रविवार, 5 दिसंबर 2021

संभोग में समाधि

 प्रश्न: काम-कृत्य को ध्यान का अनुभव कैसे बनाया जा सकता है? क्या संभोग करते समय किसी विशेष आसन के अभ्यास की आवश्यकता है?


 ओशो~ आसन का कोई महत्व नहीं। आसन की बात ही असंगत है। असली बात तो चित्त की अवस्था है–शरीर की नहीं लेकिन यदि तुम अपने मन में परिवर्तन करते हो तो हो सकता है तुम आसन भी बदलना चाहो। ये दोनों एक दूसरे से जुड़े हैं लेकिन बुनियादी नहीं हैं।


उदाहरण के लिए संभोग करते समय पुरुष हमेशा स्त्री के ऊपर होता है। यह अहंकारी व्यक्ति का आसन है। क्योंकि पुरुष हमेशा यह सोचता है कि वह स्त्री से अधिक योग्य है उच्च है श्रेष्ठ है अत: वह स्त्री के नीचे कैसे हो सकता है? लेकिन पूरी दुनिया के आदिवासी समाजों में स्त्री पुरुष के ऊपर लेटती है। इसलिए अफ्रीका में इसे

मिशनरी पोस्चर धर्मदूत का आसान कहते हैं–क्योंकि पहली बार जब ईसाई धर्म प्रचारक अफ्रीका पहुंचे आदिवासी समझ हीन पाए कि ”ये लोग क्या कर रहे हैं? ये औरत को मार ही डालेगे।”


अफ्रीका में इसे मिशनरी पोस्चर कहते हैं। वहां के आदिवासी इसे हिंसात्मक मानते हैं–कि पुरुष स्त्री के ऊपर सवार हो। वह नाजुक और कमजोर है उसे पुरुष के ऊपर होना चाहिए। लेकिन पुरुष के लिए ऐसा सोचना भी मुश्किल है कि वह स्त्री से नीचा है और वह स्त्री के नीचे हो।


अगर तुम्हारी मनःस्थिति में कुछ परिवर्तन आता है तो बहुत कुछ बदल जाएगा। बहुत–से कारणों से यह उचित है कि स्त्री पुरुष के ऊपर हो। क्योंकि अगर स्त्री पुरुष के ऊपर है…वह निष्क्रिय है वह अधिक हिंसात्मक नहीं हो सकती। वह केवल शिथिल होगी और उसके नीचे लेटा पुरुष कुछ ज्यादा नहीं कर सकता। यह अच्छी बात है।

अगर वह ऊपर हो तो निश्चित ही हिंसात्मक हो जाएगा। वह करेगा कुछ ज्यादा और ज्यादा कुछ करने की तुम्हें जरूरत नहीं। तंत्र के लिए तुम्हें निश्चेष्ट और शिथिल होना पड़ेगा इसलिए यह उचित है कि स्त्री ऊपर लेटी है। वह पुरुष से कहीं ज्यादा शांत और शिथिल हो सकती है क्योंकि वह स्वभाव से ही निष्क्रिय पैसिव है।


आसन बदल जाएगा, लेकिन इसकी अधिक फिक्र मत करो। पहले अपनी चित्त-दशा को बदलो। जीवन-ऊर्जा के प्रति समर्पित हो जाओ इसके साथ बहो। अगर कहीं सच में ही समर्पित हो गए तो तुम्हारे शरीर उस क्षण स्वत: ही उस अवस्था में आ जाएंगे जिसकी आवश्यकता है। अगर दोनों साथियों का समर्पण गहरा है तब उनके शरीर ठीक उस आसन में आ जाएंगे जिसकी उस घड़ी जरूरत है।


और प्रतिदिन परिस्थितियां बदल जाती हैं इसलिए पहले से ही इसको निर्धारित करने की जरूरत नहीं। यही भूल है कि तुम पहले से ही निश्चित करना चाहते हो। जब भी तुम कुछ पहले से निश्चित करना चाहते हो तो स्मरण रहे यह निश्चय तुम्हारा मन ही करता है। इसका अर्थ हुआ कि तुम समर्पण नहीं कर रहे।


अगर तुम समर्पण करते हो तो चीजों को अपने ढंग से घटने दो। और तब एक आश्चर्यजनक समस्वरता हारमनी घटित होती है जब दोनों साथी समर्पण कर देते हैं। वे कई आसन बदलेंगे या फिर वैसे ही पड़े रहेंगे शांत और शिथिल। लेकिन, यह सब बुद्धि द्वारा पहले से किए गए निश्चयों पर नहीं बल्कि जीवन-उर्जा पर निर्भर करता है। पहले कुछ भी निश्चित करने की जरूरत नहीं। यह निश्चय ही समस्या है।


प्रेम करने से पहले तुम सब तय कर लेना चाहते हो। प्रेम करने के लिए तुम पुस्तकें पढ़ते हो। ऐसी पुस्तकें भी हैं जो सिखाती हैं कि कैसे प्रेम किया जाए। इससे यही स्पष्ट होता है कि हमने कैसी मानवीय बुद्धि का विकास किया है–कैसे प्रेम करे! तब प्रेम मस्तिष्क का विषय हो जाता है तुम उसके विषय में सोचते हो मन ही मन उसका रिहर्सल करते हो और फिर इसे कृत्य का रूप देते हो। वह कृत्रिम है वास्तविक नहीं जब तुम रिहर्सल करते हो तो यह अभिनय हो जाता है अप्रामाणिक हो जाता है।


बस, समर्पित हो जाओ और ऊर्जा के साथ-साथ बहो, और फिर वह तुम्हें कहीं भी ले जाए। भय क्या है? भयभीत किस लिए होना? अपने प्रेमी के साथ भी यदि तुम निर्भय नहीं हो सकते, तब कहां, किसके साथ निर्भय हो सकोगे? और एक बार तुम्हें यह अनुभव हो जाए कि जीवन-उर्जा स्वत: ही सहायता करती है और उचित मार्ग, जो

अपेक्षित है, पर ले जाती है, तब तुम्हें जीवन को देने की गहल अंतदृष्टि उपलब्ध होगी। तब तुम अपना सारा जीवन

परमात्मा पर छोड़ सकते हो। वह तुम्हारी प्रियतम है।


तब तुम अपना सारा जीवन उस परम सत्ता के हाथों छोड़ सकते हो। तब तुम सोचते नहीं और योजनाएं नहीं बनाते, तुम भविष्य को बलपूर्वक अपने अनुसार बनाने की चेष्टा नहीं करते। तुम अपना जीवन उसकी मरजी पर छोड़ देते हो।


लेकिन काम-कृत्य (संभोग) को ध्यान कैसे बनाया जाए? समर्पण मात्र से ही ऐसा हो जाता है। उसके विषय में सोचो मत, उसे होने दो। तुम शांत और शिथिल पड़े रहो, और आगे कुछ मत करो। मन के साथ यही समस्या है। वह हमेशा आगे की सोचता है, हमेशा परिणाम की सोचता है और परिणाम भविष्य में है। इसलिए कृत्य में तुम स्वयं कभी उपस्थित नहीं होते। फलाकांक्षा के कारण तुम हमेशा भविष्य में होते हो। फल की आकांक्षा सब गड़बड़ कर देती, सब बिगाड़ देती है।


केवल कृत्य में ही रहो। भविष्य को भूल जाओ। वह आयेगा ही, उसकी चिंता करने की जरूरत नहीं। चिंता करके तुम उसे ला नहीं सकते। वह आ ही रहा है, वह आ ही गया है। तुम उसकी चिंता मत करो। तुम बस, यहां और अभी ”हेयर एंड नाओ” बने रहो।


यहां और अभी होने के लिए काम एक गहरी अंतदृष्टि बन सकता है। मेरे देखे, अब केवल यही एक कृत्य ऐसा बचा है जिसमें तुम यहीं और अभी हो सकते हो। अपने कालेज में जहां तुम शिक्षा ग्रहण कर रहे हो, यहीं और अभी नहीं हो सकते, इस आज की दुनिया में तुम कहीं भी यहां और अभी नहीं हो सकते।


लेकिन वहां भी तुम नहीं हो। तुम फल की चिंता कर रहे हो। और अब कई नई किताबों ने बहुत–सी उलझने पैदा कर दी हैं। क्योंकि अब तुम उन किताबों को पढ़ते हो जिनमें लिखा है कि प्रेम कैसे किया जाए और फिर तुम डरते हो कि प्रेम ठीक ढंग से कर रहे हो या गलत ढंग से। तुम किताब पढ़ते हो कि संभोग किस आसन में और कैसे किया जाए और फिर तुम चिंतित हो कि तुमने ठीक आसन बनाया या नहीं।


मनोवैज्ञानिक ने मन के लिए नई चिंताएं पैदा कर दी हैं। अब वे कहते हैं कि पति इस बात का ख्याल रखे कि पत्नी कामसंवेग के शिखर तक पहुंच पा रही है या नहीं। इसलिए अब वह चिंतित है, ”क्या मेरी पत्नी ऑरगॉज्म को प्राप्त कर रही है या नहीं?” और यह चिंता किसी प्रकार से कोई मदद नहीं कर सकती, बल्कि बाधा बन जाएगी।


और अब पत्नी चिंतित है कि क्या वह अपने पति को पूरी तरह रिलैक्स, होने में मदद कर रही है या नहीं? इसलिए उसके चेहरे पर प्रसन्नता और ओंठों पर मुस्कुराहट होनी ही चाहिए। उसे ऐसा प्रकट करना चाहिए कि वह बहुत ही आनंदित अनुभव कर रही है। सब झूठ हो जाता है। दोनों ही परिणाम की फिक्र कर रहे हैं और इस फिक्र के कारण वे फल कभी नहीं आएंगे।


सब भूल जाओ। उस क्षण में बहो और अपने शरीरों को जो भी करें, करने दो– तुम्हारे शरीर भली भांति जानते हैं, उनकी अपनी समझ है। तुम्हारे शरीर काम-कोशिकाओं सेक्स-सैलस से बने हैं। इनके भीतर सब कार्य पहले से निर्धारित हैं, तुमसे कुछ भी नहीं पूछा गया। बस, सब शरीर पर छोड़ दो; और शरीर हिलने-डुलने लगेगा। यह सब छोड़ देना, यह ”लेट गो” स्वत: ध्यान बन जायेगा।


और अगर तुम संभोग में ध्यान का अनुभव पा सको, तो एक बात तुम्हें समझ आ जाएगी कि जब भी तुम समर्पण कर पाते हो, तुम्हें वही अनुभूति होती है। फिर तुम गुरु के आगे भी समर्पण कर सकोगे। वह प्रेम-संबंध है।


तुम गुरु को समर्पित हो सकते हो, और तब उसके चरणों में सिर रखते समय तुम्हारा सिर खाली हो जाएगा, तुम विचार शून्य हो जाओगे। तुम ध्यानावस्था में होओगे।


फिर गुरु की भी जरूरत नहीं रहेगी–बाहर निकलकर तुम आकाश के प्रति समर्पित हो सकते हो–अब तुम समर्पण करना जानते हो, बस यही पर्याप्त है। तुम वृक्ष के आगे समर्पण कर सकते हो…और इसीलिए यह मूर्खतापूर्ण लगता है क्योंकि हम समर्पण करना नहीं जानते। हम किसी आदिवासी या ग्रामीण को देखते हैं, वह नदी पर जाता है, नदी को समर्पित होता है, उसे मां कहता है, देवी मां। या ऊगते सूर्य के प्रति समर्पण करता है और उसे महान देवता कहता है या पेड़ के पास जाता है सिर झुकाता है और समर्पित हो जाता है।


हमारे लिए वह अंधविश्वास है, तुम उसे कहते कि यह क्या मूर्खता कर रहे हो? पेड़ क्या कर सकता है? नदी क्या कर सकती है? और सूर्य क्या करेगा? देवी-देवता नहीं हैं। अगर तुम समर्पण कर सको तो कुछ भी देवता बन सकता है। अत: तुम्हारा समर्पण ही उसे दिव्य बना देता है। कुछ भी दिव्य नहीं है केवल तुम्हारा समर्पण करने वाला मन ही दिव्य बना देता है।


अपनी पत्नी के प्रति समर्पित हो जाओ और वह दिव्य हो जाती है; अपने पति के प्रति समर्पण करो, वह दिव्य हो जाता है। दिव्यता समर्पण के माध्यम से प्रकट होती है। पत्थर के प्रति समर्पण होते ही वह पत्थर नहीं रह जाता–पत्थर एक मूर्ति, एक सजीव मूर्ति हो जाता है।


इसलिए केवल यह जानना कि कैसे समर्पण करें… और जब मैं कहता हूं ”कैसे समर्पण करे”, मेरा अभिप्राय यह नहीं कि इसके लिए किसी विधि को जानो। मेरा मतलब है, तुम्हारे पास प्रेम में समर्पित होने की प्राकृतिक संभावना है। समर्पित हो जाओ और इसे अनुभव करो। और तब अपने पूरे जीवन पर इसे छा जाने दो।


 


आज इतना ही

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