बुधवार, 26 नवंबर 2014

फासीज्म का जहर बडा मीठा होता है





विभूति नाराय.ण रॉय

 

 

भारत भी पाकिस्तान की तरह एक धर्माधारित राज्य अथवा हिन्दू राष्ट्र बन गया होता तो आज उसकी शक्ल क्या होती? उसमें रहने वाले शूद्रों, पिछड़ों या स्त्रियों की इस समाज में क्या स्थिति होती, इसकी कल्पना मात्र से दहशत होती है।

यह नेहरू के नेतृत्व, धर्मनिरपेक्षता के प्रति निष्ठा और जनता से सीधा रिश्ता कायम करने की उनकी क्षमता का कमाल था कि 1952 के पहले आम चुनाव में कांग्रेस को लोकसभा की तीन चौथाई से अधिक सीटें मिलीं और हिंदुत्व की तीनों पार्टियां : हिन्दू महासभा, रामराज्य परिषद और भारतीय जनसंघ मिलकर भी बमुश्किल दहाई तक पहुँच सकीं... विभूति नारायण राय
हाल ही में केरल आर.एस.एस. के मुखपत्र केसरी में किन्हीं बी. गोपाल कृष्णन का एक लेख प्रकाशित हुआ है। लेख एक ऐसी दमित इच्छा का सार्वजनिक प्रकटीकरण है जिसे वर्षों से आर.एस.एस. किसी गहरे राज की तरह अपने सीने में दफ्न किये हुए था। लेखक की राय है कि नाथूराम गोडसे को महात्मा गांधी की जगह जवाहरलाल नेहरू की हत्या करनी चाहिए थी। क्यों डरता है संघ जवाहरलाल नेहरू से? आज भी जीवित जवाहरलाल से मृत जवाहरलाल उसे ज्यादा क्यों डराते हैं? इन प्रश्नों के उत्तर तलाशने के लिए हमें उन दस्तावेजों और तथ्यों को खँगालना होगा जिनका रामचन्द्र गुहा ने अपनी पुस्तक 'इंडिया आफ्टर गांधी' में जमकर इस्तेमाल किया है।
जनवरी 1952 में देश में संविधान के मुताबिक पहले आम चुनाव हुए थे, जिनके लिये वर्ष 1951 में जवाहरलाल नेहरू देश भर में सभाएँ करते रहे। कल्पना कीजिये एक ऐसे समय की जब हिंसा और घृणा की बुनियाद पर एक नया राष्ट्र बन रहा था, दो राष्ट्र के सिद्धांत पर बगल में एक धर्माधारित राष्ट्र बन गया था और मृत गांधी की मजबूत दार्शनिक उपस्थिति के बावजूद कांग्रेस का एक बड़ा तबक़ा भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहता था। ऐसे समय में किसी चुनाव का मुख्य मुद्दा क्या हो सकता था? धर्मनिरपेक्षता तो कत्तई नहीं। लोगों की धार्मिक भावनाओं को भड़का कर उनसे वोट माँगना ज्यादा आसान था। पर जवाहरलाल नेहरू ने लुधियाना से शुरू करके देश भर में जो 300 से अधिक जन सभाएँ सम्बोधित कीं उन सबमें केन्द्रीय विषय सिर्फ एक प्रश्न था और वह यह कि नये राष्ट्र का स्वरूप क्या होगा? क्या भारत धर्माधारित हिन्दू राज्य बनेगा या फिर यह एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में विकसित होगा। नेहरू हर सभा में यह सवाल उठाते और फिर विस्तार से इसका जवाब तलाशते। यह वह  दौर था जब उनके श्रोताओं में से मुश्किल से 15-20 प्रतिशत ही साक्षर रहे होंगे। हम कल्पना कर सकते हैं कि कितनी मुश्किल पड़ी होगी नेहरू को अपने भोले-भाले, धर्मभीरू और अशिक्षित श्रोताओं को यह समझाने में कि भारत का कल्याण एक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र बनने में है और हिन्दू मुसलमान दो अलग राष्ट्र नहीं हैं। वे प्रेम से एक साथ भी रह सकते हैं। गांधी की शहादत को अधिक दिन नहीं हुए थे, शायद इसलिए भी सामान्य जन को समझाना आसान था कि साम्प्रदायिकता का जहर कितना घातक है। देश की चारों दिशाओं में नेहरू घूमे, हेलीकाप्टरों का जमाना नहीं था इसलिए उनकी यात्रायें मोटर गाड़ी, रेलवे और मोटर बोट जैसे साधनों से हुईं।
फ़ासिज्म का जहर बड़ा मीठा होता है। रक्त शुद्धता, राष्ट्र प्रेम, जाति गौरव या मुख्य धारा की चाशनी में लिथड़ी यह ऐसी नींद की गोली है जिसके नशे में पूरा राष्ट्र सोया रह सकता है। जब तक नींद का खुमार उतरता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।
रामचन्द्र गुहा ने नेहरू की सभाओं के दूसरे दिन छपने वाले अख़बारों को खंगाला और जनता की प्रतिक्रिया को भांपने की कोशिश की। पंजाब से मद्रास और गुजरात से आसाम तक फैले बहुभाषिक और भिन्न सांस्कृतिक पृष्ठभूमि वाले श्रोता समुदाय को खांटी हिन्दुस्तानी में नेहरू ने जो कुछ समझाया  उसका चमत्कारिक असर पड़ा था। अलग-अलग शहरों से अलग-अलग भाषाओं, खास तौर से अँग्रेज़ी में छपने वाले अखबारों में नेहरू की जनसभाओं की विस्तार से जो रपटें छपीं, गुहा ने उनका गहराई से अध्ययन किया। इन रपटों का सबसे दिलचस्प हिस्सा जन भावनाओं से सम्बन्धित होता था। मैले-कुचैले कपड़ों में जो गरीब गुरबा नेहरू को सुन कर बाहर निकलता था उसकी प्रतिक्रिया से स्पष्ट हो जाता कि वक्ता और श्रोता के बीच अच्छा तादात्म्य स्थापित हो रहा था। यह नेहरू के नेतृत्व, धर्मनिरपेक्षता के प्रति निष्ठा और जनता से सीधा रिश्ता कायम करने की उनकी क्षमता का कमाल था कि 1952 के पहले आम चुनाव में कांग्रेस को लोकसभा की तीन चौथाई से अधिक सीटें मिलीं और हिंदुत्व की तीनों पार्टियां : हिन्दू महासभा, रामराज्य परिषद और भारतीय जनसंघ मिलकर भी बमुश्किल दहाई तक पहुँच सकीं। परिणामस्वरूप भारत एक धर्मनिरपेक्ष गणराज्य बना जिसके लिए संघ ने नेहरू को कभी माफ़ नहीं किया। भारतीय राज्य की यह धर्मनिरपेक्षता थी तो लूली लंगड़ी ही और कई बार तो, खास तौर से जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद, भारतीय राज्य अपने अल्पसंख्यकों के साथ जो व्यवहार करता था उसे आपराधिक कहा जा सकता है पर इसके बावजूद जो गणराज्य स्थापित हुआ  उसमें बहुत सी ऐसी संस्थायें बनीं और क्रमश: मजबूत होती गईं जिनके चलते भारतीय राज्य के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को नष्ट करना न सिर्फ मुश्किल बल्कि दिनोंदिन असम्भव होता गया। इन्ही संस्थाओं में से एक सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि धर्मनिरपेक्षता भारतीय संविधान की बुनियाद है और उसके साथ छेड़छाड़ नहीं की जा सकती।

वर्तमान साहित्य

अगस्त–सितम्बर, 2014

Editorial, Vartman Sahitya, Vibhuti Narayan Rai, वर्तमान साहित्य, विभूति नारायण राय, सम्पादकीय, indian fascism, Politics, RSS,

दुर्लभ साहित्य विशेषांक

संपादकीय - कबिरा हम सबकी कहैं - विभूति नारायण राय
कुछ ऐतिहासिक संवाद - संपादकीय
अनुमोदन का अन्त - महावीर प्रसाद द्विवेदी
सम्पादक की विदाई - महावीर प्रसाद द्विवेदी
विचारार्थ (कल्पना की मानक वर्तनी)
‘तारसप्तक’ - कुछ साधारण तथ्य - श्याम परमार
इतिहास–संस्कृति
साम्राज्यवादी इतिहासकार और भारत में अंग्रेज़ी राज - डॉ. राममनोहर लोहिया
संस्कृति, साहित्य और समीक्षा - देवराज
अभिलेख
हिन्दी–साहित्य के इतिहास–ग्रन्थ और आचार्य शुक्ल की देन - बाबू गुलाबराय
कविकर्म की कहानी - श्री हजारी प्रसाद द्विवेदी
वर्तमान हिन्दी–आलोचना - उपलब्धि और अभाव - नलिन विलोचन शर्मा
कवि निराला - रामविलास शर्मा
हिंदी आलोचना - श्री प्रकाश चंद्र गुप्त
जैनेन्द्र के उपन्यास स्वच्छन्दतावादी परिप्रेक्ष्य में - बच्चनसिंह
सुमित्रानन्दन पन्त - नरेन्द्र शर्मा
विशिष्ट कवि - गजानन माधव मुक्तिबोध - नामवर सिंह
संस्मरण
महाकवि जयशंकर ‘प्रसाद’ - शिवपूजन सहाय
आचार्य शिवपूजन सहाय - नलिनविलोचन शर्मा
अनूदित साहित्य
मेरा मानसिक विकास - बर्ट्रैड रसेल
हम अपने समय के लिए लिखते हैं - ज्यॉ पॉल सार्त्र
परख
‘दिनकर’ की ‘उर्वशी’ - भगवतशरण उपाध्याय
एण्टन चेखव - एक इंटरव्यू - मोहन राकेश
निकष - नवीन दृष्टिकोण का प्रतीक - गिरिजाकुमार माथुर
संविधान के प्रावधानों ने अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता सुनिश्चित की जिसकी मदद से एक प्रभावी मीडिया निर्मित हो सका और जिसके कारण लगभग हर दंगे के बाद अल्पसंख्यकों की बदहाली की लताड़ भारतीय राज्य को झेलनी पड़ती है। पिछले छ:-सात दशकों में मानवाधिकारों के पक्ष में खड़े होने वाले नागरिक समाज संगठन भी संविधान के विभिन्न प्रावधानों से ही संभव हो सके हैं। कल्पना कीजिये कि भारत भी पाकिस्तान की तरह एक धर्माधारित राज्य अथवा हिन्दू राष्ट्र बन गया होता तो आज उसकी शक्ल क्या होती? उसमें रहने वाले शूद्रों, पिछड़ों या स्त्रियों की इस समाज में क्या स्थिति होती, इसकी कल्पना मात्र से दहशत होती है। यदि 1952 में आज वाले अच्छे दिन आये होते तब स्थिति भिन्न होती पर अब तो इन संस्थाओं के कारण संघ के लिए भी संभव नहीं रह गया है कि वह हिन्दू राज्य बनाने की बात कर सके। जवाहरलाल नेहरू के लिए संघ के मन में जो गहरा गुस्सा भरा हुआ है उसके पीछे यही धर्मनिरपेक्षता है जो शायद बिना उनके संभव नहीं होती।
फ़ासिज्म का जहर बड़ा मीठा होता है। रक्त शुद्धता, राष्ट्र प्रेम, जाति गौरव या मुख्य धारा की चाशनी में लिथड़ी यह ऐसी नींद की गोली है जिसके नशे में पूरा राष्ट्र सोया रह सकता है। जब तक नींद का खुमार उतरता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। इतिहास ऐसे उदाहरणों  से अटा पड़ा है जिन में हमने जातियों और राष्ट्रों को आत्मविस्मरण की अंधी सुरंग में गुम होते देखा है। मजेदार बात यह है कि यह पूरी प्रक्रिया लोकतांत्रिक तरीके से सम्पन्न होती है। भारत में हाल में जो कुछ हुआ वह भी लोकतंत्र के खेल के सारे नियम कायदों के अनुरूप ही हुआ है। देश में भ्रष्टाचार था, राजनीतिक अराजकता थी, सीमाओं पर पड़ोसी मुल्कों से खतरा था, नौजवान बेरोजगारी से परेशान थे, सब कुछ ऐसा था जिसमें एक भाग्य विधाता राष्ट्र निर्माता की जरूरत थी। वैसे भी हमारे यहाँ जब जब धर्म की हानि होती है तथा असुरों का उत्पात बढ़ता है, कोई अवतार प्रकट होता है और हमें अधर्म से मुक्ति दिलाता है। अतिवाद सबसे पहले उन संस्थाओं को नष्ट करने का प्रयास करता है जिनकी वजह से उदारता पनपती है या फलती-फूलती है। पिछले कुछ महीनों में ही ऐसे प्रयास शुरू भी हो चुके हैं। भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद्, प्रसार भारती या शिमला के उच्च अध्ययन संस्थान के शीर्ष पदों पर जिन लोगों को बिठाया गया है उनकी अकादमिक विश्वसनीयता देख लीजिये आपको आगत का अनुमान लगाने में कोई कठिनाई नहीं होगी।
विभूति नारायण राय

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