कुमार रविन्द्र की नजर में कबिरा की कासी
एक स्मृतिगाथा कबिरा की कासी की ‘बनारस एक चादर है जिसकी बुनावट में कहीं-न-कहीं कबीर हैं जो भी इसे साँचे मन से ओढ़ता है एक बार अलग नहीं रह पाता एक पल भी स्मृति से ऐसी लिपट जाती है वह चादर’ — शिवकुमार पराग कबिरा की कासी, बाबा विश्वनाथ की काशीनगरी, आम आदमी का बनारस और शासकीय केन्द्र वाराणसी— इन्हें मेरा जानना आज से लगभग पचास वर्ष पूर्व का है। और, सच में, तभी से लिपटी है मेरी स्मृति से कबीराई बुनावट की यह चादर।हाँ,जतन-से-ओढ़ी-नहीं-गई यह चादर पता नहीं कहाँ-कहाँ का मैल लपेट लाई है। भारतेन्दु की नगरी से बहुत दूर मैं आ बसा हूँ उनके पूर्वजों के मूलस्थान अग्रोहा के पड़ोसी नगर हिसार-ए-फिरोज़ा में। इस पचास साल के अंतराल में बस दो बार जा सका हूँ बनारस, किंतु दोनों बार पचास वर्ष पहले का ही बनारस मेरी याद से लिपटा रहा। इक्कीसवीं सदी की तेज चाल में ढलता, ‘मल्टीप्लेक्स’ और ‘मैक्डोनाल्ड’ की फ़िलवक्ती रवायत को अपनाता आधुनिक बनारस पिछली बार इक्कीसवीं सदी की शुरूआत में जाने पर भी पता नहीं क्यों मेरी नज़रो