🏵️ बनारस :: कमल गुप्त और 'कहानीकार' की याद बनाम अरविंद गुप्त की तलाश 🏵️
वाराणसी में पिछले दशक के पूर्वार्द्ध में मैं अपनी दूसरी पारी शुरू करने के लिए जब झारखंड से दोबारा आ रहा था तो यहां के लेखकों में सबसे पहले कमल गुप्त जी से ही फ़ोन पर बात हुई थी!
कुछ ही देर बाद कॉलबैक करके कमल जी ने बताया कि मेरे लिए नागरी प्रचारिणी सभा परिसर में एक कमरा उन्होंने बुक करा दिया है. आने पर उन्होंने बहुत गर्मजोशी के साथ स्नेहपूर्वक स्वागत किया और साथ-सहयोग दिया.
इस बार मुझे लहुरावीर क्षेत्र में दफ़्तर के निकटवर्ती इलाके में आवास लेना पड़ा, जो कमल जी के भैरवनाथ क्षेत्र से दूर हो गया. पहली पारी वाला आवास लक्सा के पास रामापुरा में था, जहां गोदौलिया-दशाश्वमेध घाट आने वाले लोग खोजते-खाजते पहुंच ही जाते थे! बहरहाल, इस बार सबसे मिलना-जुलना कम हो गया. कमल जी से भी.
अफ़सोस यह भी कि इस बार नियतिवश भी उनका स्नेह कम ही मिल सका. कुछ ही समय बाद एक हादसा-सा गुजरा. एक दिन शाम में मैं दफ्तर में कार्य से घिरा था कि अचानक उनके निधन की सूचना आई....
विश्वास ही नहीं हुआ कि ऐसा भी औचक हो सकता है लेकिन यह हुआ...
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इस बीच कोई डेढ़ दशक के अंतराल में कई बार मन में यह बात आई कि किसी दिन कमल जी के भैरवनाथ स्थित आवास में पहुंचूं लेकिन इस बदहवास दिनचर्या ने कभी ऐसा मुमकिन नहीं होने दिया. उनके परिवार के लोगों का कोई संपर्क सूत्र मिल ही नहीं पा रहा था. जिससे पूछता, वह अनजान बन जाता.
पिछले कुछ समय से भारतेंदु कुलोद्भव चिरंजीवी दीपेशचंद्र जी से मैं हर मुलाक़ात में कमल जी के सुपुत्र अरविंद गुप्त के बारे में लगातार चर्चा कर रहा था. उनके बारे में पूछता कि वे रहते कहां हैं, आवास वही है या बदल गया या वे करते क्या हैं आदि-आदि.
दीपेशचंद्र भी उनका संपर्क नम्बर नहीं बता पा रहे थे लेकिन उन्होने यह जिम्मा अवश्य ले लिया कि वे पता लगा लेंगे और अपेक्षित सूचनाएं उपलब्ध कराएंगे.
शुक्रवार (17 दिसंबर 2021) को मैंने दीपेशचंद्र जी को फ़ोन किया और अरविंद जी के संपर्क-सूत्र के बारे में पूछा तो उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक सूचना दी कि हाल ही एक दिन अरविंद जी स्वयं ही 'भारतेंदु भवन' आ गए थे ! यह सुन बहुत ख़ुशी हुई. जैसे कोई महत्वाकांक्षी खोज पूरी हुई हो!
बहरहाल, अरविंद का संपर्क नम्बर हाथ आ गया.
सविता जी ने टिप्पणी की, '..आपने इतनी शिद्दत से याद किया कि सूचना क्या, ख़ुद अरविंद ही चलकर आपके रेंज में आ गए!..'
बिना देर किए अरविंद से मैंने फ़ोन पर बात की और उन्हें बताया कि अब से कोई चार दशक पहले पहली बार जब मैं एक पत्रिका मुद्रित कराने बनारस आया था तो कमल जी से मिलने भैरवनाथ में उनके घर आया था! तभी उनसे पहली भेंट हुई थी! उसके बाद कमल जी से लंबा संपर्क चला. उनके घर में निचले तल्ले वाले संपादकीय कक्ष, जिसमें प्रेमचंद और रामचंद्र शुक्ल की बड़ी-बड़ी सजीव पेंटिंग लगी थीं, से लेकर ऊपर के अध्ययन-कक्ष तक, जहां सीधी-सी अंधेरी सीढ़ियों को दिन में भी टार्च की रोशनी और तनी मोटी रस्सियों के सहारे पहुंचना होता था, की बैठकियां और ठहाके सब जैसे अब भी जस के तस मन में मौजूद!
बाद में नौकरी के क्रम में काशी की दूसरी पारी के प्रारंभ में कमल जी के स्नेहिल सहयोग का प्रसंग भी उन्हें बताया. यह सब जान-सुनकर अब अरविंद भी मिलने को उत्कंठित हो उठे.
मैंने उन्हें कुछ देर बाद लोहटिया के 'रूपवाणी' स्टूडियो के पास आने को कहा, जहां हमलोग थोड़ी देर बाद एकल नाटक का मंचन देखने पहुंचने वाले थे !
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समकालीन कविता के प्रखर हस्ताक्षर व्योमेश शुक्ल से नाटक के मंचन के बाद स्टूडियो के बाहर बातचीत चल रही थी, तभी अरविंद जी का कॉल आ गया और कुछ ही देर बाद वे हमारे सामने!
व्योमेश जी से उनका परिचय हुआ तो उन्होंने उन्हें देखकर टिप्पणी की, '...बस, टोपी की एक कमी दिख रही है और उस एक ब्रीफकेस की! ...और स्कूटर की !..'
अरविंद ने सामने इशारा कर बताया कि स्कूटर तो है! व्योमेश की टिप्पणी के बाद मेरा भी ध्यान खिंचा, सचमुच अरविंद का चेहरा-मोहरा अपने पिता कमल जी की ही तरह है. कमल जी की मशहूर फ़र वाली टोपी यदि उनके सिर पर रख दी जाए तो अरविंद भी अपने पिता की तरह दिखने लग जाएं!
मैं अरविंद को बताने लगा कि कैसे मैं वर्षों से उनसे मिलने को बेचैन था और पिछले दो-तीन हफ्तों से किस तरह संपर्क-सूत्र खोजने के लिए दीपेशचंद्र जी पर दबाव बनाए हुए था ! सविता जी ने फ़िर दोहराया कि मेरे शिद्दत से खोजने के ही कारण ही अरविंद खुद खिंचे चले आए!
मैं अपने ढंग से अरविंद को नसीहत भी देता रहा कि कैसे उनके पिता बनारस ही नहीं, पूरे हिंदी जगत में लेखकों के बीच एक जरूरी और सर्वसुलभ कड़ी थे, इसलिए उन्हें (अरविंद) कम से कम अपने नगर के लेखकों के संपर्क में तो रहना ही चाहिए!
अरविंद ने अपना इतिवृत्त बताया कि उन्होंने जापानी भाषा सीख रखी थी. पिता निधन के बाद वे उसी दुनिया में मशगूल हो गए!
घर-परिवार की बातें होने लगीं. यह जानकर अच्छा लगा कि वे लोग 86 साल की माता जी की छत्रछाया में हैं लेकिन इस बीच उन्होंने तुरंत स्पष्ट किया कि अब माता जी की स्मृतियां विद्यमान नहीं हैं!
मन भारी हो गया. स्वयं को यह समझाना पड़ा कि जीवन है तो उसके मीठे-कसैले सभी स्वाद और सफ़ेद-स्याह समस्त रंग भी होंगे, नियति के खेल से कौन कब तक बचा रह सकता है !!
समान चाय की साथ-साथ चुस्कियां लेकिन हर घूंट का स्वाद अलग, कभी हल्का मीठा तो कभी तेज कड़वा!
शीघ्र मिलने और सविस्तार बतियाने के वादे-इरादे के साथ हमने विदा ली.
अरविंद ने थोड़ी देर पहले, आते ही 'कहानीकार' का एक पुराना अंक भेंट किया था, लौटते हुए मैं बार-बार उसे स्पर्शित कर कुछ विशिष्ट अनुभूति अर्जित करता रहा! ●●
Savita Singh Vyomesh Shukla
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