मंगलवार, 28 अगस्त 2012

साहित्य







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हिन्दी साहित्य की जड़ें मध्ययुगीन भारत की ब्रजभाषा, अवधी, मैथिली और मारवाड़ी जैसी भाषाओं के साहित्य में पाई जाती हैं। * प्राचीन युग के लेखकों और कवियों की विशेष रुचि यात्रावर्णन तथा रोचक कहानी कहने में थी। * भारतकोश पर लेखों की संख्या प्रतिदिन बढ़ती रहती है जो आप देख रहे वह "प्रारम्भ मात्र" ही है... विशेष आलेख कबीर कबीरदास * कबीर भक्ति आन्दोलन के एक उच्च कोटि के कवि, समाज सुधारक एवं संत माने जाते हैं। संत कबीर दास हिंदी साहित्य के भक्ति काल के इकलौते ऐसे कवि हैं, जो आजीवन समाज और लोगों के बीच व्याप्त आडंबरों पर कुठाराघात करते रहे। * कबीरदास कर्म प्रधान समाज के पैरोकार थे और इसकी झलक उनकी रचनाओं में साफ झलकती है। कबीर की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उनकी प्रतिभा में अबाध गति और अदम्य प्रखरता थी। * समाज में कबीर को जागरण युग का अग्रदूत कहा जाता है। डॉ. हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि साधना के क्षेत्र में वे युग -युग के गुरु थे, उन्होंने संत काव्य का पथ प्रदर्शन कर साहित्य क्षेत्र में नव निर्माण किया था। * कबीरदास ने हिन्दू-मुसलमान का भेद मिटा कर हिन्दू-भक्तों तथा मुसलमान-फ़कीरों का सत्संग किया और दोनों की अच्छी बातों को हृदयांगम कर लिया। कबीरदास अनपढ़ थे, इसलिए उन्होंने स्वयं ग्रंथ नहीं लिखे, मुँह से बोले और उनके शिष्यों ने उसे लिख लिया। * कबीर की वाणी का संग्रह `बीजक' के नाम से प्रसिद्ध है। इसके तीन भाग हैं- रमैनी , सबद और साखी। * कबीरदास जी की भाषा सधुक्कड़ी अर्थात राजस्थानी और पंजाबी मिली खड़ी बोली है, पर ‘रमैनी’ और ‘सबद’ में गाने के पद हैं जिनमें काव्य की ब्रजभाषा और कहीं-कहीं पूरबी बोली का भी व्यवहार है। .... और पढ़ें चयनित लेख रामधारी सिंह दिनकर रामधारी सिंह दिनकर * हिन्दी के सुविख्यात कवि रामधारी सिंह 'दिनकर' का जन्म 23 सितंबर, 1908 ई. में सिमरिया, ज़िला मुंगेर (बिहार) में एक सामान्य किसान रवि सिंह तथा उनकी पत्नी मन रूप देवी के पुत्र के रूप में हुआ था। * रामधारी सिंह दिनकर एक ओजस्वी राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत कवि के रूप में जाने जाते थे। उनकी कविताओं में छायावादी युग का प्रभाव होने के कारण श्रृंगार के भी प्रमाण मिलते हैं। * दिनकर जी ने गाँव के प्राथमिक विद्यालय से प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की और 1928 में मैट्रिक के बाद दिनकर ने पटना विश्वविद्यालय से 1932 में इतिहास में बी. ए. ऑनर्स किया। * रामधारी सिंह दिनकर के कवि जीवन का आरम्भ 1935 से हुआ, जब छायावाद के कुहासे को चीरती हुई 'रेणुका' प्रकाशित हुई और हिन्दी जगत एक बिल्कुल नई शैली, नई शक्ति, नई भाषा की गूंज से भर उठा। * 1952 में जब भारत की प्रथम संसद का निर्माण हुआ, तो उन्हें राज्यसभा का सदस्य चुना गया और वह दिल्ली आ गए। दिनकर 12 वर्ष तक संसद-सदस्य रहे, बाद में उन्हें सन 1964 से 1965 ई. तक भागलपुर विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया गया। * 24 अप्रॅल,1974 को दिनकर जी अपने आपको अपनी कविताओं में हमारे बीच जीवित रखकर सदा के लिये अमर हो गये। .... और पढ़ें चयनित चित्र रसखान के दोहे, महावन, मथुरा रसखान के दोहे, महावन, मथुरा कुछ लेख * जैन साहित्य * अंग्रेज़ी साहित्य * जयशंकर प्रसाद * प्रेमचंद * कबीर * रहीम * सूरदास * कालिदास * रामचन्द्र शुक्ल * महायान साहित्य * गुप्तकालीन साहित्य * कहावत लोकोक्ति मुहावरे * जैन पुराण साहित्य * रामधारी सिंह दिनकर * हज़ारी प्रसाद द्विवेदी * भारतेन्दु हरिश्चंद्र * राहुल सांकृत्यायन * रामनरेश त्रिपाठी * शरत चंद्र चट्टोपाध्याय * पांडुरंग वामन काणे * सआदत हसन मंटो * रामायण * महाभारत * राजभाषा * हिन्दी भाषा * साहित्य अकादमी पुरस्कार हिन्दी * अंग्रेज़ी भाषा * सांख्य साहित्य * महादेवी वर्मा * वेद * दर्शन शास्त्र * उपनिषद * रबीन्द्रनाथ ठाकुर * सरोजिनी नायडू * भारतेन्दु हरिश्चंद्र * सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला * अमृतलाल नागर * अमृता प्रीतम * अज्ञेय * अरबिंदो घोष साहित्य श्रेणी वृक्ष [−] साहित्य [+] अंग्रेज़ी साहित्यकार [+] अनमोल वचन [+] आदि काल [+] आधुनिक साहित्य [+] इतिहासकार [+] उपन्यासकार [+] कथा साहित्य [+] कथा साहित्य कोश [+] कवि [+] कविता [+] कहावत लोकोक्ति मुहावरे [+] गद्य साहित्य [+] गीता [+] गुजराती साहित्यकार [+] छायावादी कवि [+] छायावादी युग [+] जीवनी साहित्य [+] जैन साहित्य [+] धर्मशास्त्रीय ग्रन्थ [+] नाटककार [+] पद्य साहित्य [+] पुस्तक कोश [+] प्रकाशन संस्थान [+] प्रबंध काव्य [+] प्राचीन महाकाव्य [+] बांग्ला साहित्यकार [+] बौद्ध साहित्य [+] भक्ति काल [+] भक्ति साहित्य [+] भाषा और लिपि [+] मराठी साहित्यकार [+] महाकाव्य [+] रासो काव्य [+] रीति काल [+] लेखक [+] विविध साहित्य [+] वैदिक साहित्य [+] शब्द कोश ग्रंथ [+] शिक्षाप्रद कथाएँ [+] श्रुति 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श्रौतसूत्र [छिपाएँ] देखें • वार्ता • बदलें श्रुतियां Hindu-Swastika.jpg उपनिषद ॠग्वेदीय उपनिषद ऐतरेय उपनिषद · आत्मबोध उपनिषद · कौषीतकि उपनिषद · निर्वाण उपनिषद · नादबिन्दुपनिषद · सौभाग्यलक्ष्मी उपनिषद · अक्षमालिक उपनिषद · भवऋचा उपनिषद · मुदगल उपनिषद · त्रिपुरा उपनिषद · बहवृचोपनिषद · मृदगलोपनिषद · राधोपनिषद यजुर्वेदीय उपनिषद शुक्ल यजुर्वेदीय अध्यात्मोपनिषद · आद्यैतारक उपनिषद · भिक्षुकोपनिषद · बृहदारण्यकोपनिषद · ईशावास्योपनिषद · हंसोपनिषद · जाबालोपनिषद · मंडल ब्राह्मण उपनिषद · मन्त्रिकोपनिषद · मुक्तिका उपनिषद · निरालम्बोपनिषद · पैंगलोपनिषद · परमहंसोपनिषद · सत्यायनी उपनिषद · सुबालोपनिषद · तारासार उपनिषद · त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद · तुरीयातीतोपनिषद · अद्वयतारकोपनिषद · याज्ञवल्क्योपनिषद · शाट्यायनीयोपनिषद · शिवसंकल्पोपनिषद कृष्ण यजुर्वेदीय अक्षि उपनिषद · अमृतबिन्दु उपनिषद · अमृतनादोपनिषद · अवधूत उपनिषद · ब्रह्म उपनिषद · ब्रह्मविद्या उपनिषद · दक्षिणामूर्ति उपनिषद · ध्यानबिन्दु उपनिषद · एकाक्षर उपनिषद · गर्भ उपनिषद · कैवल्योपनिषद · कालाग्निरुद्रोपनिषद · कर उपनिषद · कठोपनिषद · कठरुद्रोपनिषद · क्षुरिकोपनिषद · नारायणो · पंचब्रह्म · प्राणाग्निहोत्र उपनिषद · रुद्रहृदय · सरस्वतीरहस्य उपनिषद · सर्वासार उपनिषद · शारीरिकोपनिषद · स्कन्द उपनिषद · शुकरहस्योपनिषद · श्वेताश्वतरोपनिषद · तैत्तिरीयोपनिषद · तेजोबिन्दु उपनिषद · वराहोपनिषद · योगकुण्डलिनी उपनिषद · योगशिखा उपनिषद · योगतत्त्व उपनिषद · कलिसन्तरणोपनिषद · चाक्षुषोपनिषद सामवेदीय उपनिषद आरुणकोपनिषद · दर्शनोपनिषद · जाबालदर्शनोपनिषद · जाबालि उपनिषद · केनोपनिषद · महात्संन्यासोपनिषद · मैत्रेयीउपनिषद · मैत्रायणी उपनिषद · अव्यक्तोपनिषद · छान्दोग्य उपनिषद · रुद्राक्षजाबालोपनिषद · सावित्र्युपनिषद · संन्यासोपनिषद · वज्रसूचिकोपनिषद · वासुदेवोपनिषद · चूड़ामणि उपनिषद · कुण्डिकोपनिषद · जाबाल्युपनिषद · महोपनिषद · मैत्रेय्युग्पनिषद · योगचूडाण्युपनिषद अथर्ववेदीय उपनिषद अन्नपूर्णा उपनिषद · अथर्वशिर उपनिषद · अथर्वशिखा उपनिषद · आत्मोपनिरुषद · भावनोपनिषद · भस्मोपनिषद · बृहज्जाबालोपनिषद · देवी उपनिषद · दत्तात्रेय उपनिषद · गणपति उपनिषद · गरुडोपनिषद · गोपालपूर्वतापनीयोपनिषद · ह्यग्रीव उपनिषद · कृष्ण उपनिषद · महानारायण उपनिषद · माण्डूक्योपनिषद · महावाक्योपनिषद · मुण्डकोपनिषद · नारदपरिव्राजकोपनिषद · नृसिंहोत्तरतापनीयोपनिषद · परब्रह्मोपनिषद · प्रश्नोपनिषद · परमहंस परिव्राजक उपनिषद · पशुपत उपनिषद · श्रीरामपूर्वतापनीयोपनिषद · शाण्डिल्योपनिषद · शरभ उपनिषद · सूर्योपनिषद · सीता उपनिषद · राम-रहस्य उपनिषद · त्रिपुरातापिन्युपनिषद ब्राह्मण ग्रन्थ ॠग्वेदीय ब्राह्मण ग्रन्थ ऐतरेय ब्राह्मण · कौषीतकि ब्राह्मण · शांखायन ब्राह्मण यजुर्वेदीय ब्राह्मण ग्रन्थ शुक्ल यजुर्वेदीय शतपथब्राह्मण(काण्वब्राह्मण) · शतपथ (माध्यन्दिन) ब्राह्मण कृष्ण यजुर्वेदीय तैत्तिरीय ब्राह्मण · मध्यवर्ती ब्राह्मण सामवेदीय ब्राह्मण ग्रन्थ ताण्ड्य ब्राह्मण · षडविंश ब्राह्मण · सामविधान ब्राह्मण · आर्षेय ब्राह्मण · मन्त्र ब्राह्मण · देवताध्यानम् ब्राह्मण · वंश ब्राह्मण · संहितोपनिषद ब्राह्मण · जैमिनीय ब्राह्मण · जैमिनीयार्षेय ब्राह्मण · जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण अथर्ववेदीय ब्राह्मण ग्रन्थ गोपथ ब्राह्मण सूत्र-ग्रन्थ ॠग्वेदीय सूत्र-ग्रन्थ आश्वलायन श्रौतसूत्र · शांखायन श्रौतसूत्र · आश्वलायन गृह्यसूत्र · शांखायन गृह्यसूत्र · वासिष्ठ धर्मसूत्र यजुर्वेदीय सूत्र-ग्रन्थ शुक्ल यजुर्वेदीय कात्यायन श्रौतसूत्र · पारस्कर श्रौतसूत्र · विष्णु धर्मसूत्र · पारस्कर गृह्यसूत्र कृष्ण यजुर्वेदीय आपस्तम्ब श्रौतसूत्र · आपस्तम्बगृह्यसूत्र · हिरण्यकेशि श्रौतसूत्र · बौधायन गृह्यसूत्र · बौधायन श्रौतसूत्र · वैखानस गृह्यसूत्र · भारद्वाज श्रौतसूत्र · हिरण्यकेशीय गृह्यसूत्र · वैखानस श्रौतसूत्र · मानव धर्म-सूत्र · बाधूल श्रौतसूत्र · काठक धर्मसूत्र · आपस्तम्ब धर्मसूत्र · वराह श्रौतसूत्र · बौधायन धर्मसूत्र · मानव गृह्यसूत्र · वैखानस धर्मसूत्र · काठक गृह्यसूत्र · हिरण्यकेशीय धर्मसूत्र सामवेदीय सूत्र-ग्रन्थ मसकसूत्र · लाट्यायन सूत्र · खदिर श्रौतसूत्र · जैमिनीय गृह्यसूत्र · गोभिल गृह्यसूत्र · खदिर गृह्यसूत्र · गौतम धर्मसूत्र · द्राह्यायण गृह्यसूत्र · द्राह्यायण धर्मसूत्र अथर्ववेदीय सूत्र-ग्रन्थ वैतान श्रौतसूत्र · कौशिक गृह्यसूत्र · वराह गृह्यसूत्र · वैखानस गृह्यसूत्र [छिपाएँ] देखें • वार्ता • बदलें श्रुतियां शाखा शाखा शाकल ॠग्वेदीय शाखा · काण्व शुक्ल यजुर्वेदीय · माध्यन्दिन शुक्ल यजुर्वेदीय · तैत्तिरीय कृष्ण यजुर्वेदीय · मैत्रायणी कृष्ण यजुर्वेदीय · कठ कृष्ण यजुर्वेदीय · कपिष्ठल कृष्ण यजुर्वेदीय · श्वेताश्वतर कृष्ण यजुर्वेदीय · कौथुमी सामवेदीय शाखा · जैमिनीय सामवेदीय शाखा · राणायनीय सामवेदीय शाखा · पैप्पलाद अथर्ववेदीय शाखा · शौनकीय अथर्ववेदीय शाखा मन्त्र-संहिता ॠग्वेद मन्त्र-संहिता · शुक्ल यजुर्वेद मन्त्र- संहिता · सामवेद मन्त्र-संहिता · अथर्ववेद मन्त्र-संहिता आरण्यक ऐतरेय ॠग्वेदीय आरण्यक · शांखायन ॠग्वेदीय आरण्यक · कौषीतकि ॠग्वेदीय आरण्यक · बृहद शुक्ल यजुर्वेदीय आरण्यक · तैत्तिरीय कृष्ण यजुर्वेदीय आरण्यक · कठ कृष्ण यजुर्वेदीय आरण्यक · मैत्रायणीय कृष्ण यजुर्वेदीय आरण्यक · तलवकार सामवेदीय आरण्यक प्रातिसाख्य एवं अनुक्रमणिका ॠग्वेदीय प्रातिसाख्य शांखायन प्रातिशाख्य · बृहद प्रातिशाख्य · आर्षानुक्रमणिका · आश्वलायन प्रातिशाख्य · छन्दोनुक्रमणिका · ऋग्प्रातिशाख्य · देवतानुक्रमणिका · सर्वानुक्रमणिका · अनुवाकानुक्रमणिका · बृहद्वातानुक्रमणिका · ऋग् विज्ञान यजुर्वेदीय प्रातिसाख्य शुक्ल यजुर्वेदीय कात्यायन शुल्वसूत्र · कात्यायनुक्रमणिका · वाजसनेयि प्रातिशाख्य कृष्ण यजुर्वेदीय तैत्तिरीय प्रातिशाख्य सामवेदीय प्रातिसाख्य शौनकीया चतुर्ध्यापिका [छिपाएँ] देखें • वार्ता • बदलें उपवेद और वेदांग उपवेद अर्थवेद (ॠग्वेद) कामन्दक सूत्र · कौटिल्य अर्थशास्त्र · चाणक्य सूत्र · नीतिवाक्यमृतसूत्र · बृहस्पतेय अर्थाधिकारकम् · शुक्रनीति धनुर्वेद (दोनों यजुर्वेदों के लिए मुक्ति कल्पतरू · वृद्ध शारंगधर · वैशम्पायन नीति-प्रकाशिका · समरांगण सूत्रधार गान्धर्ववेद (सामवेद) दत्तिलम · भरत नाट्यशास्त्र · मल्लिनाथ रत्नाकर · संगीत दर्पण · संगीत रत्नाकर आयुर्वेद (अथर्ववेद) अग्निग्रहसूत्रराज · अश्विनीकुमार संहिता · अष्टांगहृदय · इन्द्रसूत्र · चरक संहिता · जाबालिसूत्र · दाल्भ्य सूत्र · देवल सूत्र · धन्वन्तरि सूत्र · धातुवेद · ब्रह्मन संहिता · भेल संहिता · मानसूत्र · शब्द कौतूहल · सुश्रुत संहिता · सूप सूत्र · सौवारि सूत्र वेदांग कल्प गृह्यसूत्र (रीति-रिवाजों, प्रथाओं हेतु) · धर्मसूत्र (शासकों हेतु) · श्रौतसूत्र (यज्ञ हेतु) शिक्षा गौतमी शिक्षा (सामवेद) · नारदीय शिक्षा· पाणिनीय शिक्षा (ऋग्वेद) · बाह्य शिक्षा (कृष्ण यजुर्वेद) · माण्ड्की शिक्षा (अथर्ववेद) · याज्ञवल्क्य शिक्षा (शुक्ल यजुर्वेद) · लोमशीय शिक्षा व्याकरण कल्प व्याकरण · कामधेनु व्याकरण · पाणिनि व्याकरण · प्रकृति प्रकाश · प्रकृति व्याकरण · मुग्धबोध व्याकरण · शाक्टायन व्याकरण · सारस्वत व्याकरण · हेमचन्द्र व्याकरण निरुक्त्त मुक्ति कल्पतरू · वृद्ध शारंगधर · वैशम्पायन नीति-प्रकाशिका · समरांगण सूत्रधार छन्द गार्ग्यप्रोक्त उपनिदान सूत्र · छन्द मंजरी · छन्दसूत्र · छन्दोविचित छन्द सूत्र · छन्दोऽनुक्रमणी · छलापुध वृत्ति · जयदेव छन्द · जानाश्रमां छन्दोविचित · वृत्तरत्नाकर · वेंकटमाधव छन्दोऽनुक्रमणी · श्रुतवेक ज्योतिष आर्यभट्टीय ज्योतिष · नारदीय ज्योतिष · पराशर ज्योतिष · ब्रह्मगुप्त ज्योतिष · भास्कराचार्य ज्योतिष · वराहमिहिर ज्योतिष · वासिष्ठ ज्योतिष · वेदांग ज्योतिष [छिपाएँ] देखें • वार्ता • बदलें स्मृति साहित्य स्मृतिग्रन्थ अंगिरसस्मृति · आपस्तम्बस्मृति· ऐतरेयस्मृति · कात्यायनस्मृति · दक्षस्मृति · पाराशरस्मृति · प्रजापतिस्मृति · बृहस्पतिस्मृति · मनुस्मृति · मार्कण्डेयस्मृति · यमस्मृति · याज्ञवल्क्यस्मृति · लिखितस्मृति · वसिष्ठस्मृति · विष्णुस्मृति · व्यासस्मृति · शंखस्मृति · शातातपस्मृति · सामवर्तस्मृति · हारीतिस्मृति पुराण अग्नि · कूर्म· गरुड़ · नारद · पद्म · ब्रह्म · ब्रह्मवैवर्तपुराण · ब्रह्मांड · भविष्य · भागवत · मत्स्य · मार्कण्डेय · लिंग · वराह · वामन · विष्णु · शिवपुराण (वायुपुराण) · स्कन्द महाकाव्य रामायण (वाल्मीकि) - योगवासिष्ठ · महाभारत (व्यास) - भगवद्गीता दर्शन न्याय दर्शन · पूर्व मीमांसा · योग · उत्तर मीमांसा · वैशेषिक · सांख्य निबन्ध जीमूतवाहन कृत : दयाभाग · कालविवेक · व्यवहार मातृका · अनिरुद्ध कृत : पितृदायिता · हारलता · बल्लालसेन कृत :आचारसागर · प्रतिष्ठासागर · अद्भुतसागर · श्रीधर उपाध्याय कृत : कालमाधव · दत्तकमीमांसा · पराशरमाधव · गोत्र-प्रवर निर्णय · मुहूर्तमाधव · स्मृतिसंग्रह · व्रात्यस्तोम-पद्धति · नन्दपण्डित कृत : श्राद्ध-कल्पलता · शुद्धि-चन्द्रिका · तत्त्वमुक्तावली · दत्तक मीमांसा · · नारायणभटट कृत : त्रिस्थली-सेतु · अन्त्येष्टि-पद्धति · प्रयोग रत्नाकर · कमलाकर भट्ट कृत: निर्णयसिन्धु · शूद्रकमलाकर · दानकमलाकर · पूर्तकमलाकर · वेदरत्न · प्रायश्चित्तरत्न · विवाद ताण्डव · काशीनाथ उपाध्याय कृत : धर्मसिन्धु · निर्णयामृत · पुरुषार्थ-चिन्तामणि · शूलपाणि कृत : स्मृति-विवेक (अपूर्ण) · रघुनन्दन कृत : स्मृति-तत्त्व · चण्डेश्वर कृत : स्मृति-रत्नाकर · वाचस्पति मिश्र : विवाद-चिन्तामणि · देवण भटट कृत : 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शनिवार, 25 अगस्त 2012

उपनाम / क्या रका है नाम उपनाम में





पूरे विश्व में यह वाक्य प्रचलित है, 'नाम में क्या रखा है।' सही भी है कि नाम में क्या रखा है। नाम तो कुछ भी हो सकता है, लेकिन उपनाम में सचमुच में ही कुछ न कुछ है तभी तो भाषाविदों के नेतृत्व में ब्रिटेन के ब्रिस्टल स्‍थित पश्चिमी इंग्लैंड युनिवर्सिटी (UWE) उपनामों पर शोध के लिए लाखों पॉउंड खर्च कर रही है।

उपनामों पर शोध करके उनके पीछे के इतिहास को सार्वजनिक किया जाएगा और यह भी की उपनामों के इस डाटा को सर्चेबल सॉफ्टवेयर में डालकर सुरक्षित रखा जाएगा। उपनाम को अंग्रेजी में सरनेम (surname) कहा जाता है।

अब जब हम ब्रिटिश नागरिक की बात करते हैं जो उनमें वे भारतीय भी शामिल होते हैं जिनके पूर्वज कई वर्षों पूर्व ही ब्रिटेन में जाकर बस गए थे और जिनकी पीढ़ियाँ अब पूरी तरह से ब्रिटिश हैं। इन भारतीय ब्रिटिश नागरिकों के उपनामों पर भी शोध होगा, जिनमें शामिल है पटेल, सिंह, अहमद और स्मिथ।

भारत में तो उपनामों का समंदर है। अनगिनत उपनाम जिन्हें लिखते-लिखते शायद सुबह से शाम हो जाए। यदि उपनामों पर शोध करने लगे तो कई ऐसे उपनाम है जो हिंदू समाज के चारों वर्णों में एक जैसे पाए जाते हैं। दरअसल भारतीय उपनाम के पीछे कोई विज्ञान नहीं है यह ऋषिओं के नाम के आधार पर निर्मित हुए हैं। ऋषि-मुनियों के ही नाम 'गोत्र' भी बन गए। कालान्तर में जैसे-जैसे महापुरुष बढ़े उपनाम भी बढ़ते गए। कहीं-कहीं स्थानों के नाम पर उपनाम देखने को मिलते हैं। हालाँकि सारे भारतीय एक ही कुनबे के हैं, लेकिन समय सब कुछ बदलकर रख देता है।

भारत में यदि उपनाम के आधार पर किसी का इतिहास जानने जाएँगे तो हो सकता है कि कोई मुसलमान या दलित हिंदुओं के क्षत्रिय समाज से संबंध रखता हो या वह ब्राह्मणों के कुनबे का हो। लेकिन धार्मिक इतिहास के जानकारों की मानें तो सभी भारतीय किसी ऋषि, मुनि या मनु की संतानें हैं, चाहे वह किसी भी जाति, धर्म, वर्ण या रंग का हो।

वैदिक काल में तो कोई उपनाम नहीं होते थे। स्मृति काल में वंश पर आधारित उपनाम रखे जाने लगे, जैसे पूर्व में दो ही वंश थे- सूर्यवंश और चंद्रवंश। उक्त दोनों वंशों के ही अनेकों उपवंश होते गए। यदुवंश और नागवंश दोनों चंद्रवंश के अंतर्गत माने जाते हैं। अग्निवंश, इक्ष्वाकु वंश सूर्यवंश के अंतर्गत हैं। सूर्यवंशी प्रतापी राजा इक्ष्वाकु से इक्ष्वाकु वंश चला। इसी इक्ष्वाकु कुल में राजा रघु हुए जिसने रघुवंश चला।

उक्त दोनों वंशों से ही क्षत्रियों, दलितों, ब्राह्मणों और वैश्यों के अनेकों उपवंशों का निर्माण होता गया। माना जाता है कि सप्त ऋषि के नामों के आधार पर ही भारत के चारों वर्णों के लोगों के गोत्र माने जाते हैं। गोत्रों के आधार पर भी वंशों का विकास हुआ। हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध और सिख सभी किस न किसी भारतीय वंश से ही संबंध रखते हैं। यदि जातियों की बाद करें तो लगभग सभी द्रविड़ जाति के हैं। शोध बताते हैं कि आर्य कोई जाति नहीं होती थी।

बदलते उपनाम : कई ऐसे उपनाम है जो किसी व्यक्ति या समाज द्वारा प्रांत या धर्म बदलने के साथ बदल गए हैं। जैसे कश्मीर के भट्ट और धर जब इस्लाम में दीक्षित हो गए तो वे अब बट या बट्ट और डार कहलाने लगे हैं। दूसरी और चौहान, यादव और परमार उपनाम तो आप सभी ने सुना होगा। जब ये उत्तर भारतीय लोग महाराष्ट्र में जाकर बस गए तो वहाँ अब चव्हाण, जाधव और पवांर कहलाते हैं। पांडे, पांडेय और पंडिया यह तीनों उपनाम ब्राह्मणों में लगते हैं। अलग-अलग प्रांत के कारण इनका उच्चारण भी अलग हो चला।

कामन उपनाम : नाम की तरह बहुत से ऐसे उपनाम है जो सभी धर्म के लोगों में एक जैसे पाए जाते हैं जैसे पटेल, शाह, राठौर, राणा, सिंह, शर्मा, स्मिथ आदि। चौहान और ठाकुर उपनाम कुछ भारतीय ईसाई और मुसलमानों में भी पाया जाता है। बोहरा या वोहरा नाम का एक मुस्लिम समाज है और हिंदुओं में बोहरा उपनाम का प्रयोग भी होता है। दाऊदी बोहरा समाज के सभी लोग भारतीय गुजराती समाज से हैं।

स्थानों पर आधारित उपनाम : जैसे कच्छ के रहने वाले क्षत्रिय जब कच्छ से निकलकर बाहर किसी ओर स्थान पर बस गए तो उन्हें कछावत कहा जाता था। बाद में यही कछावत बिगड़कर कुशवाह हो गया। अब कुशवाह उपनाम दलितों में भी लगाया जाता है और क्षत्रियों में भी। महाराष्‍ट्र में स्थानों पर आधारित अनेकों उपनाम मिल जाएँगे जैसे जलगाँवकर, चिपलुनकर, राशिनकर, मेहकरकर आदि। दूसरे प्रांतों में भी स्थान पर आधारित उपनाम पाए जाते हैं, जैसे मांडोरिया, देवलिया, आलोटी, मालवी, मालवीय, मेवाड़ी, मेतवाड़ा, बिहारी, आदि।

पदवी बने उपनाम : राव, रावल, महारावल, राणा, राजराणा और महाराणा यह भी उपाधियाँ हुआ करती थी राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र में। अन्य भी कई पदवियाँ है जैसे शास्त्र पढ़ने वालों को शास्त्री, सभी शास्त्रों के शिक्षक को आचार्य, दो वेदों के ज्ञाता को द्विवेदी, चार के ज्ञाता चतुर्वेदी कहलाते थे। उपाध्याय, महामहोपाध्याय उपाधियाँ भी वेदों के अध्यन या अध्याय पर आधारित होती थी। अंग्रेजों के काल में बहुत सी उपाधियाँ निर्मित हुई, जैसे मांडलिक, जमींदार, मुखिया, राय, रायबहादुर, चौधरी, पटवारी, देशमुख, चीटनीस, पटेल इत्यादि।

'ठाकुर' शब्द से कौन परिचित नहीं है। सभी जानते हैं कि ठाकुर तो क्षत्रियों में ही लगाया जाता है, लेकिन आपको जानकर शायद आश्चर्य हो कि यह ब्राह्मणों में भी लगता है। ठाकुर भी पहले कोई उपनाम नहीं होता था यह एक पदवी होती थी। लेकिन यह रुतबेदार वाली पदवी बहुत ज्यादा प्रसिद्ध हुई। खान, राय, राव, रावल, राणा, राजराणा और महाराणा यह भी उपाधियाँ या पदवी हुआ करती थी।

व्यापार पर आधारित उपनाम : भारत के सभी प्रांतों में रहने वाले सभी धर्म के कुछ लोगों का व्यापार पर आधारित उपनाम भी पाया जाता है। जैसे भारत में सोनी उपनाम बहुत प्रसिद्ध है जो सोने या सुनार का बिगड़ा रूप है। कालांतर में ये लोग सोने का धंधा करते थे तो इन्हें सुनार भी कहा जाता था। ज्यादातर लोग अब भी यही धंधा करते हैं। लुहार उपनाम से सभी परिचित हैं। गुजरात में लोहेवाला, जरीवाला आदि प्रसिद्ध है। लकड़ी का सामान बनाने वाले सुतार या सुथार उपनाम का प्रयोग करते हैं। ऐसे अनगिनत उपनाम है जो किसी न किसी व्यवसाय पर आधारित है।

भारत के प्रसिद्ध उपनाम : सिंह, ठाकुर, शर्मा, तिवारी, मिश्रा, खान, पठान, कुरैशी, शेख, स्मिथ, वर्गीस, जोशी, सिसोदिया, वाजपेयी, गाँधी, राठौर, पाटिल, पटेल, झाला, गुप्ता, अग्रवाल, जैन, शाह, चौहान, परमार, विजयवर्गीय, राजपूत, मेंडल, यादव, कर्णिक, गौड़, राय, दीक्षित, भट्टाचार्य, बनर्जी, चटर्जी, उपाध्याय, डिसूजा, अंसारी, कुशवाह, पोरवाल, भोंसले, सोलंकी, देशमुख, आपटे, प्रधान, जादौन, जायसवाल, गौतम, भटनागर, श्रीवास्तव, निगम, सक्सेना, चौपड़ा, कपूर, कुलकर्णी, चिटनीस, वाघेला, सिंघल, पिल्लई, स्वामी, नायर, सिंघम, गोस्वामी, रेड्डी, नायडू, दास, कश्यप, पुराणिक, दासगुप्ता, सेन, वर्मा, चौधरी, कोहली, दुबे, चावला, पांडे, महाजन, बोहरा, काटजू, आहूजा, नागर, भाटिया, चतुर्वेदी, चड्डा, गिल, सहगल, टुटेजा, माखिजा, नागौरी, जैदी, टेगोर, भारद्वाज, महार, कहार, सुर्यवंशी, शेखावत, राणा, कुमार, धनगर, डांगे, डांगी, अहमद, सुतार, विश्वकर्मा, पाठक, नाथ, पंडित, आर्य, खन्ना, माहेश्वरी, साहू, झा, मजूमदार आदि।

शर्मा और मिश्रा : शर्मा ब्राह्मणों का एक उपनाम है। दक्षिण भारत और असम में यह सरमा है। वक्त बहुत कुछ बदल देता है, लेकिन उपनाम व्यक्ति बदल नहीं पाता, इसीलिए बहुत से भारतीय ईसाइयों में शर्मा लगता है। जम्मू-कश्मीर के ‍कुछ मुस्लिम भी शर्मा लगाते हैं। कुछ जैन और बौद्धों में भी शर्मा लगाया जाता है। वर्तमान में भारत में शर्मा उपनाम और भी कई अन्य समाज के लोग लगाने लगे हैं। शर्मा उत्तर और पूर्वात्तर भारतीय लोग हैं‍ जिनकी बसाहट उत्तर-पश्चिम भारत से नेपाल तक रही है।

मिश्र या मिश्रा दोनों एक ही है। यह मिश्रित शब्द से बना है। मिश्र, मिश्रन, मिश्रा, मिश्री आदि। इस शब्द का प्रभाव भारत सहित विश्व के कई अन्य भागों पर भी रहा है। मूलत: यह उत्तर भारतीय ब्राह्मण होते हैं जो अब भारत के उड़ीसा और विदेश में गुयाना, त्रिनिदाद, टोबैगो और मॉरिशस में भी बहुतायत में पाए जाते हैं। इजिप्ट को मिस्र भी कहा जाता है। मिस्र के विश्व प्रसिद्द पिरामिडों को कौन नहीं जानता।

खान और पठान : चंगेज खाँ या खान का नाम आपने सुना ही होगा। वह मंगोलियाई योद्धा था उसके बाद ही खान शब्द का उपयोग भारत में किया जाने लगा। मान्यता यह भी है कि मध्य एशिया में मुलत: यह 'हान' हुआ करता था किंतु यह शब्द बिगड़कर खान हो गया।

वैसे तो खान उपनाम तुर्क से आया है जिसका अर्थ शासक, मुखिया या ठाकुर होता है। यह एक छोटे क्षेत्र का मुखिया होता है। भारत में मुगल काल में 100 भारतीय मुसलमानों या मुस्लिम परिवारों पर एक 'खान' नियुक्त किया जाता था। जब इन नियुक्त किए गए लोगों की तादात बढ़ती गई तो धीरे-धीरे जिसके जो भी उपनाम रहे हों, वह तो छूट गए अब खान ही उपनाम हो गया।

क्या संस्कृत के पठन-पाठन से ही पठान शब्द की उत्पत्ति हुई है, यह अभी शोध का विषय है। हालाँकि माना जाता है कि पख्तून का अप्रभंश है पठान। यह भी कि पख्तून जनजाति के कबिलों के समूह में से पठानों का समूह भी एक समूह था। आजकल पख्तूनों की पश्तून भाषा अफगानिस्तान के पख्तून और पाकिस्तान के बलूच इलाके में बोली जाती है। एक शहर का नाम है पठानकोट जो भारतीय पंजाब में है। वक्त बदला तो सब कछ बदल गया और अब यह कहना कि सभी पठान या तो अफगान के हैं या पंजाब के, यह कहना गलत होगा क्योंकि बहुत से भारतीयों ने तो इस्लाम ग्रहण करने के बाद पठान उपनाम लगाना शुरू कर दिया था।

सिंह इज किंग : सिंह, सिंग, सिंघ, सिंघम, सिंघल, या सिन्हा सभी शब्द का उपयोग हिंदू तथा सिक्खों में किया है। मूलत: सिंह शब्द के ही बाकी सभी शब्द बिगड़े हुए रूप है। सिंह को नाम या उपनामों की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, लेकिन बहुत से लोग इसका उपनाम के रूप में प्रयोग करते हैं। हालाँकि इस शब्द का इस्तेमाल क्षत्रियों के अलावा भी अन्य कई समाज के लोग करते हैं, क्योंकि यह शब्द उसी तरह है जिस तरह की कोई अपने नाम के बाद 'कुमार' या 'लाला' लगा ले। बब्बर शेर को सिंह कहा जाता है। अब तो सिंह इज किंग है।

भारत में नामों का बहुत होचपोच मामला है। बहुत से गोत्र तो उपनाम बने बैठे हैं और बहुत से उपनामों को गोत्र माना जाता है। अब जैसे 'भारद्वाज' नाम भी है, उपनाम भी है और गोत्र भी। जहाँ तक सवाल गोत्र का है तो भारद्वाज गोत्र ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और दलितों चारों में लगता है। जिस किसी का भी भारद्वाज गोत्र है तो यह माना जाता है कि वह सभी ऋषि भारद्वाज की संतानें हैं। अब आप ही सोचें उनकी संतानें चारों वर्ण से हैं।

अब आप ही सोचिए यदि विदेशी शोधकर्ता भारतीय उपनामों के इतिहास या उनकी उत्पत्ति के बारे में शोध करेंगे तो गच्चा खा जाएँगे। उन्हें यहाँ ज्यादा मेहनत और पैसा खर्च करना पड़ेगा। हालाँकि यह कार्य मजेदार है और इससे हकीकत निकलकर सामने आएगी।


उपनाम में छुपा है पूरा इतिहास
सोमवार, 18 जनवरी 2010( 16:37 IST )

- (वेबदुनिया डेस्क)

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पूरे विश्व में यह वाक्य प्रचलित है, 'नाम में क्या रखा है।' सही भी है कि नाम में क्या रखा है। नाम तो कुछ भी हो सकता है, लेकिन उपनाम में सचमुच में ही कुछ न कुछ है तभी तो भाषाविदों के नेतृत्व में ब्रिटेन के ब्रिस्टल स्‍थित पश्चिमी इंग्लैंड युनिवर्सिटी (UWE) उपनामों पर शोध के लिए लाखों पॉउंड खर्च कर रही है।

उपनामों पर शोध करके उनके पीछे के इतिहास को सार्वजनिक किया जाएगा और यह भी की उपनामों के इस डाटा को सर्चेबल सॉफ्टवेयर में डालकर सुरक्षित रखा जाएगा। उपनाम को अंग्रेजी में सरनेम (surname) कहा जाता है।

अब जब हम ब्रिटिश नागरिक की बात करते हैं जो उनमें वे भारतीय भी शामिल होते हैं जिनके पूर्वज कई वर्षों पूर्व ही ब्रिटेन में जाकर बस गए थे और जिनकी पीढ़ियाँ अब पूरी तरह से ब्रिटिश हैं। इन भारतीय ब्रिटिश नागरिकों के उपनामों पर भी शोध होगा, जिनमें शामिल है पटेल, सिंह, अहमद और स्मिथ।

भारत में तो उपनामों का समंदर है। अनगिनत उपनाम जिन्हें लिखते-लिखते शायद सुबह से शाम हो जाए। यदि उपनामों पर शोध करने लगे तो कई ऐसे उपनाम है जो हिंदू समाज के चारों वर्णों में एक जैसे पाए जाते हैं। दरअसल भारतीय उपनाम के पीछे कोई विज्ञान नहीं है यह ऋषिओं के नाम के आधार पर निर्मित हुए हैं। ऋषि-मुनियों के ही नाम 'गोत्र' भी बन गए। कालान्तर में जैसे-जैसे महापुरुष बढ़े उपनाम भी बढ़ते गए। कहीं-कहीं स्थानों के नाम पर उपनाम देखने को मिलते हैं। हालाँकि सारे भारतीय एक ही कुनबे के हैं, लेकिन समय सब कुछ बदलकर रख देता है।

भारत में यदि उपनाम के आधार पर किसी का इतिहास जानने जाएँगे तो हो सकता है कि कोई मुसलमान या दलित हिंदुओं के क्षत्रिय समाज से संबंध रखता हो या वह ब्राह्मणों के कुनबे का हो। लेकिन धार्मिक इतिहास के जानकारों की मानें तो सभी भारतीय किसी ऋषि, मुनि या मनु की संतानें हैं, चाहे वह किसी भी जाति, धर्म, वर्ण या रंग का हो।

वैदिक काल में तो कोई उपनाम नहीं होते थे। स्मृति काल में वंश पर आधारित उपनाम रखे जाने लगे, जैसे पूर्व में दो ही वंश थे- सूर्यवंश और चंद्रवंश। उक्त दोनों वंशों के ही अनेकों उपवंश होते गए। यदुवंश और नागवंश दोनों चंद्रवंश के अंतर्गत माने जाते हैं। अग्निवंश, इक्ष्वाकु वंश सूर्यवंश के अंतर्गत हैं। सूर्यवंशी प्रतापी राजा इक्ष्वाकु से इक्ष्वाकु वंश चला। इसी इक्ष्वाकु कुल में राजा रघु हुए जिसने रघुवंश चला।

उक्त दोनों वंशों से ही क्षत्रियों, दलितों, ब्राह्मणों और वैश्यों के अनेकों उपवंशों का निर्माण होता गया। माना जाता है कि सप्त ऋषि के नामों के आधार पर ही भारत के चारों वर्णों के लोगों के गोत्र माने जाते हैं। गोत्रों के आधार पर भी वंशों का विकास हुआ। हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध और सिख सभी किस न किसी भारतीय वंश से ही संबंध रखते हैं। यदि जातियों की बाद करें तो लगभग सभी द्रविड़ जाति के हैं। शोध बताते हैं कि आर्य कोई जाति नहीं होती थी।

बदलते उपनाम : कई ऐसे उपनाम है जो किसी व्यक्ति या समाज द्वारा प्रांत या धर्म बदलने के साथ बदल गए हैं। जैसे कश्मीर के भट्ट और धर जब इस्लाम में दीक्षित हो गए तो वे अब बट या बट्ट और डार कहलाने लगे हैं। दूसरी और चौहान, यादव और परमार उपनाम तो आप सभी ने सुना होगा। जब ये उत्तर भारतीय लोग महाराष्ट्र में जाकर बस गए तो वहाँ अब चव्हाण, जाधव और पवांर कहलाते हैं। पांडे, पांडेय और पंडिया यह तीनों उपनाम ब्राह्मणों में लगते हैं। अलग-अलग प्रांत के कारण इनका उच्चारण भी अलग हो चला।

कामन उपनाम : नाम की तरह बहुत से ऐसे उपनाम है जो सभी धर्म के लोगों में एक जैसे पाए जाते हैं जैसे पटेल, शाह, राठौर, राणा, सिंह, शर्मा, स्मिथ आदि। चौहान और ठाकुर उपनाम कुछ भारतीय ईसाई और मुसलमानों में भी पाया जाता है। बोहरा या वोहरा नाम का एक मुस्लिम समाज है और हिंदुओं में बोहरा उपनाम का प्रयोग भी होता है। दाऊदी बोहरा समाज के सभी लोग भारतीय गुजराती समाज से हैं।

स्थानों पर आधारित उपनाम : जैसे कच्छ के रहने वाले क्षत्रिय जब कच्छ से निकलकर बाहर किसी ओर स्थान पर बस गए तो उन्हें कछावत कहा जाता था। बाद में यही कछावत बिगड़कर कुशवाह हो गया। अब कुशवाह उपनाम दलितों में भी लगाया जाता है और क्षत्रियों में भी। महाराष्‍ट्र में स्थानों पर आधारित अनेकों उपनाम मिल जाएँगे जैसे जलगाँवकर, चिपलुनकर, राशिनकर, मेहकरकर आदि। दूसरे प्रांतों में भी स्थान पर आधारित उपनाम पाए जाते हैं, जैसे मांडोरिया, देवलिया, आलोटी, मालवी, मालवीय, मेवाड़ी, मेतवाड़ा, बिहारी, आदि।

पदवी बने उपनाम : राव, रावल, महारावल, राणा, राजराणा और महाराणा यह भी उपाधियाँ हुआ करती थी राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र में। अन्य भी कई पदवियाँ है जैसे शास्त्र पढ़ने वालों को शास्त्री, सभी शास्त्रों के शिक्षक को आचार्य, दो वेदों के ज्ञाता को द्विवेदी, चार के ज्ञाता चतुर्वेदी कहलाते थे। उपाध्याय, महामहोपाध्याय उपाधियाँ भी वेदों के अध्यन या अध्याय पर आधारित होती थी। अंग्रेजों के काल में बहुत सी उपाधियाँ निर्मित हुई, जैसे मांडलिक, जमींदार, मुखिया, राय, रायबहादुर, चौधरी, पटवारी, देशमुख, चीटनीस, पटेल इत्यादि।

'ठाकुर' शब्द से कौन परिचित नहीं है। सभी जानते हैं कि ठाकुर तो क्षत्रियों में ही लगाया जाता है, लेकिन आपको जानकर शायद आश्चर्य हो कि यह ब्राह्मणों में भी लगता है। ठाकुर भी पहले कोई उपनाम नहीं होता था यह एक पदवी होती थी। लेकिन यह रुतबेदार वाली पदवी बहुत ज्यादा प्रसिद्ध हुई। खान, राय, राव, रावल, राणा, राजराणा और महाराणा यह भी उपाधियाँ या पदवी हुआ करती थी।

व्यापार पर आधारित उपनाम : भारत के सभी प्रांतों में रहने वाले सभी धर्म के कुछ लोगों का व्यापार पर आधारित उपनाम भी पाया जाता है। जैसे भारत में सोनी उपनाम बहुत प्रसिद्ध है जो सोने या सुनार का बिगड़ा रूप है। कालांतर में ये लोग सोने का धंधा करते थे तो इन्हें सुनार भी कहा जाता था। ज्यादातर लोग अब भी यही धंधा करते हैं। लुहार उपनाम से सभी परिचित हैं। गुजरात में लोहेवाला, जरीवाला आदि प्रसिद्ध है। लकड़ी का सामान बनाने वाले सुतार या सुथार उपनाम का प्रयोग करते हैं। ऐसे अनगिनत उपनाम है जो किसी न किसी व्यवसाय पर आधारित है।

भारत के प्रसिद्ध उपनाम : सिंह, ठाकुर, शर्मा, तिवारी, मिश्रा, खान, पठान, कुरैशी, शेख, स्मिथ, वर्गीस, जोशी, सिसोदिया, वाजपेयी, गाँधी, राठौर, पाटिल, पटेल, झाला, गुप्ता, अग्रवाल, जैन, शाह, चौहान, परमार, विजयवर्गीय, राजपूत, मेंडल, यादव, कर्णिक, गौड़, राय, दीक्षित, भट्टाचार्य, बनर्जी, चटर्जी, उपाध्याय, डिसूजा, अंसारी, कुशवाह, पोरवाल, भोंसले, सोलंकी, देशमुख, आपटे, प्रधान, जादौन, जायसवाल, गौतम, भटनागर, श्रीवास्तव, निगम, सक्सेना, चौपड़ा, कपूर, कुलकर्णी, चिटनीस, वाघेला, सिंघल, पिल्लई, स्वामी, नायर, सिंघम, गोस्वामी, रेड्डी, नायडू, दास, कश्यप, पुराणिक, दासगुप्ता, सेन, वर्मा, चौधरी, कोहली, दुबे, चावला, पांडे, महाजन, बोहरा, काटजू, आहूजा, नागर, भाटिया, चतुर्वेदी, चड्डा, गिल, सहगल, टुटेजा, माखिजा, नागौरी, जैदी, टेगोर, भारद्वाज, महार, कहार, सुर्यवंशी, शेखावत, राणा, कुमार, धनगर, डांगे, डांगी, अहमद, सुतार, विश्वकर्मा, पाठक, नाथ, पंडित, आर्य, खन्ना, माहेश्वरी, साहू, झा, मजूमदार आदि।

शर्मा और मिश्रा : शर्मा ब्राह्मणों का एक उपनाम है। दक्षिण भारत और असम में यह सरमा है। वक्त बहुत कुछ बदल देता है, लेकिन उपनाम व्यक्ति बदल नहीं पाता, इसीलिए बहुत से भारतीय ईसाइयों में शर्मा लगता है। जम्मू-कश्मीर के ‍कुछ मुस्लिम भी शर्मा लगाते हैं। कुछ जैन और बौद्धों में भी शर्मा लगाया जाता है। वर्तमान में भारत में शर्मा उपनाम और भी कई अन्य समाज के लोग लगाने लगे हैं। शर्मा उत्तर और पूर्वात्तर भारतीय लोग हैं‍ जिनकी बसाहट उत्तर-पश्चिम भारत से नेपाल तक रही है।

मिश्र या मिश्रा दोनों एक ही है। यह मिश्रित शब्द से बना है। मिश्र, मिश्रन, मिश्रा, मिश्री आदि। इस शब्द का प्रभाव भारत सहित विश्व के कई अन्य भागों पर भी रहा है। मूलत: यह उत्तर भारतीय ब्राह्मण होते हैं जो अब भारत के उड़ीसा और विदेश में गुयाना, त्रिनिदाद, टोबैगो और मॉरिशस में भी बहुतायत में पाए जाते हैं। इजिप्ट को मिस्र भी कहा जाता है। मिस्र के विश्व प्रसिद्द पिरामिडों को कौन नहीं जानता।

खान और पठान : चंगेज खाँ या खान का नाम आपने सुना ही होगा। वह मंगोलियाई योद्धा था उसके बाद ही खान शब्द का उपयोग भारत में किया जाने लगा। मान्यता यह भी है कि मध्य एशिया में मुलत: यह 'हान' हुआ करता था किंतु यह शब्द बिगड़कर खान हो गया।

वैसे तो खान उपनाम तुर्क से आया है जिसका अर्थ शासक, मुखिया या ठाकुर होता है। यह एक छोटे क्षेत्र का मुखिया होता है। भारत में मुगल काल में 100 भारतीय मुसलमानों या मुस्लिम परिवारों पर एक 'खान' नियुक्त किया जाता था। जब इन नियुक्त किए गए लोगों की तादात बढ़ती गई तो धीरे-धीरे जिसके जो भी उपनाम रहे हों, वह तो छूट गए अब खान ही उपनाम हो गया।

क्या संस्कृत के पठन-पाठन से ही पठान शब्द की उत्पत्ति हुई है, यह अभी शोध का विषय है। हालाँकि माना जाता है कि पख्तून का अप्रभंश है पठान। यह भी कि पख्तून जनजाति के कबिलों के समूह में से पठानों का समूह भी एक समूह था। आजकल पख्तूनों की पश्तून भाषा अफगानिस्तान के पख्तून और पाकिस्तान के बलूच इलाके में बोली जाती है। एक शहर का नाम है पठानकोट जो भारतीय पंजाब में है। वक्त बदला तो सब कछ बदल गया और अब यह कहना कि सभी पठान या तो अफगान के हैं या पंजाब के, यह कहना गलत होगा क्योंकि बहुत से भारतीयों ने तो इस्लाम ग्रहण करने के बाद पठान उपनाम लगाना शुरू कर दिया था।

सिंह इज किंग : सिंह, सिंग, सिंघ, सिंघम, सिंघल, या सिन्हा सभी शब्द का उपयोग हिंदू तथा सिक्खों में किया है। मूलत: सिंह शब्द के ही बाकी सभी शब्द बिगड़े हुए रूप है। सिंह को नाम या उपनामों की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, लेकिन बहुत से लोग इसका उपनाम के रूप में प्रयोग करते हैं। हालाँकि इस शब्द का इस्तेमाल क्षत्रियों के अलावा भी अन्य कई समाज के लोग करते हैं, क्योंकि यह शब्द उसी तरह है जिस तरह की कोई अपने नाम के बाद 'कुमार' या 'लाला' लगा ले। बब्बर शेर को सिंह कहा जाता है। अब तो सिंह इज किंग है।

भारत में नामों का बहुत होचपोच मामला है। बहुत से गोत्र तो उपनाम बने बैठे हैं और बहुत से उपनामों को गोत्र माना जाता है। अब जैसे 'भारद्वाज' नाम भी है, उपनाम भी है और गोत्र भी। जहाँ तक सवाल गोत्र का है तो भारद्वाज गोत्र ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और दलितों चारों में लगता है। जिस किसी का भी भारद्वाज गोत्र है तो यह माना जाता है कि वह सभी ऋषि भारद्वाज की संतानें हैं। अब आप ही सोचें उनकी संतानें चारों वर्ण से हैं।

अब आप ही सोचिए यदि विदेशी शोधकर्ता भारतीय उपनामों के इतिहास या उनकी उत्पत्ति के बारे में शोध करेंगे तो गच्चा खा जाएँगे। उन्हें यहाँ ज्यादा मेहनत और पैसा खर्च करना पड़ेगा। हालाँकि यह कार्य मजेदार है और इससे हकीकत निकलकर सामने आएगी।

शुक्रवार, 24 अगस्त 2012

दिल ढूंढता है फिर वही फुर्सत के रात-दिन

    
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-फ़िरदौस ख़ान
भारतीय सिनेमा में कई ऐसी हस्तियां हुई हैं, जिन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है. इन्हीं में से एक हैं गुलज़ार. गीतकार से लेकर, पटकथा लेखन, संवाद लेखन और फिल्म निर्देशन तक के अपने लंबे स़फर में उन्होंने शानदार कामयाबी हासिल की. मृदुभाषी और सादगी पसंद गुलज़ार का व्यक्तित्व उनके लेखन में सा़फ झलकता है. आज वह जिस मुक़ाम पर हैं, उस तक पहुंचने के लिए उन्हें संघर्ष के कई प़डावों को पार करना प़डा.

गुलज़ार का असली नाम संपूर्ण सिंह कालरा है. उनका जन्म 18 अगस्त, 1936 को पाकिस्तान के झेलम ज़िले के दीना में हुआ. उन्होंने देश के विभाजन की त्रासदी को झेला. उनके परिवार को हिंदुस्तान आना प़डा. उनका बचपन दिल्ली की सब्ज़ी मंडी में बीता. उनके परिवार की माली हालत अच्छी नहीं थी. उनके आठ भाई-बहन थे. उनके पिता ने उन्हें प़ढाने से इंकार कर दिया, लेकिन वह प़ढना चाहते थे. प़ढाई का खर्च निकालने के लिए उन्होंने पेट्रोल पंप पर नौकरी कर ली. इसी दौरान उन्होंने अपने ख्यालात और अपने जज़्बात को शब्दों में ढालना भी शुरू कर दिया. उन्होंने कई भाषाएं सीखीं, जिनमें उर्दू, फारसी और बांग्ला शामिल थी. फिर उन्होंने अनुवाद का काम शुरू कर दिया. वह रवींद्रनाथ ठाकुर और शरत चंद्र की रचनाओं का उर्दू अनुवाद करने लगे. बाद में वह मुंबई चले आए. उनका यहां शायरों, साहित्यकारों और नाटककारों की मह़िफल में उठना-बैठना शुरू हो गया. एक दिन वह गीतकार शैलेंद्र के पास गए और उनसे काम के सिलसिले में बातचीत की. उन दिनों संगीतकार सचिनदेव बर्मन फिल्म बंदिनी के गीतों को सुरबद्ध कर रहे थे. शैलेंद्र की स़िफारिश पर सचिन दा ने गुलज़ार को एक गीत लिखने को कहा. गुलज़ार ने उन्हें गीत लिखकर दिया, जिसके बोल थे-मोरा गोरा अंग लई ले, मोहे श्याम रंग दई दे. सचिन दा को गीत बहुत पसंद आया. उन्होंने अपनी आवाज़ में गाकर बिमल राय को सुनाया. गुलज़ार के बांग्ला ज्ञान से मुतासिर होकर बिमल राय ने उनके सामने अपने होम प्रोडक्शन में स्थायी तौर पर काम करने का प्रस्ताव रखा, लेकिन उन्होंने इसे विनम्रता से अस्वीकार कर दिया. गुलज़ार की मंज़िल इससे आगे थी, बहुत आगे. उन्हें महज़ एक गीतकार बनकर रहना मंज़ूर नहीं था. उन्होंने आगे चलकर अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा भी किया.

हुआ यूं कि बिमल राय की मौत के बाद संगीतकार हेमंत कुमार ने उनकी यूनिट के का़फी लोगों को अपने प्रोडक्शन में नौकरी पर रख लिया. गुलज़ार ने हेमंत कुमार की फिल्म बीवी और मकान, राहगीर और खामोशी के लिए गीत लिखे थे. ऋषिकेश मुखर्जी ने बिमल राय की फिल्म का संपादन और सह-निर्देशन किया था. वह भी स्वतंत्र फिल्म निर्देशक बन गए और आशीर्वाद फिल्म के संवाद के साथ-साथ गीत भी गुलज़ार को ही लिखने पड़े, क्योंकि उन दिनों शैलेंद्र के पास बहुत काम था. गुलज़ार ने बिमल दा के साथ आनंद, गुड्‌डी, बावर्ची और नमक हराम जैसी कामयाब फिल्मों में काम किया. गुलज़ार के फिल्म निर्माता एन सी सिप्पी से भी अच्छे रिश्ते बन गए. नतीजतन, सिप्पी-गुलज़ार ने मिलकर कई बेहतरीन फिल्में बनाईं. गुलज़ार के मीना कुमारी से भी अच्छे रिश्ते थे. मीना कुमारी ने मौत से पहले अपनी तमाम नज़्में उन्हें सौंप दी थीं, जिन्हें बाद में उन्होंने शाया कराया. जब गुलज़ार स्वतंत्र फिल्म निर्देशक बने तो उन्होंने फिल्म मेरे अपने की मुख्य भूमिका मीना को ही दी थी. 1971 में बनी यह फिल्म मीना कुमारी की मौत के बाद रिलीज हुई थी. इसके बाद गुलज़ार ने एक से ब़ढकर एक कई फिल्में बनाईं. बतौर निर्देशक गुलज़ार ने 1971 में मेरे अपने, 1972 में परिचय और कोशिश, 1973 में अचानक, 1974 में खुशबू, 1975 में आंधी, 1976 में मौसम, 1977 में किनारा, 1978 में किताब, 1980 में अंगूर, 1981 में नमकीन और मीरा, 1986 में इजाज़त, 1990 में लेकिन, 1993 में लिबास, 1996 में माचिस और 1999 में हु तू तू बनाई. उन्होंने अपनी फिल्मों में ज़िंदगी के विभिन्न रंगों को ब़खूबी पेश किया, भले ही वह रंग दुख का हो या फिर इंद्रधनुषी सपनों को समेटे खुशियों का रंग हो. फिल्म आंधी में इंदिरा गांधी की झलक मिलती है. इसलिए इसे इंदिरा गांधी की ज़िंदगी पर आधारित बताया जाता है.


आपातकाल के दौरान इस फिल्म पर प्रतिबंध लगा दिया गया. यह फिल्म आपातकाल के बाद ही रिलीज हो सकी. दरअसल, कमलेश्वर द्वारा लिखी गई इस फिल्म की नायिका की ज़िंदगी इंदिरा गांधी की ज़िंदगी से मिलती जुलती है. नायिका आरती एक प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ की बेटी है. वह होटल व्यवसायी जेके से प्रेम करती है. उसके पिता अपनी आगे बढ़ने की महत्वाकांक्षा की वजह से बेटी को भी इसी राह पर ले जाना चाहते हैं. आरती और जेके की शादी हो जाती है, लेकिन पिता के दबाव और अपनी महत्वकांक्षा की वजह से वह सियासत में आ जाती है. वह पति का घर छो़डकर पिता के पास लौट आती है. बरसों बाद दोनों फिर मिलते हैं. लेकिन हालात ऐसे बनते हैं कि दोनों को फिर से अलग होना प़डता है. गुलज़ार ने छोटे पर्दे के दर्शकों के लिए 1988 में मिर्ज़ा ग़ालिब और 1993 में किरदार नामक टीवी धारावाहिक बनाए, जिन्हें बहुत पसंद किया गया. इसके अलावा उन्हें 1983 में आरडी बर्मन और आशा भोसले के साथ दिल पड़ोसी है नामक एलबम निकाली. इसके बाद 1999 में जगजीत सिंह की आवाज़ में मरासिम, 2001 में ग़ुलाम अली की आवाज़ में विसाल और फिर 2003 में आबिदा सिंग्स कबीर एल्बम निकाली. फिल्म मौसम में दिल ढूंढता है फिर वही फुर्सत के रात-दिन जैसे गीत लिखने वाले गुलज़ार आज भी कजरारे-कजरारे जैसे गीत लिख रहे हैं, जिन पर क़दम खुद ब खुद थिरकने लगते हैं. गुलज़ार त्रिवेणी छंद के सृजक हैं. उनके दो त्रिवेणी संग्रह त्रिवेणी और पुखराज नाम से प्रकाशित हो चुके हैं. उनकी अन्य कृतियों में चौरस रात, एक बूंद चांद, रावी पार, रात चांद और मैं, रात पश्मीने की, खराशें, कुछ और नज़्में, छैंया-छैंया, मेरा कुछ सामान और यार जुलाहे शामिल हैं. गुलज़ार को 2002 में साहित्य अकादमी अवॉर्ड दिया गया. इसके बाद 2004 में उन्हें पद्म भूषण से नवाज़ा गया. इसके अलावा उन्हें पांच राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार और 19 फिल्म फेयर पुरस्कारों सहित अन्य कई और पुरस्कार भी मिल चुके हैं. गुलज़ार की निजी ज़िंदगी में कई उतार-च़ढाव आए. 1973 में उन्होंने अभिनेत्री राखी से शादी की. वह नहीं चाहते थे कि राखी फिल्मों में काम करें. उनका रिश्ता लंबे अरसे तक नहीं चला. जब उनकी बेटी मेघना डे़ढ साल की थी, तभी वे अलग हो गए. मगर उन्होंने तलाक़ नहीं लिया. गुलज़ार मानते हैं कि कोई भी रिश्ता न तो कभी खत्म होता है, और न मरता है. शायद इसलिए ही उनका रिश्ता आज भी क़ायम है. वह कहते हैं:-
हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते
वक़्त की शाख़ से लम्हे नहीं तोड़ा करते…

राखी ने अपनी ज़िंदगी का खालीपन भरने के लिए फिल्मों में काम शुरू कर दिया और गुलज़ार अपने काम में मसरू़फ हो गए. गुलज़ार मानते हैं कि ज़िंदगी बरसों से नहीं, बल्कि लम्हों से बनती है. इसलिए इंसान को अपनी ज़िंदगी के हर लम्हे को भरपूर जीना चाहिए. उन्हें अपने अकेलेपन से भी कभी कोई शिकवा नहीं रहा. वह कहते हैं:-
जब भी यह दिल उदास होता है
जाने कौन आस-पास होता है
होंठ चुपचाप बोलते हों जब
सांस कुछ तेज़-तेज़ चलती हो
आंखें जब दे रही हों आवाज़ें
ठंडी आहों में सांस जलती हो…
http://www.chauthiduniya.com/2012/07/heart-finds-the-same-leisure-night-and-day.html
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हेमंत शेष

हेमंत शेष

 हेमंत शेष हेमंत शेष हिन्दी के सुपरिचित कवि, सम्पादक, कला-आलोचक, छायाकार, स्तम्भकार, चित्रकार, फिल्म-निर्माता एवं प्रशासक हैं । उनका जन्म प्रख्यात सांस्कृतिक प्रवासी आंध्र-परिवार में, (जो जयपुर और बीकानेर के तांत्रिक राजगुरुओं का परिवार रहा है), 28 दिसम्बर, 1952 को जयपुर (राजस्थान, भारत) में हुआ । उन्होंने एम.ए.(समाजशास्त्र) राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर से 1976 में किया और तुरंत बाद ही वह प्रशासनिक सेवा में चयनित कर लिए गए । प्रतापगढ़, राजस्थान में कलेक्टर पद पर कार्य कर चुके हेमन्त शेष राजस्थान राजस्व मंडल, अजमेर रजिस्ट्रार पद पर हैं। अनुक्रम [छुपाएँ] * 1 प्रमुख प्रकाशित पुस्तकें * 2 यंत्रस्थ-पुस्तकें: * 3 सम्पादित पत्रिकाएं: * 4 सांस्कृतिक और अन्य स्वैच्छिक संस्थाओं से सम्बद्धता: * 5 कला एवं साहित्यिक सम्बंधी अन्य उपलब्धियां:[2] * 6 प्रमुख पुरस्कार एवं सम्मान: * 7 परिचय विश्वकोशों में शामिल : * 8 सन्दर्भ * 9 स्रोत * 10 बाहरी कड़ियाँ [संपादित करें] प्रमुख प्रकाशित पुस्तकें हेमंत शेष की प्रमुख प्रकाशित पुस्तकें निम्नलिखित हैं:[1] 1. ‘जारी इतिहास के विरुद्ध’ (लम्बी कविता) – लोक-सम्पर्क प्रकाशन (1973) जयपुर 2. ‘बेस्वाद हवाएं' (कवि-मोनोग्राफ) - राजस्थान साहित्य अकादमी (1981) उदयपुर 3. ‘घर-बाहर’ (कविता संकलन) - शिल्पी प्रकाशन (1982) उदयपुर 4. ‘कृपालसिंह शेखावत’(कलाकार-मोनोग्राफ) राजस्थान ललित कला अकादमी(1984) जयपुर 5. ‘वृक्षों के स्वप्न’ (कविता संकलन) - शिल्पी प्रकाशन (1988) उदयपुर/जयपुर 6. ‘नींद में मोहनजोदड़ो’ (कविता संकलन) - पंचशील प्रकाशन (1988) जयपुर 7. ‘अशुद्ध सारंग’ (कविता संकलन) - पंचशील प्रकाशन (1992) जयपुर 8. ‘कष्ट के लिए क्षमा’ (कविता संकलन) - संघी प्रकाशन (1995) जयपुर 9. ‘रंग अगर रंग हैं’ (कविता संकलन) - बोहरा प्रकाशन (1995) जयपुर 10. ‘कृपया अन्यथा न लें’ (लम्बी कविता) - संघी प्रकाशन (1998) जयपुर 11. ‘आप को यह जान कर प्रसन्नता होगी’ (कविता संकलन) - नेशनल पब्लिशिंग हाउस (2001) दिल्ली 12. ‘जगह जैसी जगह’ (कविता संकलन) - भारतीय ज्ञानपीठ (2007) नई दिल्ली 13. ‘बहुत कुछ जैसा कुछ नहीं’ (कविता संकलन) - वाणी प्रकाशन (2008) नई दिल्ली 14. ‘प्रपंच-सार-सुबोधिनी’ (कविता संग्रह)- बोधि प्रकाशन (2010) जयपुर 15.‘रात का पहाड़ ' ( कहानी-संग्रह) : वाग्देवी प्रकाशन (2012) बीकानेर 16. 'खेद-योग-प्रदीप' (कविता संग्रह)- बोधि प्रकाशन (2012) जयपुर सम्पादित एवं प्रकाशित पुस्तकें [1] 17. ‘सौन्दर्यशास्त्र के प्रश्न’ (कला एवं सौन्दर्यशास्त्र) - नेशनल पब्लिशिंग हाउस (2000) नई दिल्ली 18. ‘कला-विमर्श’ (कला एवं साहित्य पर सम्वाद) - नेशनल पब्लिशिंग हाउस (2000) नई दिल्ली 19. ‘भारतीय कला रूप’ (भारतीय कला) - नेशनल पब्लिशिंग हाउस (2000) नई दिल्ली 20. ‘भारतीयता की धारणा’ (भारतीयता पर निबन्ध) - नेशनल पब्लिशिंग हाउस (2005) नई दिल्ली 21.‘भारतीय रंगमंच’ (भारतीय नाट्यशैलियों पर) - नेशनल पब्लिशिंग हाउस (2005) नई दिल्ली 22. ‘जलती हुई नदी’ (कविता संकलन) - शिक्षा विभाग, राजस्थान सरकार (2006) बीकानेर 23.. ‘कलाओं की मूल्य-दृष्टि’(सौन्दर्यशास्त्र) - वाणी प्रकाशन (2008) नई दिल्ली अन्य पुस्तकों में प्रमुख रचनाएं 24. ‘राजस्थान के कवि’- राजस्थान साहित्य अकादमी (1977) उदयपुर 25. ‘ग्रेट इण्डियन वर्ल्ड पोएट्स’ - इन्टरनेशनल पोएट्री सोसायटी (1978) मद्रास 26.. ‘इण्डियन वर्स बाइ यंग पोएट्स’- 'इण्डियन वर्स' (1980) कलकत्ता 27.. ‘राजस्थान की समसामयिक कला’ - राजस्थान ललित कला अकादमी (1987) जयपुर 28.. ‘दस समसामयिक चित्रकार’ - ललित कला अकादमी (1988) जयपुर 29.. ‘रूपांकन’ - प्रिन्टवैल पब्लिशर्स (1995) जयपुर 30.. ‘इन्द्रिय-बोध और कविता’ - हंसा प्रकाशन (1995) जयपुर 31. ‘लय’ - राजस्थान पत्रिका प्रकाशन (1997) जयपुर 32. ‘सदी के अंत में कविता’ - उद्भावना प्रकाशन (1998) मुजफ्फरनगर 33. ‘पृथ्वी के पक्ष में’ - सामयिक प्रकाशन (2005), नई दिल्ली [संपादित करें] यंत्रस्थ-पुस्तकें: 32. ‘समकालीन-कला-परिदृश्य’’ (कला-इतिहास) 33. ‘इति जैसा शब्द’ (कविता संग्रह) चित्र:Kalaprayojan.jpg kala-prayojan : multi arts magazine [संपादित करें] सम्पादित पत्रिकाएं: * १। ‘चेतना’: (सेन्ट्रल स्कूल पत्रिका विद्यार्थी-सम्पादक) (1968) * ‘२। समवेत’: सांस्कृतिक-नृतत्वशास्त्र और प्रवासी आंध्र संस्कृति पर केन्द्रित ( प्रकाशक :उत्तर्देशीय-आंध्र-संगति ) * ३। ‘प्रयास’(१९७०) : विविध कलाओं का प्रकाशन ( प्रयास कला संस्थान , जयपुर ) * ४। ‘कला-यात्रा’: अंग्रेज़ी में कला-प्रकाशन - पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र (1998) उदयपुर * ५। ‘वयम्’ - त्रिभाषी अनुसंधान त्रैमासिक- 'राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय' (2006-2007) * ६। ‘कला-प्रयोजन’: 'पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र', उदयपुर का द्विभाषी कला एवं साहित्य त्रैमासिक सन् 1995 से आज तक ) * ७। ‘प्रतिध्वनि’: ‘राजस्थान प्रशासनिक सेवा परिषद्’ की त्रैमासिक द्विभाषी पत्रिका (2000-2007) * ८। 'राविरा' : राजस्व मंडल, राजस्थान, अजमेर की द्विभाषी मासिक पत्रिका (2011-2012) [संपादित करें] सांस्कृतिक और अन्य स्वैच्छिक संस्थाओं से सम्बद्धता: 1. प्रधान संयोजक एवं आजीवन सचिव, ‘प्रयास कला संस्थान’, जयपुर (1974 से आदिनांक) 2. सलाहकार, ‘आदर्शलोक’ (स्वायत्तत्तशासी कला संस्था), बीकानेर (1976-1984) 3. संस्थापक-सदस्य ‘उत्तरदेशीय-आंध्र-संगति’, जयपुर / हैदराबाद (1978 से) 4. सदस्य, स्वैच्छिक ब्लड बैंक संगठन, एस.एम्.एस.अस्पताल, जयपुर (1980 से) 5. सलाहकार, ‘दिशा’ (साहित्यिक मासिक)नई दिल्ली/ जयपुर (1982-1984) 6. सदस्य, राजस्थान ‘इण्डियन रेडक्रास सोसायटी’ जयपुर (1983-1998) 7. सदस्य, राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर (1987, 1988, 1989) 8. परामर्शक, राजस्थान शिक्षा-साहित्य-अकादमी, जयपुर (1987, 1988, 1989, 1990) 9. सदस्य, रोटरी क्लब इन्टरनेशनल, भरतपुर (1987, 1988, 1989) 10. संस्थापक सदस्य, ‘सजग उपभोक्ता मंच’ जयपुर (1988 से) 11. संस्थापक-सचिव, ‘मंजुनाथ स्मृति संस्थान’ जयपुर (1988 से) 12. सदस्य, ‘आर्ट कौंसिल ऑफ राजस्थान’ जयपुर (1990 से) 13. संस्थापक-सदस्य, ‘इंडियन इन्सटीट्यूट ऑफ डाटा इन्टरप्रिटेशन ऐंड ऐनालिसिस’, जयपुर (1992 से) 14. सदस्य, कार्यक्रम सलाहकार समिति, दूरदर्शन जयपुर (1992-1993) 15. संस्थापक-सदस्य, ‘आवा’ इन्टरनेशनल (भारत-फ़्रान्स) (1994 से) मुख्य इकाइयां : भारत /फ़्रांस 16. सदस्य, जयपुर के मास्टर प्लान के लिए गठित जयपुर विकास प्राधिकरणजयपुर की साहित्य एवं संस्कृति उप-समिति 17. सांस्कृतिक-सलाहकार, अन्तर्राष्ट्रीय कार्डियोलोजी सम्मेलन, जयपुर (1994) 18. सदस्य, सलाहकार बोर्ड, ‘क्राफ्ट्स इंस्टीट्यूट’, जयपुर (1995 से) 19. सदस्य, रिसर्च एड्वाइजरी बोर्ड ‘द अमेरिकन बायोग्राफिकल इन्सटीट्यूट’, यू.एस.ए. (1995 से) [संपादित करें] कला एवं साहित्यिक सम्बंधी अन्य उपलब्धियां:[2] चित्रकला एवं फोटोग्राफी में गहरी अभिरुचि । तैलचित्रों और चित्रित पोस्टर कविताओं की छः एकल प्रदर्शनियां जवाहर कला केन्द्र, जयपुर की ‘चतुर्दिक’ और ‘सुरेख’ कला-दीर्घाओं सहित रवीन्द्र मंच, सूचना केन्द्र कलादीर्घा और राजस्थान ललित कला अकादमी, जयपुर में आयोजित। राजस्थान ललित कला अकादमी एवं अन्य कला संस्थानों द्वारा आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय एवं अन्य कला प्रदर्शनियों में अनेक कलाकृतियां सम्मिलित, प्रदर्शित एवं प्रशंसित । भारतीय रिजर्व बैंक सहित विश्व के बहुत से निजी एवं सरकारी कला संकलनों में चित्रकृतियाँ । ‘जुनेजा आर्ट गेलेरी’, जयपुर में कुछ चित्र संग्रहीत । अखबारों एवं पत्रिकाओं में अनेक छायांकन प्रकाशित । ‘गूगल अर्थ’, ‘पिकासा’, ‘फ्लिकर,’ ‘ ओरकुट’ और ‘पैनोरोमियो’ जैसी अन्तर्राष्ट्रीय साइटों पर कुछ हज़ार छायाचित्र शामिल । कई राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय कला प्रदर्शनियों एवं राष्ट्रीय बाल चित्रकला प्रतियोगिता में निर्णायक । अखबारों एवं पत्रिकाओं ‘प्रतिपक्ष’, ‘मुक्तधारा’(नई दिल्ली), ‘इतवारी पत्रिका’ (जयपुर), ‘राजस्थान पत्रिका’ (जयपुर), ‘लहर’ (अजमेर), ‘शिविरा’ (बीकानेर), ‘वातायन’ (बीकानेर) ‘शुद्ध’ (जोधपुर) आदि में कला पर नियमित स्तंभ लेखन । 'विश्वविद्यालय-कैम्पस-पत्रकार' के रूप में राष्ट्रीय न्यूज सेवा ‘समाचार भारती’ के लिए पत्रकारिता। वृत्रचित्रों एवं फिल्मों की पटकथा-लेखन में सक्रिय रुचि । जवाहर कला केन्द्र में कई वीडियो फिल्मों का निर्माण व निर्देशन । जवाहर कला केन्द्र, जयपुर के लिए सम्मानित फिल्म ‘कलाओं के आकाश में खुलती खिड़की’ का निर्माण, निर्देशन, पटकथा-लेखन । प्रमुख युवा हिन्दी कवि के रूप में 1988 में अशोक वाजपेयी और कृष्ण बलदेव वैद द्वारा अखिल भारतीय युवा लेखक शिविर ‘अन्तर भारती-3’ में भाग लेने हेतु ‘निराला सृजन-पीठ’ भारत भवन, भोपाल द्वारा आमंत्रित, जहां कई कविताओं के गुजराती, बंगाली, तमिल, मराठी और अंग्रेजी में अनुवाद । भारत भवन के ऑडियो-अभिलेखागार के लिए और ‘एशियाई कविता केंद्र’ के लिए हेमंत शेष का हिन्दी कविता-पाठ और उसका का फिल्मांकन । उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र, इलाहाबाद की तीन दिवसीय ’कहानी-अभिमंचन’ राष्ट्रीय कार्यशाला का संयोजन (2009) । अशोक आत्रेय द्वारा‘शब्द अगर शब्द है’ नामक 30 मिनिट की फिल्म हेमन्त शेष के जीवन और उनकी कविता पर निर्मित । जवाहर कला केन्द्र, जयपुर के वार्षिक लघुनाट्य समारोह में हेमन्त शेष की एक लघु कहानी ‘बातचीत’ का नाट्यरूपान्तरण और मंचन, रंगमंच निर्देशक-रिज़वान ज़हीर उस्मान द्वारा । आकाशवाणी, नयी दिल्ली द्वारा पूना में आयोजित सर्वभाषा कवि सम्मेलन 2000 में आमंत्रित और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रसारित । वर्ष 1970 से टेलिविजन, आकाशवाणी, विश्वविद्यालयों, अकादमी और अन्य राष्ट्रीय सांस्कृतिक संस्थानों द्वारा आयोजित कई कवि-सम्मेलनों और संगोष्ठियों में कविता-पाठ और विचार-विमर्श में सक्रिय भागीदारी । संयोजक के रूप में कई अखिल भारतीय वैचारिक संगाष्ठियों, विमर्शों,लेखक-सम्मेलनों, कला-शिविरों और राष्ट्रीय-कार्यशालाओं का आयोजन । ‘हेमन्त शेष का समकालीन हिन्दी कविता में योगदान’ विषय पर अलीगढ़ विश्वविद्यालय की एक शोधकर्ता को पी.एचडी. डिग्री (2000) । जनवरी, 2002 में उदयपुर के राजस्थान विद्यापीठ (विश्वविद्यालयवत संसथान ) में ‘मेरी काव्य-प्रक्रिया’ पर विस्तृत व्याख्यान। [संपादित करें] प्रमुख पुरस्कार एवं सम्मान: भारतीय व्यापार मेला प्राधिकरण, वाणिज्यिक मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली द्वारा आयोजित भारत अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार मेला, 1979 में ‘राजस्थान मंडप’ के प्रभारी । प्रथम पुरस्कार एवं प्रमाण-पत्र । राजस्थान सरकार द्वारा ‘उत्कृष्ट सृजनात्मक लेखन’ के लिए नगद पुरस्कार एवं योग्यता प्रमाण-पत्र (1986) से पुरस्कृत । भारत की जनगणना, 1991 में उत्कृष्ट योगदान के लिए वर्ष 1992 में भारत के राष्ट्रपति द्वारा रजत पदक एवं प्रशंसा-पत्र । उज्जैन निर्वाचन क्षेत्र के संसदीय चुनाव, 1996 में पर्यवेक्षक के पद पर प्रशंसनीय सेवाओं के लिए भारतीय चुनाव आयोग द्वारा वर्ष 1996 में प्रशस्ति-पत्र । जैमिनी अकादमी, हरियाणा द्वारा भारतीय साहित्य के क्षेत्र में उत्कृष्ट सेवाओं के लिए ‘आचार्य’ की मानद उपाधि । अमेरिकन बायोग्राफिकल सैन्टर, नोर्थ केरोलीना, यू.एस.ए. द्वारा कला एवं संस्कृति के क्षेत्र में असाधारण योगदान के लिए ‘अन्तर्राष्ट्रीय कल्चरल डिप्लोमा की मानद उपाधि के लिए नामांकित। ‘इन्टरनेशनल बायोग्राफिकल सेन्टर’, केम्ब्रिज, इंग्लेंड द्वारा साहित्य में उत्कृष्ट उपलब्धियों के लिए वर्ष 1998 में मानद ‘डिप्लोमा’ उपाधि हेतु चयनित । ‘दी 2000 मिलेनियम मेडल ऑफ ऑनर’ के अन्तर्गत गत सौ वर्षो के दौरान असाधारण उपलब्धियों के लिए ‘सैन्चुरीज़ गोल्ड मेडल’ हेतु नामांकित । अमेरिकन बायोग्राफिकल इन्स्टीट्यूट, नोर्थ केरोलीना, यू.एस.ए.द्वारा उल्लेखनीय उपलब्धियों के लिए ‘इण्टरनेशनल मैन ऑफ दी ईयर’ 1998 के लिए चयन । अन्तर्राष्ट्रीय बायोग्राफिकल सेण्टर, केम्ब्रिज, इंग्लेंड द्वारा ‘मैन ऑफ दी ईयर’ 1998-99 के पुरस्कार एवं स्वर्ण पदक हेतु नामांकित । आई.बी.सी. द्वारा प्रतिष्ठित 'इन्टरनेशनल मैन ऑफ दी मिलेनियम अवार्ड' (1999) के लिए नामांकित। ‘इण्टरनेशनल बुक ऑफ ऑनर’ के छठे विश्व संस्करण में ‘विश्व के 500 असाधारण व्यक्तित्व’ में परिचय सम्मिलित किये जाने हेतु नामांकित। आई.बी.सी., इंग्लैंड (2000) द्वारा प्रकाशित ‘अंतर्राष्ट्रीय बुद्धिजीवियों के ज्ञानकोश’ के 27वें मिलेनियम संस्करण में सम्मिलित किये जाने हेतु प्रस्तावित । द पिंकसिटी प्रेस क्लब एवं ‘सबरंग‘ सांस्कृतिक संस्थान (जनवरी, 2002) द्वारा हिन्दी कला-समीक्षा के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए 'श्री श्रीगोपाल पुरोहित स्मृति' पुरस्कार (2001) राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर और राजस्थान विद्यापीठ (विश्वविद्यालयवत् संस्थान) द्वारा फरवरी, 2002 में संयुक्त रूप से आयोजित कार्यक्रम ‘सृजन साक्षात्कार’ में सम्मानित । प्रशासनिक सेवा की साहित्यिक पत्रिका ‘प्रतिध्वनि’ के उत्कृष्ट और नियमित सम्पादन के लिए मुख्यमंत्री, राजस्थान द्वारा दिनांक 13 जुलाई, 2002 को सम्मानित ।‘रामवृक्ष बेनीपुरी जयंती समारोह’ में जैमिनी अकादमी, पानीपत द्वारा पीऐच डी की मानद उपाधि । जैमिनी अकादमी, पानीपत द्वारा ही मानद डी.लिट् की उपाधि। श्रीमती वसुन्धरा राजे मुख्य मंत्री, राजस्थान द्वारा 29 अप्रेल, 2005 को साहित्यिक उपलब्धियों के लिए सम्मानित । उत्कृष्ट साहित्यिक योगदान के लिए ‘आस्था सांस्कृतिक संस्थान’ (2006) द्वारा सम्मानित । के. के. बिरला फाउन्डेशन, दिल्ली द्वारा ‘जगह जैसी जगह’ कविता संग्रह के लिए 2009 का ‘बिहारी पुरुस्कार’। कविता संग्रह 'जगह जैसी जगह' पर ही 'प्रयास संस्थान ' चूरू द्वारा डॉ. घासीराम वर्मा साहित्य पुरुस्कार २०१०। अनेक अन्य सांस्कृतिक साहित्यिक संस्थाओं के सम्मान भी । [संपादित करें] परिचय विश्वकोशों में शामिल : 1. ‘इन्टरनेशनल राइटर्स केटलॉग फॉर अमेरिकन लाइब्रेरीज़’(1977), यू ऐस आई ऐस, [[वाशिंगटन डी.सी.[[2. ‘जयपुर: कला और कलाकार’ (1977) 3. ‘हूज हू ऑफ इण्डियन राइटर्स’ (1983) और (1999) ‘भारतीय साहित्य अकादमी, नई दिल्ली 4. ‘इन्टरनेशनल ऑथर्स एण्ड राइटर्स: हूज हू’ (1987) 5. ‘रेफरेन्स एशिया: हूज हू ऑफ मेन एण्ड वूमेन ऑफ एचिवमेन्ट ऐंड डिटिन्कशन’ (1992) 6. ‘इण्डो-अमेरिकन हूज हू’ (1993) 7. ‘इण्डो-यूरोपियन हूज हू’ (1995) 8. ‘ट्वन्टिअथ सेन्चुरी डिस्टिंग्विश्ड हूज हू’ (1996, 1998) 9. ‘साहित्यकार-कोश’ (1997, 2000) 10. ‘इन्टरनेशनल हूज हू ऑफ इन्टैलैक्चुल्स’ (1998, 1999, 2000) 11. ‘इन्टरनेशनल डाईरेक्ट्री ऑफ डिस्टिंग्विश्ड लीडरशिप’ (1998, 1999, 2000) 12. ‘आउटस्टेण्डिंग पीपुल ऑफ दी ट्वन्टिअथ सेन्चूरी’ (1999, 2000) 13. ‘डिक्शनरी ऑफ इन्टरनेशनल बायोग्राफी’ (1999, 2000, 2001) 14. ‘इन्टरनेशनल बुक ऑफ ऑनर’ (1999, 2000) 15. ‘राजस्थान वार्षिकी’ (ईयर बुक) (1989 से आज तक) 16. ‘इन्टरनेशनल मैन ऑफ दी मिलेनियम’ (1999, 2000) 17. ‘ऑथर्स एण्ड राइटर्स हूज हू’ (2000) 18. ‘इन्फा’)( इंडियन न्यूज़ एंड फीचर्स एजेंसी ) ईयर बुक 19. ‘ग्रेट माइन्ड्स ऑफ दी ट्वैन्टी फर्स्ट सेन्चुरी’ (2002) 20. ‘एशिया-मैन एण्ड वूमेन ऑफ एचीवमेन्ट’ के अलावा गूगल याहू, हिन्दी विकिपीडिया, ऑरकुट, फ्लिकर, पेनोरोमियो एवं कई अन्य वेबसाइटों में जीवनी सम्मिलित। [संपादित करें] सन्दर्भ १.डॉ.ममता शर्मा: "हेमंत शेष का समकालीन हिन्दी कविता में योगदान", अलीगढ़ विश्विद्यालय में पी.एच.डी. की उपाधि के बाद प्रकाशित शोध ग्रन्थ २.राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर : हेमंत शेष की कविताओं पर अकादमी अध्यक्ष डॉ. प्रकाश आतुर का मोनोग्राफ :'बेस्वाद हवाएं' ३.हेमंत शेष के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित अशोक आत्रेय की टेलीफिल्म:' शब्द अगर शब्द हैं': 'थ्री चेयर्स प्रोडक्शन' * कवि हेमंत शेष की रचनाओं पर प्रकाशित भारत भवन द्वारा प्रकाशित सामग्री * ‘हूज हू ऑफ इण्डियन राइटर्स’ (1983) और (1999) के अलावा २०११ के संस्करण : ‘साहित्य अकादमी, नई दिल्ली * राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड की हिंदी पाठ्यपुस्तक में पढाई जाने वाली हेमंत शेष की कवितायेँ [संपादित करें] स्रोत 1. ↑ 1.0 1.1 डॉ. ममता शर्मा: "हेमंत शेष का समकालीन हिन्दी कविता में योगदान", अलीगढ़ विश्विद्यालय में पी.एच.डी. की उपाधि के बाद प्रकाशित शोध ग्रन्थ 2. ↑ ३.हेमंत शेष के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित अशोक आत्रेय की टेलीफिल्म:' शब्द अगर शब्द हैं': 'थ्री चेयर्स प्रोडक्शन'

शुक्रवार, 17 अगस्त 2012

हिन्‍दी साहित्‍य के इतिहास में पत्र-पत्रिकाओं की प्रासंगिकता एवं उपादेयता

 

 

वीरेन्द्र सिंह यादव 

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ज्ञान मानव को अन्‍तर्दृष्‍टि देता है, वह व्‍यक्‍ति या समाज में परिवर्तन का वाहक बनता है। पत्र-पत्रिकाएँ ज्ञान का भंडार होती हैं, इसलिए परिवर्तन में उनकी भूमिका महत्‍वपूर्ण होती है लगभग सभी धर्म उनके सहारे ही फैले हैं। बड़ी-बड़ी सामाजिक क्रांतियां भी पत्र-पत्रिकाओं ने ही करवायी है। व्‍यक्‍ति के जीवन में पत्र-पत्रिकाएँ अति महत्‍वपूर्ण परिवर्तन लाती हैं। क्‍योंकि इससे उपयोगी जानकारी करके व्‍यक्‍ति अधिक योग्‍य और जीवनयापन के लायक बन जाता है। यह सच है कि इनके पढ़ने से व्‍यक्‍तित्‍व का विकास होता है सिर्फ इसलिए नहीं कि पढ़ने वाले का ज्ञान बढ़ता है, बल्‍कि इसलिए भी कि पत्र-पत्रिकाओं में व्‍यक्‍तित्‍व निखार के नुस्‍खे मिल जाते हैं। पाश्‍चात्‍य देशों में तो व्‍यक्‍ति को आकर्षक बनाने के गुर सिखाने वाली पत्रिकाओं का अंबार सा मिलता है।
साहित्‍यिक पत्र-पत्रिकाएँ सामाजिक व्‍यवस्‍था के लिए चतुर्थ स्‍तम्‍भ का कार्य करती हैं और अपनी बात को मनवाने के लिए एवं अपने पक्ष में साफ-सुथरा वातावरण तैयार करने में पत्र-पत्रिकाओं ने सदैव अमोघ अस्‍त्र का कार्य किया है। अमानवीय व्‍यवहार, अन्‍याय, अत्‍याचार, शोषण साथ ही किसी भी प्रकार की ज्‍यादती का डटकर प्रतिरोध करने के लिए समाचार पत्र-पत्रिकाओं के माध्‍यम से आवाज बुलन्‍द की जा सकती है क्‍योंकि इनमें साहित्‍य के विविध रूप ही नहीं, आतंरिक विवाद, प्रेरणा, पाठक वर्ग की प्रतिक्रिया अर्थात समूचा साहित्‍य एवं साहित्‍यकार संसार का आवरण छिपा होता है। हिन्‍दी के विविध आन्‍दोलन और साहित्‍यिक प्रवृत्तियाँ एवं अन्‍य सामाजिक गतिविधियों को सक्रिय करने में पत्रिकाओं की अग्रणी भूमिका रही है। भारत में अंग्रेजों का आगमन सर्वप्रथम बंगाल में विशेषकर कलकत्ता से माना जाता है। अंग्रेजों के आगमन के उपरान्‍त यहाँ क्रमशः औद्योगीकरण, मशीनीकरण, व्‍यापार, शिक्षणालयों की स्‍थापना, प्रेस, मुद्रण व टंकण आदि के कार्य अंग्रेजों की इच्‍छा के अनुरूप स्‍थापित किये जाने लगे। इसका प्रमुख केन्‍द्र कलकत्ता में रहने के कारण यहाँ अंग्रेजी साहित्‍य तथा अंग्रेजी शासन व्‍यवस्‍था का प्रभाव सर्वप्रथम कलकत्ता व बंगाल प्रान्‍त पर पड़ा। यही प्रभाव आगे चलकर बंग प्रान्‍त के सम्‍पर्क तथा बंग्‍ला साहित्‍य के माध्‍यम से हिन्‍दी भाषी प्रान्‍तों व साहित्‍य पर स्‍पष्‍ट दिखने लगा। अंग्रेजों की व्‍यापारिक कम्‍पनी ईस्‍ट इण्‍डिया का छद्‌म शोषण भारत के जन सामान्‍य में सामाजिक, धार्मिक, सांस्‍कृतिक व राष्‍ट्रीय रूप में प्रतिक्रिया के रूप में फैल रहा था। यह प्रतिक्रिया नवजागरण के रूप में भारतेन्‍दु जी के उदय से भी पहले आरम्‍भ हो चुकी थी। और इसकी अभिव्‍यक्‍ति तत्‍कालीन समय में अनेक प्रकार की दैनिक साप्‍ताहिक, पाक्षिक, मासिक, त्रैमासिक, च्‍यौमासिक, छमाही, वार्षिक व पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन से प्रारम्‍भ हुई। इस समय इन गतिविधियों का चूँकि कलकत्ता केन्‍द्र था इसलिए यहाँ पर सबसे महत्‍वपूर्ण पत्र-पत्रिकाएँ - उद्‌दंड मार्तंड, बंगदूत, प्रजामित्र मार्तंड तथा समाचार सुधा वर्षण आदि का प्रकाशन हुआ। प्रारम्‍भ के पाँचों साप्‍ताहिक पत्र थे एवं सुधा वर्षण दैनिक पत्र था। इनका प्रकाशन दो-तीन भाषाओं के माध्‍यम से होता था। ‘सुधाकर' और ‘बनारस अखबार' साप्‍ताहिक पत्र थे जो काशी से प्रकाशित होते थे। ‘प्रजाहितैषी' एवं बुद्धि प्रकाश का प्रकाशन आगरा से होता था। ‘तत्‍वबोधिनी' पत्रिका साप्‍ताहिक थी और इसका प्रकाशन बरेली से होता था। ‘मालवा' साप्‍ताहिक मालवा से एवं ‘वृतान्‍त' जम्‍मू से तथा ‘ज्ञान प्रदायिनी पत्रिका' लाहौर से प्रकाशित होते थे। दोनों मासिक पत्र थे। इन पत्र-पत्रिकाओं का प्रमुख उद्‌देश्‍य एवं सन्‍देश जनता में सुधार व जागरण की पवित्र भावनाओं को उत्‍पन्‍न कर अन्‍याय एवं अत्‍याचार का प्रतिरोध/विरोध करना था। हालाँकि इनमें प्रयुक्‍त भाषा (हिन्‍दी) बहुत ही साधारण किस्‍म की (टूटी-फूटी हिन्‍दी) हुआ करती थी।
भारतेन्‍दु हरिश्‍चन्‍द का हिन्‍दी पत्रकारिता में महत्‍वपूर्ण स्‍थान है। आपके समस्‍त समकालीन सहयोगी किसी न किसी पत्र-पत्रिका से संबद्ध थे। सन्‌ 1868 ई. में भारतेन्‍दु जी ने साहित्‍यिक पत्रिका कवि वचन सुधा का प्रवर्तन किया। समाज में राष्‍ट्रीय चेतना के जागरण, उसमें समसामयिक ज्‍वलन्‍त प्रश्‍नों व समस्‍याओं के प्रति जागरूकता लाने तथा सामाजिक एवं धार्मिक सुधारों को गतिमान करने के लिए इन पत्रिकाओं ने महत्‍वपूर्ण भूमिका अदा की साथ ही इस काल के पत्र-पत्रिकाओं ने हिन्‍दी भाषा के रूप सुधार के क्षेत्र में अमूल्‍य योगदान किया। अकेले बनारस में जो भारतेन्‍दु जी का जन्‍म स्‍थान भी था वहाँ छः पत्रिकायें प्रकाशित होती थीं-कविवचन सुधा, ‘चरणादि चंद्रिका' हरिश्‍चन्‍द्र-मैगजीन, बालबोधिनी तथा काशी समाचार व आर्यमित्र आदि। कविवचन सुधा पहले मासिक थी किन्‍तु बाद में पाक्षिक और इसके बाद साप्‍ताहिक रूप से प्रकाशित होने लगी थी। चरणादि-चन्‍द्रिका साप्‍ताहिक थी, बालबोधिनी, काशी समाचार व आर्यमित्र मासिक पत्रिकायें थीं। इसी समय कलकत्‍ता से तीन समाचार पत्रों का ‘सुलभ समाचार, उक्‍तिवक्‍ता, सार सुधानिधि का प्रकाशन होता था। यह सभी पत्र साप्‍ताहिक थे। कानपुर से मासिक ‘ब्राह्मण' तथा दैनिक भारतोदय समाचार पत्र निकलते थे। इसी प्रकार मिर्जापुर से मासिक आनन्‍द कादंबिनी, वृन्‍दावन से ‘भारतेन्‍दु', मेरठ से मासिक ‘देवनागर प्रचारक' लाहौर से मासिक इन्‍दु तथा ‘कान्‍यकुब्‍ज प्रकाश' (मासिक) पत्र निकलते थे आगरा से साप्‍ताहिक ‘जगत समाचार निकलता था। बांकीपुर से मासिक ‘क्षत्रिय' एवं ‘बिहार बंधु' पत्रिकाओं का प्रकाशन होता था। फर्रूखाबाद से ‘भारत सुदशा प्रवर्तक' साप्‍ताहिक पत्रिका का प्रकाशन होता था। उक्‍त नामावली से यह स्‍पष्‍ट है कि हिन्‍दी साहित्‍य की सर्जना और बोध की प्रक्रिया इन पत्र-पत्रिकाओं के माध्‍यम से ही संचालित और अभिव्‍यक्‍ति हुई।
यहाँ एक बात स्‍पष्‍ट कर देना आवश्‍यक है कि सर्वप्रथम भारतीय संस्‍कृति, सामाजिक, राजनीतिक व राष्‍ट्रीय चेतना के जागरण एवं वाहक का कार्य कलकत्‍ता में सम्‍पन्‍न हुआ इसलिये स्‍वाभाविक है कि यहाँ पर पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन समृद्धि रहा। यह समय राष्‍ट्रीय कांग्रेस के उत्‍थान का काल था। और बीसवीं शताब्‍दी के प्रारम्‍भिक दौर में भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस में बाल गंगाधर तिलक का प्रभाव बढ़ने लगा था। तिलक जी ने मराठी व हिन्‍दी में ‘केसरी' पत्रिका का प्रकाशन किया। अगले क्रम में द्विवेदी युग (1900-1918 ई.) आता है जहाँ पर राजनीतिक एवं साहित्‍यिक दोनों धाराओं की पत्र-पत्रिकायें प्रकाशित हो रही थीं। कलकत्‍ता समाचार तथा विश्‍वामित्र जो दैनिक पत्र थे कलकत्‍ता से प्रकाशित होते थे। इसी समय प्रयाग से दो साप्‍ताहिक पत्र ‘हितवाणी' एवं ‘नृसिंह' का प्रकाशन होता था। ‘अभ्‍युदय, कर्मयोगी दोनों साप्‍ताहिक पत्र थे। मदन मोहन मालवीय एवं कृष्‍णकांत मालवीय के सम्‍पादन में ‘मासिद' का प्रकाशन होता था। मासिक पत्र ‘प्रताप' गणेश शंकर विद्यार्थी के सम्‍पादन में कानपुर से प्रकाशित होता था। इन्‍हीं के दिशा निर्देशन में खंडवा से ‘प्रभा' नामक मासिक पत्रिका जो पहले साहित्‍यिक थी बाद में राजनीतिक हो गई का प्रकाशन होता था।
पत्र-पत्रिकाओं का सिलसिला जारी रहना तब महत्‍वपूर्ण हो गया जब सन्‌ 1900 ई. में इलाहाबाद में मासिक पत्रिका ‘सरस्‍वती' का प्रकाशन होने लगा। शुरूआती दौर में हालांकि इसका प्रकाशन काशी से होता था परन्‍तु सन्‌ 1903 ई. में महावीर प्रसाद द्विवेदी के सम्‍पादक होने से इसमें चार चांद लग गये। इसी समय बनारस से मासिक पत्रिका सुदर्शन का प्रकाशन देवकी नन्‍दन खत्री एवं माधव प्रसाद मिश्र के सहसम्‍पादन में होता था। मासिक पत्रिका ‘देवनागर' कलकत्‍ता से प्रकाशित होती थी, इलाहाबाद से ईश्‍वरी प्रसाद शर्मा के सम्‍पादन में ‘मनोरंजन' का प्रकाशन होता था। इसी समय काशी से मासिक पत्रिका ‘इन्‍दु' का प्रकाशन होता था। मासिक पत्रिका ‘समालोचक' का सम्‍पादन जयपुर से चन्‍द्रधर शर्मा साहब कर रहे थे। इन पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन से केवल साहित्‍य जगत ही नहीं ऋणी है बल्‍कि इनके द्वारा राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्‍कृतिक योगदान समय-समय पर मिलता रहा है। विशेषकर सरस्‍वती के प्रकाशन से तत्‍कालीन समाज में घटित होने वाली सभी घटनाओं का लेखा-जोखा इसमें प्रकाशित होता था। और विशेषकर साहित्‍यिक क्षेत्र में द्विवेदी जी ने व्‍याकरण एवं खड़ी बोली को इसमें एक नई दिशा एवं दशा का बीजारोपण कर एक नया प्रतिमान हासिल किया।
छायावाद काल में पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रगति के साथ उसमें परिपक्‍वता का समावेश उत्‍तरोत्‍तर होता चला गया। ‘सरस्‍वती' एवम ‘मर्यादा' की अपनी निरन्‍तरता तो कायम रही थी साथ ही ‘चांद', ‘माधुरी', ‘प्रभा', ‘साहित्‍य सन्‍देश', ‘विशाल भारत', ‘सुधा', ‘कल्‍याण', ‘हंस', ‘आदर्श', ‘मौजी', ‘समन्‍वय', ‘सरोज' आदि मासिक पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारम्‍भ हुआ। तत्‍कालीन परिवेश (छायावाद) का वर्णन लगभग इन पत्रिकाओं में गायब था। छायावाद सम्‍बन्‍धी घटनाओं/विशेषताओं का वर्णन केवल ‘माधुरी' में ही मिलता था जो एक अपवाद माना गया। कृष्‍णकांत मालवीय के सम्‍पादन में ‘मर्यादा' का प्रकाशन होता था। इसमें सामाजिक, राजनीतिक एवं साहित्‍यिक विषयों का बराबर समायोजन किया जाता था। इसका समय-समय पर महत्‍वपूर्ण लोगों के द्वारा सम्‍पादन होता रहा जिसमें डॉ. सम्‍पूर्णानन्‍द एवं कथा सम्राट मुंशी प्रेमचन्‍द्र प्रमुख हैं। स्‍त्री विषयों से सम्‍बन्‍धित ‘स्‍त्री दर्पण' का प्रकाशन एवं सम्‍पादन का कार्य रामेश्‍वरी नेहरू द्वारा होता था। ‘चाँद' जो प्रयाग से निकली, इसमें भी विषय चयन स्‍त्री को ही बनाया गया था। ‘प्रभा' पत्रिका कानपुर से प्रकाशित होती थी जिसका प्रकाशन एवं सम्‍पादन का कार्य बालकृष्‍ण शर्मा नवीन साहब कर रहे थे। इस पत्रिका की इसलिये चर्चा करना चाहूँगा क्‍योंकि इसमें एक लेख छपा था जिसके द्वारा कहा गया था रवीन्‍द्रनाथ टैगोर की कविताओं की नकल निराला ने की है। ‘भावों की भिड़न्‍त' नाम से यह लेख इतना प्रसिद्ध हुआ कि तत्‍कालीन समय में इसने हलचल मचा दी। इसी समय एक महत्‍वपूर्ण पत्रिका ‘सुधा' जिसमें राष्‍ट्रीय आन्‍दोलन का समर्थन, अंग्रेजी के स्‍थान पर भारतीय भाषाओं के प्रयोग पर बल देने के साथ ही हिन्‍दी साहित्‍य के सर्वतोमुखी विकास पर महत्‍वपूर्ण कार्य हुआ। इसकी सबसे मुख्‍य विशेषता यह है कि इसने छायावाद पर सबसे पहले अपना विरोध जताया। लखनऊ से प्रकाशित होने वाली इस पत्रिका का सम्‍पादन निराला जी ने भी कुछ समय के लिये किया। यहीं से एक और पत्रिका ‘माधुरी' का प्रकाशन होता था, जिसका कई महत्‍वपूर्ण व्‍यक्‍ति मिलकर सम्‍पादन एवं प्रकाशन दुलारेलाल भार्गव तथा कृष्‍ण बिहारी मिश्र एवं शिवपूजन सहाय तथा प्रेमचन्‍द्र का भी सहयोग मिला हुआ था। इस काल में एक महत्‍वपूर्ण पत्रिका ‘विशाल भारत' का प्रकाशन हुआ। कलकत्‍ता से प्रकाशित होने वाली इस पत्रिका के सम्‍पादक बनारसीदास चतुर्वेदी थे। इस पत्रिका ने निराला को एवं छायावाद को सर्वोपरि रखा, जिससे कुछ लोगों को यह बात पची नहीं और क्रिया प्रतिक्रिया का सिलसिला काफी समय तक चलता रहा। भक्‍ति, ज्ञान, दर्शन, संस्‍कृति, सदाचार और वैराग्‍य भावनाओं से लेकर इस समय गोरखपुर से ‘कल्‍याण' पत्रिका का प्रकाशन हो रहा था जो आज भी अपनी धारा को प्रवाहित किये हुये है। तत्‍कालीन समय में कथा साहित्‍य में हलचल मचा देने वाली पत्रिका ‘हंस' का प्रकाशन बनारस से मुंशी प्रेमचन्‍द्र जी कर रहे थे, इसमें उच्‍चकोटि का साहित्‍य, कवितायें, आलोचनायें, निबंध और साहित्‍य की अन्‍य सभी विधाओं को स्‍थान दिया जाता था। प्रेमचन्‍द्र जी के अवसान के बाद इसका सम्‍पादन, शिवदान सिंह चौहान तथा अमृतराय जी ने किया। ‘साहित्‍य संदेश' के माध्‍यम से हिन्‍दी समीक्षा जगत में एक स्‍वच्‍छ छवि वाली भूमि तैयार हो रही थी जिसका सम्‍पादन का कार्य आगरा से बाबू गुलाबराय जी कर रहे थे। इसी समय तत्‍कालीन समय की राष्‍ट्रीय भावना, नारी समस्‍या एवं हिन्‍दू-मुस्‍लिम एकता की समस्‍या एवं साहित्‍यिक गतिविधियों को उजागर करने का कार्य मासिक पत्र ‘आदर्श' एवं ‘मौजी' में हो रहा था। धर्म, अध्‍यात्‍म व समाज आदि विषयों को केन्‍द्र में रखते हुये रामकृष्‍ण मिशन के सौजन्‍य से कलकत्‍ता में ‘समन्‍वय' का प्रकाशन हो रहा था। इसे कुछ दिन तक निराला जी का सहयोग भी प्राप्‍त हुआ।
आलोच्‍य काल में कुछ महत्‍वपूर्ण साप्‍ताहिक पत्रों ने पत्रिकाओं को पीछे कर अपनी विशिष्‍ट पहचान बनाई-भारत, जागरण तथा ‘मतवाला'। जैसा कि नाम से स्‍पष्‍ट है। ‘मतवाला' का प्रकाशन कलकत्‍ता से शिवपूजन एवं निराला जी के सम्‍पादकत्‍व में सम्‍पन्‍न हो रहा था। यह पत्र बिट्रिश सरकार की नीतियों को व्‍यंग्‍यात्‍मक रूप से लोगों तक अपनी बात पहुँचाने का कार्य करता था साथ ही साहित्‍यिक एवं राजनीतिक, सामाजिक विषयों पर भी रचनाओं का प्रकाशन करता था। ‘छायावादी' परम्‍पराओं एवं विशेषताओं का वाहक ‘जागरण' का प्रकाशन शिवपूजन सहाय के सम्‍पादन में बनारस से हो रहा था। इसमें कुछ दिन तक कथा सम्राट प्रेमचन्‍द्र का सहयोग रहा। इलाहाबाद से एक पत्र ‘भारत' का प्रकाशन जिसमें विशेष तौर पर प्रसाद, पन्‍त व निराला को स्‍थान मिलता था, नन्‍द दुलारे बाजपेयी के सम्‍पादन में हो रहा था। इसकी एक प्रमुख विशेषता यह थी कि इसमें छायावादी रचनाओं को ही प्रमुखता से प्रकाशन होता था। इस आलोच्‍य काल में कुछ साप्‍ताहिक राजनीतिक पत्रों का संपादन होता था जिसमें प्रमुख-‘देश'
(राजेन्‍द्र प्रसाद), ‘हिन्‍दी नवजीवन' (महात्‍मा गाँधी), ‘कर्मवीर' (माखनलाल चतुर्वेदी, माधवसप्रे) एवं ‘सेनापति' इत्‍यादि थे।
दैनिक समाचार पत्रों की परम्‍परा में यह युग अतिमहत्‍वपूर्ण भूमिका अदा करता रहा है। ‘आज' का प्रकाशन बनारस से शुभारम्‍भ हुआ जो आगे चलकर सबसे श्रेष्‍ठ दैनिक अखबार साबित हुआ। इसके प्रमुख सम्‍मानीय सम्‍पादकों में-श्री प्रकाश, बाबूराम विष्‍णुराव पराड़कर तथा कमलापति त्रिपाठी जैसे लगनशील, महान व्‍यक्‍तियों का सहयोग प्राप्‍त हुआ। ‘आज' के माध्‍यम से समाज में एक साहित्‍यिक अलख तो जगाई ही साथ में राजनीतिक हलचलों के बीच स्‍वतंत्रता संग्राम की पृष्‍ठभूमि तैयार करने में एक अति महत्‍वपूर्ण भूमिका भी अदा कीं। इसी क्रम में ‘स्‍वतंत्र' एवं ‘कलकत्‍ता समाचार पत्र' का प्रकाशन भी हो रहा था। ‘स्‍वतंत्र' पत्र का सम्‍पादन अम्‍बिका बाजपेयी कलकत्‍ता से कर रहे थे और इसने गाँधी जी के असहयोग आन्‍दोलन में अति महत्‍वपूर्ण एवं सराहनीय प्रयास किया।
छायावादोत्‍तर पत्रकारिता अपनी निरन्‍तरता विकासधारा एवं घटनाचक्र की दृष्‍टि से नित्‍य नये रूप ग्रहण करती जा रही थी। कुछ पत्र-पत्रिकायें छायावाद की समाप्‍ति के बावजूद आगे भी उनका प्रकाशन जारी रहा। दैनिक समाचार पत्र ‘आज' के सम्‍पादक पत्रकार बाबूराव विष्‍णु पराड़कर ने राष्‍ट्रीय आन्‍दोलन तथा समाज-सुधार के प्रबल समर्थन के साथ ही पत्रकारिता के उच्‍चादर्शों एवं मानदण्‍डों की स्‍थापना की। इन्‍द्र विद्यापति के सम्‍पादन में दिल्‍ली से राष्‍ट्रवादी पत्र दैनिक ‘वीर अर्जुन' का प्रकाशन होता था। इसमें अनेक विद्वान एवं प्रसिद्ध पत्रकारों का योगदान रहा है। ‘सैनिक' दैनिक का प्रकाशन आगरा से कृष्‍णदत्‍त पालीवाल के सम्‍पादन में कठिनाइयों के बाद भी अपने उच्‍च प्रतिमानों को प्राप्‍त कर रहा था। पंजाब में उन दिनों अनेक कर्मठ पत्रकारों ने उर्दू के प्रभाव को सन्‍तुलित कर राष्‍ट्रीयता की क्रांति फैलाई। ‘हिन्‍दी मिलाप', ‘शक्‍ति', ‘विश्‍वबन्‍धु' के माध्‍यम से पं. सुदर्शन, माधव जी, श्री सेंगर आदि पत्र-पत्रकारिता के नीलगगन में उभरे साथ ही उन्‍होंने राष्‍ट्रवादी क्रियाकलाप को गति और प्रेरणा दी। राष्‍ट्रीय भावनाओं को जागृत करने में दिल्‍ली से प्रकाशित दैनिक समाचार ‘हिन्‍दुस्‍तान' तब से आज तक राष्‍ट्रीय क्षेत्र में आज भी अपना दबदबा कायम किये हुये है। बिहार (पटना) से लोकप्रिय दैनिकों में ‘आर्यावर्त' का विशेष मान एवं महत्‍व रहा है साथ ही वर्तमान में भी यह पत्रकारिता के क्षेत्र में आज भी मील का पत्‍थर साबित हो रहा है। ‘चौथा संसार' के सम्‍पादक नरेश मेहता थे जो इसका प्रकाशन इन्‍दौर से कर रहे थे। छायावादोत्‍तर काल में साप्‍ताहिक पत्रों की धूम भी किसी मायने में कम नहीं रही। जबलपुर से माखनलाल चतुर्वेदी एवं माधवराव सप्रे के सम्‍पादकत्‍व में ‘कर्मवीर' का प्रकाशन हो रहा था। इस साप्‍ताहिक ने अपनी इतनी चमक फैलाई की वह आज भी उसी सतत गति से चालू प्रतीत हो रही है। आगे चलकर इसका विस्‍तार नागपुर से होने लगा था। साप्‍ताहिक ‘सारथी' भी इस युग का सबसे महत्‍वपूर्ण पत्र साबित हुआ और इसका प्रकाशन जबलपुर एवं नागपुर दो स्‍थानों से होता था। आलोच्‍य काल में मासिक पत्रिकाओं की भूमिका अति महत्‍वपूर्ण थी। जिसमें सरस्‍वती महावीर प्रसाद द्विवेदी के सम्‍पादकत्‍व में प्रकाशित हो रही थी। ये अपने आप में स्‍वतंत्र व्‍यक्‍तित्‍व के धनी व्‍यक्‍ति थे। और हिन्‍दी भाषा एवं साहित्‍य का विकास इसने तत्‍कालीन समय में सबसे अधिक किया। पत्रिका ‘वीणा' जो इन्‍दौर से प्रकाशित होती थी, ने साहित्‍य के क्षेत्र में अति महत्‍वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया। सबसे बड़ा सौभाग्‍य यह कि ‘वीणा' को शान्‍तिप्रिय द्विवेदी जैसे प्रतिभाशाली व्‍यक्‍ति का साथ मिला। ‘विशाल भारत' का प्रकाशन कलकत्‍ता से होता था और इसने तत्‍कालीन समय में साहित्‍यिक एवं ऐतिहासिक महत्‍व का दर्जा प्राप्‍त कर लिया। इसका गौरव प्रमुख साहित्‍यकारों-बनारसीदास चतुर्वेदी, श्री सेंगर एवं अज्ञेय आदि ने बढ़ाया। श्री सेंगर ने ‘नया समाज' एवं अज्ञेय जी ने इसी समय ‘प्रतीक' का सम्‍पादन कर साहित्‍य जगत में अपना विशिष्‍ट स्‍थान रेखांकित किया। विशिष्‍ट पत्रिकाओं की श्रेणी में ‘माधुरी' ने भी अपना नाम दर्ज कराया।
देश को आजादी मिलने से जैसे ऐसा लगा मानो पत्र-पत्रिकाओं को भी आजादी मिल गयी हो और आधुनिक काल में पत्र-पत्रिकाओं की मानो बाढ़ सी आ गयी लगती है। जैसे ही भारतीय संविधान ने हिन्‍दी को राष्‍ट्रभाषा घोषित किया वैसे ही लोगों को लगा कि अब हिन्‍दी पत्रकारिता अपने उज्‍जवल भविष्‍य की ओर रूख करेगी। और इसका परिणाम यह हुआ कि अंग्रेजी के दैनिक समाचार पत्रों का सम्‍पादन हिन्‍दी भाषा में होने लगा-ऐसे-समय की नब्‍ज पहचानने वाले पत्रों में ‘इंडियन नेशन' पटना से एवम दैनिक ‘आयावर्त' का प्रकाशन हो रहा था। ‘दैनिक हिन्‍दुस्‍तान' दिल्‍ली से पहले हिन्‍दुस्‍तान टाइम्‍स के नाम से प्रकाशित होता था। ‘नवभारत' पहले ‘टाइम्‍स आफ इण्‍डिया' एवं जनसत्‍ता, इण्‍डियन एक्‍सप्रेस के रूप में प्रकाशित होते थे। अमृत बाजार पत्रिका, अमृत प्रभात के नाम से इलाहाबाद से प्रकाशित होने लगी। यहाँ यह स्‍पष्‍ट कर देना आवश्‍यक है कि इन पत्रों ने अंग्रेजी-पत्रों के अपने स्‍थापित संगठन के लाभ तो उठाये, लेकिन अपने स्‍वतंत्र विकास की ओर विशेष ध्‍यान नहीं दिया। बड़े दुख की बात यह है कि इन पत्रों ने अपने किसी स्‍वतंत्र समाचार-संगठन या अभिकरण का विकास नहीं किया साथ ही न इनकी पत्रकारिता भ्रष्‍ट और भ्रामक अनुवादों से आगे वर्तमान में बढ़ पा रही है। इसका सबसे प्रमुख कारण-औद्योगीकरण, पूंजीवाद और स्‍वार्थनिष्‍ठा का अभाव है। पराड़कर जी के शब्‍दों को भविष्‍यवाणी मानें तो यह कि-‘एक समय आयेगा जब हिन्‍दी-पत्र रोटरी पर छपेंगे, सम्‍पादकों को ऊंची तनख्‍वाहें मिलेंगी, सब कुछ होगा किन्‍तु उनकी आत्‍मा मर जायेगी; सम्‍पादक, सम्‍पादक न होकर मालिक का नौकर होगा।' आजकल दैनिक समाचार पत्र अपनी निरंतरता बनाये हुये हैं उनमें प्रमुख हिन्‍दुस्‍तान, नवभारत टाइम्‍स, स्‍वतंत्र भारत, दैनिक जागरण, नवजीवन तथा जनसत्‍ता प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्‍त नई दुनिया (इन्‍दौर) अमर किरण (दुर्ग) आज, विश्‍वामित्र, सन्‍मार्ग तथा पंजाब केसरी (जालंधर, दिल्‍ली) उल्‍लेखनीय हैं। साथ ही हिन्‍दी भाषी क्षेत्रों एवं प्रान्‍तों की राजधानियों से नियमित/दैनिक हिन्‍दी समाचार पत्रों का प्रकाशन/सम्‍पादन हो रहा है, परन्‍तु जो पत्रकारिता की मर्यादा होनी चाहिए वह इन समाचार पत्रों में अवलोकित नहीं हो रही है।
इस समय हिन्‍दी के साप्‍ताहिक पत्रों में साप्‍ताहिक हिन्‍दुस्‍तान, धर्म-युग, दिनमान, रविवार एवं सहारा समय प्रमुख हैं। हिन्‍दुस्‍तान का सम्‍पादन, सम्‍पादिका मृणाल पाण्‍डेय जी ने किया एवं धर्मयुग का सर्वप्रथम सम्‍पादन डॉ. धर्मवीर भारती जी ने किया। धर्मयुग ने जन सामान्‍य में अपनी लोकप्रियता इतनी बना रखी थी कि हर प्रबुद्ध पाठक वर्ग के ड्राइंग रूप में इसका पाया जाना गर्व की बात माने जाने लगी थी। कुछ दिनों तक गणेश मंत्री (बम्‍बई) ने भी इसका सम्‍पादन किया। कुछ आर्थिक एवं आपसी कमियों के अभाव के कारण इसका सम्‍पादन कार्य रूक गया। ‘दिनमान' का सम्‍पादन घनश्‍याम पंकज जी कर रहे थे साथ ही रविवार का सम्‍पादन उदय शर्मा के निर्देशन में आकर्षक ढंग से हो रहा था। इसी समय व्‍यंग्‍य के क्षेत्र में ‘हिन्‍दी शंकर्स वीकली' का सम्‍पादन हो रहा था। ‘वामा' हिन्‍दी की मासिक पत्रिका महिलापयोगी का सम्‍पादन विमला पाटिल के निर्देशन में हो रहा था। ‘इण्‍डिया टुडे' पहले पाक्षिक थी, परन्‍तु आज यही साप्‍ताहिक रूप में अपनी ख्‍याति बनाये हुये है। अन्‍य मासिक पत्रिकाओं में ‘कल्‍पना', ‘अजन्‍ता', ‘पराग', ‘नन्‍दन', ‘स्‍पतुनिक', ‘माध्‍यम', ‘यूनेस्‍को दूत', ‘नवनीत (डाइजेस्‍ट)', ‘ज्ञानोदय', ‘कादम्‍बिनी', ‘अछूते', ‘सन्‍दर्भ', ‘आखिर क्‍यों', ‘यूथ इण्‍डिया', ‘जन सम्‍मान', ‘अम्‍बेडकर इन इण्‍डिया', ‘राष्‍ट्रभाषा-विवरण पत्रिका', ‘पर्यावरण', ‘डाइजेस्‍ट आखिर कब तक?', ‘वार्तावाहक' आदि अनेक महत्‍वपूर्ण पत्रिकाओं का प्रकाशन हो रहा है। ‘अजन्‍ता' अब प्रकाशित नहीं हो रही है परन्‍तु ‘कल्‍पना' अब भी जारी है। इसी तरह से ‘यूथ इण्‍डिया' फर्रूखाबाद से राघवेन्‍द्र सिंह ‘राजू' के कुशल निर्देशन में अपना विशिष्‍ट स्‍थान मासिक पत्रिका के रूप में बनाये हुये है। ‘अछूते सन्‍दर्भ' दिल्‍ली से कमलेश चतुर्वेदी के दिशा निर्देशन एवं सम्‍पादकत्‍व में साहित्‍य एवं विविध सामाजिक पहलुओं को रेखांकित करने में सहायक हो रही है। ‘जन-सम्‍मान' मुरादाबाद से ‘मोहर सिंह' के सम्‍पादकत्‍व में समाज में दलित लोगों की दिशा एवं दशा को निर्धारित करने में महत्‍वपूर्ण भूमिका अदा कर रही है। राष्‍ट्रभाषा को सम्‍मान दिलाने की हैसियत से ‘राष्‍ट्रभाषा', वर्धा से श्री अनन्‍तराम त्रिपाठी के सम्‍पादकत्‍व में प्रकाशित हो रही है। उड़ीसा से वार्तावाहक ब्रज सुन्‍दरपाढ़ी एवं ‘विवरण पत्रिका', हैदराबाद से चन्‍द्रदेव भगवन्‍तराव कवड़े के सहयोग से अपनी निरन्‍तरता बनाये हुये है।
कथा साहित्‍य को लेकर वर्तमान में कुछ पत्रिकाओं का प्रकाशन सतत जारी है। ‘सारिका', ‘संचेतना', ‘नीहारिका', ‘वीणा', ‘प्रगतिशील समाज', ‘रंग पर्व लहर', ‘युगदाह', ‘कुरूशंख', ‘पुनःश्‍च' तथा ‘लघु आघात', ‘कथन', ‘कथासागर', ‘कथाक्रम', ‘कथादेश', कथा ‘सम्‍वेत', ‘कथा-विम्‍ब', कहानीकार, ‘कथा', कथादशक, कहानियां आदि का प्रकाशन, कहानी को एक नयी दिशा की ओर अग्रसर किये हुये है। और यह पत्रिकायें लघुकथा के विकास में विशिष्‍ट भूमिका का निर्वहन कर रही हैं। आलोचनात्‍मक मासिक पत्रिकाओं में साहित्‍य सन्‍देश, आलोचना, सरस्‍वती संवाद, मध्‍य प्रदेश साहित्‍य सरोवर, ‘नया ज्ञानोदय' एवम ‘वागर्थ' का प्रकाशन हो रहा है। ‘हिन्‍दी समीक्षा के क्षेत्र में बिना किसी पक्षपात एवं स्‍वस्‍थ विकास की दिशा में अत्‍यन्‍त महत्‍वपूर्ण कार्य सम्‍पन्‍न कर रहे हैं ‘हंस' के सम्‍पादक श्री राजेन्‍द्र यादव जी एवं ‘गंगा' मिश्रित प्रकृति की समीक्षात्‍मक पत्रिका का सम्‍पादन कमलेश्‍वर जी कर रहे हैं हम उन ऐसे अनेक मूर्धन्‍य साहित्‍यकार एवं सम्‍पादक विद्वतजनों का आभार एवं धन्‍यवाद ज्ञापित कर रहे हैं जो मासिक पत्रिकायें संपादित कर समाज को साहित्‍य के क्षेत्र में एक नई दशा एवं दिशा दे रहे हैं।
वर्तमान समय में त्रैमासिक शोध पत्रिकाओं एवं साहित्‍यिक पत्रिकाओं की निरन्‍तरता जारी है। और यहाँ पर सभी का उल्‍लेख करना सम्‍भव नहीं हो सकता है कुछ प्रमुख त्रैमासिक पत्रिकायें-‘भाषा' और ‘अनुवाद', ‘साक्षात्‍कार', ‘पूर्वग्रह', ‘दस्‍तावेज', ‘आलोचना', ‘इन्‍द्रप्रस्‍थ', ‘उन्‍नयन', ‘काव्‍यभाषा', ‘सम्‍बोधन', ‘जनाधार', ‘पल प्रतिपल', ‘गगनांचल', ‘परिभाषा' मधुरिमा शोधात्‍मक पत्रिकाओं में नागरी प्रचारिणी पत्रिका (वाराणसी), ‘सम्‍मेलन पत्रिका' (इलाहाबाद), हिन्‍दी अनुशीलन (प्रयाग), समकालीन अभिव्‍यक्‍ति (दिल्‍ली), रचनाकर्म (गुजरात), संकल्‍य (हैदराबाद), मरुगुलशन (राजस्‍थान), संदर्भ (राँची), परिधि के बाहर (पटना) साहित्‍य भारती (लखनऊ) अभिप्राय (इलाहाबाद), भाव वीथिका (बिजनौर) समीचीन मुम्‍बई का प्रकाशन हो रहा है जिनके द्वारा अनेक शोधार्थियों की आवश्‍यकता की पूर्ति होती रहती है। चौमासिक पत्रिकाओं में भोपाल से कला एवं संस्‍कृति पर चौमासा पत्रिका ने अपना विशिष्‍ट स्‍थान बना रखा है। उरई (जालौन) से स्‍पंदन का प्रकाशन रचना धर्मिता को एक नई दिशा देने का कार्य डॉ. कुमारेन्‍द्र सिंह सेंगर कर रहे हैं। वहीं कृतिका के माध्‍यम से साहित्‍य, कला, संस्‍कृति और सामाजिक चेतना की अलख एवं हाशिए पर कर दिये युवा लेखकों को सृजनशीलता के प्रति जागृति करने का कार्य उरई (जालौन) से डॉ. वीरेन्‍द्र सिंह यादव कर रहे हैं। इसके अतिरिक्‍त छमाही शोध पत्रिकाओं में शोध यात्रा (ग्‍वालियर), आशय (कानपुर), शोध-संकल्‍प (कानपुर) एवं वार्षिक पत्रिकाओं में मड़ई (छत्तीसगढ़), अम्‍बेडकर चिंतन (हरियाणा) युग पुरुष अम्‍बेडकर (बरेली) इसके साथ ही देश के विश्‍वविद्यालयों के हिन्‍दी विभागों द्वारा शोधार्थियों को ध्‍यान में रखते हुये शोध की प्रवृत्‍ति को बढ़ावा देने के लिये वार्षिक शोध पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन इस दिशा में महत्‍वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा है। वर्तमान में हिन्‍दी को स्‍वीकृति लगभग सभी ओर से मिलती चली जा रही है। इसका अन्‍दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि देश के बाहर भी अप्रवासी वहाँ हिन्‍दी में पत्र-पत्रिकाओं का निरन्‍तर प्रकाशन कर रहे हैं। दूसरी प्रमुख बात वह यह है कि आज विज्ञान विषय से सम्‍बन्‍ध रखने वाली पत्रिकायें भी हिन्‍दी भाषा में प्रकाशित होने लगी हैं। विज्ञान प्रगति (दिल्‍ली) वैज्ञानिक खोजों के बारे में एक नई दिशा प्रदान कर रही है। विज्ञान (प्रयाग), वैज्ञानिक (मुम्‍बई), किसान भारती (पन्‍त नगर), खेती फल फूल, कृषि चयनिका, इंजीनियर पत्रिका (कलकत्‍ता), विज्ञान डाइजेस्‍ट, आविष्‍कार (दिल्‍ली), अनुसंधान पत्रिका (प्रयाग), विज्ञान भारती, पर्यावरण दर्शन (इलाहाबाद)। अर्थ (लखनऊ) आदि ने उल्‍लेखनीय भूमिका अदा की है और वर्तमान समय में अग्रणीय भूमिका का निर्वहन कर रही हैं।
हिन्‍दी भाषा में प्रकाशित इन साहित्‍यिक और साहित्‍येत्‍तर पत्र-पत्रिकाओं के लेखा-जोखा से यह स्‍पष्‍ट है कि देश की स्‍वतंत्रता से पहले इन्‍होंने अति महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाई है और देश को आजाद कराने की पृष्‍ठभूमि भी तैयार कर लोगों में जागरण का वातावरण उत्‍पन्‍न किया और आज हम सब कुछ स्‍वतंत्र लिखने की स्‍थिति में आ गये हैं। गणनात्‍मक दृष्‍टि से आज पत्र-पत्रिकाओं की संख्‍या अनन्‍त है किन्‍तु गुणात्‍मक दृष्‍टि से इस दिशा में लेखकों एवं सम्‍पादकों में नैतिक स्‍खलन की भावनायें अधिक जोर पकड़ रही हैं लेकिन आज जहाँ उपभोक्‍तावादी संस्‍कृति एवं बाजारीकरण का बोलबाला चारों ओर हावी है ऐसे में निःस्‍वार्थ भाव से पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन करना अपने आप में एक चुनौती भरा कार्य है। अपेक्षा करता हूँ कि इसी तरह से उच्‍च आदर्श एवं प्रतिमानों को लेकर बौद्धिक वर्ग पत्र-पत्रिकाओं का सम्‍पादन एवं प्रकाशन करता रहेगा।
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युवा साहित्‍यकार के रूप में ख्‍याति प्राप्‍त डाँ वीरेन्‍द्र सिंह यादव ने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद ' की अवधारणा को स्‍थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्‍त किया है। आपके दो सौ पचास से अधिक लेखों का प्रकाशन राष्‍ट्र्रीय एवं अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर की स्‍तरीय पत्रिकाओं में हो चुका है। दलित विमर्श, स्‍त्री विमर्श, राष्‍ट्रभाषा हिन्‍दी में अनेक पुस्‍तकों की रचना कर चुके डाँ वीरेन्‍द्र ने विश्‍व की ज्‍वलंत समस्‍या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्‍तुत किया है। राष्‍ट्रभाषा महासंघ मुम्‍बई, राजमहल चौक कवर्धा द्वारा स्‍व0 श्री हरि ठाकुर स्‍मृति पुरस्‍कार, बाबा साहब डाँ0 भीमराव अम्‍बेडकर फेलोशिप सम्‍मान 2006, साहित्‍य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्‍मान 2008 सहित अनेक सम्‍मानो से उन्‍हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्‍च शिक्षा अध्‍ययन संस्‍थान राष्‍ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियाँ (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं

आगे पढ़ें: रचनाकार: वीरेन्द्र सिंह यादव का आलेख : हिन्‍दी साहित्‍य के इतिहास में पत्र-पत्रिकाओं की प्रासंगिकता एवं उपादेयता http://www.rachanakar.org/2009/09/blog-post_15.html#ixzz23n2Rc7j6

खो गयी कहीं चिट्ठियां

 प्रस्तुति  *खो गईं वो चिठ्ठियाँ जिसमें “लिखने के सलीके” छुपे होते थे, “कुशलता” की कामना से शुरू होते थे।  बडों के “चरण स्पर्श” पर खत्म होते...