🥸स्त्री यदि प्रेम में भी हो तो वह पहल नहीं करेगी। और अगर कोई स्त्री पहल करे तो तुम्हें उससे दूर रहना चाहिए और बचना चाहिए। क्योंकि वह पुरुष—प्रवृत्ति की है, स्त्री—शरीर के भीतर पुरुष—चित्त है और तुम उपद्रव में पड़ोगे। अगर तुम सचमुच पुरुष हो तो वह स्त्री जल्दी ही तुम्हारे लिए आकर्षक नहीं रह जाएगी। लेकिन अगर तुम स्त्रैण हो—तुम्हारा शरीर पुरुष का है और चित्त स्त्री का—तो तुम स्त्री को पहल करने दोगे और तुम सुखी होगे। लेकिन उस हालत में शरीर के तल पर वह स्त्री है और तुम पुरुष हो और मन के तल पर तुम स्त्री हो और वह पुरुष है।
स्त्री प्रतीक्षा करेगी। वह कभी नहीं कहेगी कि मैं तुम्हें प्रेम करती हूं जब तक उससे यह निवेदन तुम नहीं कर चुकोगे और प्रतिबद्ध नहीं हो जाओगे। प्रतीक्षा में ही स्त्री की शक्ति है। पुरुष—चित्त आक्रामक होता है। उसे कुछ करना पड़ता है। वह पहल करता है, आगे बढ़ता है।
यही बात आध्यात्मिक यात्रा में घटती है। अगर तुम्हारा चित्त आक्रामक है, पुरुष—चित्त है, तो आवश्यक है। तब जल्दी करो, तब समय और अवसर मत खोओ। तब अपने भीतर उत्कटता, तत्परता और संकट की भाव—दशा निर्मित करो, ताकि तुम अपने प्रयत्न में अपने पूरे प्राणों को उंडेल सको। जब तुम्हारा प्रयत्न समग्र होगा, तुम पहुंच जाओगे। और अगर तुम्हारा चित्त स्त्रैण है तो कोई जल्दी नहीं है—बिलकुल नहीं। तब समय की बात ही नहीं है।
स्त्रैण—चित्त और पुरुष—चित्त एक—दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं। स्त्री जल्दी में नहीं है, उसके लिए कोई जल्दी नहीं है। दरअसल उसे कहीं पहुंचना नहीं है। यही कारण है कि स्त्रियां महान नेता, वैज्ञानिक और योद्धा नहीं होतीं—हो नहीं सकतीं। और अगर कोई स्त्री हो जाए, जैसे जॉन आफ आर्क या लक्ष्मी बाई तो उसे अपवाद मानना चाहिए। वह दरअसल पुरुष—चित्त है—सिर्फ शरीर स्त्री का है, चित्त पुरुष का है। उसका चित्त जरा भी स्त्रैण नहीं है। स्त्रैण—चित्त के लिए कोई लक्ष्य नहीं है, मंजिल नहीं है।
और हमारा संसार पुरुष—प्रधान संसार है। इस पुरुष—प्रधान संसार में स्त्रियां महान नहीं हो सकतीं, क्योंकि महानता किसी उद्देश्य से, किसी लक्ष्य से जुड़ी होती है। यदि कोई लक्ष्य उपलब्ध करना है, तभी तुम महान हो सकते हो। और स्त्रैण—चित्त के लिए कोई लक्ष्य नहीं है। वह यहीं और अभी सुखी है। वह यहीं और अभी दुखी है। उसे कहीं पहुंचना नहीं है। स्त्रैण—चित्त वर्तमान में रहता है।
यही कारण है कि स्त्री की उत्सुकता दूर—दराज में नहीं होती है, वह सदा पास—पड़ोस में उत्सुक होती है। वियतनाम में क्या हो रहा है, इसमें उसे कोई रस नहीं है। लेकिन पड़ोसी के घर में क्या हो रहा है, मोहल्ले में क्या हो रहा है, इसमें उसका पूरा रस है। इस पहलू से उसे पुरुष बेबूझ मालूम पड़ता है। वह पूछती है कि तुम्हें क्या जानने की पड़ी है कि निक्सन क्या कर रहा है या माओ क्या कर रहा है! उसका रस पास—पड़ोस में चलने वाले प्रेम—प्रसंगों में है। वह निकट में उत्सुक है, दूर उसके लिए व्यर्थ है। उसके लिए समय का अस्तित्व नहीं है।
ओशो👼
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