शुक्रवार, 17 दिसंबर 2021

रवि अरोड़ा की नजर से...

 चलो दिलदार चलो / रवि अरोड़ा


हिंदी सिनेमा की एक शाहकार फिल्म थी पाकीज़ा । फिल्म का एक गीत यादगार साबित हुआ- चलो दिलदार चलो चांद के पर चलो । नायक के इस आह्वान के जवाब में नायिका भी सुर में सुर मिलाती  है-  हम हैं तैयार चलो । चांद पर ले जाने के इस ख्वाब और इस यात्रा के लिए रजामंदी की उक्त लाइनें गीत में बार बार दोहराई जाती हैं मगर न हो नायक नायिका को चांद पर ले जाने का कोई जतन करता है और न ही नायिका का यह सपना फिल्म में कहीं पूरा होता दिखता है । कुछ ऐसा ही गीत मुझे आजकल फिजाओं में फिर से सुनाई दे रहा है । पांच विधानसभा के चुनाव होने हैं और राजनीतिक दल मतदाताओं को लुभाने के लिए चांद पर ले जाने जैसे वादे कर रहे हैं । कोई मुफ्त बिजली पानी की बात कर रहा है तो कोई मुफ्त स्कूटी देने का वादा कर रहा है । कोई नकदी की  हामी भर रहा है तो कोई मोबाईल फोन और लैपटॉप का सपना दिखा रहा है । उधर पब्लिक भी इन वादों पर झूम रही है और जो नेता जितनी बड़ा वादा कर रहा है उसकी सभाओं में उतनी ही अधिक भीड़ जुट रही है ।  पगलाहट के इस दौर में जैसे हर कोई कह रहा है 'हम हैं तैयार चलो होsss` ।


खोजबीन करता हूं तो पता चलता है कि जनता को खैरात बांटने का दौर मुल्क में छठे दशक से ही शुरू हो गया था और तमिलनाडु में मुफ्त अनाज देने से इसकी शुरुआत द्रमुक ने की थी । बाद में वहां साइकिल, मिक्सी, कूकर, टीवी, नकदी और  कर्ज मुआफी तक न जाने क्या क्या बंटा ।  उत्तर भारत में इस दौर को तेज़ी दी आम आदमी पार्टी ने और उसने मुफ्त बिजली, पानी, तीर्थ यात्रा और बस यात्रा के दम पर अपनी सरकार भी बना ली । इस पार्टी ने पांच राज्यों के आगामी चुनाव में अब बिजली पानी के साथ नकद नारायण देने की भी बात की है । इसी की देखा देखी भाजपा और कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दल भी मुफ्त खैरात बांटने की बातें कर रहे हैं । कोई नहीं बता रहा कि इस सबके लिए पैसा कहां से आएगा ?  जमीनी हकीकत यह है कि लगभग सभी राज्य सरकारों का बजट घाटे का है । ले देकर केंद्र की भीख से उनका गुजारा होता है । उधर केंद्र का बजट भी घाटे का रहता है सो वादा करके भी वह राज्यों को पूरे पैसे नहीं दे पाता । बचाव का एक ही तरीका केंद्र और राज्यों के पास है कि टैक्स बढ़ाते जाओ । डीजल पेट्रोल पर लगने वाला चालीस फीसदी तक  टैक्स इसका उदाहरण है । केंद्र सरकार तो फिर भी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां बेचकर अपना काम चला लेती है मगर राज्य कहां जाएं ? ऊपर से उनके जिम्मे मुफ्त बिजली पानी , लैपटॉप, मोबाईल फोन, स्कूटी और नकद पैसे देने का भी बोझ आ गया तो सरकार कैसे चलेगी ?  उनके आधे पैसे तो तनख्वाहों में ही चले जाते हैं । हर साल आमदनी से ज्यादा खर्च हो जाता है । ऐसे में शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, परिवहन और विकास योजनाओं पर काम कैसे हो ? 


सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में ही सुझाव दिया था कि मतदाताओं को प्रलोभन देने के खिलाफ कानून बने मगर इस दिशा में कोई काम आज तक नहीं हुआ । चुनाव सुधार की बात करने वाले विद्वान चिल्ला चिल्ला कर जमाने से कह रहे हैं रेवड़ियां बांटने की यह प्रथा लोकतंत्र के लिए खतरा है मगर उसकी कोई नहीं सुनता । हमारे लोकतंत्र को घुन की तरह चिपटा यह रोग चुनाव दर चुनाव बढ़ता ही जा रहा है । छोटे बड़े सभी राजनीतिक दल नंगई पर उतरे हुए हैं । आगामी विधानसभा चुनावों में तो सारे अगले पिछले रिकॉर्ड ही टूट रहे हैं । हर वह वादा जो किया जा सकता है, किया जा रहा है । ले देकर चांद पर ले जाने की बात ही अभी तक बाकी है । यकीनन यदि ऐसी बात किसी नेता ने कही तो हमारी बावली जनता इस पर भी शर्तिया यही कहेगी - हम है तैयार चलोsss ।



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