मंगलवार, 30 नवंबर 2021

जीवन का सच

 *आप निर्वस्त्र आये थे*

*आप निर्वस्त्र ही जायेंगे*

*आप कमज़ोर आये थे*

*आप कमज़ोर ही जायेंगे*

*आप बिना धन-संपदा के आये थे*

*आप बिना धन-संपदा के ही जायेंगे*

*आपको पहला स्नान भी आपने स्वंय नहीं किया*

*आपका अंतिम स्नान भी आप स्वंय नहीं कर पायेंगे*


*यही सच्चाई है*


*फिर किस बात का इतना अभिमान*

*किस बात की इतनी नफरत*

*किस बात की इतनी दुर्भावना*

*किस बात की इतनी खुदगर्ज़ी*


*इस धरती पर हमारे लिए  बहुत ही सीमित समय है, और हम इन मूल्यहीन बातों में बर्बाद कर रहे हैं।।*



सोमवार, 29 नवंबर 2021

रवि अरोड़ा की नजर से....

देशी घी के संतरे  / रवि अरोड़ा



बात बचपन की है । पांच साल की छोटी Rrबहन माता पिता के साथ कहीं घूमने गई । लौटने पर उसने दूसरे भाई बहनों को बढ़ा चढ़ा कर अपनी इस आउटिंग के किस्से सुनाए ।a जैसे हम वहां वहां  गए, हमने ये ये खाया वगैरह वगैरह । खाने की सूची गिनाते समय उसने हमें चिढ़ाने की गरज से यह तक कह दिया कि मैंने तो वहां देसी घी के संतरे भी खाए । अब इसी देसी घी के संतरे वाली बात से ही उसकी पोल खुल गई और उसकी सारी डींगों पर पानी फिर गया । मजाक उड़ा सो अलग । जेवर में बनने जा रहे इंटरनेशनल एयरपोर्ट के डिजाइन के नाम पर चीन के बीजिंग एयरपोर्ट की तस्वीरें लगा कर डींगें हांकने वाले भाजपा नेताओं के बयानों को देख कर कसम से मुझे अपने बचपन का वो देसी घी के संतरे वाला किस्सा बहुत याद आया । 


इंटरनेट पर जेवर इंटरनेशनल एयरपोर्ट के असली डिजाइन की जो तस्वीरें नज़र आ रही हैं ,उससे कतई ऐसा नहीं लगता कि यह देश का पहला और दुनिया का चौथा बड़ा एयरपोर्ट होगा । ये डिजाइन इतने सादे हैं कि किसी बड़े बस अड्डे की सी फील देते हैं । अब ऐसे में बड़ी बड़ी बातें करने के लिए एयरपोर्ट की भव्य तस्वीर तो चाहिए सो भाई लोगों ने बीजिंग के दाशिंग एयरपोर्ट का डिजाइन ही चुरा लिया । यह एयरपोर्ट अभी दो साल पहले ही बना है और अभी इतना चर्चित भी नहीं है । शायद यहीं सोच कर गप्पियों ने इसे उड़ा लिया । मगर हाय रे चीनी मीडिया, उसने यह चोरी पकड़ ली और अब दुनिया भर में मोदी योगी और उनकी पूरी भक्त मंडली की हंसाई हो रही है । देश के विपक्षी नेता भी चुटकी ले रहे हैं कि चीन ने अरुणाचल प्रदेश और लद्दाख में हमारी जमीन पर कब्जा किया तो हम उसके एयरपोर्ट को उड़ा लाए । 


जग हंसाई के और भी कई कारण उभर रहे हैं । मोदी जी द्वारा इस एयरपोर्ट के शिलान्यास के अगले ही दिन उनकी सरकार के नीति आयोग ने रिपोर्ट जारी कर बता दिया कि उत्तर प्रदेश का हर तीसरा आदमी गरीब है और बिहार व झारखंड के बाद इस मामले में प्रदेश तीसरे नंबर पर है । इतने गरीब प्रदेश में तीस हजार करोड़ रुपए के खर्च को उचित ठहराया भी अब एक बड़ा काम है । यही वजह है कि भगवा ब्रिगेड का कोई नेता कहता है इस एयरपोर्ट से दस हजार लोगों को रोजगार मिलेगा तो कोई कहता है कि एक लाख को मिलेगा । किसी किसी ने तो यह संख्या सात लाख तक पहुंचा दी है । यह रोजगार कैसे मिलेगा, यह किसी को नहीं पता । वैसे जानकर कहते हैं कि दिल्ली के इंटरनेशनल एयरपोर्ट से मात्र सत्तर किलोमीटर की दूरी पर किसी अन्य बड़े इंटरनेशनल एयरपोर्ट की आवश्यकता नहीं है । दिल्ली एयरपोर्ट के टर्मिनल तीन के शुरू हो जाने के बाद तो कतई नहीं । हालांकि कुछ लोग यह भी कहते हैं कि देर सवेर दिल्ली एयरपोर्ट का बोझ कम करने के लिए किसी अन्य एयरपोर्ट की भविष्य में आवश्यकता हो सकती है । मगर इनमें से किसी का भी यह मानना नहीं है इस नए एयरपोर्ट के बनने भर से हवाई यात्रियों की संख्या में इजाफा नहीं हो जायेगा । हवाई सफर करने वालों की संख्या में बढ़ोत्तरी के लिए लोगों की आमदनी बढ़ानी पड़ेगी और इसके लिए जमीनी स्तर पर काम करना पड़ेगा । बेशक यह एयरपोर्ट उत्तर प्रदेश वासियों के अहम को संतुष्ट करने का काम आ सकता है । दूसरी बड़ी बात यह कि आगामी चुनाव जीतने में भी यह एयरपोर्ट बड़ी भूमिका निभा सकता है । इसके नाम पर चुनाव में इतनी गाल बजाई होगी कि लोग बाग भूल जायेंगे कि यह एयरपोर्ट उनके लिए नहीं सरकार ने अपने लिए बनवाया है ।  शायद यही सब वजह हैं कि जेवर एयरपोर्ट के वो वो फायदे भी गिनाए जा रहे हैं जो उससे शायद ही हों। इन फायदों में से अनेक तो मेरी छोटी बहन के देशी घी के संतरे सरीखे हैं । चलिए आप भी खाइए देशी घी के संतरे ।

रविवार, 28 नवंबर 2021

"जीवन के यथार्थ से रूबरू कराती यायावर की कविताएं" प्रख्यात साहित्यकार, कवि, आलोचक, समीक्षक व संपादक भारत यायावर की कविताएं जीवन के यथार्थ से रूबरू कराती हैं और जन सरोकारों एवं मानवीय संबंधों को भी मजबूती प्रदान करती हैं। अब तक उनकी संपादित, आलोचना एवं कविता की 65 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है । यायावर ने गद्य - पद्य दोनों विधा पर काफी काम किया है । जहां तक मैं उनकी रचनाओं को पढ़ पाया हूं , ऐसा प्रतीत होता है कि वे दोनों विधा में लिखने में पारंगत हैं। उन्होंने आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी और फणीश्वर नाथ रेनू की देशभर में बिखरी पड़ी असंकलित रचनाओं को संकलित और संपादन कर एक महान कार्य किया है। उनकी रचनाएं पिछले 40 वर्षों से लगातार देशभर के विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र - पत्रिकाओं में प्रकाशित होती चली आ रही हैं । उनका स्वास्थ्य लगातार गिरता जा रहा है, लेकिन उनकी कलम कभी ना रुकी। साहित्य के प्रति उनका यह लगाव बचपन से ही रहा है । छात्र जीवन में ही उन्हें कई पत्रिकाओं के संपादन करने का अवसर प्राप्त हुआ । उन्होंने इस दायित्व का निर्वहन पूरी निष्ठा के साथ पूरा किया और वे शत-प्रतिशत सफल हुए। तब के देश के नामचीन साहित्यकारों ने उन्हें प्रशंसा के कई पत्र भेजे थे। नागार्जुन ने भविष्यवाणी की थी कि भारत यायावर आगे चलकर हिंदी साहित्य जगत में बड़ा काम करेगा और जनकवि नागार्जुन की भविष्यवाणी सच साबित हुई जहां तक मैं भारत यायावर की रचनाओं को पढ़कर समझ पाया हूं। उन्होंने गद्य और पद्य दोनों विधा पर समान रूप से काम जरूर किया है किंतु उनकी आत्मा कविताओं में बसती है । उनकी कविताओं की खासियत यह है कि पाठकों को उलझाती नहीं है ,बल्कि बड़े ही सहजता के साथ अपनी बात संप्रेषित कर देती हैं । यायावर की कविताएं जीवन के संघर्ष से सहर्ष मुकाबला करने की सीख देती है। संघर्ष मुकाबला के साथ प्रेम करने की भी बात बताती हैं । विपरीत परिस्थितियों को अनुकूल बनाने के लिए हर मनुष्य संघर्ष जरूर करता है , परंतु जीत उसी की होती है जो जीवन के संघर्ष से मुकाबला करते हैं और उससे प्रेम करते हैं। जन सरोकारों से जुड़े सभी पक्षों पर पूरी गंभीरता के साथ यायावर अपनी बात रखते हैं । वे मानवीय संबंधों को बेहतर से बेहतर बनाने की बात अपनी कविताओं के माध्यम से कहते हैं। मानवीय संबंध ही मनुष्य को मनुष्य से जोड़ता है। समाज और देश की मजबूती के लिए मानवीय संबंध आधार स्तंभ है। यायावर की कविताओं में सकारात्मकता की जबरदस्त पुट मिलती है । उनकी कविताएं समाज को देखने के लिए एक नूतन दृष्टि प्रदान करती है। पिछले दिनों जाने-माने वरिष्ठ पत्रकार व कवि गणेश चंद्र राही ने भारत यायावर के तीन कविता संग्रह से 52 कविताओं का चयन कर "तुम धरती का नमक हो" शीर्षक से कविता संग्रह का संपादन किया । इस संग्रह के संपादक कवि गणेश चंद्रा ही ने भूमिका में दर्ज किया है कि "मैं चाह रहा था कि इस संकलन में भारत यायावर की महत्वपूर्ण कविताओं को शामिल करें , लेकिन स्वयं कवि होने के नाते इस कठिनाई को महसूस कर सकता हूं कि किस कविता को महत्वपूर्ण कहूं और किसे कम महत्वपूर्ण । यह किसी भी चयनकर्ता के लिए द्वंद्वात्मक स्थिति है और इससे बाहर निकलने के लिए कविता जैसी कोमल हृदय वाली विधा के साथ कठोरता बरतना आत्महत्या करने जैसी बात हो जाती है । भारत यायावर की हर कविता हमें बांधती है। प्रेम और करुणा जीवन के व्यापक क्षेत्र का दर्शन कराती हैं "।राही जी ने अपनी चंद पंक्तियों में स्पष्ट कर दिया है कि भारत यायावर की किस कविता को महत्वपूर्ण कहूं, किसे कम महत्वपूर्ण कहूं? यही यायावर की कविताओं की सच्चाई व यथार्थ है। उनकी हर एक कविता समाज के वृहद क्षेत्र की घटनाओं को स्पर्श करती हैं और प्रभावित भी करती हैं। भारत यायावर की कविता एक और गिरते रिश्तो पर जोरदार प्रहार करती हैं तो दूसरी ओर रिश्तों की अहमियत की भी सीख देती है। "तुम धरती का नमक हो" शीर्षक कविता में कवि भारत यायावर ने दर्ज किया है, " तुम धरती का नमक हो/ सभी को है तुम्हारी जरूरत/ एक ही तरह/ तुम धरती का जल हो तरल/ किसी आदमी रंग भाषा देश से/ नहीं बरते अलग अलग/ अलग अलग करने की ख्वाहिश नहीं है तुम्हारी",.. यायावर अपनी इस कविता के माध्यम से बिल्कुल साधारण सी दिखने वाली वस्तु नमक को प्रतीक के रूप में प्रस्तुत कर बड़ी बात कहने की कोशिश की है ।नमक एक साधारण वस्तु जरूर है , किंतु अत्यंत से अत्यंत साधारण व्यक्ति से लेकर बड़े से बड़े व्यक्ति के लिए उतना ही महत्वपूर्ण है। आगे कविता में दर्ज है,.." तुम हवा हो - प्रभावित /कौन जीत सकता है तुम्हारे बिना/ तुम वह सब हो / जो पूरी मानवता के लिए जरूरी है / मनुष्य जिसके बगैर नहीं हो सकता / जो तमाम मनुष्यों को एक करता है / इसीलिए तुम्हारे ही साथ जाता हूं,".. साधारण सा दिखने वाला यह नमक मनुष्य को मनुष्य से जोड़ रहा है । समाज के हर वर्ग के लोगों से समान रूप से प्रेम कर रहा है । कहीं पक्षपात नहीं । कोई घृणा के स्वर नहीं। नमक सभी को समान रुप से अंगीकार कर रहा है। नमक के माध्यम से कवि समाज के हर वर्ग के लोगों से प्रश्न करते नजर आते हैं कि मनुष्य मनुष्य दूर क्यों होता चला जा रहा है? पक्षपात और घृणा ने मनुष्य को लहूलुहान कर दिया है । कवि लोगों से आह्वान करते हैं कि तुम सब नमक की तरह उदात्त बनो और सबसे समान रूप से प्रेम करो। इससे जीवन की दिशा और दशा दोनों सु मधुर हो जाएगी। इस संग्रह में "रचना प्रक्रिया", "कितनी सड़कों पर कितने लोग", "ऐसा कुछ भी न था", "आदमी कहां-कहां पीड़ित नहीं है", "हाल बेहाल", "मैं हूं यहां हूं", ,हम जीवन से प्यार करते हैं"... सहित 52 कविताएं दर्ज है । हर कविता कुछ न कुछ नई बात कहने में पूरी तरह सफल होती है। कभी पुरानी व घीसीपीटी बातों को दोहराना नहीं चाहते हैं ।जहां वे रहते है। आस-पास हो रहे हलचलो को देखते हैं , विचार करते हैं तब वे कुछ गढतें हैं । कवि अपनी कविताओं से कभी दुखी नजर नहीं होते हैं और ना ही मन भारी कर बात बताने की कोशिश करते हैं । हताश भी नजर नहीं आते हैं, बल्कि पूरी शक्ति के साथ उठ खड़े होने की बात कहते हैं। निराशा को आशा में बदलने की बात कहते हैं। मरने नहीं जीने की बात बताते हैं । "कितने सड़कों पर कितने लोग".. सिर्फ कविता की चंद पंक्तियों के इर्द गिर्द सारा हिंदुस्तान घूमता नजर आता है । "अब क्या होगा ?"/ बहुत थोड़ी जमा पूंजी थी / और वह भी चूक गई थी/ खाली पेट मैं घर से निकलता/ और बिना कुछ पाए लौटा आता / अब क्या होगा ?" आज जहां भी नजरें दौड़ा ले, ... कमोबेश हालात एक समान है । कवि देशवासियों से ऐसी परिस्थिति से मुकाबला करने की बात करते हैं। उससे जूझने और परास्त करने की भी राह सुझातें हैं। कवि को पक्का विश्वास है कि एक न एक दिन यह विकट परिस्थिति को अनुकूल परिस्थिति में बदलना ही पड़ेगा। इसी कविता की अंतिम पंक्तियां हैं , " हाहाकार भरे जीवन से/ मैंने अपनी शुरुआत की / और आज जो हूं / जिंदा या मुर्दा / आपके सामने हूं। यायावर किया सकारात्मकता भरी बातें उन्हें विशिष्टता प्रदान करती है।

 "जीवन के यथार्थ से रूबरू कराती यायावर की कविताएं"/ ija


 प्रख्यात साहित्यकार, कवि, आलोचक, समीक्षक व संपादक भारत यायावर की कविताएं जीवन के यथार्थ से रूबरू कराती हैं और जन सरोकारों एवं मानवीय संबंधों को भी मजबूती प्रदान करती हैं। अब तक उनकी संपादित, आलोचना एवं कविता की 65 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है । यायावर ने गद्य - पद्य दोनों विधा पर काफी काम किया है । जहां तक मैं उनकी रचनाओं को पढ़ पाया हूं , ऐसा प्रतीत होता है कि वे दोनों विधा में लिखने में पारंगत हैं।  उन्होंने आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी और फणीश्वर नाथ रेनू की देशभर में बिखरी पड़ी असंकलित रचनाओं को संकलित और संपादन कर एक महान कार्य किया है।  उनकी रचनाएं पिछले 40 वर्षों से लगातार देशभर के विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र - पत्रिकाओं में प्रकाशित होती चली आ रही हैं । उनका स्वास्थ्य लगातार गिरता जा रहा है, लेकिन उनकी कलम कभी ना रुकी।  साहित्य के प्रति उनका यह लगाव बचपन से ही रहा है । छात्र जीवन में ही उन्हें कई पत्रिकाओं के संपादन करने का अवसर प्राप्त हुआ । उन्होंने इस दायित्व का निर्वहन पूरी निष्ठा के साथ पूरा किया और वे शत-प्रतिशत सफल हुए।  तब के देश के नामचीन साहित्यकारों ने उन्हें प्रशंसा के कई पत्र भेजे थे।  नागार्जुन ने भविष्यवाणी की थी कि भारत यायावर आगे चलकर हिंदी साहित्य जगत में बड़ा काम करेगा और जनकवि नागार्जुन की भविष्यवाणी सच साबित हुई


जहां तक मैं भारत यायावर की रचनाओं को पढ़कर समझ पाया हूं।  उन्होंने गद्य और पद्य दोनों विधा पर समान रूप से काम जरूर किया है किंतु उनकी आत्मा कविताओं में बसती है । उनकी कविताओं की खासियत यह है कि पाठकों को उलझाती नहीं है ,बल्कि बड़े ही सहजता के साथ अपनी बात संप्रेषित कर देती हैं । यायावर की कविताएं जीवन के संघर्ष से सहर्ष  मुकाबला करने की सीख देती है। संघर्ष मुकाबला के साथ प्रेम करने की भी बात बताती हैं । विपरीत परिस्थितियों को अनुकूल बनाने के लिए हर मनुष्य संघर्ष जरूर करता है , परंतु जीत उसी की होती है जो जीवन के संघर्ष से मुकाबला करते हैं और उससे प्रेम करते हैं।  जन सरोकारों से जुड़े सभी पक्षों पर पूरी गंभीरता के साथ यायावर अपनी बात रखते हैं । वे मानवीय संबंधों को बेहतर से बेहतर बनाने की बात अपनी कविताओं के माध्यम से कहते हैं। मानवीय संबंध ही मनुष्य को मनुष्य से जोड़ता है।  समाज और देश की मजबूती के लिए मानवीय संबंध आधार स्तंभ है।  यायावर की कविताओं में सकारात्मकता की जबरदस्त पुट मिलती है । उनकी कविताएं समाज को देखने के लिए एक नूतन दृष्टि प्रदान करती है।


 पिछले दिनों जाने-माने वरिष्ठ पत्रकार व कवि गणेश चंद्र राही ने भारत यायावर के तीन कविता संग्रह से 52 कविताओं का चयन कर "तुम धरती का नमक हो" शीर्षक से कविता संग्रह का संपादन किया । इस संग्रह के संपादक कवि गणेश चंद्रा ही ने भूमिका में दर्ज किया है कि "मैं चाह रहा था कि इस संकलन में भारत यायावर की महत्वपूर्ण कविताओं को शामिल करें , लेकिन स्वयं कवि होने के नाते इस कठिनाई को महसूस कर सकता हूं कि किस कविता को महत्वपूर्ण कहूं और किसे कम महत्वपूर्ण ।  यह किसी भी चयनकर्ता के लिए द्वंद्वात्मक स्थिति है और इससे बाहर निकलने के लिए कविता जैसी कोमल हृदय वाली विधा के साथ कठोरता बरतना आत्महत्या करने जैसी बात हो जाती है । भारत यायावर की हर कविता हमें बांधती है।  प्रेम और करुणा जीवन के व्यापक क्षेत्र का दर्शन कराती हैं "।राही जी ने अपनी चंद पंक्तियों में स्पष्ट कर दिया है कि भारत यायावर की किस कविता को महत्वपूर्ण कहूं,  किसे कम महत्वपूर्ण  कहूं? यही यायावर की कविताओं की सच्चाई व यथार्थ है। उनकी हर एक कविता समाज के वृहद क्षेत्र की घटनाओं को स्पर्श करती हैं और प्रभावित भी करती हैं। भारत यायावर की कविता एक और गिरते रिश्तो पर जोरदार प्रहार करती हैं तो दूसरी ओर रिश्तों की अहमियत की भी सीख देती है।

"तुम धरती का नमक हो"  शीर्षक कविता में कवि भारत यायावर ने दर्ज किया है, " तुम धरती का नमक हो/ सभी को है तुम्हारी जरूरत/ एक ही तरह/ तुम धरती का जल हो तरल/ किसी आदमी रंग भाषा देश से/ नहीं बरते अलग अलग/ अलग अलग करने की ख्वाहिश नहीं है तुम्हारी",.. यायावर अपनी इस कविता के माध्यम से बिल्कुल साधारण सी दिखने वाली वस्तु नमक को प्रतीक के रूप में प्रस्तुत कर बड़ी बात कहने की कोशिश की है ।नमक एक साधारण वस्तु जरूर है , किंतु अत्यंत से अत्यंत साधारण व्यक्ति से लेकर बड़े से बड़े व्यक्ति के लिए उतना ही महत्वपूर्ण है। आगे कविता में दर्ज है,.." तुम हवा हो - प्रभावित /कौन जीत सकता है तुम्हारे बिना/ तुम वह सब हो / जो पूरी मानवता के लिए जरूरी है / मनुष्य जिसके बगैर नहीं हो सकता / जो तमाम मनुष्यों को एक करता है / इसीलिए तुम्हारे ही साथ जाता हूं,".. साधारण सा दिखने वाला यह नमक मनुष्य को मनुष्य से जोड़ रहा है । समाज के हर वर्ग के लोगों से समान रूप से प्रेम कर रहा है । कहीं पक्षपात नहीं । कोई घृणा के स्वर नहीं।  नमक सभी को समान रुप से अंगीकार कर रहा है।  नमक के माध्यम से कवि समाज के हर वर्ग के लोगों से प्रश्न करते नजर आते हैं कि मनुष्य मनुष्य दूर क्यों होता चला जा रहा है?  पक्षपात और घृणा ने मनुष्य को लहूलुहान कर दिया है । कवि लोगों से आह्वान करते हैं कि तुम सब नमक की तरह उदात्त बनो और सबसे समान रूप से प्रेम करो। इससे जीवन की दिशा और दशा दोनों सु मधुर हो जाएगी।


 इस संग्रह में "रचना प्रक्रिया",  "कितनी सड़कों पर कितने लोग",  "ऐसा कुछ भी न था",  "आदमी कहां-कहां पीड़ित नहीं है",  "हाल बेहाल",  "मैं हूं यहां हूं",  ,हम जीवन से प्यार करते हैं"... सहित 52 कविताएं दर्ज है । हर कविता कुछ न कुछ नई बात कहने में पूरी तरह सफल होती है।  कभी पुरानी व घीसीपीटी बातों को दोहराना नहीं चाहते हैं ।जहां वे रहते है।  आस-पास हो रहे हलचलो को देखते हैं , विचार करते हैं तब वे कुछ गढतें हैं । कवि अपनी कविताओं से कभी दुखी नजर नहीं होते हैं और ना ही मन भारी कर बात बताने की कोशिश करते हैं । हताश भी नजर नहीं आते हैं, बल्कि पूरी शक्ति के साथ उठ खड़े होने की बात कहते हैं। निराशा को आशा में बदलने की बात कहते हैं।  मरने नहीं जीने की बात बताते हैं । "कितने सड़कों पर कितने लोग".. सिर्फ कविता की चंद पंक्तियों के इर्द गिर्द सारा हिंदुस्तान घूमता नजर आता है । "अब क्या होगा ?"/ बहुत थोड़ी जमा पूंजी थी / और वह भी चूक गई थी/  खाली पेट मैं घर से निकलता/  और बिना कुछ पाए लौटा आता / अब क्या होगा ?"  आज जहां भी नजरें दौड़ा ले, ... कमोबेश हालात एक समान है । कवि देशवासियों से ऐसी परिस्थिति से मुकाबला करने की बात करते हैं।  उससे जूझने और परास्त करने की भी राह सुझातें हैं। कवि को पक्का विश्वास है कि एक न एक दिन यह विकट परिस्थिति को अनुकूल परिस्थिति में बदलना ही पड़ेगा।  इसी कविता की अंतिम पंक्तियां हैं , " हाहाकार भरे जीवन से/  मैंने अपनी शुरुआत की / और आज जो हूं / जिंदा या मुर्दा / आपके सामने हूं। यायावर किया सकारात्मकता भरी बातें उन्हें विशिष्टता प्रदान करती है।

दीवारों के ही कान होते हैं

 आपके घर की दीवारें सब सुनती हैं और सब सोखती हैं....


कभी आपने किसी घर में जाते ही वहाँ एक अजीब सी  नकारात्मकता और घुटन महसूस की है ? 

या किसी के घर में जाते ही एकदम से सुकून औऱ सकारात्मकता महसूस की है ?

 

मैं कुछ ऐसे घरों में जाता हूँ जहां जाते ही तुरंत वापस आने का मन होने लगता है। एक अलग तरह का खोखलापन और नेगेटिविटी उन घरों में महसूस होती है। साफ समझ पाता हूँ कि उन घरों में रोज-रोज की कलह और लड़ाई- झगड़े और चुगली , निंदा आदि की जाती है। परिवार में  सामंजस्य और प्रेम की कमी है। वहाँ कुछ पलों में ही मुझे अजीब सी बेचैनी होने लगती है और मैं जल्दी ही वहाँ से वापस आ जाता हूँ।


वहीं कुछ घर इतने खिलखिलाते और प्रफुल्लित महसूस होते हैं कि वहाँ घंटों बैठकर भी मुझे वक़्त का पता नहीं चलता ।


ध्यान रखिये....

" आपके घर की दीवारें सब सुनती हैं और सब सोखती हैं। घर की दीवारें युगों तक समेट कर रखती हैं सारी सकारात्मकता और नकारात्मकता भी "


 " कोपभवन"  का नाम अक्सर हमारी पुरानी कथा-कहानियों में सुनाई देता है । दरअसल कोपभवन पौराणिक कथाओं में बताया गया घर का वो हिस्सा होता था जहां बैठकर लड़ाई-झगड़े और कलह-विवाद आदि सुलझाए जाते थे। उस वक़्त भी हमारे पुरखे सकारात्मक और नकारात्मक ऊर्जा के प्रवाह को अलग-अलग रखने का प्रयास करते थे इसलिए " कोपभवन " जैसी व्यवस्था की जाती थी ताकि सारे घर को नकारात्मक होने से बचाया जाए ।

 इसलिए आप भी कोशिश कीजिए कि आपका घर "कलह-गृह" या "कोपभवन" बनने से बचा रहे।


घर पर सुंदर तस्वीरें , फूल-पौधे, बागीचे , सुंदर कलात्मक वस्तुएँ आदि आपके घर का श्रृंगार बेशक़ होती हैं पर आपका घर सांस लेता है आपकी हंसी-ठिठोली से , मस्ती-मज़े से,  खिलखिलाहट से और बच्चों की शरारतों से , बुजुर्गों की संतुष्टि से ,घर की स्त्रियों के सम्मान से और पुरुषों के सामर्थ्य से , तो इन्हें भी सहेजकर-सजाकर अपने घर की दीवारों को स्वस्थ रखिये।


" आपका घर सब सुनता है और सब कहता भी है "


 इसलिए यदि आप अपने घर को सदा दीवाली सा रोशन बनाये रखना चाहते हैं तो ग्रह कलह और , निंदा , विवादों आदि को टालिये। 


"यदि आपके घर का वातावरण स्वस्थ्य और प्रफुल्लित होगा तो उसमें रहने वाले लोग भी स्वस्थ और प्रफुल्लित रहेंगे।


आप सभी को शुभकामनाएं कि आपका घर सदा मुस्कुराता रहे ।🌷🐾🌻🙏

दिसंबर का महत्व

 *🌹🌹राधास्वामी🌹🌹      

                                                

 दिसम्बर माह में सतसंग जगत के ऐतिहासिक दिन:-                                                              

★परम गुरु हुज़ूर डा० लाल साहबजी:-5 दिसम्बर 2002 को प्रातः काल निजधाम लौटने की मौझ फ़रमाई।                                                            

★परम गुरु हुज़ूर महाराज जी:-6 दिसम्बर 1898 को शाम 6:40 पर तमाम साधू व सतसंगियों की मौजूदगी में हुज़ूर महाराज जी ने समय जानना चाहा और आराम करने के लिए तकिये व्यवस्थित करवाए। पाँच मिनट पश्चात पूर्ण शान्ती और विश्राम की अवस्था में उन्होने अपनी सुरत को भौतिक शरीर से वापस खींच लिया।                                                     

★परम गुरू हुज़ूर सरकार साहब जी-7 दिसम्बर 1913 को प्रात: 6 बजे अपने नश्वर शरीर को त्याग दिया।                                                     

 ★परम गुरु हुज़ूर सरकार साहबजी (श्री कामता प्रसाद सिन्हा साहब) का पावन जन्मदिन-12 दिसम्बर 1871 (मुरार बिहार) में आधी रात के बाद हुआ।                                                        

★परम गुरु हुज़ूर मेहताजी महाराज (गुरुचरन दास मेहता जी महाराज) जी का पावन जन्म बटाला प्रान्त पंजाब में हुआ।                                      ★भंड़ारा-परम गुरु हुज़ूर महाराज-26 दिसम्बर 2021(रविवार) को मनाया जावेगा।।                                                  🙏🏻राधास्वामी🙏🏻🌹🌹🌹🌹**

भारत महाभारत katha

 चलिए हजारो साल पुराना इतिहास पढ़ते हैं।सम्राट शांतनु ने विवाह किया एक मछवारे की पुत्री सत्यवती से।उनका बेटा ही राजा बने इसलिए भीष्म ने विवाह न करके,आजीवन संतानहीन रहने की भीष्म प्रतिज्ञा की।

सत्यवती के बेटे बाद में क्षत्रिय बन गए, जिनके लिए भीष्म आजीवन अविवाहित रहे, क्या उनका शोषण होता होगा?महाभारत लिखने वाले वेद व्यास भी मछवारे थे, पर महर्षि बन गए, गुरुकुल चलाते थे वो।विदुर, जिन्हें महा पंडित कहा जाता है वो एक दासी के पुत्र थे, हस्तिनापुर के महामंत्री बने, उनकी लिखी हुई विदुर नीति, राजनीति का एक महाग्रन्थ है।भीम ने वनवासी हिडिम्बा से विवाह किया।श्रीकृष्ण दूध का व्यवसाय करने वालों के परिवार से थे,उनके भाई बलराम खेती करते थे, हमेशा हल साथ रखते थे।यादव क्षत्रिय रहे हैं, कई प्रान्तों पर शासन किया और श्रीकृषण सबके पूजनीय हैं, गीता जैसा ग्रन्थ विश्व को दिया।राम के साथ वनवासी निषादराज गुरुकुल में पढ़ते थे।उनके पुत्र लव कुश महर्षि वाल्मीकि के गुरुकुल में पढ़े जो वनवासी थेतो ये हो गयी वैदिक काल की बात, स्पष्ट है कोई किसी का शोषण नहीं करता था,सबको शिक्षा का अधिकार था, कोई भी पद तक पहुंच सकता था अपनी योग्यता के अनुसार।

वर्ण सिर्फ काम के आधार पर थे वो बदले जा सकते थे, जिसको आज इकोनॉमिक्स में डिवीज़न ऑफ़ लेबर कहते हैं वो ही।प्राचीन भारत की बात करें, तो भारत के सबसे बड़े जनपद मगध पर जिस नन्द वंश का राज रहा वो जाति से नाई थे ।नन्द वंश की शुरुवात महापद्मनंद ने की थी जो की राजा नाई थे। बाद में वो राजा बन गए फिर उनके बेटे भी, बाद में सभी क्षत्रिय ही कहलाये।उसके बाद मौर्य वंश का पूरे देश पर राज हुआ, जिसकी शुरुआत चन्द्रगुप्त से हुई,जो कि एक मोर पालने वाले परिवार से थे और एक ब्राह्मण चाणक्य ने उन्हें पूरे देश का सम्राट बनाया । 506 साल देश पर मौर्यों का राज रहा।फिर गुप्त वंश का राज हुआ, जो कि घोड़े का अस्तबल चलाते थे और घोड़ों का व्यापार करते थे।140 साल देश पर गुप्ताओं का राज रहा।केवल पुष्यमित्र शुंग के 36 साल के राज को छोड़ कर 92% समय प्राचीन काल में देश में शासन उन्ही का रहा, जिन्हें आज दलित पिछड़ा कहते हैं तो शोषण कहां से हो गया? यहां भी कोई शोषण वाली बात नहीं है। 

फिर शुरू होता है मध्यकालीन भारत का समय जो सन 1100- 1750 तक है, इस दौरान अधिकतर समय, अधिकतर जगह मुस्लिम शासन रहा।अंत में मराठों का उदय हुआ, बाजी राव पेशवा जो कि ब्राह्मण थे, ने गाय चराने वाले गायकवाड़ को गुजरात का राजा बनाया, चरवाहा जाति के होलकर को मालवा का राजा बनाया।अहिल्या बाई होलकर खुद बहुत बड़ी शिवभक्त थी। ढेरों मंदिर गुरुकुल उन्होंने बनवाये।मीरा बाई जो कि राजपूत थी, उनके गुरु एक चर्मकार रविदास थे और रविदास के गुरु ब्राह्मण रामानंद थे|।यहां भी शोषण वाली बात कहीं नहीं है।मुग़ल काल से देश में गंदगी शुरू हो गई और यहां से पर्दा प्रथा, गुलाम प्रथा, बाल विवाह जैसी चीजें शुरू होती हैं।1800 -1947 तक अंग्रेजो के शासन रहा और यहीं से जातिवाद शुरू हुआ । जो उन्होंने फूट डालो और राज करो की नीति के तहत किया।अंग्रेज अधिकारी निकोलस डार्क की किताब "कास्ट ऑफ़ माइंड" में मिल जाएगा कि कैसे अंग्रेजों ने जातिवाद, छुआछूत को बढ़ाया और कैसे स्वार्थी भारतीय नेताओं ने अपने स्वार्थ में इसका राजनीतिकरण किया।इन हजारों सालों के इतिहास में देश में कई विदेशी आये जिन्होंने भारत की सामाजिक स्थिति पर किताबें लिखी हैं, जैसे कि मेगास्थनीज ने इंडिका लिखी, फाहियान, ह्यू सांग और अलबरूनी जैसे कई। किसी ने भी नहीं लिखा की यहां किसी का शोषण होता था।योगी आदित्यनाथ जो ब्राह्मण नहीं हैं, गोरखपुर मंदिर के महंत हैं, पिछड़ी जाति की उमा भारती महा मंडलेश्वर रही हैं। जन्म आधारित जातीय व्यवस्था हिन्दुओ को कमजोर करने के लिए लाई गई थी।इसलिए भारतीय होने पर हिंदू होने पर गर्व करें और जातिवादी घृणा, द्वेष और भेदभाव के षड्यंत्रों से खुद भी बचें और औरों को भी बचाएं..👍👍🙏🙏

ब्राह्मण रावण

 यह कथा मेने दक्षिण भारत की लिखी एक पुस्तक है महर्षि कम्बन की जिसका नाम है राम अवतारम या रमावताराम उसमें एक अदभुत कथा है जो तुलसी रामायण या बल्मिकी रामायण में नही है वहाँ से लिखी है बहुत   अच्छा प्रसंग है

जब भगवान राम ने समुद्र तट पर शिवलिंग की स्थापना करनी चाही तो उन्होने जाम्बवंत से कहा आस पास कोई ऐसा ब्राम्हण नही है सेय और वेष्णव दोनो परम्परा से पारंगत हो जाम्बवंत ने कहा ऐसा एक ही आचार्य है जो हमारा शत्रु और पुलस्त ऋषि का नाती है जो दोनो परंपराओं से पारंगत और शिव भक्त है और कर्म कांडी भी है तो राम जी ने कहा एक बार जाओ और बात कर के देखिए ये कथा राम अवतारम मे कथा है दुश्मन भी हो तो ऐसा हो ।यहाँ एक शेर याद आता है  


🌹हाथ में ख़ंजर नही आँखो मे पानी चाहिए 🌹

🌹ये खुदा दुश्मन भी मुझे ख़ानदानी चाहिए 🌹

रावण जेसा आचार्य भी कोई नही जाम्बवंत जी लंका पहुँचे राम जी के कहने पर रावण को यह बात पता चली जाम्बवंत आयें है जाम्बवंत जी उनके पितामह के दोस्त रह चुके है रावण को लगा मेरे बाबा के दोस्त आए है उनका स्वागत करना चाहिए आदर करना चाहिए रावण ने राक्षसों से कहा मेरे महल तक आने के लिए उन्हें कष्ट ना हो सभी लोग हाथ जोड़ के खड़े हो जाय जिधर राक्षस ईसारा करे जाम्बवंत जी उधर चल दे जाम्बवंत जी का शरीर बड़ा था रास्ता दिखाते दिखाते राक्षस रावण के पास ले गए रावण ने उन्हें प्रणाम खड़े होकर किया और बोला मे आपकी सेवा करता हु राक्षस राज रावण किस लिए आप आए है तो जाम्बवंत ने कहाँ मेरे यजमान एक यज्ञ करना चाहते है में चाहता हु आप उस यज्ञ के आचार्य बन जाय तो रावण ने कहा स्वीकृति से पूर्व मुझे विचार करना पड़ेगा और विचार में देरी लगेगी अगर आप आसन ग्रहण कर लेंगे तो अच्छा होगा मे भी बेठ जाऊँगा जाम्बवंत जी बेठ गये तो रावण ने पूछा आपका यजमान कोन है तो जाम्बवंत ने कहा अयोध्या के राज कुमार और महाराज दशरथ के पुत्र श्री राम मेरे यजमान है वह एक यज्ञ करना चाहते है और भगवान शंकर का विग्रह स्थापित करना चाहते है और शिव लिंग की पूजा करना चाहते है अपने एक बड़े काम के लिए रावण ने पूछा क्या यह बड़ा काम लंका विजय तो नही जाम्बवंत ने कहा आचार्य रावण भी प्रतिभाशाली था उसे पता था क़ोन व्यक्ति आया है मुझे आचार्य बनने के लिए इतना बड़ा अवसर मिल रहा है उसने कहा मे उनके बारे में नही जनता पर हाँ वो दूतों के प्रतिपालक है वे अपने दुत को बहुत अच्छे से रखते है ऐसे मर्यादा वादी यजमान का आचार्य बनना स्वीकार है जाकर कह दीजिए में उनका आचार्य स्वीकार करता हु  यें है रावण जिसके यह सीता माता शील के साथ सुरक्षित रही जाम्बवंत ने रावण से पूछा क्या व्यवस्था करनी पड़ेगी क्या क्या समान मँगवाने पड़ेंगे आचार्य रावण ने कहा चुकी मेरा यजमान वनवासी है और घर से बाहर है इसलिए शास्त्र की परम्परा से अगर यजमान घर से बाहर हो पूजा करनी हो तो सारी चीज़ों की तेयारी स्वयं आचार्य को करनी होती है तो आप कह दीजिए अपने यजमान से सुबह स्नान ध्यान कर के पूजा के लिए तत्पर रहे मे सब समान की व्यवस्था  कर दूँगा अब वह अपने लोगों को बुलाया और बोला कल पूजा के लिए मुझे जाना है यह सब समान तेयार करो। इसके बाद रावण एक रथ लेकर सीता माता के पास गया और सीता से उसने कहा समुद्र पार तुम्हारे पति और मेरे यजमान राम लंका विजय के लिए एक यज्ञ आयोजित किया है और मुझे उस यज्ञ के आचार्य के रूप मे बुलाया है अब जंगल मे रहने वाले किसी भी यजमान की किसी भी पूजा की तेयारी करना आचार्य का काम होता है इसलिए उसकी अर्धांगिनी की भी व्यवस्था करना भी मेरी ज़िम्मेदारी है तो यह रथ खड़ा हुआ है ये पुष्पक विमान है बेठ जाओ पर ध्यान रहे वहाँ भी तुम मेरी सुरक्षा मे हो मेरी ही क़द मे हो और में आचार्य रावण तुमसे ये कहता हु तुम मेरे यजमान की अर्धांगिनी होने के नाते या अर्धयजमान होने के नाते इस पर बेठ जाना कम्बन राम कथा मे एक प्रसंग आता है यह सुनकर माता सीता ने रावण को आचार्य रावण कह कर प्रणाम कियाआप ठीक समझ रहे है यह यज्ञ लंका विजय का यज्ञ है जाम्बवंत ने कहा क्या आप  आचार्य पद स्वीकार करेंगेऔर कहा जो आज्ञा आचार्य और फिर वही रावण माता के प्रणाम करने पर अखण्ड सोभाग्यवती का आशीर्वाद दे डाला  जब वही रावण राम के पास पहुँचा आचार्य बनकर तो दोनो भाइयों ने उन्हें उठकर प्रणाम किया और कहा आचार्य मे आपका यजमान राम आपको प्रणाम करता हूँ में चाहता हूँ यहाँ शिव का विग्रह स्थापित हो ताकी देवधिदेव महादेव मुझे आशीर्वाद दे की में लंका पर विजय प्राप्त करूँ ये शब्द आचार्य रावण से कह रहे रावण ने कहाँ में आपका यज्ञ सम्पादित करूँगा महादेव चाहेंगे आपके यज्ञ का फल आपको प्राप्त होगा रावण ने कहा यज्ञ की तेयारी शुरू करिये तो राम ने बताया हनुमान गए है शंकर  का विग्रह लेने के लिए शिवलिंग लेने के लिए तो राम ने कहाँ हनुमान गये है पता नही ओ साक्षात्  महादेव को लेकर आएँगे या शिवलिंग तो आचार्य रावण ने पूजा मे देरी सम्भव नही है मुहूर्त नही टल सकता आइये बेठिए और आपकी धर्म पत्नी कहाँ है उन्हें बुलाइये तो राम ने कहाँ आचार्य मेरी धर्म पत्नी यहाँ उपस्थित नही है राम केसे कहे इन सब के कारण आप ही है यहाँ राम ने कहाँ कोई ऐसी शास्त्रीय विधी नही है जिससे यह यज्ञ हो जाय तो रावण ने कहाँ यह सम्भव नही हैकेवल तीन प्रकार से इसकी अनुमति है की आप बिदुर हो आपकी धर्म पत्नी न हो या आप अविवाहित है आपका विवाह न हुआ हो और तीसरा आप की पत्नी आपको त्याग दिया हो क्या ये तीनो स्थितिया है राम ने कहा ये तीनो स्थितिया नही है राम केसे कहे इसका कारण आप ही है क्यों की वे तो आचार्य है तो जाम्बवंत ने कहा आचार्य इसकी क्या व्यवस्था है तब रावण ने कहा जब कोई यजमान जंगल मे हो उसके पास यज्ञ को पुरा करने का समस्त साधन न हो तो आचार्य की ज़िम्मेदारी होती है 

की वे यज्ञ का साधन उपस्थित करे या करावे तो आप बिभीषण और अन्य साथी से कहिये मेरे यान मे अर्धयजमान यानी सीता बेठी हुई है उन्हें बुला लाइए ये रामावतार कम्बन रामायण में प्रसंग है उसके बाद विधिवत  

पूजन हुआ माँ सीता ने अपने हाथ से वहाँ शिवलिंग स्थापित किया आज भी लंकेश्वर द्वारा स्थापित कराया गया शिवलिंग वहाँ मौजूद है जिसके बारे मे कहाँ जाता है हनुमान अपना शिवलिंग लेकर आए और बोले इसे हटाओ मे अभी लगाउँगा तो राम ने कहाँ जो लगा है रहने दो तो हनुमान ने कहा महाराज में लेकर आया हु तो राम समझ गए इन्हें थोड़ा सा अपने बल पर अहंकार आ रहा तो राम ने कहा हटा लो और सुनते ही हनुमान ने पुरे बल से शिवलिंग को हटाने की कोशिश की पर वह शिवलिंग नही हटा इसलिए राम ने हनुमान को वरदान दिया यहाँ तुम्हारा शिवलिंग भी यहाँ उपस्थित रहेगा रामेश्वरम में हनुमान जी के द्वारा स्थापित एक शिवलिंग है जो हनुमानेश्वर शिवलिंग के नाम से जाना जाता है यज्ञ सम्पन हुआ दोनो यजमानो ने यानी राम और सीता ने आचार्य रावण को प्रणाम किया और राम ने पूछा आचार्य आपकी दक्षिणा तो आचार्य रावण ने कहा मुझे पता है आप वनवासी है तो मुझे क्या दक्षिणा दे सकते है मुझे पता है आप के पास मुझे देने के लिए दक्षिणा नही है और स्वर्णमयी लंका के राजा आचार्य को आप क्या दक्षिणा दे सकते है इसलिए मेरी दक्षिणा आप पर उधार रही तो राम संकोच मे पड़ गये राम ने कहाँ तो आप बता दीजिए मे विधिवत तेयार रहु जब में देने योग्य बन पाऊँ आपको तो क्या रावण ने दक्षिणा माँगी तो रावण ने कहाँ आचार्य होने के नाते में आपसे दक्षिणा माँगता हु जब मेरा अंतिम समय आये तो मेरे यजमान मेरे सामने उपस्थित रहे !

                           🌹यह था रावण🌹

कविता फिर भी मुस्कुराएगी' - भारत यायावर / विजय केसरी

 (29 नवंबर, कवि भारत यायावर की 67 वी जयंती पर विशेष)


झारखंड के जाने माने साहित्यकार कवि, संपादक,  आलोचक, समीक्षक भारत यायावर की कविताएं सदा समय से संवाद करती रहेगी । जब तक यायावर इस धरा पर रहें, सदा गतिशील रहें, सदा रचना रत रहें । साहित्य के अलावा उन्होंने इधर उधर बिल्कुल झांका नहीं। हिंदी साहित्य ही उनके जीवन का सब कुछ था । वे हिंदी साहित्य के इनसाइक्लोपीडिया  बन गए थे । हिंदी साहित्य पर क्या कुछ लिखा जा रहा है ? उनके पास बिल्कुल ताजा जानकारी रहती थी ।  पूर्व के रचनाकारों ने हिंदी साहित्य को किस तरह समृद्ध किया है ? इस पर उनकी टिप्पणी सुनते बनती थी । उनकी बातों को सुनकर प्रतीत होता था कि उन्हें हिंदी साहित्य की कितनी जानकारी है। एक बार प्रख्यात कथाकार रतन वर्मा कवि भारत यायावर के साथ फणीश्वर नाथ रेणु के गांव एक साहित्यिक कार्यक्रम में जा रहे थे। उन दोनों के बीच हिंदी साहित्य पर लंबी वार्ता हुई थी। इस वार्ता पर रतन वर्मा ने कहा कि 'भारत यायावर निश्चित तौर पर हिंदी के एक मर्मज्ञ विद्वान हैं । उन्हें हिंदी साहित्य की हर विधा की जानकारी हैं।

कवि भारत यायावर कि लगभग साठ पुस्तकें प्रकाशित हैं। उनकी कुछ पुस्तकें प्रकाशाधीन हैं। उन्होंने जो कुछ भी रचा और संपादन किया । सभी महत्वपूर्ण कृतियां बन गई है । आज उनके जन्मदिन पर उनकी एक महत्वपूर्ण कृति  'कविता फिर भी मुस्कुराएगी' कविता संग्रह की विशेष रूप से चर्चा करना चाहता हूं। इस संग्रह में कुल उनहत्तर कविताएं दर्ज हैं।  सभी कविताएं विविध विषयों पर लिखी गई हैं। कविताओं के पाठन के उपरांत मैं यह विमर्श कर रहा था कि आखिर भारत यायावर ने इस संग्रह का नामकरण 'कविता फिर भी मुस्कुराएगी' शीर्षक कविता को ही क्यों चुना ? इस संग्रह की कविताओं के पाठन से लगा कि उन्हें संपादन की भी बड़ी अच्छी समझ थी । इस संग्रह का नामकरण इससे बेहतर और कुछ हो भी नहीं सकता था।

'कविता फिर भी मुस्कुराएगी' कविता के माध्यम से कवि भारत यायावर ने दर्ज किया है।  टहनियां सूख जाएंगी/  अपना होने का अर्थ मिट जाएगा/ कविता फिर भी मुस्कुराएगी। इन पंक्तियों के माध्यम से कवि कहते हैं कि टहनियां सुख जाएंगी । अपना होने का अर्थ मिट जाएगा। फिर भी कविता मुस्कुराएगी । अर्थात यह जीवन एक वृक्ष के समान है । समय के साथ एक वृक्ष का उदय होता है । समय के साथ वृक्ष पुष्पित और पल्लवित होता है और  अपना संपूर्ण आकार ग्रहण करता है । लेकिन एक न एक दिन उसकी टहनियां धीरे धीरे कर सूखती चली जाती है।  एक समय ऐसा आता है, जब वृक्ष का अस्तित्व मिट जाता है। लेकिन मनुष्य के जीवन के  वृक्ष से निकले उदगार और कर्म  कविता के रूप में फिर भी मुस्कुराते रहेंगे । भारत यायावर की पंक्तियां एक जीवन के समान हैं।  उनकी पंक्तियां चंद शब्दों के मिलान भर नहीं है, बल्कि मनुष्य का संपूर्ण जीवन है।  मनुष्य का जीवन अनंत काल से है। और अनंत काल तक बना रहेगा । कविता का जन्म ना मरने के लिए होता है । कविता की पंक्तियां कालजई होती हैं । कविता अमरता का वरदान लेकर ही पैदा होती हैं। कविता जब भी किसी पाठक के पास पहुंचती हैं। कविता पुनः गतिशील हो जाती हैं।  कविता गीता के श्लोकों की तरह सदा साक्षी भाव में रहती हैं।  कविता दुःख - सुख दोनों में सदा  मुस्कुराती रहती हैं। यही कविता की खूबसूरती है। कविता किसी राजनेता की आलोचना कर रही होती है, तब भी मुस्कुराती रही होती है। कविता जब किसी श्रमिक के बहते पसीने पर अपनी बात कह रही होती है, तब भी कविता मुस्कुराती रही होती है । कवि के लिए कविता एक जीवन के समान है। जीवन के समान निरंतर गतिमान बनी रहती है । जीवन का आना जाना लगा रहता है।  लेकिन कविता जीवन के आने जाने से मुक्त होकर  कवि के मन के  भावों को सदा सदा के लिए अमर बना देती हैं।

आगे पंक्तियां कहती हैं। कविता / मेरे धीरे-धीरे मरने का संगीत ही नहीं/ कविता/ सृष्टि को अकेले में / या भीड़ में भोगी / संवेदना का गीत ही नहीं /लोग /रेंगते/ घिसटते / थके - हारे लोग / कविता सिर्फ कविता। अर्थात कविता सिर्फ मेरे धीरे धीरे मरने का संगीत ही नहीं बल्कि मेरे जीवन के संघर्ष की सहचर भी हैं। लोग रेंगते हैं। लोग घिसटते हैं।  थक कर चूर हो जाते हैं । इन तमाम संघर्ष और परेशानियों के बीच मनुष्य रहकर भी  चलता ही रहता है । यह संघर्ष ही उसे गतिमान बनाता है। यह परेशानियां ही उसे जीने का एक नया अर्थ प्रदान करती हैं। मनुष्य के जीवन में संघर्ष ना हो।  परेशानियां ना हो।  तब यह जीवन किस काम का ? जीवन के संघर्ष और परेशानियां ही मनुष्य को  साधारण से असाधारण बनाता है । इसलिए मनुष्य को कविताओं से प्रेरणा लेनी चाहिए।  कविता का जन्म किसी भी कालखंड में क्यों ना हुआ हो । जब भी उसे पढ़ा जाता है। कविता पूरी शिद्दत के साथ अपनी बातों को रखती हैं । कविता लोगों को  प्रेरणा देती हैं। फिर मनुष्य क्यों अपने संघर्ष और परेशानियों से घबराता है ? उसे कविता की तरह ही विपरीत परिस्थितियों में भी मुस्कुराने की जरूरत है।

मेरे अंदर / टूटती है शिलाएं रोज / फिर भी मैं गहरे अंधेरे में खो जाता हूं / रोशनी मेरी आंखों में / ढेर सारा धुआं उड़ने लगती है /लगातार जारी इस बहस से/ आजाद कब होओगे, भाई ! / इस विफल यात्रा की झूठ को ढोता थक गया हूं। इन पंक्तियों के माध्यम से कवि बहुत ही महत्वपूर्ण बातों की ओर इशारा करते हुए कहना चाहते हैं कि हर रोज लोगों के अंदर नए-नए विचार उत्पन्न होते हैं । विचारों की शिलाएं रोज बनती हैं। टूटती हैं । और ना जाने ये विचार किस भंवर में समा जाती है ? जैसे लगता है कि आंखों के सामने सब कुछ दिख रहा है।लेकिन कुछ भी  दिख नहीं हो रहा है।  जैसे किसी ने ढेर सारा धुआं आंखों के सामने उड़ेल दिया हो।  जब से मनुष्य आया है।  तब से यह बहस जारी है कि मेरी यह यात्रा किस लिए है ? लेकिन अब तक किसी ने इस यात्रा  के रहस्य को समझा ही नहीं पाया।  मनुष्य अनंत काल से जन्म लेता चला रहा है।  शास्त्र कहते हैं कि मनुष्य का जन्म अनंत काल तक होता रहेगा । मनुष्य एक राहगीर के समान है।  वह इस राह पर कब तक चलता रहेगा ? उसे मालूम ही नहीं । मनुष्य इस विफल यात्रा से मुक्ति चाहता है । आखिर इस विफल यात्रा के झूठ को मनुष्य कब तक ढोता चला जाएगा ? मनुष्य इस यात्रा से मुक्ति की नई राह को ढूंढता नजर आता है।  जिसकी तलाश ना जाने कितने महापुरुषों ने  की थीं । उन्हें इस विफल यात्रा से मुक्ति मिली अथवा नहीं ? ये भी बातें रहस्य बन कर रह गई हैं।

आगे पंक्तियां कहती हैं । आओ / हम अपने को नंगा कर / स्वतंत्र हो जाएं/ यातनाओं के बीच / हमारी अस्मिता का सुंदर रुप हो/ लय हो/ टहनियां सूख जाएंगी/ हमारे होने का अर्थ मिट जाएगा/ कविता फिर भी मुस्कुराएगी। कवि इन पंक्तियों में एक संदेश वाहक के रूप में यह कहना चाहते हैं कि यह जीवन सिर्फ माया का एक बंधन है।  मनुष्य खाली हाथ आया है । और इस धरा से खाली हाथ ही चला जाएगा।  मनुष्य इस धरा से फूटी कौड़ी भी नहीं ले जा सकता है।  तो फिर मनुष्य धन, यश और पद के पीछे क्यों भाग रहा है ?  ये सारी चीजें उसे माया में ही बांधती चली जाएगी।  इसलिए मनुष्य को इन बंधनों से मुक्त होने के लिए नंगा होना होगा । खुद को इन बंधनों से मुक्त करना होगा।  स्वतंत्र होना होगा । तभी इस यात्रा से मुक्ति संभव है।  जीवन में जो दुःख, संघर्ष, खुशी आदि हैं।  इन्हीं के बीच अपनी अस्मिता को सुंदर बनाया जा सकता है।  जब मनुष्य माया के बंधनों से मुक्त होता है, तभी उसका रूप निखर कर सुंदर होता है। और इसी रूप का लय होना सच्चे अर्थों में इस यात्रा से मुक्ति का मार्ग है ।


विजय केसरी,

( कथाकार / स्तंभकार) 

पंच मंदिर चौक, हजारीबाग - 825 301

 मोबाइल नंबर : 92347 99550.

बुधवार, 24 नवंबर 2021

 मेरे आसपास के लोग /  टिल्लन रिछारिया मेरे आसपास के लोग 


स्मृतियों की परछाइयाँ !… समय की मुठ्ठी में जीवंत और महसूस होता अतीत कभी-कभी वर्तमान भी ज्यादा मुखर हो उठता है … सब अभी-अभी घट रहा जैसा ! तारीखों के फासले बेमानी है … स्मृतियों की किताब के पन्ने … उन पर गुजरते-संवरते लोग … सब आप के मुखातिब करता हूँ ! ये सब जो मुझे सँवार रहे हैं … निखार रहे हैं … सब को हाजिर- नाज़िर मान कर आप के रू-ब-रू होता हूँ … यानी ' मैं जो हूँ ' !   


ये सारी स्मृतियां एक किताब में दर्ज हो रहीं हैं । एक किताब नाकाफ़ी है इन स्मृतियों को संजोने के लिए पर कागज़ में उतारने का बहाना तो है । इस प्रक्रिया को मैंने जटिल होने से बचाया है । यह किसी लेखक की अभिव्यक्तियाँ नहीं हैं । यह एक दृष्टा की साक्षी भाव से व्यक्त प्रामाणिक प्रस्तुतियां हैं । बेशक इनमें लेखकीय अनुशासन न हो पर यह स्मृतियों के प्रामाणिक दस्तावेज हैं । ...ये विद्वता से परे सहज रूप से व्यक्त भाव हैं ।...ये किसी रचनाकार के अनुशासित लेखन कर्म यानी इत्मीनान से टेबल कुर्सी पर वैठ कर लिखी गई प्रस्तुतियां नहीं बल्कि चलते चलाते , खड़े बैठे , पार्क , मेट्रो , रेस्तरां में सेल फोन पर दर्ज होती गईं अभिव्यक्तियाँ हैं । इस किताब के लेखन के दौरान हमारा कंपट्यूटर हमसे दूर हो गया , वजह छोटे पौत्र रुद्र की झपटमारी से कंपट्यूटर को बचाना पड़ा । अभी जब बड़े पौत्र ने किताब का कवर देखा तो कहा कि इसमें तो आप के आसपास कोई नहीं जब कि टाइटल आसपास के लोग है । इसमें अपने साथ मेरा और रुद्र का भी फोटो लगाओ या फिर टाइटल ही दूरदराज के लोग कर दो ।


मैंने गंगा तट ऋषिकेश के परमार्थ आश्रम के प्रवास में , सुबह दोपहर शाम और चांदनी रातों में गंगा को निहारते , स्पर्श करते और चलते फिरते , गंगा से बात करते पांच गंगा गीत ' गंगा गीतम ' लिखें हैं , इन्हें एक फोल्डर के रूप में प्रिन्ट कर करके आप तक पहुचाया भी हैं -


देवि गंगे धरा पर स्वागतम...


 

स्वागतम...सुस्वागतम ...

देवि गंगे !...धरा पर स्वागतम !

स्वागतम...सुस्वागतम ...

नमामि गंगे !...धरा पर स्वागतम !!

 

  तुम धरा का प्राण-जीवन 

  तुम धरा की आरती !

  तुम प्रकृति की पूज्य तनया 

  तुम पर निछावर भारती !!

 

देवि गंगे !...धरा पर आगमन हो शुभम !

स्वागतम...सुस्वागतम ...

देवि गंगे !...धरा पर स्वागतम !

 

  तुम धरा की गीत हो 

  काल तुमको गा रहा है!

  सुर,ताल, लय , संगीत हो तुम 

  महाकाल तुमको गा रहा है !!

 

 

देवि गंगे !... तुम हो धरा का मन-मरम !

स्वागतम...सुस्वागतम ...

देवि गंगे !...धरा पर स्वागतम !!

 

  तुम धरा पर सत्य हो 

  सत्य का आधार हो !

  सत्य की हो तुम गवाही 

  तुम सत्य का साकार हो !!

 

 

देवि गंगे !...धरा पर तुम ही सत्यम !

स्वागतम...सुस्वागतम ...

देवि गंगे !...धरा पर स्वागतम !!

 

 

  शिव सत्व हो तुम,कल्याण तुम हो

  प्रेरणा हो ,धरा के प्राण तुम हो !

  सभ्यता के हर सर्ग की तुम ही रचयिता

  मानवों के अभिशाप का त्राण तुम हो !!

 

 

देवि गंगे !...धरा पर तुम ही हो शिवम् !! 

स्वागतम...सुस्वागतम ...

देवि गंगे !...धरा पर स्वागतम !!

 

 

 

  सहज सुन्दर , देवि छवि , तुम पतित पावन

  धरा है तुम्हारी अल्पना-संकल्पना !

  देव,सुर,नर क्या कर सकेंगे 

  तुम्हारी छवि से मुखर , और कोई कल्पना !!

 

 

देवि गंगे !... तुम धरा पर सुन्दरम ...अति सुन्दरम !!

स्वागतम...सुस्वागतम ...

देवि गंगे !...धरा पर स्वागतम !!

 

 

 

  शिव,सत्य,सुन्दर जो भी धरा पर 

  सब आपका विस्तार है !

  खेत,वन,उपवन और मानवों पर 

  आपका उपकार है !!

 

 

देवि गंगे !...तुम ही सत्यम,शिवम्,सुन्दरम !

नमामि गंगे !...तुम ही सत्यम,शिवम्,सुन्दरम !!

 

स्वागतम...सुस्वागतम ...

देवि गंगे !...धरा पर स्वागतम !!


ये गीत कॉपीराइट के झमेले से पूर्णतः मुक्त हैं । ...मौलिक ! ये मौलिक क्या है , वह कोई एक शब्द जो आप अपनी अभिव्यक्ति के लिए प्रयोग कर रहे हैं वह आपका सृजन है क्या ।इस सृष्टि में जो कुछ भी है आप उसके उपभोक्ता हो सर्जक नहीं । ये शरीर , रूप ,रंग , माकान , दूकान के आप मालिक नहीं किरायेदार हो , केवल उपभोक्ता । 


हर साल शरीर की बढ़ती उम्र का जश्न मनाते हुए आपकी अमृत की चाह और बढ़ती जाती है । ...अमृत तो मृगतृष्णा हैं ।


आप की नज़र यह मेरी पहली किताब है। कितनी सार्थक , कितनी ग्राह्य , कितनी उपयोगी है , यह आप सब पाठकों को तय करना है। इसमें आप से जुड़े प्रसंग हैं। यथासंभव प्रयास किया गया है की प्रस्तुति मर्यादित हो , सुरुचिपूर्ण हो। ...इसमें वे लोग ही शामिल हुए हैं जो कभी न कभी मेरे साथ संग गुज़रे हैं। उल्ल्खित व्यक्तियों का उतना ही ज्रिक है जितने प्रसंग तक उनका सन्दर्भ है।


मैं उन सभी का आभार व्यक्त करता हूं जो इस किताब के लिखने में प्रेरक तत्व रहे हैं। किताब के प्रकाशन करने वाली संस्था का आभार।


स्मृतियों की परछाइयाँ !… समय की मुठ्ठी में जीवंत और महसूस होता अतीत कभी-कभी वर्तमान  भी ज्यादा मुखर हो उठता है … सब अभी-अभी घट  रहा जैसा ! तारीखों के फासले बेमानी है …  स्मृतियों   की किताब के पन्ने … उन पर गुजरते-संवरते लोग … सब आप के मुखातिब करता हूँ ! ये सब जो मुझे सँवार रहे हैं … निखार रहे  हैं … सब को हाजिर- नाज़िर मान कर आप के रू-ब-रू होता हूँ … यानी ' मैं जो हूँ '  !   


ये सारी स्मृतियां एक किताब में दर्ज हो रहीं हैं । एक किताब नाकाफ़ी है इन स्मृतियों को संजोने के लिए पर कागज़ में उतारने का बहाना तो है । इस प्रक्रिया को मैंने जटिल होने से बचाया है । यह किसी लेखक की अभिव्यक्तियाँ नहीं हैं । यह एक दृष्टा की साक्षी भाव से व्यक्त प्रामाणिक प्रस्तुतियां हैं । बेशक इनमें लेखकीय अनुशासन न हो पर यह स्मृतियों के प्रामाणिक दस्तावेज हैं । ...ये विद्वता से परे सहज रूप से व्यक्त भाव हैं ।...ये किसी रचनाकार के  अनुशासित लेखन कर्म यानी इत्मीनान से टेबल कुर्सी पर वैठ कर लिखी गई प्रस्तुतियां नहीं बल्कि चलते चलाते , खड़े बैठे , पार्क , मेट्रो , रेस्तरां में सेल फोन पर दर्ज होती गईं अभिव्यक्तियाँ हैं । इस किताब के लेखन के दौरान हमारा कंपट्यूटर हमसे दूर हो गया , वजह छोटे पौत्र रुद्र की झपटमारी से कंपट्यूटर को बचाना पड़ा । अभी जब बड़े पौत्र ने किताब का कवर देखा तो कहा कि इसमें तो आप के आसपास कोई  नहीं जब कि टाइटल आसपास के लोग है । इसमें अपने साथ मेरा और रुद्र का भी फोटो लगाओ या फिर टाइटल ही दूरदराज के लोग कर दो ।


मैंने गंगा तट ऋषिकेश के परमार्थ आश्रम के प्रवास में   ,  सुबह दोपहर शाम और चांदनी रातों में गंगा को निहारते , स्पर्श करते और  चलते फिरते , गंगा से बात करते पांच गंगा गीत ' गंगा गीतम '  लिखें हैं , इन्हें एक फोल्डर के रूप में प्रिन्ट कर  करके आप तक पहुचाया भी हैं -


देवि गंगे धरा पर स्वागतम...


 

स्वागतम...सुस्वागतम ...

देवि गंगे !...धरा पर स्वागतम !

स्वागतम...सुस्वागतम ...

नमामि गंगे !...धरा पर स्वागतम !!

 

  तुम धरा का प्राण-जीवन 

  तुम धरा की आरती !

  तुम प्रकृति की पूज्य तनया 

  तुम पर निछावर भारती !!

 

देवि गंगे !...धरा पर आगमन हो शुभम !

स्वागतम...सुस्वागतम ...

देवि गंगे !...धरा पर स्वागतम !

 

  तुम धरा की गीत हो 

  काल तुमको गा रहा है!

  सुर,ताल, लय , संगीत हो तुम 

  महाकाल तुमको गा रहा है !!

 

 

देवि गंगे !... तुम हो धरा का मन-मरम !

स्वागतम...सुस्वागतम ...

देवि गंगे !...धरा पर स्वागतम !!

 

  तुम धरा पर सत्य हो 

  सत्य का आधार हो !

  सत्य की हो तुम गवाही 

  तुम सत्य का साकार हो !!

 

 

देवि गंगे !...धरा पर तुम ही  सत्यम !

स्वागतम...सुस्वागतम ...

देवि गंगे !...धरा पर स्वागतम !!

 

 

  शिव सत्व हो तुम,कल्याण तुम हो

  प्रेरणा हो ,धरा के प्राण तुम हो !

  सभ्यता के हर सर्ग की तुम ही रचयिता

  मानवों के अभिशाप का त्राण तुम हो !!

 

 

देवि गंगे !...धरा पर तुम ही हो शिवम् !! 

स्वागतम...सुस्वागतम ...

देवि गंगे !...धरा पर स्वागतम !!

 

 

 

  सहज सुन्दर , देवि छवि , तुम पतित पावन

  धरा है तुम्हारी अल्पना-संकल्पना !

  देव,सुर,नर क्या कर सकेंगे 

  तुम्हारी छवि से मुखर , और कोई कल्पना !!

 

 

देवि गंगे !... तुम धरा पर सुन्दरम ...अति सुन्दरम !!

स्वागतम...सुस्वागतम ...

देवि गंगे !...धरा पर स्वागतम !!

 

 

 

  शिव,सत्य,सुन्दर जो भी धरा पर 

  सब आपका विस्तार है !

  खेत,वन,उपवन और मानवों पर 

  आपका उपकार है !!

 

 

देवि गंगे !...तुम ही सत्यम,शिवम्,सुन्दरम !

नमामि गंगे !...तुम ही सत्यम,शिवम्,सुन्दरम !!

 

स्वागतम...सुस्वागतम ...

देवि गंगे !...धरा पर स्वागतम !!


ये गीत कॉपीराइट के झमेले से पूर्णतः मुक्त हैं । ...मौलिक ! ये मौलिक क्या है , वह  कोई एक शब्द जो आप अपनी अभिव्यक्ति के लिए  प्रयोग कर रहे हैं वह आपका सृजन  है क्या ।इस सृष्टि में जो कुछ भी है आप उसके उपभोक्ता हो सर्जक नहीं । ये शरीर , रूप ,रंग , माकान , दूकान के आप मालिक नहीं किरायेदार हो , केवल उपभोक्ता । 


हर साल शरीर की बढ़ती उम्र का जश्न मनाते हुए आपकी अमृत की चाह और बढ़ती जाती है । ...अमृत तो मृगतृष्णा हैं ।


आप की नज़र यह मेरी  पहली किताब है। कितनी सार्थक , कितनी ग्राह्य , कितनी उपयोगी है , यह आप सब पाठकों को तय करना है। इसमें आप से जुड़े प्रसंग हैं। यथासंभव प्रयास  किया गया है की प्रस्तुति मर्यादित हो , सुरुचिपूर्ण हो। ...इसमें वे लोग ही शामिल हुए हैं जो कभी न कभी मेरे साथ संग गुज़रे हैं। उल्ल्खित व्यक्तियों का उतना ही ज्रिक है जितने प्रसंग तक उनका सन्दर्भ है।


मैं उन सभी का आभार व्यक्त करता हूं जो इस किताब के लिखने में प्रेरक तत्व रहे हैं। किताब के प्रकाशन करने वाली संस्था का आभार।

धीरेन्द्र अस्थाना की कहानी नींद बाहर पर

 हिंदी और अंग्रेजी दोनों में समान रूप से गतिशील और प्रतिष्ठित,नयी पीढ़ी के प्रखर और विरल रचनाकार

आशुतोष भारद्वाज ने मेरी कहानी

'नींद बाहर' पढ़ कर एक विचारोत्तेजक खत भेजा है जिसे आप मित्रों के लिए साझा कर रहा हूं---

टिप्पणी 

आदरणीय धीरेंद्र जी,


जब आपने कहा था कि यह कहानी निर्मल वर्मा और राजेंद्र यादव, दोनों को पसंद आयी थी तो मुझे आश्चर्य नहीं हुआ था। वे भले ही विपरीत वैचारिक ध्रुवों पर दिखाई देते हों, दोनों उत्कृष्ट गद्य के पारखी थे। यादव जी से मेरी कई मुलाक़ातें थीं। हंस के पच्चीस वर्ष पूरे होने पर मैंने यादव जी पर इंडियन एक्सप्रेस में लम्बा लेख लिखा था। वे  निर्मल से सार्वजनिक तौर ज़रूर लड़ते रहे हों, मेरे साथ बातचीत में वे निर्मल की उपस्थिति का सम्मान करते थे। निर्मल की कहानी 'सूखा' हंस में ही छपी थी। 

कुछ क्रांतिवीरों को यह जानकर शायद अचम्भा होगा कि ज्ञान रंजन की कहानियों के अंग्रेज़ी अनुवाद का ब्लर्ब निर्मल ने लिखा था, और आगे चल मंगलेश डबराल ने अपनी एक किताब जिन लेखकों को समर्पित की थी, उनमें शमशेर बहादुर सिंह के साथ 'गद्य शिल्पी' निर्मल वर्मा भी थे। मंगलेश जी ने अज्ञेय के जाने के बाद बड़ा मार्मिक संस्मरण भी लिखा था, यह रेखांकित करते हुये कि  "यह एक ऐसे कवि और शिल्पी का जाना है जिसने हिंदी कविता को छायावादी कुहासे से बाहर लाकर एक नयी भावभूमि दी, आधुनिक चेतना से उसका संस्कार किया...आज हिंदी में जो आधुनिक, विश्व-स्तर पर रख सकने लायक कविता लिखी जा रही है, वह शायद संभव न होती अगर उसके स्रोत पर वात्स्यायन का योगदान न हुआ होता।" 


ख़त के आरम्भ में यह भूमिका कुछ निर्मल और यादव जी के स्मरण से उपजी, और कुछ आपकी कहानी से। एक धीमा और बारीक भय इस कहानी पर रिसता रहता है, अयोध्या का साया काली चील की तरह मँडराता रहता है। कहानी के पन्नों में अयोध्या सिर्फ़ एक स्याह आशंका है, एक घबराई फुसफुसाहट, एक मचलता संकेत जो किरदारों को मथता रहता है, लेकिन चूँकि यह सतह पर नहीं फूटता, पाठक को हमेशा सतर्क रखता है। ब्योरों का (सायास) अभाव किसी आख्यान को किस क़दर कोंचता और कुरेदता रहता है, यह कहानी उसका उदाहरण है। इस कहानी की राजनीति इस सम्भावना में मुकम्मल हो जाती है कि शायद धनराज एक ईंट लेकर अयोध्या जाता दिखाई दिया था। कहानी यह नहीं कहती कि वह अयोध्या पहुँच गया था या गया भी था, सिर्फ़ जाता दिखाई दिया था। 


जोधपुर से एक व्यक्ति सिनेमा के सपने लिए बम्बई आता है, विफल होने पर व्यापार करने लगता है, और फिर अचानक एक ईंट लिए अयोध्या जाता दिखाई देता है। यह समूचा कारोबार नींद के बाहर घटित होता है। लेकिन हम ख़ुद को बहलाते चलते हैं कि हम शायद कोई डरावना सपना देख रहे हैं, इस जागृत सांत्वना के साथ कि नींद टूटते ही हम अपने सुख में लौट आएँगे, जबकि नींद ने कबका हमें उठाकर बाहर फेंक यक्ष दिया था। 

कोई कहानी शायद इसी तरह मुकम्मल होती होगी।  

  

सादर, 

आशुतोष

शनिवार, 20 नवंबर 2021

कैसी आज़ादी? ओशो

 रहना है आज़ाद केवल भीड़ में


 प्रश्न:

 "ओशो, हर बार जब मैं खुद के साथ होता हूं तो मैं अलग, अकेला और दुखी महसूस करता हूं। मैं केवल खुद से प्यार करता हूं जब मैं दूसरों के साथ होता हूं। अगर मैं अकेला हूं तो मुझे शर्म आती है और मैं असहज महसूस करता हूं। यह ऐसा है जैसे मैं खुद को दूसरों की नजरों से आंकता हूं। अन्य"।


 यह सिर्फ आप पर निर्भर नहीं है।  जिस तरह से बच्चों का पालन-पोषण होता है, वह इस सारे दुख का कारण है।  कोई भी बच्चा जैसे वह है उसे स्वीकार नहीं किया जाता है।  माता-पिता, शिक्षकों, बड़ों के निर्देशों का पालन करने पर उसे पुरस्कृत किया जाता है।  ये निर्देश उसके स्वभाव के खिलाफ जा सकते हैं क्योंकि ये निर्देश उसके द्वारा या उसके लिए नहीं बनाए गए थे।  पांच हजार साल पहले किसी ने इन सिद्धांतों को बनाया था और वे अभी भी बच्चों के विकास में उपयोग किए जा रहे हैं।


 स्वाभाविक रूप से, हर बच्चा जगह से बाहर है।  वह अपने अस्तित्व में नहीं है।  वह खुद नहीं है;  वह कोई और है।  कि कोई और आपको समाज द्वारा दिया जाता है, दूसरों द्वारा।


 इसलिए जब आप अकेले होते हैं और आपको निर्देश देने वाला कोई नहीं होता है, तो आप बस अपने स्वभाव में आराम करते हैं।  किसी चीज का प्रतिनिधित्व करने की जरूरत नहीं है क्योंकि देखने वाला कोई नहीं है।  आपके स्वभाव में यह छूट आपको दोषी महसूस कराती है।


 तुम अपने माता-पिता के खिलाफ जा रहे हो, पुजारियों के खिलाफ, समाज के खिलाफ;  और उन्होंने तुम से कहा, कि तुम अकेले ही सही नहीं हो।  आपने इसे स्वीकार कर लिया।  यह तुममें कुछ वातानुकूलित हो गया है।


 आप अपने लिए जो कुछ भी करते हैं उसकी हमेशा निंदा की जाती है और आप जो कुछ भी दूसरों का अनुसरण करते हैं उसकी हमेशा प्रशंसा की जाती है।


 तुम्हारे एकांत में और कोई नहीं है।  बेशक, आपको कार्य करने की आवश्यकता नहीं है;  आपको पाखंडी होने की जरूरत नहीं है।  आप जो हैं उसमें बस आराम करें;  हालाँकि, उसका दिमाग दूसरों द्वारा दिए गए मलबे से भरा हुआ है।


 इसलिए जब आप दूसरों के साथ होते हैं, तो दूसरे आप पर हुक्म चला रहे होते हैं;  और जब आप अकेले होते हैं, तो दूसरों द्वारा बनाया गया मन आपको कुरूप, दोषी, तुच्छ महसूस कराता है।


 इसलिए लोग अकेले रहना पसंद नहीं करते।  वे हमेशा किसी और के साथ रहना चाहते हैं, क्योंकि किसी और के साथ वे अपने स्वभाव में आराम नहीं कर सकते।  दूसरे की मौजूदगी उन्हें तनाव में रखती है।  दूसरा वहां है, हर पल, हर कार्य और हर इशारे को देखते हुए जो आप करने वाले हैं।


 तो आप बस एक निश्चित कार्य का प्रतिनिधित्व करते हैं जो आपको बताया गया है कि वह सही है।  तो तुम्हारा मन अच्छा लगता है: यह कंडीशनिंग के अनुसार है।  आपका मन प्रसन्न है कि आपने अच्छा किया;  तुम बहुत खूब हो।


 व्यक्ति को भीड़ की जरूरत होती है।  यही मनोवैज्ञानिक कारण है कि वे हमेशा हिंदू धर्म, ईसाई धर्म, मुस्लिम धर्म, उस देश, उस देश से संबंधित होना चाहते हैं।  उस दौड़ को, उस दौड़ को।  और अगर वह पर्याप्त नहीं है, तो वे रोटरी क्लब, लायन क्लब बनाते हैं।


 वे अकेले नहीं हो सकते।  उन्हें लगातार लोगों से घिरे रहने की जरूरत है।  तभी वे तनाव को जीवित रख सकते हैं, कार्य को जीवित रख सकते हैं।  भीड़ में, वे स्वयं नहीं हो सकते।


 अकेले, क्यों डर रहे हो?  अकेले रहना सबसे खूबसूरत अनुभवों में से एक है।  अब आप दूसरों से परेशान नहीं हैं;  आप अब अपने आप को कुछ ऐसा करने के लिए मजबूर नहीं कर रहे हैं जिसकी अपेक्षा की जाती है।  केवल, आप जो चाहते हैं वह कर सकते हैं।  आप जो चाहते हैं उसे महसूस कर सकते हैं।  आपको बस अपने दिमाग से अलग होने की जरूरत है।


 आपका दिमाग आपका दिमाग नहीं है।  आपका दिमाग सिर्फ उस भीड़ का एजेंट है जिससे आप संबंधित हैं।  वह आपकी सेवा में नहीं है;  वह भीड़ की सेवा में है।  भीड़ ने आपके दिमाग में एक जासूस डाल दिया है जो आपको मजबूर करता रहता है, भले ही आप अकेले हों, नियमों से खेलने के लिए।


 सारा रहस्य मन को साक्षी देना है;  अपने स्वभाव को अनुमति दें और मन से स्पष्ट रूप से कहें, “तुम मेरे नहीं हो।  मैं तुम्हारे बिना दुनिया में आया।  आप मुझे बाद में शिक्षा द्वारा दिए गए, उदाहरण के लिए।  तुम कुछ अजनबी हो;  तुम मेरे स्वभाव का हिस्सा नहीं हो।  इसलिए, कम से कम जब मैं अकेला हो, तो मुझे अकेला छोड़ दो।"


 आपको कहना सीखना होगा, "चुप रहो!"  मन और अपने स्वभाव को पूरी तरह से मुक्त होने दें।


 - ओशो, इससे निकाले गए: मृत्यु से मृत्यु तक।

प्रेम / ओशो

 मेरे देखे मनोविज्ञान यही है कि धनी आदमी में प्रेम नहीं होता। असल में धन को कमाने में उसको अपने प्रेम को बिलकुल नष्ट कर देना होता है।


प्रेमी धन कमा नहीं सकता। कमा भी ले, तो बचा नहीं सकता। एक तो कमाना मुश्किल होगा प्रेमी को, क्योंकि उसे हजार करुणाएं आएंगी। वह किसी की छाती में छुरा नहीं भोंक सकेगा। और किसी की जेब भी नहीं काट सकेगा। किसी से ज्यादा भी नहीं ले सकेगा। डांडी भी नहीं मार सकेगा। धोखा भी नहीं कर सकेगा। जालसाजी भी नहीं कर सकेगा। जिसके हृदय में प्रेम है, वह ज्यादा से ज्यादा अपनी रोटी—रोजी कमा ले, बस, बहुत। उतना भी हो जाए तो बहुत!


धन इकट्ठा करने के लिए तो हिंसा होनी चाहिए। धन इकट्ठा करने के लिए तो कठोरता होनी चाहिए। धन इकट्ठा करने के लिए तो छाती में हृदय नहीं, पत्थर होना चाहिए, तभी धन इकट्ठा होता है।


तो धन प्रेम की हत्या पर इकट्ठा होता है। और जिसके प्रेम की हत्या हो जाती है, वह बांझ हो जाता है। वह सब अर्थों में बांझ हो जाता है। उसके जीवन में फूल लगते ही नहीं। संतति तो फूल है। जैसे वृक्ष में फूल लगते, फल लगते। लेकिन अगर वृक्ष में रसधार बहनी बंद हो जाए, तो फिर फूल भी नहीं लगेंगे, फल भी नहीं लगेंगे। संतति तो फल और फूल हैं तुम्हारे जीवन में। तुम्हारे प्रेम की धारा बहती रहे, तो ही लग सकते हैं।


इसके पीछे बड़ा मनोवैज्ञानिक कारण है। जितना ज्यादा धनी, उतना ही प्रेम में दीन हो जाता है। अक्सर तुम गरीबों को प्रेम से भर हुआ पाओगे, अमीरों को प्रेम से रिक्त पाओगे। यह आकस्मिक नहीं है। बात उलटी है।

तुम सोचते हो. गरीब आदमी प्रेमी है। असल बात यह है कि प्रेमी आदमी गरीब रह जाता है। बात उलटी है। तुम सोचते हो अमीरों में प्रेम क्यों नहीं? तुम समझे ही नहीं। प्रेम ही होता, तो वे अमीर कैसे होते! अमीर होना कठिन हो जाता। प्रेम को तो मारकर चलना पडा। प्रेम को तो काट देना पड़ा। प्रेम को तो गड़ा देना पडा जमीन में। जिस दिन उन्होंने अमीर होना चाहा, जिस दिन अमीर होने की आकांक्षा जगी, उसी दिन प्रेम की हत्या हो गयी। प्रेम की लाश पर ही अमीरी के महल खड़े हो सकते हैं, नहीं तो नहीं खड़े हो सकते। प्रेम से कीमत चुकानी पड़ती है।


और प्रेम तुम्हारी आत्मा की सुगंध है। आत्मा की सुगंध खो जाती है और तुम्हारी देह धन से घिर जाती है। तुम्हारे पास जड़ वस्तुएं इकट्ठी हो जाती हैं, और तुम्हारा जीवन—स्रोत सूखता चला जाता है।


इसलिए अमीर से ज्यादा गरीब आदमी तुम न पाओगे। उसकी गरीबी भीतरी है। उसके भीतर सब सूख गया। उसके भीतर कोई रस नहीं बहता अब। उसका जीवन बिलकुल मरुस्थल जैसा है। वहां कोई हरियाली नहीं है। कोई पक्षी गीत नहीं गाते। कोई मोर नहीं नाचते। कोई बांसुरी नहीं बजती। कोई रास नहीं होता। सूख गयी इस जीवन चेतना में ही संतति के फल लगने कठिन हो जाते हैं।


ओशो

शुक्रवार, 19 नवंबर 2021

गगन गिल की कविता


___________________


=====================================================

ज़रा धीरे चfलो, वनकन्या


ज़रा धीरे चलो, वनकन्या


बीज सो रहा है

मिट्टी में


घास चल रही है

धरती में


बर्तन लुढ़क रहे हैं

भीतर तुम्हारे आले से


जहाँ भी रखती हो पाँव

दरक रही है धरती


ज़रा धीरे चलो, वनकन्या


पछाड़ दिया है तुमने

ऋतु-चक्रों को

पुरखों को

गिद्धों को


पछाड़ दिया है तुमने

संवत्सर को

सूर्य और

स्मृति को


कब का हुआ मिट्टी

तुम्हारे हृदय का वह टुकड़ा


यहाँ रख दो उसे

ऊँची इस शिला पर


जाने दो उसे


सूर्य की ओर

वायु की ओर

रश्मि की ओर


बीत गया युग एक


धीरे-धीरे

लौटो अब

वनकन्या


 


देवता हो, चाहे मनुष्य


देवता हो, चाहे मनुष्य

देह मत रखना किसी के चरणों में


देह बड़ी ही बन्धनकारी, वनकन्या!


सुलगने देना

अपनी बत्ती

अपना दावानल


साफ होने देना खेत

जल लेने देना

पुराना घास-फूस


अपनी मज्जा

अपनी अग्नि

परीक्षा अपनी


डरना मत किसी से, वनकन्या


धीमे-धीमे बनना लौ

उठती सीधी

रीढ़ में से ऊपर


साफ

निष्कम्प

नीली लौ


अपनी देह

अपना यज्ञ

अपनी ज्वाला


फिर निकलना दूर

इस यज्ञ से भी


खड़े होना

अकेले कभी

आकाश तले


मात्र एक हृदय


नग्न और देह विहीन


निष्कलुष

पारदर्शी


आसान नहीं होगा यह

बहुत मुश्किल भी नहीं, वनकन्या

रहना बिन देह के


लौटना मत इस बार

किसी कन्दरा

किसी कुटिया में


लौटना यदि किसी दिन

तो लौटना यहीं

इस हृदय में अपने


देह बड़ी ही बन्धनकारी, वनकन्या!


इसे मत रख देना

किसी की देहरी पर


देवता हो

चाहे मनुष्य


 


तुम्हें भी तो पता होगा


मैं क्यों दिखाऊँगी तुम्हें

निकाल कर अपना दिल


तुम्हें भी तो

पता होगा


कहाँ लगा होगा

पत्थर

कहाँ हथौड़ी


कैसे ठुकी होगी

कुंद एक कील

किसी ढँकी हुई जगह में


कैसे सिमटा होगा

रक्त

नीचे चोट के

गड्ढे में


नीला मुर्दा थक्का

बहता हुआ

ज़िंदा शरीर में


तुम्हें भी तो दिखता होगा

काँच जैसा साफ?


मैं क्यों दिखाऊँगी तुम्हें

अपना आघात?


तुम्हें भी तो

पता होगा


कितने दबाव पर

टूट जाती है टहनी

उखड़ जाता है पेड़

पिचक जाता है बर्तन


तार जब काट देता है हड्डी

फेंक देता है

उछाल कर बाज़ू

हवा में


तुम्हें भी तो

पता होगा

कितना सह सकता है मनुष्य

कितना नहीं?


कितना कर सकता है क्षमा

कितना नहीं?


कोई क्यों मांगेगा

किसी और के किये की क्षमा

भले कितना ही अंधेरा हो

पीड़ा का क्षण?


कोई क्यों हटायेगा

सामने से अपने

भेजा तुम्हारा प्याला?


क्यों नहीं लेगा कोई

तुम्हारी भी परीक्षा?

कि देख सकते हो कितना तुम?

सह सकते हो कितना?


कैसे चटकता है कपाल

भीतर ही भीतर


उठता है रन्ध्र एक

धीरे-धीरे ऊपर

किस पीड़ा में


तुम्हें भी तो

पता होगा

कुछ?


मैं क्यों कहूँगी तुमसे

अब और नहीं

सहा जाता

मेरे ईश्वर?


 


इस तरह


इस तरह शुरू होती है यात्राएं

एक पत्थर टकरा कर

आपके पाँव से

गिर जाता है नीचे

घाटी में


पल भर के लिए आप

भौंचक रह जाते हैं


रास्ते की बजाय नीचे घाटी में

दिखती है नदी

सुंदर नहीं, भयानक


आप चढ़ाई चढ़ रहे होते हैं

तोड़ देता है

हवा का दबाव

सीने का पिंजरा

निकल आता है बाहर

धक्-धक् करता दिल


आँखों के आगे

छा जाती है काली धुंध


कुछ समझ नहीं पाते आप

ऊपर जाएँ या नीचे


कि तभी

पहाड़ की चट्टान में से

झांकते हैं

नन्हे नीले फूल


उड़ जाती है एक तितली

छू कर आपकी बांह


घास उठाती है

हलके से अपना सिर


आप मुस्कराते हैं

हौले से


और देखते हैं

आप ही नहीं हैं

प्रकृति में अकेले

एकांत में मुस्काने वाले


फूल हैं

और तितलियाँ

और बच्चे

बहुत बूढ़े हो गए

समय के उस पार चले गए

कुछ लोग


सब मुस्करा रहे हैं अकेले-अकेले

ठीक इस वक्त


सब चलते हैं अकेले

रुकते हैं, मुड़ते हैं


पता ही नहीं चलता उन्हें

अकेले नहीं वे

जब तक छू न जाए उन्हें

तितली का पंख


इस तरह शुरू होती हैं यात्राएं

एक पत्थर से

दूसरे पत्थर तक

रुक-रुक कर


धीरे-धीरे पहुंचते हैं आप

चोटी तक

देखते हैं मुड़ कर


न कहीं फूल दिखाई देते हैं

न तितली


न वह पत्थर

जो एक दोपहर

आपके पैर से टकराया था

आप लुढकने वाले थे नीचे घाटी में


कैसे नादान थे आप

सोचते थे तब

गिरे तो मरे


जानते न थे

इसी तरह होती हैं यात्राएं


 


इस तरह खोलते हैं लंगर


इस तरह आप खोलते हैं लंगर

हवा में एकटक ताकते हुए

लहर को धकेलते हुए भीतर

पीड़ा ने डुबो रखा था आपको

गर्दन से पकड़ कर


एक सांस और

बस एक सांस


एक झोंका और

थोड़ी सी हवा बस


आप खोलते हैं

अपने लंगर

जैसे काटते हों कोई टांका

किसी घाव का


अब वहां सूखी गड़न है केवल

स्मृति किसी चोट की


अब सब गड़बड़ है

स्मृति भी

चोटों का हिसाब भी


कहीं जाना न था

आपको

कहीं आना न था


आप यहीं रुकना चाहते थे

सदा के लिए

गाड़ना चाहते थे

अपना खूंटा

जैसे कोई चट्टान हों आप

या कोई पत्थर


इतने भारी

इतने थिर होना चाहते थे आप

कि कोई

हिला न सके आपको

कर न सके विस्थापित


कितनी मृत्युएँ लिये अपने भीतर

घूमते रहे बेकार आप

भारी मश्क लेकर


आप खोलते हैं अपने लंगर

और कोई नहीं रोकता

आपकी राह

कोई नहीं पुकारता

किनारे से


कोई यह तक नहीं देखता

कि आप उठ गए हैं

सभा से


कि खाली होने से पहले ही

भर गयी है आपकी जगह


पानी पर लिखीं थीं

आपने इबारतें

सन्नाटे में सुनीं थीं

अपनी ही प्रार्थनाएँ


आपको पता भी नहीं चला

हवा ले गयी

धीरे-धीरे

चुरा कर आपके अंग


कि अब आप ही हैं धूल

अपनी आँखों की


छाया की तरह आप

गुज़रते हैं

इस पृथ्वी पर से

इस दिन पर से

इस क्षण पर से


काश कोई

ग्रहण ही हुए होते आप

बने होते

हवा और रश्मि के


कहीं रह जाता आपका निशान

समय चक्र / तकनीक से पहले

 *”समय चक्र”*/ रवि सिन्हा 


मिट्टी के बर्तनों से स्टील और प्लास्टिक के बर्तनों तक,

और फिर कैंसर के खौफ से दोबारा मिट्टी के बर्तनों तक आ जाना।।


अंगूठाछाप से दस्तखतों (Signatures) पर,

और फिर अंगूठाछाप (Thumb Scanning) पर आ जाना।।


फटे हुए सादा कपड़ों से साफ सुथरे और प्रेस किए कपड़ों पर,

और फिर फैशन के नाम पर अपनी पैंटें फाड़ लेना।।


सूती से टैरीलीन, टैरीकॉट और फिर वापस सूती पर आ जाना।।


ज़्यादा मशक़्क़त वाली ज़िंदगी से घबरा कर पढ़ना लिखना,

और फिर IIM MBA करके आर्गेनिक खेती पर पसीने बहाना।।


क़ुदरती से प्रोसेसफ़ूड (Canned Food & packed juices) पर,

और फिर बीमारियों से बचने के लिए दोबारा क़ुदरती खानों पर आ जाना।।


पुरानी और सादा चीज़ें इस्तेमाल ना करके ब्रांडेड (Branded) पर,

और फिर आखिरकार जी भर जाने पर पुरानी (Antiques) पर उतरना।।


बच्चों को इंफेक्शन से डराकर मिट्टी में खेलने से रोकना,

और फिर घर में बंद करके फिसड्डी बनाना और होश आने पर दोबारा Immunity बढ़ाने के नाम पर मिट्टी से खिलाना (Stadium).


गाँव, जंगल,   से डिस्को पब और चकाचौंध की और भागती हुई दुनियाँ की और से,

फिर मन की शाँति एवं स्वास्थ के लिये शहर से जँगल ,गाँव की ओर आना।( farm House)


*इससे ये निष्कर्ष निकलता है कि टेक्नॉलॉजी ने  जो दिया उससे बेहतर तो प्रकृति ने पहले से दे रखा था.! आओ उसका आदर करें!*

🌹🙏🏽 🙏🏽🌹

श्री ज्ञानमती माताजी ससंघ के आशीर्वाद से भव विभोर हो उठा राष्ट्रपति भवन

 

टीएमयू चांसलर के राष्ट्रपति भवन में बिताए यादगार अविस्मरणीय पल  


राष्ट्रपति माननीय श्री रामनाथ कोविंद द्वारा श्री ज्ञानमती माताजी ससंघ को दिए व्यक्तिगत निमंत्रण पर टीएमयू के कुलाधिपति श्री सुरेश जैन माता जी के साथ राष्ट्रपति भवन पहुंचे तथा शिष्टाचार के तौर पर कुलाधिपति ने राष्ट्रपति को गुलदस्ता भेंट किया। उल्लेखनीय है, जैन समाज की सर्वोच्च साध्वी भारतगौरव गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के शिष्टमंडल में कुलाधिपति भी शामिल थे। राष्ट्रपति भवन में सर्वप्रथम ससंघ पहुंचीं पूज्य माता जी ने साउथ कोर्ट की ओर से मंगल प्रवेश किया। पूज्य माताजी के संग प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी, पीठाधीश स्वस्तिश्री रवीन्द्रकीर्ति स्वामीजी, संघस्थ सभी आर्यिका, क्षुल्लक एवं ब्रह्मचारिणी बहनों के साथ, श्रीअध्यात्म जैन- लखनऊ, प्रतिष्ठाचार्य-श्री विजय जैन, डॉ. जीवन प्रकाश जैन- जंबूद्वीप, संघपती श्रीमती अनामिका जैन, प्रीत विहार दिल्ली, टीएमयू के कुलाधिपति- श्री सुरेश जैन, श्री प्रमोद जैन- वर्धमान ग्रुप, मॉडल टाउन दिल्ली, श्री अतुल जैन- जैन सभा, नई दिल्ली तथा पं. विजय जैन की भी मौजूदगी रही।

माननीय राष्ट्रपति ने उत्साह के साथ अपनी धर्मपत्नी एवम् प्रथम महिला श्रीमती सविता कोविंद और पुत्री के साथ पूज्य माताजी को प्रणाम किया। पूज्य माता जी को अपने बैठक कक्ष में आमंत्रित कर लगभग 25 मिनट पूज्य माताजी और उनके साथ प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी, पीठाधीश स्वस्तिश्री रवीन्द्रकीर्ति स्वामीजी से व्यक्तिगत वार्ता की। पूज्य माताजी के बैठने की व्यवस्था ससम्मान काष्ठ के सिंहासन पर की गयी। राष्ट्रपति भवन के वाईडीआर हॉल में माताजी के उद्बोधन के पश्चात डॉ. जीवन प्रकाश जैन ने राष्ट्रपति को प्रतीक चिन्ह भेंट किया।

अंत में माननीय राष्ट्रपति ने अपने उद्बोधन में कहा कि पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी का राष्ट्रपति भवन में आगमन हमारे लिए सौभाग्य का विषय है। उन्होंने पूज्य दोनों माताजी के लिए विशेष श्रद्धा अभिव्यक्त की और रवीन्द्रकीर्ति स्वामीजी को सम्बोधित करते हुए माँगीतुंगी-कार्यक्रम का स्मरण करते हुए कहा कि माताजी के आशीर्वाद से मुझे माँगीतुंगी में निर्मित भगवान ऋषभदेव की 108 फुट ऊँची प्रतिमा के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। साथ ही माननीय राष्ट्रपति जी ने 12 वर्ष बाद पूज्य माताजी की शताब्दी जन्मजयंती मनाने की भी उज्ज्वल भावनाएँ व्यक्त की। आर्यिका श्री चंदनामती माताजी ने मंगलाचरण पूर्वक माननीय राष्ट्रपति और भवन के सभी ऑफ़िसर एवं कर्मचारियों के लिए अपना मंगल आशीर्वाद प्रदान किया। पुनः पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने भी अनेक जनकल्याण, समाज उद्धार और अहिंसा धर्म पर बल देते हुए देश के लिए अपना सारगर्भित उद्बोधन देकर माननीय राष्ट्रपति, उनकी धर्मपत्नी प्रथम महिला और पुत्री के प्रति असीम प्रेम के साथ अपना मंगल आशीर्वाद भी प्रदान किया। 

इस अवसर पर पूज्य माताजी ने माननीय राष्ट्रपति को जैन धर्म के परिप्रेक्ष्य में अयोध्या का महत्व भी विस्तार से बताया। साथ ही वर्ष-2022 को शाश्वत जन्मभूमि अयोध्या तीर्थ विकास वर्ष के रूप में मनाने की घोषणा की।

उल्लेखनीय है, राष्ट्रपति के आमंत्रण पर आए इन मेहमानों को 350 एकड़ में विकसित राष्ट्रपति भवन के विभिन्न विशेष स्थानों पर समस्त ससंघ को भ्रमण कराया गया, जिसमें अशोका हॉल, दरबार हॉल, मुग़ल गार्डन आदि स्थान शामिल रहे।

🙏🏿🙏🏿🙏🏿🙏🏿

बुधवार, 17 नवंबर 2021

सच अकेला झूठ का बोलबाला


आज का लोकतंत्र 


प्रस्तुति - प्रकाश नारायण



एक बार शादी समारोह के उपरांत एक बारात वापस लौट रही थी। जंगल का रास्ता था और समय पर बाराती जंगल पार नहीं कर पाए.... 😀


रात हो गई तो वे रास्ता भूल गये। फिर सुबह हुई लेकिन दिन भर भटकने के बाद भी उन्हें कोई गांव न मिला। 


आखिर भूखे प्यासे वे कब तक रहते❓😎 किसी तरह उन्होंने एक नदी ढूंढ़कर प्यास तो बुझा ली,लेकिन अब समस्या खाने की थी.... 😎


जंगल में कौओं को छोड़कर और कोई पशु पक्षी भी नहीं दिखाई दे रहे थे। 


भूख से बिलबिलाते कुछ युवकों ने कौओं को ही मारकर खाने का निर्णय ले लिया। बारातियों में से ही किसी बीड़ी पीने वाले के पास माचिस थी तो उसने लकड़ियां ढूढ़कर आग जला दी। 


रात का समय था तो उन्हें कौओं को पकड़ने में भी ज्यादा परेशानी नहीं हुई। 


कौवे पकड़-पकड़ कर आते रहे और लोग उन्हें भून-भूनकर खाते रहे....😀

उन युवकों की देखा देखी धीरे-धीरे सभी बारातियों ने कौवे भूनकर खा लिए लेकिन उन्ही बारातियों में ''रामलाल'' भी था....😀

जिसने कहा कि चाहे भूख से तड़पकर मर जाऊँ यह स्वीकार है, लेकिन कौआ नहीं खाउंगा.... 😎


रात गुजर गई। दूसरे दिन सौभाग्य से चरवाहों की मदद से उन्हें बाहर निकलने का रास्ता भी मिल गया लेकिन........

अब समस्या यह थी कि रामलाल जिसने कौआ नहीं खाया था वह जाकर पूरे गांव में यह बात बताएगा कि सबने कौआ खाया है.....😀


इस बात पर मंत्रणा हुई फिर सर्वसम्मति से एक योजना बनाई गई.... 😀


वे लोग जैसे ही गांव के नजदीक पहुँचे सारे एक साथ चिल्लाने लगे:-

राम लाल ने कौआ खाया है.... 😀


"बहुमत" के आगे इकलौते रामलाल की कौन सुनता ❓😎😎😎

बिरसा_मुंडा / कैलाश मनहर

 आदिवासी नायक #बिरसा_मुंडा को याद करते हुये

****************************************

भूख से शुरू हुई थी उसकी जीवन-यात्रा

और अपनी भूख मिटाने के लिये 

कुछ भी खाते रहने के समय में

रोग और मृत्यु की पीड़ाओं के अनुभव से

पहली बार उसने ही समझा 

भक्ष्य-अभक्ष्य का भेद

और पत्थर मार कर लक्ष्य-बेध करने लगा 

पर्याप्त सतर्कता और सटीकता के साथ 

फलों और माँस के लिये 

लक्ष्य पर पत्थर मारते हुये न जाने कब

कौन-सा पत्थर टकराया दूसरे से 

कि चिंगारी जो निकली 

और जलने लगी सूखी घास

सिंके हुये को खाने का 

सामूहिक स्वाद पहली बार जाना उसी ने 


और जब जलती हुई आग देख कर 

भागने लगे हिंसक वनचर 

जो शत्रु मानते थे उसे अपना तो

आग से जीवन का रिश्ता भी 

उसी ने जाना सबसे पहले सुरक्षार्थ


और उगना भी कि 

कैसे उगता है कोई बीज

कई सदियों की यात्रा के बाद

उसी ने सीखा 

धरती की मिट्टी में फसलें बोना शनै: शनै:

उसी ने जानी 

उर्वरा-शक्ति अपनी धरती की

उसी ने बढ़ाई 

मनुष्यता की वंश-बेल इस सृष्टि में


ओ!तथाकथित सभ्य लोगो!

उसी की संतान हो तुम 

जो सीख कर छल-छद्म के पैंतरे

ठगने लगे उसी को और

अब उसी को करने पर आमादा हो 

बेदख़ल अपने हक़ से कि

जिसका पहला हक़ है 

उर्वरा धरती पर सहस्त्राब्दियों से


लेकिन याद करो कि 

शुरू हुई थी उसकी यात्रा भूख से

भक्ष्य-अभक्ष्य में भेद करते हुये 

उसी ने लक्ष्य-बेध करना सिखाया 

समूची सभ्यता को और

अभी भी भूला नहीं है वह

हिम्मत और हुनर आदिकालीन

अभी भी जानता है 

पत्थर मारना अपने लक्ष्य पर


तुम शायद भूलते जा रहे हो उसे 

और उसकी भूख को अभी

सत्ता में मदान्ध पाखण्ड-बोध से 

गर्वित व्यर्थ की बर्बरता के


जबकि उसे याद है अच्छी तरह

शुरूआत अपनी यात्रा की

और पड़ाव भी सारे जीवन-संघर्ष के

******************************************

कैलाश मनहर

 कैलाश मनहर भाई  की इस बेहद असरदार कविता से गुजर कर देखें।            

तल्ख सच्चाइयों से दो चार होकर देखें :


                                ▪️▪️

आजकल कानों में आवाज़ें बहुत आती हैं

इधर से चीखने,रोने,विलाप करने की,

उधर से धमकियाँ,और गालियाँ रंजिश से भरी

वहाँ से लूट लो,पकड़ो इसे,अब छोड़ना मत

यहाँ से मार दो,दफ़्ना दो,जला दो सब कुछ

कहीं से रख भी ले,संभाल ले,की खुसरफुसर 

कहीं से वोट दो,लो जीत गये,के नारे

उस तरफ़ से कि,कल तुमको देख लेंगे हम

इस तरफ़ से कि,हम सरकार हैं सबके मालिक

आजकल कानों में आवाज़े बहुत आती हैं


▪️

रात भर चीखता,चीत्कार करता है जंगल

पेड़ मुर्झाये हैं,तालाब पड़े हैं सूखे

फूल खिलते नहीं,बरसों से इधर घाटी में

बाघ और नीलगाय,दौड़ते नहीं दिखते 

आते हैं गाड़ियाँ,लेकर बहुत शिकारी अब

ट्रकों में भरते हैं शीशम के कटे पेड़ों को

गाँवों कस्बों में आ रहे हैं जानवर सारे

रास्ते खो चुके,डामर की चिकनी सड़कों में

शिकारियों का है अड्डा कि,जो ये होटल है 

रात भर चीखता,चीत्कार करता है

▪️

सुबह के वक़्त,ये पर्वत विलाप करता है

निकाले जा चुके,पत्थर तमाम खानों से

कूटती टूटती हैं रोड़ियाँ,क्रेशर में रोज़

चल रही हैं मशीनें,यहाँ पे रात औ" दिन

शहर बसते हैं पहाड़ों को काट कर सारे

झरने अब प्यास बुझाते हैं पूँजीपतियों की

अब नहीं जाते,नौज़वान आदिवासी वहाँ

सिर्फ़ मज़दूर हैं सौ रुपया रोज़ के वे बस

मर चुका इश्क़,जो लोगों को पहाड़ों से था

सुबह के वक़्त ये पर्वत विलाप करता है


▪️

नदी की सिसकियाँ,सुनता हूँ दोपहर में मैं

हाय,वह सूख चुकी है,अतल में गहरे तक

कहीं नहीं है,अब जल-धारा का प्रवाह कोई

आर्द्रता तनिक भी,नहीं है जलती आँखों में

रेत है रेत,बस दहकती हुई चारों तरफ़

राहगीरों के कंठ,तर भी करे तो कैसे

खुद नदी जब कि,अपनी रूह तलक़ प्यासी है 

बन रहा जैसे,मरूस्थल है दूर तक केवल

सुन रहे हैं कि यहाँ,शहर नया बसना है 

नदी की सिसकियाँ सुनता हूँ दोपहर में मैं


▪️

गूँजता है रुदन,खेतों में उधर रह रह के

हो चुकी है ज़मीं,बंजर विदेशी बीजों से

घर के उपवन से भी,आती हैं कराहें अक्सर

कैक्टस हैं हरे,पौधे सभी हैं ठूँठ वहाँ

जैसे हर ओर है वातावरण शोकाकुल-सा

पेड़ों से पंछियों के,घोंसले भी ग़ायब हैं 

हवा के नाम पे,उठती हैं आँधियाँ एकदम

बारिशें जहर की,ढाती हैं कहर तूफ़ानी

किसान,खुदकशी करने लगे हैं  गाँवों में

गूँजता है रूदन,खेतों में उधर रह रह के


▪️

आहें आती हैं,गले घुट रहे हैं गलियों के

सडाँध मारती हैं,नालियाँ शहर भर की

सड़कों पे शोरोगुल,हड़कम्प,आपाधापी है 

शहर की साँसों में है,चिमनियों का काला धुँआ

कचरे के ढ़ेर हैं हर ओर,सियासत की तरह

खून में लिथड़े,रास्तों पे आना-जाना है 

भीड़ में लुप्त हैं,लाचार-से जन-पथ सारे

राज-पथ हरियाली,औ" रौशनी में डूबे हैं 

स्वच्छता-मिशन के चर्चे हैं कागज़ों में बहुत

आहें आती हैं,गले घुट रहे थे गलियों के


▪️

हरेक दिशा से विकल,आर्तनाद आता है 

धर्मोमज़हब हैं जैसे,सबसे बड़े आतंकी

सुन रहे हैं कि अब,ग्लोबल विलेज है दुनिया

किन्तु सब कुछ,सिमट रहा है स्मार्ट-सिटी में

काम होते हैं दफ़्तरों में,डिजिटल सारे

आदमी कार्ड और डिजिट में सिमटे जाते हैं 

पूँजी और बाहुबल के,साथ मिला कर छल को

नाम खुशहाली का,लेते हुये शैतान सभी

सारी इन्सानियत,का क़त्ल किये जाते हैं 

हरेक दिशा से विकल आर्तनाद आता है


                                    🔴कैलाश मनहर

▪️▪️

चित्र-विमलविश्वास

रवि अरोड़ा की नजर से...

 प्रतिनायकवाद /रवि अरोड़ा



हर साल की तरह इस साल भी नाथू राम गोडसे और नारायण आप्टे को फांसी दिए जाने वाले दिन यानि 15 नवंबर को उनके कसीदे पढ़ने वाले बहुत से मैसेज आए । नया यह रहा कि इस बार यह मुहिम वाट्स एप के बजाय फेसबुक पर कुछ अधिक आक्रामक दिखी । हिंदुत्व और जय मां भारती जैसे कुछ अनजान फेसबुक पेजों द्वारा मुझे भी इस कथित शहीदी दिवस पर शुभकामनाएं दीं गईं और महात्मा गांधी के इन हत्यारों को स्वतंत्रता सेनानी और महान देशभक्त बताते हुए श्रद्धांजली दी गई । कहना न होगा कि मैं ऐसे किसी ग्रुप का सदस्य नहीं हूं और न ही मैंने आजतक उनके फेसबुक पेज को कभी देखा अथवा लाइक किया है । सात साल की फेसबुक सक्रियता में मेरा कोई रूझान भी इस हत्यारों की पक्षधरता वाला नहीं रहा । फिर किस ने मुझे ये मैसेज भेजे ? गौर से देखा तो पता चला कि फेसबुक ने सजस्टिड फॉर यू के टैग के साथ मुझे ये मैसेज भेजे थे । मगर मुझे ऐसा सजेशन फेसबुक ने भला क्यों दिया ? मेरी पसंद नापसंद का रिकॉर्ड यदि उसके पास है तो उसने कभी मुझे महात्मा गांधी पर लिखे गए हजारों लाखों लेखों में से किसी एक का भी सजेशन क्यों नही दिया ? इन पेजों पर हजारों हजार लाइक और शेयर बता रहे हैं कि इस पेजों का सजेशन मेरी तरह देश भर में आम नागरिकों को दिया गया होगा और हो न हो यह भी किसी खास आई टी सेल का कमाल होगा । मगर ये आई टी सेल किसका हो सकता है ? हिंदू महासभा का तो अब ग्वालियर के चंद लोगों के अलावा कोई नाम लेवा नहीं है , भाजपा और संघ सार्वजनिक रूप से गांधी की हत्या की निंदा करते हैं , फिर कौन है जो यह खेल कर रहा है ? क्या यह फिर वही मुंह में राम और बगल में छुरी जैसा कुछ है ? 


खबर है कि इस बार 15 को महात्मा गांधी के हत्यारों का एक मंदिर भी मेरठ में बन गया है । इससे पहले ग्वालियर में भी ऐसा किया गया था । देश प्रदेश की सरकारों के मंत्री मुख्यमंत्री और बड़े बड़े ओहदेदार अक्सर इस हत्यारों का गुणगान करते ही रहते हैं । गोडसे की मूर्ति को नमन करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीर भी कुछ साल पहले वायरल हुई थी । हालांकि गांधी विरोधी ताकतें आजादी के पहले से ही सक्रिय रही हैं मगर पिछले कुछ सालों से तोपों के मुंह गांधी की बजाय नेहरू की ओर मोड़ दिए गए थे । चूंकि गांधी के समकक्ष कोई आदमी इन ताकतों के पास नहीं था अतः मुकाबला नेहरू बनाम मोदी करने की कोशिश की गई । मगर  इस मुकाबले में भी हारने के बाद फिर वही पुराना खेल यानि गांधी बनाम गोडसे शुरू किया जा रहा है । 15 नवंबर की इस बार की आक्रमकता इसी बात का सबूत है । ये ताकतें कितनी कामयाब होंगी यह तो मुझे नहीं पता । मगर इतना जरूर पता है कि दुनिया भर में आज भी ऐसे करोड़ों लोग हैं जो भारत को बेशक न जानते हों मगर महात्मा गांधी और उनके विचारों को जरूर जानते हैं । विदेशी दौरे पर गए हमारे मंत्री प्रधानमंत्री के स्वागत में विदेशी नेता भी जब कोई कसीदा पढ़ते हैं तो शुरुआत यहीं से करते हैं कि ये उस देश से आए हैं जहां महात्मा गांधी रहते थे । आज बेशक देश दुनिया में प्रतिनायकवाद की हवाएं हैं मगर फिर भी जमीनी हकीकत तो यही है इन विघ्नसंतोषियों के अतिरिक्त गोडसे और आप्टे जैसों के नाम लेवा दूर दूर तक नज़र नहीं आते ।


मंगलवार, 16 नवंबर 2021

काष्ठ छापा कला के श्याम शर्मा / मुकेश प्रत्यूष

 काष्‍ठ छापा कला के लिए सुप्रसिद्ध चित्रकार पटना कला एवं शिल्‍प  महाविद्यालय  के पूर्व प्राचार्य श्‍याम शर्मा को पिछले सप्‍ताह पद्मश्री से सम्‍मानित किया  गया । इधर काफी दिनों से हमारी मुलाकात भी नहीं हुई थी   सुबह-सुबह उनके घर पहुंच गया। दूसरी मंजिल पर बने अपने स्‍टूडियो में वे बैठे देखना विषय पर काम कर रहे थे। मेरी आवाज सुन खुद ही नीचे आए और हम जाकर उसी स्‍टूडियो में बैठ गए। घंटों बातें हुई। शर्माजी मुझये उम्र में बड़े हैं लेकिन वर्षों पहले हुई पहली मुलाकात में उन्‍होंने बेतकल्‍लुफी से इस भेद को मिटा दिया था।

 

पद्म सम्‍मान के साथ-साथ हाल में बनाए अपने कलाचित्र उत्‍साह से दिखाए। बधाई  दी तो कहा आप मुझे काष्‍ठ छापा कला कला का एक विद्यार्थी समझें तो मुझे ज्‍यादा खुशी होगी। इतनी विनम्रता एक सच्‍चे कलाकार में ही हो सकती है।

 

लाल हाठ वाली एक चिडि़या इधर के लगभग हर चित्र में विद्यमान थी, कारण पूछने पर कहा अरसे बाद  करोना काल  में चिडि़याएं मेरे घर आने लगी थी। उनमें  एक ऐसी चिडि़या भी थी और वह मेरे अंतस में ऐसे पैठ गई है कि चाहे-अनचाहे उसकी आकृति उभर आ रही है। यह एक संकेत भी है कि अभी सबकुछ नष्‍ट नहीं हुआ है। प्रकृति वापस देने को तैयार है।

 

देखें तो छापा कला की शुरूआत 2500 ईसा पूर्व मिस्र  में हुई थी। तब मिस्रवासी पेपरिस (एक पौधा) की पत्तियों पर वहां के निवासी  चित्र उकेरा करते थे।  

भारत में छापा कला की शुरूआत 18वीं शताब्‍दी के अंत में हुई थी।  पुर्तगालियों और बाद में अंग्रेजों ने पुस्तकों में कथात्मक चित्र देने के लिए इसका उपयोग किया था।  19वीं शताब्‍दी में इस कला का उपयोग कलाकार अपनी भावनाओं को उकेरने में करने लगे। यहीं से यह एक कला के रुप में विकसित हुई।

 

शर्माजी ने इसे अपने सम्‍प्रेषण का माध्‍यम बनाया। आरंभकि दिनों में लकड़ी के एक हिस्‍से पर खुरच कर आकृति  बनाते थे फिर रोलर से रंगों को उस ब्लॉक पर लगाकर कागज पर रूप देते। उन्‍हीं दिनों अर्थ एंड स्पेस नामक एक चित्र श्रृखंला बनाई जिसमें छाया और प्रकाश को साथ-साथ दिखाने की सफल कोशिश की।  पहले वे कई रंगों का प्रयोग अपने चित्रों में करते थे लेकिन अब केवल एक या  दो रंगों का प्रयोग अपनी कलाकृतियों में करते हैं। कहते हैं अधिक रंगों के प्रयोग से शिल्‍प पक्ष तो उभारा जा सकता है लेकिन विचार पक्ष को नहीं। कला की दुनिया में चित्रकला ही एक ऐसी विधा है जिसे बिना किसी अनुवाद के देखा और समझा जाता  है। यहीं पर कहते हैं कि जो लोग यह  कहते हैं कि अमूर्त कला समझ में नहीं आती उन्‍हें कुद कहते नहीं बनता, अमूर्त कला या कहें कला की किसी भी विधा को देखने और सुनने  की समझ स्‍वयं में लगातार विकसित करनी होती है। आज इसीलिए अपने विद्यार्थियों के लिए देखना विषय पर व्‍याख्‍यान रखा है।

 

दोपहर होने को आ गई थी।  मैंने इजाजत मांगी। उन्‍होंने अपनी नई किताब चलते-चलते, जिसमें उनके बनाए रेखा-चित्र और लिखे शब्‍द-चित्र संकलित हैं  और जिसके माध्‍यम से उन्‍होंने शब्‍दों में छिपे चित्रों और चित्रों में छुपे शब्‍दों को तलाशने का प्रयास किया है, पर एक रेखाचित्र बनाकर मुझे भेट की।

महाभोज : सत्तातंत्र में हाशिये पर समाज / वीरेंद्र यादव

 #साहित्य  

आज जब मन्नू   भंडारी  जी  नही रहीं ,उनकी स्मृति में सादर नमन  करते हुए प्रस्तुत है  श्रद्धांजलि स्वरूप 'महाभोज' पर अभी पिछ्ले  दिनों ही  लिखा  गया यह  लेख.


'महाभोज’-सत्तातंत्र के दुश्चक्र में हाशिये का समाज 

(वीरेंद्र यादव)

 

बीती सदी के उत्तर्रार्ध (1979) में जब मन्नू भंडारी का उपन्यास ‘महाभोज’ प्रकाशित हुआ था ,तब न हिन्दी साहित्य में  दलित विमर्श की गहमागहमी थी  और न ही उत्तर भारत में दलित राजनीति की केन्द्रीयता. तब तक दलितों के प्रेरणास्रोत के रूप में आम्बेडकर का  आज सरीखा सर्वस्वीकार का भाव भी नहीं था. यह अकारण नहीं है कि ‘महाभोज’ के औपन्यासिक कथ्य  में दलित शोषण का वृतांत होने के बावजूद गांधी ,नेहरू का उल्लेख तो है लेकिन आम्बेडकर अनुपस्थित हैं . दरअसल  ‘महाभोज’ लिखे जाने की प्रेरणा के मूल में मुख्य धारा की  वर्चस्वशाली राजनीति और  सत्तातंत्र  की पतनगाथा मुख्य कारक  थी. उपन्यास में दलित इस राजनीति की उपभोग सामग्री के रूप में उपस्थित हैं. यह सचमुच विचारणीय है कि सत्तातंत्र द्वारा  दलित उभार और दलित चेतना के दमन का जो आख्यान ‘महाभोज’ में तब रचा गया था ,उसके आगे की मुक्कम्मल गाथा हिन्दी की मुख्यधारा के  उपन्यास में अभी भी क्यों प्रतीक्षित है? यह सच है कि ‘महाभोज’ में  दलित समाज का आतंरिक चित्रण और उससे उपजे सामाजिक संबंधों का विवेचन संपूर्णता में उस तरह नहीं है जिस तरह  जगदीश चन्द्र के उपन्यास ‘धरती धन न अपना’ में है. लेकिन दलितों को चुनावी राजनीति तक सीमित किये जाने और दलित प्रतिरोध के दमन के जिस दुष्चक्र का बेबाक खुलासा मन्नू भंडारी ने इस उपन्यास में किया है ,वह आज पहले से   अधिक ज्वलंत और प्रासंगिक है जितना चार दशक पूर्व था. विशेष अर्थों में इसे वर्तमान राजनीति की  विकृत्ततम परिणतियों  का  पूर्वाभास भी कहा जा सकता है.

    

‘महाभोज’ लिखने की प्रेरणा के मूल में आपातकाल के बाद सत्ता परिवर्तन  के दौर में 1977 में बिहार के बेलछी गाँव का वह सामूहिक दलित हत्याकांड था जिसने इंदिरा गांधी की वापसी और राजनीतिक  पुनर्जीवन का द्वार खोला था.  उपन्यास का कथावृतांत जिस दलित युवक बिसू (बिशेसर) की हत्या के इर्द गिर्द रचा गया है ,वह उपन्यास के सरोहा गाँव के  दलितों के सामूहिक हत्याकांड से ही विचलित और आंदोलित है. वह इस जघन्य हत्याकांड के अपराधियों की पहचान कर उन्हें  दण्डित करवाने के लिए संकल्पबद्ध है. उपन्यास में अन्याय के विरुद्ध बिसू की प्रतिरोधी चेतना को जिस तरह राजनीतिक दुरभिसंधि के चलते नक्सलवादी  राजनीति से जोड़कर राजनीतिक मंतव्य देने  का प्रयास किया गया है वह वर्तमान  परिदृश्य का भी प्रतिनिधि यथार्थ है. दलित युवा बिसू की हत्या गाँव के दबंग जोरावर द्वारा इसलिए करा दी जाती है क्योंकि उसने उस  सामूहिक दलित हत्याकांड के सुराग जुटा लिए थे जिसमें जोरावर शामिल था . और यह भी कि सरोहा गाँव ऐसा जहाँ ‘लोगों के घर ,जमीन और गाय-बैल ही रेहन नहीं रखे हुए हैं जोरावर और सरपंच के यहाँ ,उनकी आवाज़ और जबान तक बंधक रखी हुई है.’ सरोहा का  यही दबंग जोरावर प्रान्त के मुख्यमंत्री दा साहब का मुंहलगा और सहायक है. मध्यवर्ती किसान जाति का यह दबंग जब दा साहब की इच्छा के विरुद्ध उपचुनाव में अपनी राजनीतिक महत्वकांक्षा के चलते खुद ही उम्मीदवार बनना चाहता है तब दा साहब जो शतरंजी बिसात बिछाते हैं उसके कई शिकार होते हैं. मन्नू भंडारी ने इस दुष्चक्र में शामिल राजनेताओं, सरकारी अमले और मीडिया की दुरभिसंधि को जिस रचनात्मक दक्षता के साथ उजागर किया है वह  सत्ता के षड्यंत्र स्वरुप  को बेपर्दा करता है.  उपन्यास में बिसू की प्रतिरोधी चेतना को नक्सलवाद से जोड़कर उसकी हत्या को पहले आत्महत्या का रंग देने का षड्यंत्र फिर उसके मित्र बिन्दा को ही हत्या आरोपी बनाकर गिरफ्तार किया जाना मात्र एक घटना न होकर ,एक ऐसी सामाजिक परिघटना है जो समसामयिक यथार्थ से पूरी तरह संपृक्त है. बेलछी से शुरू होकर दलित हत्याकांडों का जो सिलसिला लक्ष्मनपुर-बाथे और बथानीटोला  की परिणतियों के रूप में सामने है उससे कई नए ‘महाभोज’ लिखे जाने की जरूरत दरपेश है . यद्यपि यह सच है कि आज दलित जीवन के परिप्रेक्ष्य में उत्तर-भारत की राजनीतिक परिस्थितियां वही नहीं हैं ,जो ‘महाभोज’ के समय समाज में  थीं.  सत्ता का समीकरण बदला है ,दलितों की प्रभावी उपस्थिति राजनीति और समाज में दर्ज़ हुई है.उपन्यास के दा साहब और शुकुल जी अब उंगली से कठपुतली नचाने के बजाय ‘सोसल इंजिनीयरिंग’ के लिए भले ही विवश हुए हों ,लेकिन सत्ता तंत्र की उच्च सवर्ण सरचना के चलते बिसू और बिन्दा की नियति अभी भी वैसी ही  है जैसी  ‘महाभोज’ में थी. दलित बिसू की हत्या और गाँव में विधानसभा उपचुनाव की राजनीति के ताने-बाने में अंतर्गुम्फित ‘महाभोज’ का कथ्य वर्तमान राजनीति के सादृश्य उपस्थित करता है. उदहारण के लिए चुनाव की पूर्व तैय्यारी के दौर में घाघ राजनीतिज्ञ और प्रान्त के मुख्यमंत्री  दा साहब का यह कथन कि “  किराये की रैलियां और प्रदर्शन तो सुकुल बाबू ने पिछले चुनाव में बहुत करवाए हे,उन सबसे हुआ क्या ?  हम तो अपने कार्यक्रमों को पूरी निष्ठा और मुस्तैदी से चलायेंगें.मात्र चुनाव जीतना नहीं ,इस वर्ग की स्थिति सुधारना हमारा लक्ष्य है. घरेलू –उद्योग –योजना की पहली किश्त पहुँच गयी लोगों के पास ? जिनके पास नहीं पहुँची है पहुंचा दो.”

    

दरअसल हाशिये के समाज के बरक्स सत्तातंत्र की दो टूक पड़ताल मन्नू भंडारी ने जिस ठन्डे सृजनात्मक मुहावरे में की है ,उससे वर्तमान राजनीति की प्रवृत्तिमूलक पहचान बखूबी की जा सकती है. उच्च आदर्श, सिद्धांत और लोकलुभावन  मुहावरे के खोल में सत्ता की कुर्सी का खेल , नित नए पाखण्ड , षड्यंत्र का घटाटोप और  जनतंत्र को वर्चस्वशाली वर्गों के  हितसाधन में तब्दील किये जाने का खुलासा उपन्यास में बखूबी हुआ है.  उपन्यास में ‘मशाल’ अखबार और उसके मालिक संपादक का सत्ता के सामने बेरीढ़ होना आज के ‘गोदी मीडिया’ की एक पूर्व बानगी  भर है.   “बिसू की मौत ने एकाएक ‘मशाल’ को प्रजातंत्र की जिम्मेदारियों से लैस करके एक महत्वपूर्ण अखबार बना दिया और दत्ता बाबू को एक जिम्मेदार संपादक.” उपन्यास की यह  वक्रोक्ति इस विडम्बना की मारक अभिव्यक्ति है.  आज ‘महाभोज’ का पुनः पाठ करते हुए यह  तथ्य  शिद्दत से उजागर होता है कि उपन्यास में अन्तर्निहित राजनीतिक और सामाजिक पृष्ठभूमि किसी एक क्षेत्र विशेष तक सीमित न होकर बिहार, उत्तर प्रदेश ,राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, छतीसगढ़, ,झारखण्ड ,महाराष्ट्र से लेकर आंध्र प्रदेश तक हर कहीं विस्तृत है. आज यह अंतर जरूर है कि जो लखन और जोरावर , दा साहब और शुकुल बाबू की कठपुतली थे वे अब स्वयं खुदमुख्तार होकर सत्तातंत्र के हिस्सेदार हो गए हैं. राजनीति अब दबंगों का इस्तेमाल नहीं करती बल्कि अब दबंग स्वयं राजनीति को नियंत्रित करने लगे हैं.  यद्यपि यह भी सच है कि प्रतिरोध की चेतना का भी विस्तार उसी अनुपात में हुआ है जिस अनुपात में सत्ता-तंत्र द्वारा उत्पीड़न और दमन . ‘महाभोज’ का महत्व यह   भी है कि मन्नू भंडारी ने प्रतिरोध और उत्पीड़न के इस त्रासद कथ्य  को तब रचनात्मक स्वरुप प्रदान किया था ,जब यह आज की तरह न तो संगठित था और न ही प्रभावी. कहना न होगा कि बिहार की रणवीर सेना हो या दंतेवाडा का लाल गलियारा ‘महाभोज’ में इनकी आहटें सुनी जा सकती हैं.

    

‘महाभोज’  जहाँ भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के  उच्च आदशों ,त्याग और जनसेवा की विदाई की कथा  है वहीं  यह  स्वातंत्रोत्तर  चुनावी राजनीति की विकृति को उजागर करते हुए  राजनीति के बदलते मुहावरे की भी पहचान करती है. राजनीति के सर्वग्रासी स्वरुप ने जिस तरह अफसरशाही के साथ ताल-मेल बिठाकर समूची व्यवस्था को जनविरोधी शिकंजें में कैद कर लिया है उसका प्रामाणिक साक्ष्य लेखिका द्वारा पुलिस अधिकारी सिन्हा और सक्सेना के विरोधाभासी चरित्रों के माध्यम से उजागर होता है. डीआईजी सिन्हा जहाँ अपनी रीढ़विहीनता के चलते पदोन्नति की सीढियां चढ़ता  है वहीं कर्तव्यनिष्ठ पुलिस अधीक्षक  सक्सेना को निलम्बन का तमगा मिलता है. ‘महाभोज’ के जश्न से विमुख मंत्रिमंडल से बर्खास्त लोचन बाबू, सक्सेना और बिन्दा –‘पूरी तरह उपेक्षित, परित्यक्त  और एक तरफ फेंकें हुए’  ऐसे औपन्यासिक चरित्र हैं जो अपनी अंतरात्मा के कैदी हैं .उपन्यास में बिन्दा की पत्नी रुक्मा के रूप  में लेखिका ने एक ऐसे चरित्र की निर्मिति की है जो पारंपरिक स्त्री की भूमिका फलांगते  हुए संघर्षशील बिसू के प्रति मैत्री और सहकार के भाव से आबद्ध है. बिसू की हत्या के बाद जिस तरह उसके पति बिन्दा को ही इस हत्या का दोषी बनाने का षड्यंत्र रचा गया उससे रुक्मा की घुटन और निर्दोष पति को बचाने की छटपटाहत ,इस उपन्यास के अत्यंत मार्मिक प्रसंग  बन कर प्रस्तुत हुए हैं.

    

‘महाभोज’ का अतिरिक्त महत्व इस तथ्य में अन्तर्निहित है कि इसके औपन्यासिक कथ्य में भारतीय समाज की वर्णाश्रमी जातिभेद पर आधारित सामंती संरचना के  शोषणतंत्र की अंतर्धारा लगातार उपस्थित रहती है. इस  सामंती ठसक की एक  बानगी उपन्यास में कुछ यूं है,  “ इन हरिजनों के बाप-दादे हमारे बाप-दादों के सामने सिर झुकाकर रहते थे . झुके-झुके  पीठ कमान की तरह  टेढ़ी हो जाती थी . और ये ससुरे सीना तानकर आँख में आँख गड़ाकर बात करते हैं ,बर्दाश्त नहीं होता यह सब हमसे.”  दलित टोले के बिसू का अपराध यही था कि वह अपने समाज के लोगों को जागरूक बनाता था .  “अपने अधिकारों के लिए .जैसे सरकार ने जो मजदूरी तय कर दी है ,वह जरूर लो ..नहीं दें तो काम मत करो.” कहना न होगा कि ‘महाभोज’ के बिसू और बिन्दा सरीखे पात्रों का सृजन  करके मन्नू भंडारी ने भारतीय जनतंत्र के ‘सामाजिक ‘और ‘आर्थिक’ जनतंत्र में उस रूपांतरण की संघर्षगाथा को रचनात्मक बनाया है जो आम्बेडकर का अभीष्ट था. यह करते हुए  मन्नू भंडारी  गांधी के उस ‘हरिजन मॉडल’ से मुक्त हैं जो दया और मानवीय अनुकम्पा  तक सीमित था. यह अनायास नहीं है कि ‘महाभोज’ का बिसू दलित प्रतिरोध को स्वर देने के साथ साथ ‘पूरे सेटअप को लेकर ही परेशान रह्त्ता था’. गाँव में ‘क्लास स्ट्रगल और कास्ट स्ट्रगल’ विषय पर शोध कर रहे महेश से उसका उलाहना था कि “आप जैसे  पढ़े-लिखे लोग खाली तमाशबीन ही बनकर बैठे रहेंगें तो इन गरीबों की लडाई कौन लडेगा? जहाँ दिन-दहाड़े इतना जुलुम होता हो वहां कोई  कैसे अलग-थलग बैठकर खाली कागज पोतता रह सकता है?” 

   

‘महाभोज’ लिखे  जाने चार दशक बाद इस चर्चा के बहाने इस जिज्ञासा का उठना स्वाभाविक है कि आखिर क्यों बीते वर्षों  में मुख्य धारा के  लेखकों द्वारा साम्प्रदायिकता पर केन्द्रित लगभग बीस से अधिक उपन्यास लिखे गए हैं  जबकि जातिगत शोषण और दलित प्रतिरोध की पृष्ठभूमि लिए उपन्यासों की संख्या लगभग नगण्य है. कहीं ऐसा तो नहीं है कि  जाति,वर्ण और वर्ग से मुक्त लेखन की जो परम्परा  प्रेमचंद, राहुल सांकृत्यायन , नागार्जुन और यशपाल से होती हुई जगदीश चन्द्र और मन्नू भंडारी तक विस्तृत हुई थी ,अब अवरुद्ध हो चुकी है.? दलित राजनीति और दलित विमर्श के उभार के इस दौर में हिन्दी की मुख्यधारा के लेखकों  द्वारा जाति-भेद और शोषण पर आधारित लेखन को लेकर उदासीनता  कहीं उनके अपनी जाति और वर्ग में वापसी के संकेत तो नहीं हैं? ‘महाभोज’ के पुनः पाठ के बहाने इस प्रश्न पर  विचार जरूरी है कि जब दलित प्रतिरोध को नक्सलवाद  और आदिवासी संघर्ष को  माओवाद के रूप में लांछित कर हाशिये के समाज की चेतना और प्रतिरोध का दमन तेज हो तब हिन्दी कथा साहित्य में इस विषय पर हृदयेश जोशी के ‘लाल लकीर’ सरीखे अपवाद को छोड़कर कमोबेश इन दिनों सन्नाटा क्यों ? जरूरत है कि मन्नू भंडारी ने ‘महाभोज’ में राजनीति के दुश्चक्र के बरक्स दलित प्रतिरोध को जिस मोड़ पर छोड़ा था उसे मौजूदा हालात के सन्दर्भ में तार्किक परिणतियों तक रचनात्मकता प्रदान करने की. 

     

'महाभोज’ पर यह  चर्चा अधूरी रहेगी यदि इस सन्दर्भ में ब्रिटिश लेखक फिल व्हाईटेकर के उपन्यास ‘इक्लिप्स ऑफ दि सन’ का उल्लेख न किया जाए .यहाँ यह तथ्य उल्लेखनीय है कि फिल व्हाईटेकर इंग्लैंड में पले,बढे, डाक्टरी की पढाई किये हुए ऐसे लेखक हैं जिनका भारत से कोई प्रत्यक्ष संपर्क कभी नहीं रहा ,लेकिन उन्होंने अपना पहला ही उपन्यास  पूरी तरह भारतीय पृष्ठभूमि पर केन्द्रित किया है. इस उपन्यास का कथानक 24 अक्टूबर 1995 का सूर्यग्रहण और भारत में उससे जुड़े अंधविश्वासों पर आधारित है. ‘महाभोज’ से इस उपन्यास का रिश्ता यह है कि इस उपन्यास के कथ्य में ‘महाभोज’ लेखिका के नामोल्लेख के साथ शामिल है. उल्लेखनीय यह भी है कि फिल व्हाईटेकर अपने औपन्यासिक पाठ (टेक्स्ट) में  ‘महाभोज’ उपन्यास की उपस्थिति मात्र हिन्दी के एक उपन्यास के ही रूप में न दर्ज कर इसका अपना पाठ भी प्रस्तुत करते हैं. ‘इक्लिप्स ऑफ़ दि सन’ की प्रमुख पात्र सुमिला ‘महाभोज’ पढ़ते हुए सोचती है कि क्या उसके श्वसुर ,जो आज़ादी के आन्दोलन के दौरान अंग्रेज सेना में कनिष्ठ अधिकारी थे, ‘महाभोज’ के निलम्बित पुलस अधिकारी  सक्सेना की तरह   “कभी  इस दु:स्वप्न से गुजरे होंगें कि अपने जीवन के ऐतिहासिक निर्णायक क्षण में सही निर्णय लेने में वे असमर्थ रहे थे.” ‘महाभोज’ पढ़ते हुए सुमिला के मन की “ वे इच्छाएं  और महत्वाकांक्षाएं जागृत हो रही थीं जिनकी गहरी नींद में किसी टेलीविजन कार्यक्रम द्वारा कोई बाधा नहीं उत्पन्न हुई थी . एक महिला द्वारा लिखित यह उपन्यास पुरुषों की दुनिया के कुत्सित यथार्थ की विडम्बनापूर्ण प्रस्तुति करने वाला था.” 

  

'महाभोज’ पढ़ते हुए एक अंग्रेजी उपन्यास  की स्त्री-पात्र  का यह व्यक्तित्वांतरण ‘महाभोज’ का विस्तारित भाष्य है. ‘महाभोज’ की प्रमुख स्त्री पात्र रुक्मा की सोच से सुमिला की यह संगति और फिर यह मानसिक द्वंद्व  कि “ रुक्मा द्वारा बिसू की मौत का रहस्य न खोला जाना  भले ही किन्हीं अर्थों में उसके लिए  उचित हो ,लेकिन जिस काली अंधेरी दुनिया को मन्नू भंडारी ने सुमिला के लिए अनावृत्त किया था उसमें यह न्यायसंगत नहीं था.”  ‘महाभोज’ और उसकी लेखिका से प्रेरणा प्राप्त कर  फिल व्हाईटेकर  के उपन्यास की सुमिला के मन में लेखकीय महत्वकांक्षा का बीजारोपण एक ऐसा प्रछन्न नारी-विमर्श है ,जो संभवतः मन्नू भंडारी के औपन्यासिक अजेंडे पर भी नहीं था.

     

'महाभोज’ का यह पुनः पाठ करते हुए  राजनेता दा साहब का ‘गीता’ भक्त होना वर्तमान राजनीतिक सन्दर्भों में नई अर्थ-ध्वनियों का आभास देता है. ‘महाभोज’ के दा साहब के लिए  “गीता  का उपदेश  उनके जीवन का मूल मन्त्र है. घर के हर कोने में गीता की एक प्रति मिल जायेगी . वैसे वह कभी किसी को उपहार देते नहीं , व्यर्थ के ढकोसलों में कतई विश्वास नहीं है उनका .पर फिर भी कभी उपहार देना ही पड़ गया तो सदा गीता की प्रति ही दी है.” गीता भक्त दा  साहब  बिसू के मित्र बिन्दा की झूठ-मूठ के मामले में गिरफ्तारी का षड्यंत्र जिस स्थिरप्रज्ञता के साथ रचते हैं ,उससे उनका पाखंडी  व्यक्तित्व ही उजागर नहीं होता ,बल्कि  धर्म-ग्रन्थ  को ढाल बनाने की कुटिलता भी उजागर होती है . आज जब गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ बनाने  और अंतर्राष्ट्रीय राजनय में इस्तेमाल करने की नयी युक्तियाँ सामने हैं  तो कई ‘दा साहबों’ के चेहरे पहचाने जा सकते हैं. 

    

स्वीकार करना होगा कि आज जब दलित राजनीति का अधिग्रहण एक सुस्वादु ‘महाभोज’ में तब्दील हो गया है तब  मन्नू  भंडारी का यह उपन्यास वर्तमान राजनीति को समझने की पूर्व-पीठिका होने के साथ साथ हाशिये के समाज की नियति और प्रतिरोधी चेतना का ज्वलंत  दस्तावेज़ भी है.


वीरेंद्र यादव

© Virendra Yadav

#vss

सोमवार, 15 नवंबर 2021

जयशंकर प्रसाद का महत्व?

 


15 नवंबर, 1937 की भोर बनारस के दaशाश्वमेध mhtvbघाट से लगभग आधे किलोमीटर की दूरी पर गोवर्धन सhtराय में उपयोगिता 9हलकी lठंड में भीगी सी थी. Lअभी जाड़ा पूरी तरह से आया नहीं था. पर उन दिनों गंगा में पानी की कमी न थी. गंगा की लहरों को छूकर आती हवा सिहरन पैदा करने लगी थी. जयशंकर प्रसाद ने अपने निवास प्रसाद मंदिर में अjपनी अंतिम सांस इस भोर ली. पिछले साढ़े नौ महीनों से चल रहा मृत्यु से उनका संग्राम समाप्त हुआ.


प्रसाद को गुजरे 83 साल हो चुके हैं. वे मात्र 47 साल साढ़े नौ माह जिए. उनकी मृत्यु सहसा घटी घटना नहीं थी. उन्हें टीबी हो गया था. वे रोज क्षीण हो रहे थे और रोज मृत्यु कुछ और नजदीक आ रही थी. महीनों तक वे अशक्त मृत्युशैया पर लेटे रहे, धैर्य, विश्वास के संबल के साथ. उन्हें अभी बहुत कुछ लिखना था. हिंदी की दुनिया समझती है कि वे कामायनी, चंद्रगुप्त, कंकाल के रूप में अपना श्रेष्ठ दे चुके थे. यह बिल्कुल सच नहीं है. ये कृतियां निस्संदेह बेशकीमती हैं. परंतु प्रसाद की वृहत लेखन-योजनाएं थीं. भारत के प्राचीन इतिहास पर 11 खंडों की उपन्यास श्रृंखला का इरावती के रूप में वे आरंभ भी कर चुके थे. इंद्र के मिथकीय चरित्र पर वृहत नाटक शुरू ही करने वाले थे. काव्य, कथा,

उपन्यास सभी विधाओं में उन्हें अभी विपुल लेखन करना शेष था. पर मृत्यु के पूर्व के नौ महीनों ने यह स्पष्ट कर दिया था कि वे अब कुछ नहीं लिख सकेंगे. मृत्यु सुनिश्चित है. टीबी का उन दिनों कारगर इलाज नहीं था. बस उन्हें प्रतीक्षा करनी है. उन्होंने गरिमापूर्वक इस स्थिति को अंतिम दिनों में जिया. उन पर लिखे ढेरों संस्मरणों में उनसे मिलने वाले आत्मीय जनों ने वह छवि सुरक्षित रखी है.


क्या हिंदी ने प्रसाद को उनका वास्तविक दाय दिया? निश्चित रूप से नहीं. ऐसा करके हिंदी के साहित्य की सृजनशीलता ने स्वयं को स्थाई रूप से अशक्त कर लिया, उसने अपने लिए बड़ी रचनाशीलता का मार्ग बंद कर दिया. हिंदी की परंपरा, जो यदि हो सकती थी, तो वह प्रसाद-प्रेमचंद की ही परंपरा थी, न कि केवल प्रेमचंद की परंपरा. इस परंपरा को विभाजित करके सिर्फ प्रेमचंद की पंरपरा के रूप में आगे बढ़ाने का उपक्रम करना और एक नकली-झूठी मध्यमवर्गीय प्रगतिशीलता से उसे मंडित करने का दीन प्रयास करना हिंदी साहित्य के भविष्य को बहुत दूर तक के लिए क्षतिग्रस्त कर गया.


यह कैसी विडंबना है कि अभी परसों ही मुक्तिबोध की जयंती पर भावुकतापूर्ण उदगारों की बाढ़ आई हुई थी. प्रसाद निस्संदेह उनसे न सिर्फ वरिष्ठ थे, बल्कि उनका युगांतरकारी महत्व है, उन्हें ठंडे ढंग से भी याद करते शब्द दुर्लभ हैं. यह ऐसा ही है जैसे अंग्रेजी शेक्सपियर के साथ, रूसी पुश्किन के साथ, अमेरिकी वाल्ट व्हिटमैन के साथ उदासीन हो जाएं. प्रसाद हिंदी के आधुनिक साहित्य का आरंभ हैं, उसकी अस्मिता हैं, उनसे जीवंत सबंध न होने का तात्पर्य जो कुछ इस भाषा के साहित्य विकास के लिए हो सकता था, वह हुआ है.


यदि हिंदी क्षेत्र में कोई नवजागरण होता तो उसके आदिकवि जयशंकर प्रसाद होते. पर हिंदी क्षेत्र में जो हुआ वह साहित्यिक नवजागरण था. भाषा और साहित्य का नवोत्थान. व साहित्य-समाज से बाहर अपना विस्तार न कर सका. वह हिंदी खड़ी बोली साहित्य के विकास का एक गौरवशाली चरण भर बन कर रह गया. प्रसाद उसकी एक उत्तुंग लहर थे.


यह विडंबना है कि उनका काव्य जिस संपदा को अपने भीतर धारण किए हुए है, हिंदी समाज के लिए उसका कुछ अधिक मूल्य नहीं है. ऐसा नहीं कि हिंदी समाज उनको महत्वपूर्ण रचनाकार नहीं मानता, पर उसकी दृश्टि में वे महान कवि होते हुए भी उसके बहुत काम के नहीं हैं - आज भी और विगत में भी. वे उसके काम के तब होते, जब इस समाज को अपने व्यक्ति-मन के पुनर्गठन की, उसके नव-निर्माण की आवश्यकता होती. प्रसाद का साहित्य स्वत्व के रूपांतरण का साहित्य है. वह मैथिलीशरण गुप्त का राष्ट्रीय प्रबोधन या जातीय पुनरुत्थान का साहित्य नहीं है. राष्ट्रीय उदबोधन व जातीय पुनरुत्थान की भावना उसमें एक प्रबल अंतःसलिला की तरह विद्यमान अवश्य है, पर वह भी मन के रूपांतरण को ही संबोधित है - किसी स्थूल अभियान को नहीं. वह निराला की तरह आत्मस्थ साधना-गीत या सहसा व्यवस्था-विरोधी हो उठा क्षुब्ध काव्य भी नहीं है.

प्रसाद का काव्य हिंदी की काव्य-परंपरा में अपवाद था - अपने काव्य-उत्कर्ष के कारण नहीं. इस कारण कि वह जिस भाव-भूमि पर खड़ा था, वह हिंदी की सहज भाव-भूमि नहीं थी. वे व्यक्ति-चेतना के धरातल पर खड़े थे. इसी कारण वे अपने सभी पूर्ववर्तियों व समकालीनों से भिन्न थे. हालांकि पूरी छायावादी काव्य-परंपरा को व्यक्ति-चेतना का काव्य कहा गया. पर इसकी जैसी घनीभूत और प्रामाणिक अभिव्यक्ति प्रसाद के काव्य में हुई थी, वैसी किसी भी अन्य कवि में नहीं.

रविवार, 14 नवंबर 2021

कृष्ण और राधा का पुनर्मिलन !

कुंवारे कृष्ण और विवाहिता  राधा की प्रेम कहानी को हमारी संस्कृति की सबसे आदर्श और पवित्र प्रेम-कथा का दर्ज़ा हासिल है। विवाहेतर और परकीया प्रेम के ढेरों उदाहरण विश्व साहित्य में है, लेकिन इस प्रेम को आध्यात्मिक ऊंचाई सिर्फ भारतीय संस्कृति और काव्य ने दिया है। ऊंचाई भी कुछ इतनी कि हिन्दू धर्म के रूढ़िवादियों को भी इस बात पर अचरज नहीं होता कि कृष्ण की पूजा उनकी पत्नियों की जगह राधा के साथ क्यों होती है। और यह भी कि राधा अपने पति के बजाय कृष्ण के साथ क्यों पूजी जाती है। पुराणों के अनुसार कृष्ण राधा से उम्र में छोटे थे और इस गहरे प्रेम का अंत भी बहुत शीघ्र ही हो गया। परिस्थितिवश कृष्ण किशोरावस्था में गोकुल से मथुरा गए और फिर मथुरा से द्वारिका पलायन कर गए। विस्थापन के बाद राजकाज की उलझनों, मथुरा पर कंस के श्वसुर मगधराज जरासंध के निरंतर आक्रमणों और द्वारिका को बसाने की कोशिशों के बीच कृष्ण को कभी इतना अवसर नहीं मिला कि वे दुबारा राधा से मिलकर उन्हें सांत्वना और प्रेम का भरोसा दे सके। युवा और प्रौढ़ हो जाने के बाद किशोरावस्था की उन्मुक्त चेतना धीरे-धीरे साथ छोड़ जाती है। उसकी जगह सामाजिक और पारिवारिक मर्यादाओं का संकोच हावी होने लगता है। कृष्ण ने चोरी-छिपे दूत के रूप में भरोसा और आध्यात्मिक ज्ञान बांटने के लिए मित्र उद्धव को राधा के पास जरूर भेजा, लेकिन विरही मन कहीं अध्यात्म की विवेचना सुनता है भला ? 


ज्यादातर पुराणों में गोकुल से जाने के बाद कृष्ण की राधा से मुलाक़ात का कोई प्रसंग नहीं मिलता। लोक में भी यह मान्यता है कि कृष्ण के वृन्दावन से जाने के बाद उनकी राधा से दुबारा कभी भेंट नहीं हो सकी थी। ब्रह्मवैवर्त पुराण, कुछ संस्कृत काव्यों और सूर साहित्य में विरह के सौ कठिन वर्षों के बाद एक बार फिर राधा और कृष्ण की एक संक्षिप्त-सी मुलाक़ात का उल्लेख अवश्य आया है। उनके जीवन की शायद अंतिम मुलाक़ात। जगह था कुरुक्षेत्र तीर्थ जहां सूर्यग्रहण के मौके पर प्राचीन काल से ही बहुत बड़ा मेला लगता रहा है। सूर्योपासना के उद्देश्य से कृष्ण रुक्मिणी के साथ सदल बल वहां पहुंचे थे। कृष्ण की तीर्थयात्रा की सूचना मिलने पर बाबा नन्द अपने कुटुंब और कृष्ण के कुछ बालसखाओं के साथ कुरुक्षेत्र आ गए। उनके साथ राधा भी अपनी सहेलियों के साथ हो ली थी। कृष्ण के बालसखाओं और राधा की सहेलियों ने कुरुक्षेत्र तीर्थ के एक शिविर में  कुछ देर दोनों की एकांत भेंट का प्रबंध किया था। बचपन के बाद सीधे बुढ़ापे की उस मुलाक़ात में क्या हुआ होगा, इसकी कल्पना ही की जा सकती है। उस मुलाक़ात के सम्बन्ध में सूरदास ने लिखा है :


राधा माधव भेंट भई 

राधा माधव, माधव राधा, कीट भृंग ह्वै जु गई 

माधव राधा के संग राचे, राधा माधव रंग रई 

माधव राधा प्रीति निरंतर रसना कहि न गई। 


सोचिए तो सौ वर्षों के अंतराल के बाद दो उत्कट प्रेमियों की उस छोटी-सी भेंट में न जाने कितने आंसू बहे होंगे। भूले बिसरी कितनी स्मृतियां जीवंत हो उठी होंगी। कितनी व्यथाएं उभरी और दब गई होंगी। कैसे-कैसे उलाहने सुने, सुनाए गए होंगे। कितना प्रेम बरसा होगा और कितना विवाद। या क्या पता कि भावातिरेक में शब्द ही साथ छोड़ गए हों ! जीवन के अंतिम पहर में दो प्रेमियों के मिलन का वह दृश्य अद्भुत तो अवश्य रहा होगा। गुप्तचरों के माध्यम से कृष्ण की पत्नी रुक्मिणी को जब इन दो पुराने प्रेमियों की इस भेंट की सूचना मिली तो वे स्वयं राधा से मिलने का हठ ठान बैठी। रुक्मिणी की जिद पर राधा से उनकी मुलाक़ात भी कराई गई। उल्लेख आया है कि राधा का आतिथ्य करने के बाद रुक्मिणी ने उन्हें स्नेहवश कुछ ज्यादा ही गर्म दूध पिला दिया था। राधा तो हंसकर वह सारा दूध पी गई, लेकिन देखते-देखते कृष्ण के बदन में फफोले पड़ गए। यह प्रेम की आंतरिकता का चरम था। 


इस संक्षिप्त मिलन के बाद कृष्ण पर क्या बीती, इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता। हां, इस मिलन के बाद राधा की जो अनुभूति प्रकट हुई है, वह तो किसी भी संवेदनशील मन को व्यथित कर देने के लिए पर्याप्त हैं। 'ब्रह्मवैवर्त पुराण' में कुरुक्षेत्र से लौटते समय राधा ने मन की बात साझा करते हुए अंतरंग सहेली ललिता से जो कहा, वह यह है :


प्रियः सोsयं कृष्णः सहचरि कुरूक्षेत्रमिलित 

स्तथाहं सा राधा तद्दिमुभयो संगमसुखम

तथाप्यन्तः खेलन्मधुरमुरलीपञ्चमजुषे

मनो में कालिंदीपुलिनविपिनाय स्पृहयति। 


सखि, प्रियतम कृष्ण भी वही हैं। मैं राधा भी वही हूं। कुरूक्षेत्र में आज हमारे मिलन का सुख भी वही था। तथापि इस पूरी मुलाक़ात में मैं कृष्ण की वंशी से गूंजता कालिंदी का वह जाना पहचाना तट ही तलाशती रही। यह मन तो उन्हें फिर से वृंदावन में ही देखना चाह रहा है।

ध्रुवगुप्त

खो गयी कहीं चिट्ठियां

 प्रस्तुति  *खो गईं वो चिठ्ठियाँ जिसमें “लिखने के सलीके” छुपे होते थे, “कुशलता” की कामना से शुरू होते थे।  बडों के “चरण स्पर्श” पर खत्म होते...