सोमवार, 28 फ़रवरी 2022

: तुलसी और वाल्मीकि रामायण :

 वाल्मीकि रामायण और तुलसीकृत रामचरितमानस की एक साथ बात करें तो दोनों में कवि श्री राम की कथा ही कह रहे होते हैं। जैसे ही इन्होंने राम की कथा को आम जन तक पहुँचाने का प्रयास किया, वैसे ही इनका खुद का नाम भी अमर हो गया! अब अगर चाहें भी तो रामायण कहते ही वाल्मीकि या रामचरितमानस कहते ही तुलसीदास याद न आएं ये असंभव है। ये एक बार नहीं कई बार हुआ है। अच्छे ढंग से लिखने के बदले, अपनी मर्जी से तोड़ने-मरोड़ने, उसमें कहीं महाभारत तो कहीं दूसरी अनसुनी कहानियां घुसेड़ने वाले आज कल के लेखक भी इसके नाम पर अच्छी खासी प्रसिद्धि (और मुद्रा) बटोर ले जाते हैं।


जहाँ नतीजे ऐसे साफ़, उदाहरणों में दिखें वहां अगर कोई पूछे कि आज के समय में इसे पढ़ने, लिखने या सुन लेने का क्या फायदा? उसे मुस्कुराकर टाल देना चाहिए। आकार की दृष्टी से देखें तो दोनों ग्रंथों में बहुत अंतर है। जहाँ वाल्मीकि की रामायण बहुत वृहत है, तुलसीदास की रामचरितमानस उससे बहुत छोटी होती है। समय काल के हिसाब से दोनों में हजारों साल का अंतर है। तुलसी के काल तक वाल्मीकि के लेखन के आधार पर अनेकों रचनाएँ लिखी जा चुकी थीं। उनकी भाषा भी संस्कृत नहीं इसलिए उनके किये को अर्थ का अनुवाद और फिर उसमें कुछ प्रसंगों का बदलाव माना जा सकता है।


वो वाल्मीकि की रचना पर ही आधारित है, ऐसा मान लिया जाता, तुलसीदास को ये अलग से लिखने की जरूरत नहीं थी। संभवतः तुलसीदास की नैतिकता के मापदंड आजकल के हिन्दी लेखकों जैसे नहीं थे इसलिए वो शुरुआत में ही स्पष्ट लिख देते हैं कि उन्होंने आधार किसे माना है। एक भाषा से दूसरी भाषा में करते समय मूल लेखक का नाम गायब नहीं करते। जिस व्यक्तित्व तो इन दोनों कवियों ने अपनी रचना के केंद्र में रखा, उन्हें देखें तो एक बात स्पष्ट है कि राम पूर्व के काल में मत्स्य न्याय चल जाता था। जिसके पास लाठी है, भैंस भी उसी की होगी वाला जंगल का कानून था।


अगर किसी को आपकी पूजा पद्दतियों, आपके यज्ञ करने पर आपत्ति है तो वो मारीच की तरह उसमें हड्डियाँ फेंककर जा सकता था। अगर किसी को आपके रहने के क्षेत्र अपने क्षेत्र से ज्यादा हरे-भरे, पशु-पक्षियों से भरे, रमणीय लगते हैं तो वो ताड़का की तरह जबरन घुसपैठ करके वहां बस सकता था। अगर किसी को अपनी पत्नी के अलावा दूसरों के घरों की स्त्रियाँ पसंद आ जाएँ तो वो रावण या बाली की तरह उन्हें उठा कर ले जा सकता था। श्री राम धर्म को व्यक्ति से पहले रखते हैं, स्वयं से भी आगे। यही वजह है कि जब “रावन रथी विरथ रघुवीरा” देखकर विभीषण अधीर होने लगते हैं तो तुलसीदास राम के रथ के रूप में धर्म के लक्षणों की पुनःस्थापना कर देते हैं।


तुलसीदास भक्ति काल के कवि हैं तो उनका ग्रन्थ जहाँ भक्ति से सराबोर है, वहीँ वाल्मीकि के रामावतार मर्यादापुरुषोत्तम हैं, उनके गुणों की अपेक्षा आम आदमी से की जा सकती है। दोनों की बात इसलिए क्योंकि न पढ़ने से कई समस्याएँ हैं। उदाहरण के तौर पर वाल्मीकि रामायण या किसी “लक्ष्मण-रेखा” की बात नहीं करता। तो कई बार मर्यादा लांघने के लिए जो लक्ष्मण-रेखा पार करना कहा जाता है, उसका सन्दर्भ रामचरितमानस का लंका कांड (रावण-मंदोदरी संवाद) होगा। कई बार लोग हनुमान चालीसा को रामचरितमानस का ही कोई हिस्सा “मान” लेते हैं। वो भी रामचरितमानस में नहीं आता।


कथा का एक क्रम में होना रामायण कहलाने के लिए आवश्यक है इसलिए कम्ब रामायण होती है लेकिन तुलसीकृत रामायण नहीं कह सकते। उनकी रामकथा का नाम रामचरितमानस ही रहेगा। काण्डों के नाम में जहाँ राम-रावण युद्ध होता है उसे वाल्मीकि युद्ध काण्ड कहते हैं और तुलसीदास लंका कांड। वाल्मीकि के सुन्दरकाण्ड में वीभत्स, रौद्र जैसे रस आयेंगे लेकिन तुलसीदास की भक्ति इसे एक दो बार भी उभरने नहीं देती। यानी सीधे तौर पर कहा जाए तो भावना बेन नाजुक होने पर वाल्मीकि रामायण पढ़ने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। ऐसे में रामचरितमानस ठीक रहेगा।


बाकी चर्चा इसलिए क्योंकि दोनों ग्रन्थ हमारे हैं, इसलिए उनपर बात भी हमें ही करनी होगी। अंडमान के आदिवासियों की तरह आत्मा-चोर गिद्धों को तीर नहीं मारेंगे तो कब नोच भागे इसका कोई ठिकाना नहीं!


जब 1975 में “रामकथा” पर आधारित “दीक्षा” का प्रकाशन हुआ, तभी साहित्य जगत को पता चल गया था कि एक और यशस्वी लेखक का उदय हो चुका है। अब इस काल को “नरेंद्र कोहली युग” कहे जाने का आग्रह भी जोर पकड़ता जा रहा है। सांस्कृतिक पुनःजागरण के इस दौर में कई ऐसे उपन्यास लिखे गए जो कि परंपरागत, या स्थापित मान्यताओं के खिलाफ जाते थे। नरेंद्र कोहली के नायक-नायिकाएं उपन्यास लेखन के मान्य तरीकों से नहीं गढ़े गए थे। वो आम जन की भावनाओं में बसने वाले वैसे नायक-नायिकाएं थीं, जिनपर खुद को “मास” से अलग “एलिट क्लास” का मानने वाला उस दौर का लेखक लिखता ही नहीं!


“मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि यथा-संभव रामायण कथा की मूल घटनाओं को परिवर्तित किये बिना आपने उसकी एक मनोग्राही व्याख्या की है।” हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने नरेंद्र कोहली के बारे में 1976 में लिखा था। तो क्या नरेंद्र कोहली अपने उपन्यासों में कल्पना का प्रयोग नहीं करते थे? करते थे! लेकिन विदेशियों की फेंकी हुई बोटियों प र पलने वाले टुकड़ाखोरों की तरह वो अपनी कल्पना को प्रबल दिखाने के लिए मूल कथा से छेड़-छाड़ नहीं करते थे। उदाहरण के तौर पर “अभिज्ञान” देखें तो शुरुआत करते ही आपको पता चल जाता है कि ये श्री कृष्ण और सुदामा की जानी पहचानी सी कहानी है।


लेखक पूरी कहानी में कोई बड़ा बदलाव नहीं करते। मूलतः कहानी वही है जो हम सभी जानते हैं। इसके बाद भी करीब डेढ़ सौ पन्नों में नरेंद्र कोहली सुदामा की कहानी के जरिये कर्मयोग के सिद्धांत बता जाते हैं। लेखन की उपन्यास, नाटक जैसी जानी पहचानी विधाएँ हों, या संस्मरण जैसे कम छुए जाने वाले क्षेत्र, नरेंद्र कोहली सभी में लिखते रहे। अगर उनकी प्रसिद्धि की बात करें, तो उनके लिए प्रसिद्धि “रामकथा” से आई थी। बिना मूल कथानक में कोई परिवर्तन किये वो रामकथा को “अभ्युदय” के रूप में लिखने से आई। दो खण्डों में लिखे इस उपन्यास की कई नामी-गिरामी लेखकों ने भी प्रशंसा की है।


हम उनका लेखन देखते समय उनके लिखे 'वसुदेव' को देखते हैं। ये उपन्यास श्री कृष्ण के पिता वसुदेव और उनके संघर्ष की कहानी है। वसुदेव अपने रण में विजयी नहीं हुए थे। उनके हिस्से की लड़ाई को उनके पुत्र आगे बढ़ाते हैं। यानि कहानी का मुख्य पात्र परंपरागत अर्थों में नायक ही नहीं कहा जा सकता! इसके बाद भी इस उपन्यास की पाठक को पकड़े रखने की क्षमता देखने लायक है। उस दौर और आज के दौर के संघर्ष कैसे एक ही जैसे हैं, ये समझने के लिए वसुदेव भी पढ़ी जा सकती है। वो स्वामी विवेकानंद के जीवन पर कई खण्डों में “तोड़ो कारा तोड़ो” लिखने के लिए भी ख्यात हैं।


हिंदी के साहित्य जगत में दूसरे पक्ष से लिखने वाले ऐसे लेखक का जाना अपूरणीय क्षति है। उम्मीद की जाये कि नए लेखक अब उनके स्थापित मापदंडों से बेहतर करने का प्रयास करेंगे। 


एक आम भारतीय के लिए अपने धर्मग्रंथों की बात करना कठिन क्यों हो जाता है? कई बार इसकी वजह ये होती है कि भगवद्गीता जैसे ग्रंथों पर उसने जो चर्चा पढ़ी-सुनी होती है वो धार्मिक होती है। इसकी तुलना में जो लोग उसके बिरोध में तर्क सुना रहे होते हैं वो आयातित विचारधारा के होते हैं, जिसने धार्मिक सहिष्णुता की उम्मीद बेमानी है। इनके तर्कों को सुनने के बाद नयी पीढ़ी भगवद्गीता देखना चाहेगी, इसमें शक है। जो जमातें आम तौर पर पूर्वाग्रह से ग्रसित होने को निंदनीय बताती हैं, उन्होंने ही पूर्वाग्रह तो पहले ही नयी पीढ़ी के मन में बिठा दिए! तुलनात्मक रूप से धर्मों और दूसरे छोटे-मोटे मजहब-रिलिजन की तुलना ना पढ़ने के कारण यहाँ धर्मगुरुओं का “प्रवचन” भी कोई ख़ास काम नहीं आता।


ऐसी जगहों पर एमवी नाडकर्णी जैसे लेखकों की किताबें काम आ जाती हैं जो कि “इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल एंड इकनोमिक चेंज” जैसी संस्थाओं में विजिटिंग प्रोफेसर रहे हैं। वो अर्थशास्त्री हैं और मुख्य रूप से कृषि और प्रयावरण सम्बन्धी अर्थशास्त्र पर काम करते हैं। उनके लम्बे चौड़े से रेज्यूमे को छोड़कर आइये देखते हैं कि उन्होंने अपनी पुस्तक में लिखा क्या है। नाडकर्णी चर्चा करते हैं कि भगवद्गीता है क्या? आधुनिक समाज के लिए इसका कोई औचित्य बचता भी है या नहीं? इन प्रश्नों पर बात करने के बाद वो उन नैतिक मूल्यों पर आते हैं जिनकी चर्चा भगवद्गीता में की गयी है। भगवद्गीता के दार्शनिक और अध्यात्मिक पक्षों पर भी वो थोड़ी चर्चा करते हैं।


इस किताब को अलग क्षेत्रों, जैसे कि बिज़नेस मैनेजमेंट या फिर वैज्ञानिक शोध के क्षेत्रों में कैसे इस्तेमाल किया जा सकता है उसपर भी थोड़ी बात की गयी है। इसके अलावा वो उन तर्कों की बात करते हैं, जो अक्सर इसके विरुद्ध लिखे गए हैं। आंबेडकर, डी कौशाम्बी जैसे लेखकों ने जो तर्क भगवद्गीता के विरुद्ध प्रस्तुत किये हैं वो क्यों कमजोर हैं, इसपर चर्चा की गयी है। हाल के दौर में अमर्त्य सेन जैसे लेखकों ने जो भगवद्गीता की आलोचना की है, थोड़ी चर्चा उसपर भी है। मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि भगवद्गीता का अध्ययन करने वाले छात्रों के लिए लिखी गयी किताब है, ये धार्मिक नजरिये से भगवद्गीता पढ़ने वालों के लिए कम काम की होगी। हाँ, ये और इस जैसी दूसरी पुस्तकें हिन्दी में नहीं आतीं।


अगर भगवद्गीता की चर्चा धार्मिक बैठकों के बाहर भी कहीं करते हों, तो फिर ये किताब पढ़िए। अगर आप पहले ही शंकरभाष्य या रामानुजभाष्य जैसे अध्यात्मिक ग्रन्थ पढ़ते हों, तो ये किताब आपकी रूचि की नहीं है। हमें नहीं लगता कि ये पुस्तक भगवद्गीता को केवल धार्मिक दृष्टि से देखने वालों के लिए ज्यादा काम की होगी। सभ्यताओं के संघर्ष के बीच बैठे भगवद्गीता देख रहे हों, तो इसे पढ़िए, अन्यथा जाने दें!

✍🏻आनन्द कुमार जी की पोस्टों से संग्रहित

सियासत, साहित्य और सिनेमा में गधे का दखल/ आलोक यात्री

  खटराग / आलोक यात्री 

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  चार्ल्स डार्विन ने बंदर को हमारा पूर्वज बताया है। लेकिन एक रामायण को छोड़ कर किसी अन्य ग्रंथ या साहित्य में बंदर का मानव से उतना सामंजस्य देखने को नहीं मिलता जितना गधे का देखने को मिलता है। आज बैठे बिठाए गधे का तसव्वुर दिमाग में ‌न जाने कहां से आ गया? कामगारों की दुनिया में गधे को बड़ी हेय दृष्टि से देखा जाता है। उसकी संज्ञा निकृष्ट कोटि के प्राणियों के तौर पर देखने को मिलती है। तुच्छता के स्तर पर तुलना करने ‌के लिए इससे बेहतर उदाहरण दूसरा कोई देखने में नहीं आता। यूं तो गधा पूरी दुनिया में विचरण करता है लेकिन इतिहास में इसके दो ही स्वामी दर्ज हैं। एक धोबी और दूसरा कुम्हार। वैसे यह ऐसा जीव है जो प्रतीक स्वरूप दुनिया के लगभग हर घर, स्कूल, सरकारी व निजी दफ्तर में किसी न किसी रूप में मौजूद रहता है। डिक्शनरी हिंदी की हो या अंग्रेजी की इसके पर्यायवाची नामों से भरी पड़ी है। मसलन गधा, खर, खच्चर, गर्दभ, टट्टू, डौंकी, पौनी और न जाने क्या-क्या...?

   वेद-पुराणों में भी गधे का उल्लेख मिलता है।ऋग्वेद के ३:५३:२३ तथा ऐतरेय ब्राह्मण-४:९ तैत्तिरीय संहिता-५:१:२:१ में इसका उल्लेख बताया जाता है। ऐसा ऐसा प्रतीत होता है कि गधा भी बेचारा कालसर्प से पीड़ित है। जिसकी कुंडली में कालसर्प दोष होता है, वह व्यक्ति भी जीवन भर गधे की तरह अथाह मेहनत करके भी कुछ भी हासिल नहीं कर पाता है।

  गधे के व्यापक पालतू और उपयोग के कारण, दुनिया भर में मिथक और लोककथाओं में गधे का उल्लेख मिलता है। शास्त्रीय और प्राचीन संस्कृतियों में गधों की भागीदारी थी। मिस्र में गधा सूर्य देवता 'रा' का प्रतीक था। बाइबिल में गधों का कई बार उल्लेख किया गया है। जो पहली किताब से शुरू होता है और पुराने और नए नियम दोनों के माध्यम से जारी रहता है। इसलिए गधा वहां जूदेव-ईसाई परंपरा का हिस्सा बन गया। 


  भारतीय पुराण कहते हैं कि अंतिम समय में गऊ माता की पूंछ पकड़ने से भवसागर पार हो जाता है। लेकिन भारतीय साहित्य सहित दुनिया के किसी भी शास्त्र में इस मान्यता का प्रमाण नहीं ‌मिलता। जबकि एक शब्द "पौनी टेल" ऐसा है जिसे हम बचपन से सुनते आ रहे हैं। हमारे बचपन में अक्सर मां, बहन, बुआ, चाची, मामी बच्चियों से बड़े दुलार से कहती थीं 'आ तेरी पोनी टेल बना दूं...'।

  थोड़े बड़े हुए ‌तो लंदन से आए पिताश्री के मित्र श्रीराम विद्यार्थी अंग्रेजी का एक बाल उपन्यास 'ब्लैक ब्यूटी' ले आए। अब साहित्य में गधे के योगदान विषय पर शोध करने बैठा तो पता चला कि इस उपन्यास की रचना ब्रिटिश लेखिका आन्ना सेवेल ने की थी। 1877 में प्रकाशित इस उपन्यास को लिखने में उन्हें छह साल लंबा अर्सा लगा। सोचिए करीब डेढ़ सौ साल पहले कोई व्यक्ति गधे की किसी प्रजाति की कल्पना के साथ छह साल व्यतीत कर दे। उपन्यास का कथानक तो मुझे याद नहीं लेकिन हां कथा के केंद्र ‌में एक पौनी (गधे का बच्चा) था। यह पुस्तक ब्लैक ब्यूटी नाम के पौनी द्वारा आत्मकथात्मक संस्मरण के साथ शुरू होती है। आज यह पुस्तक विश्व के दस सर्वश्रेष्ठ बाल उपन्यासों में शामिल है। पाठकों को जानकर आश्चर्य होगा कि इस नन्हे पौनी ने लेखिका को आज के हिसाब से डेढ़ सौ साल पहले लगभग साढ़े तीन लाख रुपए का पारिश्रमिक दिलवाया था। 

  गधे की महिमा यहीं खत्म नहीं होती।‌ हिन्दी के प्रख्यात लेखक कृशन चंदर ने तो गधे को केंद्र में रखकर 'एक गधे की आत्मकथा', 'गधे‌ की वापसी' और 'गधा नेफा में' शीर्षक से तीन उपन्यास ही लिख मारे। जो दुनिया भर में काफी चर्चित हुए। 'एक गधे की‌ आत्मकथा' व्यंग्य उपन्यास है। जिसके माध्यम से कृशन चंदर सन 1950-60 के भारत के राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, जातिवाद व भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर एक गधे के माध्यम से कटाक्ष करते हैं। जो मौजूदा दौर में भी उतने ही सटीक नजर आते हैं। उपन्यास की पटकथा गधे की नज़रों और शब्दों से देखने और सुनने को मिलती है।  उपन्यास का नायक गधा जो विभिन्न भाषाएं बोलता और समझता है, वह समाज के दोनों वर्ग ‘समझदार’ (पढ़े-लिखे और सभ्य, भाषा और संस्कृति का ज्ञान रखने वाले) 'मूर्ख' (अशिक्षित, असभ्य और अज्ञानी) समझे जाने वाले मनुष्यों का प्रतीक है। गधा कहलाने वाला जानवर दरअसल हम मनुष्यों से कितना अलग, बेहतर और समझदार है यह उपन्यास के विभिन्न हिस्सों, घटनाओं और संवादों में समय-समय पर प्रकट होता है। अन्य किसी भी जानवर को छोड़कर गधे को नायक के रूप में चुनकर कृशन चंदर ने बड़े ही साहस का काम किया है। गधा (नायक) नायक लिबास में जिस तरह से मनुष्यों के दोगले व्यवहार, कटुता, पक्षपात को दर्शाता है वह पढ़ना बहुत ही रोचक है। कृशन चंदर ने बहुत ही सरल और सीधे तरीके से अपनी बात कहकर समाज के हर वर्ग से जुड़े व्यक्ति और व्यवहार पर चुटकी ली है। पूरा उपन्यास पढ़कर भी पाठक इसी पाशोपेश में रहता ही कि यह आदमी के रूप में गधा है या गधे के रूप में आदमी? 

  उपन्यास की एक पंक्ति 'एक मुसलमान या हिन्दू गधा हो सकता है लेकिन एक गधा हिंदू या मुसलमान नहीं हो सकता' इस उपन्यास के मर्म को समझने के लिए पर्याप्त है। कहानी के केंद्र में एक गधा है। जो हिन्दू मुस्लिम दंगो से बचकर दिल्ली पहुंच जाता है। रामू धोबी उसे अपने खूंटे से बांध लेता है। रामू के पास रह कर वह कई अनुभव पाता है। जिसमें कई जगह वह पाता है कि लाखों मनुष्यों की जिंदगी गधे से भी तुच्छ है। एक दिन मगरमच्छ रामू की टांग खींच लेता है जिससे उसकी मौत हो जाती है। अपने मालिक के मर जाने के बाद उसके बीवी बच्चों को मुआवजा दिलवाने के लिए दफ्तरों के चक्कर काटता है। ठीक वैसे ही जैसे आम नागरिक अपने छोटे छोटे कामों के लिए सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटते है। 'एक गधे

गधे की आत्मकथा में आम नागरिक द्वारा किया जाने वाला संघर्ष है। 

  गधे को लेकर लिखे गए‌ व्यंग्यों की फेहरिस्त काफी लंबी है। लेकिन सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार शरद जोशी ने गधे को केंद्र में रखकर एक बेहतरीन नाटक 'एक था गधा उर्फ अलादाद खां' रच डाला। नाटक में दर्शाया गया है कि राजनैतिक दल अपने स्वार्थ की खातिर सामान्य जनता को कैसे मूर्ख बनाएk रखते हैं? इसी राजनीतिक परिवेश के कारण देश में घट रही मूल्यहन्ता त्रासदी को दर्शाना ही इस नाटक का मुख्य उद्देश्य है। यह नाटक शरद जोशी जी ने उस समय लिखा था, जब देश में आपातकाल के कारण आम जनता शोषित थी। इस नाटक को उसी सच्चाई का दर्पण माना जा सकता है।

  नाटक में दर्शाया गया है कि विरासत में मिली सियासत व नवाबी में कुछ लोग नेतृत्व में सक्षम न होने के बावजूद ऐसे फैसले लेते रहते हैं जो कि आवाम के लिए सही नहीं होते। नाटक में कई पात्र हैं। लेकिन मुख्य पात्र नवाब साहब व कोतवाल हैं। दोनों ही राजनैतिक व प्रशासनिक शक्ति के प्रतीक हैं। अलादाद खां जनसाधारण का प्रतीक है। जो दुखी है, परेशान है, जिनकी कोई नहीं सुनता। नवाब साहब जिनके पूर्वज भी नवाब थे, एक नाकामयाब सियासतदान व लोगों का भला करने में सक्षम नहीं होने के बावजूद विरासत में मिली नवाबशाही के ऐसे-ऐसे फरमान जारी करते थे, जिन्हें मानना लोगों की मजबूरी थी। नवाब साहब चाहते हैं कि हर तरफ उन्हीं के जयकारे गूंजे और जनता में केवल उन्हीं की चर्चा हो। 

  एक दिन कोतवाल नवाब साहब के पास देर से पहुंचता है। नवाब साहब उससे देरी से आने की वजह पूछते हैं। कोतवाल झूठ बोलते हुए कहता है कि अलादाद खां मर गया। वह तो उसके परिवार को दिलासा देने गया था। नवाब साहब उससे पूछते हैं कि इस मामले में उन्हें क्या करना चाहिए? जिससे उनकी भी वाहवाही हो सके। कोतवाल सुझाव देता है कि नवाब साहब शवयात्रा में अलादाद की अर्थी को कंधा दे दें। जिससे नवाब साहब की शोहरत पूरे इलाके में फैला जाएगी। नवाब साहब अलादाद की शवयात्रा को कंधा देने की सार्वजनिक घोषणा करने के साथ-साथ कई और इंतजामात भी करते हैं। शव यात्रा का आंखों देखा हाल टेलीविजन पर प्रसारित करने की तैयारी भी पूरी हो जाती है। 

  इसी बीच पता चलता है कि अलादाद खां नाम का कोई आदमी नहीं मरा बल्कि अलादाद एक धोबी के गधे का नाम है। नवाब साहब परेशान हो उठते हैं। नवाब साहब सोचते हैं कि एक गधे के जनाजे को कंधा कैसे दें? क्योंकि वह खुद ही इलाके में इसकी चर्चा कर चुके थे। वह सोचते हैं कि सारी तैयारियां हो गईं, प्रचार भी हो गया, लेकिन जनाजा किसका निकाला जाए? 

  वह कोतवाल को बुलाते हैं। जिसने यह खबर दी थी कि अलादाद खां मर गया। कोतवाल अपनी जान बचाने की जुगत में ‌लग जाता है।

इसी दौरान उसकी मुलाकात एक व्यक्ति से होती है। जिसका नाम अलादाद खां है। नवाब साहब की इज्जत बचाने के लिए अलादाद नाम के व्यक्ति का कत्ल करवा दिया जाता है और नवाब साहब जाकर उसकी शवयात्रा में कंधा देते हैं। नाटक में दर्शाया गया है कि विरासत में सियासत के बावजूद कुछ लोग जोकि लोगों का भला करने में सक्षम नहीं है। मात्र अपने स्वार्थ व वाहवाही के लिए गलत कदम उठाते हैं। जोकि समाज के लिए घातक साबित होते हैं। 

  तो... कौन कहता है कि गधा किसी नायक से कम है। भारतीय सिनेमा में भी गधे ने झंडे गाडे़ हैं। 1967 में एक फिल्म आई थी 'मेहरबान'। सुनील दत्त और नूतन अभिनित इस फिल्म का बचपन में सुना एक गाना भी जेहन में खरदौड़ कर रहा है। जिसके बोल थे 'मेरा गधा गधों का लीडर...।' मेरे ख्याल से इस गीत का आज के या तब के राजनैतिक दौर से कोई लेना-देना नहीं है। तो... अब गीत के बोल पर आते हैं-

'मेरा गधा गधों का लीडर, कहता है के दिल्ली जाकर

सब मांगे अपनी कौम की मैं, मनवा कर आऊंगा

नहीं तो घास न खाऊंगा, मेरा गधा गधों का लीडर...

सबसे पहली मांग हमारी, धोबी राज़ हटा दो

अब न सहेंगे डंडा चाहे, फांसी पर लटका दो

अगर न मानी सरकार, किया इंकार तो यूएनओ तक जाऊंगा

नहीं तो घास न खाऊंगा...

दूजी मांग के जात हमारी, मेहनत करने वाली

फिर क्यों यह इंसान, गधे का नाम समझते गाली

न बदला यह दस्तूर, तो हो मजबूर,

मैं इन पर केस चलाऊंगा, नहीं तो घास न खाऊंगा...

तीजी मांग हमारी,  हमको दे दो एक एक क्वार्टर

हफ्ते में एक बार घास के बदले मिले टमाटर

अगर कर दो यह एहसान, ओ मेरी जान, दुआएं देता जाउंगा

कभी न दिल्ली जाऊंगा, मेरा गधा गधों का लीडर...'

  कहना न होगा कि यह गीत अपने समय के श्रेष्ठ हास्य अभिनेता महमूद पर फिल्माया गया था। जिसने कई साल रेडियो पर धूम मचाए रखी। इस गीत के बारे में एक रोचक ‌तथ्य यह भी है कि सत्तर से नब्बे के दशक में देश में चुनाव के दौरान इस गीत के प्रसारण पर‌ पाबंदी लगा दी जाती थी। जबकि गीत के बोल‌ ऐसे नहीं हैं जो राजनीति पर सीधे- सीधे ‌प्रहार करते हों।

  बात गीत की निकली ही है तो यह जानना भी रोचक है कि संगीत के क्षेत्र में भी गधे का बड़ा सम्मान है। गधे के सम्मान में संगीतज्ञों ने 'गर्दभ राग' की रचना कर डाली। वैसे अपनी अब तक की जिंदगी में मैंने गर्दभ राग सुना नहीं है लेकिन हिंदी अदब में इस राग का उल्लेख कई जगह हुआ है।

  मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि हमारे सभ्य समाज ने गधे की महिमा और क्षमता को कम कर आंका है। मेरा मानना है कि धरती के इस सर्वश्रेष्ठ जीव जिसकी महिमा के वृतांत से हिंदी साहित्य और फिल्में ही नहीं विदेशी‌ साहित्य भी भरा पड़ा‌ है, का आकलन नए सिरे से किया जाना आवश्यक है।

मंगलवार, 22 फ़रवरी 2022

शब्द भाषा वाणी का सौंदर्य : श्री र जोशी

 सचमुच वाणी कामधेनु है!

शब्द से कितने अर्थ दीप्त हो जाते हैं?


अर्थ मन की गहराइयों में प्रतिभासित होता है!


जैसे-जैसे अर्थ का अवगाहन करनेवाली बुद्धि शब्द के अन्तराल में प्रवेश करती जाती है,अनोंखे अर्थ प्रतिभासित होते जाते हैं।


शब्द के सूत्र को पकड कर चेतना की कितनी गहराई में कोई जा सकता है!!!


जहां सूर्य,चन्द्र,विद्युत-अग्नि का प्रकाश नहीं होता,

मन की उन गहन- गुहाओं में शब्द प्रकाशित होता है,


इसलिये वाक को चौथी ज्योति कहा गया है।

अंधेरे में भी शब्द भासित होता है।

✍🏻राजेंद्र रंजन चतुर्वेदी


भारत मेँ भाषा और शब्‍द के अध्‍ययन की परंपरा अत्‍यंत प्राचीन और समृद्ध है.

जब भारत मेँ एक सक्रिय, सचेतन और गतिशील समाज था, जब हमारे यहाँ ज्ञान, विज्ञान, दर्शन और कलाओँ के क्षेत्र मेँ नए से नए काम हो रहे थे, जब हमारे दस्‍तकार नई से नई सुंदर वस्‍तुएँ उत्‍पादित करने मेँ लगे थे, जब हमारे सार्थवाह हमारे उत्‍पादोँ को ले कर सारे संसार को हमारी वैचारिक और सांसारिक समृद्धि का समाचार पहुँचा रहे थे, तो महान वैयाकरण और भाष्‍यकार हमारी भाषा को सुसंस्‍कृत भी कर रहे थे.

कहा गया है कि बृहस्‍पति के समान गुरु भी इंद्र के समान शिष्‍य को हज़ारोँ वर्षों तक शब्‍द पारायण कराते कराते शब्‍द सागर का अंत नहीँ पा सके थे.

(शब्दवेध से)


विद्यालयों में संस्कृत क्‍यों पढ़ानी चाहिए ?


भारत के विभिन्न प्रान्तों में विद्यालयों में भाषा सम्बद्ध नीति समान नहीं है। कहीं दो भाषाएँ पढ़ाई जाती है तो कहीं तीन।  100 प्रतिशत भारतीयों की मातृभाषा कोई न कोई भारतीय भाषा है, जिनकी जननी संस्कृत है।  बिना संस्कृत जाने आप भारतीय भाषाओं का पूरी तरह से आस्वाद नहीं उठा सकते। उदाहरण के रुप में ‘वन्दे मातरम्’ इस गान को लिया जाए। इसमें मूल बांग्ला शब्दों की तुलना में संस्कृत शब्द अधिक हैं। इस कारण अधिकतर जनता ‘वन्दे मातरम्’ को संस्कृत गीत मानती है। ‘जन-मन-गण’ इस गीत की स्थिति भी ऐसी ही है। क्या बिना संस्कृत जाने राष्ट्रगानों का अर्थ समझ में आ जायेगा?


भारत की सभी भाषाओं पर अंग्रेजी, फारसी, अरबी इत्यादि विदेशी भाषाओं का आक्रमण जारी है। वार्तापत्र, दूरदर्शन एवं दैनिक व्यवहार में मिली जुली भाषा का प्रयोग बढ़ता जा रहा है। ऐसी ही स्थिति रही तो भारत की किसी भी भाषा को शुद्ध बोलना अधिकांश लोगों के लिए असंभव हो जायेगा। इस संकट का एक कारण है मण्डी में आनेवाली विविध नूतन वस्तुओं के लिए नामों का भारतीय आविष्कार उपलब्ध न होना। इस कार्य को संस्कृत भाषा माध्यम से निश्चित पूरा किया जा सकता है। 1700 धातु 22 उपसर्ग और 20 प्रत्ययों के आधार पर संस्कृत में अनगिनत शब्दों का सृजन किया जा सकता है और भारतीय भाषाओं को बचाया जा सकता है। वर्तमान में 27 लाख 20 हजार शब्द संस्कृत भाषा में प्रयुक्त होते हैं। वें अर्थवाही हैं। उदाहरण के लिए हृदय शब्द को लीजिए। इसमें प्रथम धातु है हृ याने हरण करना, दूसरा है दा याने देना और तीसरा है य याने घुमाना। यह तीनों कार्य हृदय करता है।


संस्कृत भारत को जोड़ती है। यदि कोई व्यक्ति भारतभ्रमण पर निकलता है और दक्षिण भारत पहुँच जाता है तो उसे सामान्य शब्दों जैसे- पानी, खाना इत्यादि के प्रयोग की आवश्यकता पड़ती है। किन्तु दक्षिण भारत में पानी, खाना इन शब्दों को अल्प लोग ही समझ पाते हैं। उनकी अपनी भाषाओं में पानी के लिए तन्नी, वेल्लम्, नीरू जैसे शब्द हैं। किन्तु यदि आपने संस्कृत शब्द- जल, भोजन इत्यादि का प्रयोग किया तो सभी इन्हें समझ जायेंगे और आपको भूखे, प्यासे रहने की नौबत नहीं आयेगी। झारखण्ड के अधिक लोग अस्वस्थ हो जाने पर वेल्लोर का रूख करते हैं। उन्हें यह अनुभव निश्चित रूप से आता होगा। पूरा भारत अधिकांश संस्कृत शब्दों को समझता है, जैसे- चित्रम्, फलम्, चायपानम्, मधुरम् इत्यादि।


संस्कृत को बोलने के कारण सभी भारतीयों के मन में यह भाव अवश्य क्रौंधता है कि सभी भारतीय भाषाएँ संस्कृतोत्मव है। सभी भाषाओं में लगभग समान भावों की अभिव्यक्ति है। अत: तमिल् और कन्नड, कन्नड और मराठी, असमिया और बांग्ला ऐसे संघर्ष नहीं होते। भारत की एकात्मता दृढ़ होती।


भाषा केवल अभिव्यक्ति का माध्यम मात्रा नहीं है। वह संस्कारों की वाहक है। महाराष्ट्र में गुलाम दस्तगीर बिरासदार नाम के एक मुसलमान सज्जन है। धाराप्रवाह संस्कृत बोलते हैं तथा भाषण करते हैं। राज्य सरकार के द्वारा नियुक्त संस्कृत के प्रचारक हैं। सज्जन, सरल, नम्र और देशभक्त हैं। इसका कारण घर के संस्कार नहीं तो संस्कृत भाषा के संस्कार हैं। क्या संस्कृत बोलनेवाला व्यक्ति गाली दे सकता है? कभी नहीं।


इंग्लैंड देश में St. James School इस संस्था के तत्वावधान में कई विद्यालय चलते हैं। आश्चर्य यह है कि इस संस्थान के विद्यालयों में 6 वर्ष तक संस्कृत भाषा अनिवार्य रूप में पढ़ाई जाती है। उन विद्यालयों में पढ़ने और पढ़ानेवाले दोनों गोरे लोग हैं। उन्हें यह पूछने पर कि यहाँ संस्कृत क्यों पढ़ाई जाती है, वे कहते हैं –


1) Sanskrit stands at the root of very many eastern and western languages, including English and most other European languages, Classical or modern. Its study illuminates their grammer and etymology.


2) Innumerable English words can be shown to desire from forms still extant in Sanskrit.


3) Sanskrit literature embodies a comprehensive map of the human makeup, spiritual, emotional mental and physical. It presents a new way of understanding our relation to the rest of creation and lays out the laws productive of a happy life.


4) The word ‘Sanskrit’ means ‘Perfectly Constructed’. Study of its grammar brings order to the mind and clarifies the thinking.


आजकल बाबा रामदेवजी के कारण भारत के अधिकांश नागरिक यह जान गये हैं कि कपालभाती और भ्रामरी प्राणायाम का स्वास्थ्य पर कैसा अनुकूल प्रभाव पड़ता है। संस्कृत भाषा बोलते समय अधिक बार अ: इस स्वर का उपयोग करना पड़ता है। अ: का उच्चारण करते ही पेट की हवा बाहर छोड़नी पड़ती है और बिना किसी प्रयास के कपालभाती प्राणायाम हो जाता है। अं इस स्वर के उच्चारण में ‘मकार’ का उच्चारण सम्मिलित है। भ्रामरी प्राणायाम में मकार का ही उच्चारण होता है। अत: विद्यालयं, जीवनं, क्षेत्रं इत्यादि शब्दों के सतत उच्चारण से अनायास भ्रामरी प्राणायाम होता रहता है।


ऐसी ज्ञान, विज्ञान, कला जैसे समस्त शास्त्रों को अभिव्यक्त करनेवाली इस वैश्विक, संस्कारदायिनी और सटीक भाषा को क्या हमें भुला देना चाहिए? या उस संस्कृत माता के अमृतरूपी दूध को प्राशन कर सुसंस्कारित, सम्पन्न, विश्वकल्याणकारी समाज का निर्माण करना चाहिए?

जयतु संस्कृतम्! जयतु भारतम्!

-✍🏻श्रीश देवपुजारी

अ.भा. मन्त्री

संस्कृत भारती


कहा गया है- ‘संस्कृति: संस्कृताश्रिता‘ अर्थात् ‌ भारत की संस्कृति संस्कृत भाषा पर ही आश्रित या निर्भर है।

शब्द रचना की दृष्टि से यह सम् + कृ+ क्त से निर्मित है। यहाँ सम् उपसर्ग है जो समानता एवं विशेषता को व्यक्त करता है। कृ धातु करना अर्थ प्रदान करता है। क्त (क्+त) प्रत्यय भूतकाल हेतु प्रयुक्त होता है। इसका ‘क्‘ लोप होकर ‘त‘ शेष रहता है। संस्कृत-संधि के नियमानुसार सम् व कृ के मध्य स् का आगम हो जाता है। अतः संस्कृत का अर्थ हुआ – परिष्कृत किया हुआ अथवा स्वच्छ किया हुआ (वाण्येका समलङ्करोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते– भर्तृहरि का नीति शतक उन्नीसवाँ श्लोक)। अन्य अर्थ सम्पादित, सुसज्जित, अभिमन्त्रित, अलङ्कृत व श्रेष्ठ होता है।


संस्कृति (सम्+कृ+ क्तिन) का अर्थ हुआ मनोविकास, पूर्णता, परिष्कार, सज्जता। प्रत्येक समाज व देश के नागरिकों के मनोभावों में समानता उस देश की संस्कृति कहलाती है। यथा – गुरुजनों का सम्मान, नारी का सम्मान हमारी संस्कृति है। एक उदाहरण अनेक बार दिया जाता है। जैसे – छींक आना प्रकृति है। अपने आसपास का ध्यान न रखते हुए छींकना विकृति है। सावधानीपूर्वक वस्त्र आदि से ध्वनि को कम करने हुए छींकना संस्कृति है।


संस्कार – (सम्+कृ+घञ्) का अर्थ शुद्ध अथवा परिष्कार करना। ये तीनों शब्द एक ही उपसर्ग+धातु से बनते हैं।


संस्कृत भाषाओं की जननी है। भाषा के जन्म व विकास को समझना चाहिए।

भाषा की प्रक्रिया – एक मानक भाषा के शब्दों में अशिक्षित जनों द्वारा अनभिज्ञतावश परिवर्तन किया जाता है। यह त्रुटि अथवा परिवर्तन मौखिक व लिखित दोनों प्रकार से होता है। जैसे, शाप के स्थान पर श्राप।


शिक्षितों के निर्देशों की अवहेलना कर ऐसे परिवर्तन होते रहते हैं। यह परिवर्तन दशकों तक चलता है। यह परिवर्तन मिल कर एक बोली का रूप धारण कर लेता है। बोली> लोकभाषा> विभाषा > भाषा के क्रम से यह परिवर्तन होता रहता है। भाषा की विषमता को दूर करने हेतु वैयाकरण व्याकरण की रचना कर उसका परिष्कार करता है। इस प्रकार एक नयी भाषा अस्तित्व में आती है।


जैसा कि ऊपर वर्तनी-परिवर्तन की वार्त्ता हुई। यह कैसे होता है? किसी प्राचीन आचार्य ने निरुक्त की परिभाषा देते हुए लिखा है-


वर्णागमो वर्णविपर्ययश्च द्वौ चापरौ वर्णविकारनाशौ।

धातोस्तदर्थातिशयेन योगस्तदूच्यते पञ्चविधं निरुक्तम्॥


अर्थात् निरुक्त के पांच प्रकार हैं : 

वर्णागम – किसी वर्ण का आगमन। यथा, स्त्री उच्चारण के समय आरंभ में इ का आगमन हो जाता है (इस्त्री) , शाप (श्राप)। कारण अशिक्षा।

वर्ण-विपर्यय – शब्द के वर्ण परस्पर स्थान परिवर्तन कर लें। यथा, हिंस्र > सिंह। लखनऊ > नखलऊ।

वर्ण-विकार – वर्ण के उच्चारण स्थान में परिवर्तन। यथा, परशु में प महाप्राण होकर फरसा बन गया। पुत्र > पूत।

वर्णनाश – शब्द के किसी वर्ण का नाश होना। यथा, स्नेह > नेह। स् का नाश हो गया।

धातु का भिन्न अर्थ से योग जैसे उत्+हार > उद्+ हार> उद्+धार> उद्धार। अर्थात् उबारना (कष्ट से निकालना। यह बन गया उधार, जिसे लौटाना अनिवार्य है।

वर्तनी परिवर्तन का कारण क्या है?

* प्रयत्न लाघव अथवा मुखसुख। *क्षिप्र भाषण।

* अशिक्षा। * भावातिरेक। *आत्म प्रदर्शन।

* यादृच्छ शब्द। *मात्रा,सुर व बलाघात की त्रुटि। *कलात्मक स्वच्छन्दता। *लिपि दोष।* भौगोलिक परिस्थितियाँ आदि। संस्कृत का जन्म वैदिक काल की भाषा से हुआ है।

वैदिक भाषा से जनसाधारण इसी प्रकार कालक्रम में विकारों के कारण दूर होते चले गए। अतः उस नई भाषा की विषमता को दूर करने हेतु उसका व्याकरण के नियमों से परिष्कार कर उसे सम किया गया। उस सम की गई भाषा को संस्कृत नाम दिया गया। जैसे, वर्तमान में समझें तो हिंदी और मानक हिंदी। यही मानक हिंदी भविष्य में मानक नाम से प्रसिद्ध हो जाए तो हिंदी और मानक में कुछ तो अंतर आ ही जाएगा। इसी प्रकार तत्कालीन भाषा में वेदों का गठन हुआ; अत: वह वैदिक भाषा कहलाई और उसका मानक संस्करण संस्कृत। इन दोनों में कुछ अंतर ध्यातव्य है – वैदिक भाषा स्वराघात प्रधान थी, अतः उदात्त, अनुदात्त एवं स्वरित का ज्ञान आवश्यक था। उच्च स्वर उदात्त। नीचा स्वर अनुदात्त एवं सामान्य स्वर स्वरित कहलाता था। इसका अशुद्ध प्रयोग हानिकारक था। ‘इंद्रशत्रु‘ इसका प्रसिद्ध प्रमाण है – स्वर दोष के कारण अर्थ ‘इन्‍द्र जो शत्रु है’ के स्थान पर ‘इन्‍द्र जिसका शत्रु है’ हो गया और इन्‍द्र के नाश के उद्देश्य से प्रयुक्त मन्‍त्र द्वारा मन्त्र प्रयोग करने वाले इन्द्र के शत्रु का ही नाश हो गया!

इसके विपरीत संस्कृत बलाघात प्रधान भाषा है, अतः ह्रस्व और दीर्घ का ध्यान रखना आवश्यक है। प्लुत का प्रयोग दूर खड़े व्यक्ति के लिए होता था।


वैदिक में ‘लृ’ स्वर का प्रयोग प्रचुर मात्रा में हुआ है, संस्कृत में इसका अभाव है।


क्या संस्कृत जन भाषा थी?


जो कहते हैं कि संस्कृत कभी जनभाषा नहीं थी, उन्हें प्लुत के प्रयोग से जान लेना चाहिए कि यह पुकारने में ही प्रयुक्त होता है। प्लुत लिखित भाषा का अंग न कभी था, न कभी हो सकता है। दूर स्थित व्यक्ति को पुकारते समय जो स्वर का तान होता है, वही प्लुत है। यह सूत्र ‘दूराद्धूते च’ (अष्टाध्यायी ८/२/८४) यही सिद्ध कर रहा है कि पुकारने का काम जन भाषा में ही होता है।


इसके अतिरिक्त यास्क (निरुक्तकार) ने वैदिक हेतु ‘अन्वध्यायम्‘ तथा ‘दाशतयीषु‘ जैसे शब्दों का प्रयोग किया है, वहीं संस्कृत हेतु ‘भाषा’ का प्रयोग किया है। भाषा शब्द भाष् धातु से बना है, जिसका प्रयोग व्यक्त वाणी (व्यक्तायां वाचि) के लिए किया जाता है।


पाणिनि (सूत्रकाल) ने भी वैदिक के लिए ‘छंदस्‘ तथा संस्कृत के लिए ‘भाषा‘ का प्रयोग किया है।

वैयाकरण कात्यायन (वार्तिककार), पतञ्जलि (महाभाष्यकार) , राजशेखर (काव्यमीमांसा कार) ने भी अपनी रचनाओं में सिद्ध किया है कि संस्कृत पहले राजभाषा, फिर जनभाषा के रूप में प्रसिद्ध हुई।


स्रोत:- शब्दार्थ-वामन शिवराम आप्टे के संस्कृत हिन्दी कोष से साभार। शेष – भाषा विज्ञान (लेखक-कर्ण सिंह, प्रकाशन-१९७५) पर आधारित

✍🏻श्रीधर जोशी

गुरुवार, 17 फ़रवरी 2022

भगवान विष्णु

 भगवान विष्णु चित्र 

बीच समुद्र में शेषनाग के ऊपर आराम से लेटे और लक्ष्मी उनके पैर दबा रही है ।

कभी सोचा है भगवान विष्णु का यह रूप किस बात की ओर इशारा कर रहा है ।

इसमें हमारे लिए बहुत गहरा और गंभीर संदेश है,

इसे अगर आत्मसात कर लिया जाए तो हमारा पारिवारिक और सामाजिक जीवन काफी हद तक बदल सकता है ।

आइए समझते हैं कि भगवान विष्णु का यह चित्र हमें क्या सिखा रहा है ।

सरल शब्दों में कहा जाए तो विष्णु दुनियादारी या गृहस्थी के भगवान हैं ।

वे क्षीरसागरमें रहते हैं,

यह संसार भी एक सागर कीतरह है, जिसमें सुख-दु:ख सभी भरपूर है ।

वे शेषनाग की शैय्या पर लेटे हैं, गृहस्थ का जीवन भी ऐसा ही होता है जो घर का मुखिया होता है उसके ऊपर कई जिम्मेदारियां होती हैं इसलिए शेषनाग के कई फन हैं ।

फिर भी विष्णु का चेहरा मुस्कुराता है, यह सिखाता है कि हम भले ही कितनी ही जिम्मेदारियों से घिरे हों धेर्य नहीं खोना चाहिए मन में शांति होना चाहिए और व्यवहार ऐसा हो कि परिवार का एक भी सदस्य आपसे दूर न रह सके ।

लक्ष्मी विष्णु के पैरों में है और उनकी सेवा कर रही है,

यहां संदेश हैं कि जो अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन कुशलता से करता है, परिवार को प्रेम की डोर में बांधे रखता है लक्ष्मी सदा उसके पैरों की सेवा में लगी रहती है ।।

मंगलवार, 15 फ़रवरी 2022

प्रेम का अनुभव / ओशो

 तुमने क्या कभी देखा, जब तुम्हारा किसी से प्रेम हो जाता है तो चित्त ठहरने लगता है। किसी स्त्री के तुम प्रेम में पड़ गए, फिर तुम लाख कामों में उलझे रहते हो, उसकी याद भीतर बहती रहती है— —सतत धारा की भांति। बाजार में हो— —और उसकी याद भीतर। दुकान पर हो— —और उसकी याद भीतर। काम कर रहे हो— —और उसकी याद भीतर। रात सोते हो, उसका सपना भीतर चलता है। दिन उसकी स्मृति। कुछ भी करते रहते हो, उसकी याद बहती रहती है। एक सातत्य हो जाता है स्मृति का। एक मृंखला बंध जाती है।


तुम्हारे जीवन में बस प्रेम का ही एक अनुभव है, जब तुम्हारे चित्त की चंचलता थोड़ी कम होती है। इसी अनुभव से सीखो। यही प्रेम बहुत विराट होकर गुरु के साथ जुड़ जाए तो चित्त अचंचल हो जाता है।


साहब येहि विधि ना मिलै चित्त चंचल भाई।


माला तिलक उरमाइके नाच अरु गावै।


फिर तुम कितनी ही माला घुमाओ, कितना ही तिलक लगाओ, कितने ही नाचो और गाओ— —अगर प्रेम नहीं लग गया है तो सब थोथा—थोथा है, सब ऊपर—ऊपर है, सब औपचारिक है, क्रियाकांड है। और तुम भेद समझ लेना। क्योंकि क्रियाकांड बहुत प्रचलित है। मंदिर में जाते हो तो फूल चढ़ा देते हो। जरा सोचना, हृदय चढ़ता है या नहीं? मंदिर के सामने से निकले, हाथ जोड़ लेते हो। प्राण जुड़ते हैं या नहीं? नहीं तो उपचार छोड़ दो। उपचार का धोखा मत रखो। उपचार पाखंड है। अगर प्राण न जुड़ते हों तो हाथ मत जोड़ो। और अगर हृदय न चढ़ता हो तो प१३२.::द)ल मत चढ़ाओ। क्या सार होगा हृदय का फूल चढ़े तो ही चढ़े। फिर बाहर का फूल भी उपयोगी हो जाता है। हृदय से जोड़ बन जाए तो कुछ ऐसा नहीं है कि धनी धरमदास कह रहे हैं कि नाचना और गाना मत। धनी धरमदास खुद खूब नाचे और गाए। उन्हीं का गीत तो हम सुन रहे हैं। यह नहीं कह रहे हैं कि नाचना और गाना मत। यही कह रहे हैं कि नाच और गाने में तुम होना, बस नाच ही गाना न हो। ओठों पर ही न हो गीत, रोएं—रोएं में समाया हो। पुकार ऊपर ही ऊपर शब्दों की न हो।


ऐसी नमाज से गुजर, ऐसे इमाम से गुजर


बेसरूर— — जिसमें नशा ही नहीं है, आंखें मदमाती नहीं हैं…! मंदिर चले गए, तुम्हारी आंख में कोई नशा नहीं दिखाई पड़ता। तुम मंदिर से लौटकर डगमगाते नहीं दिखते। शराबी बेहतर है। लड़खड़ाता तो है! तुम लड़खड़ाते ही नहीं हो! इतनी बड़ी मधुशाला में गए और ऐसे ही चले आए! होश संभाले के संभाले! बेहोशी जरा भी लगी नहीं।


तेरा इमाम बेहजर, तेरी नमाज बेसरूर


ऐसी नमाज से गुजर, ऐसे इमाम से गुजर


छोड़ो ऐसी नमाज! छोड़ो ऐसा क्रियाकांड। ऐसी प्रार्थना, जो तुम्हें न शे से नहीं भर देती, जो तुम्हें नचा नहीं देती, जो तुम्हें आनंद — मग्न नहीं कर देती, जो तुम्हारे भीतर मधु श गला के द्वार नहीं खोल देती — — छोड़ो!


जाहिदे कमनिहाद ने रस्म समझ लिया तो क्या


कसदे कयाम और है रस्मे— कयाम से गुजर


एक तो रस्म है— — उपचार। और एक असलियत है— — भाव। तुम किसी से कहते हो, ” मुझे तुमसे प्रेम है ” और भीतर कोई प्रेम नहीं हैं— — तो यह रस्मे— कयाम है। बस एक उपचार निभा रहे हो। कहना चाहिए सो कह रहे हो। फिर तुम्हारा किसी से प्रेम है और शायद तुम कहते भी नहीं, कहने की शायद जरूरत भी नहीं पड़ती, बिना शब्दों के प्रकट हो जाता है। तुम्हारे आने का ढंग कहता है। तुम्हारे देखने का ढंग कहता है। तुम्हारा हाथ हाथ में लेने का ढंग कहता है। तुम्हारी आंखें कहती हैं। तुम्हारा नशा कहता है। और अगर तब तुम कहो भी कि मुझे तुमसे प्रेम है तो उसमें अर्थ होता है। अर्थ प्राणों से आता है। अर्थ शब्दों में कभी नहीं होता। शब्द तो चली हुई कारतूस जैसे भी हो सकते हैं। भीतर बारूद होनी चाहिए।


जाहिदे कमनिहाद ने रस्म समझ लिया तो क्या?


और लोग रस्म समझ कर बैठ गए हैं, निभा रहे हैं। मंदिर जाना चाहिए सो जाते हैं। गणेश— उत्सव आ गया, सो गणेश जी की पूजा करते हैं। न गणेश जी से कुछ लेना है, न पूजा से कोई प्रयोजन है। सदा होता रहा तो करते हैं। बाप—दादे करते रहे हैं तो हम भी करते हैं। एक लकीर है, सो उसको पीटते हैं। मस्जिद जाना है तो मस्जिद जाते हैं। रविवार का दिन है तो चर्च जाते हैं। रविवारीय धर्म से उतरो, पार हटो! रविवारीय धर्म से गुजरो। रस्मे—कयाम से ऐसी नमाज से गुजर, तेरी नमाज बेसरूर!……. नशा चाहिए!


ओशो

सोमवार, 14 फ़रवरी 2022

काश / दीपाली जैन ' ज़िया

प्रेम_दिवस  (14 फ़रवरी) पर लिखी गयी पहली कहानी 


#काश


आज बरसों बाद वो चेहरा देखा , वही आँखें, वही बाल, वही दिलकश मुस्कुराहट , पल भर को तो यकीन ही नहीं हुआ कि ये सच है या सपना।फिर उस नाम पर tap किया और  wall पर जाकर देखा तो पैरों तले से ज़मीन सरक गयी थी।

इधर उधर कुछ ढूँढने लगी, कभी तस्वीरें तो कभी profile , अचानक खटखटाने की आवाज़ आयी, झाँक कर देखा तो दरवाज़े पर कोई नहीं था, मैं दोबारा facebook पर व्यस्त हो गयी तभी फिर से दस्तक हुई, यहाँ वहाँ देखा तो पाया कि आवाज़ दिल से आ रही थी " कहाँ ढूंढ रही हो, मैं तो यहीं हूँ,  पिछले बीस सालों से , तुमने ही सारी खिड़कियाँ बन्द कर दी थीं, सारे दरवाज़ों पर ताले लगादिये थे"।

इसी आवाज़ के साथ मैं खो गयी अतीत के पन्नों में, जहाँ चित्रांकित थी एक अल्हड़ सी लड़की, १६-१७ साल की नाज़ुक उम्र के दौर से गुज़रती हुई।

जब पहली बार उसे देखा था, एक भीड़ भरे माहौल में और ज़हन में  बस गया था वो चेहरा , वो नाम और वो अन्दाज़।

वो वक्त जब हर सहेली सपने देखती थी शाहरुख खान के, बातें करती थी उसकी अदाओं की,  तब मैं चुपचाप आँखें मूँद कर उस चेहरे में खो जाया करती थी। 

वक्त गुज़रा , उम्रका वो दौरभी गुज़र गया पर मैंबड़ी होती रही अपने सपने के साथ ।

फिर वो वक्त आया जब मुझे ये अहसास हुआ कि मैं एक काल्पनिक दुनिया में जी रही हूँ , सिर्फ एक नाम और बरसों पुराने चेहरे के सहारे कैसेढूँढ पाऊंगी उसे और अगर ढूंढ भी लिया तो हालतों की इतनी सारी सीढ़ियाँ पार कैसे कर पाऊंगी ।

 दबा दिया दिल की सारी भावनाओं को अंतस में कहीं बहुत गहराई तक , ढ़क दिया हज़ारों परदों से , और शुरुआत की एक नये जीवन की।

पर आज अचानक एक facebook post ने उस दबी ढकी  किताब के पन्नों पर जमा धूल को उड़ा दिया और दिल में एक हूक सी उठा दी, 

 आज भी आँखों में बसा है  वही चेहरा , वही आँखें, वही बाल, वही दिलकश मुस्कुराहट

और अब दिल से बस एक ही सदा आती. है, इतना  मुश्किल भी नहीं था 

काश एक बार  कोशिश की होती।


दीपाली जैन ' ज़िया'

रविवार, 13 फ़रवरी 2022

हरदिल अजीज गीतकार शैलेंद्र. / अशोक पांडे

 #व्यक्तित्व #गीतकार #सिनेमा 



भगतसिंह! इस बार न लेना काया भारतवासी की,

देशभक्ति के लिए आज भी सज़ा मिलेगी फाँसी की


ये शंकर शैलेन्द्र की लिखी उस कविता की शुरुआती पंक्तियाँ हैं जिसमें उन्होंने नए-नए आज़ाद हुए भारत की तस्वीर खींची थी. वही शैलेन्द्र जो आजादी की लड़ाई के वक़्त मजदूरों-कामगारों को जगाने के लिए ‘तू जिंदा है तो ज़िन्दगी की जीत में यकीन कर’ और ‘क्रान्ति के लिए उठे कदम’ जैसे गीत लिखा करते थे.


30 अगस्त 1923 को रावलपिंडी में जन्मे शैलेन्द्र का असल नाम शंकरदास केसरीलाल था. उन्होंने मथुरा में वेल्डर का काम सीखा और बाद में बंबई के माटुंगा स्थित रेलवे वर्कशॉप में नौकरी की. जीवन की शुरुआत ही में सामाजिक-भौगोलिक रूप से इतने विविधतापूर्ण स्थानों में रहने के बाद उनकी भाषा में एक ऐसी लोच पैदा हो गयी जिसमें लोक-संस्कृति की गहरी समझ महकती है. उनके भाषाई कौशल के बारे में एक किस्सा कई किताबों में पढ़ने को मिलता है. एक बार राज कपूर उन्हें लेकर ख्वाजा अहमद अब्बास के पास गए. वहां एक स्क्रिप्ट पढ़कर सुनाई जानी थी. वहां पहुंचे तो ख्वाजा अहमद अब्बास ने शैलेन्द्र की उपस्थिति तक को नोटिस नहीं किया. ढाई घंटे तक स्क्रिप्ट सुनाई गयी जिसके बाद राजकपूर ने शैलेन्द्र से पूछा, “कुछ समझ में आया कविराज?” राज कपूर उन्हें इसी नाम से पुकारते थे. शैलेन्द्र ने जवाब दिया, “गर्दिश में था, पर आसमान का तारा था, आवारा था.” आश्चर्यचकित होकर ख्वाजा अहमद अब्बास ने अपने कमरे में आये उस अजनबी को पहली बार गौर से देखा जिसने उनकी ढाई घंटे की स्क्रिप्ट को आधी लाइन में बाँध दिया था. 


इन तीनों ने उसके बाद के वर्षों में शंकर-जयकिशन के साथ मिलकर हिन्दुस्तान के सिनेमा का सुनहरा दौर लिखा.      


शंकर शैलेन्द्र के लिखे गानों की रेन्ज बहुत बड़ी है. उन्होंने सही मायनों में भारतीय फिल्मों के संगीत को एक आधुनिक काव्य-बोध से लैस किया. उनके ज्यादातर गीतों को शंकर-जयकिशन के अलावा एस. डी. बर्मन और सलिल चौधरी ने संगीत दिया और आने वाली पीढ़ियों के लिए एक बड़ी विरासत तैयार की. उनके आने के पहले उर्दू और हिन्दी की क्लासिकल छंद की शैली में गीत लिखे और शास्त्रीय रंग में ढाले जाते थे. वे ‘ऐ मेरे दिल कहीं और चल’ से लेकर ‘मेरा जूता है जापानी’ और ‘तू प्यारा का सागर है’ से लेकर ‘पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई’ जैसे बोलों में आसानी से चहलकदमी कर लेते थे. फिल्म ‘आवारा’ से लेकर ‘तीसरी कसम’ जैसी बड़ी फिल्मों के लिए उन्होंने करीब आठ सौ गीत लिखे. ‘तीसरी कसम’ प्रोड्यूस करने में उनके जीवन की सारी कमाई चली गयी जिसके कारण उपजी निराशा ने उनके प्राण तक ले लिए. ‘तीसरी कसम’ में उन्हें, राज कपूर, फणीश्वर नाथ रेणु और वहीदा रहमान को लेकर अनगिनत किस्से मिलते हैं.


फिल्मों ने इतने सारे सुपरहिट गाने रचने वाले शंकर शैलेन्द्र को देश भर में मशहूर बनाया लेकिन भीतर से वे जनता के पक्ष में खड़े एक विद्रोही कवि थे जिसकी गवाही उनकी अनेक रचनाओं में मिलती है. मिसाल के तौर पर 1953 में इंग्लैण्ड की महारानी एलिजाबेथ की ताजपोशी हुई थी. सदी के भव्यतम समारोहों में गिने जाने वाले इस आयोजन में प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू भी गए थे. इस प्रकरण पर शंकर शैलेन्द्र की लिखी कविता यूं शुरू होती है - 


मुझको भी इंग्लैंड ले चलो पण्डित जी महराज

देखूँ रानी के सिर कैसे धरा जाएगा ताज!


आगे इस कविता में गहरे राजनैतिक व्यंग्य समाहित हैं और भारत की दयनीय आर्थिक स्थिति का बेबाक खाका खींचा गया है. आखीर में वे नेहरू जी से कहते हैं -


रूमानी कविता लिखता था सो अब लिखी न जाए

चारों ओर अकाल जिऊँ मैं कागद-पत्तर खाय?

मुझे साथ ले चलो कि शायद मिले नई स्फूर्ति

बलिहारी वह दॄश्य कल्पना अधर-अधर लहराए–

साम्राज्य के मंगल तिलक लगाएगा सौराज!


मुझे लगता रहा है कि इस कविता की रचना के दस साल बाद रानी एलिजाबेथ के भारत दौरे के मौके पर लिखी गयी बाबा नागार्जुन की कविता ‘आओ रानी हम ढोएंगे पालकी, यही हुई है राय जवाहरलाल की’ के पीछे शंकर शैलेन्द्र की बनाई हुई जमीन रही थी.


मैं फिर से उनके फ़िल्मी गानों की तरफ लौटता हूँ और उनके एक अपेक्षाकृत कम सुने गए गाने के बोल आपके सम्मुख रखता हूँ:


सूरज ज़रा 

आ पास आ, 

आज सपनों की रोटी पकायेंगे हम

ऐ आसमां 

तू बड़ा मेहरबां, 

आज तुझको भी दावत खिलायेंगे हम


चूल्हा है ठंडा बड़ा 

और पेट में आग है

गरमा-गरम रोटियाँ, 

कितना हसीं ख्वाब है

आलू टमाटर का साग, 

इमली की चटनी बने

रोटी करारी सिके, 

घी उस पे असली लगे

बैठे कहीं छाँव में, 

आ आज पिकनिक सही

ऐसी ही दिन की सदा, 

हमको तमन्ना रही


फिल्म ‘उजाला’ के लिए शंकर-जयकिशन के संगीतबद्ध किये गए और मन्ना डे के गाये इस गाने को शम्मी कपूर पर फिल्माया गया है. 1959 के साल में ऐसे बोल लिख लेने का साहस कितने गीतकारों के पास था मुझे मालूम नहीं. उनके लिखे एक-एक गीत को सुनकर मन-आत्मा  में छवियों की अनूठी रंगबिरंगी लहरें हिलकोरें खाने लगती हैं. उनके हर शब्द में गहरा मीठा नोस्टाल्जिया और आमजन के लिए निखालिस मोहब्बत पोशीदा रहते हैं. हर अच्छी कविता ऐसी ही होती है.


अशोक पांडे

© Ashok Pande

#vss

अरुण कमल का लेखन संसार / शांतनु चक्रवर्ती

 🙏 आज 'अपने प्रिय कवि' स्तंभ में उस प्रगतिशील लेखक की बात करेंगे जो आधुनिक हिंदी कविता के कमल हैं। जी हां ,आज बात अरुण कमल की। अरूण कमल का वास्तविक नाम 'अरुण कुमार' है। साहित्यिक  लेखन के लिए उन्होंने  'अरुण कमल' नाम अपनाया और आज‌ वे‌ इसी नाम से साहित्य जगत में जाने जातें हैं।उनका  जन्म 15 फरवरी 1954 ई० को बिहार के रोहतास जिले के नासरीगंज में हुआ ।  वे पटना विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में प्राध्यापक रहे हैं।

अरूण कमल निर्विवाद रूप से समकालीन हिन्दी साहित्य की एक  प्रखर प्रगतिशील विचारधारा संपन्न  कवि  हैं,  जिनकी कविताएं सहज भाषा विन्यास में रचित होते हुए भी‌ आधुनिक जीवन और राजनीति की जटिलताओं की गहरी पड़ताल करती है। 

साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त इस कवि ने  जीवन और कविता ‌के बीच के सामिप्य को अविश्वसनीय रूप से बढ़ाया है। वह जीवन को जैसे जीतें है ‌कविता को उसी सांचे में ‌ढाल देते हैं। उन्होंने कविता के अतिरिक्त आलोचनाएं भी लिखी हैं, अनुवाद कार्य भी किये हैं तथा लंबे समय तक वाम विचारधारा को फ़ैलाने वाली साहित्यिक पत्रिका आलोचना का संपादन भी किया है।

अरुण कमल साठोत्तरी लेखन का अराजक दौर चुक जाने के बाद सक्रिय प्रमुख कवियों में से एक हैं।  

उनकी पहली पुस्तक 'अपनी केवल धार'  ने उन्हें समकालीन दौर के एक महत्त्वपूर्ण कवि के रूप में स्थापित कर दिया था और इस पुस्तक की 'धार' शीर्षक कविता की पंक्ति हर पाठक की जुबान पर अंकित हो गया था।

सामान्य जन के सर्वहारा होते जाने के बावजूद उनमें निहित आंतरिक शक्ति तथा परिवर्तन की संभावना का सहज कलात्मक परिचय देने वाली यह  कविता पुस्तक अत्यधिक लोकप्रिय हुई। सन् 1989 में उनका दूसरा संग्रह 'सबूत' प्रकाशित हुआ और 1996 में तीसरा संग्रह 'नये इलाके में' जिसके लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

उन्होंने कविता के लेखन ‌के‌ साथ साथ अनुवाद भी किया है। 

वियतनामी कवि 'तो हू' की कविताओं-टिप्पणियों की एक अनुवाद पुस्तिका, मायकोव्स्की की आत्मकथा का अनुवाद तथा अंग्रेजी में 'वॉयसेज़' नाम से भारतीय युवा कविता के अनुवादों की पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है। किपलिंग की जंगल बुक का अनुवाद भी उन्होंने किया है। इसके अतिरिक्त देश एवं विदेश के अनेक साहित्यकारों की कविताओं तथा लेखों के हिंदी अनुवाद विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। वे प्रभात खबर (राँची) में हर पखवाड़े 'अनुस्वार' नामक एक अनुवाद-स्तंभ लिखते रहे हैं। बीच में उन्होंने नवभारत टाइम्स (पटना) के लिए 'जन-गण-मन' स्तंभ में सामयिक टिप्पणियाँ भी लिखीं तथा इंटरनेट पत्रिका 'लिटरेट वर्ल्ड' के लिए भी स्तंभ-लेखन किया।


कविता-

अपनी केवल धार 1980

सबूत 1989 

नये इलाके में 1996 

पुतली में संसार 2004

मैं वो शंख महाशंख 

आलोचना-

कविता और समय 2002 

गोलमेज 2009 

साक्षात्कार-

कथोपकथन 2009

 अरूण कमल अफ्रोएशियाई युवा लेखक सम्मेलन, ब्राजाविले, कांगो में भारत के प्रतिभागी रहे। रूस, चीन तथा इंग्लैंड की साहित्यिक यात्राएँ कीं। वे साहित्य अकादमी की सामान्य परिषद् एवं सलाहकार समिति के सदस्य तथा हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग की कार्यसमिति के सदस्य भी रहे। लंबे समय तक हिंदी साहित्यिक माफिया रहे नामवर सिंह के प्रधान संपादकत्व में प्रकाशित होने वाली साहित्यिक पत्रिका 'आलोचना' के संपादन का दायित्व भी सँभाला। 'आलोचना' के सहस्राब्दी अंक 21 (अप्रैल-जून, 2005) से 51 (अक्टूबर-दिसम्बर 2013) तक का संपादन उन्होंने किया। इस अवधि में इस पत्रिका के अंक 28 के रूप में हजारी प्रसाद द्विवेदी पर केंद्रित तथा अंक 40 से 43 के रूप में शमशेर, अज्ञेय, केदारनाथ अग्रवाल एवं नागार्जुन पर केंद्रित महत्त्वपूर्ण विशेषांक प्रकाशित हुए।


सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार 1989

श्रीकांत वर्मा स्मृति पुरस्कार 1990

रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार 1996

शमशेर सम्मान 1997

साहित्य अकादमी पुरस्कार 1998 ('नये इलाके में' के लिए)


अरूण कमल की कविताएं:-

______________________


संविधान का अंतिम संशोधन 

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संसद के संयुक्त अधिवेशन ने ध्वनि मत से

संविधान का अन्तिम संशोधन पारित कर दिया

जिसके अनुसार अब से किसी भी सिक्के में

एक ही पहलू होगा

इस प्रकार सहस्रों वर्षों से चला आ रहा

अन्याय समाप्त हुआ ।


उर्वर प्रदेश

________

मैं जब लौटा तो देखा

पोटली में बँधे हुए बूँटों ने

फेंके हैं अंकूर

दो दिनों के बाद आज लौटा हूँ वापस

अजीब गन्ध है घर में

किताबों कपड़ों और निर्जन हवा की

फेंटी हुई गन्ध

पड़ी है चारों ओर धूल की एक पर्त

और जकड़ा है जग में बासी जल

जीवन की कितनी यात्राएँ करता रहा यह निर्जन मकान

मेरे साथ

तट की तरह स्थिर, पर गतियों से भरा

सहता जल का समस्त कोलाहल--

सूख गए हैं नीम के दातौन

और पोटली में बँधे हुए बूँटों ने फेंके हैं अंकुर

निर्जन घर में जीवन की जड़ों को

पोसते रहे हैं ये अंकुर

खोलता हूँ खिड़की

और चारों ओर से दौड़ती है हवा

मानो इसी इन्तजार में खड़ी थी पल्लों से सट के

पूरे घर को जल भरी तसली-सा हिलाती

मुझसे बाहर मुझसे अनजान

जारी है जीवन की यात्रा अनवरत

बदल रहा है संसार

आज मैं लौटा हूँ अपने घर

दो दिनों के बाद आज घूमती पृथ्वी के अक्ष पर

फैला है सामने निर्जन प्रान्त का उर्वर-प्रदेश

सामने है पोखर अपनी छाती पर

जलकुम्भियों का घना संसार भरे।


अपनी केवल धार

______________


कौन बचा है जिसके आगे

इन हाथों को नहीं पसारा


यह अनाज जो बदल रक्त में

टहल रहा है तन के कोने-कोने

यह कमीज़ जो ढाल बनी है

बारिश सरदी लू में

सब उधार का, माँगा चाहा

नमक-तेल, हींग-हल्दी तक

सब कर्जे का

यह शरीर भी उनका बंधक


अपना क्या है इस जीवन में

सब तो लिया उधार

सारा लोहा उन लोगों का

अपनी केवल धार ।

शनिवार, 12 फ़रवरी 2022

प्रेम_कविताएँ_लिखना_साहस_का_काम_है 💙💙 पंकज मित्र

 #वैलेंटाइन_वीक ...

Day - 6 🤭🤭🤭🫂🫂🫂


 प्रवीण परिमल की कविताएं


प्रेम कविताएँ लिखना साहस का काम है / पंकज़ मित्र 

💙    


 


 ... प्रेम का और इंकलाब का, फ़ैज़ साहब से बड़ा कोई शायर नहीं हुआ , इस पूरे एशिया महाद्वीप में। 

     प्रेम की तारीफ़ में जहाँ भाई प्रवीण परिमल ने पूरी किताब लिख दी है, वहीं फ़ैज़ साहब कहते हैं, "मुझसे पहली- सी मोहब्बत मेरे महबूब न माँग!" 

    जिस वक़्त में फ़ैज़ साहब ये लिख रहे थे, वो वक़्त भी वैसा ही था, जैसा आज है। लेकिन अभी का जो वक़्त है, वह उससे ज़्यादा कहीं क्रूर और उससे ज़्यादा कहीं कठिन है। और ऐसे समय में, प्रेम पर एक पूरी किताब लिख देना, यह बहुत बड़े साहस का काम है।  

   आज का जो दौर है, उसमें मोहब्बत के तरह- तरह के रंग हम देख रहे हैं। कोई कहता है कि आप अपने राष्ट्र से मुहब्बत कीजिए और जबरदस्ती आपको बताता है कि राष्ट्र से मुहब्बत कैसे करनी चाहिए। गोया कि आपको पता ही न हो कि राष्ट्र से मुहब्बत कैसे की जाती है।

    बहुत सारे आईटी सेलवाले हैं जो अपने आक़ा से मुहब्बत करते हैं और वो बताते हैं आपको, लिख- लिखकर और तमाम तरह की चीज़ें सोसल मीडिया पर डालकर, कि आपको भी उस शख़्सियत से मुहब्बत करनी चाहिए, जो कि पूरी तरह से अपने भाइयों और किसानों और तमाम लोगों के प्रति नफ़रत से भरा हुआ है। तो फ़ैज़ साहब वैसे ही दौर में कहते हैं कि मुझसे पहली- सी मुहब्बत मेरे महबूब न माँग! 

     बहुत कुछ स्थिति वैसी ही है अभी। लेकिन इस तरह के वक़्त में भी, इस क्रूर और कठिन समय में mभी प्रेम की बातें करना, प्रेम- कविताएँ लिखना, निश्चित रूप से प्रतिरोध का एक तरीक़ा तो है ही। ऐसे माहौल में प्रवीण परिमल भी कहते हैं ---


"दग्ध मन की वेदना ही हूँ नहीं जब भूल पाता, 

तुम कहो, कैसे विरह में मैं प्रणय के गीत गाऊँ!"

 

   इसको जब आप बड़े परिप्रेक्ष्य में देखेंगे, तो प्रवीण परिमल भी प्रकारांतर से वही बात कह रहे हैं। 

    प्रवीण परिमल के प्रेम का रंग नीला है। नीला रंग प्रतीक है उन्मुक्तता का, खुलेपन का, आज़ादी का। नीला आकाश होता है। नील एक बहुत बड़ी संख्या है जो कुबेर के धन को व्याख्यायित करती है। तो एक ऐसा अपरिमित विस्तार हो जिस प्रेम में, उसका रंग नीला ही हो सकता है।

  आज के इस मुश्किल वक़्त में, इस क्रूर समय में भी प्रेम साँस लेता रहे, इसके लिए ज़रूरी है कि 'प्रेम का रंग नीला' जैसे संग्रह आते रहें।


(13.2.2021 को लोकार्पण समारोह में दिए गए वक्तव्य का अंश)


शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2022

आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक./ आलोक यात्री


🖇️ आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक...


हुआ यूं के ...

 पिताश्री ने घंटी बजाई

रात के करीब सवा दस बजे

उनकी घंटी की आवाज़ पर आसपास मौजूद सभी लोग दौड़ पड़ते हैं

दौड़ मैं भी पड़ता लेकिन... "बारादरी" में उलझा हूं

लौट कर पत्नी ने बताया "आप को बुला रहे हैं..."

कहीं किसी मिसरा ए उला

मिसरा ए सानी में उलझे हुए थे

कुछ गेसू थे..., कुछ बाल थे..., कुछ जुल्फ़ थीं

सुलझाने के लिए...

अक्सर यही होता है

मेरे साथ भी होगा शायद...

उम्र के इस पड़ाव पर

जब याददाश्त साथ नहीं देगी

मुझे लगा कि असद मियां के साथ भटक रहे हैं कहीं

मामला वही निकला... चचा ग़ालिब के साथ ही मुब्तिला थे...

आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक... पर अटके थे

जितना याद था, ग़ालिब साहब का उतना दीवान उन्हें सुनाया

मज़ा आ गया... बाप हो तो ऐसा... बिन पिए भी कहे...


आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक 

कौन जीता है तेरे ज़ुल्फ़ के सर होने तक


आशिक़ी सब्र तलब और तमन्ना बेताब 

दिल का क्या रंग करूं खून-ए-जिगर होने तक 


हम ने माना के तग़ाफुल न करोगे लेकिन 

खाक हो जाएंगे हम तुम को खबर होने तक


ग़म-ए-हस्ती का 'असद' किससे हो कुज़-मर्ग-ए-इलाज 

शमा हर रंग में जलती है सहर होने तक


... लेकिन मेरा लिखा / पढ़ा उन तक पहुंचता नहीं


लगता है

यही कहते हैं

"अपनी धुन में रहता हूं..."

करते हैं रावण दहन / अनंग

 " करते हैं रावण दहन "


सत्ता की हनक दिखलाते हैं।

जनता  को  खूब  रुलाते हैं।।

अपने  मन  की करने  वाले। 

सब  संविधान  सुलझाते हैं।।

जीवन का मोह नहीं उनको। 

झूठे   आंसू    छलकाते   हैं।।

खेलते   सदा  जनभावों  से। 

गुंडों  का  बोझ   उठाते  हैं।।

खाकर गरीब की कुटिया में।

अरमानों  को  खा  जाते  हैं।। 

रहते हैं जबतक  कुर्सी  पर। 

मिलने  में  खूब  लजाते  हैं।।

हर  समय   लुटेरे  एक  रहे।

जनमानस  को  भरमाते  हैं।।

कल जानीदुश्मन आज मित्र।

गठबंधन - गीत   सुनाते  हैं।।

दीमक  की  तरह  धीरे-धीरे।

सबकुछ ही चटकर जाते हैं।।

इनसे  अच्छे  तो  दुश्मन हैं।

सीने  पर  बाण  चलाते  हैं।।

करते  हैं रावण  दहन स्वयं।

रावण  जैसा  बन  जाते हैं।।...

"अनंग"

तोड़ दो मेरा जाम / ओशो

 तोड़ दो मेरा जाम

कि अब मैं पी न सकूंगा

प्यास बुझी तो जी न सकूंगा

तोड़ दो मेरा जाम


प्यास मधुर सपनों का सागर

प्यास छलकते नयन की गागर

सपनों का अंजाम

कि अब मैं पी न सकूंगा

प्यास बुझी तो जी न सकूंगा

तोड़ दो मेरा जाम


प्यास मनोहर प्यार की रजनी

प्यास नशीले रूप की सजनी

लहराए हर गाम

कि अब मैं पी न सकूंगा

प्यास बुझी तो जी न सकूंगा

तोड़ दो मेरा जाम


दीपक, शीशे, फूल, सितारे

छोड़ के बढ़ चल कोई पुकारे

जीवन है संग्राम

कि अब मैं पी न सकूंगा

प्यास बुझी तो जी न सकूंगा

तोड़ दो मेरा जाम


प्यास रसीला स्वप्न मिलन का

मीत हमारे बालेपन का

पीत हुई बदनाम

कि अब मैं पी न सकूंगा

प्यास बुझी तो जी न सकूंगा

तोड़ दो मेरा जाम


प्यास जगत की रीत पुरानी

आशाओं की छांव सुहानी

कर लूं कुछ बिसराम

कि अब मैं पी न सकूंगा

प्यास बुझी तो जी न सकूंगा

तोड़ दो मेरा जाम


प्यास मेरी जानी-पहचानी

प्यास मेरे हृदय की रानी

प्यास मेरा इनआम

कि अब मैं पी न सकूंगा

प्यास बुझी तो जी न सकूंगा

तोड़ दो मेरा जाम


भक्त तो अपने जाम को तोड़ देता है। इस जगत का सब पीकर देख लिया और व्यर्थ पाया। सब पीया और प्यास बुझी नहीं। सब पीया और प्यास बढ़ती ही चली गई।

प्यास मेरी जानी-पहचानी

प्यास   मेरे   हृदय   की   रानी

अब तो वह परमात्मा की प्यास से भरा है। अब वह कहता है, इस जानी-पहचानी प्यास को परमात्मा की तरफ दौड़ाता हूं।


वही है धन्यभागी, वही है बुद्धिमान, जो परमात्मा के चरणों में सारे चित्त को लगा देता है; सब तरफ से बटोर लेता है अपनी ऊर्जा को और उस एक पर समर्पित कर देता है।


ओशो

गुरुवार, 10 फ़रवरी 2022

अमर रहेंगी लता मंगेशकर

 लता जी का शरीर पूरा हो गया। कल सरस्वती पूजा थी, आज माँ विदा हो रही हैं। लगता है जैसे माँ सरस्वती इस बार अपनी सबसे प्रिय पुत्री को ले जाने ही स्वयं आयी थीं।


    मृत्यु सदैव शोक का विषय नहीं होती। मृत्यु जीवन की पूर्णता है। लता जी का जीवन जितना सुन्दर रहा है, उनकी मृत्यु भी उतनी ही सुन्दर हुई है। 

     93 वर्ष का इतना सुन्दर और धार्मिक जीवन विरलों को ही प्राप्त होता है। लगभग पाँच पीढ़ियों ने उन्हें मंत्रमुग्ध हो कर सुना है, और हृदय से सम्मान दिया है।

      उनके पिता ने जब अपने अंतिम समय में घर की बागडोर उनके हाथों में थमाई थी, तब उस तेरह वर्ष की नन्ही जान के कंधे पर छोटे छोटे चार बहन-भाइयों के पालन की जिम्मेवारी थी। लता जी ने अपना समस्त जीवन उन चारों को ही समर्पित कर दिया। और आज जब वे गयी हैं तो उनका परिवार भारत के सबसे सम्मानित प्रतिष्ठित परिवारों में से एक है। किसी भी व्यक्ति का जीवन इससे अधिक सफल क्या होगा?

      भारत पिछले अस्सी वर्षों से लता जी के गीतों के साथ जी रहा है। हर्ष में, विषाद में,ईश्वर भक्ति में, राष्ट्र भक्ति में, प्रेम में, परिहास में... हर भाव में लता जी का स्वर हमारा स्वर बना है।

    लता जी गाना गाते समय चप्पल नहीं पहनती थीं। गाना उनके लिए ईश्वर की पूजा करने जैसा ही था। कोई उनके घर जाता तो उसे अपने माता-पिता की तस्वीर और घर में बना अपने आराध्य का मन्दिर दिखातीं थीं। बस इन्ही तीन चीजों को विश्व को दिखाने लायक समझा था उन्होंने। सोच कर देखिये, कैसा दार्शनिक भाव है यह... इन तीन के अतिरिक्त सचमुच और कुछ महत्वपूर्ण नहीं होता संसार में। सब आते-जाते रहने वाली चीजें हैं।

      कितना अद्भुत संयोग है कि अपने लगभग सत्तर वर्ष के गायन कैरियर में लगभग 36भाषाओं में हर रस/भाव के 50 हजार से भीअधिक गीत गाने वाली लता जी ने अपना पहले और अंतिम हिन्दी फिल्मी गीत के रूप में भगवान भजन ही गाया है। 'ज्योति कलश छलके' से 'दाता सुन ले' तक कि यात्रा का सौंदर्य यही है कि लताजी न कभी अपने कर्तव्य से डिगीं न अपने धर्म से! इस महान यात्रा के पूर्ण होने पर हमारा रोम रोम आपको प्रणाम करता है लता जी।


Manoj Muntashir 

Lata Mangeshkar 

💐🙏💐सादर नमन 💐🙏💐

बुधवार, 9 फ़रवरी 2022

कभी फुरसत मिले तो फ़ातेहा पढने चले आना.../ आलोक यात्री

 निदा फ़ाज़ली की मोहक मधुर यादों की विनम्र श्रद्धांजलि 🙏🏿


  छठी बरसी पर 'निदा' फ़ाज़ली यानी मुक़तदा हसन फ़ाज़ली साहब शिद्दत से याद आए। 'निदा' फ़ाज़ली किसी तार्रुफ़ के मोहताज नहीं हैं। वह मशहूर शायर और गीतकार होने के साथ-साथ एक नेक, उदारहृदय और आदतन खुशमिजाज शख्स थे। जब वह मशहूर हो रहे थे तो हम जवान हो रहे थे और साथ ही अदब का ककहरा भी पढ़ रहे थे। अदब का ककहरा पढ़ाने वालों में जनाब डॉ. कुंअर बेचैन, डॉ. ज़की तारिक और जनाब सरवर हसन ख़ान सरवर साहब पहली कतार में थे। दूसरी कतार में थीं मेरी उस्ताद मरहूम शायरा मीनाक्षी (वर्मा) जी।   

  यह वह दौर था जब हम यानि के मैं, नेहा वैद, रवि अरोड़ा, अक्षयवरनाथ श्रीवास्तव, दलजीत सचदेव, हेमंत आदि कॉलेज के फाइनल ईयर्स में थे। मीनाक्षी जी को मैं हिंदी पढ़ाता था और वह मुझे अंग्रेजी। अब मैं उनसे कितनी अंग्रेजी सीख पाया या उनके हिंदी के ज्ञान में कितनी वृद्धि कर पाया, कहना कठिन है।‌ हां इतना ज़रूर हुआ कि वह मुझे हिंदी में ख़त लिखने लगीं थीं। लेकिन मैं बतौर उनका स्टूडेंट अंग्रेजी में ख़त लिखने में पारंगत न हो सका।

  कहना न होगा कि मेरी सोहबत में अंग्रेजी की प्रकांड ज्ञाता मीनाक्षी जी हिंदी साहित्य की डगर से होते हुए उर्दू के मार्ग पर चल पड़ीं।‌ उन्हें उर्दू सिखाने की ज़िम्मेदारी निभाई ज़की भाई ने। मीनाक्षी जी जल्द ही उर्दू में भी पारंगत हो गईं और बाकायदा शेर कहने लगीं। शेर और नज़्म से होते हुए उनका दखल ग़ज़ल में भी हो गया। बाद में उनका एक मज़मुआ भी आया 'बंधी ख़ुशबू' उन्वान से।

  तो मै बात कर रहा था निदा फ़ाज़ली साहब की...। कॉलेज के फाइनल इयर्स के दौरान ही ग़ाज़ियाबाद में अदब की दुनिया में कई नए अध्याय जुड़ रहे थे। कॉलेज स्तर पर जहां कविता व वाद-विवाद प्रतियोगिताएं आयोजित होने लगीं थीं, वही विश्व विद्यालय स्तर पर भी विविध आयोजन होने लगे थे।‌ छात्रों के प्रोत्साहन के लिए मोदी कला भारती जैसी वार्षिक प्रतिष्ठित साहित्यिक स्पर्धा आयोजित होती थीं। पीडब्ल्यूए और इप्टा जैसे संगठन भी यहां अपनी उपस्थिति दर्ज़ करने लगे थे। लोक परिषद और अदबी संगम जैसी संस्थाओं की गतिविधियां भी अपनी गति से चल रहीं थीं। लेकिन कोई सांस्कृतिक केंद्र ऐसा नहीं था जहां साहित्यिक गतिविधियों को मूर्त रूप दिया जा सके।‌ 

  ऐसे में चौधरी थिएटर के निर्माण के साथ गीता गोष्ठी कक्ष भी अस्तित्व में आया और‌ ग़ाज़ियाबाद के अदबी सफ़र को पंख लग गए। गीता गोष्ठी कक्ष के निर्माता श्री हरियंत चौधरी जी ने साहित्य को पोषित करने से कभी गुरेज नहीं किया। बल्कि उनकी अगुवाई में अदबी संगम के परचम तले एक से एक लाज़वाब मुशायरे हुए। जिनमें देश विदेश के कई नामी-गिरामी शायरों ने शिरकत की। कैफ़ी आज़मी, नीरज, बशीर बदर,  केदारनाथ अग्रवाल और निदा फ़ाज़ली आदि उन हस्तियों में रहे जिन्होंने गणतंत्र दिवस के मुशायरे व कवि सम्मेलन के बाद भी गीता गोष्ठी कक्ष में महफ़िलें आबाद कीं। इन आयोजनों में हिन्दी के प्रवक्ता ब्रजनाथ गर्म जी की सक्रियता और समर्पण काबिल ए तारीफ था। ग़ाज़ियाबाद की भूमि को साहित्यिक तौर पर उर्वरक बनाने में उनके योगदान को कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता।

  निदा फ़ाज़ली साहब भी उन अदीबों में से थे जो ज़की भाई के बुलावे पर ग़ाज़ियाबाद तशरीफ़ लाए थे। उनके ग़ाज़ियाबाद प्रवास के दौरान मुझे भी उनसे कई मुलाकातों का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वह हम लोगों के साथ रिक्शे में भी कई जगह घूमे। यहां तक की फुटपाथी पान और चाय के खोखे पर बेहिचक रुक कर पान और चाय का आनंद लेने में भी उन्हें कोई गुरेज नहीं था। उनके ग़ाज़ियाबाद प्रवास के दौरान यह कतई नहीं लगा कि इतनी बड़ी शख्शियत हमारे बीच है। प्रवास के दौरान एक दिन वह ज़की भाई के साथ मीनाक्षी वर्मा जी के घर जा पहुंचे। जहां उन्होंने कई घंटे गुज़ारे। इतने करीब से उन्हें देखना, सुनना और निहारना अपने आप में एक अनुभव ही था। जिसके तिलिस्म से मैं आज भी आज़ाद नहीं हुआ हूं। उस दिन के बाद तो वह मेरे पसंदीदा शायर हो गए। उनके तमाम मजमुए तलाश कर पढ़े जाते।

  'बीच की दीवारें' (शायद) शीर्षक का उनका एक उपन्यास भी हाथ लगा। तब तक वह शोहरत की बुंलदियां छू रहे थे। नज़्म, शेर, ग़ज़ल, दोहे में महारत हासिल कर चुके निदा फ़ाज़ली ने उपन्यास भी बेमिसाल लिखा। निदा फ़ाज़ली ऐसे शायर हैं जिसने अपने अपने युग की ज़बान में दुनिया से बात की। निदा फाज़ली के कई शे'र और दोहे हमारी बोलचाल के मुहावरे बन चुके हैं। ये एक ऐसी विशेषता है जो उन्हीं का हिस्सा है। मसलन 

      वह सूफी का कौल हो या पण्डित का ज्ञान

      जितनी बीते आप पर, उतना ही सच मान।

  निदा फ़ाज़ली उर्दू और हिन्दी के एक ऐसे अदीब, शायर, गीतकार, संवाद लेखक और पत्रकार थे जिन्होंने उर्दू शायरी को एक ऐसा लब-ओ-लहजा और शैली दी जिसे उर्दू अदब के अभिजात्य वर्ग ने पहले तवज्जो नहीं दी। लेकिन उनके कहे का जादू जब सिर चढ़ कर बोला तो वह दुनिया के चहेते शायर बन गए। उनकी शायरी में उर्दू का एक नया शे’री मुहावरा वजूद में आया। जिसने नई पीढ़ी को आकर्षित और प्रभावितर किया। उनकी अभिव्यक्ति में संतों की बानी जैसी सादगी, एक क़लंदराना अंदाज़ और लोक गीतों जैसी मिठास है। उन्होंने अमीर ख़ुसरो, मीर, रहीम और नज़ीर अकबराबादी की भूली-बिसरी काव्य परंपरा से दुबारा रिश्ता जोड़ने की कोशिश करते हुए न केवल उस रिवायत को पुनः स्थापित किया बल्कि उसमें वर्तमान काल की भाषाई प्रतिभा जोड़ कर उर्दू के गद्य साहित्य में भी नई संभावनाओं को जन्म दिया

  अपनी शायरी के बारे में निदा का कहना था "मेरी शायरी न सिर्फ अदब और उसके पाठकों के रिश्ते को ज़रूरी मानती है बल्कि उसके सामाजिक सरोकार को अपना मयार भी बनाती है। मेरी शायरी बंद कमरों से बाहर निकल कर चलती फिरती ज़िंदगी का साथ निभाती है। उन हलक़ों में जाने से भी नहीं हिचकिचाती जहां रोशनी भी मुश्किल से पहुंच पाती है। मैं अपनी ज़बान तलाश करने सड़कों पर, गलियों में, जहां शरीफ़ लोग जाने से कतराते हैं, वहां जा कर अपनी ज़बान लेता हूं। जैसे मीर, कबीर और रहीम की ज़बानें। मेरी ज़बान न चेहरे पर दाढ़ी बढ़ाती है और न पेशानी पर तिलक लगाती है।"

  निदा की शायरी हमेशा सैद्धांतिक हठधर्मिता और दावेदारी से पाक रही। उन्होंने प्रतीकों के द्वारा ऐसी आकृति गढ़ी कि पाठक को उसे समझने के लिए कोई ज़ेहनी वरज़िश नहीं करनी पड़ती। उनके काव्य पात्र ऊधम मचाते हुए शरारती बच्चे, अपने रास्ते चलती कोई सांवली सी लड़की, रोता हुआ कोई बच्चा, घर में काम करने वाली बाई जैसे लोग हैं। निदा के यहां मां का किरदार बहुत अहम है। जिसे वह कभी नहीं भूल पाते। मसलन... 

      बेसन की सोंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी मां     

      याद आती है चौका बासन, चिमटा, फुंकनी   

      जैसी मां


  उनसे मुलाक़ात का दूसरा अवसर हाथ आते-आते निकल गया। पेशे से पेंटर रहे भाई‌ प्रवीण गुप्ता जी, ज़की भाई और मेरे बीच अगस्त 2015 में प्रवीण भाई के दफ्तर में यह तय पाया गया कि ग़ाज़ियाबाद में 'एक शाम निदा के नाम' कार्यक्रम किया जाए। उन्हें दावतनामा देने में भाई सुबोध शर्मा और भाई अनिल दरवेश जी ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह दुर्भाग्य ही है कि आज निदा फ़ाज़ली, प्रवीण गुप्ता, अनिल दरवेश और सुबोध शर्मा चारों ही हमारे बीच नहीं हैं। यह कार्यक्रम हुआ भी। लेकिन उसकी कथा फिर सही...। होटल मेला प्लाजा में उन्हें देर तक सुना गया। आज वह हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी ग़ज़लें उनकी शख़्सियत का आईना हैं, जो आज भी उनके होने का एहसास कराती हैं।

  कल बरसी पर वह शिद्दत से याद आए। ज़की भाई से फोन पर संवाद के दौरान उन्हें देर तक याद किया गया। वह ज़ेहन के किसी कौने में आज भी महफूज़ हैं, ग़ाज़ियाबाद की सड़कों पर पायजामा, कुर्ते, चप्पल पहने हमारे साथ पैदल फिरते, चाय की चुस्की पान का मज़ा लेते से...।

 निदा फ़ाज़ली साहब को उन्हीं की एक नज़्म श्रद्धांजलि स्वरूप समर्पित है


तुम्हारी कब्र पर मैं

फ़ातेहा पढ़ने नही आया,

मुझे मालूम था, तुम मर नही सकते

तुम्हारी मौत की सच्ची खबर

जिसने उड़ाई थी, वो झूठा था,

वो तुम कब थे?

कोई सूखा हुआ पत्ता, हवा मे गिर के टूटा था।

मेरी आंखें

तुम्हारी मंज़रो मे कैद हैं अब तक

मैं जो भी देखता हूं, सोचता हूं

वो, वही है

जो तुम्हारी नेकनामी और बदनामी की दुनिया थी

कहीं कुछ भी नहीं बदला,

तुम्हारे हाथ मेरी उंगलियों में सांस लेते हैं,

मैं लिखने के लिये जब भी कागज कलम उठाता हूं,

तुम्हें बैठा हुआ मैं अपनी कुर्सी में पाता हूं |

बदन में मेरे जितना भी लहू है,

वो तुम्हारी लगजिशों, नाकामियों के साथ बहता है,

मेरी आवाज में छुपकर तुम्हारा जेहन रहता है,

मेरी बीमारियों में तुम मेरी लाचारियों में तुम।

तुम्हारी कब्र पर जिसने तुम्हारा नाम लिखा है,

वो झूठा है, वो झूठा है, वो झूठा है...

तुम्हारी कब्र में मैं दफन, तुम मुझमें जिन्दा हो,

कभी फुरसत मिले तो फ़ातेहा पढने चले आना...


आलोक यात्री 



गुरुवार, 3 फ़रवरी 2022

रचनाकार को एक सीमा तक ऐक्टिविस्ट होना ही चाहिए ! से रा यात्री

 


कथाकार, उपन्यासकार से.रा. यात्री से कमलेश भट्ट कमल की बातचीत


( आजकल के जून, 2008 अंक में प्रकाशित )


से.रा. यात्री हिंदी साहित्य के उस अलमस्त और फक्कड़ तबियत के लेखक का नाम है, जिसकी सृजन-यात्रा अबाध गति से चार दशक पूरे कर चुकी है। इस अवधि में उनके पैंतीस उपन्यास, बीस कहानी संग्रह, दो व्यंग्य संग्रह व संस्मरणों की एक पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है। इसके अतिरिक्त वे जड़ों से उखड़े हुए लोगों पर विभिन्न कथाकारों की लिखी कहानियों के संकलन का विस्थापित नाम से संपादन भी कर चुके हैं। उनकी पहली कहानी 'गर्द और गुबार' सन 1963 में कमलेश्वर द्वारा संपादित नई कहानियां में प्रकाशित हुई थी। उनका पहला उपन्यास दराजों में बंद दस्तावेज 1970 में प्रकाशित हुआ था। पहला कहानी संग्रह दूसरे चेहरे भी इलाहाबाद से ही 1971 में प्रकाशित किया गया था।दराजों में बंद दस्तावेज यात्री जी ने 1959 में दिल्ली में बेरोजगारी से जूझते हुए लिखा था ।


हिंदी की चर्चित और महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिका वर्तमान साहित्य के संपादन का कार्य उन्होंने काफी लंबे समय तक किया। इस दौरान उन्होंने समकालीन युवा और युवतर लेखन को काफी गहराई से देखा। प्रस्तुत हैं उनसे हुई बातचीत के अंशः


प्रश्न : साहित्य में मर्यादा, शालीनता आदि की सीमाएं बहुत बार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर टूटती रहती हैं। इन्हें लेकर काफी वाद-विवाद भी साहित्य में चलता रहता है। इस स्थिति पर आप क्या सोचते हैं?


असल में जो सामाजिकता के बीच में किन्हीं सामूहिक स्थितियों में जाने वाली चीज या वक्तव्य है, उसके लिए अवश्य ही भाषा और मर्यादा की रक्षा होनी चाहिए। होता यह है कि कई बार लोग आवेश में ऐसी बातें कह जाते हैं जो अवसरानुकूल नहीं होती हैं। साहित्यकार, विचारक या विद्वान के मुंह से निकली हुई बात बहुत दूर तक और देर तक ध्वनित होती है। इसलिए सामाजिक शिष्टाचार की भाषिक मर्यादाओं का पालन होना चाहिए। जो सामान्य जीवन जीने वाले व्यक्ति होते हैं, वे सोचते हैं कि जो समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं- चाहे वे विद्वान के रूप में हों, लेखक के रूप में हों, कवि के रूप में हों या विचारक और राजनेता के रूप में हों- उनका आचरण अशोभनीय नहीं होना चाहिए। अतः वे उनसे किसी अशोभनीय आचरण या भदेस भाषा और व्यवहार की उम्मीद नहीं करते हैं। लेकिन जब कभी आदर्श की जो टूटन होती है उसका दुष्प्रभाव सीधे समाज तक आता है और तब सामान्य व्यक्ति भी ऐसे अपकृत्य से अपने आप को जस्टीफाई करने लगता है...और यह स्थिति समाज के लिए घातक बन जाती है।


कई बार यह कह दिया जाता है कि 'साहित्यकार स्वयं में कोई विशिष्ट प्राणी नहीं होता।' लेकिन मुझे लगता है कि यदि वह विशिष्ट नहीं होगा तो सामान्य जन को देने के लिए उसके पास कुछ नहीं होगा!?


देखिए, मैं यह तो मानता हूं कि साहित्यकार हर समय एक विशिष्ट प्राणी नहीं है। लेकिन यह भी एक आंशिक सत्य है कि जब वह सामान्य भौतिक दायित्वों से घिरा होता है तो वह निश्चित रूप से वह व्यक्ति नहीं होता है, जो साहित्य रचते हुए या कलाधर्म का निर्वाह करते हुए होता है। किंतु जब वह अपने कलाधर्म का निर्वाह करता है तो वह सामान्य जन से अलग हो जाता है। उसके सृजन के क्षण भौतिक जीवन के सोच के क्षणों से नितांत भिन्नता वाले होते हैं। यदि ऐसा न हो तो किसी महान रचना का सृजन ही संभव नहीं हो सकता। यह विशिष्टता है जो सामान्य जन में नहीं हो सकती। किसी रचनाकार का सामाजिक बोध सामाजिक स्थितियों में भी बहुत साधारण लोगों से अलग होता है। इसको यों समझ लीजिए, जिस समय शैलेश मटियानी किसी होटल या ढाबे में प्लेट-प्याले धो रहे होते हैं तो वह एक पहाड़ी छोकरे या नौकर का जीवन जी रहे होते हैं। लेकिन जो उनका मानस होता है वह किसी सामान्य नौकर से बिल्कुल अलग होता है। क्योंकि तब उसका सारा अनुभव रचनाकार के रचना-प्रकोष्ठ में चला जाता है।


साहित्यकार प्रायः उपेक्षा का शिकार दिखाई देता है। इसमें उसका खुद का योगदान कितना होता है और कितना समाज का ?


मैं समझता हूं कि दोनों ही तरफ से न्यूनता है। देखिए, कोई समाज जो अपने साहित्यकारों, कलाकारों, विचारकों या समाज को दिशा देने वालों को नहीं पहचानता है, सम्मान नहीं देता है, वह एक अभागा समाज है। इसका दूसरा पक्ष भी काफी महत्वपूर्ण और प्रबल है कि ऐसे लोगों की समाज के साथ सक्रिय सहभागिता बनी रहे ताकि वे उनकी उस भूमिका से परिचित होते रहें, जो सामाजिकों के हित से जुड़ी हुई हो। यों समझ लीजिए कि जैसे हमारे समाज में एक धोबी या कुम्हार है, एक नाई है, एक गायक या अभिनेता है-समाज उसके कार्य क्षेत्र को भली प्रकार पहचानता है और उससे जुड़ जाता है। उसी तरह से साहित्यकार को स्वयं भी प्रयासरत रहना चाहिए कि समाज यह निरंतर जानता रहे कि रचनाकार समाज के हित के लिए क्या-क्या सोच रहा है, क्या-क्या कर रहा है। इसके अभाव में समाज को साहित्यकार की अपेक्षा निरंतर कम होती चली जाती है और समाज को जिसकी आवश्यकता ही नहीं महसूस होगी, उसे उपेक्षा नहीं तो और क्या मिलेगा?


यहां अहम सवाल साहित्य की सोद्देश्यपरकता से भी जुड़ता है। साहित्य और समाज के आपसी रिश्ते से भी जुड़ता है।


यदि हमारे साहित्य की धमक हमारे परिवेश को नहीं हो पा रही है तो हमारे लेखन पर सहज ही प्रश्नचिह्न लग जाता है। मुझे इसमें कहीं न कहीं लेखक की वंचना अधिक नजर आती है। बिना समाज की भीतरी गहराइयों को जाने, बिना उसके विविध संकटों को समझे, मैं अपने लेखन का कोई उपजीव्य नहीं जुटा सकता। यदि मैं सारा कुछ- औजार, हथियार, कथ्य- समाज से ग्रहण करने के बाद उसे अपनी सहज अहेतुक मित्रता भी नहीं दे सकता, एक संवादात्मक स्थिति उसे नहीं दे सकता, सामाजिकों से जुड़ने का संकेत नहीं दे सकता तो यह रचनाकार की प्रवंचना ही है। या मैं यह भी कह सकता हूं कि मैं उनको छलने की प्रक्रिया में रचनारत हूं।...रचनाकार का संवाद सामाजिकों के साथ उनके स्तर पर ही हो, उनसे ऊंचा दिखकर या रहकर न हो । अब देखिए, जब देवानंद को दादा साहब फाल्के एवार्ड मिला तो लाखों लाख लोगों को लगा कि यह हमारे बीच का अभिनेता है और पिछले पचास सालों से अभिनय कर रहा है। लेकिन वहीं साहित्य एकेडमी एवार्ड किसको मिला, इससे समाज के लोगों को कोई सरोकार ही नहीं है।


साहित्यकारों के अपने परिवेश तक पहुंचने के क्या तरीके हो सकते हैं?


जैसे बिजली-पानी का संकट शहर में होता है या किसी और तरह का संकट होता है तो क्यों नहीं साहित्यकार दूसरे सामान्य जनों की तरह उसके विरोध प्रदर्शन में भाग लेता है? वहां से तो उसे तरह-तरह के अनुभव भी मिल सकते हैं! यदि रचनाकार की समाज में भागीदारी नहीं है तो रचनाधर्मिता एक 'डेड लैटर' की तरह हो जाती है। यह संवादहीनता ही परिवेश के साथ भागीदारी के प्रति हमारी सारी सोच को खोलकर रख देती है।


आपका आशय रचनाकार के एक्टिविस्ट होने से है?


रचनाकार को एक सीमा तक ऐक्टिविस्ट होना ही चाहिए। समाज के प्रति उसकी सहभागिता एक हद तक अपरिहार्य तत्व है। गणेश शंकर विद्यार्थी को देखिए? वे तरह-तरह की राजनीतिक व्यस्तता के बीच भी दंगों में जाकर उसे शांत कराने की सक्रिय भागीदारी निभाते हैं...और वहां गोली का शिकार बन जाते हैं। जिस तरह राजनीति साधारण आदमी से कट गई है, वही स्थिति साहित्यकार के साथ भी है। आज आपको एक भी अखबार, एक भी संपादक जनता का प्रतिनिधि नहीं मिलेगा। सारे संपादक, सारे अखबार बाजार के लिए हैं। मैं पहले के लगभग दर्जन भर ऐसे संपादक गिना सकता हूं जिन्होंने जनता के साथ कभी छल नहीं किया। रामानंद चटर्जी, विष्णु पराड़कर, गणेश शंकर विद्यार्थी, महावीर प्रसाद द्विवेदी-ये सारे वे लोग थे जिन्होंने बिल्कुल ‘ग्रास रूट' तक के आदमी के लिए, अहेतुक भाव से संघर्ष किया।


इस दृष्टि से तो आजादी के बाद का लेखन सुरक्षित क्षेत्र में रहकर किया जाने वाला लेखन ही कहलाएगा?


बिल्कुल यही स्थिति है। यह सारा का सारा लेखन सुरक्षा के गहरे कवच में रहकर किया गया लेखन है। इसीलिए इसका संवाद समाज के साथ दिनोंदिन कम होता जा रहा है।... पूरा का पूरा मीडिया जगत बाजारोन्मुख है, उसका साधारण जन से किसी किस्म का सहज जुड़ाव नहीं है। वह अपने हिसाब से चल रहा है ! समाज अपनी तकलीफों-दुखों में जी रहा है। पूरे मीडिया से सामान्य जन बेदखल है। लगभग उसी स्तर पर मीडिया से जुड़ा जो भी बौद्धिक और वैचारिक जगत है, उसकी भी समाज के साधारण जन से वैसी ही विरक्ति है। सारे लोग बाजार के लिए सक्रिय दिखाई दे रहे हैं। अब आप सोचिए कि प्रेमचंद को कोई सम्मान मिलता तो उस टिप्पणी और प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए लाख पचास हजार तो निकल ही आते। अब जबकि दो-दो, ढाई-ढाई लाख के पुरस्कार मिलते हैं, उन पर कोई बात करने वाला नहीं होता! अर्थात ऐसे लोग समाज से कटे हुए, अपनी दुनिया में लीन लोग हैं जिन्हें विदेश यात्रा, राज्य सभा / विधान परिषदों की सदस्यता, कमेटियों की अध्यक्षता- अर्थात उपलब्धियों की एक लंबी कतार है, जिसको लेकर रचनाकार लालायित रहते हैं। ...एक जमाने में प्रगतिशीलता के पैगंबर आज सुविधा भोग के दलदल में आकंठ डूबे हुए हैं। शायद इसीलिए मुक्तिबोध जिससे मिलते थे उससे कहते थे-पार्टनर तुम्हारी, पालिटिक्स क्या है?


इन स्थितियों में आप किसी बड़े रचनात्मक अनुष्ठान की क्या संभावना देखते हैं?


बात यह है कि अपनी भाषा के गौरव को स्वीकार करने और स्थापित करने से पूर्व यह संभव नहीं लगता। न ही किसी बड़ी सार्थक रचना की संभावना नजर आती है। यह स्थिति केवल हिंदी भाषा तक ही सीमित नहीं है। इसमें सारी भारतीय भाषाओं का लंगड़ापन नजर आता है। मेरा आशय यह कि 40 वर्ष की आयु के आस-पास हमारे यहां रेणु, केदारनाथ अग्रवाल, दिनकर जैसा कोई बड़ा रचनाकार नजर ही नहीं आता। कोई बड़ी रचना सामाजिक स्वास्थ्य और सौष्ठव से जन्म लेती है। बीमार सामाजिकता से आप किसी महान बौद्धिक कृति या कालजयी रचना के सृजन की अपेक्षा नहीं कर सकते। अंततः बड़ी रचना अपरिहार्य रूप से, बड़े सरोकारों से जुड़ी होगी। जिस समाज के रचनाकारों का बहुविध सरोकारों से कोई गहरा जुड़ाव ही न हो, वहां कोई बड़ी रचनाशीलता आप किसी शून्य से निर्मित होते हुए नहीं देख सकते ।


कला के अन्य माध्यमों की तुलना में साहित्य के समाज के ऊपर पड़ने वाले प्रभावों को लेकर आप कितना आश्वस्त हैं ?


मुझे लगता है कि लोकप्रिय विधाओं में, साहित्य की अपेक्षा, अभिव्यक्ति की 'डायरेक्टनेस' लोगों को स्वतः इतना बांध लेती है कि उन्हें हथकंडे अपनाने की जरूरत ही नहीं पड़ती है । सिनेमा भी अभिव्यक्ति का साधन है। वह बहुत प्रत्यक्ष है। यह ठीक है कि वहां काम करने वाला आदमी अपने निर्णय स्वयं नहीं करता है, उसकी कलागत अभिव्यक्ति को स्वरूप देने के लिए कई फील्ड के लोग हैं, लेकिन आखिर में जो संवाद है-दर्शक या जनता के साथ, वह सीधा है। कला जितनी प्रत्यक्ष होती है, संप्रेषण के लिए उतनी ही शक्ति लगानी पड़ती है। लेकिन साहित्य में यह संप्रेषण सीधा न होकर अप्रत्यक्ष रूप से है। इसलिए उसके प्रभाव पर आने वाली प्रतिक्रियाएं इतनी सीधी नहीं हैं। आज आप एक उपन्यास लिखते हैं तो उसकी प्रतिक्रिया लंबे समय तक ध्वनित होती रहती है। सामूहिक प्रभाव बहुत देर में सामने आता है, हालांकि प्रत्यक्ष कलाओं की तुलना में वह घनीभूत होता है और बहुत देर तक रहता है। अतः साहित्य का प्रभाव अधिक सुदृढ़ है और इसीलिए साहित्य में बहुत सारा कुछ वक्त तय करता है।


हिंदी साहित्य में क्या प्रत्यक्ष संवाद की संभावनाएं नहीं बन सकतीं ?


मराठी में तो ये परंपराएं हैं। 'कथा-कथन' को विशेष रूप से देखा जा सकता है, जिसमें लोगों की भीड़ में कहानियों का पाठ होता है। इसलिए मराठी का साहित्यकार बहुत जल्दी स्थापित हो जाता है। अन्य भाषाओं में यह स्थिति नहीं है। साहित्य का निकष भी यदि पाठक के सामने प्रत्यक्ष प्रस्तुतीकरण के रूप में आ जाए तो लेखक का कद, उसकी सामर्थ्य, उसकी सफलता/विफलता बहुत जल्दी स्थापित हो सकती है। लेकिन हिंदी के रचनाकार और उसके पाठक के बीच में इतनी दूरी है कि उसे पाटने का हमारे सामने अभी कोई कारगर उपाय नहीं है। हिंदी के किसी बड़े से बड़े लेखक की तुलना में हिंदी का द्वितीय श्रेणी का मंचीय कवि कहीं अधिक लोकप्रिय है, क्योंकि उसका संवाद डायरेक्ट होता है। है


लेकिन डायरेक्ट संवाद और रचनात्मकता का संबंध हमेशा स्तरीय और उपयोगी ही हो, ऐसा तो नहीं होता-जैसा हमारे कवि सम्मेलनों में हो रहा है?


रचनाशीलता के तो कई स्तर हैं लेकिन उनमें जो चीजें गहरे आकलन, अन्वेषण या सोच से जुड़ी हैं या कोई भी कला जो बहुत गंभीर संदर्भों से जुड़ी होगी-उसमें उस तरह की लोकप्रियता कभी प्राप्त नहीं हो पाती। हमारा हिंदी का गंभीर साहित्य और इसी तरह शास्त्रीय संगीत भीड़ को उस तरह प्रभावित नहीं कर पाता है।


फिर 'कथा कथन' जैसी स्थितियां हिंदी में कैसे आ सकती हैं? कैसे लाई जा सकती हैं ?


आपको इसके लिए भी पाठकों को एक संस्कार देना पड़ेगा। फिर धीरे-धीरे स्थितियां बदलेंगी। आप टी.वी. पर सास-बहू के झगड़े और अवैध संबंध परोसकर चिंतनपरक चीजों का संस्कार नहीं दे सकते। 


समांतर सिनेमा की विफलता के कारण, कहीं यही सब तो नहीं हैं? क्योंकि व्यावसायिक सिनेमा ऐसे संस्कारों के लिए गुंजाइश ही नहीं छोड़ता?


बिल्कुल यही बात है। जो व्यावसायिकता की व्यापक भीड़ है, उतनी संख्या में गंभीर प्रयास करने वाले भी हों तो यह स्थिति बदल सकती है। आज जिस तरह से बाजार की स्थितियां बहुत व्यापक हो गई हैं, उनमें अच्छे प्रयत्नों को स्थापित करने के लिए भी विज्ञापन एक आवश्यकता बन चुका है। अतः आज यदि अच्छे प्रयास, चाहे वे साहित्य, कला या अन्य किसी क्षेत्र के हों-उनका सम्यक प्रचार-प्रसार होगा तभी वे बाजार में टिक सकेंगे। यदि हम साहित्य को एक व्यावसायिक सफलता का स्वरूप दे दें तो इसमें हर्ज क्या है !


लेकिन हमारे यहां प्रकाशकों के स्तर पर पुस्तकों का व्यावसायिक विज्ञापन प्रायः होता ही नहीं है। तो फिर व्यावसायिक सफलता का स्वरूप कैसे मिल सकता है?


यही तो विडंबना है। न तो प्रकाशक अपने स्तर पर किताबों को लोकप्रिय बनाने का प्रयास करता है और न ही रचनाकार के स्तर पर ऐसा हो पाता है। हां, प्रकाशकों की दौड़ यह अवश्य रहती है कि पुस्तक किसी तरह से पाठ्यक्रमों में शामिल हो जाए। बाजार में मिट्टी से लेकर मिठाई तक के उत्पादक को पता रहता है कि उसका उपभोक्ता कौन है, कहां रहता है। लेकिन मात्र साहित्य ही एक ऐसी चीज है जहां न तो निर्माता के सामने ग्राहक का कोई चेहरा है और न ही प्रस्तुतकर्ता को पता रहता है। तो यह एक अजीब स्थिति है साहित्य के साथ।


कहा यह जा सकता है कि बाजार की जो स्थितियां हैं वे साहित्य की सफलता-विफलता या रचनाकार की स्थापना का निर्धारण कर रही हैं?


बिल्कुल यही स्थिति है। पिछले दस-पंद्रह वर्षों में आपने देखा होगा कि जिन किताबों के बारे में विवाद पैदा हुए हैं या विवाद पैदा किए गए हैं वे गर्म पकौड़ी की तरह बिकी हैं-रश्दी, नॉयपाल, अरुधंती राय की किताबें या हैरी पॉटर इसी बिना पर बिकी हैं। इन किताबों की ऐसी जबर्दस्त मार्केटिंग की गई कि लोग इन्हें खरीदने को उत्सुक हो उठे या ये खरीददारों के लिए स्टेटस सिंबल बना दी गई। यहां कीमतों का भी कोई मतलब नहीं रहा है।


इस कड़ी में तस्लीमा नसरीन की 'क' सबसे ताजा उदाहरण है जहां शारीरिक संबंधों की चर्चा की गई है। ऐसी पुस्तकें समाज के लिए कितनी उपयोगी हैं ?


क, (द्विखंडिता) जैसी किताबें बाजार के लिए तो उपयोगी हैं। लेकिन समाज के लिए कितनी उपयोगी हैं, इस पर तत्काल ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता। क्योंकि गुणवत्ता के स्थापित होने में तो समय लगता है। विवादित चीजें भी अंततः गुणवत्ता के बल पर ही ठहर पाती हैं- चाहे लेडी चैटरलीज लवर (डी.एच.लारेंस), नाना (एमिल जोला) हो या इस तरह की कुछ और किताबें । होता यह है कि उछाली गई चीजें बहुत जल्दी बाजार का उद्देश्य पूरा करके गायब हो जाती हैं। लेकिन साहित्य के लिए केवल प्रचार-प्रसार वाली व्यावसायिकता ही काफी है। आपाधापी और शोर-शराबे वाली व्यावसायिकता उसके लिए जरूरी नहीं है।


इस दिशा में रचनाकारों का खुद का क्या योगदान हो सकता है?


रचनाकार के व्यक्तित्व का एक जो स्वरूप है, उसका बहुत प्रभाव पड़ता है। वह उससे पाठक समुदाय को प्रभावित तो कर ही सकता है। बंगाल में तो जब महत्वपूर्ण रचनाकार अपनी पुस्तकों को हस्ताक्षर करके बेचता है तो लोग लाइन लगाकर खरीद लेते हैं। लेकिन रचनाकार स्वयं को इतना बड़ा बनाए तो! पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तक प्रकाशकों को भी इस बारे में सोचना चाहिए। वे खुद अपने रचनाकार को कितना बड़ा बनाकर प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं, यह बहुत महत्वपूर्ण हो सकता है। लेकिन यह भी हुआ है कि प्रकाशकों ने तृतीय श्रेणी के रचनाकारों को बड़ा बनाकर खड़ा किया, लेकिन वे खारिज हो गए! क्योंकि खारिज हो जाना उनकी नियति थी।... और फिर रचना भी हमारी संतान जैसी है। हम यदि रचना को हर तरफ से प्रकाशमान करने का प्रयास करेंगे तो वह उजागर होगी। रचनाओं को उनका सम्मानजनक स्थान मिलना चाहिए। यह उन्हें रेखांकित और स्थापित करने के लिए आवश्यक है। साथ ही उन्हें एक सीमित विज्ञापन और प्रचार की भी आवश्यकता है।


आपका बहुत समय विद्यालयों में अध्यापन में गुजरा है। आपको लगता है कि कालेज और विश्वविद्यालय-स्तर पर साहित्य के लिए कोई उर्वर मानसिकता का विकास हो रहा है?


मुझे नहीं लगता कि ऐसा हो रहा है! विश्वविद्यालयी शिक्षा, भारतीय परिप्रेक्ष्य में, बहुत अधूरी शिक्षा व्यवस्था है। यहां ज्ञान का सीधा संबंध आस्था और जिज्ञासा से नहीं है। विद्यार्थी का जो मनोजगत है और उसकी जो पूरी दैहिक क्षमता है, उसमें कभी कोई संतुलन हमारी इस शिक्षा व्यवस्था ने उपलब्ध ही नहीं कराया! क्योंकि जिज्ञासु का जो स्वरूप है, जो क्षमताएं हैं और उन क्षमताओं की जो व्याप्तियां हैं, उन्हें जानने का मार्ग विद्यार्थी और शिक्षक के बीच में गहरी संपृक्ति की अपेक्षा रखता है। जबकि व्यावहारिकता में ऐसा है ही नहीं। यही कारण है कि हमारा जो सर्वोत्तम है, एक जीवित मेधा के रूप में उसका शिखर विकास कभी हो ही नहीं सका। एक जिज्ञासु के रूप में हमें शिक्षक से अपना संपूर्ण प्राप्त हो सकने की संभावनाएं प्रायः क्षीण रही हैं।... आधुनिक शिक्षा की शैलीगत परंपराओं ने शिक्षार्थी को अपने शिक्षक की मेधा का संपूर्ण प्राप्त करने का मार्ग कभी सहज नहीं बनने दिया। कहने का आशय यह कि इस व्यवस्था में अध्यापक व छात्र की अंतरंगता उस तरह बन ही नहीं पाती जो अभीष्ट होती है। मैं स्वयं भी अपने छात्रों को अपने व्यक्तित्व का जो कुछ देना चाह रहा था, उसका बहुत छोटा अंश ही उन्हें दे पाया।


साहित्य के संदर्भ में इस शिक्षा व्यवस्था के योगदान का संदर्भ तो अनुत्तरित ही रह गया!?


हां, साहित्य सृजन और रचनात्मकता के संदर्भ में जिस तरह का प्रोत्साहन पहले विद्यार्थियों को प्राप्त हो जाया करता था, वह लगभग जीर्ण-क्षीर्ण स्थिति में पहुंच गया है। इससे रचनात्मक प्रतिभा वाले विद्यार्थियों के लिए और भी कठिनाई हो गई है। अब तो रचनाकार को अपने रुझान के अनुसार एकल कौशल और वैयक्तिक संघर्षों पर ही निर्भर करना पड़ता है। अब विद्यालयों में ऐसे शिक्षक नहीं बचे हैं जो अपनी रचनात्मकता से विद्यार्थियों को कोई प्रश्रय या दिशा-निर्देश दे सकें। कोढ़ में खाज यह कि अच्छी पत्रिकाएं और जुझारू संपादक न होने के कारण रचना और रचनाकार दोनों उपेक्षित हो जाते हैं।... मैं समझता हूं कि एक बहुज्ञ संपादक जिस तरह का प्रोत्साहन दे सकता है, रचनाकार को परिवर्धित करके उन्हें उत्कृष्ट बना सकता है-उसकी गुंजाइश नहीं बची है। यही कारण है कि छठे-सातवें दशक तक स्थापित हो जाने वाली विभूतियों के बाद उतने पुख्ता और शिखर व्यक्तित्व स्थापित नहीं हो पा रहे हैं! साहित्य में चालीस वर्षों पहले सुने गए रचनाकारों के नाम-वही के वही-आज भी दुहराए जा रहे हैं और उसके बाद आने वाली दो पीढ़ियां, जिनके रचनाकारों को अब तक स्थापित हो जाना चाहिए था, आकलन के अभाव में अपना कोई स्वरूप निर्धारित नहीं कर पाईं।


इस संदर्भ में आलोचना की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण होती है। क्या टिप्पणी करना चाहेंगे आप समकालीन आलोचना पर?


चालीस वर्षों में विधाओं और रचनाकारों के समग्र आकलन का अभाव निरंतर बढ़ता चला गया है। आज हिंदी में किसी भी साहित्यिक विधा में व्यापकता और संपूर्ण परिदृश्य को दृष्टि में रखने वाला एक भी आलोचक अपनी रचना-दृष्टि से कोई भी शिखर-व्यक्तित्व स्थापित नहीं कर पाया है। रचना के स्थान पर केवल टुकड़ों में और व्यक्तिपरक आकलन को स्थापित करने का प्रयत्न ही सर्वोपरि दिखाई देता है। यदि इन स्थितियों में कोई अपेक्षित परिवर्तन नहीं आया तो हिंदी साहित्य अपनी कितनी ही महत्वपूर्ण रचनाओं और विभिन्न विधाओं में साहित्यिक व्यक्तित्वों की स्थापना में घोर असफल होकर ही रह जाएगा!


आलोचना की इस विफलता के क्या कारण नजर आते हैं ?


साहित्य का समग्रता में आकलन करने वाले किसी बड़े रचनाधर्मी अन्वेषक का अभाव ही इसका प्रमुख कारण रहा है। नगेंद्र के बाद नामवर सिंह के अलावा आलोचना में हमारे पास कोई बड़ा व्यक्तित्व नहीं है। आलोचना-कर्म का दायित्वपूर्ण ढंग से निर्वाह करने के लिए एक सम्यकता और शोध-दृष्टि का अभाव भी इसका कारण हो सकता है। हमारे पास आलोचना के प्रखर व्यक्तित्व तो हैं जैसे-मैनेजर पांडेय, मधुरेश, विश्वनाथ त्रिपाठी, विजय मोहन सिंह, खगेंद्र ठाकुर आदि, लेकिन इनमें से कोई भी पूरी समग्रता के साथ समर्पण भाव से साहित्य की किसी भी विधा के प्रति आलोचनारत नहीं हो पाया है।


हो यह रहा है कि हमारे विद्वान साहित्यिक सम्मेलनों, सेमिनारों और इसी तरह के मंचों पर अपनी शक्ति का उपयोग कर रहे हैं। लेखन के प्रति यह मानसिक शैथिल्य महत्वपूर्ण रचनाओं को समझने-समझाने तथा स्थापित करने का अवसर उपलब्ध ही नहीं होने देता। जो काम लेखन से किया जाना चाहिए, वह सिर्फ भाषणबाजी में नष्ट किया जा रहा है। संभवतः इसका कारण व्यापक अध्ययनशीलता की संभावना से वंचित होने में भी देखा जा सकता है। आलोचना का दायित्व पुनर्पाठ और पुनः अध्ययन तथा जांच-पड़ताल की संभावना से जुड़ा हुआ है लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है। यह प्रकारांतर से आलोचकों का रचना से पलायनवाद भी कहा जा सकता है।


आपको लगता है कि आपका सही मूल्यांकन किया गया है?


मेरा कोई मूल्यांकन नहीं हुआ है और न ही इसका मुझे कोई खेद है! जैसे लोग आज मूल्यांकन करने वाले हैं, उनके व्यक्तित्व में मुझे आस्था नहीं है। यदि वे मेरा मूल्यांकन कर भी देते तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। यदि हजारी प्रसाद द्विवेदी या रामचंद्र शुक्ल जैसा व्यक्तित्व होता तो मूल्यांकन न हो पाने की तकलीफ अवश्य होती ।


इन दिनों पठन-पाठन और लेखन दोनों में आपकी रुचि कहानी, उपन्यास की तुलना में संस्मरण, आत्मकथा, यात्रा वृत्तांतों आदि में बढ़ी है। इस विचलन के पीछे क्या है?


यह विचलन नहीं, बल्कि सृजन का ही एक आयाम है। आपको याद होगा, प्रेमचंद ने एक जगह कहा है कि अगला लेखन आत्मलेखन, जीवनी और संस्मरणों का होगा। मुझे लगता है कि लेखक की सर्जनात्मकता के जो बहुआयाम हैं, उनमें कहीं न कहीं ऐसा भी होता है कि वह जीवन के अनुभवों और यथार्थ को बिना किसी लाग-लपेट और कल्पना की चाशनी के, सीधे-सीधे ही व्यक्त करना चाहता है। क्योंकि बहुत लंबे समय के बाद एक खास उम्र में आकर कल्पना की उड़ान भरने या - सप्रयास चीजों को गढ़ने में रुचि नहीं रह जाती है या कम हो जाती है। यही क्यों, आप देख रहे हैं कि इन दिनों प्रायः उपन्यास और कहानियां भी एक तरह से, अपने ही बीच के लोगों की जीवनचर्या से जुड़ी हुई आ रही हैं। यह क्या है! यह यथार्थ को बहुत क्लिष्ट कल्पनाओं के माध्यम से न पकड़कर सीधे-सीधे अभिव्यक्त करना ही तो हुआ।


..फिर पाठकों की भी यह इच्छा होती है कि रचनाकार के अनुभवों को सीधे-सीधे जाना जाए। यह भी होता है कि जिस तरह की बोल्डनेस ... इन विधाओं में आ पाती है, वैसी कल्पना-जगत में संभव नहीं हो पाती है और लेखक कई बार इस तरह की बोल्डनेस को पकड़ना चाहते हैं ।


इस तरह की रचनाओं को किस हद तक क्रिएटिव मानते हैं ?


ये रचनाएं नाटक, कहानी, उपन्यास, कविता या डायरी आदि का मिला-जुला स्वरूप होती हैं। मेरी अपनी पुस्तक लौटना एक वाकिफ उम्र का भी ऐसी ही है। मेरा उपन्यास बैरंग खत तो खालिस संस्मरणों पर ही आधारित है, जिसमें एकाध को छोड़कर पात्रों के नाम तक नहीं बदले गए हैं। ऐसी रचनाओं को लिखने में आसानी होती है क्योंकि कल्पना की आवश्यकता ही नहीं पड़ती है। ये सारी चीजें आपके अंदर पहले से ही अन्वेषित होती हैं। ... जैसे-जैसे आपके अंदर का अनुभव बढ़ता जाता है, आपको बाहरी मिलावट की आवश्यकता ही नहीं रह जाती है। कबीर ने तो कहा भी है-'तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आंखिन की देखी!'


वर्तमान साहित्य जैसी अत्यंत महत्वपूर्ण कथा-पत्रिका का आपने कोई सत्रह वर्षों तक संपादन-कार्य देखा है। जाहिर है, इस के दौरान आपने युवा और युवतर पीढ़ी के कथा लेखन को भी काफी नजदीक से देखा है। इस लेखन की प्रवृत्तियों पर आप क्या कुछ कहना चाहेंगे?


कथा लेखन में आज की जो नई पीढ़ी आई है उसमें डायरेक्टनेस बहुत है। ... उसमें विद्रोह तथा वैश्विक पतनशील प्रवृत्तियों का उभार भी बहुत है। कमी सिर्फ यह है कि अनुभव की सघनता को क्लासिक एप्रोच देने के लिए जिस धैर्य की आवश्यकता होती है, उसका थोड़ा-सा अभाव है! ... दूसरे, नए लेखकों को चर्चा के लिए प्रायः प्लेटफार्म नहीं हैं। सारे रचनाकार एक अंधी दौड़ के दौर में हैं। उनमें कौन कहां तक पहुंचेगा, कुछ नहीं कहा जा सकता है!


आप क्या कुछ सोचकर साहित्य-क्षेत्र में आए थे? क्या वह सब कुछ उसी तरह हो पाया?


मैं साहित्य में कुछ सोचकर आया नहीं था। मैं तो कोई दस वर्षों तक प्रेमगीत लिखता था, जो आकाशवाणी आदि से भी प्रसारित होते रहते थे। सन 60 के बाद मैंने पढ़ा बहुत था और तब मुझे लगा कि प्रेमगीतों के माध्यम से मैं कोई बड़ी बात या अधिक लोगों की बात या बहुत व्यापक समुदाय के संघर्ष से जुड़ने वाली बात नहीं कह सकता था। तब हिंदी में ग़ज़ल की ऐसी चर्चा, ऐसी स्थिति नहीं थी; नहीं तो शायद मैं भी ग़ज़लें ही लिखता।...


इसलिए मुझे लगा कि कहानी एक बड़ा माध्यम है तो मैंने कहानियां लिखनी शुरू कर दीं। फिर लगा कि बात को और भी विस्तार से कहने के लिए उपन्यास जरूरी है। इस तरह से दो सौ-ढाई सौ कहानियां व तीस-चालीस उपन्यास लिख डाले। ...फिर मुझे लगा कि मेरी सभी रचनाओं में सामाजिक गलाजत पर एक व्यंग्यात्मक टिप्पणी है, तो व्यंग्य भी लिखना शुरू कर दिया और दो व्यंग्य-संग्रह-दुनिया मेरे आगे और किस्सा एक खरगोश का आ गए। फिर मुझे लगा कि मेरे पास जीवन के इतने सारे अनुभव हैं तो उन्हें कलमबंद करने के लिए संस्मरण लिखने शुरू कर दिए। मेरे संस्मरण प्रायः आम आदमियों और स्थितियों पर हैं। हां, मैंने भीष्म साहनी, विष्णु प्रभाकर, उपेंद्रनाथ अश्क, राजेंद्र यादव, राजेंद्र सिंह बेदी, धर्मवीर भारती आदि पर भी संस्मरण लिखे हैं जो अभी तक पुस्तक रूप में नहीं आ पाए हैं।


क्या कुछ नया लिखने की योजना है?


जिंदगी से मुझे जो भी कुछ मिला, उसके बारे में एक दृष्टिकोण तो यह है कि मुझे कुछ भी नहीं मिला और दूसरा यह कि जो मुझे मिला, क्या मैं उसके लायक था-उसको 'डिजर्व' करता था। इस द्वंद्व को मैं 'क्या खोया क्या पाया' शीर्षक से उपन्यास के रूप में लिखना चाहता हूं।


 इतनी बड़ी साहित्यिक यात्रा में क्या कुछ ऐसा भी था जिसे आप लिखना चाहते थे, लेकिन लिख नहीं पाए?


यह बहुत अच्छा सवाल किया। शुरू में हर बात लिखने लायक लगती थी, इसलिए मैं लगातार उपन्यास, और कहानियां लिखता गया। तब मैं हर बात, हर अनुभव में एक उपन्यास, एक कहानी तलाशता रहता था। लंबे वक्त और अनुभव से गुजरने के बाद लगने लगा है कि तमाम बातें तो बहुत साधारण हैं। क्योंकि तब आपके अंदर एक दार्शनिक आकर बैठने लगता है। यह दार्शनिक संवेदना को मंद करने लगता है। इसलिए ऐसी घटनाओं और चीजों से कहानियों की तलाश अब नहीं कर पाता। लेकिन जब किसी घटना का पात्र स्वयं होता हूं तो संवेदना जाग्रत होती है, लेकिन तब मैं कहानी या उपन्यास के बजाय डायरी या संस्मरण लिखता हूं।


जीवन को किस रूप में परिभाषित करना चाहेंगे आप?


मुझे तो लगता है कि जीवन जीते चले जाने की चीज है, जो दिनचर्या का दुहराव मात्र है। शेष कुछ आपके हाथ मे नहीं है। लेकिन मेरा मानना है कि जीवन सार्थकता को तलाश करते हुए जिया जाना चाहिए। दूसरे शब्दों में यही रचनात्मकता है और इसी से आप वृहत समुदाय से जुड़ते हैं।



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कैलाश मनहर

 कहते हैं जिसे अच्छा साहित्य पढ़ने का शौक लग जाता है उसके जीवन में से झूठ ख़त्म होने लगता है और वह ख़ुद भी सच कहने की कोशिश करने लगता है | ऐसा साहित्य प्रेमी पाठक स्वयं भी कुछ रचने लगता है | हालांकि ऐसे पाठक की रचना में प्राय: अनगढ़ता होती है लेकिन यदि उसे प्रोत्साह प्राप्त हो तो उसकी रचनात्मकता में काफ़ी संभावनायें भी बन सकती हैं |

हनुमान सहाय ऐसे ही साहित्य प्रेमी हैं जो स्वयं भी रचनात्मक प्रयत्न करते रहते हैं | प्रस्तुत हैं हनुमान सहाय की कुछ रचनायें | इन्हें कवि के रूप में नहीं बल्कि कविताओं से प्रभावित एक सामान्य पाठक के रचनात्मक  प्रयास के रूप में पढ़ कर टिप्पणी करें |

#आज_हनुमान_सहाय_जी_का_जन्मदिन है 

💓💓 बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएँ 


(एक) 

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भेड़िया,बहका रहा है,मेमनों को आज फिर।

तुम मुझे राजा चुनो,सिर पे रक्खो ताज फिर।।


ना समझ है मेमने अंजाम से नावाकिफ हैं वो।

प्राण संकट में पड़ेंगे, गिरने वाली गाज फिर।।


एक महाभारत यहाँ पर दाव पर नारी लगी।

द्रोण भीष्म मौन सारे,कौन बचाये लाज फिर।।


नफरतों की  दुंदुभि बजने लगी क्यों चारो ओर।

क्यों हुए खामोश बोलो,मोहब्बतों के साज फिर।।


चारागर नाकाम अपना, उससे कोई क्या उम्मीद।

लाइलाज  अब मर्ज सारे,कोढ़ में है खाज फिर।।

(दो) 

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गर्दिशों का दौर है।

और विकास का शोर है।।


है लम्बी काली रातें

तुम कहते हो भोर है।।


सपने देखे थे सुख के।

दुखता पोर पोर है।।


कृषक सदा लुटता पिटता।

लूटे जमाखोर हैं।।


खामौशी से जुल्म सह रही।

ये जनता कमजोर है।।

(तीन) 

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सौ में से जब सत्तर लोग  भूख से बेहाल हैं।

कौन कहता है कि मेरा देश बहुत खुशहाल है।।


एक तरफ है तोंद मोटी, चर्बी है छाई हुई।

दूजी तरफ है पेट चिपका, और पिचके गाल हैं।।


आमजन इस देश  में चाहता हमेशा ही अमन।

हो यहाँ दंगा ओ बलवा, ये सियासी चाल है।।


सोच ले अंजाम क्या होगा, जो ये कट जाएगी।

जिस पे तू बैठा हुआ है, ये वो ही तो डाल है।।


मछलियाँ जाएँ कहाँ, कुछ समझ आता नहीं।

झील ही सारी यहाँ पर मछवारे का जाल है।।

(चार) 

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जुल्मी के जयकारे कब तक।

 ये झुठे वादे नारे कब तक।।


रात चांदनी तो ओझल है।

दिन में देखें तारे कब तक।।


ले दे के बस जान बची है।

इसको तुझ पर वारें कब तक।।


सच की भी तो कद्र करो अब।

बेईमान से हारें कब तक।।


जागो यारो चेत भी जाओ।

यूँ ही रहें बेचारे कब तक।।

(पाँच) 

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मरहम मांगो हकीम से  वो घाव देता है।

सीधी-सी बात को बहुत घुमाव देता है।।


चाहते हम तो अमन ,फिर फसाद क्यों।

 क्यों मजहबी उन्माद का तनाव देता है।।


चापलूसी तो उसे खूब रास आती है।।

बात सच कहो, मूंछ पर ताव देता है।।


फूलों से  उसको इतनी सख्त नफ़रत है।

जब भी देखो कांटों को ही भाव देता है।।


बातें करता बहुत-सी दिल जीतने वाली।

 लेकिन जब भी देखो वो बस छलाव देता है।।

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खुशवन्त सिंह

 



खुशवन्त सिंह (जन्म: 2 फ़रवरी 1915, मृत्यु: 20 मार्च 2014) भारत के एक प्रसिद्ध पत्रकार, लेखक, उपन्यासकार और इतिहासकार थे। एक पत्रकार के रूप में उन्हें बहुत लोकप्रियता मिली। उन्होंने पारम्परिक तरीका छोड़ नये तरीके की पत्रकारिता शुरू की। भारत सरकार के विदेश मन्त्रालय में भी उन्होंने काम किया। 1980 से 1986 तक वे राज्यसभा के मनोनीत सदस्य रहे।[1]


खुशवन्त सिंह जितने भारत में लोकप्रिय थे उतने ही पाकिस्तान में भी लोकप्रिय थे। उनकी किताब ट्रेन टू पाकिस्तान बेहद लोकप्रिय हुई। इस पर फिल्म भी बन चुकी है। उन्हें पद्म भूषण और पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया। उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन एक जिन्दादिल इंसान की तरह पूरी कर्मठता के साथ जिया।


खुशवन्त सिंह का जन्म 2 फ़रवरी 1915 को हदाली, पंजाब (अविभाजित भारत) में एक सिख परिवार में हुआ था। उन्होंने गवर्नमेण्ट कॉलेज, लाहौर और कैम्ब्रिज यूनीवर्सिटी लन्दन में शिक्षा प्राप्त करने के बाद लन्दन से ही क़ानून की डिग्री ली। पढ़ाई के क्षेत्र में आरम्भ से ही वे अपने स्वच्छंद स्वभाव के कारण बहुत अच्छे नहीं थे और कॉलेज तक की परीक्षाओं में उन्हें प्रायः तृतीय श्रेणी ही प्राप्त हुई।[2] कानून की डिग्री लेने के बाद उन्होंने लाहौर में वकालत शुरू की। उनके पिता सर सोभा सिंह अपने समय के प्रसिद्ध ठेकेदार थे। उस समय सोभा सिंह को आधी दिल्ली का मालिक कहा जाता था।


खुशवन्त सिंह का विवाह कँवल मलिक के साथ हुआ था। इनके पुत्र का नाम राहुल सिंह और पुत्री का नाम माला है। उनका निधन 99 साल की उम्र में 20 मार्च 2014 को नई दिल्ली में हुआ।[3][4]


पेशा

एक पत्रकार के रूप में भी खुशवन्त सिंह ने बहुत ख्याति अर्जित की। 1951 में वे आकाशवाणी से जुड़े थे और 1951 से 1953 तक भारत सरकार के पत्र 'योजना' का संपादन किया। 1980 तक मुंबई से प्रकाशित प्रसिद्ध अंग्रेज़ी साप्ताहिक 'इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ़ इंडिया' और 'न्यू डेल्ही' के संपादक रहे।


1983 तक दिल्ली के प्रमुख अंग्रेज़ी दैनिक 'हिन्दुस्तान टाइम्स' के संपादक भी वही थे। तभी से वे प्रति सप्ताह एक लोकप्रिय 'कॉलम' लिखते हैं, जो अनेक भाषाओं के दैनिक पत्रों में प्रकाशित होता है। खुशवन्त सिंह उपन्यासकार, इतिहासकार और राजनीतिक विश्लेषक के रूप में विख्यात रहे हैं।


साल 1947 से कुछ सालों तक खुशवन्त सिंह ने भारत के विदेश मंत्रालय में महत्त्वपूर्ण पदों पर कार्य किया। 1980 से 1986 तक वे राज्यसभा के मनोनीत सदस्य भी रहे।


लेखन कार्य एवं प्रकाशन

खुशवंत सिंह मुख्यतः कथाकार हैं। उपन्यास एवं कहानियों के क्षेत्र में उनका योगदान उनके लेखन में प्राथमिक महत्व का है। परंतु, इसके अतिरिक्त व्यंग्य-विनोद-मिश्रित विचारपरक एवं इतिहास के क्षेत्र में भी उनका योगदान महत्वपूर्ण है। संस्मरण एवं आत्मकथा लिख कर भी उन्होंने प्रसिद्धि प्राप्त की है। वर्तमान संदर्भों और प्राकृतिक वातावरण पर भी उनकी कई रचनाएँ हैं। दो खंडों में प्रकाशित 'सिक्खों का इतिहास' उनकी प्रसिद्ध ऐतिहासिक कृति है। हालाँकि इस इतिहास में अभिव्यक्त कुछ तथ्यों की प्रामाणिकता पर संदेह भी व्यक्त किया गया है।[2] साहित्य के क्षेत्र में पिछले सत्तर वर्ष में खुशवन्त सिंह का विविध आयामी योगदान महत्त्वपूर्ण रहा है।


खुशवन्त सिंह के उपन्यासों में प्रसिद्ध हैं - 'डेल्ही', 'ट्रेन टू पाकिस्तान', 'दि कंपनी ऑफ़ वूमन'। इसके अलावा उन्होंने लगभग 100 महत्वपूर्ण किताबें लिखी। अपने जीवन में सेक्स, मजहब और ऐसे ही विषयों पर की गई टिप्पणियों के कारण वे हमेशा आलोचना के केंद्र में बने रहे। उन्होंने इलेस्ट्रेटेड विकली जैसी पत्रिकाओं का संपादन भी किया।

खो गयी कहीं चिट्ठियां

 प्रस्तुति  *खो गईं वो चिठ्ठियाँ जिसमें “लिखने के सलीके” छुपे होते थे, “कुशलता” की कामना से शुरू होते थे।  बडों के “चरण स्पर्श” पर खत्म होते...