शुक्रवार, 16 अप्रैल 2021

अब केवल यादों में डॉक्टर गिरिधारी जी

 स्मृति शेष /

डॉ० गिरिधारी जी की रचनाएं नई पीढ़ी को जागरूक करती रहेगी /

 विजय केसरी 


डॉ० गिरिधारी राम गौंझू का जाना एक अपूरणीय क्षति है।  झारखंड की लोक कला, संस्कृति, रीति - रिवाज, रहन-सहन, भाषा आदि पर उनकी गहरी पकड़ थी। झारखंड की  लोक भाषा , कला - संस्कृति , नृत्य - संगीत विकास आदि के प्रति उनकी निष्ठा देखते बनती थी । उन्होंने  बाल काल से ही हिंदी को समृद्ध बनाने के लिए लेखन से नाता जोड़ा लिया था । उनका हिंदी से यह नाता  आजीवन बना रहा था।

  वे नियमित रूप से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में झारखंड से संबंधित लेख लिखा करते थे ।  उनकी सामग्रियां  रांची सहित देश के विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में स सम्मान  प्रकाशित होती रही थी । रांची से प्रकाशित हिंदी दैनिक 'रांची एक्सप्रेस' में उनके लेखन के प्रारंभिक दिनों में कई लेख प्रकाशित हुए ।  सभी लेख बहुत ही महत्वपूर्ण व शोध परक हैं । उनके लेखों का संकलन पुस्तक रूप में आ जाए तो यहां के सुधी पाठकों के लिए एक संग्रहणीय पुस्तक बन जाएगी । जहां तक मेरी स्मृति में है कि गिरिधारी राम गौंझू का पहला लेख 'रांची एक्सप्रेस' में प्रकाशित हुआ  था । 

जब मैं 'कब बदलेगी झारखंड की तस्वीर ?' सिरीज़ लिख रहा था , इस श्री निमित्त मैंने उनसे कुछ लिखने के लिए आग्रह किया था । सबसे पहले उन्होंने मुझे इस सीरीज के लिए बधाई दिया था । साथ ही  सुझाव भी दिया था कि आप झारखंड के बी.पी .केसरी, विद्याभूषण, डॉ० अशोक प्रियदर्शी, महुआ मांझी, प्रोफेसर शिव कुमार मिश्रा, आदि से मिलकर उनकी बातें भी प्रकाशित करें । इसके साथ ही उन्होंने यह भी चिंता व्यक्त की थी कि झारखंड अलग प्रांत का निर्माण जिस उद्देश्य की पूर्ति के लिए हुआ था, सत्ता की दिशा उस ओर नहीं जा रही है। फलस्वरुप यहां की भाषा , संस्कृति  पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है । इस दिशा में भी झारखंड के लेखकों को अपनी कलम चलानी चाहिए । गिरिधारी राम गौंझू जी अपनी उक्त टिप्पणी को आधार सूत्र मानकर लिखते रहे थे। 

उन्होंने समय पर मुझे लेख भेज दिया था  मैंने उनके लेख को सचित्र प्रकाशित किया था । लेख प्रकाशन के बाद उन्होंने मुझे बधाई दी थी । उनसे मेरी जब भी बातचीत हुई , उन्हें झारखंड की नहीं बेहद चिंता थी । झारखंड अलग प्रांत के संघर्ष में उन्होंने सौ से अधिक लेख इस आंदोलन को समर्पित किया था । यह अपने आप में एक रिकॉर्ड है। वरिष्ठ पत्रकार संजय कृष्ण जी ने गिरिधारी राम गोंझू के संबंध में ठीक ही लिखा है कि 'वे एक सहज सरल, मृदुभाषी व्यक्ति थे । उनका अंदर और बाहर एक समान था । वे जब भी किसी से मिलते थे, उनके चेहरे की खुशी देखते बनती थी'।

 मेरी कई रचनाएं उनकी रचनाओं के साथ  विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में एक साथ छपी थी । मिलने पर वे रचनाओं के मुत्तलिक  जरूर कुछ कहते थे । उनके सुझाव बहुत ही बहुमूल्य हुआ करते थे । वे रामदयाल मुंडा, बी .पी. केसरी ,अशोक प्रियदर्शी , बलबीर दत्त, हरिवंश जैसे शिक्षाविदों के एक प्रिय लेखक रहे । झारखंड के वरिष्ठ पत्रकार पद्मश्री बलवीर दत्त उनकी बड़ी तारीफ करते हैं । 

 गिरिधारी जी एक मिलनसार व्यक्ति थे । हमेशा दूसरों के सुख - दुख में मदद किया करते थे।  उनका यह मिलनसार व्यवहार आजीवन बना रहा । हिंदी साहित्य और नागपुरी भाषण पर उनकी जबरदस्त पकड़ थी ।  वे जितना लिखते थे । उससे कहीं ज्यादा पढ़ते थे । उनकी रचनाओं में गहराई होती है । उनकी रचनाएं लोगों में आशा की किरण पैदा करती हैं । जब वे मंच से अपनी बातों को रखते थे । उनकी बातें भी गहरी होती थी।  वे जिस विषय पर अपनी बातों को रखते थे । बहुत ही तन्मयता के साथ रखते थे । बिल्कुल विषयातर नहीं जाते थे । वे गहराई के साथ अपनी बातों को रखते थे । लोग उनकी बातों को बड़े ध्यान से सुनते थे ।

झारखंड की लोक कला विकास, भाषा विकास और नृत्य विकास के प्रति उनकी रचनाएं निरंतर समय से संवाद करती रहेगी । उन्हें गर्व था कि उनका जन्म एक झारखंडी परिवार में हुआ । वे  झारखंड की रीति रिवाज को सहेजना चाहते थे । इसे आगे बढ़ाना चाहते थे। इस निमित्त उन्होंने असंख्य लेख लिखा जो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित है । अब वे  उम्र के जिस पड़ाव पर  पहुंच चुके थे ।  उन्होंने  लेखों का संकलन और संपादन प्रारंभ कर दिया था । लेकिन उनका यह कार्य  अधूरा रह गया । उनकी छोटी - बड़ी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है । उन्होंने जितना लिखा है ,मेरी दृष्टि में पच्चास से अधिक पुस्तकें तैयार हो सकती हैं । लेकिन उनका यह कार्य अधूरा रह  गया । 

 मैं झारखंड के मुख्यमंत्री से आग्रह करना चाहता हूं कि सरकारी स्तर पर  गिरिधारी राम गौंझू जी के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में बिखरे पड़े लेखों को संग्रहित कर पुस्तक का रूप  प्रदान किया जाए । यह उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

 झारखंड अलग प्रांत की लड़ाई में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। गिरिधारी राम गौंझू झारखंड के जाने-माने चिर परिचित लेखक थे । उनकी रचनाएं हिंदुस्तान, प्रभात खबर, दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, खबर मंत्र, देशप्राण सहित देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहती थी। झारखंड के  पर्व - त्योहारों पर उनकी रचनाएं काफी जानकारियों से युक्त होती थी । अब वे हमारे बीच नहीं है। उनकी रचनाएं नई पीढ़ी को सदा  जागरूक करती रहेगी। उनका इस धरा पर जाना अपूरणीय क्षति है ।


विजय केसरी,

 (कथाकार स्तंभकार) ,

पंच मंदिर चौक , हजारीबाग - 825 301,

 मोबाइल नंबर  92347 99550.

बुधवार, 14 अप्रैल 2021

सुनील सक्सेना की तीन रचनाएँ

कहानी / रंग दी कोरी चुनरिया / सुनील सक्‍सेना


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“मां मैंने आपको फोन पर पहले ही कह दिया था कि इस बार होली पर अनरसे आप मेरे आने के बाद ही बनाना । मुझे सीखना है, आप कैसे बनाती हैं ? मैंने एकाध बार कोशिश भी की पर हमेशा बिगड़ जाते हैं ।  कोई स्‍वाद ही नहीं आता… क्‍या भाभी आपने भी मां को नहीं रोका… ।” शादी के बाद सुमन की मायके में पहली होली है । पतिदेव को अनरसे बेहद पसंद हैं । सुमन ने वादा किया था कि इस बार होली पर मां से लज्‍जतदार अनरसे का सीक्रेट पता करके ही आएगी । अब गई बात अगली होली तक ।

सुमन जानती है कि मां सिर्फ होली पर ही अनरसे बनाती हैं । विक्रम भैया तो अनरसे के दीवाने थे । फौज में थे । अक्‍सर छुट्टियों की प्‍लानिंग वो ऐसी करते थे कि होली का त्‍योहार  घर पर सबके साथ मिलकर सेलीब्रेट करें । वो होली का ही दिन था, जब हेडक्‍वार्टर से विक्रम भैया की शहादत की खबर आई थी । घाटी में आतंकवादियों के साथ मुठभेड़ में शहीद हो गए थे । किसी तेज भूकंप की तरह बुरी तरह से तहस-नहस हो गया था हमारा परिवार । भाभी प्रेगनेंट थीं । पापा को दिल का दौरा पड़ा । इस सदमें से मां आज तक उबर नहीं सकी हैं ।


बीते चार साल से मां हर होली पर अनरसे बनाती है । डिब्‍बे में अनरसे पेक कर के भाभी को इस हिदायत के साथ सुपुर्द करती हैं कि डिब्‍बा तभी खोलें जब विक्रम आएगा । मां किसी को डिब्‍बा छूने तक नहीं देती । अनरसों पर फफूड़ी जम जाती है । पापा कुछ दिनों बाद चुपचाप डिब्‍बे से अनरसे निकालकर बगीचे में फेंककर उस पर मिट्टी डाल देते हैं, ताकि मां की नजर न पड़े ।


“किसके लिए बनाती हो तुम ये सब…? विक्रम को मरे हुए चार साल हो गये हैं । वो अब कभी नहीं आयेगा तुम्‍हारे अनरसे खाने के लिए ।” पापा मां को समझाते हैं,  लेकिन मां इस सच को स्‍वीकार ने के लिए तैयार नहीं है कि विक्रम भैया अब इस दुनिया में नहीं हैं । मां को आज भी लगता है विक्रम भैया वर्दी पहने घर आयेंगे और सीधे किचन में अनरसे के डिब्‍बे पर टूट पड़ेंगे बिल्‍कुल वैसे ही जैसे वे दुश्‍मन पर टूट पड़ते थे ।


“मां आपने भाभी के बारे में कुछ सोचा ? आखिर कब तक आप उन्‍हें इस तरह घर में रखेंगी ? अभी तो आप और पापा जिंदा है । आप दोनों के जाने के बाद भाभी का क्‍या होगा, कभी सोचा है आपने  ? भाभी की उम्र ही क्‍या है । कल को आशु बड़ा होगा । उसकी पढ़ाई लिखाई,  उसका भविष्‍य कौन देखेगा ये सब ? लंबी जिंदगी पड़ी है भाभी के सामने । अकेले जीवन बिताया तो जा सकता है जीवन जिया नहीं जा सकता मां ।”  सुमन भाभी की दूसरी शादी की बात न जाने कितनी बार दोहरा चुकी है, पर मां को विक्रम भैया का प्रतिरूप आशु में  दिखता है  । प्राण बसते हैं मां के आशु में । आंख की पुतली है आशु मां के लिए ।  भाभी और आशु को वो किसी भी कीमत पर अपने से जुदा नहीं करेंगी ।  


“किससे करवा दें शादी ? शादी के दिन से ही बिरादरी में बेचारी अभागिन होने का कलंक ढो रही है । क्‍या राह चलते किसी भी लड़के से बांध दूं अपनी बहू को ? कौन करेगा शादी ? तुम ही बताओ ?” मां ने पहली बार भाभी के पुर्नविवाह को लेकर मन में बंधी गिरह को खोला । 


                 “राहुल …”  सुमन ने तपाक से कहा ।


राहुल और विक्रम बचपन के  जिगरी दोस्‍त थे । विक्रम और राहुल के घरों की दीवारें एक दूसरे से लगी हुई थीं । दोनों की खूब छनती थी । बरसों लंगोटी में फाग खेली थी दोनों ने ।  विक्रम का राहुल के साथ उठना बैठना मां को पसंद नहीं था । विक्रम मेधावी था । राहुल पढ़ने-लिखने में कमजोर,  लेकिन मेहनती था । राहुल के पिता की किराने की छोटी सी दुकान है । घर किराने की आमदानी से चलता है ।


“राहुल…!  होश में तो हो तुम सुमन ? क्‍या कह रही हो ? वो हमारी जाति का नहीं है तुम अच्‍छी तरह से जानती हो । भला उससे हमारे  खानदान का क्‍या मेल ?” राहुल का प्रस्‍ताव मां की कल्‍पना से परे था ।


“किसकी जाति की बात कर रही हैं मां ?  आप वो दिन भूल गई जब विक्रम भैया की ऐन  शादी वाले दिन अचानक तबियत खराब हो गई थी । सारे शरीर पर दाने हो गए । स्‍मॉल पॉक्‍स । तेज बुखार  । विक्रम भैया दो कदम चलने की हालत में नहीं थे । बारात निकलने की तैयारी हो गई थी ।  क्‍या होगा ?  घर मेहमानों से भरा था । शादी टाली नहीं जा सकती थी । हमारे रिश्‍तेदारों में से कोई भी अपने लड़कों  को भैया कि पगड़ी-सेहरा लेकर भाभी के घर तक बरात लेकर जाने को तैयार नहीं था । सब भाभी के ग्रहों को दोष दे रहे थे । अपशकुनी, अभागिन और न जाने क्‍या-क्‍या कहा लोगों ने भाभी को । तब ये राहुल का परिवार ही था मां जिसने हमारी संकट की घड़ी में मदद की । राहुल ही था जो विक्रम भैया की पगड़ी-सेहरे को थाल में रखकर दूल्‍हे के सांकेतिक रूप में,  भाभी के घर गया था । उस ही की वजह से हमारे घर में भैया की शादी की रस्‍में पूरी हों सकीं । क्‍या बुराई है राहुल में ? विक्रम भैया के जाने के बाद आप लोगों की हर परेशानी में राहुल एक पैर पर खड़ा रहता है । सज्‍जन है । ईमानदारी से गुजारे लायक कमा ही लेता है । भाभी और आशु को खुश रखेगा मां ।” सुमन के मन की बात का बांध टूट गया ।


“सुमन ठीक कह रही है… राहुल और उसके घरवालों को हम बरसों से अच्‍छी तरह जानते पहचानते हैं । अच्‍छे पड़ोसी हैं हमारे । हर सुख-दुख में राहुल का परिवार हमारे साथ रहा है ।” पापा ने सुमन की बात को संबल देते हुए कहा ।


मां खामोश थीं । उनकी खामोशी में अहम निर्णय  की गूंज सुनाई दे रही थी ।  घर के बाहर होली का हुड़दंग शुरू हो गया था । आशु को  पिचकारी का इंतजार था । राहुल  कल ही आशु के लिए पिचकारी लाने का वादा करके गया था । राहुल को दरवाजे पर देखते ही आशु दौड़कर उसके पास गया और उसके हाथों से पिचकारी छीन ली । सुमन अंदर अबीर की थाली लेने के लिए भागी । राहुल ने मां के पैर छुए, माथे पर गुलाल लगाया । भाभी दरवाजे पर रखी बाल्‍टी में आशु के लिए रंग घोल रही थीं । 


“राहुल बेटा हर बार तुम होली पर हम सबको तुम रंगते थे,  हमारी बहू पूजा कोरी रह जाती थी । क्‍या  तुम मेरा बेटा विक्रम बन मेरी बहू  के संग होली खेलोगे ?”  राहुल ने पास में खड़ी सुमन के हाथ से रंगबिरंगे गुलाल की थाली ली और पूजा के चहरे पर अबीर मल दिया ।


“बहू बस यूं ही खड़ी रहोगी । जाओ अंदर से अनरसे ले आओ । और हां सुनो पूरा डिब्‍बा लाना मेरे बेटे राहुल के लिए …”


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होली का चंदा:/  सुनील सक्‍सेना


                अपना तो पूरा साल किसी न किसी मौके पर चंदा देते हुए ही निकल जाता है ।  होली का चंदा, गणेश जी का चंदा, नवरात्रि का चंदा । यानी जैसे ही त्योहारों का मौसम आता है, इन चंदा मांगनेवालों का धंधा जोरों  पर चलने लगता है और अपनी जेब ढीली होने लगती है  । गली-मोहल्‍ले के शोहदे चंदे के रसीद कट्टे बगल में दबाये झुंड के साथ चंदा मांगने निकल पड़ते हैं । बात जब होली के चंदे की हो तो अपनी लानत-मलामत के डर से अच्‍छे-अच्‍छे सूरमा अपनी अंटी ढीली कर देते हैं ।


               चंदा वसूली का ये धंधा त्‍यौहारों तक ही सीमित होता तो भी गनीमत थी । हालात ये हैं कि चंदा मांगनेवाले कोई भी अवसर नहीं चूकते । चुनावों में चंदा मांगना तो चंदों की सूची में अव्‍वल पायदान पर है । वार्ड के चुनाव हों तो पानवाले-गुमटीवालों से चंदा,  विधान सभा के चुनाव हों तो नगर सेठ से चंदा,  लोकसभा चुनाव हो तो बिरला- टाटा- अंबानी अडानी से चंदा । और जब देश कंगाली की कगार पर पहुंच जाये तो आइ.एम.एफ. तक से चंदा मांगने में ये कोई गुरेज नहीं करते ।


               चंदा मांगनेवाली इस प्रजाति का दुष्‍प्रभाव मुझ पर कुछ इस कदर हुआ कि अब आलम ये है कि ‘चंदा’ शब्‍द मेरी ‘चिढ़ान’  हो गई है । इन  नामुराद चंदेवालों की चंदा उगाही से नफरत के चक्‍कर में कम्‍बखत मेरी चंदा ने भी अब ख्‍वाबों में आना छोड़ दिया है । आपको भले ही चंदामामा में सूत कातती चरखे वाली बुढ़िया नजर आती हो मुझे तो हर पूरनमासी को चांद एक कटोरा लगता है जो तारों के शहर में कटोरा लिये चंदा मांगने निकल पड़ा हो ।


                वैसे इस बार मैंने ठान लिया था कि होली पर चंदा नहीं दूंगा । अब भला ये भी कोई बात हुर्ई कि आप हमारे गाढ़े खून-पसीने की कमाई से चंदा ले जायें और हमारे ही सामने उसी पैसे से गुलछर्रे उडायें । लेकिन साहब जवाब नहीं हमारे मोहल्‍ले के छोकरों की ‘कनविंसिंग पॉवर’ का । ऐसा लगता है जैसे किसी “नेशनल इंस्‍टीटूयट ऑफ चंदा उगाही”  से विधिवत प्रशिक्षित हों ।  दो मिनिट में ही मुझे चंदा देने के लिए मजबूर दिया । ग्‍यारह,  इक्‍कीस नहीं पूरे एक सौ एक रूपये झटक लिए ।


              वही हुआ जैसा सोचा था ।  रात को नुक्‍कड़ पर बाइक पर सवार बियर की बोतलें लिये  ‘चंदा कलेक्‍टर्स’  होलीका दहन का लुत्‍फ ले रहे थे । मैंने एक बार फिर चंदा न देने की कसम खाई । तभी पीछे से आवाज आई ।    क्‍या सोच रहे हैं अंकल ...? किस बात का मलाल कर रहे हैं ...? चंदे का धंधा सर्वव्‍यापी है.. दुनिया चंदे पर चल रही है । आप नाहक परेशान हो रहे हैं ।  होली  है.. मौका भी है.. दस्‍तूर भी है… बियर भी चिल्‍ड है.. एक घूटंमार लें अंकल । कलेजे को ठंडक मिल जायेगी । वैसे बुरा लगा हो तो माफ करना अंकल । होली है .. बुरा न मानो होली है ।


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व्‍यंग्‍य / सत्‍य पराजित नहीं होता /   सुनील सक्‍सेना


                               मार्निंग वॉक पर कुछ दूर तक खामोश चलने के बाद उन्‍होंने मुझसे पूछा “क्‍या सत्‍य बोलना बुरा होता है ?”  मैं सुबह-सुबह कृष्‍ण-अर्जुन के  महाभारत टाइप वाले सवाल के लिए कतई तैयार नहीं था ।    मुझे इस तरह के दार्शनिक सवालों  के उत्‍तर देने का न कोई तजुर्बा है, न ही ज्ञान  । वे मेरे हमजोली हैं । अपने मन की बात मुझसे ही करते हैं  ।  


मैंने कहा – “ये इस बात पर डिपेंड करता है कि बोले गए “सत्‍य” का स्‍वरूप कैसा है ?”  


वे बोले – “मतलब ?”


मैंने कहा- “सत्‍य दो प्रकार के होते हैं । एक सत्‍य तो “कड़वा” होता है । सब जानते हैं ।  दूसरा सत्‍य “चिरपिरा” होता है ।  ऐसे सत्‍य को बोलने से सामने वाले को मिर्ची लगती है । गुजिश्‍ता दौर में जब इंसानी फितरत में मिठास होती थी, तो कोई किसी के मुंह पर सच बोल दे तो,  सत्‍य बस थोड़ा कड़वा लगता था । बंदे में सच सुनने का माद्दा था । आलोचना सह लेता था । आज के दौर में आप सत्‍य बोलो तो आदमी बिलबिला जाता है, । सुलग उठता है  । तुरंत प्रतिशोध लेने पर उतर आता है ।”


मेरे उत्‍तर से वे संतुष्‍ट नहीं हुए । कहने लगे – “थोड़ा तफसील से समझाइये । और हां एक पूरक प्रश्न का उत्‍तर भी दीजिए,  सत्‍य बोलने वाला कभी पुरस्‍कृत होता है और कभी दंडित । ऐसा क्‍यों ?”


उदाहरणों से बात जल्‍दी समझ आती है । मैंने स्‍वंय के साथ घटित घटना सुनाई । बचपन में मेरा पड़ोस के शर्माजी के लड़के से झगड़ा हो गया । शर्माइन शिकायत लेकर हमारे घर आईं बोलीं – “आपके लड़के ने हमारे बेटे बल्‍लू  को मारा ।” पिताजी ने पूछा – “चाची जो कह रही  हैं सच है ? मैंने  निर्भीकता    से कहा-  “सत्‍य है । बल्‍लू ने मुझे गाली दी । वो भी ऐसी वैसी नहीं बहुत गंदी ।” पिताजी ने मेरी पीठ ठोकी । बोले – “ठीक किया । गलत बात का हमेशा विरोध करो ।” उन्‍होंने  एक रूपए का सिक्‍का मेरी बहादुरी और सच्‍चाई के लिए इनाम में दिया ।


दूसरा  वाकया मेरी किशोर अवस्‍था का है । मैं कमरे में पढ़ रहा था । अचानक पिताजी आगए । कमरे में कुछ देर रूकने के बाद बोले – “तुमने सिगरेट पी ?” मैं सत्‍यवादी बनने के पथ पर अग्रसर था । मैंने कहा – “जी हां… वो भी आपके ही पैकेट से निकालकर ।” बस फिर क्‍या था । कुटाई, पिटाई, ठुकाई कुछ भी कहलो उस दिन  सच बोलने का जो दंड मिला आज भी याद है ।”


 मैं सोच रहा था, मेरे सखा तो रोज पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतें, किसान आंदेलन, कोविड वेक्‍सीन,  बंगाल के चुनाव, करीना की होनेवाली डिलेवरी, जैसे मुद्दों पर बात करते हैं,  आज ये सत्‍य की चर्चा कैसे ? मैंने पूछा – “क्‍या बात है मित्र ये अचानक सत्‍य की खोज कैसे  ?”


वे बोले – “कल रात मैंने एक भयानक सपना देखा । “सत्‍य” को गिरफ्तार कर लिया है । सत्‍य के हाथ में हथकडि़या हैं । पैरों में बेडि़या डली हुई हैं । सत्‍य चीख रहा है । बेबस है । छटपटा रहा है । मदद की गुहार कर रहा है । लोग मौन खड़े हैं । आंखें बंद । कान बंद । लाचार । तमाशबीन । निर्जीव पाषाण मूर्तियों की तरह । सत्‍य के पक्ष में बोलने से डर रहे हैं लोग । मैं आवाज उठाने की कोशिश कर रहा हूं 1 मेरा गला किसी ने दबा दिया है । मैं घबराकर उठ जाता हूं ।”


            वे भावुक हो गए । मैंने अपना हाथ उनकी ओर बढ़ाया । बस इतना ही कह सका- “सत्‍य परेशान हो सकता है, पराजित नहीं ।”


 


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शनिवार, 10 अप्रैल 2021

आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री के संग कुछ प्रसंग / मुकेश pश प्रत्यूष praytush

 काश! मेरा कहा सच हो जाता : जानकी वल्लभ शास्त्री /  शास्त्री जी के संग मुकेश  प्रत्यूष की कुछ आत्मीय भेंट मुलाक़ातों की दास्तान 


आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री से मेरी पहprtली म गया जिला हिन्दी साहित्य सम्मेलन के वार्षिक अधिवेशन में हुईyush थी। अधिवेशन के बाद कवि-सम्मेलन का कार्यक्रम था। राज्य-भर के प्रतिष्ठित कवि आमंत्रित किये गये थे।  शास्त्रीजी उनमें सबसे अलग दिखते थे। उन्होंने अपनी उसी कविता का पाठ किया जो हमें पढ़ाई जाती थी और हमें प्रिय भी थी। उनके स्वरों की अनुगूंज अबतक जेहन में होती रहती है - कुपथ-कुपथ रथ दौड़ाता जो पथ निर्देशक वह है। चुनौति देता हुआ लहजा - उतर रेत में। कवि-सम्‍मेलन की अध्‍यक्षता और संचालन वही कर रहे थे मेरी कविता पर कुछ औपचारिक प्रतिक्रियाएं दी। अलग से कुछ कहा नहीं, मैंने भी पूछना उचित  नहीं समझा।  मंच पर कोई किसी को क्‍या कह सकता है।  कवि सम्मेलन के बाद मैं उनके कमरे तक साथ-साथ गया उन्हें तत्काल मुजफ्फरपुर के लिये निकलना था। आयोजकों ने अन्य चीजों के साथ-साथ उन्हें ले जाने के लिये तिलकुट भी दिचा जिसे देखते ही उन्होंने कहा यहां कि लाई भी अच्छी होती है वह मंगवा दे सकते हैं क्या ? किसे इंकार होता आनन-फानन में रमना (गया का एक मुहल्ला जहां अच्छी लाई - तिलकुट  आदि बनते-बिकते हैं) से लाई मंगवा कर उनकी गाड़ी में रखवा दी गई। बस यहीं तक थी हमारी पहली मुलाकात।


इस घटना के लगभग दस  वर्षों के बाद अपनी  छोटी बहन की शादी के सिलसिले में गोपेश्वर सिंह (आलोचक और दिल्ली  विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर),  जो तब पटना विश्वविद्यालय  में अध्यपान करते थे और गोपेश परीक्षित के नाम से लिखते थे,  के साथ मैं मुजफ्फरपुर गया। लड़के वाले गोपेश्वरजी के  परिचित थे लेकिन किन्हीं कारणों से वहां रिश्ता संभव होता नहीं दिखा।  हम चुपचाप स्टेशन चले आये। वहीं भागीरथ होटल में खाना खाया। गोपेश्वरजी अपने विद्यार्थी जीवन में वहां वर्षों खा चुके थे और उसके प्रशंसक भी थे। तय था कि खाना खाकर हम शास्त्रीजी से मिलने जायेंगे। भर रास्ते रिक्शे पर वे मुझे शास्त्री की पसंद और नापसंद बताते रहे। वे उनके यहां अपने विद्यार्थी जीवन में वर्षों रह चुके थे। उसी क्रम में कहा कि बाहर से आये किसी रचनाकार के यह कहने पर कि खाना खाकर आया हूं उन्हें दुख होता है। उन्हें लगता है कि उनके अतिथि-सत्कार में कोई कमी है। इसलिये आप यह मत कहियेगा कि हम अभी-अभी खाकर आये हैं। कोई और बात कह दी जायेगी। यह भी कि वे आपको तो अपने सामने बिठाकर खिलायेंगे लेकिन  खुद किसी के सामने कुछ नहीं खाते उन्हें डर रहता है कि उन्हें किसी की नजर लग जायेगी। 

 

शास्त्रीजी के घर पहुंचा तो लगा जैसे शहर के बीचा-बीच बसे किसी गांव में आ गया हूं। पेड़-पौधों से आच्छादित परिसर, इधर-उधर दौड़ते कुत्ते-बिल्लियां, रंभाती कई-कई गायें, बछड़े। बरामदे में चौकी पर गोद में बिल्लियों के बच्चों को लेकर बैठे शास्त्रीजी। 


प्रणामपाती के बाद मैंने गया की मुलाकात की चर्चा की। उन्हें याद थी।  श्यामा अभी-अभी छप कर आई थी। उन्होंने उसकी कुछ  कवितायें सुनाई। काफी समय बिताकर जब हम लौटने लगे तो उन्होंने श्यामा की प्रतियां हमें दीं।  


फिर एक अंतराल। 


लगभग पन्द्रह वर्षों  के बाद मैं एक बार फिर मुजफ्फरपुर गया लेकिन इस बार उसी दिन आने के लिये। कुछ वर्षों के लिये। मेरी पदस्थापना उसी शहर में हो गई थी। कार्यालय से थोड़ी दूरी पर ही शास्‍त्रीजी का घर था।   पहुंचा। वे बरामदे में चौकी पर सिर झुकाये बैठे हुये थे। नितांत अकेले। दिन-दुनिया से बेखबर। चलने-फिरने से लाचार। मांजी रसोई में थीं। देखते ही पूछा  कहिये कैसे आना हुआ।  मेरे बताने पर कहा अच्‍छा हुआ। और पूछा - 

कुछ खाया-पिया है या नहीं फिर मांजी को आवाज लगाई - बहूजी, कहां है ? मुकेशजी आये हैं कुछ खाना-वाना खिलाइयेगा?


गोपेश्वरजी की सीख मैं भूल गया,  इंकार करते हुये कहा - अभी-अभी खाकर आया हूं आज छोड़ दें अब तो अक्‍सर आना-जाना होगा। किसी और दिन खा लूंगा। वह भी कुछ बदल गये थे। नाराज नहीं हुये कहा कुछ तो लेना ही पड़ेगा। स्टील तथा प्लास्टिक के कई डिब्बे उनके आस-पास रखे हुये थे। उसी में से एक को खोला और मेरी ओर बढ़ा दिया, उसमें मावे के बर्फी थे।  डब्बा खुलते ही उसकी ओर शास्‍त्रीजी के आस-पास खेल रहे कुत्ते उसकी ओर लपके, शास्त्रीजी ने डिब्‍बे में से  कुछ टुकड़े निकाले और धमाचौकड़ी मचा रहे उन नन्‍हें पिल्‍लों को खिलाने लगे ठीक वैसे ही जैसे कोई पिता अपने छोटे प्यारे बच्चों के मुंह में मिठाई का टुकड़ा डालता है।  लेकिन इस दृश्य को देखने के बाद  उस बर्फी को खाना मेरे लिए  किसी भी स्थिति में संभव नहीं रह गया था। कुछ औपचारिक शब्‍द कह कर हाथ जोड़ता इससे पहले ही कवयित्री रश्मिरेखा आ गईं। मेरा संकोच समझते हुए कहा अभी मीठा रहने दीजिए मैं इन्‍हें  अपने यहां चाय पिलाने ले जा रही हूं। घर ले जाकर ऐसी घटनाएं रोज ही होती हैं। मुझे रोज ही कुछ लोगों को इस संकट से निकालना होता है। कुत्‍ते-बिल्लियों को अपनी ही थाली में खिलाते हैं और सबको अपनी ही तरह समझते हैं।  


बाद के दिनों में शास्‍त्रीजी पर उम्र का प्रभाव काफी हद तक  पड़ गया था। बातों का क्रम प्राय: टूट जाता था। एक ही बात को हर थोड़ी देर के बाद कहते थे। बचपन की स्मृतियां, माता-पिता  की यादें प्राय: आती रहती थीं। शहर के लोगों से, खासकर रचनाकारों से शिकायतें रहती थी। अक्सर कहते कोई देखने नहीं आता।। कोई मिलने नहीं आता।। अब किसी को मुझसे क्या फायदा हो सकता है कि कोई आये।। प्राणपण से शास्‍त्रीजी की सेवा करने वाली मांजी से भी कई-कई शिकायते थीं।  उनका ध्यान नहीं रखती,  उनके भाई जब भी आता है – मेरे बारे में अपनी बहन से पूछता है अब तक जिन्दा हैं ही। और, यह सुनकर भी उसका तिरस्कार करने की बजाय ख्याल रखती हैं,  उसकी मदद करती हैं। मेरा हमेशा एक ही उत्‍तर होता  यह आपका वहम है। सब आपको  बहुत प्यार करते हैं। मांजी तो जान से ज्यादा मानती हैं। तब वे बालसुलभ ढंग से कहते हां ऐसा है। लेकिन मैंने सुबह से कुछ नहीं खाया है। इन बच्चों (पालित कुत्ते-बिल्लियां) ने भी कुछ नहीं खाया है। मांजी कहतीं नाश्ता कर चुके हैं। कहतीं अभी तो आपने खाया है। तब कहते हां-हां खाया तो है। लेकिन फिर थोड़ी देर बाद वही बातें। प्राय: गुस्से में खाना छोड़ देते। दो-दो दिनों तक खाना नहीं खाते कमजोरी बेतहाशा हो जाती। उनके उपवास के कारण मांजी भी उपवास करतीं उनकी तबियत भी बिगड़ जाती। ऐसे में  रश्मिरेखा को आगे आना पड़ता। अपना सब काम-धाम छोड़कर आतीं मान-मनौव्वल करतीं। कहतीं अच्छा मैं अपने घर से कुछ बनाकर लाऊं तो खायेंगे न वे हामी भरते तो दौड़कर जातीं रोटी-सब्जी, ब्रेड पकौड़ा या और कोई चीज बनाकर लातीं फिर मनाकर, बहलाकर खिलातीं, उनके खाने के बाद मांजी को खिलातीं। मैं मेूक गवाह बना रहता।  


शास्‍त्रीजी अक्सर अपनी   बीमारी की चर्चा करते। बातचीत के क्रम में कई बार पूछते मैं आपको ठीक दिख रहा हूं। सिर गर्म है। एक दिन मैंने देखा पलंग पर बैठे हैं और मग में पानी ले-लेकर सिर पर थोप रहे हैं। मैंने पूछा यह क्या कर रहे हैं तो कहा गर्मी से सिर फटा जा रहा है। जाड़े में कमरे में ही ढेर सारी लकड़ियां जलवा लेते। पूरे कमरे में धूल और धुंआ भर जाता। कई बार तो किसी और के  लिये बैठना मुश्किल हो जाता। 


निधन से सप्ताह भर पहले उनसे हुई मुलाकात मेरी अंतिम थी। मांजी की तबियत खराब थी और खुद से ज्यादा उनकी चिन्ता कर रहे थे। मांजी के प्रति उनका ममत्व देखकर मन भर आया था।


कुत्ते-बिल्लियों की ओर देखते हुये कहा पता नहीं मेरे बाद इनका क्या होगा। मैंने कहा अभी आपको कुछ नहीं होगा। शतायु होंगे आप। 


लेकिन अगली मुलाकात हो इससे पहले ही रश्मिरेखा का फोन आ जाता है शास्त्रीजी नहीं रहे।  


काश! मेरा कहा सच हो पाता ।

सब कुछ बदल रहा है / व्हाट्सप्प

 *दादी से पोती तक*


मेरी दादी आई थी अपने ससुराल पालकी में बैठकर,

माँ आई थी बैलगाड़ी में,

मैं कार में आई, 

मेरी बेटी हवाईजहाज से,

मेरी पोती हनीमून की ट्रिप पर उड़गई अंतरीक्ष में।


कच्चे मकान में दादी की जिंदगी गुजर गई

पक्के मकान में रही माँ

मुझे मिला मोजाइक का घर

बेटी के घर में मार्वल

पोती के घर में स्लैब लगे हैं ग्रेनाईट के।


दादी पहनती थी खुरदरे खद्दर की साड़ी

माँ की रेशमी और संबलपुरी

मैंने पहनी हर तरह की फैशनेबुल साड़ियाँ

बेटी की हैं सलवार-कमीज, जीन्स और टॉप्स

मेरी पोती पहन रही स्किन फिटिंग टी-शर्ट और शर्ट्स।


लकड़ी के चूल्हे में खाना पकाती थी दादी

माँ की थी कोयले की सिगड़ी और हीटर 

मेरे हिस्से में आया गैस का चूल्हा,

जहाँ बेटी की रसोई होती माइक्रोवेव ओवन से पोती आधे दिन घर चलाती 

डिब्बे के खाने से।


दादा जी से कुछ कहने को दादी इंतजार करती थी

सबेरे लालटेन के बुझने तक,

माँ बात करती पिता जी से ऐसे मानो दीवार से बोल रही,

मैं इनसे बात करती "अजी सुनते हो",

मेरी बेटी दामाद जी को नाम से बुलाती,

पोती आवाज लगाती दामाद को, "हाय हनी"।


दादी बतियाती थी दादा जी से आधी बात सीने में दबाकर

माँ बोलती पिताजी की हाँ में हाँ मिलाकर

मैंने इनकी कई बातों पर सवाल उठाये 

मेरी बेटी तो अपने तर्क से दामाद जी की बोलती बंद कर देती

उधर बातों-बातों में पोती

अपना अधिकार वसूलती दामाद से।


  कई बच्चों की माँ थी दादी

माँ के बच्चे उससे कुछ कम थे

मेरी गोद में बच्चे दो ही अच्छे

बेटी की तो आँख का तारा 

उसका इकलौता

पोती माँ बनने को ढूँढ रही 

किराये की कोख।


दादी मुँह धोती थी मुल्तानी मिट्टी से

माँ सिलबट्टे से पिसी हुई हल्दी से

मैं साबुन से धोती 

मेरी बेटी फेस वाश से

पोती फैस पैक चुपड़ती 

अपने स्टीम किए चेहरे पर।


दादी का था बहुत बड़ा परिवार

माँ भी पिस जाती थी परिवार की भीड़ में,

मैं कभी ससुराल जाती

तो कभी सास-ससुर मेरे पास आकर रहते,

मेरी बेटी सास-ससुर को 

कुछ दिनो के लिए रखती

एक घोंसलानूमा कमरे में

वह भी हिस्से में जब उसकी बारी आती,

पोती अभी से बात कर चुकी वृद्धाश्रम वालों से

अपने सास-ससुर के बुढ़ापे के लिए।


दादी की सोच और उसकी रीत थी 

बाबा आदम के जमाने की,

माँ की रूढ़ीवादी, 

मेरी आधुनिक,

पर बेटी की सोच है अत्याधुनिक,

जब कि मेरी नातिन, आचरण और उच्चारण

दोनो में उत्तर आधुनिक।


इसी तरह पीढ़ी आगे बढ़ रही,

पुरानी को मसलकर,

समय की धारा बदल रही

नयी को सँवार कर,

हमारे देखते बदल गया सबकुछ

दादी से पोती तक।


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कवि राजेश जोशी से मुकेश प्रत्यूष की बातचीत

 प्रिय कवि राजेश जोशी  से बात करना  हमेशा रूचिकर होता है।  बात से बात निकलती चली जाती है।  लगभग दो दशक पूर्व ऐसे  ही एकबार हमने लंबी बातचीत की थीी। टेप रिकार्डर आन था। बाद में यह कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई । पुराने कागजों में आज वह मिला। काफी लंबा है। कुछ अंश,  जो आज भी प्रासंगिक हैं, दे रहा हूं। 

 

हिन्दी का  क्या भविष्य दिखता है आपको?

जब नई अवधारणाएं आती हैं, नए तकनीक आते हैं, समाज में नए परिवर्तन होते हैं तो नए शब्द आते ही हैं। यह भाषा का विस्तार है। हिन्दी के बारे में पवित्रतावादी ढंग से सोचने की आदत को बदलना चाहिए और थेाडा लचीला रुख अपनाना चाहिए। रही बात हिन्दी के भविष्य की तो बाजार के पास हिन्दी केा अपनाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है। 


आज बाजार की नियामक शक्तियां आम आदमी की चेतना को कुंठित कर रहीं हैं। उसे उसकी वर्गीय चेतना और संघर्ष से दूर ले जा रहीं हैं। ऐसी स्थिति में  एक  रचनाकार होने के नाते आप किस भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं? 

बाजार शब्द बहुत व्यापक है।  हम इसके इस्तेमाल से यह नहीं बता पाते कि हमारा विरोध बाजार से नहीं, नए बाजार से है,  जो हमारा बाजार नहीं है। हमारा बाजार वह जगह थी, जो लेखक के लिए सबसे जरुरी है। कबीर जब विद्रोह करते हैं तो बाजार में करते हैं कबिरा खड़ा बाजार में । विभिन्न जनपदों से आए हुए लोगों के संवादों कर स्थान था, नहीं तो आगरा की मंडी को लेकर नजीर अकबरावादी  तीन-तीन गीत नहीं लिखते। आगरा के बाजार में जब मंदी आई तो उसकी पीड़ा का भाव उनकी नज्मों में भी आया। भारतेन्दु का अंधेर नगरी शुरु ही होता है तो एक बाजार  से फिर वह धीरे-धीरे राजनैतिक रुप लेता है और पूरे अंग्रेजी तंत्र का मजाक उडाता है।  बाजार वह जगत थी जहां प्रतिरोध होता था,  नया विचार शुरु होता था। लोक संगीत में सबसे ज्यादा गीत बाजार को लेकर हैं।बाजार में प्रेम विकसित होता था।आज का बाजार हमारा देशज बाजार नहीं है। इसने हमारे बाजार के स्पेस को खत्म कर दिया है। हम एक तरह के उत्पाद में बदल गए हैं, यह चिन्ता की बात है। 

 

लेकिन इस बाजार ने हमें बहुत सारी सुविधाएं दी हैं। आज का बाजार बिक्रेता नहीं क्रेता का हो गया है?

पर आज के बाजार में बहुत सारी चीजें हमारे काम की नहीं हैं। आज झुग्गियों में टी०वी०, स्कूटर या और भी बहुत सारी चीजें मिल जाएंगी लेकिन शौचालय नहीं मिलेगा। हम जीवन की बुनियादी सुविधाएं - घर, पीने का स्वच्छ पानी नहीं दे पा रहे हैं पर और दूसरी तरह की चीजें दे रहें है। तो हमें सोचना होगा कि हम कैसा समाज बना रहे हैं या बनाना चाह रहे हैं?


ऐसे में राजेश जोशी की इच्छा कबीर की तरह हाथ में लुकाठी लेकर बाजार में खडा होने की होती है या बाजार में खडा हूं खरीददार नहीं हूं कि तरह तटस्थ रहने की?

तटस्थ मुद्रा में तो कतई नहीं रहना चाहूंगा क्योंकि तटस्थ होकर आप समाज को कुछ नहीं दे पाएंगे। बाजार का विरोध करुंगा लेकिन अंधा विरोध नहीं। 


आपकी काव्य पंक्तियां जनांदोलनों में नारे का काम करती हैं। इन पंक्तियों की तलाश कहां से करते हैं?

ढूंढते क्या हैं, समाज में जिस तरह का आंदोलन होगा, प्रतिरोध की शक्तियां जितनी विकसित होंगी, अन्याय के विरुद्ध एक समाज जितना ज्यादा खडा होगा उतनी ज्यादा आंदोलन की पंक्तियां भी मिलेंगी। मैंने कई  बार ऐसी पंक्तियां भी लिखी जो अन्याय या साम्प्रदायिक दंगों से आहत होने की स्थिति में जनउभार से प्रेरित है। इसलिए वो ऐसी बनी जो ज्यादा से ज्यादा लोंगो से संवाद स्थापित कर सकें।


क्या पढ रहें हैं इनदिनों ?

''सुभाषित रत्नकोश''। इसमें संस्कृत के उन कवियों  की कविताएं संकलित हैं जो मुख्य धारा के नहीं थे। जैसे कालिदास, भास आदि। बहुत सारे अज्ञात कवि  जो नहीं जाने गए या फिर जिनकी कम कविताएं मिलीं, जिनके ग्रंथ नहीं छपे उनको इनमें संकलित किया गया है। ज्यादा बेहतर कवि है।


मुख्य धारा के कवियों से भी बेहतर?

निश्चित इनमें लाईफ (जीवन) ज्यादा है।


फिर वे गौण क्यों हुए ?

जैसी धारा चली होगी उस समय वे उसके साथ नहीं होंगे या फिर उन्होंने उस तरह  से काफी लिखा नहीं होगा। बाद में उनपर  ध्यान गया। संस्कृत में दूसरी परम्परा के जो कवि और  कथाकार हुए है। उनमें से एक का अनुवाद राधावल्लम त्रिपाठी ने किया है वो मिलती है। सागर विश्‍वविद्यालय से छपा है। पढ़ने पर बिल्कुल आधुनिक कविता लगती है।


ऐसा तो इस काल में भी हो रहा है, बहुत सारे कवियों पर ध्यान दिया ही नहीं  जा रहा है। 

होता ही है। ऐसा हर काल में होता है। छायावाद में सिर्फ चार कवि थोडे  ही थे या भक्तिकाल में सिर्फ सूर और तुलसी ही नहीं थे। और भी थे। हमें रामचंद्र शुक्ल का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि उन्होंने औरों का पता दिया।


कवियों के गौण होने में क्या उनके समकालीन आलोचकों  का योगदान नहीं होता?

देखिए, आलोचक कुछ नहीं करता। जो दृश्य  में है आलोचक उसी को देखता है। कुछ कवि तो विड्रा कर जाते हैं या  फिर  वे कुछ अजीब से मोह  में पड़ जाते हैं। क्लासिक होने के लिए उन्हें कुछ अजीब से रास्ते दिखते हैं। क्लासिक कोई इस वजह से नहीं होगा। क्लासिक वही होगा जो समकालीन हो।  कभी-कभी क्या होता है कि कवि कहीं ऐसी जगह  चला जाता हैं  जहां कनवर्सेशन खत्म हो जाते हैं  और वे  फिर जान की नहीं पाते कि क्या धारा चल रही है। वो कुछ अपने ढंग से लिखने लगते हैं या चुप हो जाते हैं।


मुक्तिबोध, शमशेर, केदानाथ अग्रवाल, त्रिलोचन और नागार्जुन को आपने  हिन्दी कविता के पांच तत्व माने  हैं और प्राण तत्व निराला को।  क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि आपने अज्ञेय के साथ कुछ अन्याय कर दिया। क्योंकि अज्ञेय के बिना तो  समकालीन हिन्दी कविता की चर्चा पूरी ही नहीं होती। 

नहीं अन्याय नहीं है। कायनात में और भी बहुत सारी चीजे हैं लेकिन मुख्य ये  पांच तत्व ही हैं। मैं ऐसा थेाडे ही कह रहा हूं कि अज्ञेय महत्वपूर्ण नहीं है।  समकालीन काव्य की जो धारा है उसमें वात्सयायन (अज्ञेय) जोड़ते तो है लेकिन एक कवि के रुप में वे मुझे कभी बडे नहीं लगे। वे गद्यकार बहुत अच्छे हैं। 


कहीं आपका वाम तो आपको यह कहने के लिए बाध्य  नहीं कर रहा।

नहीं। बाबा (नागार्जुन) को छोड  दें तो चारों कवि ऐसे हैं जो किसी वाद से उतने ही मुक्त हैं।


कविता हाशिए की चीज हो गई है। कवि जैसे जैसे आम आदमी के करीब होने की कोशिश कर रहा है आम आदमी कविता से उतना ही ज्यादा दूर होता जा रहा है। क्या कारण लगता है इसका? 

कविता से समाज की दूरी अकविता के दौर में बनी थी। अकविता ने मूल्यगत स्तर के साथ-साथ  भाषा और शिल्प  के स्तर पर भी काफी परिवर्तन किए। एक जो  टे्रडिशन बना हुआ था पढने का उसको बहुत देर  तक भटका दिया। लोगों को आज  भी लगता है कि नई कविता लिखी जा रही है। वो प्राब्लम दे रहा है । पर आज की  कविता संप्रेषणीयता के स्तर  काफी सफल है। इससे ज्यादा संप्रेषणीèय कविता कभी नहीं थी। 


लेकिन जिसके लिए किया वही सुनना-पढना नहीं चाहता।

इसके बहुत सारे कारण हैं। मीडिया और हमारे  इजुकेशन सिस्टम जब तक कविता को स्वीकार नहीं कर लेते तब तक अकेला कवि कुछ नहीं कर सकता। हमारे पास जितनी व्यवसायिक पत्रिकाएं थीं, जो बडे दायरे में सर्कुलेट होती थीं  वो सब बंद हो गई। अब इक्का दुक्का अखबार और लघु पत्रिकाएं जिनकी प्रसार संख्या सीमित है, बची हैं। लोकप्रिय माध्यमों का  समाप्त हो जाना एक बडा संकट है।


आप जिस लोकप्रिय माध्यम की बात करते हैं तो जब हमारे कवि कविता में समाज की बात नहीं करते थे। जैसे विद्यापति वो तो शुद्ध दरबारी कवि थे लेकिन उनकी कविताएं आम जानता में तब भी लोकप्रिय थी। आज  भी है। उन्हें तो माध्यम का संकट न तब था न अब  है।

तब एक तो वाचिक परम्परा थी। दूसरे तब समाज बहुत छोटे-छोटे थे, उतनी जटिलताएं नहीं थी, आपधापी नहीं थी। जनपद थे तो  वाचन  से चीजें चली जाती थीं, आज वैसा वाचिक माध्यम नहीं हो सकता। अब यह हो सकता है कि जो संचार माध्यम है वे अपना योगदान दें।   उस परम्परा को लौटाएं ।शुरु के  दिनों में दूरदर्शन  ने यह कार्य किया। हिन्दी के जितने अच्छे कवि थे सबने  उसपर काव्य पाठ  किया सबसे अच्छे का उपन्यासों पर सीरियल बने लेकिन जैसे ही बहुत सारे चैनल आए तो कविता या साहित्य  बाहर हो गया। इस तरह संचार माध्यम कविता, साहित्य और संस्कृति के विकास में कोइ रुचि नहीं दिखा रहे। वे उच्चवर्गीय विलासिता का माध्यम बन गए हैं।


ऐसे में एक कवि या रचनाकार का दायित्व क्या है? 

रचनाकार तो लड़  ही  रहा है। लेकिन उसकी आवाज को प्रसारित करने के लिए कोई माध्यम नहीं है। समाज में एक माध्यम ऐसा जरुर होना चाहिए जो एक सही बात को प्रसारित का सके। पर सब चीजों पर बाजार हावी हो, सब  चीजों को बाजार ने अपने कब्जे में ले  लिया हो तब आप क्या करेंगे?


क्या इसके लिए रचनाकार दोषी नहीं है?

मुझे लगता है कि रचनाकार उतना दोषी नहीं है। सोवियत संघ के विघटन के बाद से प्रतिरोध की शक्तियों का क्षरण हुआ है जब तक प्रतिरोध की शक्तियां थीं  और दो धुब्रीय समाज था संसार में  तो एक दूसरी आवाज आपको सामानान्तर रुप से सुनाई देती थी, सोवियत संघ के पराभव के तत्काल बाद संसार एक ध्रुवीय हो गया । और दूसरी आवाज के लिए कोई स्पेस नहीं रहा। ये संकट केवल साहित्यिक नहीं है। वह प्रतिरोध की सारी शक्तियों का संकट है। इसमें प्रतिरोध की तमाम शक्तियों का क्षरण हो रहा है।  विचारों  का क्षरण हो गया है। राजनीति में विरोध का कोई मतलब नहीं रह गया है। ऐसा नहीं है कि कवि या साहित्यकार चुप बैठा है। वह लगातार प्रतिरोध कर रहा है। लिख रहा है, बोल रहा है। पर उस आवाज को हम  महसूस नहीं कर  पा रहे हैं।


यही तो मैं कह रहा हूं कि हम जिनकी बात कर रहे हैं वही हमें सुनने को तैयार नहीं। जहां तक पाठकीयता का सवाल है तो अंग्रेजी किताबों की प्रतियों प्रसार संख्या दिनों दिन बढती जा रही है और हिन्दी किताबों की प्रसार संख्या घटती जा रही है।

इसमें बहुत सारी चीजें एक दूसरे से जुड़ी हैं और काम्पलिकेटेड हैं। पूरा प्रकाशन जगत एक तरह से दिल्ली केन्द्रीत है। दिल्ली में भी वह लगभग व्यापारियों के हाथों में चला गया है।  पहले प्रकाशन जगत से जुड़े हुए लोगों में खास तरह की प्रतिबद्धता थी । कवि-लेखक रहे या लेखन से जुडे लोग इसके कर्ताधर्ता होते थे अब सभी व्यापारी किस्म के लोग  आ गए। आज ऐसा कोई प्रकाशन नहीं ढूंढ सकते जिसकी कोई दृष्टि हो प्रकाशन या साहित्य के बारे में।


आप कहते हैं कि  हिन्दी प्रकाशन व्यवसायिकों के हाथों में है तो व्यवसायी जितना ज्यादा व्यवसाय  करेगा उतना ज्यादा लाभ कमाएगा। फिर प्रतियां कम क्यों होती जा रही है?

वो कम काम करके  ज्यादा लाभ कमाना चाह  रहे हैं।


यह कैसे कह सकते हैं ?

इसलिए कि उनका कोई नेटवर्क नहीं है ब्रिकी का। वो करते क्या है कि तीन सौ प्रतियां छापी उसे तत्काल लाइब्रेरी में भेजा। पहले उत्पादन खर्च का पांच गुणा मूल्य पुस्तकों का रखा जाता था आज पुस्तकों के मूल्य निर्धारण का कोई तर्क नहीं रह गया है। वो बेहद  मंहगी कर दी गई हैं। पाठक का नेटवर्क खड़ा करके कोई बेचना नहीं चाहता क्योंकि उसमें रिटर्न देर से आएगा।


ऐसा क्यों नहीं होता कि लेखक  प्रकाशन इकाई बना कर,जैसा कुछ पूर्ववर्तियों ने किया था, इस समस्या का समाधान  निकल लेते। 

यह सच है कि हिन्दी में वैसे सहकारी प्रकाशन नहीं बने जैसे बंगला में बने, मराठी में बने। यह काम पीपीएच (पीपुल्स पब्लिसिंग हाउस) कर रहा था लेकिन सोवियत संघ के बिखरने के बाद वह भी बिखर गया। 


क्या आपके मन में कभी ऐसा आया कि पुस्तक प्रकाशन और बिक्री, जिसकी चर्चा आप कर रहे हैं, उसका एक नेटवर्क बनाया जाया ?

खूब आया। एक बार हमलोगों ने, जब मैं  प्रगतिशील लेखक संघ में था, शरद बिल्लौरे का कविता संग्रह छापा।  बहुत ही सस्ता और प्रगतिशील लेखक संघ की इकाइयों द्वारा उसकी बिक्री होती थी। फिर  तीन किताबें हमने और छापीं  पर उसे कन्टीन्यू नहीं कर पाए जैसा कि करना चाहिए। अगर करता तो प्रकाशन का रुप ले लेता। प्रकाशन आज भी उतनी ही बड़ी समस्या बनी हुई जितनी पहले थी बल्कि पहले  कम से कम चार-पांच  बडे पाठक  वर्ग तक जानेवाली  पत्रिकाएं थी। पारिवारिक पत्रिका की जो अवधारणा है वह खत्म हो गई। आज ऐसी कोई परिवारिक पत्रिका नहीं है जो मध्यवर्ग के परिवार में नियमित  रुप से आए और पढी  जाए। अभी जो साहित्यिक पत्रिकाएं है उसे  या तो केवल आप पढेंगे या कोई  कहानी है तो परिवार में लोग उसे पढ़ेंगे लेकिन जो साहित्यिक बहसें हैं  उससे किसी सामान्य मध्यवर्गीय परिवार का कोई लेना देना नहीं होता।


पारिवारिक पत्रिकाओं का समाप्त हो जाना, सम्मेलनों का समाप्त हो जाना, किताबों की बिक्री का कम हो जाना यह सब आखिर हिन्दी में ही क्यों हो रहा है वह भी तब जब हर रचनाकार/पत्रकार आम आदमी के करीब होने उसकी समस्या को सार्वजनिक करने का दावा कर रहा  है।

हिन्दी में  ये काम बडे प्रकाशन गृहों के पास थे उन्हें इसमें लागत के अनुरुप कोई तत्काल लाभ नहीं दिखाई दिया। 


जब बडे प्रकाशन गृह इन कार्यों  मे लग थे तो उन्हें  सेठाश्री संस्थान कहा जाता था और रचनाकारों का एक वर्ग उनके विरुद्ध था। उससे जुडना नहीं चाहता था। और जब सेठों ने उनसे अपने हाथ खींच लिए तो रचनाकारों के उसी वर्ग द्वारा यह कहा जा रहा है कि उनके पोषण के अभाव में यह स्थिति उत्पन हो गई है।

यह सच है कि एक समय में उन  संस्थाओं  का विरोध हुआ था  क्योंकि उनका  चरित्र कुछ गड़बड़  था।  एक खास तरह की चीजें वे  परोस रहे थे। उन्हें जिस तरह के साहित्य को जगह देनी चाहिए थी उसे नहीं दे रहे थे । पर हमारी पूर्ववर्ती  पीढ़ी जो उनका विरोध कर रही थी उसे शायद यह उम्मीद नहीं रही होगी कि वे इसे इस तरह से अपने हाथ खींच लेंगे। 


जो कल तक किसी सत्ता या प्रतिष्ठान से जुडना अपनी नीतियों के विरुद्ध मानते थे लेकिन आज उससे जुडने में ही अपनी भलाई समझते हैं। उनका यह यू टर्न कहीं बेधा क्या आपको?

हम एक अंतर्विरोधी  समाज में रह रहें हैं उसमें विराधोभास तो होंगे। नौकरी करते हैं तो संभव है कि वह कलाकर्म के विपरीत हो, जो जीवन जी रहे हों उसमें संभव है कि कई बार अपनी आत्मा तंग करे तो इस तरह की बात तो हर मनुष्य के साथ है । विरोधाभास को आप जितना ज्यादा डिजाल्व करेंगे, उसको जितना काबू में कर पाएंगे उतना ज्यादा काम कर पाएंगें। 

मैं इसे उनकी मजबूरी के रुप में देखता हूं। यह हम सब की मजबूरी है। एक लेखक के रुप में हम उन पत्रिकाओं को अपनी रचनाएं दे देते हैं जिन्हें प्रकाशन के रुप में हम अच्छा नहीं मानते पर हमारा उद्देश्य होता है पाठकों तक अपनी रचनाएं पहुंचाना। इसलिए रचना और रचना से जुडे समाज को बचाने की जिम्मेदारी हमारी है।  


अर्थात् जब दूसरे करें तो गलत और हम करें तो सही।

नहीं, इसको ऐसे देखें कि विरोध विकल्प की स्थिति में कर रहे थे। 


यानी विकल्पहीनता की स्थिति में उन रास्तों पर जा सकते हैं जिन पर पहले दूसरों को चलने से रोकते थे?

हां। जब खराब और कम खराब स्थितियों में से चुनना हो तो कम खराब को ही बचाना होगा। जैसा भारतीय लोकतंत्र मे हुआ या हो रहा है। जब हमें लगा कि ऐसी पार्टी के शासन में रहने से लोकतांत्रिक प्रणाली ही ध्वस्त हो जाएगी  तो हमने उनका साथ दिया जिनका वर्षों से विरोध कर रहे थे। आपको कहीं-न-कहीं जनतंत्र और  कोई- न- कोई प्लेटफार्म तो बचाए रखना है। 


आप ऐसा मानते है कि इन यू टर्न लिए लोगों की वजह से बाजार में खोटा सिक्का चल रहा है?

हां,  क्योंकि हमारी चाहत उस अर्थव्यवस्था को बचाना है जिसमें सिक्के चलते  हैं। हिन्दी प्रकाशन जगत में आज सचमुच खोटे सिक्के ही बच गए हैं और जो वास्तविक मुद्रा थी चलन से बाहर हो गई।


आपका काव्य लोक क्या लोक  काव्य के करीब है?

लोक आपसे मांग  करे ऐसी स्थिति हिन्दी में बहुत कम है। आपसे यह कहे कि आपको मेरे लिए यह लिखना है, यह करना है ऐसा सघन संवाद हिन्दी में अभी तक नहीं बना है। हां होता यह है कि जब आप अपनी रचना लेकर जाते हैं तो लोक उसे या तो स्वीकृत करता है या अस्वीकृत  करता  है। साहित्यिक समाज से परे के लोग यदि रचना को पसंद करते हैं, चुनते हैं तो खुशी होती है कि जो इनके मन में है उसे लिखा। 


एक तरफ तो आप कहते हैं कि भूलना बहुत जरुरी चीज है और दूसरी ओर स्मृतियों को लेकर कविताएं लिखते हैं। आपकी कविताओं के संदर्भ में अगर हम देखें तो फंतासी आपकी कविता का अनिवार्य अंगसा बनी हुई है। उससे मुक्त क्यों नहीं हो पा रहे हैं आप?

मेरी भी एक सीमा है। आप जब विचार कर रहे होते हैं तो एक रचनाकार से परे होकर विचार करते हैं। मैंने कई तरह की कविताएं लिखी हैं पहले संग्रह में भी अलग-अलग शिल्प और मुहावरों का प्रयोग किया है। एक जैसे नहीं हैं वे। एक कवि के रुप में मैं कितना सफल हूं यह मैं तो नहीं कह सकता।


कवि के  निजी मुहावरे पर आपको संदेह होता है  लेकिन आप भी मुहावरे गढने से बाज नहीं आते। क्या इसलिए कि जैसा कि आप स्वयं भी मानते  है कि मुहावरों सबसे पहले लोगों का ध्यान आकृष्ट करते हैं?

एक लम्बे समय से हिन्दी आलोचना में इस बात को बार बार रेखांकित किया गया है कि यह कवि का निजी मुहावरा है। इसका अर्थ यह हुआ कि कवि का  निजी स्टाइल। मेरा हमेशा से यह मानना रहा है कि मनुष्य के रुप में आपके बहुत सारे मिजाज होते है। फिर आपका सामना कई प्रकार की ध्वनियों से होता है। तो जाहिर है कि जीवन भर आप एक ही मुहावरे में कविता नहीं लिख सकते। किसी भी बडे कवि को देखिए - निराला  एक तरफ ''राम की शक्तिपूजा'' लिखते हैं तो दूसरी तरफ ''कुकुरमुत्ता''  जैसी कविता लिखते हैं। निराला इसलिए बडे कवि हैं कि उन्होंने अपने समय की असंख्य ध्वनियों को समेटा था। समाज की विविधता के अद्भूत कवि हैं वे। जो प्रसाद (जयशंकर प्रसाद) , पंत (सुमित्रानंदन पंत) या महादेवी वर्मा नहीं हो सके।  इसलिए कवि को मुहावरे तो गढने ही पडते हैं पर हर बार नए। उसे अपनी पहली मूर्ति ढाहनी होती है नई बनाने के पहले।


हिन्दी समाज राजेश जोशी कवि को शुरु से ही प्यार करता है और उसमें अब तक कोई कटौती नहीं हुई है लेकिन फिर भी वह नाराज रहता है और नाराज कवि के नोटस लिखता है। यह नाराजगी किससे है उसे?

मेरी अपनी नाराजगी किसी से नहीं है। बहुत कम लिख कर मैंने बहुत ज्यादा पाया है। इसलिए आलोचना या आलोचक मैं किसी से नाराज नहीं हूं। मेरी नाराजगी का कारण बहुत साफ है कि हिन्दी के अध्यापकों, आलोचकों को जो काम करना चाहिए था वह उन्होंने नहीं किया और हमें आज भी उन आलोचकों से अपेक्षा होती है जो छायावाद के हैं या नई कविता के हैं। हमारी पीढी ने अपने आलोचक पैदा नहीं किए।


क्यों आपकी पीढी के लगभग तमाम कवि स्वयं आलेाचक हैं?

लेकिन वे कवि हैं। 


आपकी कविता को तलाश किस चीज की है?

तलाश तो एक कवि अपनी कविता में बहुत सारी चीजों की करता है। मुझे अपने शहर भोपाल से बहुत प्यार है। सन् 1984 के बाद बाहर के लोगों के लिए भोपाल का अर्थ हो गया है गैस कांड की  जगह। इस तरह आपके शहर - जिसकी गलियां, सडकें, तालाब, संस्कृति जिन्हें आप जानते पहचानते थे उसकी पहचान खत्म हो गई और हीरोशिमा की तरह एक नई पहचान बन गई। पुराने शहर को अपनी कविता में फिर से पाने की कोशिश मैंने 1984 के बाद की कविताओं में लगातार की है। 

दूसरे एक बेहतर मानवीय समाज की तलाश मेरी कविताओं की प्राथमिकता है। 


आपकी पसंद की दस किताबें कौन सी हैं?

दस नहीं ग्यारह - महाभारत, हम्जातोव का मेरा दागिस्तान, एलिस का आश्चर्यलोक (शमशेर बहादुर सिंह द्वारा अनुदित), दास्ताने खोजा नसीरुद्दीन, निराला की कविताएं, दीवाने गालिब, तुलसीदास की विनय पत्रिका, शूद्रक का मृच्कटिकम, हजारीप्रसाद द्विवेदी का अनामदास का पोथा, आजिमो देजाई का द सेटिंग सन और पास्कलदुआर्तो का परिवार अन्तिम वाला इधर जुड गया है। 


आप किस कवि से प्रभावित हैं?

बहुत सारे कवियों से प्रभावित हूं लेकिन मेरे आदर्श निराला हैं । मुझे उनसे बडा कोई कवि नहीं लगता। 


लेकिन निराला के आदर्श तो तुलसीदास हैं फिर तुलसीदास क्यों नहीं?

निराला यह बार-बार कहते तो हैं कि तुलसीदास उनके आदर्श हैं लेकिन सिद्ध नहीं करते । निराला का मिजाज कबीर के ज्यादा करीब का है लेकिन वे उनाक मजाक उडाते हैं। मुझे लगता है कि कवि जो कहता है उसे प्रमाणित करना उसके लिए मुश्किल होता है। 


सोवियत संघ के विघटन के बाद अचानक ऐसा क्या हुआ कि तुलसी के कट्टर आलोचक कवि उनके प्रशंसक हो गए ?

दूसरों के बारे में तो मैं नहीं कहूंगा लेकिन पुनर्विचार करते समय कई बार हमें ऐसा लगता है कि हमारा विरोध गलत था और दूसरे के प्रभाव में था। तुलसीदास  के साथ यही हुआ। 


आपकी रचनात्मक समस्या क्या है?

उस आदमी की आवाज को अपनी आवाज देना जो समाज के सबसे नीचले तबके का है। 


आपकी पीढी  को अपने  पाठकों का  रुचि परिवर्तन नहीं करना पडा। लोग नई कविता से जुड गए थे।  आपको क्या कभी ऐसा लगा कि कुछ उलट-फेर करना चाहिए?

माध्यम की तलाश तो एक कवि हमेशा करता है। मुझे कविता से संतोष नहीं होता है इसलिए मैंने कई-कई माध्यमों में काम किया। कविता, कहानी, नाटक। इस मामले में एक असंतुष्ट व्यक्ति हूं । कविता के जितने फार्म हैं दुर्भार्ग्य से वे मुझे कभी पूरे नहीं लगे। दुर्भाग्य यह भी है कि जब हमारे कान तैयार हो रहे थे तो छंद जा चुका था। हमारे कानों को छंद का अभयास नहीं मिला। हमने पढ के छंदों को जाना। और पढकर जो छंद जाना जाता है उससे छंद में लिखना मुश्किल है। 

 

लेखन एक सामाजिक कर्म है, जो कवि के निजी जीवन को भी प्रभावित करता है। क्या आपको इससे असुविधा नहीं होती है?

यदि आप साहित्य, नाटक, संगीत कला के किसी भी क्षेत्र में जाते हैं तो तय है कि आपका जीवन वैसा ही नहीं होगा जैसा सामान्य आदमी का। आपका जीवन थोडा भिन्न होगा। क्योंकि आपको अपने कलाकर्म के लिए अतिरिक्त समय देना होगा। तो थोडा परिवर्तन तो होगा ही । इसे मान लीजिए तो असुविधा नहीं होगी।


दुनिया रोज बदल रही है। कुछ प्रदेशों में मिट्टी के चेहरों को नष्ट कर नेपथ्य में हंसने वाले लेाग अब खुले में आ गए हैं। पछले कुछ वर्षो से समाज को बर्बर मध्यकालीन युग की ओर ले जाने की कोशिश की जा रही है। धर्मयुद्ध, जिहाद जैसे शब्द जो प्रायः नहीं सुने जाते थे अब आमफहम हो गए हैं। इन परिस्थितियों एक रचनाकार की क्या भूमिका हो सकती है?

आज हमें ऐसे समाज को बचाने  की जरुरत है, जो समता पर केन्द्रीत हो और जिसमें जाति, वर्ग, वर्ण के भेद, विसंगतियां, विद्रूपताएं कम हों। 

हिंसा कई स्तरों पर होती है। केवल हत्या ही हिंसा नहीं होती है। चायघर में काम करते हुए बच्चे, चकलाघरों में काम करती हुई औरतों को देखें यह भी एक प्रकार की हिंसा है। जिन बच्चों को खेलने-पढने का अधिकार मिलना चाहिए वे काम कर  रहे हैं तो यह ज्यादा बडी हिंसा है। 


क्या लेखक को लिखने तक सीमित रहना चाहिए ?

जब आप रचना में या कला के किसी भी क्षेत्र में सामाजिक मूल्यों की बात करते हैं या सामाजिक परिवर्तन या समाज को बेहतर बनाने की बात करते हैं तो उन आंदोलनों में भी भाग लेना चाहिए जो इनके लिए हो रहे हैं। यह पारस्परिक रुप से दोनों के लिए लाभदायक है। आंदोलन को बल मिलता है और कलाकार की रचनात्मकता विकसित होती है। फिर रचनाकार को ही क्यों हर चेतस व्यक्ति को सामाजिक जिम्मेवारी के आंदोलनों में हिस्सेदारी करनी चाहिए।


आज का समाज एक झूठ में जीता है। क्या आप भी अपने जीवन में एक झूठ की हिस्सेदारी पाते हैं?

मुझे लगता है कि झूठ में जीना या दो तरह के व्यक्तित्व में रहना यह वर्चस्व की स्थिति में होता है क्योंकि उसी के साथ झूठ बना रह सकता है। जो सामान्य व्यक्ति है उसके पास जीवन की सबसे क्रूर सचाइयां होती हैं। उसकी स्थिति भिन्न होती है। अगर हम साहित्य की दृष्टि से देखें तो यह भेद साफ दिखाई देगा।

खूब लड़ी मर्दानी वो तो...../ सुभद्रा कुमारी चौहान

  सुभद्रा कुमारी चौहान

सुभद्रा कुमारी चौहान (१६ अगस्त १९०४-१५ फरवरी १९४८हिन्दी की सुप्रसिद्ध कवयित्री और लेखिका थीं। उनके दो कविता संग्रह तथा तीन कथा संग्रह प्रकाशित हुए पर उनकी प्रसिद्धि झाँसी की रानी (कविता) के कारण है। ये राष्ट्रीय चेतना की एक सजग कवयित्री रही हैं, किन्तु इन्होंने स्वाधीनता संग्राम में अनेक बार जेल यातनाएँ सहने के पश्चात अपनी अनुभूतियों को कहानी में भी व्यक्त किया। वातावरण चित्रण-प्रधान शैली की भाषा सरल तथा काव्यात्मक है, इस कारण इनकी रचना की सादगी हृदयग्राही है।

Subhadra Kumari Chauhan
सुभद्रा कुमारी चौहान
Subhadra Kumari Chauhan.JPG
सुभद्रा कुमारी चौहान
जन्म16 अगस्त 1904
इलाहाबादसंयुक्त प्रान्त आगरा व अवधब्रिटिश भारत के प्रेसीडेंसी और प्रांत
मृत्यु15 फ़रवरी 1948 (उम्र 43)[1]
सिवनीभारत
व्यवसायकवयित्री
भाषाहिन्दी
राष्ट्रीयताभारतीय
अवधि/काल1904–1948
विधाकविता
विषयहिन्दी
जीवनसाथीठाकुर लक्ष्मण सिंह चौहान
सन्तान5

कृतियाँ

कहानी संग्रह

  • बिखरे मोती (१९३२)
  • उन्मादिनी (१९३४)
  • सीधे साधे चित्र (१९४७)

कविता संग्रह

  • मुकुल
  • त्रिधारा
  • प्रसिद्ध पंक्तियाँ
  • यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।  मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे॥ 
  • सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी, बूढ़े भारत में भी आई फिर से नयी जवानी थी,  गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,  दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी। 
  • मुझे छोड़ कर तुम्हें प्राणधन  सुख या शांति नहीं होगी  यही बात तुम भी कहते थे  सोचो, भ्रान्ति नहीं होगी।

जीवनी

'मिला तेज से तेज'

साहिर लुधियानवी ,जावेद अख्तर और 200 रूपये

 एक दौर था.. जब जावेद अख़्तर के दिन मुश्किल में गुज़र रहे थे ।  ऐसे में उन्होंने साहिर से मदद लेने का फैसला किया। फोन किया और वक़्त लेकर उनसे...