शनिवार, 29 मार्च 2014

आधुनिक संस्कृत लेखक


मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
दुनियाँ की सबसे प्राचीन भाषा संस्कृत का प्राचीन साहित्य तो सर्वाधिक समृद्ध है ही किन्तु वर्तमान आधुनिक काल में भी संस्कृत कवियों , लेखकों की कमी नहीं है। जहाँ एक ओर संस्कृत पत्र पत्रिकायें, दैनिक समाचार पत्र प्रकाशित हो रहे हैं वहीं दूसरी ओर हजारों कवि, लेखक निरन्तर कविता , नाटक , कहानी , उपन्यास आदि लिखकर संस्कृत को मृतभाषा कहने वालों को चुनौती दे रहे हैं।
Header text Header text Header text
Example Example Example
Example Example Example
Example Example Example
वर्तमान समय में भारत के सभी प्रदेशों में समान रूप से संस्कृत के ग्रन्थ लिखे और पढे जा रहे हैं। संस्कृत के आधुनिक साहित्यकारों द्वारा लिखित सभी पुस्तकों का परिचय यहां देना संभव नहीं है पर उनकी बहु चर्चित कृतियों की जानकारी निम्नानुसार है।
क्रमांक साहित्यकार का नाम कृति का नाम
१ - श्री के०एल० रंगीलादास - व्यंगात्मक काँग्रेस गीता
२ - श्री के० कल्याणी - भारती विलाप
३ - श्री एम०के०ताताचार्य - भारती मनोरथम्
४ - श्री जी०वी पद्मनाभाचार्य - पवनदूतम्
५ - श्री गणपति शास्त्री - ध्रुव चरितम् ,ताटका परिणयम् , तिरगशतकम्
६ - श्री विजयराघव - सुरभिसंदेशम्
७ - श्री त्रिशूरनारायण मूष - कपोत संदेशम्
८ - श्री रंगाचारी - पिकसंदेशम्
९ - श्री सी० सुगन्नि नायर - सीताहरणम्
१० - श्री रवि वर्मा तम्बूरान - पद्मपेटिका
११ - श्री सुन्दर राजन - सुरश्मिकाशमीरम् ,अभाणभारम्
१२ - श्री सूर्यमणि रथ - समस्यापूर्ति शतकम्
१३ - श्री केशवचन्द्रदास - ईशा
१४ - श्री के० रामावतार शर्मा - मुद्गर दूतम्
१५ - श्री तापेश्वर सिंह तपस्वी - पुनर्मिलनम्, हरप्रिया
१६ - श्री वनेश्वर पाठक - प्लवंगदूतम्, हीरोचरितम्
१७ - श्री रामाशीष पाण्डेय - मयूखदूतम्, काव्यकादम्बकम्
१८ - श्री अभिराज राजेन्द्र - आर्यान्योक्तिशतकम्, नवाष्टकमल्लिका, चौरशतकम्
१९ - श्री पी०के०नारायण पिल्लई - मयूरदूतम्
२० - श्री कृष्णमूर्ति - मत्कुणाष्टकम्
२१ - श्री राजगोपाल चक्रवर्ति - मधुकरदूतम्
२२ - श्री के०एस०राजगोपालाचार्य - शुकसंदेशम्
२३ - श्री आसुरि अनन्ताचार्य - सम्मार्जनीशतकम्
२४ - श्री श्री निवासाचार्य जालिहाल - श्री तीर्थक्षेत्र विलसकाव्यम्
२५ - श्री प्रमथनाथ तर्क भूषण - कोकिलदूतम्
२६ - श्री विधुशेखर भट्टाचार्य - यौवन विलास
२७ - श्री म०क०कोच नरसिंहाचार्य - पिकसंदेशम् ,गरुडसंदेशम्
२८ - श्री बी०सुब्बाराव - दक्षिणात्य मेघसंदेशम्
२९ - श्री जगन्नाथ पाठक - कपिशायिनी, पिपासा
३० - श्री रामकृष्ण - ताराचरितम् , चण्डदेवचरितम् ,
३१ - श्री शुकदेव शास्त्री - जितमल चरितम् ,स्वच्छन्दत्रिवेणी
३२ - श्री वेदकुमारी घई - उर्मिः
३३ - श्री पुष्करनाथ शास्त्री - वासन्ती
३४ - श्री श्रीकृष्णराम व्यास - स्मरणशतकम्
३५ - श्री नित्यानन्द शास्त्री - हनुमद्दूतम्
३६ - श्री अभिनवभर्तृहरि - वैराग्यशतकम् , नीतिशतकम्
३७ - श्री शिवराम शास्त्री - हर्याणीयम्
३८ - श्री सत्यदेव बशिष्ठ - सत्याग्रहनीतिशतकम्
३९ - श्री मूलशंकर याज्ञिक - विजय लहरी
४० - श्री हर्षदेव माथुर - रथ्यासु , जम्बूवर्णानां शिराणाम्
४१ - श्री अप्पाशास्त्री सशिवडेकर - मल्लिका कुसुमम् , पंजरबद्धः शुकः
४२ - श्री रमानाथ भट्ट - सुमनो मनोरंजनम्
४३ - श्री प्रज्ञाचक्षु गुलाबराय - प्रियप्रेमोन्मादः
४४ - श्री पण्डित क्षमाराव - सत्याग्रह गीता, मीरालहरी
४५ - श्री रामचन्द्र शाण्डिल्य - कामदूतम्
४६ - श्री बलभद्र शर्मा - लीलारविन्द काव्यम्
४७ - श्री शालिग्राम शास्त्री - सुरभारती संदेशः
४८ - श्री नारायण शास्त्री - खिस्ते दक्षाध्वरध्वंसम्
४९ - श्री वटुकनाथ शर्मा - बल्लदूतम्
५० - श्री मधुसूदन मिश्र - प्रबुद्ध राष्ट्रम्
५१ - श्री रामकृष्ण शर्मा - पाथेय शतकम्
५२ - श्री रमाकान्त शुक्ल - भाति मे भारतम्
५३ - श्री हरिदत्त शर्मा - गीतकन्दलिकर , उत्कलिका
५४ - श्री चन्द्रभानु त्रिपाठी - गीताली ,मंगल्या
५५ - श्री शिवकुमार मिश्र - दयानन्दसूक्तिसप्तशती
५६ - श्री उमाकान्त शुक्ल - कूहा
५७ - श्री वागीश शास्त्री - नर्मसप्तशती
५८ - श्री वागीश शास्त्री - आतंकवादशतकम्
५९ - श्री वागीश शास्त्री - संस्कृतवांग्मयमंथनम्
६० - श्री वागीश शास्त्री - कथासंवर्तिका
६१ - श्री वागीश शास्त्री - कृषकाणां नागपाशः (रेडियो रूपक)
६२ - श्री इच्छाराम द्विवेदी - मित्रदूतम्
६३ - श्री प्रशस्यमित्र शास्त्री - कोमलकण्टकावलिः
६४ - श्री वनमाली विश्वाल - संगमनेनाभिरामः
६५- श्री रघुपति शास्त्री - सहायमाधवः , कौमुदीकुसुमम्
६६ - श्री रामचन्द्र राय - गानाचार्यमाला
६७ - श्री प्रीतमलाल कच्छी - आराधनाशतकम्
६८ - श्री गजानन करमलकार - लोमान्यालंकार
६९ - श्री बच्चूलाल अवस्थी 'ज्ञान' - अगतिकगतिकम् ,प्रतानिनी
७० - श्री श्यामगोपाल रावले - मुग्धा , कालिदासाष्टकम्
७१ - श्री मूंगाराम त्रिपाठी - संस्कृतिः संस्कृतम्
७२ - श्री प्रेमनारायण द्विवेदी - सौन्दर्य सप्तशती
७३ - श्री रुद्रदेव त्रिपाठी - पत्रदूतम् पादत्राणदूतम्
७४ - श्री शिवचरण शर्मा - जागरणम्
७५- श्री प्रभाकर नारायण कवठेकर - राजयोगिनी , धन्यो ग्रामः
७६ - श्री कृष्णकान्त चतुर्वेदी - श्रृंगार गर्भ मुक्तक संग्रहः
७७ - श्री भास्कराचार्य त्रिपाठी - मृत्कूटम्, लघु-रघु
७८ - श्रीमती पुष्पा दीक्षित - अग्निशिखा
७९ - श्री भगवतीलाल राजप्रोहित - भग्ना सभा
८० - श्री रहसविहारी द्विवेदी - श्रीकृष्णस्य स्वस्ति संदेशः
८१ - श्री कामता प्रसाद त्रिपाठी - गाण्डिवम् ,सर्वगन्धा
८२ - श्री राधावल्लभ त्रिपाठी - लहरीदशकम् गीतधीवरम्
८३ - श्री केदारनारायण जोशी - अर्वाचीन संस्कृतम्
८४ - श्री शान्तप्रकाश सत्यदास - अशआर-रसधारः
८५ - श्री शास्त्री नित्यगोपाल कटारे - पंचगव्यम्, नेतामहाभारतम्
८६ - श्री विन्ध्येश्वरी प्रसाद मिश्र - सारस्वतसनुन्मेषः
८७ - श्री बालकृष्ण शर्मा - संस्कृत मुक्तकम्
८८ - श्री सुधाकर शुक्ल - देवदूतम्
८९ - श्री काले अक्षर सनातन - शतपत्रम् ,श्रीरेवाभद्रपीठम्
९० - श्री रेवाप्रसाद द्विवेदी - खण्डकाव्यम्
९१ - श्री श्रीनिवास रथ - तदेवगमनं सैव धरा
९२ - श्री प्रभुदयाल अग्निहोत्री - विहरति शिवा भवानी
९३ - श्री आर०के० सराफ - रक्षणीयाऽस्माकं संस्कृतिः
९४ - श्री गणपति शंकर शुक्ल - भूदान यज्ञ गाथा
९५ - श्री श्रीनिवास चक्रवर्ति - श्रीनिवास सहस्रनाम
९६ - श्री सदाशिव मुसलगाँवकर - शिन्दे विलासवम्पू
९७ - श्री ब्रजनन्दन त्रिपाठी - श्रीरामस्तोत्रम्
९८ - श्री सूर्यनारायण व्यास - भव्य विभूतयः
९९ - श्री तारानाथव्यास - श्रीमत्प्रतिज्ञात्म नीराजनम्
१०० - श्री श्रीधर भास्कर वर्णेकर - मातृभूलहरी
१०१ - श्री भगवान दत्त शास्त्री - कृष्णमंगलस्वः
१०२ - श्री लोकनाथ शास्त्री - गणेशाष्टकम्
१०३ - श्री रामस्वरूप शास्त्री - भावमाला शतकम्
१०४ - श्री कलानाथ शास्त्री - ‘जीवनस्य पृष्ठद्वयम्’ (उपन्यास), ‘आख्यानवल्लरी’ (कथा-संग्रह) ‘नाट्यवल्लरी’(नाटक), ‘सुधीजनवृत्तम्’, ‘कवितावल्लरी’,
'अर्वाचीनं संस्कृत-साहित्यम्’, ‘कथानकवल्ली’, ‘विद्वज्जनचरितामृतम्’, 'श्री रामचरिताविधरत्नम्' ('महाचरित्रकाव्यम् ), 'नवरत्न-नीति-रचनावली', 'जीवनस्य-पाथेयम'

शुक्रवार, 28 मार्च 2014

पत्रकार बालमुकुंद गुप्त




मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
बालमुकुंद गुप्त (१४ नवंबर १८६५ - १८ सितंबर १९०७ ) का जन्म गुड़ियानी गाँव, जिला रोहतक, हरियाणा में में हुआ। उन्होने हिन्दी के निबंधकार और संपादक के रूप हिन्दी जगत की सेवा की।

जीवनी

उर्दू और फारसी की प्रारंभिक शिक्षा के बाद 1886 ई. में पंजाब विश्वविद्यालय से मिडिल परीक्षा प्राइवेट परीक्षार्थी के रूप में उत्तीर्ण। विद्यार्थी जीवन से ही उर्दू पत्रों में लेख लिखने लगे। झझ्झर (जिला रोहतक) के ‘रिफाहे आम’ अखबार और मथुरा के ‘मथुरा समाचार’ उर्दू मासिकों में पं. दीनदयाल शर्मा के सहयोगी रहने के बाद 1886 ई. में चुनार के उर्दू अखबार ‘अखबारे चुनार’ के दो वर्ष संपादक रहे। 1888-1889 ई. में लाहौर के उर्दू पत्र ‘कोहेनूर’ का संपादन किया। उर्दू के नामी लेखकों में आपकी गणना होने लगी। 1889 ई. में महामना मालवीय जी के अनुरोध पर कालाकाँकर (अवध) के हिंदी दैनिक ‘हिंदोस्थान’ के सहकारी संपादक हुए जहां तीन वर्ष रहे। यहां पं. प्रतापनारायण मिश्र के संपर्क से हिंदी के पुराने साहित्य का अध्ययन किया और उन्हें अपना काव्यगुरू स्वीकार किया। सरकार के विरूद्ध लिखने पर वहां से हटा दिए गए। अपने घर गुड़ियानी में रहकर मुरादाबाद के ‘भारत प्रताप’ उर्दू मासिक का संपादन किया और कुछ हिंदी तथा बँगला पुस्तकों का उर्दू में अनुवाद किया। अंग्रेजी का इसी बीच अध्ययन करते रहे। 1893 ई. में ‘हिंदी बंगवासी’ के सहायक संपादक होकर कलकत्ता गए और छह वर्ष तक काम करके नीति संबंधी मतभेद के कारण इस्तीफा दे दिया। 1899 ई. में ‘भारतमित्र’ कलकत्ता के संपादक हुए और मृत्यु हुई।
‘भारतमित्र’ में आपके प्रौढ़ संपादकीय जीवन का निखार हुआ। भाषा, साहित्य और राजनीति के सजग प्रहरी रहे। देशभक्ति की भावना इनमें सर्वोपरि थी। भाषा के प्रश्न पर ‘सरस्वती संपादक’, पं महावीरप्रसाद द्विवेदी से इनकी नोंक-झोक, लार्ड कर्जन की शासन नीति की व्यंग्यपूर्ण और चुटीली आलोचनायुक्त ‘शिवशंभु के चिट्ठे’ और उर्दूवालों के हिंदी विरोध के प्रत्युत्तर में उर्दू बीबी के नाम चिट्ठी विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। लेखनशैली सरल, व्यंग्यपूर्ण, मुहावरेदार और हृदयग्राही होती थी। पैनी राजनीतिक सूझ और पत्रकार की निर्भीकता तथा तेजस्विता इनमें कूट कूटकर भरी थी।
पत्रकार होने के साथ ही आप एक सफल अनुवादक और कवि भी थे। अनूदित ग्रंथों में बँगला उपन्यास मडेल भगिनी और हर्षकृत नाटिका रत्नावली उल्लेखनीय हैं। स्फुट कविता के रूप में आपकी कविताओं का संग्रह प्रकाशित हुआ था। इनके अतिरिक्त आपके निबंधों और लेखों के संग्रह हैं।

रचनाएँ

उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं-
  • हरिदास,
  • खिलौना,
  • खेलतमाशा,
  • स्फुट कविता,
  • शिवशंभु का चिट्ठा,
  • बालमुकुंद गुप्त निबंधावली।

गुरुवार, 27 मार्च 2014

डच भाषा


मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
भाषा का नाम
बोली जाती है
क्षेत्र
कुल बोलने वाले
भाषा परिवार
  • {{{name}}}
भाषा कूट
ISO 639-1 None
ISO 639-2
ISO 639-3
डच भाषा (डच : Nederlands उच्चारणः नेडेर्लाण्ड्स) नीदरलैंड देश की मुख्यभाषा और राजभाषा है । यह हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार की जर्मैनी शाखा में आती है । क्योंकि ये एक निम्न जर्मनिक भाषा है, इसलिये ये अंग्रेज़ी से काफ़ी मेल खाती है । इसकी लिपि रोमन लिपि है ।
नीदरलैंड के अतिरिक्त यह बेल्जियम के उत्तरी आधे भाग में, फ्रांस के नार्ड जिले के ऊपरी हिस्से में तथा यूरोप के बाहर डच न्यूगिनी आदि क्षेत्रों में बोली जाती है। संयुक्त राज्य अमरीका तथा कनाडा में रहनेवाले डच नागरिकों की भी यह मातृभाषा है। दक्षिण अफ्रिकी यूनियन राज्य में भी बहुत से डच मूल के नागरिक रहते हैं और उनकी भाषा भी डच भाषा से बहुलांश में मिलती-जुलती है, यद्यपि अब वह एक स्वतंत्र भाषा के रूप में विकसित हो गई है।

इतिहास एवं परिचय

प्रारंभ में हालैंडवालों की भाषा को उत्तर समुद्र तथा बाल्टिक समुद्र के तट पर रहनेवाले जर्मनों की स्थानीय बोलियों में एक स्वतंत्र स्थान प्राप्त था। पहले यह मुख्य रूप से पश्चिमी फ्लैंडर्स में प्रचलित थी किंतु 16वीं शती में डच संस्कृति के साथ-साथ इसका प्रचार भी उत्तर की ओर बढ़ता गया। स्पेनी आधिपत्य से मुक्त हो जाने के बाद हालैंड की उन्नति क्षिप्रगति से होने लगी जिससे डच भाषा का विकास भी तेजी से होने लगा। स्पेनी सत्ता के अधीन बचे हुए दक्षिणी प्रांतों से भागकर आनेवाले शरणार्थियों से भी इसमें सहायता मिली। डच भाषा में दक्षिण का प्रभाव आज भी स्पष्ट देख पड़ता है। हालैंड की बोल-चाल की तथा साहित्यिक भाषा में आज भी काफी अंतर देख पड़ता है, यद्यपि दक्षिण से आए हुए शब्दों के कारण यह खाई अधिक गहरी नहीं होने पाई।
दक्षिण के कई भागों में (पश्चिमी फ्लैंडर्स, पूर्वी फ्लैंडर्स, एंटवर्प, ब्रैवंट आदि में), जो अब बेलजियम में शामिल है, आज की कई बोलियाँ प्रचलित हैं। इन सबका सामूहिक नाम "फ्लेमिश" है। यद्यपि स्कूलों में साहित्यिक भाषा भी पढ़ाई जाती है, तथापि सामान्य लोग प्राय: स्थानीय बोलियों में ही परस्पर बातचीत करते हैं। ब्रूसेल्स में बहुत से शिक्षित लोगों की भाषा आज भी फ्रेंच बनी हुई है किंतु "फ्लेमिश" का प्राधान्य बढ़ता जा रहा है। कानून की दृष्टि से फ्रेंच तथा फ्लेमिश दोनों को समान रूप से मान्यता प्राप्त है। जहाँ तक वर्तमान हालैंड राज्य का प्रश्न है, भाषा की दृष्टि से स्थिति उतनी जटिल नहीं है। 16वीं तथा 17वीं शतियों में जो नए-नए प्रदेश हालैंड में शामिल होते गए, उनमें भी कृत्रिम रूप से डच भाषा का प्रसार होता गया। कुछ स्थानीय बोलियाँ भी प्रचलित हैं, जिनमें सबसे पृथक् अस्तित्व "फ्रीजियन" का है जो फ्रीजलैंड प्रदेश में बोली जाती है। आमस्टर्डम से जैसे-जैसे हम पूर्व की ओर चलते हैं, इन बोलियों में पूर्वी प्रभाव अधिक लक्षित होने लगता है, जिससे समीपस्थ जर्मन क्षेत्रों की सामान्य जर्मन बोलियों से उनका सादृश्य स्पष्ट हो जाता है।

रामलीला / -मुंशी प्रेमचन्द


 कहानी धरोहर
                                                                                                                                                            


रामलीला /  -मुंशी प्रेमचन्द
                                                                                                                                                             -मुंशी प्रेमचन्द
                                                              
इधर एक मुद्दत से रामलीला देखने नहीं गया। बंदरों के भद्दे चेहरे लगाए, आधी टाँगों का पाजामा और काले रंग का ऊँचा कुर्ता पहने आदमियों को दौड़ते, हू-हू करते देखकर अब हँसी आती है, मज़ा नहीं आता। काशी की लीला जगद्विख्यात है। सुना है, लोग दूर-दूर से देखने आते हैं। मैं भी बड़े शौक से गया, पर मुझे तो वहाँ की लीला और किसी वज्र देहात की लीला में कोई अंतर न दिखाई दिया। हाँ, रामनगर की लीला में कुछ साज-सामान अच्छे हैं। राक्षसों और बंदरों के चेहरे पीतल के हैं, गदाएँ भी पीतल की हैं, कदाचित बनवासी भ्राताओं के मुकुट सच्चे काम के हों; लेकिन साज-सामान के सिवा वहाँ भी वही हू-हू के सिवाय कुछ नहीं। फिर भी लाखों आदमियों की भीड़ लगी रहती।

लेकिन एक ज़माना वह था, जब मुझे भी रामलीला में आनंद आता था। आनंद तो बहुत हलका-सा शब्द है। वह आनंद उन्माद से कम न था। संयोगवश उन दिनों मेरे घर से बहुत थोड़ी दूर पर रामलीला का मैदान था, और जिस घर में लीला-पात्रों का रूप-रंग भरा जाता था, वह तो मेरे घर से बिलकुल मिला हुआ था।

दो बजे दिन से पात्रों की सजावट होने लगती थी। मैं दोपहर ही से वहाँ जा बैठता, और जिस उत्साह से दौड़-दौड़कर छोटे-मोटे काम करता, उस उत्साह से तो आज अपनी पेंशन लेने भी नहीं जाता।

एक कोठरी में राजकुमारी का शृंगार होता था। उनकी देह में रामरज पीसकर पोती जाती, मुँह पर पाउडर लगाया जाता और पाउडर के ऊपर लाल, हरे, नीले रंग की बुँदकियाँ लगाई जाती थीं। सारा माथा, भौंहें, गाल, ठोड़ी, बुँदकियों से रच उठती थीं। एक ही आदमी इस काम में कुशल था। वही बारी-बारी से तीनों पात्रों का शृंगार करता था। रंग की प्यालियों में पानी लाना, रामरज पीसना, पंखा झलना मेरा काम था। जब इन तैयारियों के बाद विमान निकलता, तो उस पर रामचंद्र जी के पीछे बैठकर मुझे जो उल्लास, जो गर्व, जो रोमांच होता था, वह अब लाट साहब के दरबार में कुरसी पर बैठकर भी नहीं होता। एक बार जब होम-मेंबर साहब ने व्यवस्थापक-सभा में मेरे एक प्रस्ताव का अनुमोद किया था, उस वक्त मुझे कुछ उसी तरह का उल्लास, गर्व और रोमाच था। हाँ, एक बार जब मेरा ज्येष्ठ पुत्र नायब-तहसीलदारी में नामजद हुआ, तब भी ऐसी ही तरंगे मन में उठी थीं; पर इनमें और उस बाल-विह्वलता में बड़ा अंतर हैं। तब ऐसा मालूम होता था कि मैं स्वर्ग में बैठा हूँ।

निषाद-नौका-लीला का दिन था। मैं दो-चार लड़कों के बहकाने में आकर गुल्ली-डंडा खेलने लगा था। आज शृंगार देखने न गया। विमान भी निकला पर मैंने खेलना न छोड़ा। मुझे अपना दाँव लेना था। अपना दाँव छोड़ने के लिए उससे कहीं बढ़कर आत्मत्याग की ज़रूरत थी, जितना मैं कर सकता था। अगर दाँव देना होता तो मैं कब का भाग खड़ा होता, लेकिन पदाने में कुछ और ही बात होती है। ख़ैर, दाँव पूरा हुआ। अगर मैं चाहता, तो धांधली करके दस-पाँच मिनट और पदा सकता था, इसकी काफ़ी गुँजाइश थी, लेकिन अब इसका मौका न था। मैं सीधे नाले की तरफ़ दौड़ा। विमान जल-तट पर पहुँच चुका था। मैंने दूर से देखा - मल्लाह किश्ती लिए आ रहा है। दौड़ा, लेकिन आदमियों की भीड़ में दौड़ना कठिन था। आखिर जब मैं भीड़ हटाता, प्राण-पण से आगे बढ़ता घाट पर पहुँचा, तो निषाद अपनी नौका खोल चुका था। रामचंद्र पर मेरी कितनी श्रद्धा थी! अपने पाठ की चिंता न करके उन्हें पढ़ा दिया करता था, जिससे वह फेल न हो जाएँ। मुझसे उम्र ज़्यादा होने पर भी वह नीची कक्षा में पढ़ते थे। लेकिन वही रामचंद्र नौका पर बैठे इस तरह मुँह फेरे चले जाते थे, मानो मुझसे जान-पहचान ही नहीं। नकल में भी असल की कुछ-न-कुछ बू आ ही जाती है। भक्तों पर जिनकी निगाह सदा ही तीखी रही है, वह मुझे क्यों उबारते? मैं विकल होकर उस बछड़े की भाँति कूदने लगा, जिसकी गरदन पर पहली बार जुआ रखा गया हो। कभी लपककर नाले की ओर जाता, कभी किसी सहायक की खोज में पीछे की तरफ़ दौड़ता, पर सब-के-सब अपनी धुन में मस्त थे, मेरी चीख-पुकार किसी के कानों तक न पहुँची। तब से बड़ी-बड़ी विपत्तियाँ झेलीं, पर उस समय जितना दु:ख हुआ, उतना फिर कभी न हुआ।
मैंने निश्चय किया था अब रामचंद्र से न कभी बोलूँगा, कभी खाने की कोई चीज़ ही दूँगा, लेकिन ज्यों ही नाले को पार कर के वह पुल की ओर लौटे, मैं दौड़कर विमान पर चढ़ गया, और ऐसा खुश हुआ, मानो कोई बात ही न हुई थी।


रामलीला समाप्त हो गई थी। राजगद्दी होनेवाली थी, पर न जाने क्यों देर हो रही थी। शायद चंदा कम वसूल हुआ था। रामचंद्र की इन दिनों कोई बात भी न पूछता था। न घर ही जाने की छुट्टी मिलती थी, न भोजन का ही प्रबंध होता था। चौधरी साहब के यहाँ से एक सीधा कोई तीन बजे दिन को मिलता था। बाकी सारे दिन कोई पानी को नहीं पूछता। लेकिन मेरी श्रद्धा अभी तक ज्यों-की-त्यों थी। मेरी दृष्टि में वह अब भी रामचंद्र ही थे। घर पर मुझे खाने की कोई चीज़ मिलती, वह लेकर रामचंद्र दे आता। उन्हें खिलाने में मुझे जितना आनंद मिलता था, उतना आप खा जाने में कभी न मिलता। कोई मिठाई या फल पाते ही मैं बेतहाशा चौपाल की ओर दौड़ता। अगर रामचंद्र वहाँ न मिलते तो उन्हें चारों ओर तलाश करता, और जब तक वह चीज़ उन्हें न खिला लेता, मुझे चैन न आता था।

ख़ैर, राजगद्दी का दिन आ गया, रामलीला के मैदान में एक बड़ा-सा शामियाना ताना गया। उसकी खूब सजावट की गई। वेश्याओं के दल भी आ पहुँचे। शाम को रामचंद्र की सवारी निकली, और प्रत्येक द्वार पर उनकी आरती उतारी गई। श्रद्धानुसार किसी ने रुपए दिए, किसी ने पैसे। मेरे पिता पुलिस के आदमी थे; इसलिए उन्होंने बिना कुछ दिए ही आरती उतारी। उस वक्त मुझे जितनी लज्जा आई, उसे बयान नहीं कर सकता। मेरे पास उस वक्त संयोग से एक रुपया था। मेरे मामा जी दशहरे के पहले आए थे और मुझे एक रुपया दे गए थे। उस रुपए को मैंने रख छोड़ा था। दशहरे के दिन भी उसे खर्च न कर सका। मैंने तुरंत वह रुपया लाकर आरती की थाली में डाल दिया। पिता जी मेरी ओर कुपित-नेत्रों से देखकर रह गए। उन्होंने कुछ कहा तो नहीं; लेकिन मुँह ऐसा बना लिया, जिससे प्रकट होता था कि मेरी इस धृष्टता से उनके रोब में बट्टा लग गया। रात के दस बजते-बजते यह परिक्रमा पूरी हुई। आरती की थाली रुपयों और पैसों से भरी हुई थी। ठीक तो नहीं कह सकता, मगर अब ऐसा अनुमान होता है कि चार-पाँच सौ रुपयों से कम न थे। चौधरी साहब इनसे कुछ ज़्यादा ही खर्च चुके थे। उन्हें इसकी बड़ी फिक्र हुई कि किसी तरह कम-से-कम दो सौ रुपए और वसूल हो जाएँ और इसकी सबसे अच्छी तरकीब उन्हें यही मालूम हुई कि वेश्याओं द्वारा महफ़िल में वसूली हो। जब लोग आकर बैठ जाएँ, और महफ़िल का रंग जम जाए, तो आबादीजान रसिकजनों की कलाइयाँ पकड़-पकड़कर ऐसे हाव-भाव दिखाएँ कि लोग शरमाते-शरमाते भी कुछ-न-कुछ दे ही मरें। आबादीजान और चौधरी साहब में सलाह होने लगी। मैं संयोग से उन दोनों प्राणियों की बातें सुन रहा था। चौधरी साहब ने समझा होगा, यह लौंडा क्या मतलब समझेगा। पर यहाँ ईश्वर की दया से अक्ल के पुतले थे। सारी दास्तान समझ में आती-जाती थी।

चौधरी - सुनो आबादीजान, यह तुम्हारी ज़्यादती है। हमारा और तुम्हारा कोई पहला साबिका तो है नहीं। ईश्वर ने चाहा तो यहाँ हमेशा तुम्हारा आना-जाना लगा रहेगा। अब की चंदा बहुत कम आया, नहीं तो मैं तुमसे इतना इसरार न करता।
आबादी - आप मुझसे भी ज़मींदारी चालें चलते हैं, क्यों? मगर यहाँ हुजूर की दाल न गलेगी। वाह! रुपए तो मैं वसूल करूँ, और मूँछों पर ताव आप दें। कमाई का अच्छा ढंग निकाला है। इस कमाई से तो वाकई आप थोड़े दिनों में राजा हो जाएँगे। उसके सामने ज़मींदारी झक मारेगी! बस, कल ही से एक चकला खोल दीजिए! खुद की कसम, मालामाल हो जाइएगा।
चौधरी - तुम दिल्लगी करती हो, और यहाँ काफिया तंग हो रहा है।
आबादी - तो आप भी तो मुझी से उस्तादी करते हैं। यहाँ आप-जैसे काइयों को रोज़ उँगलियों पर नचाती हूँ।
चौधरी - आखिर तुम्हारी मंशा क्या है?
आबादी - जो कुछ वसूल करूँ, उसमें आधा मेरा, आधा आपका। लाइए हाथ मारिए।
चौधरी - यही सही।
आबादी - अच्छा, वो पहले मेरे सौ स्र्पए गिन दीजिए। पीछे से आप अलसेट करने लगेंगे।
चौधरी - वाह! वह भी लोगी और यह भी।
आबादी - अच्छा! तो क्या आप समझते थे कि अपनी उजरत छोड़ दूँगी? वाह री आपकी समझ! खूब, क्यों न हो। दीवाना बकारे दरवेश हुशियार!
चौधरी - तो क्या तुमने दोहरी फीस लेने की ठानी है?
आबादी - अगर आपको सौ दफे गरज हो, तो। वरना मेरे सौ रुपए तो कहीं गए ही नहीं। मुझे क्या कुत्ते ने काटा है, जो लोगों की जेब में हाथ डालती फिरूँ?

चौधरी की एक न चली। आबादी के सामने दबना पड़ा। नाच शुरू हुआ। आबादीजान बला की शोख औरत थी। एक तो कमसिन, उस पर हसीन। और उसकी अदाएँ तो इस ग़ज़ब की थीं कि मेरी तबीयत भी मस्त हुई जाती थी। आदमियों के पहचानने का गुण भी उसमें कुछ कम न था। जिसके सामने बैठ गई, उससे कुछ-न-कुछ ले ही लिया। पाँच रुपए से कम तो शायद ही किसी ने दिए हों। पिताजी के सामने भी वह बैठी। मैं मारे शर्म के गड़ गया। जब उसने उनकी कलाई पकड़ी, तब तो मैं सहम उठा। मुझे यकीन था कि पिताजी उसका हाथ झटक देंगे और शायद दुत्कार भी दें, किंतु यह क्या हो रहा है! ईश्वर! मेरी आँखें धोखा तो नहीं खा रही हैं। पिता जी मूँछों में हँस रहे हैं। ऐसी मृदु-हँसी उनके चेहरे पर मैंने कभी नहीं देखा थी। उनकी आँखों से अनुराग टपक पड़ता था। उनका एक-एक रोम पुलकित हो रहा था, मगर ईश्वर ने मेरी लाज रख ली। वह देखो, उन्होंने धीरे से आबादी के कोमल हाथों से अपनी कलाई छुड़ा ली। अरे! यह फिर क्या हुआ? आबादी तो उनके गले में बाँहें डाले देती है। अब पिता जी उसे ज़रूर पीटेंगे। चुड़ैल को ज़रा भी शर्म नहीं।
एक महाशय ने मुस्कराकर कहा, ''यहाँ तुम्हारी दाल न गलेगी, आबादीजान! और दरवाज़ा देखो।''

बात तो इन महाशय ने मेरे मन की कही, और बहुत ही उचित कही, लेकिन न जाने क्यों पिता जी ने उसकी ओर कुपित-नेत्रों से देखा, और मुँछों पर ताव दिया। मुँह से तो वह कुछ न बोले, पर उनके मुख की आकृति चिल्लाकर सरोष शब्दों में कह रही थी, ''तू बनिया, मुझे समझता क्या है? यहाँ ऐसे अवसर पर जान तक निसार करने को तैयार हैं। रुपए की हकीकत ही क्या! तेरा जी चाहे, आज़मा ले। तुझसे दूनी रकम न दे डालूँ, तो मुँह न दिखाऊँ! महान आश्चर्य! घोर अनर्थ! अरे, ज़मीन तू फट क्यों नहीं जाती? आकाश, तू फट क्यों नहीं पड़ता? अरे, मुझे मौत क्यों नहीं आ जाती!'' पिता जी जेब में हाथ डाल रहे हैं। वह कोई चीज़ निकली, और सेठ जी को दिखाकर आबादीजान को दे डाली।
आह! यह तो अशर्फी है। चारों ओर तालियाँ बजने लगीं। सेठजी उल्लू बन गए। पिताजी ने मुँह की खाई, इनका निश्चय मैं नहीं कर सकता। मैंने केवल इतना देखा कि पिता जी ने एक अशर्फी निकालकर आबादीजान को दी। उनकी आँखों में इस समय इतना गर्वयुक्त उल्लास था मानो उन्होंने हातिम की कब्र पर लात मारी हो। यही पिता जी हैं, जिन्होंने मुझे आरती में एक रुपया डालते देखकर मेरी ओर उस तरह देखा था मानो मुझे फाड़ ही खाएँगे। मेरे उस परमोचित व्यवहार से उनके रोब में फ़र्क आता था, और इस समय इस घृणित, कुत्सित और निंदित व्यापार पर गर्व और आनंद से फूले न समाते थे।

आबादीजान ने एक मनोहर मुस्कान के साथ पिता जी को सलाम किया और आगे बढ़ी, मगर मुझसे वहाँ न बैठा गया। मेरा शर्म के मारे मस्तक झुका जाता था, अगर मेरी आँखों-देखी बात न होगी, तो मुझे इस पर कभी एतबार न होता। मैं बाहर जो कुछ देखता-सुनता था, उसकी रिपोर्ट अम्माँ से ज़रूर करता था। पर इस मामले को मैंने उनसे छिपा रखा। मैं जानता था, उन्हें यह बात सुनकर बड़ा दुख होगा।
रात भर गाना होता रहा। तबले की धमक मेरे कानों में आ रही थी। जी चाहता था, चलकर देखूँ, पर साहस न होता था। मैं किसी को मुँह कैसे दिखाऊँगा? कहीं किसी ने पिता जी का ज़िक्र छेड़ दिया, तो मैं क्या करूँगा?
प्रात:काल रामचंद्र की बिदाई होनेवाली थी। मैं चारपाई से उठते ही आँखें मलता हुआ चौपाल की ओर भागा। डर रहा था कि कहीं रामचंद्र चले न गए हों। पहुँचा, तो देखा - तवायफ़ों की सवारियाँ जाने को तैयार हैं। बीसों आदमी हसरतनाक मुँह बनाए उन्हें घेरे खड़े हैं। मैंने उनकी ओर आँख तक न उठाई। सीधा रामचंद्र के पास पहुँचा। लक्ष्मण और सीता बैठे रो रहे थे, और रामचंद्र खड़े काँधे पर लुटिया-डोर डाले उन्हें समझा रहे थे। मेरे सिवा और कोई न था। मैंने कुंठित-स्वर से रामचंद्र से पूछा, ''क्या तुम्हारी बिदाई हो गई?''
रामचंद्र- ''हाँ, हो तो गई। हमारी बिदाई ही क्या?'' चौधरी साहब ने कह दिया - ''जाओ, चले जाते हैं।''
'क्या रुपया और कपड़े नहीं मिले?''
''अभी नहीं मिले। चौधरी साहब कहते हैं - इस वक्त बचत में रुपए नहीं हैं। फिर आकर ले जाना।''
''कुछ नहीं मिला?''
''एक पैसा भी नहीं। कहते हैं, कुछ बचत नहीं हुई। मैंने सोचा था, कुछ रुपए मिल जाएँगे तो पढ़ने की किताबें ले लूँगा! सो कुछ न मिला। राह-खर्च भी नहीं दिया। कहते हैं - ''कौन दूर है, पैदल चले जाओ!''
मुझे ऐसा क्रोध आया कि चलकर चौधरी को खूब आड़े हाथों लूँ। वेश्याओं के लिए रुपए, सवारियाँ सबकुछ, पर बेचारे रामचंद्र और उनके साथियों के लिए कुछ भी नहीं! जिन लोगों ने रात को आबादीजान पर दस-दस, बीस-बीस रुपए न्योछावर किए थे, उनके पास क्या इनके लिए दो-दो, चार-चार आने पैसे भी नहीं? पिता जी ने भी तो आबादीजान को एक अशर्फी दी थी। देखूँ इनके नाम पर क्या देते हैं! मैं दौड़ा हुआ पिता जी के पास गया। वह कहीं तफ़तीश पर जाने को तैयार खड़े थे। मुझे देखकर बोले - ''घूम रहे हो? पढ़ने के वक्त तुम्हें घूमने की सूझती है?''
मैंने कहा - ''गया था चौपाल। रामचंद्र बिदा हो रहे थे। उन्हें चौधरी साहब ने कुछ नहीं दिया।''
''तो तुम्हें इसकी क्या फिक्र पड़ी है?''
''वह जाएँगे कैसे? पास राह-खर्च भी तो नहीं है!''
'क्या कुछ खर्च भी नहीं दिया? यह चौधरी साहब की बेइंसाफ़ी है।''
''आप अगर दो रुपए दे दें, तो मैं उन्हें दे आऊँ। इतने में शायद वह घर पहुँच जाएँ।''
पिताजी ने तीव्र दृष्टि से देखकर कहा - ''जाओ, अपनी किताब देखो, मेरे पास रुपए नहीं हैं।''
यह कहकर वह घोड़े पर सवार हो गए। उसी दिन से पिता जी पर से मेरी श्रद्धा उठ गई। मैंने फिर कभी उनकी डांट-डपट की परवाह नहीं की। मेरा दिल कहता - आपको मुझको उपदेश देने का कोई अधिकार नहीं है। मुझे उनकी सूरत से चिढ़ हो गई। वह जो कहते, मैं ठीक उसका उल्टा करता। यद्यपि इससे मेरी हानि हुई, लेकिन मेरा अंत:करण उस समय विप्लवकारी विचारों से भरा हुआ था।
मेरे पास दो आने पैसे पड़े हुए थे। मैंने पैसे उठा लिए और जाकर शरमाते-शरमाते रामचंद्र को दे दिए। उन पैसों को देखकर रामचंद्र को जितना हर्ष हुआ, वह मेरे लिए आशातीत था। टूट पड़े, प्यासे को पानी मिल गया।
यही दो आने पैसे लेकर तीनों मूर्तियाँ बिदा हुई! केवल मैं ही उनके साथ क़स्बे के बाहर तक पहुँचाने आया।
उन्हें बिदा करके लौटा, तो मेरी आँखें सजल थीं, पर हृदय आनंद से उमड़ा हुआ था।


                                                                                                                          साभार, ' प्रेमचन्द की क
-मुंशी प्रेमचन्द
                                                                 रामलीला
इधर एक मुद्दत से रामलीला देखने नहीं गया। बंदरों के भद्दे चेहरे लगाए, आधी टाँगों का पाजामा और काले रंग का ऊँचा कुर्ता पहने आदमियों को दौड़ते, हू-हू करते देखकर अब हँसी आती है, मज़ा नहीं आता। काशी की लीला जगद्विख्यात है। सुना है, लोग दूर-दूर से देखने आते हैं। मैं भी बड़े शौक से गया, पर मुझे तो वहाँ की लीला और किसी वज्र देहात की लीला में कोई अंतर न दिखाई दिया। हाँ, रामनगर की लीला में कुछ साज-सामान अच्छे हैं। राक्षसों और बंदरों के चेहरे पीतल के हैं, गदाएँ भी पीतल की हैं, कदाचित बनवासी भ्राताओं के मुकुट सच्चे काम के हों; लेकिन साज-सामान के सिवा वहाँ भी वही हू-हू के सिवाय कुछ नहीं। फिर भी लाखों आदमियों की भीड़ लगी रहती।

लेकिन एक ज़माना वह था, जब मुझे भी रामलीला में आनंद आता था। आनंद तो बहुत हलका-सा शब्द है। वह आनंद उन्माद से कम न था। संयोगवश उन दिनों मेरे घर से बहुत थोड़ी दूर पर रामलीला का मैदान था, और जिस घर में लीला-पात्रों का रूप-रंग भरा जाता था, वह तो मेरे घर से बिलकुल मिला हुआ था।

दो बजे दिन से पात्रों की सजावट होने लगती थी। मैं दोपहर ही से वहाँ जा बैठता, और जिस उत्साह से दौड़-दौड़कर छोटे-मोटे काम करता, उस उत्साह से तो आज अपनी पेंशन लेने भी नहीं जाता।

एक कोठरी में राजकुमारी का शृंगार होता था। उनकी देह में रामरज पीसकर पोती जाती, मुँह पर पाउडर लगाया जाता और पाउडर के ऊपर लाल, हरे, नीले रंग की बुँदकियाँ लगाई जाती थीं। सारा माथा, भौंहें, गाल, ठोड़ी, बुँदकियों से रच उठती थीं। एक ही आदमी इस काम में कुशल था। वही बारी-बारी से तीनों पात्रों का शृंगार करता था। रंग की प्यालियों में पानी लाना, रामरज पीसना, पंखा झलना मेरा काम था। जब इन तैयारियों के बाद विमान निकलता, तो उस पर रामचंद्र जी के पीछे बैठकर मुझे जो उल्लास, जो गर्व, जो रोमांच होता था, वह अब लाट साहब के दरबार में कुरसी पर बैठकर भी नहीं होता। एक बार जब होम-मेंबर साहब ने व्यवस्थापक-सभा में मेरे एक प्रस्ताव का अनुमोद किया था, उस वक्त मुझे कुछ उसी तरह का उल्लास, गर्व और रोमाच था। हाँ, एक बार जब मेरा ज्येष्ठ पुत्र नायब-तहसीलदारी में नामजद हुआ, तब भी ऐसी ही तरंगे मन में उठी थीं; पर इनमें और उस बाल-विह्वलता में बड़ा अंतर हैं। तब ऐसा मालूम होता था कि मैं स्वर्ग में बैठा हूँ।

निषाद-नौका-लीला का दिन था। मैं दो-चार लड़कों के बहकाने में आकर गुल्ली-डंडा खेलने लगा था। आज शृंगार देखने न गया। विमान भी निकला पर मैंने खेलना न छोड़ा। मुझे अपना दाँव लेना था। अपना दाँव छोड़ने के लिए उससे कहीं बढ़कर आत्मत्याग की ज़रूरत थी, जितना मैं कर सकता था। अगर दाँव देना होता तो मैं कब का भाग खड़ा होता, लेकिन पदाने में कुछ और ही बात होती है। ख़ैर, दाँव पूरा हुआ। अगर मैं चाहता, तो धांधली करके दस-पाँच मिनट और पदा सकता था, इसकी काफ़ी गुँजाइश थी, लेकिन अब इसका मौका न था। मैं सीधे नाले की तरफ़ दौड़ा। विमान जल-तट पर पहुँच चुका था। मैंने दूर से देखा - मल्लाह किश्ती लिए आ रहा है। दौड़ा, लेकिन आदमियों की भीड़ में दौड़ना कठिन था। आखिर जब मैं भीड़ हटाता, प्राण-पण से आगे बढ़ता घाट पर पहुँचा, तो निषाद अपनी नौका खोल चुका था। रामचंद्र पर मेरी कितनी श्रद्धा थी! अपने पाठ की चिंता न करके उन्हें पढ़ा दिया करता था, जिससे वह फेल न हो जाएँ। मुझसे उम्र ज़्यादा होने पर भी वह नीची कक्षा में पढ़ते थे। लेकिन वही रामचंद्र नौका पर बैठे इस तरह मुँह फेरे चले जाते थे, मानो मुझसे जान-पहचान ही नहीं। नकल में भी असल की कुछ-न-कुछ बू आ ही जाती है। भक्तों पर जिनकी निगाह सदा ही तीखी रही है, वह मुझे क्यों उबारते? मैं विकल होकर उस बछड़े की भाँति कूदने लगा, जिसकी गरदन पर पहली बार जुआ रखा गया हो। कभी लपककर नाले की ओर जाता, कभी किसी सहायक की खोज में पीछे की तरफ़ दौड़ता, पर सब-के-सब अपनी धुन में मस्त थे, मेरी चीख-पुकार किसी के कानों तक न पहुँची। तब से बड़ी-बड़ी विपत्तियाँ झेलीं, पर उस समय जितना दु:ख हुआ, उतना फिर कभी न हुआ।
मैंने निश्चय किया था अब रामचंद्र से न कभी बोलूँगा, कभी खाने की कोई चीज़ ही दूँगा, लेकिन ज्यों ही नाले को पार कर के वह पुल की ओर लौटे, मैं दौड़कर विमान पर चढ़ गया, और ऐसा खुश हुआ, मानो कोई बात ही न हुई थी।


रामलीला समाप्त हो गई थी। राजगद्दी होनेवाली थी, पर न जाने क्यों देर हो रही थी। शायद चंदा कम वसूल हुआ था। रामचंद्र की इन दिनों कोई बात भी न पूछता था। न घर ही जाने की छुट्टी मिलती थी, न भोजन का ही प्रबंध होता था। चौधरी साहब के यहाँ से एक सीधा कोई तीन बजे दिन को मिलता था। बाकी सारे दिन कोई पानी को नहीं पूछता। लेकिन मेरी श्रद्धा अभी तक ज्यों-की-त्यों थी। मेरी दृष्टि में वह अब भी रामचंद्र ही थे। घर पर मुझे खाने की कोई चीज़ मिलती, वह लेकर रामचंद्र दे आता। उन्हें खिलाने में मुझे जितना आनंद मिलता था, उतना आप खा जाने में कभी न मिलता। कोई मिठाई या फल पाते ही मैं बेतहाशा चौपाल की ओर दौड़ता। अगर रामचंद्र वहाँ न मिलते तो उन्हें चारों ओर तलाश करता, और जब तक वह चीज़ उन्हें न खिला लेता, मुझे चैन न आता था।

ख़ैर, राजगद्दी का दिन आ गया, रामलीला के मैदान में एक बड़ा-सा शामियाना ताना गया। उसकी खूब सजावट की गई। वेश्याओं के दल भी आ पहुँचे। शाम को रामचंद्र की सवारी निकली, और प्रत्येक द्वार पर उनकी आरती उतारी गई। श्रद्धानुसार किसी ने रुपए दिए, किसी ने पैसे। मेरे पिता पुलिस के आदमी थे; इसलिए उन्होंने बिना कुछ दिए ही आरती उतारी। उस वक्त मुझे जितनी लज्जा आई, उसे बयान नहीं कर सकता। मेरे पास उस वक्त संयोग से एक रुपया था। मेरे मामा जी दशहरे के पहले आए थे और मुझे एक रुपया दे गए थे। उस रुपए को मैंने रख छोड़ा था। दशहरे के दिन भी उसे खर्च न कर सका। मैंने तुरंत वह रुपया लाकर आरती की थाली में डाल दिया। पिता जी मेरी ओर कुपित-नेत्रों से देखकर रह गए। उन्होंने कुछ कहा तो नहीं; लेकिन मुँह ऐसा बना लिया, जिससे प्रकट होता था कि मेरी इस धृष्टता से उनके रोब में बट्टा लग गया। रात के दस बजते-बजते यह परिक्रमा पूरी हुई। आरती की थाली रुपयों और पैसों से भरी हुई थी। ठीक तो नहीं कह सकता, मगर अब ऐसा अनुमान होता है कि चार-पाँच सौ रुपयों से कम न थे। चौधरी साहब इनसे कुछ ज़्यादा ही खर्च चुके थे। उन्हें इसकी बड़ी फिक्र हुई कि किसी तरह कम-से-कम दो सौ रुपए और वसूल हो जाएँ और इसकी सबसे अच्छी तरकीब उन्हें यही मालूम हुई कि वेश्याओं द्वारा महफ़िल में वसूली हो। जब लोग आकर बैठ जाएँ, और महफ़िल का रंग जम जाए, तो आबादीजान रसिकजनों की कलाइयाँ पकड़-पकड़कर ऐसे हाव-भाव दिखाएँ कि लोग शरमाते-शरमाते भी कुछ-न-कुछ दे ही मरें। आबादीजान और चौधरी साहब में सलाह होने लगी। मैं संयोग से उन दोनों प्राणियों की बातें सुन रहा था। चौधरी साहब ने समझा होगा, यह लौंडा क्या मतलब समझेगा। पर यहाँ ईश्वर की दया से अक्ल के पुतले थे। सारी दास्तान समझ में आती-जाती थी।

चौधरी - सुनो आबादीजान, यह तुम्हारी ज़्यादती है। हमारा और तुम्हारा कोई पहला साबिका तो है नहीं। ईश्वर ने चाहा तो यहाँ हमेशा तुम्हारा आना-जाना लगा रहेगा। अब की चंदा बहुत कम आया, नहीं तो मैं तुमसे इतना इसरार न करता।
आबादी - आप मुझसे भी ज़मींदारी चालें चलते हैं, क्यों? मगर यहाँ हुजूर की दाल न गलेगी। वाह! रुपए तो मैं वसूल करूँ, और मूँछों पर ताव आप दें। कमाई का अच्छा ढंग निकाला है। इस कमाई से तो वाकई आप थोड़े दिनों में राजा हो जाएँगे। उसके सामने ज़मींदारी झक मारेगी! बस, कल ही से एक चकला खोल दीजिए! खुद की कसम, मालामाल हो जाइएगा।
चौधरी - तुम दिल्लगी करती हो, और यहाँ काफिया तंग हो रहा है।
आबादी - तो आप भी तो मुझी से उस्तादी करते हैं। यहाँ आप-जैसे काइयों को रोज़ उँगलियों पर नचाती हूँ।
चौधरी - आखिर तुम्हारी मंशा क्या है?
आबादी - जो कुछ वसूल करूँ, उसमें आधा मेरा, आधा आपका। लाइए हाथ मारिए।
चौधरी - यही सही।
आबादी - अच्छा, वो पहले मेरे सौ स्र्पए गिन दीजिए। पीछे से आप अलसेट करने लगेंगे।
चौधरी - वाह! वह भी लोगी और यह भी।
आबादी - अच्छा! तो क्या आप समझते थे कि अपनी उजरत छोड़ दूँगी? वाह री आपकी समझ! खूब, क्यों न हो। दीवाना बकारे दरवेश हुशियार!
चौधरी - तो क्या तुमने दोहरी फीस लेने की ठानी है?
आबादी - अगर आपको सौ दफे गरज हो, तो। वरना मेरे सौ रुपए तो कहीं गए ही नहीं। मुझे क्या कुत्ते ने काटा है, जो लोगों की जेब में हाथ डालती फिरूँ?

चौधरी की एक न चली। आबादी के सामने दबना पड़ा। नाच शुरू हुआ। आबादीजान बला की शोख औरत थी। एक तो कमसिन, उस पर हसीन। और उसकी अदाएँ तो इस ग़ज़ब की थीं कि मेरी तबीयत भी मस्त हुई जाती थी। आदमियों के पहचानने का गुण भी उसमें कुछ कम न था। जिसके सामने बैठ गई, उससे कुछ-न-कुछ ले ही लिया। पाँच रुपए से कम तो शायद ही किसी ने दिए हों। पिताजी के सामने भी वह बैठी। मैं मारे शर्म के गड़ गया। जब उसने उनकी कलाई पकड़ी, तब तो मैं सहम उठा। मुझे यकीन था कि पिताजी उसका हाथ झटक देंगे और शायद दुत्कार भी दें, किंतु यह क्या हो रहा है! ईश्वर! मेरी आँखें धोखा तो नहीं खा रही हैं। पिता जी मूँछों में हँस रहे हैं। ऐसी मृदु-हँसी उनके चेहरे पर मैंने कभी नहीं देखा थी। उनकी आँखों से अनुराग टपक पड़ता था। उनका एक-एक रोम पुलकित हो रहा था, मगर ईश्वर ने मेरी लाज रख ली। वह देखो, उन्होंने धीरे से आबादी के कोमल हाथों से अपनी कलाई छुड़ा ली। अरे! यह फिर क्या हुआ? आबादी तो उनके गले में बाँहें डाले देती है। अब पिता जी उसे ज़रूर पीटेंगे। चुड़ैल को ज़रा भी शर्म नहीं।
एक महाशय ने मुस्कराकर कहा, ''यहाँ तुम्हारी दाल न गलेगी, आबादीजान! और दरवाज़ा देखो।''

बात तो इन महाशय ने मेरे मन की कही, और बहुत ही उचित कही, लेकिन न जाने क्यों पिता जी ने उसकी ओर कुपित-नेत्रों से देखा, और मुँछों पर ताव दिया। मुँह से तो वह कुछ न बोले, पर उनके मुख की आकृति चिल्लाकर सरोष शब्दों में कह रही थी, ''तू बनिया, मुझे समझता क्या है? यहाँ ऐसे अवसर पर जान तक निसार करने को तैयार हैं। रुपए की हकीकत ही क्या! तेरा जी चाहे, आज़मा ले। तुझसे दूनी रकम न दे डालूँ, तो मुँह न दिखाऊँ! महान आश्चर्य! घोर अनर्थ! अरे, ज़मीन तू फट क्यों नहीं जाती? आकाश, तू फट क्यों नहीं पड़ता? अरे, मुझे मौत क्यों नहीं आ जाती!'' पिता जी जेब में हाथ डाल रहे हैं। वह कोई चीज़ निकली, और सेठ जी को दिखाकर आबादीजान को दे डाली।
आह! यह तो अशर्फी है। चारों ओर तालियाँ बजने लगीं। सेठजी उल्लू बन गए। पिताजी ने मुँह की खाई, इनका निश्चय मैं नहीं कर सकता। मैंने केवल इतना देखा कि पिता जी ने एक अशर्फी निकालकर आबादीजान को दी। उनकी आँखों में इस समय इतना गर्वयुक्त उल्लास था मानो उन्होंने हातिम की कब्र पर लात मारी हो। यही पिता जी हैं, जिन्होंने मुझे आरती में एक रुपया डालते देखकर मेरी ओर उस तरह देखा था मानो मुझे फाड़ ही खाएँगे। मेरे उस परमोचित व्यवहार से उनके रोब में फ़र्क आता था, और इस समय इस घृणित, कुत्सित और निंदित व्यापार पर गर्व और आनंद से फूले न समाते थे।

आबादीजान ने एक मनोहर मुस्कान के साथ पिता जी को सलाम किया और आगे बढ़ी, मगर मुझसे वहाँ न बैठा गया। मेरा शर्म के मारे मस्तक झुका जाता था, अगर मेरी आँखों-देखी बात न होगी, तो मुझे इस पर कभी एतबार न होता। मैं बाहर जो कुछ देखता-सुनता था, उसकी रिपोर्ट अम्माँ से ज़रूर करता था। पर इस मामले को मैंने उनसे छिपा रखा। मैं जानता था, उन्हें यह बात सुनकर बड़ा दुख होगा।
रात भर गाना होता रहा। तबले की धमक मेरे कानों में आ रही थी। जी चाहता था, चलकर देखूँ, पर साहस न होता था। मैं किसी को मुँह कैसे दिखाऊँगा? कहीं किसी ने पिता जी का ज़िक्र छेड़ दिया, तो मैं क्या करूँगा?
प्रात:काल रामचंद्र की बिदाई होनेवाली थी। मैं चारपाई से उठते ही आँखें मलता हुआ चौपाल की ओर भागा। डर रहा था कि कहीं रामचंद्र चले न गए हों। पहुँचा, तो देखा - तवायफ़ों की सवारियाँ जाने को तैयार हैं। बीसों आदमी हसरतनाक मुँह बनाए उन्हें घेरे खड़े हैं। मैंने उनकी ओर आँख तक न उठाई। सीधा रामचंद्र के पास पहुँचा। लक्ष्मण और सीता बैठे रो रहे थे, और रामचंद्र खड़े काँधे पर लुटिया-डोर डाले उन्हें समझा रहे थे। मेरे सिवा और कोई न था। मैंने कुंठित-स्वर से रामचंद्र से पूछा, ''क्या तुम्हारी बिदाई हो गई?''
रामचंद्र- ''हाँ, हो तो गई। हमारी बिदाई ही क्या?'' चौधरी साहब ने कह दिया - ''जाओ, चले जाते हैं।''
'क्या रुपया और कपड़े नहीं मिले?''
''अभी नहीं मिले। चौधरी साहब कहते हैं - इस वक्त बचत में रुपए नहीं हैं। फिर आकर ले जाना।''
''कुछ नहीं मिला?''
''एक पैसा भी नहीं। कहते हैं, कुछ बचत नहीं हुई। मैंने सोचा था, कुछ रुपए मिल जाएँगे तो पढ़ने की किताबें ले लूँगा! सो कुछ न मिला। राह-खर्च भी नहीं दिया। कहते हैं - ''कौन दूर है, पैदल चले जाओ!''
मुझे ऐसा क्रोध आया कि चलकर चौधरी को खूब आड़े हाथों लूँ। वेश्याओं के लिए रुपए, सवारियाँ सबकुछ, पर बेचारे रामचंद्र और उनके साथियों के लिए कुछ भी नहीं! जिन लोगों ने रात को आबादीजान पर दस-दस, बीस-बीस रुपए न्योछावर किए थे, उनके पास क्या इनके लिए दो-दो, चार-चार आने पैसे भी नहीं? पिता जी ने भी तो आबादीजान को एक अशर्फी दी थी। देखूँ इनके नाम पर क्या देते हैं! मैं दौड़ा हुआ पिता जी के पास गया। वह कहीं तफ़तीश पर जाने को तैयार खड़े थे। मुझे देखकर बोले - ''घूम रहे हो? पढ़ने के वक्त तुम्हें घूमने की सूझती है?''
मैंने कहा - ''गया था चौपाल। रामचंद्र बिदा हो रहे थे। उन्हें चौधरी साहब ने कुछ नहीं दिया।''
''तो तुम्हें इसकी क्या फिक्र पड़ी है?''
''वह जाएँगे कैसे? पास राह-खर्च भी तो नहीं है!''
'क्या कुछ खर्च भी नहीं दिया? यह चौधरी साहब की बेइंसाफ़ी है।''
''आप अगर दो रुपए दे दें, तो मैं उन्हें दे आऊँ। इतने में शायद वह घर पहुँच जाएँ।''
पिताजी ने तीव्र दृष्टि से देखकर कहा - ''जाओ, अपनी किताब देखो, मेरे पास रुपए नहीं हैं।''
यह कहकर वह घोड़े पर सवार हो गए। उसी दिन से पिता जी पर से मेरी श्रद्धा उठ गई। मैंने फिर कभी उनकी डांट-डपट की परवाह नहीं की। मेरा दिल कहता - आपको मुझको उपदेश देने का कोई अधिकार नहीं है। मुझे उनकी सूरत से चिढ़ हो गई। वह जो कहते, मैं ठीक उसका उल्टा करता। यद्यपि इससे मेरी हानि हुई, लेकिन मेरा अंत:करण उस समय विप्लवकारी विचारों से भरा हुआ था।
मेरे पास दो आने पैसे पड़े हुए थे। मैंने पैसे उठा लिए और जाकर शरमाते-शरमाते रामचंद्र को दे दिए। उन पैसों को देखकर रामचंद्र को जितना हर्ष हुआ, वह मेरे लिए आशातीत था। टूट पड़े, प्यासे को पानी मिल गया।
यही दो आने पैसे लेकर तीनों मूर्तियाँ बिदा हुई! केवल मैं ही उनके साथ क़स्बे के बाहर तक पहुँचाने आया।
उन्हें बिदा करके लौटा, तो मेरी आँखें सजल थीं, पर हृदय आनंद से उमड़ा हुआ था।


                                                                                                                          साभार, ' प्रेमचन्द की क

मौलाना अबुलकलाम आज़ाद (१८८८ - १९५८)





एक क्रान्तिकारी पत्रकार और स्वतन्त्रता सेनानी
सय्यद मुज़म्मिलुद्दी
अप्रेल 2004


अंग्रेजी भाषा की एक लोकप्रिय कहावत है कि कलम तलवार से अधिक शक्तिशाली है। मानव इतिहास में इस बात की पुष्टि उन अनगिनत चिंतकों से हुई जिन्होंने अपने लेखन से अपने समय की जनता के जीवन और चिन्तन में चमत्कारी परिवर्तन लाये। इसकी कई मिसालें हमारे स्वतन्त्रता आंदोलन में देखने में आइंर् जिनमें पत्रकारिता ने खास भूमिका का प्रदर्शन किया। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने ' नवजीवन' और 'हरिजन' के द्वारा अंग्रेज़ सरकार के अत्याचारों के विरूद्ध आवाज़ उठाई और सामाजिक बुराइयों की रोकथाम का प्रयत्न किया जबकि मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने अपने समाचार पत्रों `` अल हिलाल'' और `` अलबलाग'़' के माध्यम से समस्त भारय् की जनता में स्वतन्त्रता आन्दोलन के प्रति एक नया जागरण शुस्र् किया।
यह कहना गलत नहीं होगा कि मौलाना आज़ाद की पत्रकारिता उनके राष्ट्रप्रेम और स्वतन्त्रता के सिद्धान्तों के प्रति उनके दृढ़ विश्वस का प्रतीक थी। १८९९ में मात्र ११ वर्ष की आयु में उन्होंने `` नैरंगे - आलम '' का प्रकाशन शुस्र् किया जिसमें उस समय के कवियों की रचनाएं शामिल होती थीं। १९०४ में मौलाना ने `` अलमिस्बाह'' नामक एक साप्ताहिक शुरू किया और साथ ही ``मख़ज़न'' और ``अहसनुल - अखबार'' में उनके निबंध छपने लगे।

मौलाना अबुलकलाम आज़ाद ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ``इण्डिया विन फ्रीडम'' में लिखा है कि १९०८ में वे मिस्त्र, इराक और तुर्की के आध्यात्मिक दौरे पर रवाना हुए। मिस्त्र में उनका संपर्क मुस्तफा कमाल पाशा के समर्थकों से हुआ जो वहां से एक साप्ताहिक निकाल रहे थे। मौलाना ने तुर्की में तुर्क नवयुवकों( यंग तुर्क्स) के आन्दोलन के नेताआें से मुलाक़ात की जिससे मौलाना के संबंध इन नेताआें से इतने गहरे हुए कि भारत वापसी के कई वर्ष बाद भी दोनों के दरमियान ख़तों का सिलसिला जारी रहा। इराक़ में मौलाना ने ईरानी क्रान्तिकारियों से मुलाकात़ की। इन मुलाक़ातों ने मौलाना के इस विश्वास को बढ़ावा दिया कि भारतीय मुसलमानों को अंग्रेज़ सरकार के विरूद्ध राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में बढ़कर भाग लेना चाहिये। कुछ समय सोच - विचार करने के बाद १९१२ में मौलाना ने ``अल - हिलाल'' जारी किया ताकि उसके माध्यम से मुसलमानों में क्रान्ति की विचारधारा प्रचलित हो। मौलाना की पत्रकारिता इतनी लोकप्रिय थी कि तीन महीनों के अन्दर ही ``अलहिलाल'' के सभी पिछले एडीशनों को दोबारा छापना पड़ा क्योंकि इस समाचारपत्र का हर नया खरीददार, हर एडीशन को रखने का इच्छुक था। ``अलहिलाल'' की लोकप्रियता अंग्रेज सरकार को बुरी लगी। उसने प्रेस एक्ट के तहत दो हज़ार स्र्पए की ज़मानत मांगी। मौलाना ने ज़मानत तो दे दी पर अपने समाचारपत्र की सरकार - विरोधी भाषा नहीं बदली। इस पर सरकार ने दस हज़ार रूपए की ताज़ा जमानत मांगी। मौलाना ने ताज़ा ज़मानत तो दे दी पर अपनी क्रान्तिकारी भाषा को नहीं दबने दिया। अम्तत: १९१५ में अलहिलाल प्रेस जब्त कर लिया गया। मौलाना आज़ाद का जन - जागरण का दृढ़ संकल्प इस कार्यवाही के बावज़ूद अटल रहा और उन्होंने पांच महीने के अन्दर ``अल - बलाग'़' के नाम से एक और समाचारपत्र जारी किया अंग्रेज़ सरकार पिछले अनुभवों की रोशनी में समझ गयी कि मौलाना पर प्रेस एक्ट के प्रावधानों का कोई प्रभाव पड़ने वाला नहीं है। इसलिये उसने डिफेन्स ऑफ इण्डिया के तहत अप्रेल १९१६ में मौलाना को कलकत्ते से बाहर जाने को कहा। पंजाब, यूपी, दिल्ली और मुम्बई की सरकारों ने इसी कानून के तहत मौलाना के प्रवेश पर रोक लगा दी। अब बिहार ही एक सूबा था जहां मौलाना आज़ाद जा सकते थे। परन्तु जब मौलाना रांची पहुंचे ही थे कि उन्हें नज़रबन्द कर दिया गया। नज़रबंदी का सिलसिला ३१ दिसम्बर १९१९ तक रहा। पहली जनवरी १९२० को मौलाना रिहा कर दिये गये।

१९२१ में मौलाना आज़ाद ने ``पैगा़म'' नाम का एक साप्ताहिक शुस्र् किया जिसपर अंग्रेज़ सरकार ने उसी साल प्रतिबंध लगा दिया और मौलाना को कुछ समय के लिए हिरासत में ले लिया।
१९२७ में मौलाना आज़ाद ने दोबारा ``अल - हिलाल'' का प्रकाशन शुस्र् किया और ये सिलसिला उस वर्ष की समाप्ति तक जारी रहा।
एक पत्रकार और समाजसुधारक के रूप में मौलाना आज़ाद ने कई सफलताएं प्राप्त कीं। उन्होंने उर्दू पत्रकारिता को पहली बार अच्छी लिथोग्राफिक छपाई और हाफटोन चित्रों से परिचित किया। उन्होंने अपने समाचारपत्रों से पूरे देश की जनता को विशेष रूप से मुसलमानों को स्वतन्त्रता आन्दोलन के प्रति जागृत किया जिसके कारण उन्हें जेल की मुसीबतें झेलना पड़ीं थीं। स्वतन्त्र भारत में वे पहले शिक्षा मंत्री बने। शिक्षा मंत्री के रूप में मौलाना आज़ाद ने कई काम किए। वैज्ञानिक शिक्षा को प्रोत्साहन, कई विश्वविद्यालयों की स्थापना, उच्च शिक्षा और खोज को प्रोत्साहन मौलाना के में ही व्यापक स्तर पर शुस्र् हुए।
मौलाना अबुलकलाम आज़ाद के जन्म दिन को राष्ट्रीय शिक्षा दिवस के रूप में घोषित किया जाना और हैदराबाद में उन्हीं के नाम पर मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू युनिवर्सिटी स्थापित होना राष्ट्र की ओर से एक स्वतन्त्रता सेनानी, क्रान्तिकारी, पत्रकार, समाजसुधारक, शिक्षा विशेषज्ञ तथा अबूतपूर्व शिक्षा मंत्री को भेंट की जाने वाली सच्ची श्रद्धान्जली है।


सय्यद मुज़म्मिलुद्दी
अप्रेल 4

अमृतलाल चक्रवर्ती


भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
अमृतलाल चक्रवर्ती
Blankimage.png
पूरा नाम अमृतलाल चक्रवर्ती
जन्म 1863 ई.
जन्म भूमि कोलकाता, पश्चिम बंगाल
मृत्यु 1936 ई.
मृत्यु स्थान कोलकाता, पश्चिम बंगाल
कर्म-क्षेत्र साहित्य
मुख्य रचनाएँ उपन्यास कुसुम, निगभागम चंद्रिका, उपन्यास तरंग, श्रीकृष्ण संदेश
विषय उपन्यास, पत्रिका
भाषा हिन्दी, बांग्ला
शिक्षा एलएल. बी.
नागरिकता भारतीय
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
अमृतलाल चक्रवर्ती (जन्म- 1863, कोलकाता; मृत्यु- 1936, कोलकाता) बंगाली भाषी हिन्दी-सेवा के व्रती लेखक तथा पत्रकार थे। इन्होंने साप्ताहिक 'हिन्दी बंगवासी' (कलकत्ता) का सम्पादन लगभग दस वर्ष तक किया। यह हिन्दी साहित्य सम्मेलन के 16 वें अधिवेशन (वृन्दावन) के सभापति रहे।

कार्यक्षेत्र

अमृतलाल चक्रवर्ती ने औपचारिक शिक्षा पूरी करने से पूर्व ही इलाहाबाद में प्रकाशित 'प्रयाग-समाचार' पत्र से पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश किया। कुछ ही दिन कालाकांकर से प्रकाशित राजा रामपाल सिंह के पत्र 'हिन्दोस्थान' में भी रहे। वहाँ से कोलकाता जाकर उन्होंने क़ानून की डिग्री ली, लेकिन वकालत में नहीं गए। 'हिन्दी बंगवासी' निकलने पर अमृतलाल चक्रवर्ती 10 वर्ष तक उसके संपादक रहे। उसके बाद बाबू बालमुकुंद गुप्त के अनुरोध पर वे 'भारत मित्र' पत्र में चले गए। इसके में मुंबई के 'वैंकटेश्वर समाचार' ने उन्हें अपने यहाँ बुला लिया। उनके प्रयास से ही उस पत्र का दैनिक संस्करण प्रकाशित हुआ था।
अमृतलाल चक्रवर्ती ने 'उपन्यास कुसुम' 'निगभागम चंद्रिका' 'उपन्यास तरंग' और 'श्रीकृष्ण संदेश' पत्रों में भी काम किया। उस समय के हिन्दी सेवी किन कठिनाइयों में काम करके राष्ट्र भाषा का ध्वज उठाए रहते थे, इसकी एक झलक अमृतलालजी के जीवन से मिलती है। उन्हें 1925 में वृंदावन के सोलहवें अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन का सभापति बनाया गया था। उस समय उनके पास न तो किराए के पैसे थे, न पहनने के ठीक कपड़े। बड़े आग्रह पर 'मतवाला' संचालक महादेव प्रसाद सेठ से उन्होंने कुछ आर्थिक सहायता स्वीकार की, कि वे बदले में उनका कोई काम कर देंगे।

मृत्यु

राष्ट्रभाषा के सेवी अमृतलाल चक्रवर्ती का 1936 में कोलकाता नें निधन हो गया।

साहिर लुधियानवी ,जावेद अख्तर और 200 रूपये

 एक दौर था.. जब जावेद अख़्तर के दिन मुश्किल में गुज़र रहे थे ।  ऐसे में उन्होंने साहिर से मदद लेने का फैसला किया। फोन किया और वक़्त लेकर उनसे...