरस्टीन की दूरदर्शितापूर्ण चेतावनी की पुष्टि करता है। उन्होंने कहा था कि सोवियत ब्लॉक ने अपनी महत्ता के बावजूद पूंजीवादी तंत्र के विकल्प के रूप में किसी तंत्र का निर्माण नहीं किया। बल्कि इसके भीतर एक तंत्र-विरोधी क्षेत्र या स्थान बनाया, जो अब स्पष्टतया समाप्त हो गया है। यदि शेष कुछ बचे हैं तो वे कुछ पॉकेट्स हैं जिनमें आज भी विविध समाजवादी प्रयोग किए जा रहे हैं।

उत्तर आधुनिकतावाद के दौर में क्रांति पर सबसे तेज हमले हुए हैं। इन हमलों के आंतरिक और बाह्य दोनों ही किस्म के रूप हैं। क्योंकि उत्तर आधुनिकता के दौर पर क्रांति की अवधारणा के खिलाफ जितना लिखा गया है उतना अन्य किसी अवधारणा के बारे में नहीं लिखा गया है। क्रांति संबंधी बहस का बृहत्तर रूप में गहरा संबंध सिद्धांत और व्यवहार की एकता के साथ है। इस प्रसंग में पहली बात यह कि क्रांति का वास्तव अर्थ इन दिनों विकृत हुआ है। उसका अवमूल्यन हुआ है। क्रांति का अर्थ परिवर्तन मान लिया गया है और प्रत्येक परिवर्तन को क्रांति कहने का रिवाज चल निकला है। क्रांति के अर्थ का यह विकृतिकरण है। क्रांति का अर्थ है बुनियादी या आमूल-चूल परिवर्तन। क्रांति पर बहस करते हुए आमतौर पर कुछ इमेजों,कुछ आख्यानों, कुछ देशों ,कुछ खास क्षण विशेष आदि का जिक्र किया जाता है। क्रांति पर बात करने के लिए उसे साम्यवादी और साम्यवादविरोधी विचारकों और प्रचार सामग्री के द्वारा निर्मित इमेजों से बाहर आकर देखने की जरूरत है।

क्रांति अनंत क्षण में नहीं बल्कि समकालिक क्षण में घटित होती है। इसमें प्रत्येक चीज एक-दूसरे जुड़ी होती है। क्रांति का मतलब राजतंत्र या समाजतंत्र का ‘सुधार’ या ‘अल्प सुधार’ नहीं है क्रांति का मतलब किसी काल्पनिक मानसिक जगत में परिवर्तन से नहीं है। बल्कि इसका संबंध आमूल-चूल परिवर्तन से है। ये परिवर्तन एक-दूसरे से अभिन्न रूप से जुड़े हैं। क्रांति कोई बनी- बनायी परंपरा का निर्माण नहीं है। बल्कि मूलभूत परिवर्तनों का पुनरान्वेषण है। क्रांति कोई तयशुदा तर्कसंघर्ष नहीं है । इसी प्रसंग में प्रसिद्ध मार्क्सवादी फ्रेडरिक जेम्सन ने तीसरी थीसिस में लिखा है ,सामाजिक क्रांति अनंत समय का एक क्षण मात्र नहीं है। प्रत्युत समकालिक तंत्र में परिवर्तन की आवश्यकता की पुष्टि है, जिसमें हर चीज एक साथ है और एक दूसरे से अंतर्संबधित है। इस प्रकार का तंत्र संपूर्ण तंत्रगत परिवर्तन की मांग करता है, न कि अल्प ‘सुधार’, जिसे निंदात्मक अर्थ में ‘मनोराज्य विषयक’ कहा जाता है, जो भ्रामक है, व्यवहार्य नहीं। अभिप्राय यह है कि यह तंत्र वर्तमान सामाजिक व्यवस्था के स्थान पर एक रैडिकल सामाजिक विकल्प की विचारधारात्मक दृष्टि की मांग करता है, ऐसा कुछ जिसे वर्तमान तर्कमूलक संघर्ष के अंतर्गत दिया हुआ या विरासत में मिला नहीं माना जाए, बल्कि जो पुनरान्वेषण की मांग करे। धार्मिक रूढ़िवाद (चाहे वह इसलामी, ईसाई, या हिंदू रूढ़िवाद हो) जो उपभोक्तावाद या ‘अमरीकी जीवन शैली’ का रैडिकल विकल्प देने का दावा करता है, तभी महत्वपूर्ण अस्तित्व प्राप्त करता है जब पारंपरिक वाम विकल्प खासकर मार्क्सवाद और साम्यवाद की महान क्रांतिकारी परंपराएं अचानक अनुपलब्ध प्रतीत होने लगती हैं। क्रांति एक प्रक्रिया है और समकालिक परवर्ती पूंजीवादी तंत्र का अवसान भी है। लेकिन इसका प्रस्थान बिंदु राष्ट्रीय सप्रभुता की रक्षा के सवालों से आरंभ होता है। परवर्ती पूंजीवाद के जमाने में राष्ट्रीय संप्रभुता ही दांव पर लगी है। किसी भी देश को स्वतंत्र रूप से अपनी नीतियां बनाने और विकास करने का हक नहीं है। क्रांतिकारी ताकतों का यह विश्व एजेण्डा है।क्रांतिकारी ताकतों का आंतरिक एजेण्डा है हाशिए के लोगों को उनकी जनवादी मांगों के इर्दगिर्द एकजुट करना। समाज में प्रत्येक व्यक्ति को संघर्ष की अवस्था में इस या उसके साथ खड़े होने,प्रतिबद्ध होने के लिए तैयार करना। परवर्ती पूंजीवाद ने गैर प्रतिबद्धता की हवा चला दी है,इस हवा को जनवादी प्रतिबद्धता के आधार पर ही चुनौती दी जा सकती है। आम लोगों को जनवादी विचारों के प्रति प्रतिबद्ध बनाना,हाशिए के लोगों की जनवादी मांगों के आधार पर एकजुट करना, उनके संगठनों और संघर्षों को आयोजित करना वास्तव अर्थों में क्रांति के मार्ग पर ही चलना है।

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