प्रेमचन्द की दुष्प्राप्य किंतु विवादित और बहुचर्चित
हिन्दी कहानी है ‘सम्पादक मोटेराम जी शास्त्री’ जो
‘प्रहसन’ शीर्षक से ‘माधुरी’ के अगस्त-सितम्बर, १९२८
के अंक में दूसरी बार फिर छपी थी। यह एक हास्य-प्रधान
कहानी थी, किंतु इसके प्रकाशन ने साहित्य-जगत में एक
बड़ा विवाद खड़ा कर दिया था और मामला न्यायालय तक जा
पहुँचा।
बीसवीं सदी के सर्वश्रेष्ठ हिन्दी कथाकार प्रेमचन्द की मृत्यु के पैंसठ वर्ष बाद भी अभी तक उनके समग्र कथा-साहित्य का सही आकल्पन नहीं हो पाया है। यह कार्य जटिल है और इस दिशा में गहन खोजबीन और प्रयास की आवश्यकता है। इसका मुख्य कारण यह है कि प्रेमचन्द द्विभाषी कथाकार थे, हिन्दी और उर्दू दोनों ही भाषाओं में मौलिक लेखन करते थे। कभी पहले हिन्दी में तो कभी उर्दू में कहानियाँ लिखते थे। मूलत: हिन्दी में लिखी गई कहानी का उर्दू रूपांतरण वह बाद में सुविधानुसार करते थे, किंतु यह विशुद्ध अनुवादन होकर मौलिक रचना होती थी। इसी प्रकार पहले उर्दू में लिखी गई कहानी को बाद में स्वतंत्र हिन्दी रूप प्रदान करते थे। कभी-कभी समयाभाव के कारण एक भाषा से दूसरी भाषा में रूपांतरण की प्रक्रिया में कुछ अंतराल भी हो जाता था।
शोध से उनकी अनेक अनेक ऐसी कहानियाँ प्रकाश में आई हैं जिन्हें एक भाषा से दूसरी भाषा में रूपान्तरित करना वे भूल भी गए थे। कुछ ऐसी भी कहानियाँ हैं जिनका एक भाषा से दूसरी भाषा में रूपांतरण संभवत: उन्होंने क़स्दन नहीं किया था। इन्हीं सब कारणों से उनके सम्पूर्ण कथा साहित्य का सही-सही आकलन काफी दुष्कर कार्य बन गया है। इसके लिए दोनों ही भाषाओं के जानकार खोजी प्रवृति के लगनशील शोधकर्मियों को कुछ समय तक काफी परिश्रम करना होगा और दोनों भाषाओं की प्रेमचन्द-कालीन पत्रिकाओं में खोजबीन करनी पड़ेगी। यह कार्य दुस्साध्य अवश्य है किंतु असाध्य नहीं, आवश्यकता है लगन, परिश्रम और धैर्य की।
प्रेमचन्द के ज्येष्ठ पुत्र श्रीपत राय ने अपने जीवन-काल में इसी दिशा में कुछ ठोस प्रयास की शुरूआत की थी, जिसका कुछ सार्थक परिणाम भी सामने आया। समय-समय पर तत्कालीन हिन्दी और उर्दू की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित प्रेमचन्द की ऐसी सोलह दुष्प्राप्य कहानियों की पहचान करने में श्रीपत राय सफल हो सके थे जो उनके किसी प्रकाशित कथा-संग्रह में संकलित नहीं थी। इनमें से बारह कहानियाँ उस समय के उर्दू रिसालों में छपी थी। इन कहानियों को अप्राप्य कहना तो उचित न होगा, किंतु वह दुष्प्राप्य अवश्य है। इन कहानियों का हिन्दी रूपांतरण कहीं उपलब्ध नहीं है और अब किसी दीगर शख्स द्वारा यह कार्य करना भी प्रेमचन्द के साथ न्याय नहीं होगा, क्योंकि रूपांतरण कार्य यदि वह स्वयं करते तो उसका हिन्दी रूप क्या होता और उसकी भाषा कैसी होती, यह अनुमान लगाना संभव नहीं है। अत: ऐसी उर्दू कहानियों का हिन्दी में रूपांतरण करने या कराने के बजाए, कठिन उर्दू शब्दों के हिन्दी भावार्थ सहित उनका नागरी में लिप्यंतरण करना उचित होगा और ऐसा ही करके श्रीपत राय ने उन कहानियों का एक छोटा सा संग्रह कुछ वर्ष पूर्व सरस्वती प्रेस प्रकाशन से छापा था। इस प्रकार हिन्दी पाठक भी इन उर्दू कहानियों को आसानी से पढ़ और समझ सकते हैं और प्रेमचन्द की उर्दू ज़बान की कहानी का लुत्फ भी उठा सकते हैं।
अपनी खोज की प्रक्रिया के दौरान श्रीपत राय के संज्ञान में चार ऐसी हिन्दी कहानियाँ भी आईं जो उस समय की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में तो छपीं थीं किंतु बाद को अनुपलब्ध होने के कारण प्रेमचन्द के किसी प्रकाशित कथा-संग्रह में संकलित नहीं हैं और न इन कहानियों के उर्दू रूपांतरण के बारे में ही कुछ पता चलता है। इनमें से एक पुरानी पत्रिका तो मैंने ही भाई श्रीपत राय को उपलब्ध कराई थी। इस छोटे से आलेख में मैं मुख्यत: प्रेमचन्द की इन्हीं चारों दुष्प्राप्य हिन्दी कहानियों के संबंध में काल-क्रमानुसार चर्चा करूँगा।
प्रेमचन्द की जो सबसे पुरानी लुप्त हिन्दी कहानी प्रकाश में आई है उसका शीर्षक है ‘वियोग और मिलाप’। यह एक लम्बी कहानी है और ‘प्रताप’ के अंक ४९ (वर्ष ४) (विजय दशमी, संवत १९७४ , ईस्वी वर्ष १९१७) में प्रकाशित हुई थी। कहानी में लेखक का नाम संभवत: त्रुटिवश ‘श्री प्रेमचन्द’ छपा है, जबकि उनका सही लेखकीय नाम ‘प्रेमचन्द’ था। कहानी की भाषा और कथानक से स्पष्ट है कि कहानी ‘प्रेमचन्द’ की ही लिखी हुई है। यह कहानी स्वाधीनता-संग्राम की पृष्ठभूमि पर आधारित है। इस कहानी के रचना-काल के समय ‘धनपत राय’ भले ही सरकारी सेवक रहे हों, लेकिन ‘प्रेमचन्द’ के रूप में वह उस समय भी अपनी कलम से जंगे-आज़ादी में भरपूर सहयोग दे रहे थे। उनके प्रथम उर्दू कहानी संग्रह ‘सोज़े-वतन’ के वर्ष १९०८ में प्रकाशन के पश्चात उन्हें तत्कालीन अंग्रेज़ कलेक्टर द्वारा मिली धमकियाँ और चेतावनी उन्हें देशप्रेम के पथ से डिगा नहीं सकी थीं। यह काम बड़े ही साहस का और ज़ोखिम भरा भी था। उत्पीड़न और दमन के आगे कलम कभी नहीं झुकती, इसका प्रत्यक्ष दृष्टांत एक सरकारी मुलाज़िम के रूप में भी प्रेमचन्द की विद्रोही आवाज़ थी जिसकी अंतिम परिणति कुछ ही वर्षों बाद उनकी स्थाई सरकारी नौकरी से त्याग-पत्र के रूप में हुई।
प्रेमचन्द की दूसरी दुष्प्राप्य किंतु सर्वाधिक विवादित और बहुचर्चित हिन्दी कहानी है ‘सम्पादक मोटेराम जी शास्त्री’ जो ‘प्रहसन’ शीर्षक से ‘माधुरी’ के अगस्त-सितम्बर, १९२८ के अंक में दूसरी बार फिर छपी थी। उस समय प्रेमचन्द स्वयं भी ‘माधुरी’ के त्रि-सदस्यीय संपादक-मंडल के सदस्य थे। यह एक हास्य-प्रधान कहानी थी, किंतु इसके प्रकाशन ने साहित्य जगत में एक बड़ा विवाद खड़ा कर दिया था। मामला न्यायालय तक जा पहुँचा। उस समय के तमाम शीर्ष साहित्यकार इस विवाद को लेकर दो धड़ों में बँट गए थे। बड़ा वर्ग प्रेमचन्द-विरोधी था, जबकि छोटा धड़ा प्रेमचन्द के समर्थन में खड़ा था। विरोधी गुट में प्रमुख थे पं. दुलारेलाल भार्गव, पं. रूपनारायण पाण्डेय, पं. पदम सिंह शर्मा, पं. बदरीनाथ भट्ट, ‘आर्यमित्र’ के संपादक पं. हरिशंकर शर्मा, पं. हेमचन्द जोशी, पं. इलाचन्द जोशी, पं. ज्योतिप्रसाद मिश्र ‘निर्मल’ आदि. ‘माधुरी’ के ब्राह्मण सह-संपादक द्वय पं. कृष्ण बिहारी मिश्र और पं. रामसेवक त्रिपाठी सामूहिक उत्तरदायित्व के कारण तटस्थ की भूमिका निभाने को विवश थे, क्योंकि मानहानि के मुकदमें में उन्हें भी प्रतिवादी बनाया गया था। पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी श्री मैथिलीशरण गुप्त श्री जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’ सदृश कुछ अन्य साहित्य-महारथियों ने भी प्रेमचन्द के सनातन-धर्म विरोधी लेखन के विरुद्ध अपनी तीखी प्रतिक्रियाएँ व्यक्त की थीं। इस विवाद का मुख्य कारण यह था कि विरोधियों के मतानुसार उक्त कहानी देहरादून निवासी तत्कालीन वैदिक विद्वान और कर्मकाण्डी ब्राह्मण लेखक पं. शालग्राम शास्त्री को लक्ष्य कर लिखी गई थी जिससे उनकी मर्यादा और प्रतिष्ठा पर आँच आती थी।
प्रेमचन्द के समर्थन में खड़े साहित्यकारों की संख्या नगण्य थी, गोकि उसमें पं. सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ , पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ , पं. विष्णु दत्त शुक्ल, पं. मन्नन द्विवेदी गजपुरी सरीखे ब्राहमण साहित्यकार तथा श्री शिव भूषण सहाय और श्री रघुपति सहाय ‘फिराक गोरखपुरी’ जैसे जाने-माने लोग भी शामिल थे।
परंतु बहुसंख्यक दिग्गज साहित्यकारों की अपने विरुद्ध एकजुटता को देखते हुए अंतत: प्रेमचन्द को ही झुकना पड़ा और अदालती कार्यवाही से जान बचाने के लिए उन्हें न्यायालय के समक्ष खेद प्रकट कर क्षमा-याचना करनी पड़ी। ‘माधुरी’ के प्रकाशक श्री विष्णु नारायण भार्गव पहले तो विरोधी गुट के दबाव में प्रेमचन्द को सेवा से पृथक करने पर सहमत न थे किंतु परिस्थितियाँ धीरे-धीरे प्रेमचन्द के विपरीत बनती गईं और फलस्वरूप उन्हें वर्ष १९३१ में ‘माधुरी’ के संपादक-मंडल से नाता तोड़कर काशी लौटना पड़ा।
शायद इसी अशोभनीय प्रकरण के कारण प्रेमचन्द अपनी इस हास्य-प्रधान दिलचस्प कहानी का उर्दू रूपांतरण भी प्रस्तुत करने का साहस नहीं जुटा सके और कहानी को अपने किसी कथा-संग्रह में स्थान देकर दुबारा मुसीबत नहीं मोल लेनी चाही। फलस्वरूप हिन्दी का अधिकांश भावी पाठक-वर्ग इस रोचक कहानी को पढ़ने और लुत्फ उठाने से वंचित रह गया। किंतु यदि आज के परिप्रेक्ष्य में कहानी को देखा जाए तो उसमें ऐसी कोई खास बात नज़र नहीं आती जिसे किसी की मानहानि का कारण माना जाए। आज तो एक से एक व्यंग्य रचनाओं और बड़ी-बड़ी हस्तियों तक का पानी उतार लिया जाता है और कोई चूँ तक नहीं करता। परंतु उस समय की परिस्थितियाँ शायद भिन्न थीं।
प्रेमचन्द की तीसरी लुप्त हिन्दी कहानी का शीर्षक है ‘ग़मी’। यह एक छोटी सी हास्य-प्रधान कहानी है जो मिर्ज़ापुर से प्रकाशित ‘मतवाला’ के ३१ अगस्त, १९२९ के अंक में छ्पी थी। पत्र का यह दुर्लभ अंक मुझे ‘मतवाला’ के स्वामी एवं संपादक स्व. महादेव प्रसाद सेठ के सुपुत्र स्व. मानिक चन्द सेठ के सौजन्य से प्राप्त हुआ था। मानिक चन्द बचपन में कई वर्षों तक मिर्ज़ापुर में मेरा सहपाठी रह चुका था और लगभग दो दशक पूर्व उसने यह अंक मुझे दिया था। मैंने इसे भाई श्री राय को दे दिया था और उन्होंने ही मुझे सूचित किया था कि कहानी प्रेमचन्द के किसी कथा-संग्रह में सम्मिलित नहीं है। आज से सात-आठ दशक पूर्व देश की जनसंख्या की वृद्धि के बारे में न तो कोई सोचता था और न यह समस्या आज की भाँति चुनौती के रूप में सामने खड़ी थी।
किसी बुद्धिजीवी ने इस बारे में कभी चिंतन करना आवश्यक नहीं समझा। परिवार में नए शिशु का जन्म खुशियाँ लेकर आता था, विशेषकर पुत्र के जन्म पर तो खूब जश्न मनाया जाता था भले ही वह तीसरी, चौथी या पाँचवीं संतान क्यों न हो। ऐसे समय में किसी मध्यम-वर्गीय परिवार के मुखिया द्वारा दो पुत्रों के बाद तीसरे पुत्र-रत्न के जन्म को अपने ‘आनन्द’ की मृत्यु की संज्ञा देते हुए ग़मी मनाने की प्रेमचन्द की अभिनव परिकल्पना निश्चित ही उनकी दूर-दृष्टि का परिचायक थी। आज हम देख रहे हैं कि इस देश की जनसंख्या की बेतहाशा अनियंत्रित वृद्धि, जो एक अरब की विस्फोटक संख्या को भी कब का पार कर चुकी है, ने कैसा विकराल रूप धारण करके देश के कर्णधारों और विशेषज्ञों की नींद हराम कर रखी है। लेकिन प्रेमचन्द की इस कहानी का नायक तो आज से ७२ वर्ष पूर्व तीसरे पुत्र के जन्म से दुखी होकर अपने मृत ‘आनन्द’ की अंत्येष्टि के लिए गंगा तट पर जाने को उद्यत था और हाथ में गंगा जल लेकर यह प्रतिज्ञा करना चाहता था कि अब ऐसी महान मूर्खता वह फिर कभी न करेगा। यह छोटी सी कहानी आज के परिप्रेक्ष्य में वास्तव में गंभीर प्रभाव छोड़ती है। काश प्रेमचन्द जैसी दूरदृष्टि वाले कुछ और बुद्धिजीवी उसी जमाने में पैदा हो गए होते तो आज जनसंख्या विस्फोट की गंभीर और जटिल समस्या को लेकर देश को इतना चिंतित क्यों होना पड़ता।
प्रेमचन्द की चौथी दुष्प्राप्य हिन्दी कहानी जो प्रकाश में आई है उसका शीर्षक है ‘स्वप्न’ । यह भी एक छोटी सी हास्य प्रधान कहानी है जो ‘वीणा’ के माह जुलाई, १९३० के अंक में प्रकाशित हुई थी। प्रेमचन्द को जानने वाले सभी पाठकों को संभवत: इतना तो पता होगा कि उन्होंने अपने वास्तविक जीवन में प्रथम पत्नी के जीवित रहते और उससे कोई कानूनी तलाक हुए बिना, सरकारी कर्मचारी होते हुए भी वर्ष १९०६ में एक अवयस्क बाल-विधवा से दूसरा विवाह रचाकर तत्कालीन रूढिवादी समाज के विरुद्ध विद्रोह का बिहुल बजा दिया था। लेकिन पाठकों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि वृद्धावस्था में वह अपना कायाकल्प कराने तथा एक और विवाह रचाने का ख्वाब देखने लगे थे।
स्वप्न-लोक में वह कायाकल्प कराने के बाद एक बार फिर से दूल्हा बनते हैं। पालकी में सवार होकर बारात के साथ वधू के द्वार पर जा पहुँचते हैं। प्रारम्भिक रस्मों के बाद पाणिग्रहण का मुहूर्त भी आ पहुँचता है लेकिन ऐन वक्त पर उनकी अक्ल का बन्द दरवाज़ा अचानक खुल जाता है और मन में ख्याल आता है कि यह तो पाँवों में नई बेड़ी पड़ने जा रही है। और यदि कहीं उनकी बनावटी नकली जवानी मृग-मरीचिका निकली तथा नव-वधू से साबिका पड़ने पर बर्फ की तरह पिघल गई तो ज़िन्दगी ग़रक हो जाएगी, कितनी छीछालेदार और जग हँसाई होगी। फिर क्या था, वे इस कदर आतंकित हो उठते हैं कि जामा-जोड़ा पहने ही मण्डप से जान छुड़ाकर भाग खड़े होते हैं और इस तरह भागने लगते हैं मानो कोई भयानक जंतु उनका पीछा कर रहा हो। इसी बीच सामने एक नदी आ जाती है वे उसमें कूद पड़ते हैं। अचानक उनकी नींद उचट जाती है और स्वप्न टूट जाता है। वे अपने को चारपाई पर पड़ा पाते हैं लेकिन साँस अब तक फूल रही है।
कहानी ज़रूर एक दिलचस्प ख़्वाब की है लेकिन उसकी परिकल्पना प्रेमचन्द ने निश्चित ही जाग्रत अवस्था में की होगी और उसे पूरे होशो-हवास में शब्दों में ढाला होगा। यह भी संभव है कि उन्होंने वाकई इसी तरह का कोई ख़्वाब देखा हो और उसी स्वप्न की घटना को कलमबन्द कर डाला हो। जो कुछ भी हो, कहानी से इतना तो स्पष्ट है कि बुढ़ापे में भी कितने मनमौजी और रसिक थे प्रेमचन्द और उन्हें कैसा-कैसा मसख़रापन सूझता था।
प्रेमचन्द की लुप्त कहानियों की खोज के संबंध में स्व. श्री राय द्वारा आरंभ किए गए सत्प्रयास को अभी और आगे बढ़ाने की आवश्यकता है ताकि इसी प्रकार की प्रेमचन्द की अन्य विलुप्त कहानियाँ भी प्रकाश में आ सकें और उनके कथा-साहित्य का सही आकलन और मूल्यांकन हो सके।
बीसवीं सदी के सर्वश्रेष्ठ हिन्दी कथाकार प्रेमचन्द की मृत्यु के पैंसठ वर्ष बाद भी अभी तक उनके समग्र कथा-साहित्य का सही आकल्पन नहीं हो पाया है। यह कार्य जटिल है और इस दिशा में गहन खोजबीन और प्रयास की आवश्यकता है। इसका मुख्य कारण यह है कि प्रेमचन्द द्विभाषी कथाकार थे, हिन्दी और उर्दू दोनों ही भाषाओं में मौलिक लेखन करते थे। कभी पहले हिन्दी में तो कभी उर्दू में कहानियाँ लिखते थे। मूलत: हिन्दी में लिखी गई कहानी का उर्दू रूपांतरण वह बाद में सुविधानुसार करते थे, किंतु यह विशुद्ध अनुवादन होकर मौलिक रचना होती थी। इसी प्रकार पहले उर्दू में लिखी गई कहानी को बाद में स्वतंत्र हिन्दी रूप प्रदान करते थे। कभी-कभी समयाभाव के कारण एक भाषा से दूसरी भाषा में रूपांतरण की प्रक्रिया में कुछ अंतराल भी हो जाता था।
शोध से उनकी अनेक अनेक ऐसी कहानियाँ प्रकाश में आई हैं जिन्हें एक भाषा से दूसरी भाषा में रूपान्तरित करना वे भूल भी गए थे। कुछ ऐसी भी कहानियाँ हैं जिनका एक भाषा से दूसरी भाषा में रूपांतरण संभवत: उन्होंने क़स्दन नहीं किया था। इन्हीं सब कारणों से उनके सम्पूर्ण कथा साहित्य का सही-सही आकलन काफी दुष्कर कार्य बन गया है। इसके लिए दोनों ही भाषाओं के जानकार खोजी प्रवृति के लगनशील शोधकर्मियों को कुछ समय तक काफी परिश्रम करना होगा और दोनों भाषाओं की प्रेमचन्द-कालीन पत्रिकाओं में खोजबीन करनी पड़ेगी। यह कार्य दुस्साध्य अवश्य है किंतु असाध्य नहीं, आवश्यकता है लगन, परिश्रम और धैर्य की।
प्रेमचन्द के ज्येष्ठ पुत्र श्रीपत राय ने अपने जीवन-काल में इसी दिशा में कुछ ठोस प्रयास की शुरूआत की थी, जिसका कुछ सार्थक परिणाम भी सामने आया। समय-समय पर तत्कालीन हिन्दी और उर्दू की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित प्रेमचन्द की ऐसी सोलह दुष्प्राप्य कहानियों की पहचान करने में श्रीपत राय सफल हो सके थे जो उनके किसी प्रकाशित कथा-संग्रह में संकलित नहीं थी। इनमें से बारह कहानियाँ उस समय के उर्दू रिसालों में छपी थी। इन कहानियों को अप्राप्य कहना तो उचित न होगा, किंतु वह दुष्प्राप्य अवश्य है। इन कहानियों का हिन्दी रूपांतरण कहीं उपलब्ध नहीं है और अब किसी दीगर शख्स द्वारा यह कार्य करना भी प्रेमचन्द के साथ न्याय नहीं होगा, क्योंकि रूपांतरण कार्य यदि वह स्वयं करते तो उसका हिन्दी रूप क्या होता और उसकी भाषा कैसी होती, यह अनुमान लगाना संभव नहीं है। अत: ऐसी उर्दू कहानियों का हिन्दी में रूपांतरण करने या कराने के बजाए, कठिन उर्दू शब्दों के हिन्दी भावार्थ सहित उनका नागरी में लिप्यंतरण करना उचित होगा और ऐसा ही करके श्रीपत राय ने उन कहानियों का एक छोटा सा संग्रह कुछ वर्ष पूर्व सरस्वती प्रेस प्रकाशन से छापा था। इस प्रकार हिन्दी पाठक भी इन उर्दू कहानियों को आसानी से पढ़ और समझ सकते हैं और प्रेमचन्द की उर्दू ज़बान की कहानी का लुत्फ भी उठा सकते हैं।
अपनी खोज की प्रक्रिया के दौरान श्रीपत राय के संज्ञान में चार ऐसी हिन्दी कहानियाँ भी आईं जो उस समय की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में तो छपीं थीं किंतु बाद को अनुपलब्ध होने के कारण प्रेमचन्द के किसी प्रकाशित कथा-संग्रह में संकलित नहीं हैं और न इन कहानियों के उर्दू रूपांतरण के बारे में ही कुछ पता चलता है। इनमें से एक पुरानी पत्रिका तो मैंने ही भाई श्रीपत राय को उपलब्ध कराई थी। इस छोटे से आलेख में मैं मुख्यत: प्रेमचन्द की इन्हीं चारों दुष्प्राप्य हिन्दी कहानियों के संबंध में काल-क्रमानुसार चर्चा करूँगा।
प्रेमचन्द की जो सबसे पुरानी लुप्त हिन्दी कहानी प्रकाश में आई है उसका शीर्षक है ‘वियोग और मिलाप’। यह एक लम्बी कहानी है और ‘प्रताप’ के अंक ४९ (वर्ष ४) (विजय दशमी, संवत १९७४ , ईस्वी वर्ष १९१७) में प्रकाशित हुई थी। कहानी में लेखक का नाम संभवत: त्रुटिवश ‘श्री प्रेमचन्द’ छपा है, जबकि उनका सही लेखकीय नाम ‘प्रेमचन्द’ था। कहानी की भाषा और कथानक से स्पष्ट है कि कहानी ‘प्रेमचन्द’ की ही लिखी हुई है। यह कहानी स्वाधीनता-संग्राम की पृष्ठभूमि पर आधारित है। इस कहानी के रचना-काल के समय ‘धनपत राय’ भले ही सरकारी सेवक रहे हों, लेकिन ‘प्रेमचन्द’ के रूप में वह उस समय भी अपनी कलम से जंगे-आज़ादी में भरपूर सहयोग दे रहे थे। उनके प्रथम उर्दू कहानी संग्रह ‘सोज़े-वतन’ के वर्ष १९०८ में प्रकाशन के पश्चात उन्हें तत्कालीन अंग्रेज़ कलेक्टर द्वारा मिली धमकियाँ और चेतावनी उन्हें देशप्रेम के पथ से डिगा नहीं सकी थीं। यह काम बड़े ही साहस का और ज़ोखिम भरा भी था। उत्पीड़न और दमन के आगे कलम कभी नहीं झुकती, इसका प्रत्यक्ष दृष्टांत एक सरकारी मुलाज़िम के रूप में भी प्रेमचन्द की विद्रोही आवाज़ थी जिसकी अंतिम परिणति कुछ ही वर्षों बाद उनकी स्थाई सरकारी नौकरी से त्याग-पत्र के रूप में हुई।
प्रेमचन्द की दूसरी दुष्प्राप्य किंतु सर्वाधिक विवादित और बहुचर्चित हिन्दी कहानी है ‘सम्पादक मोटेराम जी शास्त्री’ जो ‘प्रहसन’ शीर्षक से ‘माधुरी’ के अगस्त-सितम्बर, १९२८ के अंक में दूसरी बार फिर छपी थी। उस समय प्रेमचन्द स्वयं भी ‘माधुरी’ के त्रि-सदस्यीय संपादक-मंडल के सदस्य थे। यह एक हास्य-प्रधान कहानी थी, किंतु इसके प्रकाशन ने साहित्य जगत में एक बड़ा विवाद खड़ा कर दिया था। मामला न्यायालय तक जा पहुँचा। उस समय के तमाम शीर्ष साहित्यकार इस विवाद को लेकर दो धड़ों में बँट गए थे। बड़ा वर्ग प्रेमचन्द-विरोधी था, जबकि छोटा धड़ा प्रेमचन्द के समर्थन में खड़ा था। विरोधी गुट में प्रमुख थे पं. दुलारेलाल भार्गव, पं. रूपनारायण पाण्डेय, पं. पदम सिंह शर्मा, पं. बदरीनाथ भट्ट, ‘आर्यमित्र’ के संपादक पं. हरिशंकर शर्मा, पं. हेमचन्द जोशी, पं. इलाचन्द जोशी, पं. ज्योतिप्रसाद मिश्र ‘निर्मल’ आदि. ‘माधुरी’ के ब्राह्मण सह-संपादक द्वय पं. कृष्ण बिहारी मिश्र और पं. रामसेवक त्रिपाठी सामूहिक उत्तरदायित्व के कारण तटस्थ की भूमिका निभाने को विवश थे, क्योंकि मानहानि के मुकदमें में उन्हें भी प्रतिवादी बनाया गया था। पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी श्री मैथिलीशरण गुप्त श्री जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’ सदृश कुछ अन्य साहित्य-महारथियों ने भी प्रेमचन्द के सनातन-धर्म विरोधी लेखन के विरुद्ध अपनी तीखी प्रतिक्रियाएँ व्यक्त की थीं। इस विवाद का मुख्य कारण यह था कि विरोधियों के मतानुसार उक्त कहानी देहरादून निवासी तत्कालीन वैदिक विद्वान और कर्मकाण्डी ब्राह्मण लेखक पं. शालग्राम शास्त्री को लक्ष्य कर लिखी गई थी जिससे उनकी मर्यादा और प्रतिष्ठा पर आँच आती थी।
प्रेमचन्द के समर्थन में खड़े साहित्यकारों की संख्या नगण्य थी, गोकि उसमें पं. सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ , पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ , पं. विष्णु दत्त शुक्ल, पं. मन्नन द्विवेदी गजपुरी सरीखे ब्राहमण साहित्यकार तथा श्री शिव भूषण सहाय और श्री रघुपति सहाय ‘फिराक गोरखपुरी’ जैसे जाने-माने लोग भी शामिल थे।
परंतु बहुसंख्यक दिग्गज साहित्यकारों की अपने विरुद्ध एकजुटता को देखते हुए अंतत: प्रेमचन्द को ही झुकना पड़ा और अदालती कार्यवाही से जान बचाने के लिए उन्हें न्यायालय के समक्ष खेद प्रकट कर क्षमा-याचना करनी पड़ी। ‘माधुरी’ के प्रकाशक श्री विष्णु नारायण भार्गव पहले तो विरोधी गुट के दबाव में प्रेमचन्द को सेवा से पृथक करने पर सहमत न थे किंतु परिस्थितियाँ धीरे-धीरे प्रेमचन्द के विपरीत बनती गईं और फलस्वरूप उन्हें वर्ष १९३१ में ‘माधुरी’ के संपादक-मंडल से नाता तोड़कर काशी लौटना पड़ा।
शायद इसी अशोभनीय प्रकरण के कारण प्रेमचन्द अपनी इस हास्य-प्रधान दिलचस्प कहानी का उर्दू रूपांतरण भी प्रस्तुत करने का साहस नहीं जुटा सके और कहानी को अपने किसी कथा-संग्रह में स्थान देकर दुबारा मुसीबत नहीं मोल लेनी चाही। फलस्वरूप हिन्दी का अधिकांश भावी पाठक-वर्ग इस रोचक कहानी को पढ़ने और लुत्फ उठाने से वंचित रह गया। किंतु यदि आज के परिप्रेक्ष्य में कहानी को देखा जाए तो उसमें ऐसी कोई खास बात नज़र नहीं आती जिसे किसी की मानहानि का कारण माना जाए। आज तो एक से एक व्यंग्य रचनाओं और बड़ी-बड़ी हस्तियों तक का पानी उतार लिया जाता है और कोई चूँ तक नहीं करता। परंतु उस समय की परिस्थितियाँ शायद भिन्न थीं।
प्रेमचन्द की तीसरी लुप्त हिन्दी कहानी का शीर्षक है ‘ग़मी’। यह एक छोटी सी हास्य-प्रधान कहानी है जो मिर्ज़ापुर से प्रकाशित ‘मतवाला’ के ३१ अगस्त, १९२९ के अंक में छ्पी थी। पत्र का यह दुर्लभ अंक मुझे ‘मतवाला’ के स्वामी एवं संपादक स्व. महादेव प्रसाद सेठ के सुपुत्र स्व. मानिक चन्द सेठ के सौजन्य से प्राप्त हुआ था। मानिक चन्द बचपन में कई वर्षों तक मिर्ज़ापुर में मेरा सहपाठी रह चुका था और लगभग दो दशक पूर्व उसने यह अंक मुझे दिया था। मैंने इसे भाई श्री राय को दे दिया था और उन्होंने ही मुझे सूचित किया था कि कहानी प्रेमचन्द के किसी कथा-संग्रह में सम्मिलित नहीं है। आज से सात-आठ दशक पूर्व देश की जनसंख्या की वृद्धि के बारे में न तो कोई सोचता था और न यह समस्या आज की भाँति चुनौती के रूप में सामने खड़ी थी।
किसी बुद्धिजीवी ने इस बारे में कभी चिंतन करना आवश्यक नहीं समझा। परिवार में नए शिशु का जन्म खुशियाँ लेकर आता था, विशेषकर पुत्र के जन्म पर तो खूब जश्न मनाया जाता था भले ही वह तीसरी, चौथी या पाँचवीं संतान क्यों न हो। ऐसे समय में किसी मध्यम-वर्गीय परिवार के मुखिया द्वारा दो पुत्रों के बाद तीसरे पुत्र-रत्न के जन्म को अपने ‘आनन्द’ की मृत्यु की संज्ञा देते हुए ग़मी मनाने की प्रेमचन्द की अभिनव परिकल्पना निश्चित ही उनकी दूर-दृष्टि का परिचायक थी। आज हम देख रहे हैं कि इस देश की जनसंख्या की बेतहाशा अनियंत्रित वृद्धि, जो एक अरब की विस्फोटक संख्या को भी कब का पार कर चुकी है, ने कैसा विकराल रूप धारण करके देश के कर्णधारों और विशेषज्ञों की नींद हराम कर रखी है। लेकिन प्रेमचन्द की इस कहानी का नायक तो आज से ७२ वर्ष पूर्व तीसरे पुत्र के जन्म से दुखी होकर अपने मृत ‘आनन्द’ की अंत्येष्टि के लिए गंगा तट पर जाने को उद्यत था और हाथ में गंगा जल लेकर यह प्रतिज्ञा करना चाहता था कि अब ऐसी महान मूर्खता वह फिर कभी न करेगा। यह छोटी सी कहानी आज के परिप्रेक्ष्य में वास्तव में गंभीर प्रभाव छोड़ती है। काश प्रेमचन्द जैसी दूरदृष्टि वाले कुछ और बुद्धिजीवी उसी जमाने में पैदा हो गए होते तो आज जनसंख्या विस्फोट की गंभीर और जटिल समस्या को लेकर देश को इतना चिंतित क्यों होना पड़ता।
प्रेमचन्द की चौथी दुष्प्राप्य हिन्दी कहानी जो प्रकाश में आई है उसका शीर्षक है ‘स्वप्न’ । यह भी एक छोटी सी हास्य प्रधान कहानी है जो ‘वीणा’ के माह जुलाई, १९३० के अंक में प्रकाशित हुई थी। प्रेमचन्द को जानने वाले सभी पाठकों को संभवत: इतना तो पता होगा कि उन्होंने अपने वास्तविक जीवन में प्रथम पत्नी के जीवित रहते और उससे कोई कानूनी तलाक हुए बिना, सरकारी कर्मचारी होते हुए भी वर्ष १९०६ में एक अवयस्क बाल-विधवा से दूसरा विवाह रचाकर तत्कालीन रूढिवादी समाज के विरुद्ध विद्रोह का बिहुल बजा दिया था। लेकिन पाठकों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि वृद्धावस्था में वह अपना कायाकल्प कराने तथा एक और विवाह रचाने का ख्वाब देखने लगे थे।
स्वप्न-लोक में वह कायाकल्प कराने के बाद एक बार फिर से दूल्हा बनते हैं। पालकी में सवार होकर बारात के साथ वधू के द्वार पर जा पहुँचते हैं। प्रारम्भिक रस्मों के बाद पाणिग्रहण का मुहूर्त भी आ पहुँचता है लेकिन ऐन वक्त पर उनकी अक्ल का बन्द दरवाज़ा अचानक खुल जाता है और मन में ख्याल आता है कि यह तो पाँवों में नई बेड़ी पड़ने जा रही है। और यदि कहीं उनकी बनावटी नकली जवानी मृग-मरीचिका निकली तथा नव-वधू से साबिका पड़ने पर बर्फ की तरह पिघल गई तो ज़िन्दगी ग़रक हो जाएगी, कितनी छीछालेदार और जग हँसाई होगी। फिर क्या था, वे इस कदर आतंकित हो उठते हैं कि जामा-जोड़ा पहने ही मण्डप से जान छुड़ाकर भाग खड़े होते हैं और इस तरह भागने लगते हैं मानो कोई भयानक जंतु उनका पीछा कर रहा हो। इसी बीच सामने एक नदी आ जाती है वे उसमें कूद पड़ते हैं। अचानक उनकी नींद उचट जाती है और स्वप्न टूट जाता है। वे अपने को चारपाई पर पड़ा पाते हैं लेकिन साँस अब तक फूल रही है।
कहानी ज़रूर एक दिलचस्प ख़्वाब की है लेकिन उसकी परिकल्पना प्रेमचन्द ने निश्चित ही जाग्रत अवस्था में की होगी और उसे पूरे होशो-हवास में शब्दों में ढाला होगा। यह भी संभव है कि उन्होंने वाकई इसी तरह का कोई ख़्वाब देखा हो और उसी स्वप्न की घटना को कलमबन्द कर डाला हो। जो कुछ भी हो, कहानी से इतना तो स्पष्ट है कि बुढ़ापे में भी कितने मनमौजी और रसिक थे प्रेमचन्द और उन्हें कैसा-कैसा मसख़रापन सूझता था।
प्रेमचन्द की लुप्त कहानियों की खोज के संबंध में स्व. श्री राय द्वारा आरंभ किए गए सत्प्रयास को अभी और आगे बढ़ाने की आवश्यकता है ताकि इसी प्रकार की प्रेमचन्द की अन्य विलुप्त कहानियाँ भी प्रकाश में आ सकें और उनके कथा-साहित्य का सही आकलन और मूल्यांकन हो सके।
२९
जुलाई २०१३
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