सोमवार, 29 मई 2023

असली संत

 ⚛️ आत्मवत सर्वभूतेषु ⚛️प्रस्तुति ज्योतिषाचार्य पंडित कृष्ण मेहता

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गले का कैंसर था। पानी भी भीतर जाना मुश्किल हो गया, भोजन भी जाना मुश्किल हो गया। तो विवेकानंद ने एक दिन अपने गुरुदेव रामकृष्ण परमहंस से कहा कि " आप माँ काली से अपने लिए प्रार्थना क्यों नही करते ? क्षणभर की बात है, आप कह दें, और गला ठीक हो जाएगा ! तो रामकृष्ण हंसते रहते , कुछ बोलते नहीं। एक दिन बहुत आग्रह किया तो रामकृष्ण परमहंस ने कहा - " तू समझता नहीं है रे नरेन्द्र। जो  किया है, उसका निपटारा कर लेना जरूरी है। नहीं तो उसके निपटारे के लिए फिर से आना पड़ेगा। तो जो हो रहा है, उसे हो जाने देना उचित है। उसमें कोई भी बाधा डालनी उचित नहीं है।" तो विवेकानंद बोले - " इतना ना सही , इतना ही कह दें कम से कम कि गला इस योग्य तो रहे कि जीते जी पानी जा सके, भोजन किया जा सके ! हमें बड़ा असह्य कष्ट होता है, आपकी यह दशा देखकर । " तो रामकृष्ण परमहंस बोले "आज मैं कहूंगा। "

जब सुबह वे उठे, तो जोर जोर से हंसने लगे और बोले - " आज तो बड़ा मजा आया । तू कहता था ना, माँ से कह दो । मैंने कहा माँ से, तो मां बोली -" इसी गले से क्या कोई ठेका ले रखा है ? दूसरों के गलों से भोजन करने में तुझे क्या तकलीफ है ? "


हँसते हुए रामकृष्ण बोले -" तेरी बातों में आकर मुझे भी बुद्धू बनना पड़ा ! नाहक तू मेरे पीछे पड़ा था ना । और यह बात सच है, जाहिर है, इसी गले का क्या ठेका है ? तो आज से जब तू भोजन करे, समझना कि मैं तेरे गले से भोजन कर रहा हू। फिर रामकृष्ण बहुत हंसते रहे उस दिन, दिन भर। डाक्टर आए और उन्होंने कहा, आप हंस रहे हैं ? और शरीर की अवस्था ऐसी है कि इससे ज्यादा पीड़ा की स्थिति नहीं हो सकती ! रामकृष्ण ने कहा - " हंस रहा हूं इससे कि मेरी बुद्धि को क्या हो गया कि मुझे खुद खयाल न आया कि सभी गले अपने ही हैं। सभी गलों से अब मैं भोजन करूंगा ! अब इस एक गले की क्या जिद करनी है !" 

कितनी ही विकट परिस्थिति क्यों न हो, संत कभी अपने लिए नहीं मांगते, साधू कभी अपने लिए नही मांगते, जो अपने लिए माँगा तो उनका संतत्व ख़त्म हो जाता है । वो रंक को राजा और राजा को रंक बना देते है लेकिन खुद भिक्षुक बने रहते है ।


जब आत्मा का विश्वात्मा के साथ तादात्म्य हो जाता है तो फिर अपना - पराया कुछ नही रहता, इसलिए संत को अपने लिए मांगने की जरूरत नहीं क्योंकि उन्हें कभी किसी वस्तु का अभाव ही नहीं होता !


जय माँ काली !

रविवार, 28 मई 2023

ईमानदारी और स्वाभिमान"

 

प्रस्तुति -कृति शरण /  दिव्यांश भट्ट 


एक बार बाजार में चहलकदमी करते एक व्यापारी को व्यापार के लिए एक अच्छी नस्ल का ऊँट नज़र आया।

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व्यापारी और ऊँट बेचने वाले ने वार्ता कर, एक कठिन सौदेबाजी की। 


ऊँट विक्रेता ने अपने ऊँट को बहुत अच्छी कीमत में बेचने के लिए, अपने कौशल का प्रयोग कर के व्यापारी को सौदे के लिए राजी कर लिया। 

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वहीं दूसरी ओर व्यापारी भी अपने नए ऊँट के अच्छे सौदे से खुश था। 

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व्यापारी अपने पशुधन के बेड़े में एक नए सदस्य को शामिल करने के लिए उस ऊँट के साथ गर्व से अपने घर चला गया।

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घर पहुँचने पर, व्यापारी ने अपने नौकर को ऊँट की काठी निकालने में मदद करने के लिए बुलाया। 

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भारी गद्देदार काठी को नौकर के लिए अपने बलबूते पर ठीक करना बहुत मुश्किल हो रहा था।

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काठी के नीचे नौकर को एक छोटी मखमली थैली मिली, जिसे खोलने पर पता चला कि वह कीमती गहनों से भरी हुई है।

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नौकर अति उत्साहित होकर बोला, "मालिक आपने तो केवल एक ऊँट ख़रीदा, लेकिन देखिए इसके साथ क्या मुफ़्त आया है?"

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अपने नौकर के हाथों में रखे गहनों को देखकर व्यापारी चकित रह गया। वे गहने असाधारण गुणवत्ता के थे, जो धूप में जगमगा और टिमटिमा रहे थे।

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व्यापारी ने कहा, "मैंने ऊँट खरीदा है," गहने नहीं ! मुझे इन जेवर को ऊँट बेचने वाले को तुरंत लौटा देना चाहिए।"

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नौकर हतप्रभ सा सोच रहा था कि उसका स्वामी सचमुच मूर्ख है! वो बोला, "मालिक! इन गहनों के बारे में किसी को पता नहीं चलेगा।"

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फिर भी, व्यापारी वापस बाजार में गया और वो मखमली थैली ऊँट बेचने वाले को वापस लौटा दी।

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ऊँट बेचने वाला बहुत खुश हुआ और बोला, "मैं भूल गया था कि मैंने इन गहनों को सुरक्षित रखने के लिए ऊँट की काठी में छिपा दिया था.......आप, पुरस्कार के रूप में अपने लिए कोई भी रत्न चुन सकते हैं।"

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व्यापारी ने कहा "मैंने केवल ऊँट का सौदा किया है, इन गहनों का नहीं , धन्यवाद, मुझे किसी पुरस्कार की आवश्यकता नहीं है।"

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व्यापारी ने बार बार इनाम के लिए मना किया, लेकिन ऊँट बेचने वाला बार बार इनाम लेने पर जोर डालता रहा।

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अंत में व्यापारी ने झिझकते हुए कहा, "असल मेंजब मैंने थैली वापस आपके पास लाने का फैसला किया था, तो मैंने पहले ही दो सबसे कीमती गहने लेकर, उन्हें अपने पास रख लिया।"

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इस स्वीकारोक्ति पर ऊँट विक्रेता थोड़ा स्तब्ध था और उसने झट से गहने गिनने के लिए थैली खाली कर दी।

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वह बहुत आश्चर्यचकित होकर बोला "मेरे सारे गहने तो इस थैली में हैं! तो फिर आपने कौन से गहने रखे?

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"दो सबसे कीमती वाले" व्यापारी ने जवाब दिया।

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"मेरी ईमानदारी और मेरा स्वाभिमान"

गुरुवार, 25 मई 2023

गुरु देव के आस पास / बिनोद कुमार राज विद्रोही

 

 



उफ्फ! कोलकाता की गर्मी, तेज धूप, पसीने से तरबतर, बस से उतर कर कई गलियों-चौराहों को लांघते हुए, नोबेल पुरस्कार से सम्मानित, राष्ट्रगान 'जन-गण-मन' के रचयिता कवि रवीन्द्र नाथ टैगोर का पुस्तैनी घर पहुंचा। जहां उनका जन्म इसी महीने में 7 या 8 मई 1861 को हुआ था। जहां वे पले-बढ़े और आखिरी समय में अंतिम सांसे ली। कई वर्षों से मेरी इच्छा थी कि उनका घर जाकर देखूं। लेकिन संयोग नहीं बन पा रहा था। इस बार पहुंच ही गया। उनके घर को संग्रहालय के रूप में तब्दील कर दिया गया है। जहां उनसे जुड़ी तमाम चीजों को संभाल कर रखा गया है।

       इस जगह का नाम है-  जोरासाँको ठाकुर बाड़ी। बंगाली में 'बाड़ी' घर को कहते हैं शायद। लेकिन यह उस जमाने की हवेली है। लगभग पैंतीस हजार वर्ग मीटर में फैला है, और गार्ड के अनुसार तीन सौ से ऊपर कमरे हैं, जिसमें बहुत बंद रहता है। बाड़ी का अधिकतर कमरा, रेलिंग, कुर्सियां, फर्श, सीढ़ियां आज भी अपने मौलिक स्वरूप में है। बाड़ी के अंदर के किसी भी कमरे और उनसे जुड़ी चीजों की तस्वीरें खींचने-छूने की सख्त मनाही है। बहुत सुकून मिला यहां आकर, आत्मविभोर हुआ। सीढ़ी से ऊपर चढ़कर जैसे ही कमरे में प्रवेश किया तो कई तस्वीरें, कूर्सियां, उनका कप-प्याली वगैरह शीशे में सजा कर रखा हुआ है। इसी तरह हर कमरे में कुछ-न-कुछ सजा कर रखा गया है। एक कमरे में उनके सभी मानपत्र रखें हुए हैं। एक दूसरे कमरे में सिगार पीने का स्टैंड रखा हुआ है। हो सकता है यह उनके पुरखों का हो। सभी कमरों की छतों में बेशकीमती लकड़ी का प्रयोग हुआ है। जो आज भी सुरक्षित है। उनका जो शयनकक्ष था, उसमें उस समय की कुछ कुर्सियां, तस्वीरें हैं। बीचोबीच में बेड लगा हुआ है। आश्चर्य हुआ यह देखकर कि इस एक कमरे में कुल सात दरवाजे हैं। तीन बड़े हालों को आर्ट गैलरी के रूप में तब्दील किया गया है। जिसमें टैगोर सहित उनके परिवार के सदस्यों द्वारा बनाए गए पेंटिंग्स को सजाया गया है। साथ ही उनका एक ऊपरी गाउन एवं शॉल, जिसे हमलोग अधिकतर तस्वीरों में पहने हुए देखते हैं, को शीशे में सजाकर रखा गया है। इस तरह का गाउन और अन्य वस्त्र एक और कमरे में देखा। बहरहाल दर्जनों कमरों में उनसे जुड़ी सैकड़ों चीजों को आज भी संभाल कर रखा गया है। इसके लिए बंगाल सरकार और यहां की जनता बधाई के पात्र हैं। लेकिन इतनी ही श्रद्धा अगर बंगाल सरकार, शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के लिए दिखाती, तो शायद उनके पैतृक घर और गांव का कायाकल्प हो जाता। शरतचंद्र चट्टोपाध्याय का घर देखकर आंखों में आंसू आ जाते हैं। कितना वीरान है। कोई देखने वाला नहीं। सहेजने वाला नहीं। तब भी शरतचंद्र जी का सही मूल्यांकन नहीं किया गया था। आज भी नहीं किया जा रहा है। यह दुखद है। 

          खैर, टैगोर जी के इस बाड़ी के विभिन्न कमरों का अवलोकन करते हुए मन प्रफुल्लित होता जा रहा है। यह देखकर कि बहुत ही संभाल कर रखा गया है उनकी विरासत को। महसूस करता हूं कि बचपन के दिनों में वे इस बाड़ी के एक कमरे से दूसरे कमरे में, बरामदे में, सीढ़ियों से होते हुए कितनी अठखेलियां-नादानियां करते होंगे, अपने तेरह भाई-बहनों के साथ खेलते-कूदते होंगे। बड़े होने पर पता नहीं कब, किस कमरे में लिखे होंगे अपनी पहली रचना। कितना प्यार मिलता होगा आपने सभी भाई बहनों से उन्हें। वे घर में सबसे छोटे थे।

           शिक्षा और साहित्य के प्रचार-प्रसार में इनका और इनके परिवार का योगदान अतुलनीय है। इनके पिता महर्षि देवेंद्र नाथ और मां शारदा देवी शिक्षा के विकास के प्रति समर्पित थे, तो उनकी बहन भी प्रसिद्ध उपन्यासकार थीं। वही बड़े भाई भी एक प्रसिद्ध कवि थे।

         कहीं पढ़ा था कि एक संपन्न और शिक्षित परिवार में जन्म लेने के बावजूद टैगोर ने स्कूल में पढ़ाई नहीं की। फलस्वरुप घर पर ही उन्हें शिक्षित करने का प्रबंध किया गया। हालांकि बाद में 1878 ई. में उन्हें इंग्लैंड भेजा गया, ताकि वे औपचारिक शिक्षा प्राप्त कर सके। लेकिन वहां से भी उन्होंने बीच में ही अपनी पढ़ाई छोड़कर भारत लौट गए। 1883 में मृणालिनी देवी से शादी के बाद उनके पांच बच्चे हुए। इस बाड़ी के एक अन्दर के बरामदे में कई सौ सालों का वंशावली तसवीर सहित टंगी हुई है। सन् 1900 से 1910 के बीच इनका जीवन काफी दुख और पीड़ा में गुजरा। क्योंकि इस बीच पत्नी सहित दो संतान रेणुका और समंद्रनाथ का निधन हो गया। पिता का भी 1905 ई. में निधन हो गया था।

         मैं जिस शहर, हजारीबाग से यहां आया हूं। उस शहर से भी इनका बेहद लगाव था। साथ ही झारखंड के मधुपुर और गिरिडीह में भी उन्होंने काफी समय गुजारा है। उनके भाई का भी झारखंड से प्रेम जगजाहिर है। उन्होंने एक लम्बा समय रांची में बिताया है। जिसका चश्मदीद गवाह टैगोर हिल है। रांची की चर्चा फिर कभी करूंगा। रवींद्रनाथ टैगोर की पुत्री रेणुका का जब 1903 में निधन हुआ था और उसके पहले कई वर्षों से वह बीमार थी तो अपनी पुत्री के स्वास्थ्य लाभ के लिए वे हजारीबाग में भी आकर कुछ दिन रहे थे। 9 मई 2015 को दैनिक प्रभात खबर में प्रकाशित टैगोर पर शोध करने वाले अमल सेनगुप्ता से बातचीत के आधार पर तैयार रिपोर्ट के अनुसार - रवींद्रनाथ टैगोर ने हजारीबाग की पहली यात्रा 1885 में और दूसरी यात्रा 1903 में की थी। अप्रैल 1885 ई. में कोलकाता से मधुपुर, गिरिडीह होते हुए हजारीबाग आए थे। फुसफुस गाड़ी (चार चक्का वाला रथ, दो आदमी आगे से खींचता था, दो आदमी पीछे से धक्का देता था) में सवार होकर आए थे। हजारीबाग आने के संबंध में 'दस दिनेर छुट्टी' लेख से स्पष्ट होता है कि भतीजी इंदिरा देवी लोरेटो कॉन्वेंट, कोलकाता में पढ़ती थी। वहीं की शिक्षिका सिस्टर एलोसिया, इंदिरा देवी को बहुत प्यार करती थी। सिस्टर एलोसिया का स्थानांतरण हजारीबाग कान्वेंट (वर्तमान में पीटीसी प्राचार्य भवन) स्कूल हो गया था। रवीन्द्रनाथ टैगोर को सिस्टर एलोसिया से इंदिरा को मिलाया था। इसलिए हजारीबाग में आकर उस समय जुलू पार्क, पीडब्ल्यूडी डाक बंगला (वर्तमान में पीटीसी मैदान के बगल में) आकर ठहरे थे। यहां से हजारीबाग कान्वेंट स्कूल भी सामने था। उस समय में छह से दस दिन यहां रुके थे। हजारीबाग से कोलकाता जाने के बाद रवींद्रनाथ टैगोर ने दस दिनेर छुट्टी लेख में पूरे हजारीबाग का जीवन्त चित्रण किया है। वहीं इनकी दूसरी यात्रा सन् 1903 ई. में लगभग एक माह की हुई थी। वे अपनी दूसरी बेटी रेणुका जो टीवी रोग (क्षय रोग) से पीड़ित थी। उसके स्वास्थ्य लाभ के लिए हजारीबाग आए थे। उन्होंने अपनी बीमार बेटी को सबसे पहले कोलकाता से मधुपुर ले गए। लेकिन वहां स्वास्थ्य लाभ में कोई सुधार नहीं होने पर हजारीबाग की ओर रुख किया।

         रवीन्द्रनाथ टैगोर हजारीबाग में आकर अपने गोतिया कालीकृष्ण टैगोर के हजारीबाग जुलू पार्क की स्थित बंगला में ठहरे (वर्तमान में जुलू पार्क पूरा मोहल्ला बसा हुआ है) टैगोर को भाई का यह बगानबाड़ी पसंद नहीं आया। इस बाड़ी के कमरे में अंधेरा हो जा रहा था। टैगोर के साथ बीमार बेटी रेणुका, छोटी बेटी मीरा, पत्नी मृणालिनी के फूफा, साला नागेंद्रनाथ राय चौधरी, उनकी पत्नी व कई सगे-संबंधी उनके साथ आए थे। जुलू पार्क बागान बाड़ी को छोड़कर रवींद्रनाथ पूरे परिवार के सदस्यों के साथ गिरेंद्रनाथ गुप्ता के मकान में आकर रुके। उस समय गिरेंद्रनाथ गुप्ता जीपी कम पीपी थे। यह मकान (वर्तमान में पैगोडा चौक अक्षय पेट्रोल पंप के पीछे) खप्परपोश बांगला है। इसी बंगले में रहे थे। यहां टैगोर ने पांच कविताएं लिखी। नौक डूबी की शुरुआत की।

       खैर ये तो रही अपने शहर हजारीबाग से रवींद्रनाथ टैगोर के लगाव की बात। मैं अपनी अगली यायावरी में शांतिनिकेतन जाऊंगा। वही शांतिनिकेतन-विश्वभारती, जिसे रवींद्रनाथ टैगोर के पिता देवेंद्रनाथ टैगोर ने वर्ष 1863 में सात एकड़ जमीन पर एक आश्रम की स्थापना की थी। वहीं आज विश्वभारती है। गूगल बाबा के अनुसार - "रवीन्द्रनाथ टैगोर ने 1901 में सिर्फ पांच छात्रों को लेकर यहां एक स्कूल खोला। इन पांच लोगों में उनका अपना पुत्र भी शामिल था। 1921 में राष्ट्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा पाने वाले विश्व भारती में इस समय लगभग छह हजार छात्र पढ़ते हैं। इसी के इर्द-गिर्द शांति निकेतन बसा है।"


BKR  VIDROHI 

गुरुवार, 18 मई 2023

मिसेज चैटर्जी वर्सेज नार्वे

 

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एक भारतीय जोड़ा  विदेश नार्वे जाता है l

नार्वे में मिस्टर अनिरुद्ध चैटर्जी की प्रतिष्ठित नौकरी है l

यह जोड़ा अपने बड़े बेटे शुभ और पांच महीने की दुधमुंही बच्ची शुचि के साथ हँसी -खुशी रह रहा है l 

   नार्वे के कानूनों के अनुसार बाल कल्याण संस्था सबके घरों में सर्वे कराने जाती हैं कि बच्चों का लालन-पालन ठीक से हो रहा है या नहीं इसलिए इसी संस्था की दो महिलाएं चटर्जी फैमिली में भी सर्वे करने आती है l

अपनी अंतिम विजिट पर वे बिन पूछे ही चटर्जी फैमिली के दोनों बच्चों को वैन  में लेती जाती हैं  तब पता चलता है कि वहां के कानूनों के अनुसार भारतीय तरीके से बच्चों को अपने पास सुलाना , हाथ से खिलाना और बच्चों की गलती पर एक चांटा मार देना भी गुनाह के अंतर्गत आता है l 

 बाल कल्याण संस्था  द्वारा किया गया यह कार्य  चैटर्जी परिवार के लिए अप्रत्याशित  है l 

बच्चों की मां सदमे में आ जाती है और दोनों माता-पिता बच्चों को वापस लाने की कोशिश करते हैं पर यहां पिता हारमान दिखता है क्योंकि वह नार्वे की सिटीजनशिप मिलने के इंतजार में है  l 

 दुखी मां के लिए यह चुनौती है कि वह अपने बच्चों को अपने पास वापस कैसे लाएं !

यहां बाल कल्याण संस्था बच्चों को या तो संस्था में या फॉस्टर परिवार में दे देती हैं l 

 कानूनी लड़ाई चलती है l बाद में छुपी -ढकी यह बात भी चलती है कि  मोटे दानदाताओं के चलते ऐसी संस्थाएं  जबरदस्ती बच्चों को अपने पास रख लेती हैं l

मां के रूप में रानी मुखर्जी ने  बेहद संजीदा अभिनय किया हैl अपने पति अनिरुद्ध  का  सम्पूर्ण सहयोग  न मिलने पर देबिना /रानी मुखर्जी कैसे अकेले यह लड़ाई लड़ती है !!

 पिता के रूप में अनिर्बान भट्टाचार्य भी ठीक हैं ,  भारतीय विदेश मंत्री के रूप में नीना गुप्ता हैl 

क्या नार्वे के कानूनों से लड़कर एक मां अपने बच्चों को वापस ले पाई  !! यही इस कहानी की कहानी का मुख्य  भावपूर्ण भाग  है l

 फिल्म की निर्देशिका हैं आशिमा छिब्बर और संगीत अमित त्रिवेदी का है l

 फिल्म में एक मां के अंतर्द्वंद , दुःख और बच्चों के प्रति प्यार में गुंथा,  लोरीनुमा एक  गीत है जिसे सुनकर आँखें डबडबा आती हैं l 

यह मधुबंती ने गाया है l 

"आमी जानी रे तुमार कट्टी तुमार बत्ती

 आनी जानी रे तुमार सिसकी तुम्हारी हिचकी "


यह फिल्म सच्ची घटना पर आधरित है l


( बहुत दिनों के बाद नेटफ्लिक्स में बच्चों की मित्र के सुझाने पर   यह फिल्म देखी , फिल्म भली है lरानी मुखर्जी मुझे  उनके अभिनय के लिए हमेशा से प्रिय हैं , मुझे इस फिल्म को देखकर रानी की पुरानी  फिल्म ' युवा ' याद हो आई l )

गुरुवार, 11 मई 2023

(इक पाश इह वी....किताब से अनुवाद सतीश छिम्पा)

 हम लड़ेंगे साथी.....


( यह तस्वीर पाश यादगारी समागम की है दो साल पहले सूरतगढ़ की ...)


    

    पाश की बातें....


रूह में तो "वो" बैठी है......


पाश जब मिल्खा सिंह की जीवनी लिख रहे थे तो उनसे काम में देरी हो रही थी तो एक दिन "देश प्रदेश" के सम्पादक तरसेम ने उन्हें कहा कि,"पाश तूं जीवनी लिखते समय अपनी रूह में मिल्खा सिंह को बैठा लिया कर।"

     पाश हमे बुदबुदाते हुए कहता,"बताओ भला मैं मिल्खा सिंह को अपनी रूह में कैसे बैठा लूँ,मेरी रूह में तो बहुत अरसे से "वो" बैठी है,तुम सबको तो पता ही है......मैं किसी और को नहीं बैठा सकता"


'               (२)


रात के समय किसे जगाते,हम (अवतार पाश और शमशेर सन्धु) पाश के घर की दिवार फांद के अंदर पहुँच गए क्योंकि बंटवारे के समय चौबारा बड़े भाई के हिस्से चला गया था।भीतर एक मांची थी बहुत ही ढीली....हम उस पर लेट गए,मगर नींद कहाँ...

कुछ देर बाद.....ये क्या,मेरा कंधा आंसुओं से भीग गया.....हमेशा चहकते,हंसते मुस्कुराते रहने वाला पाश रो रहा है...वो कुछ समय बाद उठा और पौड़ियों पर बैठ बुदबुदाने लगा....

"हमारा परिवार यूँ ही बंट बुंट गया....बापू को मुझसे बहुत उम्मीद थी,मगर मैं अच्छा बेटा न बन सका....बड़े भाई को मुझसे उम्मीद थी मगर मैं कमाऊ भाई न बन सका....मैं यूँ ही रहा....हर रोज़ मैं खुद का कत्ल करता हूँ....."


"    (3)


          पाश जब जेल में कैद थे झूठे कत्ल केस में ये बात पुलिस भी जानती थी कि पाश बेकसूर है।मगर नक्सल लहर की दहशत इतनी थी कि पुलिस और सत्ता पाश को खतरनाक मान रही थी और एक घुप्प अँधेरी कोठड़ी में उसे बंद कर दिया गया था।जहां खटमल और अँधेरा ही उसके साथी थे।और उन्ही मुश्किल दिनों में कविताएँ पाश के भीतर ठांठे मारने लगी थी।मगर कागज़ और कलम उस "खतरनाक" आदमी को कौन देता।अपने मुलाकाती सज्जनो को उसने कहा कि "जैसे भी हो कागज़ कलम पहुँचाओ" और फिर अगली मुलाकात में एक अजीब सी तरकीब से कागज़ कलम अंदर पहुंचे।दरअसल एक खाकी और एक सफ़ेद लिफ़ाफ़े में दो सन्तरे और दो केले भेजे गए।इन्ही कागज़ों पर पाश को कविताएँ लिखनी थी।और केलों में खोंसी गयी थी 2 रिफिलें।

ये जज़्बा था पाश के इंकलाबी कवि का....


  (इक पाश इह वी....किताब से अनुवाद सतीश छिम्पा)

बुधवार, 10 मई 2023

जीवन संदेश

 🙏🙏



जीवन संदेश 



*1. एक 61 वर्षीय रिटायर्ड अधिकारी द्वारा WhatsApp पर सभी वरिष्ठ साथियों व रिटायर होने वाले साथियों के लिए share किया गया एक उत्तम संदेश::::*

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*2. कृपया अंत तक अवश्य पढ़ें*..

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3.●  *जीवन मर्यादित है और उसका जब अंत होगा तब इस लोक की कोई भी वस्तु साथ नही जाएगी*.... 

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4. ● *फिर ऐसे में कंजूसी कर, पेट काट कर बचत क्यों की जाए.... ? आवश्यकतानुसार खर्च क्यों ना करें..? जिन अच्छी बातों में आनंद मिलता है, वे करनी ही चाहिए....*

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5. ●  *हमारे जाने के पश्चात क्या होगा, कौन क्या कहेगा, इसकी चिंता छोड़ दें, क्योंकि देह के पंचतत्व में विलीन होने के बाद कोई तारीफ करे या टीका टिप्पणी करे, क्या फर्क पड़ता है....?*   

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6. ●  *उस समय जीवन का और मेहनत से  कमाए हुए धन का, आनंद लेने का वक्त निकल चुका होगा....*

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7. ●  *अपने बच्चों की जरूरत से अधिक फिक्र ना करें....* 

*उन्हें अपना मार्ग स्वयं खोजने दें....*

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8.  *अपना भविष्य उन्हें स्वयं बनाने दें। उनकी इच्छाओं, आकांक्षाओं और सपनो के गुलाम आप ना बनें....* 

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9.  ●  *बच्चों को प्रेम करें, उनकी परवरिश करें, उन्हें भेंट वस्तुएं भी दें, लेकिन कुछ आवश्यक खर्च स्वयं अपनी आकांक्षाओं पर भी अवश्य करें....*

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10.  ●  *जन्म से लेकर मृत्यु तक सिर्फ कष्ट   सहते रहना ही जीवन नहीं है।* 

*यह ध्यान रखें....*

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  11. ● *आप ६ दशक पूरे कर चुके है,*

*अब जीवन और आरोग्य से खिलवाड़ करके पैसे कमाना अनुचित है, क्योंकि अब इसके बाद पैसे खर्च करके भी आप आरोग्य खरीद नही सकते....*

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12. ●  *इस आयु में दो प्रश्न महत्वपूर्ण है: पैसा कमाने का कार्य कब बन्द करें, और कितने पैसे से अब बचा हुआ जीवन सुरक्षित रूप से कट जाएगा....*

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13.  ●  *आपके पास यदि हजारों एकड़ उपजाऊ जमीन भी हो, तो भी पेट भरने के लिए कितना अनाज चाहिए_? आपके पास अनेक मकान हों, तो भी रात में सोने के लिए एक ही कमरा चाहिए....* 

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14.  ●  *एक दिन बिना आनंद के बीते तो, आपने जीवन का एक दिन गवाँ दिया और एक दिन आनंद में बीता तो एक दिन आपने कमा लिया है, यह ध्यान में रखें....*

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15.  ●  *एक और बात: यदि आप खिलाड़ी प्रवृत्ति के और खुश-मिजाज हैं तो बीमार होने पर भी बहुत जल्द स्वस्थ्य होंगे और यदि सदा प्रफुल्लित रहते हैं, तो कभी बीमार ही नही होंगे....*

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16.  ●  *सबसे महत्व-पूर्ण यह है कि अपने आसपास जो भी अच्छाई है, शुभ है, उदात्त है, उसका आनंद लें और उसे संभाल- कर रखें....*

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17.  ●  *अपने मित्रों को कभी न भूलें। उनसे हमेशा अच्छे संबंध बनाकर रखें। अगर इसमें सफल हुए तो हमेशा दिल से युवा रहेंगे और सबके चेहते रहेंगे....*

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18. ●  *मित्र न हो, तो अकेले पड़ जाएंगे और यह अकेलापन बहुत भारी पड़ेगा....*

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19. ●  *इसलिए रोज व्हाट्सएप के माध्यम से संपर्क में रहें, हँसते-हँसाते रहें, एक दूसरे की तारीफ करें.... जितनी आयु बची है, उतनी आनंद में व्यतीत करें....* 

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20. ● *प्रेम व स्नेह मधुर है, उसकी लज्जत का आनंद लें....*

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21. ●  *क्रोध घातक है। उसे हमेशा के लिए जमीन में गाड़ दें....*

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22.● *संकट क्षणिक होते हैं, उनका सामना करें....*

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23. ●  *पर्वत-शिखर के परे जाकर सूर्य वापिस आ जाता है, लेकिन दिल से दूर गए हुए प्रियजन वापिस नही आते....*

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24. ● *रिश्तों को संभालकर रखें, सभी में आदर और प्रेम बाँटें। जीवन तो क्षणभंगुर है, कब खत्म होगा, पता भी नही चलेगा। इसलिए आनंद दें,आनंद लें....*

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25. *दोस्ती और दोस्त संभाल कर रखें....* 

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26. *जितना हो सके उतने “गैट-टूगेदर (Get-together) करते रहे....*

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🌻🌞🙏🙏🙏🙏🙏🌞🌻

सोमवार, 8 मई 2023

उपेंद्र कश्यप को मिला मधुकर सिंह पत्रकारिता सम्मान Aaa

 


तीन दशक से पत्रकारिता व पुस्तक लेखन में हैं सक्रिय


आंचलिक पत्रकारिता के तीन दशक पर छपी हैं पुस्तक


, दाउदनगर  पटना 


स्थित जगजीवन राम शोध संस्थान में शुक्रवार को आयोजित पत्रकारिता सम्मान समारोह सह विचार गोष्ठी में औरंगाबाद जिले के वरिष्ठ पत्रकार उपेंद्र कश्यप को मधुकर सिंह पत्रकारिता सम्मान से नवाजा गया। यह पुरस्कार उन्हें वीरेंद्र यादव फाउंडेशन चैरिटेबल ट्रस्ट द्वारा दिया गया। पूर्व विधान पार्षद उपेंद्र प्रसाद और वीरेंद्र यादव से पुरस्कार ग्रहण किया। इस अवसर पर बिहार विधान परिषद के उपसभापति डा. रामचंद्र पूर्वे, बिहार सरकार के पूर्व मंत्री श्याम रजक, विधान पार्षद डा. रामबली सिंह एवं कुमुद वर्मा विधायक छत्रपति यादव, राजद समाचार के संपादक और लेखक अरुण नारायण उपस्थित रहे। कहा गया कि दाउदनगर का इतिहास कलम बंद करने, आंचलिक पत्रकारिता के तीन दशक समेत कई पुस्तक लिखने, डाक्यूमेंट्री फिल्म बनाने में सक्रिय योगदान करने, सोशल मीडिया पर लगातार सक्रिय रहने, सामाजिक सरोकारों और मानवीय संवेदना से जुड़ी रिपोर्टिंग समेत खोजी पत्रकारिता लगातार करते रहने के लिए उन्हें यह सम्मान दिया गया है। अपने संबोधन में उपेंद्र कश्यप ने कहा कि किसी भी दूसरे जमात को आरोपित करना आसान है और अपने जमात में कमियां ढूंढना और उसे गिनाना मुश्किल है। जरूरत इस बात की है कि जब हम सामाजिक सरोकार की बात करते हैं तो यह भी ध्यान रखें कि किसी वर्ग विशेष की खिलाफत करने वाले लोग जब पद, प्रतिष्ठा और धन प्राप्त कर लेते हैं तो वह भी आक्रामक, तानाशाह और असहिष्णु हो जाते हैं। जरूरत इस बात की है कि दूसरे समुदाय की आलोचना करने से बेहतर यह है कि अपने समुदाय से आत्मीय लगाव बढ़ाया जाए। एक दूसरे के सामाजिक सरोकार और हितों को महत्व दिया जाए। तभी समाज का विकास होगा और मजबूती आएगी। इस अवसर पर वेद प्रकाश को राम अयोध्या सिंह पत्रकारिता सम्मान, हेमंत कुमार को राजेंद्र प्रसाद यादव पत्रकारिता सम्मान, जावेद आलम को कृष्ण मुरारी किशन पत्रकारिता सम्मान, प्रमोद यादव को सूर्य नारायण चौधरी पत्रकारिता सम्मान, योगेश चक्रवर्ती को उपेंद्र नाथ वर्मा पत्रकारिता सम्मान, राजीव कुमार को रघुनी राम शास्त्री पत्रकारिता सम्मान, उपेंद्र कश्यप को मधुकर सिंह पत्रकारिता सम्मान, सन्नी कुमात को प्रभात शांडिल्य पत्रकारिता सम्मान, अनवार उल्लाह को गुलाम सरवर पत्रकारिता सम्मान, प्रसिद्ध यादव को रविंद्र सिंह लड्डू पत्रकारिता सम्मान, वकील प्रसाद को अब्दुल कयूम अंसारी पत्रकारिता सम्मान और दिनेश पाल को आरएल चंदापूरी पत्रकारिता सम्मान से सम्मानित किया गया है।

हार्डिंग पार्क से बिहारशरीफ / रत्नेश

 

-----------बिहार में बस यात्रा 

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उत्तर भारत में अगर सबसे बड़ा बारहमासा मजमा शहर में कहीं लगता है तो वह जगह है बस-स्टैंड। आपको सुबह चार बजे चाय की तलब है? बस स्टैंड आ जाइए। मौसमी फल या शहर की मशहूर मिठाई खरीदनी है? बस स्टैंड आपको बुला रहा है। तीन-पत्ती खेलकर लखपति बनने की ख्वाहिश है? बस स्टैंड से बढ़िया कोई जगह नहीं। स्वादिष्ट समोसे, बढ़िया पान, जीके की किताब, हाजमे का चूरन- आप नाम लीजिए, बस! ऐसे ऐसे काबिल बस कंडक्टर मिलेंगे जो बस की रूट में आने वाले अट्ठाईस पड़ावों के नाम एक साँस में सुना जाएँ। एक-एक फेरीवाला कोह-ए-नूर है जनाब! उसके बस्ते में छह प्रकार के कंघे, टूथब्रश, ताला-चाबी, सिंदूर की डिबिया, कजरौटा, ताश के पत्ते, इत्र की शीशी, नज़र का चश्मा, चूना-तंबाकू की चुनौटी, ठंडे तेल की शीशी, नेलकटर, छुरी, गुडनाइट की टिकिया से लेकर ऐसी-ऐसी चीजें मिलेंगी जिनका नाम लेने के बाद मेरा फेसबुक पर बने रहना मुनासिब नहीं होगा। सिर्फ लेकर चलना एक बात है लेकिन इन फेरीवालों से किसी सामान की कीमत या क्वालिटी पर बहस कीजिए। एक कंघे की इतनी खास बातें होती हैं कि बताते-बताते वे आपको पाषाणयुग से घुमा लाएँगे। हर सामान में बला की मजबूती साबित करने के ऐसे ऐसे करतब दिखेंगे कि आप सोचने पर मजबूर हो जाएँगे कि इस सामान को इतना मजबूत होने की जरूरत ही क्या है? भजन गाने वाले सूरदास और तोते से भविष्य बताने वाले त्रिकालदर्शी ज्योतिषी से लेकर हृषीकेश पंचांग, संतोषीमाता व्रत कथा तक का पूरा जुगाड़ है जनाब! आप हैं किस फेर में?

खैर छोड़िए। आते हैं मुद्दे पर वरना हफ्तों तक लिखते रह जाएँ! बात शुरु होती है हार्डिंग पार्क बस स्टैंड से। हालाँकि अब इसे समय  की आँधी उड़ा ले गई है और अब पटना शहर का आधुनिक बस अड्डा पत्रकार नगर में बन गया है जो शहर के एक छोर पर बाईपास के साथ बना है। जो भी हो हमारी स्मृतियों का हार्डिंग पार्क अब भी आबाद है। हनुमान मंदिर चौराहे से आने वाली सड़क पर चलते हुए जैसे ही आप हार्डिंग पार्क पहुँचेंगे, आपका पहले गेट से ही अपहरण की कोशिश होने लगती है। आप सबको सख्त 'ना' कहते हुए निकलते चले जाते हैं। आप भले कलकत्ता जा रहे हों, बस का एजेंट आपको सीतामढ़ी होकर जाने के पचास फायदे गिना देगा। खैर, मुझे जाना है बिहारशरीफ! तो निर्धारित गेट पर पहुँचने पर एजेंट आपका स्वागत यह कहकर कहता है, "आइए आइए खुल रही है।" अनाड़ी लोग यह सुनकर लपककर चढ़ लेते हैं। इसमें ड्राइवर कौरवी ध्वनि वाला हाॅर्न बजाकर आपकी व्यग्रता में उद्दीपन का काम करेगा।  पचपन-छप्पन वाले तजुर्बेकार लोग इन चीजों पर गौर तक नहीं करते। वे बगल वाली पान की गुमटी से कलकतिया पान लगवाते हैं। कत्था-चूना का पूरा हिसाब लेते हैं। बिल्कुल तय वक्त पर वे गाड़ी में दाखिल होते हैं। उनके दाखिल होते ही गाड़ी में गति आने लगती है। अब गाड़ी धीरे से सरक कर मुख्य सड़क पर आ जाती है। खलासी हाँक लगाता है.....' आइए दनियावाँ, नग..नौसा, नू...सराय, सो... सराय.... बीहा .... सरीऽऽऽफ! एक अधेड़ मजदूर दंपति अपनी चार संतानों के साथ बस की ओर लपकते हैं। अपनी गठरी बगल में दबाए महिला एक नजर सीटों पर डालती है और समझ जाती है कि गुंजाइश नहीं। बच्चे भी बस की सीटें थामकर खड़े हो जाते हैं। कंडक्टर किराया उगाहना शुरु करता है और मजदूर परिवार के पुरुष से पूछता है- "कहाँ जायला हऊ?" "फतुहा....।"- जवाब मिलता है। कंडक्टर चिल्लाता है- "फतुहा के पसिंजर कौन बइठाया भाई?" फिर ड्राइवर से कहता है- "धीरे...एएएएएए:।" फिर उस व्यक्ति की ओर मुखातिब होता है- "अरे मूँह मत ताको... फटाफट उतरो...फतुहा रूट के गाड़ी नहीं है....समझ-बूझ के चढ़ल कर।" परिवार धीमी बस से जैसे-तैसे उतर लेता है। गाड़ी बढ़ जाती है। 

"तोरा कहाँ जाना हौ?"

"दनियावाँ..... आऊ का!"

"तीस रुपैया!"

यात्री बेतकल्लुफी से बीस का मैला-कुचैला नोट बढ़ाता है।

"इ का दे रहे हैं?"

"भाड़ा है... आऊ का!"

"तीस रुपैया.... तीइइइइइऽऽऽऽस!"

यात्री इस अपील से बेफिक्र बाहर खिड़की से नजारे देख रहा है।

"तीस रुपैया लावो आऊ न त उतरो।"

"धीरेएएएएएएए:।" मद्धम स्वर में कंडक्टर आवाज लगाता है। ड्राइवर इस हल्की आवाज़ का मतलब समझता है और गाड़ी की गति बनाए रखता है।

"दे रहा है कि उतारें?"- कंडक्टर डपटता है।

यात्री लापरवाही से कमीज की जेब में झाँकता है। दो रुपए के दो सिक्के निकालकर बढ़ाता है।

"इस गाड़ी पर आगे से मत चढ़ना"- कंडक्टर चेताने की आवाज में बोलते हुए दोनो सिक्के झटक लेता है।

पीछे से आवाज़ आती है- "भीडिओवा कब चलेगा जी? उतर जाएँगे तब?" इस सधी हुई पहल का तुरत असर होता है। वीडियो चालू कर दिया जाता है। वीडियो में एक बीस साल पुरानी एक मसाला फिल्म चलने लगती है। बिहार का  पराजित निम्नमध्यवर्ग फिल्म के नायकों में अपनी छवि देखता है। उसे इसी फैंटेसी का सहारा है। बिहार की राजनीतिक अस्मिता के पहरुए अपने मतदाताओं की यह कमजोरी जानते हैं। कंडक्टर आपको देखकर बेहद शालीनता से मुस्कुराता है- "आप सर?... बिहारेसरीफ न?"

आप मुस्कुराते हुए 'हाँ' में सिर हिलाते हैं।

"कितना?"

"पैंसठ सर!"

आप पाँच सौ का नोट बढ़ाते हैं।

वह फिर शालीनता से पूछता है- "चेंज दे देते सर!"

आप पैंसठ देकर पाँच सौ का नोट वापस लेते हैं।

कंडक्टर आभार प्रकट करता है-"थैंक यू सर!" और पान तंबाकू से रक्तिम दंतपंक्ति आपके सामने प्रस्तुत करता है। आप सोचते हैं कि यह वही आदमी है क्या जो दो मिनट पहले दस रुपए के मार्जिन को कवर करने के लिए बहस करने की सारी हदें लाँघ रहा था! बिहार की सड़कों पर दौड़ती बसों में सामंतवाद पूरी ठसक के साथ बरकरार है। बिहार न जाने क्यों इसी में जीने-मरने की कसमें खाता है। जो लोग शोषित हैं पीड़ित हैं वे भी एक दिन इस पिरामिड की नोंक पर पहुँचने का स्वप्न देखते हैं। अब क्या कहिए कि ये फिर भी और हर कीमत पर अपना बिहार है और हम इसे प्यार करते हैं। देखिएगा,एक दिन यही प्यार इस बिहार को जीत लेगा।

आपकी आँख लग जाती है और फिर 'गाड़ी खाली करिए' की गगनभेदी गर्जना से आपकी आँख खुल जाती है। अहा! गंतव्य आ गया है।


©️ -रत्नेश

शनिवार, 6 मई 2023

सिद्धेश्वर की डायरी 💠

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 ♦️ सुप्रतिष्ठित कथा लेखिका उषा किरण खान की अंतरंगता 

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 🔷 आज की शाम उषाकिरण खान के नाम !🔶🔷♦️

 ठीक ही कहते हैं लोग कि जिनका  व्यक्तित्व बहुआयामी होता है, अनुकरणीय होता है, वे  उस विशाल पेड़ की तरह नम्र होते हैं, जिसमें लदा हुआ फल, आमजन की हाथों तक पहुंचने के लिए, झुक जाता है  l एक जीवंत इंसान ही नम्र और सामाजिक हो सकता है l प्रेरणादायक  भी l       

                        किंतु ऐसे वरिष्ठ साहित्यकारों में गिने-चुने लोगों के ही  व्यक्तित्व इंसानियत की कसौटी पर खरे उतर पातें हैं । ऐसे ही व्यक्तित्व और कृतित्व के धनी कुछ लोगों में  हैं, हमारे देश की विख्यात कथा लेखिका उषा किरण खान , जो हमारे शहर पटना की है, यह हमारे लिए भी गर्व का विषय है  l

         आज की शाम मेरे लिए विशेष महत्व का रहा l वह इसलिए भी कि कोरोना काल की एक लंबी अवधि के पश्चात, उनके आवास पर जाने का एक बहाना मिल गया मुझे l वैसे तो अक्सर साहित्यिक गोष्ठियों में उनसे मुलाकात  हो जाती थी l राम - सलाम, दुआ -खोज -खबर सब कुछ l किन्तु घर जाकर मिलना एक अलग आत्मीयता का परिचय देता है l वह भी तब,जब  अतीत की स्मृतियों को संजोए हम वर्तमान के दहलीज पर एक सार्थक कदम रखते हैं l

                      वातायन पब्लिकेशन से प्रकाशित  हमारी लघुकथा पुस्तक " भीतर का सच " का लोकार्पण उन्हीं के हाथों हुआ था l उसके बाद आज उनके आवास पर मैं उनके सामने था, बिल्कुल एक पारिवारिक सदस्य की तरह l व्यवहार में बिल्कुल नहीं लगा कि हमारे बीच इतने समय का अंतराल भी था l उनकी बातें हमें अतीत में ले गयीं।

            अक्सर लोग प्रसिद्धि पाने के बाद, अपने जड़ से कट जाते हैं अतीत को भूल जाते हैं  जबकि मैं अतीत को बहुत महत्व देता हूं l किंतु बहुत कम ऐसे लोग हैं, जो अतीत को वर्तमान के दहलीज पर जीवंत रख पाते हैं  l ऐसे कुछ लोग ही मेरे सामने उदाहरण के रूप में है, जिनमें एक है उषा किरण खान l

          1979 में जब मैंने साहित्यिक संस्था भारतीय युवा साहित्यकार परिषद की स्थापना की थी, नई प्रतिभाओं  यानि युवा प्रतिभाओं को एक मंच प्रदान करने के लिए, तब लगभग हर वर्ष आयोजित हमारी लघु पत्रिका प्रदर्शनी और युवा सम्मेलन में उनकी भागीदारी रहती थी यानि उपस्थिति रहती थी l शैलेंद्रनाथ श्रीवास्तव के साथ उन्होंने कई बार हमारी हौसला अफजाई की थी l  और हमने इस मंच के माध्यम से कम से कम एक सौ साहित्य के ऐसे नक्षत्र साहित्य आकाश को दिए, जो आज भी जगमग सितारे की तरह चमक रहे हैं  l वे भले हमें भूल गए हों, किंतु उनकी चमक देख, आज भी हमारी आंखें चमक उठती है  l

             क्योंकि हमने जिस उद्देश्य से संस्था की स्थापना की थी, उसकी यही तो सार्थकता थी l और आज भी किसी न किसी रूप में वह जीवंत है भी, चाहे वह ऑनलाइन के माध्यम से ही क्यों ना हो ? 

                        किंतु कुछ लोग हैं जो हमारी राह का रोड़ा बनते हैं l मुझे भ्रमित करते हैं और  मुझे अपने उद्देश्य से भटकाने की कोशिश करते हैं l तब थोड़ी तकलीफ जरूर होती है किंतु मैं फिर पुनः सब कुछ भुला कर दोबारा अपने जुनून में आगे बढ़ जाता हूं l

                   मैं उनसे मिलने गया था,  लोकप्रिय मासिक पत्रिका सोच विचार के संपादक के आग्रह पर उनसे एक भेंटवार्ता लेने l भेंटवार्ता के दौरान ही हमने उनसे एक सवाल किया - " हमारे एक प्रिय मित्र कहते हैं मुझसे, जितना श्रम तुम नई प्रतिभाओं को मंच प्रदान करने के लिए करते हो, उन्हें आगे बढ़ाने के लिए करते हो, उसे छोड़कर सिर्फ अपने साहित्य कर्म के प्रति शक्ति क्यों नहीं झोंकते ? क्यों उनके पीछे अपना श्रम बर्बाद कर रहे हो ? मैं तुम्हें इसलिए सलाह दे रहा हूं क्योंकि मैं चाहता हूं कि  तुम उनसे काफी आगे निकल जाओ l............तो उषा किरण दीदी,आप ही बतलाइए कि सामाजिक सेवा के रूप में नई प्रतिभाओं को आगे बढ़ने की प्रेरणा देना, क्या अपने श्रम की बर्बादी है ? "

        जवाब में उन्होंने कहा कि - " बिल्कुल नही l ऐसा सवाल करने वाले बहुत संकीर्ण विचार के होते हैं l आत्म केंद्रित होते हैं, सामाजिक नहीं होते l जो सिर्फ अपने लिए जीते हैं, निश्चित तौर पर उनका जीवन अधूरा होता है l....   

          ...... कोई भी साहित्यकार पहले नया ही होता है l और फिर वह नया हो या पुराना,  उसे सीखने और सीखलाने की आवश्यकता तो जीवनपर्यंत बनी रहती है l आप ही सोचिए जब आप नये थे, छोटी मोटी लकीरें खींच लिया करते थे,चित्र बनाने के लिए l और कविता लघुकथा सब कुछ लिखने का प्रयास करते थे आप l यहां तक कि लघु पत्रिका की प्रदर्शनी भी लगाना शुरू कर दिया था आपने, मुझे वह सब कुछ  याद है l

          आप जब भी हमें, रामधारी सिंह दिवाकर, काशीनाथ पांडे  या शैलेंद्रनाथ श्रीवास्तव के साथ  याद करते थे , तब हमलोग अवश्य उपस्थित होते थे l आप लोगों को प्रोत्साहित करने के लिए, समय निकालकर  हमलोग, आपके  पास जाते थे  l

            आज आप और आपके मित्रों की सफलता और आप लोगों की  यह ऊंचाई देखकर मुझे लगता है कि मैंने आप लोगों के सर पर हाथ रख कर कोई गलत काम नहीं किया था l आप किसी को कलम पकड़ना सीखा रहे हैं, शब्दों का इमारत खड़ा करना सीखा रहे हैँ, खुद सीख रहे हैं और सीखा रहे हैं , आप साहित्य की सेवा कर रहे हैं, नई प्रतिभाओं के भीतर उत्साह पैदा कर रहे हैं, इसमें समय की बर्बादी कैसी ?  यह तो अपने समय का सदुपयोग है  l इससे बड़ा और सामाजिक सेवा क्या हो सकता है ?

            आप किसी को बंदूक चलाना तो नहीं सीखा रहे हैं, आतंकवादी बनना तो नहीं सीखा रहे हैं ? फिर यह अपने श्रम की बर्बादी कैसे हो सकता है ? दुर्भाग्य है कि ऐसा विचार रखने वाले आज हमारे साहित्य समाज में अधिक लोग हो गए हैं, जबकि पहले के साहित्यकार ऐसी भावना अपने हृदय में नहीं रखते थे! आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे संपादक भी थे,  जो नई प्रतिभाओं की रचनाओं को संशोधित कर अपनी पत्रिका में छापने का श्रम करते थे l आप ही बताइए आज कितने ऐसे प्रकाशक संपादक हैं ?

                           हमारे एक सवाल के जवाब में उन्होंने यह भी कहा कि खेमे बाजी और गुटबंदी के घेरे में रहने वाले साहित्यकार, अपने आप को ही छल रहे होते हैं l साहित्य के इतिहास में उनका कोई अस्तित्व नहीं होता और न ही उनकी रचनाएं समाज में कोई बदलाव लाने की दिशा में सकारात्मक पहल कर पाती है l स्त्री विमर्श, नारी विमर्श,नारी सशक्तिकरण आदि नाम देकर रचना लिखने वाले, अपनी सृजनशीलता पर विश्वास नहीं रखते  l

         आज की शाम मेरे लिए बहुत संतुष्टिपूर्ण रहा l उषा किरण खान से भेंटवार्ता के बहाने ढेर सारी साहित्य पर चर्चा हुई, और मन को बड़ा सुकून मिला  l साथ ही साथ चाय पानी का सिलसिला भी चलता रहा l इतनी उम्र में, तमाम बीमारियों से जूझते हुए  रहने के बावजूद, ऐसा अपनत्तव हमने बहुत कम साहित्यकारों में देखा है l समकालीन साहित्यकारों को उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से अवश्य प्रेरणा लेनी चाहिए l


🔷♦️[] सिद्धेश्वर []

{ मोबाइल: 92347 60365 }

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 एक लंबी भेंट वार्ता वार्ता के कुछ अंश ::

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🔮 सिद्धेश्वर : महादेवी वर्मा के बाद आप दूसरी महिला हैं जिन्हें सर्वोच्च सम्मान भारत भारती सम्मान मिला l क्या इसे आप अपना सौभाग्य समझती हैं?

♦️ उषा किरण खान  : जी l महादेवी  वर्मा के बाद कई लेखकों को यह सम्मान मिला l लेकिन महिला लेखिकाओं  मेंयह सम्मान को पाने वाली पहली महिला होने का सौभाग्य मुझे जो प्राप्त हुआ है l

🔮 सिद्धेश्वर  : किस उम्र से आप लिख रही हैं ? और आपकी किस रचना ने आपको सर्वाधिक प्रसिद्धि दी !

♦️ उषा किरण खान: मैं करीबन 8 साल की उम्र से लिख रही हूं l लेकिन पहली बार मेरी रचना का प्रकाशन 1977 में हुआ l आंखें तरल रही मेरी पहली रचना थी, इस रचना को मुंशी प्रेमचंद के बेटे श्रीपत राय की मासिक पत्रिका कहानी में जगह मिली थीl इसके बाद धर्मयुग में मेरी रचना प्रकाशित हुई l हसीना मंजिल उपन्यास में मुझे काफी प्रसिद्ध दी,  इस बात में कोई दो मत नहींl जब पहला उपन्यास है जो पूर्वी पाकिस्तान के बंटवारे पर आधारित हैl दूरदर्शन ने मेरी इस रचना पर सीरियल भी बनाया है l कई भाषाओं में अनुवाद किया गया है इस रचना की l

🔮 सिद्धेश्वर : भामती उपन्यास के लिए आपको साहित्य अकादमी पुरस्कार मिले हैं l क्या मैथिली भाषा में होने के कारण यह पुरस्कार आपको मिले?

♦️ उषा किरण खान  : मेरी भामती उपन्यास  मैथिली भाषा में है, इसलिए इसे मैथिली भाषा के घेरे में रखी गई l क्योंकि साहित्य अकादमी पुरस्कार किसी एक भाषा के लिए नहीं दी जाती l यह एक ऐसी स्त्री पुरुष की कहानी है जिससे स्त्री के मान मर्यादा और उसकी खेती के बारे में पता चलता है lयह पति-पत्नी के संवेदना और सौभाग्य की अनूठी कहानी है l

🔮 सिद्धेश्वर  : इतिहास की छात्रा रहते हुए भी हिंदी साहित्य के प्रति आपकी रूचि कैसे जागी?

♦️ उषा किरण खान : दरअसल में इतिहास की छात्रा जरूरत थी, इतिहास कि मैं प्रोफेसर भी रही लेकिन कॉलेज में इतिहास की पाठ्य सामग्री कम होती थी l तो वह दूसरी भाषा के साथी प्रोफ़ेसर भी मुझे लिखने को प्रेरित करते थेl अंततः मैंने हिंदी साहित्य को ही चुन लिया l

🔮 सिद्धेश्वर: साहित्य में इतने सारे मान सम्मान पाने के बाद आपका अगला पड़ाव क्या है?

♦️ उषा किरण खान : मैं तो अपनी धुन में  लिखती हूंl पुरस्कार देने वाले जाने की उन्हें क्या करने हैं l लोग पुरस्कार के लिए रिकमेंड करते हैं l मैं तो अब वहां पर हूं, जहां पर मैं रिकमेंड  कर सकती हूं l इसके बावजूद मैं सबसे पहले लेखक हूं l अगला पुरस्कार क्या मिलता है यह तो वही जाने l मैं इस उद्देश्य से लेखन नहीं करती l

🔮 सिद्धेश्वर: आपको लेखन सृजन की प्रेरणा किस लेखक से मिली ?

♦️ उषा किरण खान : प्रेरणा तो हमेशा वरिष्ठ लेखकों से ही मिलती है l बाबा नागार्जुन जैसे कवि की प्रेरणा तो मुझे मिलती ही थी, वे कहा करते थे तुम अच्छा लिखती हो लिखती रहो  l उषा प्रियंवदा, फणीश्वर नाथ रेणु जैसे रचनाकारों ने मुझे काफी प्रेरित किया है l यदि मैं बात करूं समकालीन लेखकों की तो मिथिलेश्वर,सूर्यबाला से कई बार साहित्य पर बातें होती नहीं है l मिथिलेश्वर से तो अक्सर इन सारी विषयों पर बातें होती रहती है l

🔮 सिद्धेश्वर : मैथिली साहित्य के बारे में आप क्या कहना चाहिएगा ?

 मैथिली का परिवेश अब बदल रहा है lमैथिली में भी लिखने पढ़ने और समझने वाले कई हो गए हैं l हां मैथिली में बहुत अधिक अनुवाद नहीं हो रहा इसलिए इसके बारे में बहुत सारे लोगों को पता नहीं है l हिंदी का क्षेत्र जरूर बड़ा है l लेखकों की यह कमी नहीं हैl लोग पढ़ रहे हैं लिख रहे हैं l गुणवत्ता में जरूर कमी आई है l

 जब हम स्कूलों में पढ़ते थे तो साहित्य के लिए अलग कक्षा हुआ करती थी l यदि स्कूल में आरंभ सहित साहित्य के प्रति रुचि जगाई जाए, तो लोगों को साहित्य के प्रति झुकाव बढ़ेगा 




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किशोर कुमार कौशल की 10 कविताएं

1. जाने किस धुन में जीते हैं दफ़्तर आते-जाते लोग।  कैसे-कैसे विष पीते हैं दफ़्तर आते-जाते लोग।।  वेतन के दिन भर जाते हैं इनके बटुए जेब मगर। ...