"
साहित्य में पहचान बनाने के लिए लेखक को अपना श्रेष्ठ से श्रेष्ठ देना होता है, जो उसने अपने अनुभव, चिंतन और अभिव्यक्ति के जरिए पैदा किया है। आज मशीनीकरण का ज़माना है और चारों ओर से बाजार भी समाज को घेर रहा है, जो लोगों को चिंतन नहीं करता, बल्कि सोने के जाल की तरह लुभाता है।
ऐसे में सिनीवाली की कहानियां एक नया विमर्श रचती हैं। उनकी कहानी 'करतब बायस' का वितान गांवों का है, जहां शहर की चमचमाती सड़कों को छोड़ कर लेडीज पार्टियों को लांघकर और रंगीनियां त्याग कर कच्ची डगर और धूल-मिट्टी में जीने वाले लोग रहते हैं। खेती-किसानी का रोजगार करते हैं। सिनीवाली गांव में होने वाले चुनाव की कथा लिखती हैं। वैसे तो हमारे हिन्दी साहित्य में कहा जाता है कि महिलाएं राजनीति पर कलम चलाने की हिम्मत नहीं कर पातीं, पर सिनीवाली के संदर्भ में यह बात सच नहीं साबित होती।
अगर मनुष्य अपनी खोखली मान्यताओं के कारण बर्बाद होने से नहीं कतराता तो वह पर्यावरण को भी दूषित करने से भी नहीं घबराता। ग्रामीणों का बड़ा तबका लालच के वशीभूत तमाम स्वास्थ्य नियमों को ताक पर रख देता है। लेखिका यह सब देख रही है, लेकिन देख कर रह जाए तो फिर लेखन की धार ही क्या! कोई तो ऐसा पैदा होता है, जो उसकी कलम को सार्थकता देने के लिए आता है, आवाज उठाता है। यह आवाज कितनी जरूरी है, वह ईंट-भट्ठों के खिलाफ हो या धुंआ उगलती चिमनियों के खिलाफ कि आदमी सांस लेने के लिए तरस रहा है।
सिनीवाली हिन्दी साहित्य में अपनी कहानियों से यह सिद्ध कर देती हैं कि महिला रचनाकार अब अपनी दृष्टि को कितना-कितना विस्तार दे रही हैं। उसकी पहुंच केवल घर, परिवार तक ही नहीं, समाज, राजनीति और धर्म की जद तक जाती है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें