शुक्रवार, 10 दिसंबर 2021

शीला पांडे की कुछ कविताएं

शीला  पांडे की कविताएं औऱ गीत 


।। बहते रहे पिता ।।


भीतर मेरे एक नदी से

बहते रहे पिता ।


हाथ पकड़कर कभी सिखाते

चट्टानें कैसे कटतीं हैं ?

कभी बताते नदियाँ क्यों दो पाट

धरोहर सँग बटतीं हैं 


चलतीं पर सब साथ

बहाये, कहते रहे पिता ।


आसमान से लेना-देना

बही हवाएँ पानी लातीं 

रूख खड़े मज़बूत पोषते

सभी दिशाएँ धानी, गातीं


बाधाएँ मग़रूर लजातीं,

दहते रहे पिता ।


आसमान की सीढ़ी पक्के

डंडों वाली ही बनवाना

कीली-काँटी स्वयं बाँधना

विश्वकर्मा भी तुम बन जाना


चोट-चपेट गिरे जो आँसू ,

सहते रहे पिता ।


अंगुल भर में पाँव पसारा,

धरी जमीनें सबकी ख़ातिर

इच्छाएँ हर बार मुल्तवी

करती जीवन-धारा शातिर


सबके हिस्से की ख़ुशियों में

बहते रहे पिता ।


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जिंदगी ! 


जिन्दगी बेहतर बनाने में जुटे हैं

हम मुसलसल

बादशाहत उपकरण छल-दंम्भ से 

सब छीन लेती


हौसलों के हम कई मीनार 

चढ़ कर पग बढ़ाते

मौसमों के रंग रँगकर

मौसमों में डूब जाते


संविधानों में तभी आदेश 

पारित हो गया है

फूल ने आहत किये पाषाण ---

मुजरिम--तीन, देती


जितना संभालना चाहती है

जिंदगी लाचार फिर भी

कस लिए जाते हैं चौतरफा

नकेलों से ही, घिर भी


खे रहे गिरती-लरजतीं 

कश्तियाँ जब बेतहाशा

दंड के हर नाम बदले----

कर, कटोरा --टीन देती


आखिरी सौदा बचा 

इंसानियत का हो गया है

साँस में कुछ साँस बचती

आदमी अब खो रहा है


'कत्ल मेरा मैं ही मुजरिम'

आदमी अभियोग ढोता

आदमीयत थक बिखरती-----

जुर्म रच, संगीन देती


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। तप रहा है आदमी ।।


धधक रहा है कोयला

तप रहा है आदमी

आग पर बिछा हुआ है

सिंक रहे हैं भुट्टे 


राजपथ चेताता है

कहाँ-किधर कच्चा है

नन्हें से दानों में 

हँसता क्यों बच्चा है ?


चौतरफा सेंक बढ़े

ताप तनिक ज़ायद दो

पश्चिम बयार जुटी,

गढ़े नये भठ्ठे हैं 

मारते हैं सुट्टे 


आग पर बिछा हुआ है

सिंक रहे हैं भुट्टे 


सभी पूँजीपतियों ने

बोली लगाई है

चूल्हों की आग बिकी

सिस्टम कसाई है 


बाज़ीगर ठेलों ने  

बेंच दिए संस्थान

डलियों भर

बाँध-बूँध

धर रहे हैं छुट्टे 


आग पर बिछा हुआ है

सिंक रहे हैं भुट्टे 


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उल्लू बना नरेश 



पार समन्दर

हलचल भारी

उल्लू बना 'नरेश'

'बाज' को तमगा नया दिया !


दानव सँग 

काँधे चढ़ नोचे

इनके-उनके 

मांस, कलेजे

जंगल पर अब 

राज  हमारा

पंजों में है  

साँस, मजे ले


नया मसीहा

खरा हितैषी


ऑंखमूँद रकबा ठगवाया

कागज, नया दिया


घर राजा के 

खोज शिकारी

बाज-बिरादर--मारें, काटें

मुँह में शबद,

हाथ--तलवारें

ठूँसें, अगिनी जारें, पाटें


सधे शिकारी

फुर्तीले सब


'कवरिंग फायर' दिये,  दोगला

राजा बेहया जिया 


भोग चढ़ीं 

भरदुल्ली चिड़ियाँ,

चीखें कानों 

में सब गूँजें

छिल-छिल जाते 

चूजे तन-मन

जकड़े जाते 

रसरी--मूँजें


मढ़ा पड़ोसी

पर जिमवारी


लकदक राजा धुला--नहाया

किस्मत, नया दिया !!


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 देश सभी ने मिलकर चूसा ।।




फाँक-फाँक कर लिया संतरा

देश सभी ने मिलकर चूसा 


तना जड़ों से जुडकर निखरा

फरा  पेड़ पर  झूला- झूला

रंगों के उत्सव में जीया

जीवन के रस में जो फूला


एक समूचे फल की गरिमा

चूस कहा से पाता मूसा !


खेतों में सोने की बाली 

खनक- खनक कर गाती  खूब

यार-दोस्त थे, पास-पड़ोसी

चिठ्ठी देता था महबूब 


गेंहूँ  को  ले गयी व्यवस्था

थेसर से तन -मन कर भूसा


छप्पर छानी अम्बर देकर

चुरा ले गये सूरज-तारे

टुकडे टुकडे स्वप्न हुये सब

हजम कर गये मामा प्यारे


छीन लिया जनता की कुर्सी

दिया नाक पर लातों -.



घर के  दुआर तक धूप ।।


घर की दुआर तक

आ गयी है धूप 


छोटा सा बिरवा 

करेर हुआ बप्पा

फल-फूल ठाँव-ठाँव

लटका है झप्पा


साफ-साफ पानी ने

भर दिया है कूप


चिड़िया के  चूजे

हुए सब सयाने

द्वारे पर लाये हैं

फसलों के दाने


मह-मह महकते, जब 

झरते हैं सूप


नीमन उड़ानों से

पहुँचे पहाड़ी

पार किये रस्ते वे

सब टेढ़ी-आड़ी


सूरज की अगुआनी

निखरा है रूप


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थोड़ा इंद्रधनुष ठहरा है ।।


आसमान में देखो

खुलकर

थोड़ा इंद्रधनुष ठहरा है


ठूठे जंगल में पत्ते हैं

पशु, पक्षी, माटी भी राजी

आदम की जिंदा-चर्चायें------

दस्तावेजों में हैं ताज़ी


नियत समय पर

ऋतु बसंत के

आ छाने का रँग गहरा है


बादल घिरे-घिरे लौटे हैं

शोक नहीं कर पानी कम है

बूँद-बूँद से वर्षा पगती

सागर उड़ता दानी, नम है


अम्बर के 

मटके से देखो

केसर सींच रहा महरा है


भले खदानों पर सब कब्जा

नहीं जीविका, भय की रातें

मोती कहीं चमकता होगा

आदमीयत की सर्जक पाँतें


तुमने ही 

तुमको है पोषा

तुमसे ही झंडा फहरा है


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शीला पांडे

1/82 विक्रान्त खंड

गोमतीनगर, लखनऊ 226010

मो 9935119848


4 टिप्‍पणियां:

  1. शीला जी की रचनाएं जिंदगी की सच्चाई को उजागर करती दिल को छूने वाली रचनाएं हैं

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  2. शीला पांडे जी की कविताएँ हृदय को छू लेती हैं।

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  3. शीला पांडे जी की रचनाएँ शोषितों एवं आम जनमानस की आवाज़ है।

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