मैंने सुना है, एक गांव में एक अत्यंत क्रोधी व्यक्ति था। उसके क्रोध की चरमसीमा आ गई, जब उसने अपनी पत्नी को धक्का देकर कुएं में फेंक दिया। किसी क्रोध में पत्नी की हत्या कर दी। उसे खुद भी बहुत पीड़ा और दुख हुआ, पश्चात्ताप हुआ। सभी क्रोधी लोगों को बहुत पश्चात्ताप होता है। इसलिए नहीं कि अब वे क्रोध को नहीं करेंगे, बल्कि इसलिए कि पश्चात्ताप करके वे मन में जो अपराध पैदा होता है क्रोध करने से उसको पोंछ कर साफ कर लेते हैं, ताकि फिर से क्रोध करने के लिए तैयार हो सकें। मन में जो ग्लानि पैदा होती है क्रोध करने की, पश्चात्ताप करके उस ग्लानि को पोंछ लेते हैं, भले आदमी फिर से हो जाते हैं कि मैंने पश्चात्ताप भी कर लिया, ताकि फिर क्रोध की तैयारी की जा सके।
उस व्यक्ति को पश्चात्ताप हुआ। गांव में एक मुनि का आगमन हुआ था। लोग उसे उस मुनि के पास ले गए। मुनि के चरणों में सिर रख कर उसने कहा कि मुझे कोई रास्ता बताएं, मैं तो पागल हुआ जाता हूं क्रोध के कारण। मुनि ने कहाः रास्ता एक है कि संन्यास ले लो और संसार छोड़ दो। शांति की साधना करो। उस आदमी ने तत्क्षण वस्त्र फेंक दिए, नग्न हो गया और उसने कहा कि मुझे आज्ञा दें, मैं संन्यासी हो गया! मुनि भी हैरान हुए। ऐसा संकल्पवान व्यक्ति पहले उन्होंने कभी नहीं देखा था कि इतनी शीघ्रता से, इतने त्वरित वस्त्र फेंक दे और संन्यासी हो जाए! उन्होंने उसकी पीठ ठोकी, धन्यवाद दिया। और गांव भी जयजयकार से भर गया कि अदभुत व्यक्ति है यह। लेकिन भूल हो गई थी उनसे। वह आदमी था क्रोधी। क्रोधी आदमी कोई भी काम शीघ्रता से कर सकता है। यह कोई संकल्प न था, यह केवल क्रोध का ही एक रूप था। लेकिन वह साधु हो गया, उसकी बहुत प्रशंसा हुई। और चूंकि शांति की तलाश में वह आया था, तो मुनि ने उसे नया नाम दे दिया–शांतिनाथ। वह मुनि शांतिनाथ हो गया।
क्रोधी व्यक्ति था इतना वह। अब तक दूसरों पर क्रोध निकाला था, अब दूसरों पर निकालने का उपाय न रहा, तो उसने अपने पर निकालना शुरू किया। दूसरे साधु तीन दिन के उपवास करते थे, वह तीस दिन के कर सकता था। अपने पर क्रोध निकालने की क्षमता उसकी बहुत बड़ी थी। वह अपने पर हिंसक, वायलेंट हो सकता था। दूसरे साधु छाया में बैठते, तो वह धूप में खड़ा रहता। दूसरे साधु पगडंडी पर चलते, तो वह कांटों में चलता। वह सब तरह से शरीर को कष्ट दिया। बहुत जल्दी उसकी कीर्ति सारे देश में फैल गई। महान तपस्वी की तरह वह प्रसिद्ध हो गया।
वह देश की राजधानी में गया। उसकी कीर्ति उसके चारों तरफ फैल रही थी। वैसा कोई तपस्वी न था। सचाई यह थी कि उस आदमी का क्रोध ही था यह, यह कोई तपश्चर्या न थी। यह क्रोध का ही रूपांतरण था। यह क्रोध की ही अभिव्यक्ति थी। लेकिन दूसरों पर क्रोध निकलना बंद हो गया, अपने पर ही लौट आया। लेकिन इसका किसको पता चलता।
राजधानी में उसका एक मित्र रहता था, बचपन का साथी। उस मित्र को बड़ी हैरानी हुई कि यह आदमी जो इतना क्रोधी था, क्या शांतिनाथ हो गया होगा? जाऊं, देखूं, अगर यह परिवर्तन हुआ तो बहुत अदभुत है।
वह मित्र आया, मुनि तख्त पर बैठे थे, हजारों लोग उन्हें घेरे हुए थे।
जो आदमी प्रतिष्ठा पा जाता है, वह फिर किसी को भी पहचानता नहीं। चाहे वह मुनि हो जाए, फिर वह किसी को पहचानता नहीं। देख लिया मित्र को, लेकिन कौन पहचाने उस मित्र को, मुनि चुपचाप हैं। मित्र को भी समझ में तो आ गया कि उन्होंने पहचान लिया है लेकिन पहचानना नहीं चाहते हैं। मित्र निकट आया, थोड़ी देर बैठ कर उनकी बातें सुनता रहा, फिर उस मित्र ने पूछाः क्या मैं जान सकता हूं आपका नाम क्या है?
मुनि ने उसे गौर से देखा और कहा, अखबार नहीं पढ़ते हो? सुनते नहीं हो लोगों की चर्चा? मेरा नाम कौन नहीं जानता है? मेरा नाम है, मुनि शांतिनाथ। मित्र तो पहचान गया, क्रोध अपनी जगह है, कहीं कोई फर्क नहीं हुआ। थोड़ी देर मुनि ने फिर बात की, दो मिनट बीत जाने पर उस मित्र ने फिर पूछा, क्या मैं पूछ सकता हूं आपका नाम क्या है? अब तो मुनि को हद हो गया, अभी इसने पूछा दो मिनट पहले। मुनि ने कहाः बहरे हो, पागल हो, कहा नहीं मैंने कि मेरा नाम है, मुनि शांतिनाथ। सुना नहीं? फिर दो मिनट बात चलती होगी, उस आदमी ने फिर पूछा कि क्या मैं पूछ सकता हूं आपका नाम क्या है? उन्होंने डंडा उठा लिया और कहा कि अब मैं बताऊंगा तुम्हें कि मेरा नाम क्या है। उस मित्र ने कहा, मैं पहचान गया, पुराने मित्र हैं आप मेरे, और कुछ भी नहीं बदला है, आप वही के वही हैं।
क्रोध भीतर हो, तो ऊपर से संन्यास ओढ़ लेने से समाप्त नहीं हो जाता। अगर घृणा भीतर हो, तो ऊपर से प्रेम के शब्द सीख लेने से घृणा समाप्त नहीं हो जाती। दुष्टता भीतर हो, तो करुणा के वचन सीख लेने से दुष्टता का अंत नहीं हो जाता। वासना भीतर हो, तो ब्रह्मचर्य के व्रत लेने से समाप्त नहीं हो जाती। इन बातों से भीतर जो छिपा है उसके अंत का कोई भी संबंध नहीं है। लेकिन धोखा पैदा हो जाता है, प्रवंचना पैदा हो जाती है, ऊपर से हम वस्त्र ओढ़ लेते हैं अच्छे-अच्छे और नग्नता भीतर छिप जाती है, दुनिया के लिए हम भले मालूम होने लगते हैं, लेकिन भीतर? भीतर हम वही के वही हैं।
ओशो
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