नमस्कार दोस्तो
कुछ शुक्राना लघु पत्रिकाओं का
आज दिल में आया कि लघु पत्रिकाओं का एहतराम करूं जिन्होंने हिन्दी अदब को ज़िंदा रखने की सफल कोशिश की। लघु पत्रिकाएं निकालना, आग की लपटों से खेलने जैसा , हौसले वालों का खेल रहा है। तमाम लेखक अपने संघर्ष की तो बात करते हैं, लघु पत्रिकाओं के जज़्बे, मेहनत आर्थिक संकट, रचना की पहुंच से लेकर प्रूफ रीडिंग तक और छपने से लेकर डिस्पैच तक की थकाऊ प्रक्रिया।
कोई भी पत्रिका आर्थिक स्थिति से इतनी खुशहाल कभी नहीं रही।हंस, पहले ,कथादेश, समायांतर, शेष, दोआबा, पाखी
सब पत्रिकाओं का सूरते हाल कमोबेश एक जैसा रहा है।
आखिर वो क्या दिक्कतें थीं कि धर्मयुग सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान दिनमान पत्रिकाएं बंद हो गई।
इस ख़ला को यादव जी ने महसूस किया और हंस पत्रिका निकालकर, सन्नाटे में गूंज पैदा की।
पहल तब निकल ही रही थी।
इन पत्रिकाओं के साथ मेरा बहुत पुराना और ख़ुशरंग रिश्ता रहा है।
ये अदबी सफ़र भी बड़ा विस्मित कर देनेवाला रहा है। ज़िद, जुनून, जिज्ञासा, व्याकुलता और कुछ अभिव्यक्त करने की ताबिंदा ख़लिश की गठरी बगल में दबाए हुए, दीवानावार किसी ऐसे टेढ़े मेढे रास्ते से गुज़रते हुए जहां अपने जैसे, फ़क्कड, दानिशमंद हमराह मिलते रहें।और लफ़्ज़ों के आतिशदान में , प्रतिवाद की चिंगारियों को न बुझने देने की संचेतना के साथ।
एक मिसरा
तमाम लेखक दोस्तों और लघु पत्रिकाओं के संपादकों के लिए
मेरा अज्म़ इतना बलंद है कि पराये शोलों का डर नहीं
राजेन्द्र यादव नौइयत पसंद थे।हर बार कुछ नया प्रस्तुत करते। हिंदी में दलित विमर्श और स्त्री विमर्श उनकी बदौलत आज।
एक बार अपने बुक शेल्फ की सफाई करते हुए किताबों में ऐसे डूबे कि पूरा संपादकीय ही लिख डाला।
हलचल पैदा करने और साहित्य में चौंका देनेवाला माहौल पैदा करना उनकी फ़ितरत में था।
गंगा पत्रिका के संपादकीय में एक बार मेरी ग़ज़लें ही संपादकीय में छाप दीं
और लिखा। इस माह का संपादकीय ये ग़ज़लें हैं।
उतने ही दीदार, दिलकश और जांनिसार रवींद्र कालिया जी थे।पहले वागर्थ और बाद में नया ज्ञानोदय, इन पत्रिकाओं के ज़रिए वो नये लेखकों का एक कारवां लेकर आए।वो तमाम युवा लेखक ,आज स्थापित लेखक हैं।
वर्तमान साहित्य का कहानी महाविशेषांक जिस धूम से निकाला उतनी ही सरगर्मी के साथ नया ज्ञानोदय का ग़ज़ल महाविशेषांक प्रस्तुत किया।
वो अंक लगभग मैंने तैयार करके दिया। उनदिनों कालिया जी की सेहत भी कुछ ठीक नहीं थी।
वो बहुत पारखी भी थे।जिस कुणाल सिंह को वागर्थ में सह संपादक बनाया । उसे साथ लाए और नया ज्ञानोदय की बड़ी ज़िम्मेदारी सौंपी।वही कुणाल सिंह ही तो हैं जो इन दिनों वनमाली कथा को जिस सलाहियत से निकाल रहे हैं,वो आपके सामने है।
मैंने लघु पत्रिकाओं के कम संसाधनों की बात की थी। आप सोच नहीं सकते कि वो कथादेश का हर अंक कितनी मुश्किल से निकाल पाते हैं।
उनके लिए यह शेर बहुत मौज़ूं है
जिस हाल में जीना मुश्किल है
उस हाल में जीना लाज़िम है।
उनका घर ही उनकी पत्रिका का दफ्तर है। बहुत कम इच्छाओं के साथ जीवन जीने वाले हरिनारायण जी की एक ही प्रबल इच्छा है कि
कथादेश निकलती रहे।
ग़ौरतलब है कि नया ज्ञानोदय जब दोबारा निकलना शुरू हुआ तो उसके संपादक प्रभाकर श्रोत्रिय जी थे। वो बौद्धिक और नफासतपंसद अदीब थे।
पहल के ज्ञान रंजन जी ने जो तरक्की पसंद माहौल बनाया और पहल को एक ज़रूरी पत्रिका के रुप में उपस्थित किया।
मैं पहल के आठवें अंक से जुड़ पाया। वो अंक उर्दू साहित्य पर बहुत विमर्श तलब अंक था। देरिदा और वाल्टर बेंजामिन ,पर अंक निकाले।पहले ज्ञान जी ग़ज़लें नहीं छापते थे, बाद में वो ग़ज़लें भी छापने लगे।पहल के सौवें अंक पर हिंदी साहित्य में जश्न का माहौल था। अब पहल बंद हो चुकी है।इस उम्र में पत्रिका निकालना ज्ञान जी के बहुत मुश्किल है। वो सेहतमंद रहें।
परिकथा के सौवें अंक ने भी आश्वस्त किया है कि साहित्य की दुनिया में कुछ कर गुजरने वालों की कमी नहीं है।
आपमें से किसी को याद हो कि सारंगा जैसी खूबसूरत , कलरफुल पत्रिका भी निकलती थी। एक दो अंक छाया मयूरी के भी निकले जिसके संपादक अवधारणा मुद्गल थे।
अक्षरवार्त बहुत समय तक निकलती रही।
ग़ज़ल कार के कुछ बेहतरीन अंक दीपक रूहानी ने निकाले। वो शायरी केंदित पत्रिका थी।
लखनऊ से कथाक्रम पत्रिका निरंतर निकल रही है। उद्भावना के संपादक अजेय कुमार नियमित पत्रिका निकाली रहे हैं।
पल्लव बनास जन पत्रिका को नयी संचेतना देने की सफल कोशिशें करते रहते हैं। फिलहाल, उन्होंने कथेतर किताबों का समीक्षा अंक निकाला है।
आकार जबसे प्रियवंद के संपादन में निकलने लगी है ज़्यादा ज़रूरी और विचारोत्तेजक हुई है।
शेष के संपादक हसन जमाल साहब थे। उन्होंने बड़े करीने से बड़े ताप से शेष को निकाला। हर अंक में एक पंक्ति दो ज़बानों की एक किताब।
आपने शेष को पढ़ा होगा और महसूस किया होगा कि वो एक भरपूर किताब थी और दो ज़बानों की। उर्दू अदब के बड़े अदीबों को हमने शेष पत्रिका के ज़रिए पढ़ा।हसन जमाल बड़ी मुश्किलों से अंक निकालते थे। वही आर्थिक संकट। पत्नी की मृत्यु के बाद हसन जमाल साहब कुछ टूट से गये। कुछ अंक बाद में भी निकाले। अब शेष पत्रिका बन्द है। हसन जमाल सेहतमंद रहें।
दोआबा उसी संवेदना का विस्तार है। पत्रिका के संपादक जाबिर हुसैन साहब ने हिंदी उर्दू साहित्य को संजीदगी से केंद्र में रखा।
पंकज बिष्ट ने समयांतर पत्रिका को विचार पत्रिका के रुप में बहुत मन और श्रम के साथ निकाला। साल में दो अंक किताबों के लिए मुकर्रर किए।
देश हरियाणा को डा सुभाष चन्द्र ने बड़ी लगन और निष्ठा से निकाला।उनकी यह हार्दिक कोशिश रही कि अपनी मिट्टी की बू बास और रचनात्मक शऊर मौजूद रहे।
हरियाणा से कुछ अंक अथ पत्रिका के भी निकले जिसके संपादक ललित कार्तिकेय थे।
पाखी प्रेम भारद्वाज के संपादन में दम।से समय तक निकलती रही। उनकी मृत्यु के बाद, यह दायित्व जोशी जी ने अपने सर लिया। पंकज शर्मा जी की एकाग्रता भी पाखी में शामिल है।
हरियाणा से तारिका पत्रिका को महाराज कृष्ण निकालते थे। अम्बाला छावनी से।वो विकलांग थे और पत्रिका निकालने जैसा जटिल काम अपने ज़िम्मे ले रखा था।
अम्बाला शहर से विकेश निझावन भी पत्रिका निकालते रहे हैं। खराब सेहत के बावजूद उन्होंने अभी एक नया अंक निकाला है। वो सेहतमंद रहें। दुआएं।
सरकारी पत्रिकाओं पर आरोप लगते रहे हैं कि वो अच्छी नहीं निकलती। राकेश रेणु ने आजकल में क़दम क्या रखा कि पत्रिका बहुत सशक्त हो गई। भारत भारद्वाज ने पुस्तक वार्ता के बहुत मेयारी अंक निकाले।
तद्भव एक ज़रूरी पत्रिका है।
फिलहाल, वनमाली कथा, हंस, कथादेश, पाखी ,परिकथा, नया ज्ञानोदय, बनास जन , कथा क्रम , समकालीन भारतीय साहित्य जैसी ज़िम्मेदारी से भरपूर साहित्य के प्रति निष्ठावान पत्रिकाएं निकल रही हैं।
और भी होंगी ज़रूरी पत्रिकाएं।
शुभकामनाएं।
ज्ञान प्रकाश विवेक