राजेन्द्र अवस्थी को याद करते हुए कुछ प्रसंग
अनामी शरण बबल जीवन में पहली बार मैं दिल्ली 1984 में आया था। फरवरी की कंपकपाती ठंड में उस समय विश्व पुस्तक मेला का बाजार गरम था। दिल्ली का मेरा इकलौता मित्र अखिल अनूप से अपनी मस्त याराना थी। कालचिंतन के चिंतक पर बात करने से पहले दिल्ली पहुंचने और दिल्ली में घुलने मिलने की भी तो अपनी चिंता मुझे ही करनी थी। उस समय हिन्दी समाज में कादम्बिनी और इसके संपादक का बड़ा जलवा था। इस बार की दिल्ली यात्रा में अवस्थी जी से मेरी एकाएक क्षणिक मुलाकात पुस्तक मेले के किसी एक समारोह में हुई थी। जिसमें केवल उनके चेहरे को देखा भर था। मगर 1984 में ही गया के एक कवि प्रवीण परिमल मेरे घर देव औरंगाबाद बिहार में आया तो फिर प्रवीण से भी इतनी जोरदार दोस्ती हुई जो आज भी है। केवल अपने लेखक दोस्तों से मिलने के लिए ही मैं एक दो माह में गया भी चला जाता था। इसी बहाने गया के ज्यादातर लेखक कवि पत्रकारों से भी दोस्ती सलामत हो गयी। जिसमें सुरंजन का नाम सबसे अधिक फैला हुआ था। दिल्ली से अनभिज्ञ मैं सुरंजन के कारण ही कादम्बिनी परिवार से परिचित हुआ। जब भी दिल्ली आया तो पहुंचने पर कुछ समय कादम्बिन