शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2021

हमारा शरीर और ग्रहों का वास

 *ग्रहों का शरीर में स्थान….*

सौर मंडल में जिस तरह नौ ग्रहों का अस्तित्व है,ठीक उसी 

मानव शरीर में भी नौ ग्रह मौजूद हैं।ll 

ये ग्रह शरीर के विभिन्न अंगों में


उपस्थित हैं।

ग्रहों का संबंध मानवीय चिंतन से है


और चिंतन का संबंध मस्तिष्क से है।

चिंतन का आधार सूर्य है।

इसीलिए हमारे आदि ऋषियों ने


सूरज का स्थान मानव शरीर में


माथे पर माना है।

ब्रह्मा रंध्र से एक अंगुली नीचे सूर्य


का स्थान है।

इससे एक अंगुली और नीचे की


ओर चंद्रमा है।

चंदमा इंसान को भावुकता और


चंचलता से जोड़ता है,साथ ही


कल्पना शक्ति से भी।

चूंकि चंदमा को सूर्य से रोशनी


लेनी पड़ती है,इसीलिए चंद्रमा


का सूर्य के साये में नीचे रहना


आवश्यक है।

सूर्य के तेज का उजाला जब


चंद्रमा पर पड़ता है,तब इंसान


की शक्ति,ओज,वीरता चमकती है।

ये गुण चिंतन की प्रखरता से ही


निखरते हैं।

गरुड़ पुराण के अनुसार मंगल


का स्थान मानव के नेत्रों में माना


जाता है।

मंगल शक्ति का प्रतीक है।


यह प्रतिभा और रक्त से संबंध


रखता है।

मानव की आंख मन का आईना


है,जैसे शिव का तीसरा नेत्र उनके


क्रोध का प्रतीक है।

इंसान के मन की अवस्था को भी


आंखों से पढ़ा और समझा जा


सकता है।

हमारे भीतर की मजबूती या


कमजोरी का पता आंखों से


चल जाता है।

इसलिए मंगल ग्रह का स्थान


नेत्रों को माना गया है।

बुद्ध का स्थान मानव के हृदय में है।


बुद्ध बौद्धिकता का प्रतीक है।


यह वाणी का कारण भी है।

हमें किसी आदमी का व्यवहार,


काव्य शक्ति अथवा प्रवचन शक्ति


जाननी हो,तो हम रमल ज्योतिष


शास्त्र के अनुसार बुद्ध ग्रह को


विशेष रूप से देखते हैं।

गुरु या बृहस्पति ग्रह का स्थान


नाभि होता है।


बृहस्पति वेद-पुराणों के ज्ञाता हैं।


ये समस्त शास्त्रों के ज्ञाता होने के


साथ ही अथाह ज्ञान के प्रतीक होते हैं।

आपने गौर से देखा होगा कि विष्णु की


नाभि से कमल का फूल खिला है।


उससे ब्रह्मा की उत्पत्ति मानी गई है


और इसलिए बृहस्पति का स्थान


नाभि में है।


बृहस्पति देवों के गुरु भी हैं।

शुक्र ग्रह का स्थान वीर्य में होता है।


शुक्र दैत्यों के गुरु हैं।


मानव की सृष्टि शुक्र की महिमा से


ही गतिमान है।


कामवासना,इच्छाशक्ति का प्रतीक


शुक्र है।

शनि का स्थान नाभि गोलक में है।


नाभि ज्ञान,चिंतन और खयालों की


गहराई की प्रतीक मानी जाती है।

ज्योतिष शास्त्र द्वारा हमें किसी


व्यक्ति के चिंतन की गहराई देखनी


हो तो हमें उसके शनि ग्रह की स्थिति


जाननी होती है।

चिंतन की चरम सीमा अथाह ज्ञान है।

ज्योतिष के अनुसार यदि किसी व्यक्ति


में एक ही स्थान पर शनि और गुरु एक


निश्चित अनुपात में हों तो व्यक्ति खोजी,


वेद-पुराणों का ज्ञाता,शोधकर्ता और

शास्त्रार्थ करने वाला होता है।

राहु ग्रह का स्थान इंसान के मुख में


होता है।


राहु जिस ग्रह के साथ बैठता है,वैसा


ही फल देता है।


यदि मंगल ग्रह की शक्ति इसके पीछे


हो तो जातक क्रोध और वीरतापूर्ण


वाणी बोलेगा।

यदि बुद्ध की शक्ति पीछे हो तो व्यक्ति


मधुर वाणी बोलेगा।


यदि गुरु की शक्ति पीछे हो तो ज्ञानवर्धक


और शास्त्रार्थ की भाषा बोलेगा।

यदि शुक्र ग्रह की शक्ति पीछे हो तो


जातक रोमांटिक बातें करेगा।

केतु ग्रह का स्थान हृदय से लेकर


कंठ तक होता है।


साथ ही केतु ग्रह का संबंध गुप्त


चीजों या किसी भी कार्य के रहस्यों


से भी होता है।

इंसान के शरीर में ये सभी नौ ग्रह


अपनी-अपनी जगह पर निवास


करते हैं और रक्त प्रवाह के जरिए


एक-दूसरे का प्रभाव ग्रहण करते हैं।

इसलिए यदि हम अपने शरीर को


स्वस्थ और नीरोग रखेंगे तो सभी


ग्रह शांत और मददगार होंगे।

जैसा कि सभी जानते हैं,स्वस्थ


शरीर हमें अध्यात्म की ओर बढ़ने


में मदद करता है।

जगदीश बरनवाल कुंद अबतक उपेक्षित क्यों ?

(आजमगढ़ : माटी के लाल) / हिंदी संस्थान का सम्मान तो उन्हें पहले मिल जाना चाहिए था..!


@ अरविंद सिंह


जी हाँ, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का 'पांडेय बेचने शर्मा उग्र' सम्मान आजमगढ़ के सुप्रसिद्ध साहित्यकार जगदीश बरनवाल कुंद को मिलने की खब़र आ रही है. सच कहें तो यह देर से ही सही, सरकार द्वारा सही व्यक्ति का सम्मान है, अगर साहित्य में सियासत और सत्ता की गणेश परिक्रमा का युग नहीं होता और जुगाड़ संस्कृति का इस कदर कुप्रभाव नहीं होता तो यह सम्मान उन्हें कम से कम दशक भर पहले मिल जाना चाहिए था. इस सम्मान से जगदीश बरनवाल कुंद जैसा साहित्यकार नहीं सम्मानित होता, बल्कि उन्हें देकर सरकारें सम्मानित होतीं. 

 मेरा मानना है कि कुछ शख्सियत ऐसी भी होती हैं जिनके सम्मानित होने से समाज सम्मानित महसूस करता है, साहित्य और साहित्य अनुरागी सम्मानित महसूस करते हैं. क्योंकि वह साहित्यकार उस व्यापक जनमानस की मुखर अभिव्यक्ति होता  है, वह अपने समाज के दुख सुख और परिवेश का दर्पण होता है. अपने समय की तहरीर और स्वतंत्र आवाज़ होता है. 

कुंद जी उसी धारा की मुसाफिर हैं, 'ना कहूँ से दोस्ती और ना कहूँ से बैर', खेमेबाजी और साहित्य की सियासत से दूर अपने रौव में, रचना संसार में बहे जाना, रचते जाना. किसी सम्मान और पुरस्कार की बाड़बंदी से निर्मुक्त होकर साहित्य आकाश में  किसी आजाद पक्षी के मानिंद उड़ते जाना और सृजन करते जाना. लेकिन देर से सही इस सुकून भरे समाचार के मिलने से पूरा आजमगढ़ सम्मानित महसूस कर रहा है. उनकी हाल में प्रकाशित किताब "राहुल सांकृत्यायन: जिन्हें सीमाएं नहीं रोक सकीं" पर हिंदी संस्थान का यह सम्मान मिला है.  

  इन पंक्तियों का लेखक जब भी मिला एक अपनापन और सहृदयता से लबरेज कुंद जी ने आत्मीयता से स्नेह दिया. उनके रचना संसार का सही मूल्यांकन यदि हुआ होता तो आजमगढ़ को ऐसे कई सम्मान पहले ही मिल गये होते. लेकिन एक बात जरूर कहूंगा- कुंद जी के रचना संसार का जब भी मूल्यांकन होगा. आजमगढ़ का यह सितारा साहित्य आकाश में चमकता नज़र आएगा.  या यूँ कहूँ तो -'' आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों, परसों नहीं तो बरसों बाद डायनासोर के जीवाश्म की तरह अध्ययन किए जाएंगे जगदीश बरनवाल कुंद." आप मानो या न मानों. 

 एक फिर हृदय की अतल गहराइयों से मुबारक़बाद हो कुंद जी, बधाइयाँ सर!

नोट- जिनकी दो किताबें  क्रमश:-  #विदेशी विद्वानों का संस्कृत प्रेम, #विदेशी विद्वानों का हिंदी प्रेम, देश और दुनिया में पढ़ी जाती हैं.


स्वाभिमानी आज़मगढ़ी  Aap Azamgarh  Azamgarh Congress

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2021

रश्मि शर्मा की कहानी 'निर्वसन'*

 *कथा-संवेद – 12*




भारत और दुनिया के साहित्येतिहास में मिथकों के पुनर्लेखन की एक सुदीर्घ परंपरा रही है। *‘निर्वसन’* के केंद्र में सीता द्वारा दशरथ के पिंडदान की कथा है। फल्गू नदी के किनारे घटित इस कथा में सीता और राम पौराणिक या पारलौकिक पात्रों की तरह नहीं, बल्कि सामान्य स्त्री-पुरुष की तरह परस्पर बर्ताव करते हैं। स्त्री-पुरुष के बीच घटित होनेवाली स्वाभाविक परिस्थितियों के रेशे से निर्मित यह कहानी मिथकीय कथा-परिधि का अतिक्रमण कर बहुत सहजता से समकालीन यथार्थ के धरातल पर अपना आकार ग्रहण करती है। मिथक की जादुई संरचना में स्मृति, भ्रम, संभावना और पूर्वदीप्ति के उपकरणों से प्रवेश करती यह कहानी आधुनिक लैंगिक विमर्श का एक व्यावहारिक और विश्वसनीय पाठ तो रचती ही है, हमेशा से कही-सुनी गई मिथकीय कथा के छूट गये या कि छोड़ दिये गये पक्षों को भी संभाव्य की तरह प्रस्तुत करती है। नदी, वनस्पति और मानवेतर प्राणियों की सजीव उपस्थिति के बीच इस कहानी के चरित्र जिस तरह अपने मौलिक और आदिम स्वरूप में आ खड़े होते हैं, उसी में इसके शीर्षक की सार्थकता सन्निहित है। एक ऐसे समय में जब मिथकों की पुनर्प्रस्तुति के बहाने यथास्थितिवाद का उत्सव मनाया जा रहा हो, इस कहानी में प्रश्न, प्रतिरोध और तार्किकता की प्रस्तावना आश्वस्तिकारक है।


*कहानी पढ़ने के लिये कथा-संवेद का लिंक*


https://samved.sablog.in/katha-samved-12-rashmi-sharma/


*कथाकार की आवाज़ में कहानी का लिंक*


https://youtu.be/fZH8oTJeTN0

बुधवार, 24 फ़रवरी 2021

बांग्ला साहित्य पर केंद्रित निकट का एक संग्रहणीय अंक / सुभाष नीरव अंक

 निकट : बांग्ला साहित्य पर केंद्रित अंक / सुभाष नीरव 

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इसमें कोई दो राय नहीं कि भारतीय भाषाओं का साहित्य बहुत समृद्ध और अमीर रहा है। इसकी झलक अनुवाद के माध्यम से हिन्दी पाठकों को मिलती रही है। हिन्दी की छोटी-बड़ी पत्रिकाओं और अखबारों की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता जो समय समय पर भारतीय भाषाओं में लिखे जा रहे श्रेष्ठ साहित्य को अनुवाद के जरिये अपने पाठकों से रू-ब-रू करवाती रहती हैं। कोई भी व्यक्ति सभी भाषाओँ को नहीं सीख सकता है। उसे अन्य भाषाओं के साहित्य को पढ़ने, जानने-समझने के लिए अनुवाद पर ही आश्रित रहना पड़ता है। मैंने स्वयं विश्व का क्लासिक साहित्य ही नहीं, अपितु भारतीय भाषाओं के श्रेष्ठ साहित्य को अनुवाद के माध्यम से ही पढ़ा है। अनुवाद की महत्ता को समझते हुए बहुत सी पत्र पत्रिकाएं अनूदित रचनाएं अब स्थायी तौर पर नियमित छापने लगी हैं। पर दूसरी भाषाओं का साहित्य अभी हिन्दी पाठकों के सम्मुख टुकड़े टुकड़े रूप में आता है। ऐसे में हिन्दी की कुछ पत्रिकाओं ने भारतीय भाषाओं के साहित्य पर केंद्रित विशेषांक प्रकाशित कर बड़े काम भी किये हैं जिससे हिंदी के साहित्यप्रेमी पाठक को किसी भाषा का साहित्य एक स्थान पर समग्र रूप में पढ़ने को उपलब्ध हो जाता है। पिछली सदी के अंतिम वर्षों में हिन्दी की प्रसिद्ध पत्रिका 'कथादेश' ने 'उर्दू कहानी विशेषांक' और 'पंजाबी कहानी विशेषांक' प्रकाशित किये जो हिन्दी पाठकों द्वारा बड़े पैमाने पर सराहे और पसंद किए गए। इससे पहले 'सारिका' पत्रिका भी ऐसा करती रही। 'मंतव्य'और 'हिन्दी चेतना' ने भी 'पंजाबी कहानी' पर केंद्रित विशेष अंक प्रकाशित किये। 


ऐसा ही बेहद महत्वपूर्ण काम कथाकार कृष्ण बिहारी जी ने किया। उन्होंने अपनी पत्रिका 'निकट' का अक्टूबर-दिसम्बर 2020 अंक बांग्ला साहित्य पर केंद्रित कर उसे पूजा विशेषांक के रूप में हिन्दी के विशाल पाठकों को उपलब्ध करवाया। यह बहुत ज़रूरी और दस्तावेजी अंक  हिन्दी के वरिष्ठ लेखक श्याम सुंदर चौधरी के अतिथि संपादन में आया है। श्याम सुंदर चौधरी हिन्दी-बांग्ला के साहित्यप्रेमियों में एक जाना-माना नाम हैं। वह हिन्दी में वर्षों से कहानियां लिख रहे हैं, अनेक कहानी संग्रह उनके प्रकाशित हो चुके हैं, वह फ़िल्म पत्रकारिता से भी जुड़े रहे हैं। सिनेमा पर इनके अनेक लेख अंग्रेजी-हिन्दी में छपते रहे हैं। इस सबके के साथ साथ उनका एक मजबूत पक्ष वर्षों से अनुवाद के रूप में हमारे सामने आता रहा है। वह हिन्दी से बांग्ला और बांग्ला से हिन्दी अनुवाद क्षेत्र में एक बड़े और समर्थ अनुवादक के रूप में जाने जाते हैं। अनुवाद की अनेक किताबें उनके खाते में चढ़ चुकी हैं। इनकी इसी प्रतिभा को देखते हुए शायद कृष्ण बिहारी जी ने इन्हें 'निकट' के बांग्ला साहित्य पर केंद्रित अंक का कार्य सौंपा होगा। और इस अंक को देख-पढ़ कर चौधरी की कार्य क्षमता और प्रतिभा का कायल होना पड़ता है। इस अंक में उन्होंने अपने दायित्व को बड़ी ईमानदारी से बखूबी निभाया है। श्याम सुंदर चौधरी ने इस अंक के लिए कहानियों, लघुकथाओं, साक्षात्कारों, कविताओं और अन्य रचनाओं का स्वयं चयन ही नहीं किया, बल्कि उन सबका स्वयं अनुवाद भी किया, जो निसंदेह चयन प्रक्रिया से कहीं अधिक श्रमसाध्य और दुष्कर कार्य है। बांग्ला के 13 कहानीकारों की कहानियां, छह लेखकों की लघुकथाएं, सात कवियों की कविताएं तो इस अंक में पढ़ने को मिलती ही हैं, इसके साथ साथ बांग्ला के प्रख्यात लेखक सुनील दास का  श्याम सुंदर चौधरी द्वारा लिया गया एक महत्वपूर्ण साक्षात्कार भी पढ़ने को मिलता है। बांग्ला साहित्य की बात हो और नाटक पर बात न हो, ऐसा नहीं हो सकता। 'नाट्य प्रसंग' इस अंक का ऐसा ही विशिष्ठ हिस्सा है।

रवींद्र नाथ टैगोर, शरतचंद्र चट्टोपाध्याय, विभूतिभूषण बंधोपाध्याय, विमल मित्र, शचीन्द्रनाथ वंधोपाध्याय, वरेन गंगोपाध्याय, बुद्धदेव गुहा, झरा बसु, सुनील दास, तपन बंधोपाध्याय, असित कृष्ण डे, राणा चट्टोपाध्याय, दुर्गादास चट्टोपाध्याय की कहानियों, रवींद्रनाथ टैगोर, दुर्गादास चट्टोपाध्याय, प्रगति माइति, दिलीप चौधरी, रमेन्द्रनाथ भट्टाचार्य, कृपाण मोइत्रा की लघुकथाओं और गौरीशंकर वंधोपाध्याय, शंकर चक्रवर्ती, श्यामल कांति दास, तापस ओझा, गौतम हाज़रा और स्वरूप चंद की कविताओं से गुजरते हुए यह बात पुख्ता हो जाती है कि बांग्ला में  विचार और संवेदना की दृष्टि से लिखा और लिखा जा रहा साहित्य बहुत विशिष्ट और उत्तम साहित्य है।


सबसे अच्छी बात मुझे यह लगी कि श्याम सुंदर चौधरी ने बांग्ला में लिखी जा रही लघुकथाओं को भी अपनी चयन प्रक्रिया में तरजीह दी।


एक कमी इस अंक में मुझे जो खली, वह यह कि इस अंक में बांग्ला के युवा कथाकारों और कवियों का प्रतिनिधित्व न के बराबर हुआ है। बांग्ला में नई पीढ़ी के लोग क्या और कैसा लिख रहे हैं, हिन्दी के पाठक को इसकी भी जानकारी इस अंक से मिलती तो अधिक बेहतर होता और अंक और भी अधिक मजबूत बन पड़ता।


अंत में, अतिथि संपादक के तौर पर चौधरी ने अपने संपादकीय में अनुवाद को लेकर बहुत महत्वपूर्ण और जायज़ प्रश्नों को उठाया है। ये प्रश्न नए हैं और ग़ौरतलब हैं। अनुवाद की पीड़ा को एक अनुवादक ही बेहतर समझता है। मैंने स्वयं कई मंचों से अनुवाद से जुड़ी पीड़ाओं को साझा किया है। आज भी अनुवादक के श्रम को वो मान-सम्मान और मेहनताना नहीं मिलता, जिसका वह  अधिकारी होता है। अभी भी साहित्य समाज में अनुवाद के श्रमसाध्य काम को दोयम दर्जे का समझ कर उसकी अवहेलना की जाती है। यही कारण है कि साहित्यिक अनुवाद क्षेत्र में समर्पित भाव से बहुत कम लोग आना पसंद करते हैं।

बहरहाल, इस महती कार्य के लिए निकट के संपादक कृष्ण बिहारी जी और श्याम सुंदर चौधरी, दोनों ही बधाई के पात्र हैं।

-सुभाष नीरव

23 फरवरी 2021

अच्छी आदतें कैसे डाली जाय-

आदतें  ही मनुष्यता की पहचान है



प्रस्तुति -  अनिल कुमार चंचल 



बिना मनोयोग के कोई काम नहीं होता है। मन के साथ काम का सम्बन्ध होते ही चित्त पर संस्कार पड़ना आरंभ हो जाते हैं और ये संस्कार ही आदत का रूप ग्रहण कर लेते हैं। मन के साथ काम के सम्बन्ध में जितनी शिथिलता होती है, आदतों में भी उतनी ही शिथिलता पाई जाती है। यों शिथिलता स्वयं एक आदत है और मन की शिथिलता का परिचय देती है।


असल में मन चंचल है। इसलिए मानव की आदत में चंचलता का समावेश प्रकृति से ही मिला होता है। लेकिन दृढ़ता पूर्वक प्रयत्न करने पर उसकी चंचलता को स्थिरता में बदला जा सकता है। इसलिए कैसी भी आदत क्यों न डालनी हो, मन की चंचलता के रोक थाम की अत्यन्त आवश्यकता है और इसका मूलभूत उपाय है- निश्चय की दृढ़ता। निश्चय में जितनी दृढ़ता होगी, मन की चंचलता में उतनी ही कमी और यह दृढ़ता ही सफलता की जननी है।


जिस काम को आरम्भ करो, जब तक उसका अन्त न हो जाय उसे करते ही जाओ। कार्य करने की यह पद्धति चंचलता को भगाकर ही रहती है। कुछ समय तक न उकताने वाली पद्धति को अपना लेने पर फिर तो मनोयोग पूर्वक कार्य में लग जाने की आदत हो जाती है। तब मन अपनी आदत को छोड़ देता है अथवा बार बार भिन्न भिन्न चीजों पर वृत्तियाँ जाने की अपेक्षा एक पर ही उसकी प्राप्ति तक दृढ़ रहती है।


मन निरन्तर नवीनता की खोज करता है। यह नवीनता प्रत्येक कार्य में पाई जाती है कार्य की गति जैसे जैसे सफलता की ओर होती है, उसमें से अनेक नवीनताओं के दर्शन होने आरंभ होते हैं। मन की स्थिति उस कार्य पर रहे-उसे छोड़कर दूसरे को ग्रहण करने के लिए नहीं-बल्कि उसी कार्य में अनेक नवीनताओं को देखने के लिए। मन की यह गति जितनी विशाल, जितनी सूक्ष्मदर्शिनी बनेगी, मन की एक काम छोड़कर दूसरे काम को अपनाने की वृत्ति में उतनी ही कमी आवेगी, दृढ़ता उतनी ही अधिक होगी।


आदत डालने के लिए निष्ठा एवं दृढ़ संकल्प की आवश्यकता होती है। निष्ठा और दृढ़ संकल्प के लिए बुद्धि की तैयारी चाहिए। बुद्धि की मन पर अंकुश रखने की तैयारी हो तो संकल्प में भी दृढ़ता आती है और निष्ठा में भी। इसलिए ऐसे कार्यों को छोड़ने के लिए सतर्क रहना चाहिए जो बुद्धि को मन का दास बनाने वाले हों। बुद्धि का दासत्व स्थिरता का दुश्मन है, क्योंकि जब वह चंचल मन की आज्ञाकारिणी या वशवर्तिनि होगी तो निश्चित रूप से वह चंचल हो जायगी।


मन और बुद्धि पर अंकुश रखकर योग्य बनाने के लिए जीवन को प्रयोगावस्था में डालने की आवश्यकता है। इसके लिए मनुष्य को किसी भी निर्णित कार्यक्रम अनुसार चलने का निश्चय करना पड़ता है। कल जो करना है उसके लिए आज ही कार्यक्रम बना लेना चाहिए। साथ ही सोने के पूर्व उस कार्यक्रम पर दृढ़ रहने का निश्चय कर लेना चाहिए।


जो लोग रात को अधिक देर तक जागते रहते है उनके शरीर में आलस्य भरा रहता है इसलिए शरीर का यह आलसीपन कार्यक्रम को पूरा करने में सहायक नहीं होता बल्कि बाधक होता है। इसलिए शरीर का निरालस रहना भी कार्य साधन का एक अंग है। रात में जल्दी सोना और सवेरे जल्दी उठना आलस्य को जमने नहीं देता। साथ ही बुद्धि को सूक्ष्म आहिणी बनाता है जिस बुद्धि पर कि जीवन का सारा दारोमदार है।


‘बेकार न बैठो’ एक ऐसा सबक है जो मनुष्य को आलसी बनने से रोकता है। आलसी बनना मन को चंचल बनाना है और काम करना मन को एकाग्र करने का साधन है। काम करने के दो प्रकार हैं। पहला प्रकार है नियमित काम करना। नियमित काम करने से मन की चंचलता घटती है पर अनियमित काम करने की ओर जाना ही चंचलता का चिह्न माना जाता है। इसलिए यह पहले ही लिखा जा चुका है कि हमें प्रतिदिन सोने के पूर्व दूसरे दिन कार्यक्रम को निश्चित कर लेना चाहिए। या ध्यान रखने की बात इतनी ही है कि नियमित रूप तथा व्यवस्थित ढंग से काम करने के लिए कार्यक्रम की आवश्यकता है, लेकिन इसका अर्थ कार्यक्रम के वशवर्ती होकर काम करना नहीं है। किसी चीज का दास होना बुरा है, उस नियन्त्रण करना ही लक्ष्य है। इसलिए कार्यक्रम नियन्त्रण स्थापन करने का साधन है कि साध्य। कार्यक्रम बना लेने के अनन्तर अकस्मात दूसरे दिन किसी अन्य कार्य करने आवश्यकता हो जावे तो कार्यक्रम में रद्दोबदल कर देना बुरा नहीं है। लेकिन मन की चंचलता के कारण या अपने आलस्य अथवा प्रमाद के कारण कार्य को न करना एक प्रकार की भयानक आदत को जन्म देता है जो कि मनुष्य सफलता से दूर निराशा के खाई खंदकों में पटक देती है, इसलिए आरंभ से ही सावधान रहना चाहिए और बिना किसी आवश्यक प्रयोजन उपस्थित हुए निश्चित कार्यक्रम एवं निश्चित समय की अवहेलना नहीं करनी चाहिए।


जो कार्य जितने समय में सुचारु रूप से हो सके उसे उतने ही समय में पूरा करना नहीं है। जल्दी करके कार्य को बिगाड़ देने से कार्यक्रम की पूर्ति नहीं होती इसलिए कार्य की सुन्दरता की रक्षा करने की ओर भी ध्यान रखने की आवश्यकता है। जिसके सामने सौंदर्य का लक्ष्य रहता है वह जल्दीबाजी से बचा रहता है और काम को बिगड़ने नहीं देता।


प्रायः देखा जाता है कि जल्दीबाजी समय की बचत नहीं करती बल्कि कार्यसिद्धि के समय को और बढ़ा देती है। यह भी मन की चंचलता के कारण होता है। जिस समय मनोनिग्रह को अपना लिया जाता है उस समय जल्दीबाजी की वृति स्वयं ही हट जाती है। इसके अतिरिक्त व्यवहार में शालीनता आती है, शिष्टता आती है, सौम्यता आती है जो कि मनुष्य को सम्पूर्ण रूप से चमका देती है और उसका प्रभाव मनुष्य के अन्तःकरण पर ही नहीं होता बाहरी आचरण खान पान पहनाव उढ़ाव पर भी होता है। सफलता पाने की कुँजी आदतों का निर्माण है, इसलिए अपनी आदतों पर ठीक रूप से निगरानी रखने की आवश्यकता है।

संकलित-


।। जय माँ शारदे ।।

मंगलवार, 23 फ़रवरी 2021

राधेसाम जी का तमगा / आलोक यात्री

 राधेसाम जी का तमगा / आलोक यात्री



  हुआ यूं के... एम.ए. अंतिम वर्ष की परीक्षा देने से पहले ही मैं एक्सिडेंटल जर्नलिस्ट हो गया। कॉलेज से लौटते हुए एक दिन प्रलयंकर अखबार के मालिक संपादक श्री तेलूराम कांबोज जी ने हाथ पकड़ कर मुझे भाई श्री विनय संकोची के हवाले कर दिया। जर्नलिज्म में सलीके से एडजेस्ट हो पाता उससे पहले ही प्रलयंकर से मेरा डेरा-तंबू उखड़ गया। मेरा नया ठिकाना बना लखनऊ। जहां मुझे देश की नामी गिरामी दवा कंपनी में मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव का ओहदा मिल गया। लखनऊ लखनऊ ठहरा। नवाबों का शहर। मेरी ननिहाल और पिताश्री की ससुराल। भला हम से बड़ा नवाब कौन था?

  एक उल्ट बात यह हुई कि भाई संकोची जी लखनऊ से गाजियाबाद पहुंचे थे और मैं वहां से लखनऊ। संकोची जी अखबार में "कह संकोची सकुचाए" कॉलम लिखा करते थे। अखबार में छपने से पहले प्रूफ रीडिंग में ही मैं संकोची जी के सकुचाने का रसानंद ले लिया करता था। इस कॉलम के मुख्य पात्र फुल्लू जी थे और हैं। संकोची जी जिस खूबसूरती से कॉलम लिखते हैं मैं उनका आज भी कायल हूं। उत्सुकतावश मैं उनसे लिखे कॉलम की सच्चाई पूछता रहता था और संकोची जी लखनऊ के अमीनाबाद के एक नुक्कड़ के टी स्टॉल पर घटे घटनाक्रम को पूरी रोचकता से सुनाते थे। उनके किस्सों में ऐसी रोचकता होती थी कि फुर्सत में मैं अक्सर अमीनाबाद के उसी टी स्टॉल पर जा पहुंचता था। फुल्लू जी से मिलने की आस लिए।

  फुल्लू जी तो नहीं मिले अलबत्ता अदब की दुनिया में मेरी खासी घुसपैठ हो गई। उन दिनों लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ (पीडब्ल्यूए) और इंडियन पिपुल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) बेहद सक्रिय थे। गाजियाबाद के तीन-चार बिगड़े नवाब लखनऊ में पहले से ही विराजमान थे। जिनमें दिनेश खन्ना और अनिल शर्मा भारतेन्दु नाट्य अकादमी में अभिनय के छात्र थे। अकादमी महानगर के मेरे ठिकाने से अधिक दूर नहीं थी। गाहे-बगाहे अकादमी जाना हो जाता था। यदाकदा राज बिसारिया जी और अनुपम खेर के दर्शन भी हो जाते थे। 

  अवध में उन दिनों अदब का एक से एक बड़ा नवाब मौजूद था। जिनमें भगवती चरण वर्मा, यशपाल, अमृतलाल नागर, मुद्राराक्षस, बीर राजा, कामतानाथ, लीलाधर जगूड़ी, के. पी. सक्सेना, शकील सिद्दीकी जैसे कई नाम शामिल थे। हां शिवानी जी भी। जिनके दर पर मत्था टेकने मैं यदाकदा चला जाता था। पत्रकार जगत भी वहां काफी समृद्ध था। शैलेष जी रविवार, मंगलेश डबराल जी अमृत प्रभात, जयप्रकाश शाही जी जनसत्ता और प्रदीप कपूर बिलिट्स में होते थे। हजरतगंज के काॅफी हाउस की शामें इन्हीं लोगों से गुलजार होती थीं। यहीं मेरी मुलाकात "रामलीला" (नाटक) की टीम से हुई। जिनमें से अब मुझे राकेश और‌ मेराज का ही नाम याद है।

  इन नवाबों की संगत में एक्सीडेंटल जर्नलिस्ट का मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव का ताज डगमगाने लगा और तमाम कोशिशों के बाद भी फुल्लू जी मिलके ना दिए। हुआ यूं के... एक दिन भाई हेमंत कुमार का खत मिला। उन्होंने लिखा था कि हिन्ट छोड़ कर उन्होंने दैनिक सांस्कृतिक क्रांति अखबार ज्वाइन कर लिया है। गाहे-बगाहे अमृत प्रभात और स्वतंत्र भारत अखबार में मेरा लिखा छपने लगा था। हेमंत भाई ने उनके अखबार के लिए भी लिखने का आग्रह किया था। अखबार को जाने, देखे बिना लिखना फिजूल था। लिहाजा गाजियाबाद जाने के दौरान विवेकानंद नगर स्थित क्रांतिकारी अखबार के कार्यालय जा पहुंचा। जहां हेमंत जी के साथ वरिष्ठ पत्रकार जितेंद्र भारद्वाज जी भी विराजमान थे। भारद्वाज जी की अगुवाई में ही क्रांति होनी थी। दफ्तर के एक कोने में सबसे बड़ी मेज के पीछे बैठे शख्स से मेरा परिचय करवाया गया। अपना परिचय उन्होंने खुद ही दिया "राधेसाम गुप्ता छपरा वाले..."

  हुआ यूं के... बातचीत के दौरान कंपोजिटर एक प्रूफ ले कर भारद्वाज जी की ओर बढ़ा। लेकिन "इ का..." कहते हुए राधेसाम जी ने उसे बीच में लपक लिया। जवाब भारद्वाज जी ने दिया "मेरे विजिटिंग कार्ड का प्रूफ है।" 

  "इ का लिखे हो नाम के बाद..." राधेसाम जी ने पूछा

  "बीई..." भारद्वाज जी ने कहा

  "बीई का होत है...?" राधेसाम जी ने कौतूहल से पूछा

  "इंजीनियरिंग की डिग्री है..." भारद्वाज जी ने सहजता से जवाब दिया।

  "और ई ब्रेकिट मा...?" राधेसाम जी ने फिर पूछा

  "ये... मैकेनिकल... माने मैकेनिकल इंजीनियर..." जितेन्द्र भाई ने उत्साह से बताया

  "इ का... जन रल...?" राधेसाम जी ने अटकते हुए एक प्रश्न और उछाला। 

  "यह है डिप्लोमा इन जर्नलिज्म..." भारद्वाज जी ने गदगद भाव से कहा

  "और इ का ब्रेकिट मा... गोल्ड..." राधेसाम जी की प्रश्नावली लंबी होती जा रही थी।

  "यह... गोल्ड मेडलिस्ट... गोल्ड मेडल मिला था हमें यूनिवर्सिटी का जर्नलिज्म में...." जितेन्द्र भाई के इस रहस्योद्घाटन से मैं खुद अचंभित था। उनकी इस मेधा, प्रतिभा से मेरा साक्षात्कार पहली बार हुआ था। 

  राधेसाम जी भारद्वाज जी से मुखातिब होते हुए बोले "हमारा भी विजिटिंग कार्ड बनाओ... लिखेओ... राधेसाम गुप्ता..."

  "जी... राधेश्याम गुप्ता..." लिखते हुए भारद्वाज जी ने दोहराया

  "नहीं... राधेसाम गुप्ता...बीई..." 

  भारद्वाज जी ने कलम रोक कर अटकते हुए पूछा "बीई... कहां से किए...?"

  "छपरा से... अब का तुमका डिगरी दिखाएबे... आगे लिखेओ... डिप्लोमा इन जनरलीजम... ई तमगे वाली बात भी लिखेओ ब्रेकिट मा..."

  इमला लिखवा कर राधेसाम जी उसी टेबल पर जीमने लगे। चाय पीते हुए मेरा कॉलम लिखना मुकर्रर हो गया। "बात बेबात की..."। तो... हुआ यूं के... फुल्लू जी तो नहीं मिले अलबत्ता अपने काॅलम के लिए मुझे नायक "अझेल जी" जरूर मिल गया। 

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सोशल मीडिया और कामायनी / डॉ सकन्द शुक्ला

 जयशंकर प्रसाद की कामायनी का प्रथम पुरुष हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर बैठा भीगे नयनों से प्रलय-प्रवाह देख रहा है। वह नीचे कूद भी सकता है तैरने के लिए और गिर भी। गिरने और तैरने में किन्तु अन्तर बहुत बड़ा है। वैसे ही , जैसे अकेलेपन और एकान्त में। 


सोशल मीडिया ग्लोबलाइज़ेशन की पुत्री है। स्थानीयता की जगह वैश्विकता जाति-धर्म-लिंग-नस्ल के बन्धनों को नहीं मानती। वह सबसे जुड़ना चाहती है और जुड़ती जाती है। उसके पास सबके लिए खुली बाँहें हैं : आओ और साथ मिल-बैठो यार ! 


लेकिन स्थानीयता के पास एक गुण था , जिससे वैश्विकता महरूम है। स्थानीयता के पास क्वॉलिटी थी। वैश्विकता के पास क्वॉन्टिटी चाहे जितनी हो , क्वॉलिटी का उसके पास टोटा है। सोशल मीडिया पर मित्र हज़ारों हैं, किन्तु वे सब आभासी दुनिया की ही हैं। वास्तविक मित्रों का प्रतिशत उनमें से बहुत न्यून ही पाया जाता है। 


वह व्यक्ति जो दिनभर फ़ेसबुक पर रहता है , नितान्त अकेला है। वह एकान्तिक नहीं है , एकान्त में चुनाव का भाव जो होता है। एकान्त व्यक्ति स्वयं चुनता है , उसे किसी पर थोपा नहीं जाता। अकेलापन थोपा जाता है , वह एक प्रकार का अवांछित आरोपण ही है। एकान्त से जब चाहे समाज में लौटा जा सकता है , वह आपको जबरन बाँधता नहीं है। अकेलापन यातना-शिविर की तरह है , वह आपको अपने चंगुल से निकलने ही नहीं देता। एकान्त आपको सर्जक बना सकता है , वह आपको उठाता है। उसके प्रभाव से आप वैज्ञानिक , साहित्यकार , समाज-सुचिन्तक , राजनेता , दार्शनिक और धर्मगुरु बन सकते हैं। अकेलापन आपका ध्वंस करता है , वह आपको तोड़मरोड़कर आत्मविनष्टि के मार्ग पर ले जाता है। इन सब अन्तरों के बावजूद अनेक बार अकेलेपन और एकान्त में अन्तर सूक्ष्म और गड्डमड्ड भी होते रहते हैं। हम अनेक बार इस तरह पानी में जाते हैं कि कुछ हद तक गिर रहे होते हैं और कुछ हद तक यह हमारी छलांग होती है। 


फ़ेसबुक पर ढेरों प्रोफ़ाइलें ऐसी हैं , जो अकेली हैं। वे बन्द बुलबुलों में क़ैद हैं और सबसे जुड़ाव दिखा रही हैं। उनकी प्रोफ़ाइल-पिक्चर पर कोई-न-कोई फूल-पत्ती-जानवर-चिड़िया-अभिनेता या कोई एब्स्ट्रैक्ट चिह्न अंकित है। जान-पहचान के लिए वे अपना फ़ोटो प्रस्तुत नहीं करते , या फिर हो सकता है किसी कारण से नहीं करना चाहते। वजह जो भी हो , किन्तु वे स्वयं को बन्द किये आभासी प्लैटफ़ॉर्म पर हैं। 


अनेक ऐसे लोग सोशल मीडिया पर हैं , जिनका कोई वास्तविक जीवन नहीं। वास्तविक जीवन में कोई मित्र नहीं , न प्रेमी। वास्तविक जीवन में कोई परिवार नहीं , न कोई कर्म-कौशल। ऐसे लोग भी आभास के पूर्ण सम्मोही प्रभाव में हैं। उनकी दुनिया साइन-इन के क्लिक से शुरू होती है और साइन-आउट पर उसका लय हो जाता है। हर दिन वे ब्रह्मा की तरह अनेक बार अपनी सृष्टि करते हैं और उसका प्रलय भी। नीले फ़ेसबुक का स्क्रीनी समुद्र आगम-निगम की तरह उनकी इच्छानुसार घटा करता है। 


समस्या यह नहीं है कि हम फ़ेसबुक पर क्यों हैं। प्रश्न यह पूछा जाना चाहिए कि हम फ़ेसबुक के अलावा और कहाँ हैं वास्तविक संसार में। हमारे यथार्थी सम्बन्ध कितने हैं ? वास्तविक परिवार कितना बड़ा है ,  सच्चे हाड़-मांस के मिल सकने वाले मित्र कितने है ? सच्चा प्रेम करने वाला कोई है , जिसे हम बाँहों में भर सकते हैं , चूम सकते हैं ? वास्तविक काम कोई धरातली हम करते हैं ? कितना समय हमारा स्क्रीन पर जाता है और कितना समाज में ? और-तो-और , हमारे वास्तविक शत्रु कितने हैं , जिनपर हम आँखें तरेर सकते हैं और मुट्ठियाँ तान सकते हैं ! 


सवाल है कि आभास / वास्तविकता का अनुपात क्या है। आभास अधिक है और वास्तविकता कम, तो हम ग्लोबल खोखले हैं। हम से कुछ बड़ा तो दूर की बात है , छोटा परिवर्तन भी न हो पाएगा। हम स्वयं को ही नहीं सँभाल पा रहे हैं , अन्य से जुड़कर उन्हें क्या दे सकेंगे ! आभास कम है और वास्तविकता अधिक , तब हम स्वयं से कुछ उम्मीद कर सकते हैं। 


आभास और वास्तविकता का सम्बन्ध एक हद तक स्थानीयता और वैश्विकता का भी है। विश्व के लिए कर्त्तव्य किया जा सकता है : उससे प्रेम नहीं किया जा सकता। विश्व से जुड़ा जा सकता है : उसे बाँहों में भरकर चूमा नहीं जा सकता। विश्व स्पर्श से परे है और जिसकी छुअन सम्भव न हो , उसके लिए पार्थिव शरीर क्या पूरा दे देना चाहिए !


अपने-अपने फेसबुकेतर सत्य हमें खोजने हैं और उन्हें बचाना है। फेसबुकेतर सत्य ही हमें एकान्त देने में सक्षम हैं , वे ही हमें अकेलेपन से निकालेंगे। वे ही हमारा स्थानीय समाज बनाते हैं , जिसका महत्त्व उस वैश्विक समाज से पहले है जिससे हम शायद जीवन में कभी मिल न सकेंगे। 


इड़ा-श्रद्धा के बीच दुविधा में फँसा फेसबुकीय मनु सृष्टि कैसी करेगा , यह उसे ऊँचाई पर बैठकर सोचना है। उसके नयन अगर भीगे हैं , तो उम्मीद अभी बाक़ी है। जिनकी आँखें भीगी हैं , उनके जीवन में अभी वास्तविकता बची हुई है। वे ही खुलकर हँस और रो , दोनों सकते हैं। 


शेष के लिए तो चुनाव बस एक निर्जीव-निष्प्राण क्लिक है।  


●लेखक :- डॉक्टर स्कंद शुक्ल


◆पेंटिंग:- पॉवेल कुंजुस्की

गीताश्री की नौ कविताएं

 गीताश्री  की कुछ कविताएं 

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पत्थर पर चोट करता है पत्थर 



पत्थर पर चोट करता है पत्थर
दोनों टूटते हैं थोड़े थोड़े
दोनों चनक जाते हैं कई जगह से
चोट करने वाला पत्थर क्यों नहीं समझता
कि चोट करने से पहले ही टूट जाती है
उसकी लय
उसके भीतर का जीवन
जिसमें जंगल उगाने की अपार ताक़त और संभावनाएँ होती हैं
सूखा और निर्मम पत्थर
सिर्फ़ चोट करना जानता है
स्थिर , अपने भाग्य से जूझता हुआ
निश्चेष्ट पत्थर
एक दिन पूरा जंगल आयात कर लेता है.
उसकी सुरक्षा वाहिनियों में तैनात हो जाते हैं
कई कई ऐरावत
अपनी सूँड़ों में भर कर आबे जम जम
छिड़कते हैं वृक्षों पर
पत्तों का हरापन धूप का उधार है
मेघों के ज़रिये चुकाता है जंगल
हर बरस , बरस बरस कर ... !!


2

खुद को थोड़ा छोड आई हूँ वहाँ /थोड़ा तुम संभाल लेना /


मैं खुद को थोड़ा छोड आई हूँ वहाँ /थोड़ा तुम संभाल लेना /
कुछ ले आई हूँ अपने साथ / जैसे कोई स्त्री ले जाती है अपने साथ लोकगीतों की कॉपी/  ब्याह के बाद

उसका सबकुछ दूसरे तय करते हैं / कॉपी ले जाना वो खुद तय करती है / कि दर्ज होता है उसका समय /उसका उत्सव और उल्लास/ थोड़े दुख - दर्द...थोड़ा शुरु होने से पहले खत्म हो गया प्यार/ कोर्स की सबसे सुंदर कॉपी में / गीत लिखती रहती थी...
जिसमें थोड़ा तुम्हें रखा है, पूरा अपने को !
तुम्हें विद्या क़सम !!
मोरपंख निकाल लेना. अब वो कभी डबल नहीं होंगे.
हेमा मालिनी के चित्र वाली कॉपी में दबाए रहना सूखे फूल
वे सदियों रंग छोड़ते रहेंगे पन्ने पर.
उन पर लिख लेना क़र्ज़ों का हिसाब
जो उम्र भर न चुकाए जा सकेंगे
कुछ कर्ज चुकाए नहीं जा सकते

3

यात्राएँ कम हुईं मगर पाँव चलते रहे



यात्राएँ कम हुईं मगर पाँव चलते रहे
किसी अनजाने , अनदेखे प्रदेश तक जाने वाली ट्रेन की टिकट ना मिली
ना ही कोई वाहन चालक वीराने के सफ़र पर जाने को तैयार हुआ
मेट्रो स्टेशन पर खड़े खड़े मैंने इंजीनियरों को सलाम भेजा
कि
ट्रैफिक से बचा दी जान
ठंडी हवा उपलब्ध कराई और
मुफ़्त की कितनी व्यथा-कथाएँ सुनवाईं
यात्राएँ कम हुईं तो क्या
पाँवों में गति तो वैसी ही बनी रही
हर पहिये के साथ गति और तेज़ होती रही
कई बार लगा
मैं पहिये में बदल गई हूँ
और मेरी देह पर सीट बेल्ट कसा हुआ है
न दौड़ने दे रहा है न लुढ़कने
बस
अब मेरी दो आँखें दूर से देखती हैं
सपनों की कब्र पर घास - सी उगी हुई मैं
कभी भी नोंच कर फेंकी जा सकती हूँ
मेरी जड़े इतनी कमजोर
कि कॉफीन तक भी न पहुँच सकी
सारी उम्र इसी भरम में रहे
कि घासों की भी जड़े होती हैं
नोंचने के बाद भी मिट्टी में सुगबुगाती रहती हैं
अब तो जड़ समेत उखाड़ने का हुनर
सीख गई है दुनिया
मिट्टी का सारा तेवर बदल गया है ...l 


4
तुम्हारे पानी पर मेरी पर्ण कुटी



तुम्हारे पानी पर मेरी पर्ण कुटी
तैर रही थी
उसके भीतर एक शय्या थी
कुछ सिलवटें भी,
फटी हुई मच्छरदानियों के भीतर 
अपनी कुछ ऊंघती हुई नींदें छोड़ गया था
बार बार लौटने के लिए 
मेरे सपनों को मत्स्यगंध की आदतें हैं
और जल-जंतुओं के संगीत की लत
इन सबको नींदों के सिरहाने छोड कर
रोज़ जाता हूँ
जल-प्रांतर में
लौटता हूँ किसी उम्मीद से भरा
कि
नींदों से निकल कर अग्नि
मेरे चूल्हों में सुलगने लगी होगी
मेरा तैरता हुआ घर कुछ और दूर खिसक आया होगा
उसकी ज़मीन से
उसे मालूम हो कि
रेत पर बने घर से बेहतर होते हैं
पानी पर तैरते घर !


5


मेरे पास नहीं है तर्कों का ज़ख़ीरा



मेरे पास नहीं है तर्कों का ज़ख़ीरा
बस एक लगाव है और संवेगों का झोंका
जो मेरे बालमन पर छाया रहा ...
मैं न किसी को ख़ारिज करने के अपार वाकजाल बुन सकती हूँ
और न मैं इतना श्रम करुंगी कि कोई नष्ट हो जाए मेरे शब्दों से, मेरे सोचने भर से
कुछ लोग शब्द-वीर हैं यहाँ
इसी काम पर लगाए गए हैं या स्वत: लग गए हैं
उन्हें तीर-तलवार मुबारक !
हम तो भावलोक के प्राणी !!
अपने बचपन की कुछ छवियों को दिल से लगाए जी रहे अभी...
एक चेहरा जिसमें स्त्री अस्मिता का गहरा बोध कराया था
जिसके नाम पर हमें हर रोज़ लड़की होने का महत्व समझाया जाता था
वो नाम जिसने भारतीय समाज की वंश परंपरा की अवधारणा की जड़े हिला दी थी
और बेटियाँ भी हो सकती हैं वारिस
इसको स्थापित किया था...
उसे कभी नहीं भूली
उसके भीतर का लोहा हम सब सचेतन स्त्रियों में उतरता रहा..l 

6



: वो मेरे संसार में घुसा

वो मेरे संसार में घुसा
मेरी निंदा करता हुआ
वह मेरा भी प्रेम पात्र बनना चाहता था
उसमें मेरे स्नेह का अमृत चखने का उतावलापन था
उसे लगता था - हाय, ये अमृत बूँदे मेरे नसीब में क्यों नहीं
मुझे उसकी निंदाएँ बड़ी उकसाती थी
जो अक्सर करती हैं प्रेरक का काम
मुझे लगता था
मैं सही राह पर हूँ और मैं उनसे बहुत ताक़त बटोर लेती थी
मेरा हर अगला पल बेख़ौफ़ और निष्कंटक हुआ जाता था
कि
एक दिन वह घुस आया मन के सघन वन- प्रांतर में
अपने हिस्से का रस माँगते हुए
मैं वंचित रही उस रस से
जिससे चख कर मैं ताक़त बटोरती थी
अब वह मेरा प्रशंसक है
और अपने किए और लिखे पर माथा धुनता है
अपनी उन कारगुज़ारियों पर शर्मिंदा है
जिसे उसने अपने आकाओ के इशारे पर किया था
कुछ मेरी अनदेखी ने उकसाया था.



7



 मेरे पास भी थी झगड़ने के लिए बेहतर शब्दावलियाँ




मेरे पास भी थी झगड़ने के लिए बेहतर शब्दावलियाँ
मैंने उन्हें बिसरा दिया
मैंने कुछ कोमल शब्द चुन लिए
उनसे ही करती रही अपना बचाव उम्रभर
मेरे पास भी थी कुछ क्रोधित भाव भंगिमाएँ
दाँत की किटकिटाहटे
थप्पड़ों की गूँजे
उन पर क़ाबू पा कर
हथेलियों को नम कर लिया
दाँतो को खुला छोड़ कर
फेंफड़ो में रुमानियत भर ली
सारे हथियार पिछली सदी में छोड़ आई
मानो
जब सभ्यता की अटारी पर खड़ी मैं
भविष्य को पुकार रही थी...


8


एक भावुक मूर्ख का बयान




एक भावुक मूर्ख का बयान

भावुकता ने चाँद में प्रियतम का चेहरा
वो भावुकता ही थी जिसने चाँद में रोटी देखा
और विलाप कर उठी थी
भावुकता ने पानी को नीला रंग दिया
और फूलो को खिलते देखा
भावुकता ने हवा को संदली, मरमरी बनाया...
उसी ने बर्फ़ से आग और ताप से ठंडक माँगी
कुछ भी कर सकती है भावुकता
उसी में ताक़त है कि पत्थर में आकार खोज दे
रेखाओं में लिपियाँ
चाहे उन्हें पूज दे
चाहे उन्हें ढाँप दे
भावुकता खोजती है रेत में पानी
और सुनती है जंगल में सीटियाँ
भावुकता झोंपड़े में सो जाती है सुख की नींद
खटिया की रस्सी बिछौना बना कर
वही थामे रखती है हाथ उस स्त्री का
जो उधार चुकाने के लिए गहने गिरवी रखने को दे देती है
बंकिम मुस्कान के साथ ...
भावुकता में कह उठती है महाकवि पदमाकर की नायिका -
लला, फिर अइयो खेलने होरी ...
यह भावुकता है कि कोई बरबाद जिनियस अपनी प्रेमिका को थमा देता है
अपनी दुर्लभ पांडुलिपियाँ
कुछ अधूरे क़िस्से , कुछ प्रेम , कुछ पाप - पुण्य
यह भावुकता ही है कि संपतिविहीन स्त्री
जीवन भर घर के परदे से लिपट कर बिसूरती रहती है
विलाप नहीं करती
भावुकता ही है जो भीतर से ईमानदार बनाए रखती है
अपने कहे पर टिकाए रखती है
जो अपनी ज़ुबान का मोल जानती है
प्रतिबद्धता का पाठ पढ़ाए रखती है..!

9



जब मेरे पास रोने की कोई वजह नहीं होती


जब मेरे पास रोने की कोई वजह नहीं होती
सबकुछ ठीक चल रहा होता है
ठीक उसी वक़्त
कोई आता है
पूरा तनाव उड़ेल कर चला जाता है

जिस वक़्त मैं पेट पकड़ कर हँसना चाहती हूँ
हवा के साथ उड़ कर आई रुईयों को फूँक कर उड़ा देना चाहती हूँ
ठीक उसी वक़्त
कोई बाल्टी भर पानी उँडेल कर चला जाता है

जब जब मैं रस्सी कूद या कित कित खेल रही होती हूँ
डंडे से गुल्ली को मार कर दूर फेंक रही होती हूँ
कि कोई अचानक प्रकट होकर
खेल के सारे नियम बता कर
सारा खेल ध्वस्त कर जाता है



जब भी असावधान होती हूँ
ये सोच कर कि आधी रात का पहर है
सारी बेचैन और दुष्ट आत्माएँ आराम फ़रमा रही होंगी

कि एक तेज़ चीख़ मुझे दहला  देती है  l
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( गीताश्री की नौ कविताएं )

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सोमवार, 22 फ़रवरी 2021

साहित्यिक सफर पे गीताश्री का आत्मकथ्य

2013 से सीरियसली साहित्य का सफ़र शुरु हुआ था... उसी साल पहला कहानी संग्रह आया था.


उसके पहले तीन किताबें आईं थीं जो कथेतर थीं. 

पहली कहानी -2009 में लिखी. हंस में छपी. फिर कुछ दिन का विराम. 

कहानियाँ लिख लिख कर रखती रही. कभी छपने भेज देती थी. कहीं से कोई कहानी लौटी नहीं. ज़्यादा पत्रिकाओं में भेजी भी नहीं. छपने की बहुत ख़्वाहिश इसलिए नहीं कि हम तो दूसरों को छापते रहे पच्चीस साल. 

खुद भी छपते रहे. देश के नामी अख़बार, बेल पोर्टल और पत्रिका में काम किया. जो चाहिए.. सब हासिल किया. साहित्य की ओर लौटना था. कॉलेज के दिनों से साहित्यिक संस्था “ साहित्य कुंज “ चलाती थी. उस समय के साथी गवाह हैं. हमारी संस्था से जुड़े कई साथी आज स्थापित लेखक हैं. 

हाँ तो... 

कहानी लिखने लगी...गति तेज रखी. लोग अपनी किताबों और कहानियों की संख्या दिखाते थे, गिनाते थे. मुझे लगता था... उम्र इतनी हुई, कुछ न लिखा. गहरी हताशा होती थी. अपने नाकारेपन पर कोफ़्त. 

फिर तेज दौड़ना शुरु किया... 

सब काम छोड़ कर ... 

पत्रिका बंद होने के बाद भी डिजीटल संपादक के रूप में साल भर काम किया. वहाँ मन न लगा. तब से खाली... 

स्वतंत्र पत्रकारिता करती हूँ. लखनऊ के एक सांध्य अख़बार में रिपोर्टिंग करती हूँ. भारत सरकार से मान्यता प्राप्त पत्रकार हूं. यानी पी आई बी accredited.

कम को नसीब. इसके लिए पूरा करियर लगता है. 

मैंने हासिल किया... लगातार काम करते हुए. 

आज ये सब बताने का मन हुआ कि अब मुझे लगता है... 

मुझे थम कर काम करना चाहिए. बहुत दौड़ लिए. हाँफ नहीं रही हूँ. वे हाँफ रहे हैं. देखने वाले हाँफ रहे. पाठक नहीं. 

लोग मेरी दौड़ से परेशान हैं. इतना जल्दी जल्दी कैसे लिख लेती है. क्यों लिखती है... जाने क्या लिखती है... 

एक चित्रकार हज़ारों पेंटिंग बनाता है... उसे आप किसी एक पेंटिंग या एक सीरिज़ के लिए याद करते रहते हैं. 

यूरोपियन चित्रकारों और महान भारतीय चित्रकारों को आँख मूँद कर याद करिए... 

पिकासो, दाली, मातिस, वॉन गॉग... गोयथे... सूजा, हुसैन, रजा ... तैयब, बेंद्रे, स्वामीनाथन, अमृता शेरगिल, आरा, रवि वर्मा, यामिनी राय... कितने नाम गिनाऊँ. 

जो कला रसिक हैं... वो मेरी बात समझ सकते हैं. क्यों हम बीथोवन की सिंफ़नी -9 को याद करते हैं जबकि उसकी अन्य सिंफ़नी भी उतनी ही महान है. 

गायकी याद करिए. हज़ारों गीत गाने वाले गायकों की आवाज़ कुछ गानों में ही रुह बन कर बस जाती है. 

वे सब बेहतर देने की कोशिश करते हैं. 

मैं भी! 

मैं गति धीमी तो कर लूँ... मगर क्या आने वाले कल में मेरे जीवित होने या काम करने की गारंटी कोई लेगा? 

मुझे नहीं पता कि कल हूँ या नहीं. कल मैं लिख पाने लायक़ बचूँगी या नहीं. उम्र बढ़ रही है.... ढलान की तरफ़ रोज़ उतरती हूँ. किसी पहाड़ी स्त्री से पूछिए जब वह पीठ पर घास और लकड़ी का गट्ठर लाद कर ढलान से नीचे उतरती है तब कैसा महसूस करती है. 

मैं कुछ ऐसा ही महसूस करती हूँ.... 

मेरी पीठ पर कोई बेताल चढ़ा हुआ है. आँखें जंगल और नदी हुई पड़ी हैं. ऊंगलियां तड़पती हैं... अपनी 

भाषा में कलप उठती हूँ ... 

मैं थम जाती हूँ... गति कम करती हूँ... तो रोज शव साधना करना पड़ता है. 

मर जाती हैं कहानियाँ. 

बहुत शोध करके बैठी हूँ... बहुत कंटेंट हैं... 

गति भी तेज थी... 

अब थाम ली लेखन की वल्गा. 

लोग मानते हैं कि बहुत लिखने वाले औसत लेखन भी करते हैं. 

फिर कहूँगी कि महानायकों की फ़िल्में याद करिए. तीन सौ फ़िल्में करते हैं तब तीन भूमिका अविस्मरणीय रह जाती है. 

आप मेरी चिंता न करिए. 

तीन किताब , तीन कहानी या तेरह बातें भी बच गईं तो सार्थक जीना मरना. 

वैसे भी मेरे विचार बदल गए है- 

जी रही हूँ ... इसलिए लिख रही हूँ. 

जीएंगे तो रचेंगे. रचने के लिए ज़िंदा नहीं हूँ. 

मैं हर पल ज़िंदगी का रस सोखती हूँ. न मेरा रंग उधार का न किसी साहित्य के निर्मल बाबा की कृपा. 

वे कृपाएँ अटकी हुई हैं. 

किसी और पर बरसें. 

हम तो लिख कर आनंद लेते. मेरे लिए यही अनुष्ठान है. 

आइए .. ख़ुश होते हैं. 🌹😍

ये नीचे तस्वीर में कहानी संग्रह हैं. बारी बारी से किताबों की तस्वीरें डाली जाएँगी.

सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

 🌹 निराला 🌹


ना धन की लालच रखते है ना सत्ता संग मिमियाते है

जो मार्ग बदल दे नदियों का दम काव्य कलम का रखते है

जो अपनी कलम के दम पर  सत्ता को थर्राते हे

ऐसे कवि फिर काव्य जगत में कवि निराला बनते है


बचपन बीत गया मेहनत में जीवन तो मुफ़लिसी में

वटवृक्ष से डटे काव्य में बन सूर्यकांत त्रिपाठी से

अनामिका, परिमल, गीतिका, गीत कुंज जो रचते है

वह तोड़ती पत्थर से फिर कवि निराला बनते है


कहीं छायावाद से अभिभूत कहीं करुणा का प्रस्फुटन है

कहीं मौन प्रियतम चुम्बन है कहीं जनमभूमी का अर्चन है

जो राम की शक्ति पूजा अपरा मातृ वंदना रचते है

रचते काव्य जो कुकुरमुत्ता से कवि निराला बनते है


उपन्यास निबन्ध कहानी संस्मरण जो रचते है

गद्य पद्य की सभी विधा  बेजोड़ काव्य जो लिखते है

अलका अप्सरा प्रभावती वो निरुपमा का रचयिता

भारत की संस्कृति निराला युगदृष्टा फिर बनते है

खंड काव्य रच  तुलसीदास सा कवि निराला बनते है


करते है श्रृंगार कविता वीर हास्य रस रोद्र में

मुक्त छंद में लिखी कविता रहस्यवाद की ओट में

लोक गीत की भाषा में जो चित्र कविता रचते है

प्रगतिवाद के रचनाकार फिर कवि निराला बनते है


ललिता शर्मा शशि 

नाथद्वारा  (राजस्थान)

बहुरानी

 ⚜️⚜️🆚⚜️⚜️ बहुरानी कथा

 

        🆚  एक ब्राह्मण और ब्राह्मणी थे, वो सात कोस दूर गंगा जमुना स्नान करने जाते थे। रोज इतनी दूर आने-जाने से ब्राह्मणी थक जाती थी। एक दिन ब्राह्मणी कहती है कि कोई बेटा होता तो बहु आ जाती। घर वापिस आने पर खाना बना हुआ तो मिलता, कपड़े धुले मिलते। ब्राह्मण कहता है कि तूने भली बात चलाई ! चल, मैं तेरे लिए बहु ला ही देता हूँ। ब्राह्मण फिर बोला कि एक पोटली में थोड़ा सा आटा बाँध दे उसमें थोड़ी सी मोहर-अशरफी डाल दे। उसने पोटली बाँध दी और ब्राह्मण पोटली लेकर चल दिया।

          चलते-चलते कुछ ही दूर एक गाँव में जमुना जी के किनारे बहुत सारी सुन्दर लड़कियाँ अपने घर बनाकर खेल रही थी। उनमें से एक लड़की बोलती है कि मैं तो अपना घर नहीं बिगाडूंगी, मुझे तो रहने के लिए ये घर चाहिए। उसकी बात सुन ब्राह्मण के मन पर वही लड़की छा गई और मन ही मन सोचने लगा कि बहु बनाने के लिए यही लड़की ठीक रहेगी। जब वह लड़की जाने लगी तो ब्राह्मण भी उसके पीछे चला और जब वह लड़की अपने घर पहुँचती है तब बूढ़ा ब्राह्मण बोला, "बेटी ! कार्तिक का महीना है, मैं किसी के यहाँ खाना नहीं खाता, तुम अपनी माँ से पूछो कि मेरा आटा छानकर चार रोटी बना देगी क्या ? यदि वह मेरा आटा छानकर रोटी बनाएगी तभी मैं खाऊँगा।"

          लड़की अपनी माँ को सारी बात बताती है, माँ कहती है कि बेटी, बाबा से कह दे कि रोटी में चार रोटी वह भी खा लेगें लेकिन लड़की कहती है कि नही माँ ! बाबा ने कहा है कि मेरा आटा छानकर बनाओगी तभी वह खाएँगे। तब उसकी माँ कहती है कि ठीक है जा बाबा से कह दे कि अपना आटा दे दें। उसने आटा छाना तो उसमें से मोहर अशर्फी निकलती है। वह सोचती है कि जिसके आटे में इतनी मोहर अशर्फी है उसके घर ना जाने कितनी होंगी ! जब ब्राह्मण रोटी खाने बैठा तो लड़की की माँ बोली, "बाबा ! तुम लड़के की सगाई करने जा रहे हो ?" बाबा बोला कि "मेरा लड़का तो काशी बनारस पढ़ने गया हुआ है लेकिन अगर तुम कहो तो मैं खाँड़-कटोरे से तेरी लड़की को ब्याह कर साथ ले जाऊँ।"

          लड़की की माँ बोली, ठीक है बाबा और वह ब्याह कर लाया। घर आकर बोला रामू की माँ दरवाजा खोलकर देख, मैं तेरे लिए बहू लेकर आया हूँ। आकर बहू का स्वागत सत्कार कर। ब्राह्मणी बोली, दुनिया ताने मारती थी, अब तू भी मार ले। हमारे तो सात जन्म तक कोई बेटा-बेटी नहीं है तो बहू कहाँ से आएगी ? ब्राह्मण बोला, "ना ! तू दरवाजा तो खोल !” ब्राह्मणी ने दरवाजा खोला तो सामने बहू खड़ी देखी तब वह आदर-सत्कार से बहू को अन्दर ले गई। अब जब ब्राह्मण-ब्राह्मणी नहाने जाते तो बहू घर का सारा काम कर के रखती। खाना बनाती और सास-ससुर के कपड़े धोती और रात में उनके पैर दबाती। इस तरह से काफी समय बीत जाता है।

          सास बहू को सीख देती है कि बहू चूल्हे की आग ना बुझने देना और मटके का पानी खत्म ना होने देना। एक दिन चूल्हे की आग बुझ गई, बहू भागी-भागी पड़ोसन के घर गई और बोली, "मुझे थोड़ी सी आग दे दो, मेरे चूल्हे की आग बुझ गई है। मेरे सास-ससुर सुबह चार बजे से बाहर गए हुए हैं और वे थके-हारे वापिस आएँगे, मुझे उनके लिए खाना बनाना है।” पड़ोसन कहती है, अरी तू तो बावली है, तूझे तो ये दोनों मिलकर पागल बना रहे हैं। इनका ना कोई बेटा है और ना ही कोई बेटी ही है। बहू बोली, ना, ना आप ऎसे मत बोलो क्योंकि इनका बेटा काशी बनारस पढ़ने गया है। पड़ोसन फिर बोली, अरे, तूझे ये झूठ बोलकर लाए हैं, इनका कोई बेटा नहीं है।

          अब बहू पड़ोसन की बातों में आ गई और कहने लगी कि अब आप ही बताओ मैं क्या करूँ ? पड़ोसन कहने लगी, करना क्या है, जब सास-ससुर आयें तब जली-फूँकी रोटी बना देना, अलूनी-पलूनी दाल बना देना। खीर की कड़छी दाल में और दाल की कड़छी खीर में डाल देना। बहू पड़ोसन की सारी सीख लेकर अपने घर आ गई और जैसा पड़ोसन ने बताया वैसा ही उसने किया। जब सास-ससुर घर आए तब भूखों का कोई आदर-सत्कार बहू ने नहीं किया और ना ही उनके कपड़े धोये।

          जब सास-ससुर को खाना दिया तो सास बोली, बहू ये जली-फूँकी रोटी क्यों हैं ? और दाल भी अलूनी है ? बहू पलटकर जवाब देती है कि आज यही खाओ सासू जी। अगर एक दिन ऐसा खाना खा भी लिया तो तुम्हारा कुछ बिगड़ नहीं जाएगा। मुझे तो जीवनभर ही अनूठी रहना है। बहू की बातें सुनकर सास बोली कि आज तो बहू ने अच्छी सीख नहीं सीखी है। अब बहू फिर से पड़ोसन के घर भागती है और कहती है कि अब आगे बताओ कि मुझे क्या करना है ? पड़ोसन बोली कि अब तुम सातों कोठों की चाबी माँग लेना।

          अगले दिन जब सास जाने लगी तो बहू अड़ गई कि मुझे तो सातों कोठों की चाबी चाहिए तो ससुर कहने लगा कि दे दो इसे चाबी, आज नहीं तो कल चाबी इसे ही देनी है। हम आज हैं कल नहीं इसलिए चाबी दे दो। सास-ससुर के जाने के बाद बहू ने कोठे खोलकर देखे तो किसी में अन्न भरा है, किसी में धन भरा है, किसी में बरतन भरे हैं, सभी में अटूट भंडार भरे पड़े हैं। जब बहू ने सातवाँ कोठा खोला तो उसमें महादेव जी, पार्वती जी, गणेश, लक्ष्मी जी, पीपल पथवारी, कार्तिक के ठाकुर, राई दामोदर, तुलसा जी का बिड़वा, गंगा-जमुना बह रही है, छत्तीस करोड़ देवी-देवता भी विराजमान है और वहीं एक लड़का चंदन की चौकी पर बैठा माला जप रहा है।

          सब देख बहू लड़के से कहती है, तू कौन है ? लड़का कहता है कि मेरा तेरा पति हूँ, दरवाजा बन्द कर दे जब मेरे माँ-बाप आयेंगे तब खोलना। सारा नजारा देखकर बहू बहुत खुश हुई और नाचती फिरने लगी। सोलह श्रृंगार कर, सुंदर वस्त्र पहन-ओढ़ सास-ससुर का इंतजार करने लगी। उनके लिए छत्तीस प्रकार के पकवान बनाकर रखे। सास-ससुर जब वापिस आए तब उसने उनका बहुत आदर-सत्कार किया, उनके कपड़े धोए, उनके पैर दबाए। बहू सास के पैर दबाते कहने लगी कि माँ जी आप इतनी दूर बारह कोस यात्रा कर के गंगा-जमुना का स्नान करने जाती हो, थक जाती हो तो तुम घर में स्नान क्यों नहीं करती हो ?

          बहू की बात सुन सास कहने लगी कि भला गंगा-जमुना भी घर में बहा करती है क्या ? बहू बोली हाँ माँजी बहती हैं चलो मैं आपको दिखाती हूँ। उसने सातवाँ कोठा खोलकर दिखाया तो उसमें गणेश, लक्ष्मी, महादेव, पार्वती, पीपल पथवारी माता लहरा रही है, तुलसा जी लहरा रही है, कार्तिक के ठाकुर, राई दामोदर, गंगा जमुना बह रही है। छत्तीस करोड़ देवी-देवता विराजमान है और वहीं तिलक लगाए चंदन की चौकी पर एक लड़का माला जप रहा है। माँ ने कहा कि तू कौन है ? लड़का बोला, माँ मैं तेरा बेटा हूँ। बुढ़िया फिर बोली, तू कहाँ से आया है ? लड़के ने कहा कि मुझे कार्तिक देवता ने भेजा है।

          बुढ़िया कहती है कि बेटा ये दुनिया कैसे जानेगी, कैसे जानेगा मेरा घर का धनी, क्या जानेंगी देवरानी-जेठानी, क्या जानेगा मेरा अगड़-बगड़ पड़ोस कि तू मेरा ही बेटा है ? बुढ़िया ने विद्वान पंडितों से सलाह ली तो वह बोले, इस पार बहू-बेटा साथ खड़े हो जायें और उस पार बुढ़िया खड़ी हो जाये। बुढ़िया चाम (चमड़ा) की अंगिया (ब्लाउज) पहने, छाती में से दूध की धार निकल जाये, बेटे की दाढ़ी-मूँछ भीग जायें, पवन पानी से गठजोड़ा बँध जाये तो जब जाने कि यह बुढ़िया का ही बेटा है। उसने ऎसा ही किया।

          चाम की अंगिया फट गई, छाती में से दूध की धार निकली, बेटे की दाढ़ी-मूँछ भीग गई, पवन पानी से बहू बेटे का गठजोड़ बंध गया। ब्राह्मण-ब्राह्मणी की खुशी का पार ना रहा, वे बहुत खुश हुए। हे कार्तिक के ठाकुर, राई दामोदर भगवान ने जैसे बहू-बेटा उसको दिए वैसे सभी को देना।     

               💥💥 जय श्री राम 💥💥

रविवार, 21 फ़रवरी 2021

तमाशा / जयनंदन

 तमाशा / जयनंदन



कोई मायने नहीं रखता

घुप्प अन्हरिया रात के आगे रंग काला

चोर के आगे ताला

और बेईमान के आगे केवाला।


उघारे कमजोर बदन को

कैसे छोड़ेगा पूस का पाला

गैंता-कुदाल का वह वंशज

जिसकी हथेली में है दरार और पैरों में छाला

कब तक माटी पर टिका रहेगा गंदी हवा पीकर

जब रोज उसके आगे से छिन रहा है निवाला।


हर कोई मीरा तो नहीं हो सकता

जो जिंदा रहे पी-पीकर जहर का प्याला।


अब इस तमाशा को बंद करना चाहता है ग्वाला

चतुराई से बांस के सहारे खड़ा करके

मरे हुए पशुओं के कंकाल में लगाकर मसाला

यह साबित करने के लिए कि इस इलाके में

उम्दा, नायाब और बेहतरीन है उसकी गौशाला।

एक राक्षस के उदय से गांव के कल पर

भयानक कत्लेआम है मचने वाला

क्योंकि उसका प्रिय शौक है पहनने का

भोले किसानों के मुंड की माला।


थके हुए, टूटे हुए, हारे हुए और निचुड़े हुए

माटी-पुत्रों का कौन होगा रखवाला

जबकि पहरेदार और चोर की दूरी मिट गयी है

और उसके हाथों में थमा दिया गया है

बहुमत से एक चोख और पैना भाला।

(1989 में लिखी)

संत पलटू साहेब के अनमोल दोहे

 संत पलटू साहिब के दोहे /आत्म स्वरुप 


आपै आपको जानते, आपै का सब खेल।

पलटू सतगुरु के बिना, ब्रह्म से होय न मेल॥1॥

पलटू सुभ दिन सुभ घड़ी, याद पड़ै जब नाम।

लगन महूरत झूठ सब, और बिगाड़ैं काम॥2॥

पलटू उधर को पलटिगे, उधर इधर भा एक।

सतगुरु से सुमिरन सिखै, फरक परै नहिं नेक॥3॥

बिन खोजे से न मिलै, लाख करै जो कोय।

पलटू दूध से दही भा, मथिबे से घिव होय॥4॥

वृच्छा बड़ परस्वारथी, फरैं और के काज।

भवसागर के तरन को, पलटू संत जहाज॥5॥

पलटू तीरथ को चला, बीच मां मिलिगे संत।

एक मुक्ति के खोजते, मिलि गई मुक्ति अनंत॥6॥

सुनिलो पलटू भेद यह, हंसि बोले भगवान।

दुख के भीतर मुक्ति है, सुख में नरक निदान॥7॥

सोई सिपाही मरद है, जग में पलटूदास।

मन मारै सिर गिरि पड़ै, तन की करै न आस॥8॥

ना मैं किया न करि सकौं, साहिब करता मोर।

करत करावत आपु है, पलटू पलटू सोर॥9॥


प्रस्तुति - आत्म स्वरूप

🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

रिक्शा चालक की किताब

 एक अद्भुत अनुभत प्रयोग



बाल झड़ने की समस्या है तो आम की गुठली का तेल बनाऐ 

आधा किलो गुठलियों को अच्छी तरह कुट कर दो किलो पानी में उबालें , जब पानी आधा रह जाए तब छलनी से छान लें , छने हुए पानी को एक कड़ाही में डालकर उबलने के लिए रख दें , पानी जब उबलने लगे तब आधा किलो तिल का तेल डाल दे , धीमी आंच पर पकने दें ,जब सारा पानी सुख जाए ,तब ठंडा कर के छान लें, सप्ताह में एक बार बालों में लगाएं ,हल्के हाथों से मसाज करें ,बाल झड़ना बंद हो जाएंगे...

शनिवार, 20 फ़रवरी 2021

लॉकडाउन में बस / सुभाष चंदर


कभी कभी लघुकथा भी ( श्री राजेश मांझवेकर जी के अतिथि संपादन में पत्रिका सत्य की मशाल में )


लॉकडाउन में बस

सुभाष चंदर



  वह तीन दिनों से   लॉक डॉउन में फंसा हुआ था। कहीं से उड़ती उड़ती खबर मिली  कि बस अड्डे से बसें उसके राज्य की तरफ जा रही हैं। वह किसी तरह  पुलिस से बचता बचाता बस अड्डे पर पहुंच गया । वहां जाकर पता लगा कि मजदूरों को  लेकर तीन बसें जा चुकी थीं ।चौथी बस  जाने वाली थी। बस पर जिस शहर का नाम लिखा था, वह जगह उसके इलाके से से लगभग  200 किलोमीटर थी ।पर मन में सोच थी कि एक बार किसी तरह अपने प्रदेश में ,अपने लोगों के बीच पहुंच जाएं बस।आगे तो पैदल भी पहुंच जाएंगे।सो वह आगे बढ़ गया।बस के पास ही   एक तरफ मजदूरों के नाम, पते, मोबाइल नंबर वगैरह नोट किए जा रहे थे।एक नेता टाइप आदमी सब नोट कर रहा था। उसके बाद ही मजदूरों को बस में बिठाया जा रहा था। लाइन लगी थी , वह भी उसका हिस्सा बन गया । जब उसका नंबर आया तो उसने भी अपना नाम, गांव,  जिला बताया तो वह नेता भड़क उठा। बोला ," माइक पे एनोंस हो रहा है और बस पे इतना बड़का बड़का अच्छरों में सहर का नाम लिखा है। फिर तुम आए काहे लाइन में।ये बस तुम्हारे सहर नहीं जाएगी।" पर वह नहीं माना। चिरौरी करने लगा ।हाथ जोड़कर बोला ,"  मालिक , हमें भी  ले चलो। हम आगे पैदल ही चला  जाऊंगा । हमरा मेहरारू  बहोत बीमार है।हमारा  जाना बहुत  जरूरी है।" पर वो नेता टाइप उसकी दलीलों से प्रभावित नहीं हुआ।  वह तब भी उसकी खुशामद करता रहा।हारकर  नेता ने  उसे एक हट्टे कट्टे आदमी के हवाले कर दिया। वह आदमी उसे एक कोने में ले गया और बोला ,क्यों बे ,यहां क्या खैरात बंट रही है।अबे ,ये तो नेताजी के चुनाव क्षेत्र की  बसें हैं ।इसमें वो ही जाएंगे जिनके पास वोट हैं। एक मजदूर 100 को बताएगा।बसों में 1000 मजदूर भेज दिए तो लाख वोट पक्के।बेटा ,ये भविष्य का इन्वेस्टमेंट है।रहा तू तो तुझे ले चलने से क्या फायदा।ना तू वोट देगा ,ना किसी को वोट देने को बोलेगा।फिर तुझे क्यों ले जाएं" । फिर हंसकर बोला ,"आया हिसाब समझ में।"

उसको सचमुच हिसाब समझ में आ गया। उसने स्वीकृति में   सिर हिलाया और चुपचाप वहां से सिर झुकाए निकल गया ।

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2021

पंकज़ बिष्ट की दुनियां / राकेश रेणु

 दिल्ली आने के थोड़े समय बाद ही ‘समकालीन परिभाषा’ के प्रकाशन और फिर कुछ अंकों बाद आठवें दशक की कहानियों पर केंद्रित उसके विशेषांक की योजना बनी। साहित्य में मैं बाहरी आदमी था। आज भी कमोबेश यही स्थिति है।  छिटपुट पढ़ता था और दिनभर नौकरी के बाद उससे बहुत कम लिखना हो पाता था। एक किस्म का उत्साह और कुछ करने की ललक इस पत्रिका के प्रकाशन के फैसले का आधार बने। वही ललक और उत्साह इसके विशेषांकों की योजना के पीछे भी था।


    जब हमने ‘समकालीन परिभाषा’ के आठवें दशक की हिंदी कहानियों पर केंद्रित विशेषांक की योजना बनाई तो सबसे पहले उसमें कहानी के क्षेत्र में सुज्ञात लोगों से परामर्श लेने का निर्णय लिया। तब तक पंकज बिष्ट के पहले उपन्यास ‘लेकिन दरवाजा’ को पढ़ चुका था। उन दिनों उनकी एक कहानी ‘बच्चे गवाह नहीं हो सकते?’ की खासी चर्चा थी। विशेषांक के लिए चुनी गई कहानियों में यह भी शामिल थी। दुनियाभर की अर्थव्यवस्थाओं में आ रहे बदलाव और जनमानस में उपभोक्तावाद की ओर बढ़ते रुझान तथा भारतीय समाज व निम्न-मध्यवर्गीय परिवारों पर उसके प्रभाव को इंगित करने वाली यह एक महत्वपूर्ण कहानी है। अपनी प्रभावोत्पादकता और चमत्कृत कर देने वाली अर्थ-व्यंजना के चलते यह कहानी आठवें दशक की 10 श्रेष्ठ कहानियां में से एक के रूप में चुनी गई और विशेषांक में स्वतंत्र आलेख के साथ प्रकाशित हुई। पंकजजी से व्यक्तिगत मुलाकात इस विशेषांक के प्रकाशन के कई वर्ष बाद, 1996 में, तब हुई जब प्रकाशन विभाग में तबादले पर दोबारा मेरी नियुक्ति हुई। इससे पूर्व ‘आजकल’ में उनके संपादन में मेरी कविताएँ प्रकाशित हो चुकी थी।


    पंकजजी ‘आजकल’ के संपादक थे और एक बहुचर्चित कथाकार- उपन्यासकार। उनका दीप्त व्यक्तित्व और गहरी सुलझी हुई बातें खासा प्रभाव डालने वाली हुआ करतीं। उनके कमरे में हिंदी के प्रायः सभी वरिष्ठ रचनाकार आया करते। यदा-कदा वहाँ जाने पर उनमें से कुछ से मिलना भी हो जाता। त्रिलोचन जी से हुई पहली भेंट मेरे लिए रोचक और प्रेरक थी। असगर वजाहत से भी वहीं पहली मुलाकात हुई।


     हिंदी पत्रकारिता के आरंभ से ही पत्रकारिता और साहित्य का एक तरह से चोली-दामन का साथ बना रहा है। भारतेंदु हरिश्चंद्र  से लेकर अब तक यह परंपरा अबाध रूप से चली आई है। पंकज बिष्ट की साहित्यिक पत्रकारिता को उसी अटूट श्रृंखला की कड़ी के रूप में देखा जाना चाहिए। सरकारी नौकरी से स्वैच्छिक मुक्ति के बाद पिछले तीन दशक से भी अधिक समय से ‘समयांतर’ की निर्भीक और चुनौतीपूर्ण पत्रकारिता इस श्रृंखला की अगली कड़ी होते हुए भी कई मायनों में ‘आजकल’ की संपादकी से काफी अलग है। 


      ज्ञानरंजन और राजेंद्र यादव सरीखे कथाकारों ने कथा लेखन स्थगित होने अथवा करने के बाद साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम रखा जबकि भारतेंदु, प्रेमचंद, अज्ञेय, रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा आदि की सुदीर्घ परंपरा में पंकज बिष्ट ने भी पत्रकारिता के साथ-साथ मंथर गति से ही सही, सर्जनात्मक लेखन जारी रखा। इन सभी रचनाकारों की तरह पंकजजी के रचनात्मक लेखन ने उनकी पत्रकारिता को और पत्रकारिता ने उनके कथाकार को पुष्ट किया होगा। ऊपर जिन साहित्यकारों-पत्रकारों की चर्चा की गई है उनमें और पंकज बिष्ट की स्थिति में फर्क यह है कि पंकजजी ने जो पत्रकारिता स्वैच्छिक अवकाश लेने के बाद की, वह मात्र साहित्यिक पत्रकारिता नहीं है। वह समाज को प्रभावित करने वाले विभिन्न  कारकों पर गौर करने वाली, उनका सचेत मूल्यांकन और गंभीर हस्तक्षेप करने वाली पत्रकारिता है जिसके ‘पीर बावर्ची भिश्ती खर’ स्वयं पंकज बिष्ट हैं।


      'समयांतर' की पत्रकारिता ने, उनकी संपादन दृष्टि और समाज के विभिन्न पक्षों- राजनीति, आर्थिकी और संस्कृति के विविध पहलुओं पर उनकी चिंताओं और प्रखर टिप्पणियों ने उनकी एक जुझारू और क्रांतिकारी वैचारिक की छवि मजबूत की है। वे लेखन को राजनीतिक कार्य मानते हैं और यह कहते आए हैं कि हमारा हर शब्द हमारी पक्षधरता को बताता है। उनका कथा साहित्य इसे बार-बार पुष्ट करता है। वे रेखांकित करते हैं कि संकेतात्मकता और प्रतीकात्मकता से सामाजिक परिवर्तन नहीं लाया जा सकता इसीलिए वे कहते हैं कि ‘जो राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई है वह अपनी जगह है। उसकी तात्कालिकता को आप साहित्य और कलाओं की प्रतीकात्मकता से नहीं लड़ सकते। यह उस लड़ाई में सहायक जरूर हो सकती है। पर उस लडाई को लड़ना राजनीतिक तौर पर ही होगा’। अपने समय और समाज को बेहतर बनाने की यह इच्छा पंकज बिष्ट के समग्र लेखन और उनकी पत्रकारिता का भी अभीष्ट है। दोनों ही स्तरों पर उन्हें अभी यह काम जारी रखना है। 


      उन्हें 75वें जन्मदिन की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ!

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2021

निराला की कविताओं पर महादेवी वर्मा का उदगार

 ● मैं ही वसंत का अग्रदूत ! ●/  महादेवी वर्मा 


महादेवी वर्मा निराला के अंतिम दिनों को याद कर के भावुक हो जाती हैं। बोलते-बोलते उनका गला रूँध जाता है।


वो कहती हैं...


"उस वक्त समझिए कुछ नहीं था, एक फटी चादर थी। वही छेद वाली फटी चादर ओढ़कर जमीन पर लेटे थे। अब तो रोना आ जाता है। बहुत कष्ट होता है उनको सोचकर। उनका एक टूटा बक्सा था जिसमें पैराडाइज लाॅस्ट और गीता, दो किताबें थीं। एक कपड़ा भी दूसरा नहीं। उसके बाद सरकार को (मृत्यु का) पता चला, तो ये हुआ कि उनका चित्र लेना है। कहां तो ओढ़ने को साफ चादर नहीं, कहां सरकार का पूरा विभाग दौड़ पड़ा और उनको सजाने लगा। जब वो मर गये तो उन्हें सजाने लगा, बताओ !" 


(महादेवी वर्मा एक साक्षात्कार में।)


अज्ञेय जैसे धीर-गंभीर और मितभाषी व्यक्ति ने भी निराला के कवि को मृत घोषित कर दिया था। यह बात निराला को शूल की तरह जीवन भर चुभती रही। अपनी विक्षिप्त मनोदशा में वो बार-बार इस उद्धरण को खुद दुहराते रहते ..निराला इज डेड !


बाद में अपने लिखे को मिटाने की अज्ञेय ने भरसक कोशिश भी की, लेकिन वह समय की शिला पर लिखा जा चुका मिथ्या वाक्य था। उस मिथ्या दुष्प्रचार में अज्ञेय निमित्त भर बने थे। उसे निराला के अलावा कौन मेट सकता था। अंततः निराला ने 'तुलसीदास' लिखकर उस प्रवाद का रचनात्मक प्रत्याख्यान किया। 


'तुलसीदास' पढ़ने के बाद अज्ञेय की धारणा कुछ यूं बनी...


"मैं मानो संसार का एक स्थिर चित्र नहीं बल्कि एक जीवंत चलचित्र देख रहा हूँ। ऐसी रचनाएँ तो कई होती हैं जिनमें एक रसिक हृदय बोलता है। विरली ही रचना ऐसी होती है जिसमें एक सांस्कृतिक चेतना सर्जनात्मक रूप से अवतरित हुई हो। 'तुलसीदास' मेरी समझ में ऐसी ही एक रचना है। उसे पहली ही बार पढ़ा तो कई बार पढ़ा। मेरी बात में जो विरोधाभास है वह बात को स्पष्ट ही करता है। 'तुलसीदास' के इस आविष्कार के बाद संभव नहीं था कि मैं निराला की अन्य सभी रचनाएँ फिर से न पढूँ, 'तुलसीदास' के बारे में अपनी धारणा को अन्य रचनाओं की कसौटी पर कसकर न देखूँ।"


निराला के काव्यपाठ को याद करते हुये अज्ञेय यह भी लिखते हैं "काश कि उन दिनों टेप रिकार्डर होते - 'राम की शक्तिपूजा' अथवा 'जागो फिर एक बार' अथवा 'बादल राग' के वे वाचन परवर्ती पीढिय़ों के लिए संचित कर दिए गए होते। प्राचीन काल में काव्य-वाचक जैसे भी रहे हों, मेरे युग में तो निराला जैसा काव्य वाचक दूसरा नहीं हुआ।"


निराला हिन्दी के मल्ल थे।

उनमें कवि होने का अकुंठ अभिमान था। वह अभिमान थोथा नहीं था। वह अनुकरणीय शील और ठोस चरित्र से सदा संवलित रहा। उसी से बना और सँवरा था। उस अभिमान को कोई चुनौती दे, यह निराला को बर्दाश्त नहीं। इसी आत्मबल से वो गांधी और नेहरू के सामने सीना तान कर खड़े हो गये थे। मुखापेक्षिता और याचना के लिए निराला के व्यक्तित्व में तिल भर अवकाश नहीं था। इससे वो जीवन भर लड़ते रहते और अभाव का गरल पीते रहे।


हमें स्कूल स्तर से ही निराला के विद्रोह के बारे में पढ़ाया जाने लगता है। सच भी है, निराला ने अंधकार, अशिक्षा और पराधीनता की जिस कारा को तोड़ा, उन्होंने भारतीय संस्कृति और मनीषा के जिस रिक्थ को समृद्ध किया, हिन्दी उनके दाय को कभी भुला नहीं सकती। 


पाठकों के मन में निराला की क्रांतिधर्मी चेतना का सम्मान और भी बढ़ जाता है जब हम उनके परिवेश के बारे में पढ़ते हैं। आधुनिकता और प्रगतिशील मूल्यों का यह पुरोधा अपने अभाव, परिवेश और पिछड़ेपन में मध्यकाल में जी रहा था। वहां अखबार नहीं पहुँचते थे, लिखने के लिए कागज नहीं थे। वह पूरी तरह संचार से कटा हुआ था। जयशंकर प्रसाद को लिखे उनके पत्र इस बात की गवाही देते हैं। वो लिखते हैं "आप मुझे पत्र लिखने पर अपना एक सादा letter paper साथ ही रख दिया कीजिएगा। बज्र देहात है। यहां कागज का बड़ा अभाव रहता है।"


(निराला की साहित्य साधना - 3) 


9-12-27 के उक्त पत्र का उल्लेख करते हुये रामस्वरूप चतुर्वेदी कहते हैं, यह उस कवि का संघर्ष है जिसे आगे चलकर 'राम की शक्तिपूजा' और 'तुलसीदास' लिखना है।


क्रांतिधर्मी कवि-कलाकार बहुधा तेजोदीप्त हो तमाम मानवीय मूल्यों की अनदेखी कर जाते हैं। उनके तेज प्रभंजन में बहुत कुछ समूल उखड़ जाता है। कबीर का तेज भी इस बात की सनद है। तीक्ष्ण विवेक के स्वामी, भाषा को मनोनुकूल हाँकने वाले, और 'ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर' के निर्भ्रांत उद्घोषक, कबीर भी स्त्री को मान न दे सके। नारी विषयक बद्धमूल आदिम धारणा को वो तनिक हिला न सके, और कह बैठे...नारी की छाया पड़त अंधा हो भुजंग !


कहना न होगा, माया महाठगिनी को जानने वाले और माया के तिरगुन रूप का सटीक संधान करने वाले कबीर भी स्त्री की इन बेड़ियों को न तोड़ सके। और, ताज्जुब तो तब होता है जब निवृत्तिकामी वही कबीर स्त्री का भेष धारण कर ईश आराधना में रागात्मिका वृत्ति से जुड़ जाते हैं। इस अवस्था में कबीर काव्य, कला, अध्यात्म और समर्पण के सर्वोत्तम भावों का स्पर्श करने लगते हैं। तब वो सर्वाधिक रमणीय और काम्य लगते हैं। लेकिन परलोकोन्मुखी कबीर ने अध्यात्म की चाहना में जीवात्मा स्त्री पर जितनी लाली उड़ेली है, उसका छटाँक भर भी यदि इहलोक पर छिड़क देते तो आधी आबादी का बड़ा उपकार करते। 


यह देखना बड़ा दिलचस्प है कि कबीर और तुलसी अपने निर्गुण और सगुण के परस्पर विरोधी और मतांतर स्थापनाओं के बावजूद स्त्री विषयक मध्यकालीन मनोवृत्ति पर एकमत हैं। विधाता की इस रचना के प्रति तुलसी चाहे जितने प्रश्नाकुल हों, (कथ विधि सृजी नारि जगमाही?) कुठाराघात करते हुये (ढ़ोल गँवार शूद्र पशु नारी) वे भी वहीं पहुँचते हैं, जहां कबीर भुजंग के अंधा हो जाने से भयाक्रांत लुकाठी लेकर खड़े थे।


निराला में मानवतावाद सर्वोपरि था। उनका कवि स्त्री को देखते समय सहिष्णुता, धीरज और शील का परिचय देता है। वह स्त्री को देखकर गुहावास नहीं करता, उसकी छाया से बचकर भागता नहीं, बल्कि उसके लिए शीतल छाया की चिंता करता है। वह देखता है, "कोई न छायादार पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार !" स्त्री को देखने की निराला दृष्टि भी बड़ी अनूठी है..

"श्याम तन, भर बंधा यौवन,

नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन!"


ऐसी ही साफ दृष्टि में सरोज का सौंदर्य दमक उठता...

"तू खुली एक उच्छ्वास संग,

विश्वास स्तब्ध बध अंग अंग।

नत नयनों से आलोक उतर,

काँपा अधरों पर थर थर थर !"


आदिकाल ने अपह्रत किया, पूर्वमध्यकाल ने स्त्री को ढँका, उत्तरमध्यकाल ने ताक-झाँक की, और आधुनिक काल तो क्रांति की पिनक में उसे उघाड़ता ही चला गया। इस अंतराल में एक निराला ही थे, जिसने संतुलित दृष्टि से उसे देखने की स्वस्थ प्रस्तावना की।


निराला ने काव्य सौंदर्य का उदात्तीकरण किया। उनके पास क्रांति का उद्घोषक बादल है। वह न केवल गर्जना करता है, बल्कि बरसता भी है। उनका सौंदर्य विधान आसमानी नहीं है, वह पातालगंगा की तरह फूटता है और रससिक्त कर देता है ...ज्यों भोगावती उठी अपार !

उनका काव्यनायक पवन, और नायिका जूही की कली है। उनके पास अभिसार के लिए प्रकृति का अनिंद्य उद्यान और गिरि कानन हैं।

उनके लिए स्मृतियां ही पाथेय, और अभाव ही संपदा है...

ले चला साथ मैं तुझे कनक,

ज्यों भिक्षुक लेकर स्वर्ण झनक।


जगत को फूल फल देकर अपनी प्रतिभा से चकित करने वाला, राग-विराग में झूमता मतवाला ही वसंत का अग्रदूत हो सकता है।


🌼🌼


लेखक :- Ambuj Pandey

विवाह

 विवाह एक खूबसूरत जंगल हैं, जहॉ.. 

बहादुर शेरों का शिकार 

'बिल्लियां' करती है..!! 😊😊


'विवाह मतलब'

अजी सुनते हो, से लेकर..  

बहरे हो गए हो क्या..? 

तक का सफर .!! 😊😊

.

'विवाह मतलब'

तेरे जैसा कोई नहीं.. 

से लेकर.. 

तेरे जैसे बहुत देखे हैं.. 

तक का सफर..!! 😊😊

.

'विवाह मतलब'

प्लीज आप रहने दीजिए.. 

से लेकर 

मेहरबानी करके, आप तो रहने ही दो.. 

तक का सफर.. 😊😊

.

'विवाह मतलब'

कहाँ गये थे जानू.. 

से लेकर 

कहाँ मर गये थे.. 

तक का सफर.. 😊😊

.

'विवाह मतलब'

आप मुझे नसीब से मिले हो ... 

से लेकर 

नसीब फूटे थे, जो तुम मिले... 

तक का सफर.. 😊😊

.

'विवाहित जिंदगी'

कश्मीर जैसी है❗

खूबसूरत तो है., 

परंतु आतंक बहुत है..‼️


😝😝😆😆😅😅

बुधवार, 17 फ़रवरी 2021

ख़ुशी Vs संतुष्टि

 रिक्शे वाला 🔆/ कृष्ण मेहता 

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 एक बार एक अमीर आदमी कहीं जा रहा होता है तो उसकी कार ख़राब हो जाती है। उसका कहीं पहुँचना बहुत जरुरी होता है। उसको दूर एक पेड़ के नीचे एक रिक्शा दिखाई देता है। वो उस रिक्शा वाले पास जाता है। वहा जाकर देखता है कि रिक्शा वाले ने अपने पैर हैंडल के ऊपर रखे होते है। पीठ उसकी अपनी सीट पर होती है और सिर जहा सवारी बैठती है उस सीट पर होती है ।


 और वो मज़े से लेट कर गाना गुन-गुना रहा होता है। वो अमीर व्यक्ति रिक्शा वाले को ऐसे बैठे हुए देख कर बहुत हैरान होता है कि एक व्यक्ति ऐसे बेआराम जगह में कैसे रह सकता है, कैसे खुश रह सकता है। कैसे गुन-गुना सकता है। 


 वो उसको चलने के लिए बोलता है। रिक्शा वाला झट से उठता है और उसे 20 रूपए देने के लिए बोलता है।


  रास्ते में वो रिक्शा वाला वही गाना गुन-गुनाते हुए मज़े से रिक्शा खींचता है। वो अमीर व्यक्ति एक बार फिर हैरान कि एक व्यक्ति 20 रूपए लेकर इतना खुश कैसे हो सकता है। इतने मज़े से कैसे गुन-गुना सकता है। वो थोडा इर्ष्यापूर्ण  हो जाता है और रिक्शा वाले को समझने के लिए उसको अपने बंगले में रात को खाने के लिए बुला लेता है। रिक्शा वाला उसके बुलावे को स्वीकार कर देता है।


 वो अपने हर नौकर को बोल देता है कि इस रिक्शा वाले को सबसे अच्छे खाने की सुविधा दी जाए। अलग अलग तरह के खाने की सेवा हो जाती है। सूप्स, आइस क्रीम, गुलाब जामुन सब्जियां यानि हर चीज वहाँ मौजूद थी।


  वो रिक्शा वाला खाना शुरू कर देता है, कोई प्रतिक्रिया, कोई घबराहट बयान नहीं करता। बस वही गाना गुन-गुनाते हुए मजे से वो खाना खाता है। सभी लोगो को ऐसे लगता है जैसे रिक्शा वाला ऐसा खाना पहली बार नहीं खा रहा है। पहले भी कई बार खा चुका है। वो अमीर आदमी एक बार फिर हैरान एक बार फिर इर्ष्यापूर्ण कि कोई आम आदमी इतने ज्यादा तरह के व्यंजन देख के भी कोई हैरानी वाली प्रतिक्रिया क्यों नहीं देता और वैसे कैसे गुन-गुना रहा है जैसे रिक्शे में गुन-गुना रहा था।


 यह सब कुछ देखकर अमीर आदमी की इर्ष्या और बढती है। 

अब वह रिक्शे वाले को अपने बंगले में कुछ दिन रुकने के लिए बोलता है। रिक्शा वाला हाँ कर देता है। 


  उसको बहुत ज्यादा इज्जत दी जाती है। कोई उसको जूते पहना रहा होता है, तो कोई कोट। एक बेल बजाने से तीन-तीन नौकर सामने आ जाते है। एक बड़ी साइज़ की टेलीविज़न स्क्रीन पर उसको प्रोग्राम दिखाए जाते है। और एयर-कंडीशन कमरे में सोने के लिए बोला जाता है।


 अमीर आदमी नोट करता है कि वो रिक्शा वाला इतना कुछ देख कर भी कुछ प्रतिक्रिया नहीं दे रहा। वो वैसे ही साधारण चल रहा है। जैसे वो रिक्शा में था वैसे ही है। वैसे ही गाना गुन-गुना रहा है जैसे वो रिक्शा में गुन-गुना रहा था।


  अमीर आदमी के इर्ष्या बढ़ती चली जाती है और वह सोचता है कि अब तो हद ही हो गई। इसको तो कोई हैरानी नहीं हो रही, इसको कोई फरक ही नहीं पढ़ रहा। ये वैसे ही खुश है, कोई प्रतिक्रिया ही नहीं दे रहा।


 अब अमीर आदमी पूछता है: आप खुश हैं ना? 

वो रिक्शा वाला कहते है: जी साहेब बिलकुल खुश हूँ।


  अमीर आदमी फिर पूछता है: आप आराम में  हैं ना ? 

रिक्शा वाला कहता है: जी बिलकुल आरामदायक हूँ।


 अब अमीर आदमी तय करता है कि इसको उसी रिक्शा पर वापस छोड़ दिया जाये। वहाँ जाकर ही इसको इन बेहतरीन चीजो का एहसास होगा। क्योंकि वहाँ जाकर ये इन सब बेहतरीन चीजो को याद करेगा।


  अमीर आदमी अपने सेक्रेटरी को बोलता है की इसको कह दो कि आपने दिखावे के लिए कह दिया कि आप खुश हो, आप आरामदायक हो। लेकिन साहब समझ गये है कि आप खुश नहीं हो आराम में नहीं हो। इसलिए आपको उसी रिक्शा के पास छोड़ दिया जाएगा।”


 सेक्रेटरी के ऐसा कहने पर रिक्शा वाला कहता है: ठीक है सर, जैसे आप चाहे, जब आप चाहे।


  उसे वापस उसी जगह पर छोड़ दिया जाता है जहाँ पर उसका रिक्शा था। 


 अब वो अमीर आदमी अपने गाड़ी के काले शीशे ऊँचे करके उसे देखता है।


  रिक्शे वाले ने अपनी सीट उठाई बैग में से काला सा, गन्दा सा, मेला सा कपड़ा निकाला, रिक्शा को साफ़ किया, मज़े में बैठ गया और वही गाना गुन-गुनाने लगा।


 अमीर आदमी अपने सेक्रेटरी से पूछता है: “कि चक्कर क्या है। इसको कोई फरक ही नहीं पड रहा इतनी आरामदायक वाली, इतनी बेहतरीन जिंदगी को ठुकरा के वापस इस कठिन जिंदगी में आना और फिर वैसे ही खुश होना, वैसे ही गुन-गुनाना।”


  फिर वो सेक्रेटरी उस अमीर आदमी को कहता है: “सर यह एक कामियाब इन्सान की पहचान है। एक कामियाब इन्सान वर्तमान में जीता है, उसको मनोरंजन (enjoy) करता है और बढ़िया जिंदगी की उम्मीद में अपना वर्तमान खराब नहीं करता। 


 अगर उससे भी बढ़िया जिंदगी मिल गई तो उसे भी वेलकम करता है उसको भी मनोरंजन (enjoy) करता है उसे भी भोगता है और उस वर्तमान को भी ख़राब नहीं करता। और अगर जिंदगी में दुबारा कोई बुरा दिन देखना पड़े तो वो भी उस वर्तमान को उतने ही ख़ुशी से, उतने ही आनंद से, उतने ही मज़े से, भोगता है मनोरंजन करता है और उसी में आनंद लेता है।”


कामयाबी आपके ख़ुशी में छुपी है, और अच्छे दिनों की उम्मीद में अपने वर्तमान को ख़राब नहीं करें। और न ही कम अच्छे दिनों में ज्यादा अच्छे दिनों को याद करके अपने वर्तमान को ख़राब करना है।

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पिथोरा चित्रकला

 पिथोरा चित्रकला

पिथोरा चित्रकला एक प्रकार की चित्रकला है। जो भील जनजाति के सबसे बड़े त्यौहार पिठौरा पर घर की दीवारों पर बनायी जाती है।मध्य प्रदेश के पिथोरा क्षेत्र मे इस कला का उद्गम स्थल माना जाता है। इस कला के विकास में भील जनजाति के लोगों का योगदान उल्लेखनीय है। इस कला में पारम्परिक रंगों का प्रयोग किया जाता था। प्रायः घरों की दीवारों पर यह चित्रकारी की जाती थी परन्तु अद्यतन समय में यह कागजों, केन्वस, कपड़ों आदि पर की जाने लगी है। यह चित्रकला बड़ोदा से ९० किलोमीटर पर स्थित तेजगढ़ ग्राम (मध्य गुजरात) में रहने वाली राठवा, भील व नायक जनजाति के लोगों द्वारा दीवारों पर बनाई जाती है।

पिथोरा चित्रकला

इसके अतिरिक्त बड़ोदा जिले के तेजगढ़ व छोटा नागपुर ताल्लुक के आसपास भी पिथोरा चित्रकला घरों की तीन भीतरी दीवारों में काफी संख्या में वहां रहने वाले जनजातीय लोगों के घरों में देखी जा सकती हैं। पिथोरा चित्रकला का इन जनजातीय लोगों के जीवन में विशेष महत्व है तथा उनका यह मानना है कि इस चित्रकला को घरों की दीवारों पर चित्रित करने से घर में शान्ति, खुशहाली व सौहार्द का विकास होता है।

पिथोरा चित्रकला का चित्रण राठवा जाति के लोग ही सबसे अधिक करते हैं तथा अत्यन्त ही साधारण स्तर के किन्तु धार्मिक लोग होते हैं। इनके लिए पिथोरा बाबा अति विशिष्ठ व पूजनीय होते हैं। इस चित्रकला के चित्रण में ये लोग बहुत धन लगाते हैं तथा जो अपने घर में अधिकाधिक पिथोरा चित्र रखते हैं वे समाज में अति सम्माननीय होते हैं। पिथोरा चित्रकार को लखाड़ा कहा जाता है तथा जो इन चित्रकलाओं का खाता रखते हैं उन्हें झोखरा कहा जाता है। सर्वोच्च पद पर आसीन जो पुजारी धार्मिक अनुष्ठान करवाता है उसे बडवा या अध्यक्ष पुजारी कहते हैं। सामान्यत: लखाड़ा किसान होते हैं। इस् चित्रकला का चित्रण केवल पुरुष ही कर सकते हैं। खातों की देखरेख के अतिरिक्त लखाड़ा सामान्य चित्रण जैसे रंग भरने का कार्य ही पिथोरा चित्रकारों में शामिल होकर कर सकते हैं। वरिष्ठ कलाकारों के मार्गदर्शन में लखाड़ा अच्छे चित्रकार बन जाते हैं। महिलाओं के लिए पिथोरा चित्रण निषेध है।

खो गयी कहीं चिट्ठियां

 प्रस्तुति  *खो गईं वो चिठ्ठियाँ जिसमें “लिखने के सलीके” छुपे होते थे, “कुशलता” की कामना से शुरू होते थे।  बडों के “चरण स्पर्श” पर खत्म होते...