सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

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मीडिया में अनगढ़ बच्चों की भीड़

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अनामी शरण बबल, वरिष्ठ पत्रकार
मीडिया की पढ़ाई को लेकर पूरे देश में मची हाय तौबा से आज खुश होने के बजाय मन आशंकित ज्यादा है। मीडिया के नाम पर अब तक सैकड़ों संस्थान खुल चुके है। सरकारी और निजी विश्व विद्यालयों या इनसे मान्यता लेकर पत्रकारिता और मल्टीमीडिया  की पढ़ाई हो रही है। पढ़ाई के महत्व को लेकर सरकार भी इस तरह चिंतित है कि शायद इसी सत्र से देश भर के 20 हजार स्कूलों (निजी और सरकारीहायर सेकेण्डरी) में मीडिया की पढ़ाई शुरू होने वाली है।(कपिल सिब्बल की सरकारी घोषणा के बावजूद अभी तक स्कूलों में अधिसूचना नहीं पहुंची है)
 
मीडिया की शिक्षा के बाबत सरकारी चिंता से मेरा मन  बेहाल है। लग रहा है मानो नयी सदी में अब खबरिया चैनलों के बाद कौन सा नया धमाल होगा। हालांकि मीडिया की पढ़ाई कर रहे बच्चों को देखकर खुद को रोमांचित नहीं पाता, मगर उनके उत्साह को देखकर मन में खुशी का पारावार नहीं रहता। इन बच्चों के उत्साह को एक दिशा देने की जरूरत है। पत्रकारिता के बेसिक पर जोर देने की आवश्यकता है। पत्रकारिता कोर्स खत्म करके के बाद भी ज्यादातर छात्रों की बेगारी या बेकारी ( मीडिया में नौकरी है कहां) देखकर यह सवाल और ज्यादा ज्वलंत हो जाता है कि क्या छात्रों के साथ कोई खिलवाड़  तो नहीं हो रहा है?
 
हालांकि 1987-88 में भारतीय जनसंचार संस्थान से कोर्स करने का बाद कभी फटीचरी( कई दौर में लगभग चार साल की बेगारी) और कभी (अबतक 12 अखबार) नौकरी की। तब कहीं जाकर मीडिया में तकरीबन 20-21साल गुजार कर यह महसूस हुआ कि मीडिया पाठ्यक्रम को सैद्धांतिक रखने के बजाय इसे व्यावहारिक या यों कहे कि लगभग व्यावहारिक बनाए बगैर पत्रकारों की फौज के बजाय बेकारों की फौज (खड़ी) तैयार की जाती रहेगी।
यह लिखकर मैं अपने आपको  कोई जीनियस या सुपर पत्रकार बनने या दिखाने की चेष्टा नहीं कर रहा। पत्रकारों की नयी फसल के प्रति शायद यह हमारा(हम सबका) कर्तव्य है या नैतिक जिम्मेदारी (हालांकि आज के समय में यह सब फालतू माने जाते है) कि इस समय के हालात से छात्रों को रूबरू कराया जाए।
 
 2005 में दिल्ली अमर उजाला में चीफ रिपोर्टरी के दौरान इंटर्न करने आए कुछ  छात्रों से पाला पड़ा। इन स्मार्ट लड़कों में बेसिक का घोर अभाव था। भाषा ज्ञान का यह हाल कि इनके लिए शुद्ध लिखना तो दूर की बात एक पन्ना कुछ भी लिखना दूभर था।
संयोग कुछ रहा कि पिछले तीन साल से दिल्ली के तीन चार संस्थानों के अलावा रांची, पटना, आगरा और अपने दोस्तों के कुछ संस्थानों में कभी लगातार तो कभी यदा-कदा क्लास लेने का मौका मिला। (यह दौर आज भी जारी है, मगर कभी कभार तो कोई माह  फाका भी रह जाता है) अध्यापन के प्रति खास रूचि नहीं होने के बावजूद मेरा पूरा जोर हमेशा लीक से अलग होकर चलने और कुछ अलग करने की रही है इसी के तहत मैं  प्रैकि्टकल या व्यावहारिक पढ़ाई पर ज्यादा जोर देता हूं। क्लासरूम को मैंने हमेशा एक न्यूजरूम में बदलने की वकालत की है। पत्रकार बन जाने पर जिसकी सबसे ज्यादा आवश्यकता होती, उन जरूरतों पर अभी से गौर करते हुए ही भावी पत्रकारों को प्रशिक्षित करके ही बेस्ट मुमकिन है। मगर, अफसोस इसे भावी पत्रकारों में इन तमाम जरूरतों को लेकर दिलचस्पी ही नहीं है। खासकर दिल्ली एनसीआर.के छात्रों में सीखने की लगन सबसे कम है। बाहर के बच्चों में लगन और जिज्ञासा होने के बावजूद केवल और केवल इलेक्ट्रोनिक मीडिया के प्रति ही रूझान है। अखबारों को लेकर उपेक्षा का यह आलम है कि ज्यादातरों को तो प्रिट मीडिया, न्यूजपेपर की उपयोगिता का अहसास तक नहीं है।
 
 
सपने देखना कभी गलत नहीं होता, मगर आंखे बंद करके देखे गए ज्यादातर सपने आंखे खुलते ही खत्म हो जाते हैं। खुली आंखों से देखा गया सपना ही साकार होता है। रातो रात स्टार बनने का सपना तो इनकी आंखों और चेहरे पर केवल दिखता ही नहीं बोलता हुआ नजर आता है। मेहनत करने से भी (यदि मौका मिले तो) ये भावी पत्रकार कभी पीछे नहीं रहेंगे। मगर मीडिया के एबीसीडी से लेकर जेड तक के बारे में जानने या सीखने की भावना का इनमें अभाव है। हालांकि पढ़ाई के नाम पर भले ही इनमें रूचि नहीं हो, मगर काम के नाम पर उसी काम को पूरी क्षमता से अंजाम देने का अनोखा चेहरा इन लड़कों के भीतर की तपिश का परिचायक है। लिखने की किलर क्षमता के बगैर पत्रकारिता में गुजारा कितना कठिन है, इसका इन्हें कोई बोध नहीं है। लिखने के बाद छपने की भूख या बेताबी भी किस चिड़िया का नाम है, इसका कोई इल्म नहीं।
 
पत्रकारों की फौज पैदा करने वाले ज्यादातर संस्थानो में भी पत्रकारिता की पढ़ाई के नाम पर बच्चों को क्लास रूम में केवल सैद्धातिंक ज्ञान से दिमागी पत्रकार बनाया जा रहा है। मीडिया के खुमार से पागल हुए ज्यादातर बच्चे भी बस पत्रकार बनने के बजाय पत्रकारिता की पढ़ाई करके ही संतोष कर रहे है। (क्योंकि, ज्यादातर के लिए पत्रकार बनकर काम करना दुरूह है)
 
इन बच्चों में भी अपने आपको मांजकर निखारने या औरों से बेहतर बनने का चाव नहीं है। हर जगह के संस्थान में बच्चों से मेरा एक ही सवाल होता है कि आप पत्रकारिता में क्यों आए? सैकड़ों छात्रों में से यदि दो चार पांच को छोड़ दे तो मेरा यह सवाल आज भी जवाब की तलाश रहा है। पढ़ाई को और ज्यादा रोचक बनाना होगा। अनुभव से जोड़ने हालांकि इन बच्चों पर हम सारा दोष डालकर खुद को दोषमुक्त नहीं मान सकते।
 
सिद्धांत और सैद्धांतिक शिक्षा के बगैर  किसी भी शिक्षा के सार को जान पाना नामुमकिन है। सिद्धांत से ही हमें उसकी गंभीरता और परिपक्वता का अहसास होता है। सिद्धांत की उपेक्षा की वकालत करना तो सरासर गलत होगा।
 
मगर, आज क्लासरूम की शक्ल को बदलना सबसे जरूरी है। एक भावी पत्रकार को तैयार करने का ठेका यदि निजी और सरकारी स्तर पर किया जा रहा है, तो वाकई में बच्चों को पत्रकार की तरह विकसित करने पर जोर देना होगा। इस तरह के प्रयासों को बड़े पैमाने पर कामयाब करने की जरूरत है, ताकि समय के कुपोषण से उन्हें बचाया जा सके।
 
मीडिया में एक ही निशि्चत सच है और वो है अनिशि्चत भविष्य । हर समय टंगी होती है नौकरी पर बेकारी की कटार।  इस सच के बावजूद अगर बच्चों की बेशुमार भीड़ इस तरफ लालायित है, तो निसंदेह इसका भरपूर स्वागत होना चाहिए। अनगढ़ मिट्टी के लोंदे को सांचे में ढालने की आवश्यकता है। युवा पीढ़ी की इस बेताबी को एक सार्थक गति और दिशा की जरूरत है ताकि आज के मौज, मस्ती, मोबाइल, मल्टीप्लेक्स और माल्स के दौर में भी युवाओं के मन में पत्रकारिता को अपना कैरियर बनाने का ललक है।
 
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खो गयी कहीं चिट्ठियां

 प्रस्तुति  *खो गईं वो चिठ्ठियाँ जिसमें “लिखने के सलीके” छुपे होते थे, “कुशलता” की कामना से शुरू होते थे।  बडों के “चरण स्पर्श” पर खत्म होते...