बुधवार, 26 नवंबर 2014

कहानी की आलोचना

 

 

 

प्रस्तुति-- विजय आनंद त्यागी



कहानी अत्यंत लोकप्रिय विधा के रूप में स्वीकृत हो चुकी है। प्रायः सभी पत्र-पत्रिकाओं में, पाठकीय माँग के फलस्वरूप, कहानियों का छापा जाना अनिवार्य हो गया है। इस देश की प्रत्येक भाषा में केवल कहानियों की पत्रिकाएँ भी संख्या में कम नहीं हैं। रहस्य, रोमांस और साहस की कहानियों के अतिरिक्त उनमें जीवन को गंभीर रूप में लेने वाली कहानियाँ भी छपती हैं। साहित्यिक दृष्टि से इन्हीं का महत्व है। ये कहानियाँ चारित्रिक विशेषताओं, ‘मूड’, वातावरण, जटिल स्थितियों आदि के साथ सामाजिक-आर्थिक जीवन से भी संबंद्ध होती हैं।

कहानी और उपन्यास

उपन्यास का फलक कहानी के फलक की अपेक्षा व्यापर होता है। जीवन का व्यापक चित्र प्रस्तुत करने के कारण उपन्यास की संघटना में भई वैविध्य आ जाता है। उसमें सामान्यतः चरित्रों, स्थितियों, परिपार्श्वों (सेटिंग) की अधिकता होती है। कहानी में कुछ चुने हुए पात्र, स्थितियाँ आदि का समावेश ही संभव है। उपन्यास की अपेक्षा कहानी में संग्रह-त्याग का विशेष महत्त्वपूर्ण स्थान है। उपन्यास में अनेक उपकथाएँ, घटनाएँ आदि कार्य-कारण संबंधों में समन्वित रहती हैं जबकि कहानी में मूलकथा की एक धारा होती है। कहानी- उपन्यास के काल-गत आयाम में भी अंतर होता है। उदाहरणार्थ प्रेमचंद की कहानी ‘पूस की रात’ और ‘उपन्यास’ गोदान के अन्तर को रखकर उपर्युक्त तत्त्वों का विश्लेषण किया जा सकता है। ‘गोदान’ में किसान जीवन को समग्रतः लिया गया है। अर्थात उसके आर्थिक-पारिवारिक-सामाजिक जीवन के अनेक आयामों को ब्यौरेवार उद्घाटित किया गया है। उसमें शहर की कहानी भी है, गाँव की कहानी भी। गाँव के भीतर गाँव की कहानी भी। परंतु ‘पूस की रात’ में उसके जीवन के आर्थिक पहलू को भी संकेतित किया गया है, उसका ब्यौरा नहीं दिया गया है।

कहानी और एकांकी

कहानी और एकांकी के संघटन के सिद्धांत अलग-अलग हैं। कहानी श्रव्य है और एकांकी दृश्य (श्रव्य+ दृश्य) है। एकांकी के लिए मंच अनिवार्य है। दृश्य होने के कारण उसमें क्रिया-व्यापार पर दृष्टि का केन्द्रित होना ज़रूरी है। यों दोनों में जीवन का कोई एक ही पहलू अंकित होता है। पर कहानी का समस्त व्यापार संवादों के माध्यम से अभिव्यक्त होता है। उसमें वर्णन-विवरण और विश्लेषण के लिए कोई स्थान नहीं है। कहानी में नाटकीयता गुण है पर यह उसकी सार्वत्रिक विशेषता नहीं है। कहानी में संवाद का प्रयोग किया जा सकता है और किया जाता है। पर कहानी के संवाद में वह चुस्ती, पैनापन और क्रियात्मकता नहीं देखी जाती। कहानी और रेखाचित्र में कुछ इस तरह का अद्भुत साम्य है कि उन दोनों के बीच विभाजक रेखा खींचने में प्रायः त्रुटियाँ हो जाया करती हैं। कई कहानी संग्रहों में महादेवी वर्मा द्वारा लिखे रेखाचित्र भी संगृहित हैं। यशपाल के कुछ कहानी-संग्रहों में उनके रेखाचित्र भी सम्मिलित कर लिए गए हैं। रेखाचित्र मुख्यतः वर्णनात्मक और कहानी कथात्मक (नेरेटिव) होती है। कहानी की अपेक्षा रेखाचित्र में काल-तत्व (टाइम-एलिमेंट) सीमित होता है।

कहानी की आलोचना

सामानयतः कहानी मीमांसा के लिए छः तत्वों का उल्लेख किया जाता है –
  1. कथावस्तु
  2. चरित्र-चित्रण
  3. कथोपकथन
  4. देशकाल
  5. भाषाशैली और
  6. उद्देश्य।
किंतु इन प्रतिमानो का प्रयोग नाटक और उपन्यासों के लिए भी होता है। ऐसी स्थिति में भ्रांति की सृष्टि हो सकती है। लेकिन इसका परिहार यह कह कर लिया जाता है कि कहानी की कथावस्तु इकहरी होती है। चरित्र के लिए किसी पहलू का चित्रण होता है। कथोपकथन अपेक्षाकृत अधिक सूक्ष्म तथा मर्मस्पर्शी होता है। कहानी में एक देश और एक काल की ज़रूरत होती है।

कथावस्तु

का तात्पर्य है कि कहानी को अपेक्षित ढंग से संगुंफित करना। इसके अंतर्गत कथा का अनुक्रम, चरित्र-योजना, स्थिति, कथोपकथन, संकलन-त्रय आदि का समावेश हो जाता है। कुछ समय पूर्व तक घटनाओं के अनुक्रम को कथावस्तु की संज्ञा दी जाती थी। इसलिए जब कहानियों में घटनाओं की कमी हो गई तो लोग इसे कथानक का ह्रास कहने लगे। वस्तुतः यह कथानक का ह्रास न होकर बदलाव है। कथानक के अभाव में कहानी बन ही नहीं सकती। घटनाएं कहानी में नहीं हो सकती हैं, चरित्र की भी अपेक्षा की जा सकती है। पर किसी न किसी तरह का संगुंफन या रचना तो अनिवार्य होगी। इस संगुंफन या रचना की कोई एक प्रणाली नहीं है। संभवतः कथा-साहित्य में प्रयोग की अशेष संभावनाएं निहित हैं। साहित्य की किसी अन्य विधा में प्रयोग की इतनी गुंजाइश नहीं है। इस संग्रह की प्रत्येक कहानी का संगुंफन दूसरे से पृथक है। किसी का प्रारंभ प्राकृतिक परिवेश से होता है, किसी का मनःस्थिति के चित्रण से। किसी में अनेक मोड़ दिखाई देंगे, किसी में मोड़ होगा ही नहीं। कहीं अनेक प्रकार के आसंगों को बाँधने का प्रयास मिलेगा तो कहीं एक ही मनोवृति का उद्घाटन। कहीं कहानी अनेक प्रकार की नाटकीय स्थितियों से गुजरती दिखाई देगी तो कहीं एक ही स्थिति के प्रति विविध प्रतिक्रियाएं मिलेंगी। प्रतीक, पूर्व स्मृति (फ्लैशबैक), स्वप्न, मुक्त आसंग, फैंटेसी आदि का प्रयोग भी यथास्थान किया जाता है। संगुंफन के लिए इन समस्त विधियों का रचनात्मक प्रयोग ही कथानक है।

चरित्र-चित्रण

सामान्यतः चरित्र और कथानक में अन्योन्यश्रित संबंध बताया जाता है। विभाजनोपजीवी आलोचक पात्रों की श्रेणियाँ भी निर्धारित कर लेते हैं – अपरिवर्तनशील, परिवर्तनशील और जटिल। चरित्र और कथानक को अन्योन्याश्रित कहना बहुत अर्थपूर्ण नहीं है। ये सारे विभाजन विचार की सुविधा के लिए किए जाते हैं। चरित्र और कथानक के अनिवार्य अंग के रूप में ही आ सकता है। चरित्र-चित्रण के अभाव में भी कथानक होगा ही, क्योंकि उसके अभाव में कहानी नहीं होगी। जहाँ कहानियों में चरित्र लिया जाता है वहाँ उसका कोई एक पहलू ही कहानीकार के मानस में प्रतिबिंब होता है। उपन्यासकार चरित्र को सम्पूर्णता में ले लेता है। लेकिन कहानी उसके एक पहलू को ही पूर्णता में ग्रहण करती है। चरित्र के उस पहलू का संबंध जीवन बोध से जितना गहरा होगा कहानी उतनी ही सफल मानी जाएगी। वस्तुतः व्यक्ति के माध्यम से इस बोध के प्रति जागरुक बनाना ही कहानीकार का लक्ष्य होता है। यह बोध समसामयिक होकर भी समयातीत होना चाहिए। चरित्र-चित्रण की सफलता का मूल रहस्य यह है कि चरित्रगत संवेदन चरित्र का भी हो और पाठक का भी। यदि चरित्र की अपनी परिस्थितियों में वह स्वाभाविक नहीं होगा तो वह कहानी झूठी होगी। चारित्रिक संवेदना वास्तविक होने के कारण ही झूठी या काल्पनिक होकर भी सच्ची होती है।

कथोपकथन

कथोपकथन की सार्थकता रचना के संदर्भ में विवेचित होने में है। यह कहना कि कथोपकथन मार्मिक होना चाहिए कोई अर्थ नहीम रखता। ‘मार्मिक’, ‘सुन्दर’, ‘उक्तियुक्त’ ऐसे गोल शब्दों से आलोचना को जितनी जल्दी छुटकारा मिले उतना ही अच्छा है। कथोपकथन के दो कार्य होते हैं – चरित्रगत किसी विशेषता को उद्घाटित करना और कथाप्रवाह को गति देना। किसी पात्र के कथोपकथन, उसकी मनःस्थिति, क्षमता, स्तर, आचार-विचार आदि को अभिव्यक्त करते हैं। इसके साथ ही वे कथा को आगे बढ़ाते हैं, मोड़ देते हैं। ये दोनों कार्य एक साथ ही होते हैं। अलग-अलग नहीं।

देश-काल

देश-काल और वातावरण का महत्व कहानी की संरचना में योग देने पर ही निर्भर करता है। कहानी एक देश और काल में स्थित होती है। इसकी अन्विति कहानी के लिए ज़रूरी है। यों एक से अधिक देश या स्थान और एक से अधिक काल या समय को ग्रहण करके भी अन्विति को ले आया जा सकता है। अब एक देश और काल पर जोर नहीं दिया जाता क्योंकि नई कहानियों ने उस सीमा को तोड़ दिया है। इसलिए उनकी अन्विति ही मुख्य है। वातावरण और कहानी में अलगाव का न होना ही अनिवार्य है अन्यथा वातावरण अनावश्यक अलंकार होते हैं। चंडीप्रसाद ‘ह्रदयेश’ की कहानियाँ ऐसी अलंकृतियों से भरी पड़ी हैं। प्रसाद की अधिकांश कहानियों में ये वातावरण अलग से जोड़े हुए नहीं लगते।

भाषा-शैली

कहानी का संगुंफन भाषा का ही संगुंफन है। भाषा की अपनी सीमाएँ होती हैं। वह कुछ बातों को स्पष्ट व्यक्त करती हैं और कुछ को संकेतित करती हैं। रचनात्मक साहित्य की भाषा संकेतों से अधिक काम लेती है। कहानी अपने लघु कलेवर में जितना आधिक सांकेतिक और व्यंजक होगी उतना अधिक सफल मानी जाएगी। कहानी की भाषा परम्परायुक्त भाषा से जितना अलग हो उतना ही जीवन के आयामों को विविधता में उजागर कर सकेगी। इसलिए जरूरी है कि वह बोलचाल की भाषा के निकट हो। इसके लिए प्रेमचंद की भाषा उदाहरण के रूप में प्रस्तुत की जा सकती है। भाषा का परिवर्तन कहानी के परिवर्तन की सूचना देता है। नई वस्तु की अभिव्यक्ति के लिए नई भाषा अन्वेशित की जाती है। आज की कहानियों की भाषा पूर्ववर्ती कहानियों की भाषा से अलग हो गई है। यह कहानी के विकास का प्रमाण है।

आलोचना की नई भाषा

इधर कहानी को लेकर काफी चर्चाएँ हुईं, गोष्ठियाँ की गईं, कुछ छोटी और कुछ अनावश्यक रूप से मोटी पुस्तकें लिखी गईं। यह सारा प्रयास इसलिए हुआ कि कहानी को – नई कहानी को – अपना अलग अस्तित्व दिया जा सके। नई कविता और नई कहानी को लेकर नए प्रतिमानों को खोजने की चेष्टाएँ भी की गईं। सामान्यतः आलोचकों ने कविता के प्रतिमानों को कहानी पर लागू करना चाहा। कुछ आलोचकों ने नई आलोचना के फार्मूलों को कहानी पर चस्पा करके चौंकाने की चेष्टा की फिर भी इनके माध्यम से ऐसे तत्व अवश्य सामने आए हैं जिनके आधार पर कहानी-आलोचना की नई शब्दावली तैयार की जा सकती है। किंतु आवश्यक यह है कि इस पर नए सिरे से सोचा जाए। आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी ने अपने निबंध ‘नई कहानी’ में लिखा है कि जीवन-मर्म या उद्देश्य ही कहानी का प्राण है और कथानक ही प्राण-स्थापक शरीर है, इसके अतिरिक्त कोई तीसरा शब्द कहानी के लिए अपेक्षित नहीं। वाजपेयीजी ने कहानी के परम्परानुमोदित तत्वों से अलग हट नए ढंग से सोचा। किंतु शरीर और आत्मा का अलगाव आज के संदर्भ में बहुत औचित्यपूर्ण नहीं प्रतीत होता। उन्होंने जीवन-मर्म या उद्देश्य की कोई व्याख्या नहीं की है। लेकिन जैसा पहले संकेतित किया जा चुका है – कथानक में कहानी के अन्य तत्व समाहित हो जाते हैं। वस्तुतः इन सभी वस्तुओं को एक ही शब्द में समेटा जा सकता है। वह शब्द है संरचना।

संरचना

इस शब्द के संबंध में कई आपत्तियाँ उठ सकती हैं। यह नई समीक्षा (न्यूक्रिटिसिज्म) का शब्द है जो मुख्यतः नई कविता के संदर्भ में निर्मित हुआ है। इससे कविता की आलोचना की तरह कहानी की आलोचना भी रूपवादी (फार्मलिस्ट) हो जाएगी। रूपविन्यास की चर्चा में उलझकर आलोचक कहानीकार की मूल दृष्टि या विजन को विस्मृत कर देगा। लेकिन नई कहानी के संबंध में कठिनाई यह हो गई है कि उसमें व्यक्त जीवन-मर्म को अलग से प्रतिपाद्य के रूप में बता पाना संभव नहीं है। क्योंकि आज कहानी आदि से अंत तक कहानी होती है। इसलिए संरचना एकमात्र ऐसा आधार है जिसे लेकर कहानी की आलोचना की जा सकती है। किन्तु शर्त यह है कि लेखक की मूल दृष्टि या विजन विस्मृत न हो। वस्तुतः कहानी भी शब्दों का अपेक्षित अनुक्रम ही है। शब्दानुक्रम का मूल्यांकन केवल एक ही आधार पर संभव है और वह है उसे मूल दृष्टि के परिपेक्ष्य में देखना। इसे यों भी कहा जा सकता है कि दोनों को सह संबंधों में आकलित करना। अर्थात कहानी के दो तत्व हुए- मूलदृष्टि और संरचना। मूलदृष्टि प्रत्येक कहानीकार की अपनी होगी। पर उसे परिवेश के साथ समग्रतः जुड़ा होना चाहिए। एक स्तर पर वह वैयक्तिक होगी, दूसरे स्तर पर निर्वैयक्तिक। इसे अर्थवत्ता की तलाश भी कह सकते हैं। पहले के कहानीकार उपलब्ध मूल्यों की सुरक्षा करते थे, आज के कहानीकार जीवन को अर्थ देते हैं। अनुभूति की प्रामाणिकता और सांकेतिकता- जो आज की कहानी के आलोचनात्मक मुहावरे हैं – संरचना में ही अन्तर्मुक्त हो जाते हैं। अनुभूति की प्रामाणिकता का तात्पर्य है कि कहानीकार अनुभव के उस दौर से गुजर चुका हो या उसका साक्षात्कार कर चुका हो। लेकिन सृजन की प्रक्रिया में उसकी अपनी अनुभूति परिवर्तित होती है। परिवर्तमान होकर ही वह सर्जनात्मक हो सकेगी।

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