बुधवार, 30 सितंबर 2015

हिन्दी लोकोक्तियां




जिसकी बंदरी वही नचावे और नचावे तो काटन धावे : जिसकी जो
काम होता है वही उसे कर सकता है.

जिसकी बिल्ली उसी से म्याऊँ करे : जब किसी के द्वारा पाला हुआ
व्यक्ति उसी से गुर्राता है।

जिसकी लाठी उसकी भैंस : शक्ति अनधिकारी को भी अधिकारी बना
देती है, शक्तिशाली की ही विजय होती है.

जिसके पास नहीं पैसा, वह भलामानस कैसा : जिसके पास धन होता
है उसको लोग भलामानस समझते हैं, निर्धन को लोग भलामानस नहीं समझते.

जिसके राम धनी, उसे कौन कमी : जो भगवान के भरोसे रहता है,
उसे किसी चीज की कमी नहीं होती.

जिसके हाथ डोई (करछी) उसका सब कोई : सब लोग धनवान का
साथ देते हैं और उसकी खुशामद करते हैं.


जिसे पिया चाहे वही सुहागिन : जिस पर मालिक की कृपा होती है
उसी की उन्नति होती है और उसी का सम्मान होता है.

जी कहो जी कहलाओ : यदि तुम दूसरों का आदर करोगे, तो लोग
तुम्हारा भी आदर करेंगे.


जीभ और थैली को बंद ही रखना अच्छा है : कम बोलने और कम
खर्च करने से बड़ा लाभ होता है.


जीभ भी जली और स्वाद भी न पाया : यदि किसी को बहुत थोड़ी-सी
चीज खाने को दी जाये.


जीये न मानें पितृ और मुए करें श्राद्ध : कुपात्र पुत्रों के लिए कहते हैं
जो अपने पिता के जीवित रहने पर उनकी सेवा-सुश्रुषा नहीं
 करते, पर मर जाने पर श्राद्ध करते हैं.

जी ही से जहान है : यदि जीवन है तो सब कुछ है. इसलिए सब तरह
से प्राण-रक्षा की चेष्टा करनी चाहिए.


जुत-जुत मरें बैलवा, बैठे खाय तुरंग : जब कोई कठिन परिश्रम करे और उसका आनंद दूसरा उठावे तब कहते हैं, जैसे गरीब
आदमी परिश्रम करते हैं और पूँजीपति उससे लाभ उठाते हैं.


जूँ के डर से गुदड़ी नहीं फेंकी जाती : साधारण कष्ट या हानि के डर से कोई व्यक्ति काम नहीं छोड़ देता.


जेठ के भरोसे पेट : जब कोई मनुष्य बहुत निर्धन होता है और उसकी स्त्री का पालन-पोषण उसका बड़ा भाई (स्त्री का जेठ) करता है तब कहते हैं.

जेते जग में मनुज हैं तेते अहैं विचार : संसार में मनुष्यों की प्रकृति-प्रवृत्ति तथा अभिरुचि भिन्न-भिन्न हुआ करती है.


जैसा ऊँट लम्बा, वैसा गधा खवास : जब एक ही प्रकार के दो मूर्खों का साथ हो जाता है.

जैसा कन भर वैसा मन भर : थोड़ी-सी चीज की जाँच करने से पता चला जाता है कि राशि कैसी है.


जैसा काछ काछे वैसा नाच नाचे : जैसा वेश हो उसी के अनुकूल काम करना चाहिए.

जैसा तेरा ताना-बाना वैसी मेरी भरनी : जैसा व्यवहार तुम मेरे साथ करोगे, वैसा ही मैं तुम्हारे साथ करूँगा.

जैसा देश वैसा वेश : जहाँ रहना हो वहीं की रीतियों के अनुसार आचरण करना चाहिए.

जैसा मुँह वैसा तमाचा : जैसा आदमी होता है वैसा ही उसके साथ व्यवहार किया जाता है.

जैसी औढ़ी कामली वैसा ओढ़ा खेश : जैसा समय आ पड़े उसी के अनुसार अपना रहन-सहन बना लेना चाहिए.

जैसी चले बयार, तब तैसी दीजे ओट : समय और परिस्थिति के अनुसार काम करना चाहिए.

जैसी तेरी तोमरी वैसे मेरे गीत : जैसी कोई मजदूरी देगा, वैसा ही उसका काम होगा.

जैसे कन्ता घर रहे वैसे रहे विदेश : निकम्मे आदमी के घर रहने से न तो कोई लाभ होता है और न बाहर रहने से कोई हानि होती है.

जैसे को तैसा मिले, मिले डोम को डोम,
दाता को दाता मिले, मिले सूम को सूम :

जो व्यक्ति जैसा होता है उसे जीवन में वैसे ही लोगों से पाला पड़ता है.

जैसे बाबा आप लबार, वैसा उनका कुल परिवार : जैसे बाबास्वयं झूठे हैं वैसे ही उनके परिवार वाले भी हैं.

जैसे को तैसा मिले, मिले नीच में नीच,

पानी में पानी मिले, मिले कीच में कीच
जो जैसा होता है उसका मेल वैसों से ही होता है.

जो अति आतप व्याकुल होई, तरु छाया सुख जाने सोई : जिस व्यक्ति पर जितनी अधिक विपत्ति पड़ी रहती है उतना ही अधिक वह सुख का आनंद पाता है.
जो करे लिखने में गलती, उसकी थैली होगी हल्की : रोकड़ लिखने में गलती करने से सम्पत्ति का नाश हो जाता है.
जो गंवार पिंगल पढ़ै, तीन वस्तु से हीन,
बोली, चाली, बैठकी, लीन विधाता छीन :
चाहे गंवार पढ़-लिख ले तिस पर भी उसमें तीन गुणों का अभाव पाया जाता है. बातचीत करना, चाल-ढाल और बैठकबाजी.
जो गुड़ खाय वही कान छिदावे : जो आनंद लेता हो वही परिश्रम भी करे और कष्ट भी उठावे.
जो गुड़ देने से मरे उसे विषय क्यों दिया जाए : जो मीठी-मीठी बातों या सुखद प्रलोभनों से नष्ट हो जाय उससे लड़ाई-झगड़ा नहीं करना चाहिए.
जो टट्टू जीते संग्राम, तो क्यों खरचैं तुरकी दाम : यदि छोटे आदमियों से काम चल जाता तो बड़े लोगों को कौन पूछता.
जो दूसरों के लिए गड्ढ़ा खोदता है उसके लिए कुआँ तैयार रहता है : जो दूसरे लोगों को हानि पहुँचाता है उसकी हानि अपने आप हो जाती है.
जो धन दीखे जात, आधा दीजे बाँट : यदि वस्तु के नष्ट हो जाने की आशंका हो तो उसका कुछ भाग खर्च करके शेष भाग बचा लेना चाहिए.
जो धावे सो पावे, जो सोवे सो खोवे : जो परिश्रम करता है उसे लाभ होता है, आलसी को केवल हानि ही हानि होती है.
जो पूत दरबारी भए, देव पितर सबसे गए : जो लोग दरबारी या परदेसी होते हैं उनका धर्म नष्ट हो जाता है और वे संसार के कर्तव्यों का भी समुचित पालन नहीं कर सकते.
जो बोले सो कुंडा खोले : यदि कोई मनुष्य कोई काम करने का उपाय बतावे और उसी को वह काम करने का भार सौपाजाये.
जो सुख छज्जू के चौबारे में, सो न बलख बुखारे में : जो सुखअपने घर में मिलता है वह अन्यत्र कहीं भी नहीं मिल सकता.
जोगी काके मीत, कलंदर किसके भाई : जोगी किसी के मित्र नहीं होते और फकीर किसी के भाई नहीं होते, क्योंकि वे नित्य एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते रहते हैं.
जोगी जुगत जानी नहीं, कपड़े रंगे तो क्या हुआ : गैरिक वस्त्र पहनने से ही कोई जोगी नहीं हो जाता.
जोगी जोगी लड़ पड़े, खप्पड़ का नुकसान : बड़ों की लड़ाई मेंगरीबों की हानि होती है.
जोरू चिकनी मियाँ मजूर : पति-पत्नी के रूप में विषमता हो, पत्नी तो सुन्दर हो परन्तु पति निर्धन और कुरूप हो.
जोरू टटोले गठरी, माँ टटोले अंतड़ी : स्त्री धन चाहती है औरमाता अपने पुत्र का स्वास्थ्य चाहती है. स्त्री यह देखना चाहती है कि मेरे पति ने कितना रुपया कमाया. माता यह देखती है कि मेरा पुत्र भूखा तो नहीं है.
जोरू न जांता, अल्लाह मियां से नाता : जो संसार में अकेला हो, जिसके कोई न हो.
ज्यों-ज्यों भीजै कामरी, त्यों-त्यों भारी होय : जितना ही अधिक ऋण लिया जाएगा उतना ही बोझ बढ़ता जाएगा.
ज्यों-ज्यों मुर्गी मोटी हो, त्यों-त्यों दुम सिकुड़े : ज्यों-ज्यों आमदनी बढ़े, त्यों-त्यों कंजूसी करे.
ज्यों नकटे को आरसी, होत दिखाए क्रोध : जब कोई व्यक्तिकिसी दोषी पुरुष के दोष को बतलाता है तो उसे बहुत बुरा लगता है।
झगड़े की तीन जड़, जन, जमीन, जर : स्त्री, पृथ्वी और धन इन्हीं तीनों के कारण संसार में लड़ाई-झगड़े हुआ करते हैं.
झट मँगनी पट ब्याह : किसी काम के जल्दी से हो जाने पर उक्ति.
झटपट की धानी, आधा तेल आधा पानी : जल्दी का काम अच्छा नहीं होता.
झड़बेरी के जंगल में बिल्ली शेर : छोटी जगह में छोटे आदमी बड़े समझे जाते हैं.
झूठ के पांव नहीं होते : झूठा आदमी बहस में नहीं ठहरता, उसे हार माननी होती है.
झूठ बोलने में सरफ़ा क्या : झूठ बोलने में कुछ खर्च नहीं होता.
झूठे को घर तक पहुँचाना चाहिए : झूठे से तब तक तर्क-वितर्क करना चाहिए जब तक वह सच न कह दे.
टंटा विष की बेल है : झगड़ा करने से बहुत हानि होती है.
टका कर्ता, टका हर्ता, टका मोक्ष विधायकाः
टका सर्वत्र पूज्यन्ते,बिन टका टकटकायते :
संसार में सभी कर्म धन से होते हैं,बिना धन के कोई काम नहीं होता.
टका हो जिसके हाथ में, वह है बड़ा जात में : धनी लोगों का आदर- सत्कार सब जगह होता है.
टट्टू को कोड़ा और ताजी को इशारा : मूर्ख को दंड देने की आवश्यकता पड़ती है और बुद्धिमानों के लिए इशारा काफी होता है.
टाट का लंगोटा नवाब से यारी : निर्धन व्यक्ति का धनी-मानी व्यक्तियों के साथ मित्रता करने का प्रयास.
टुकड़ा खाए दिल बहलाए, कपड़े फाटे घर को आए : ऐसा काम करना जिसमें केवल भरपेट भोजन मिले, कोई लाभ न हो.
टेर-टेर के रोवे, अपनी लाज खोवे : जो अपनी हानि की बात सबसे कहा करता है उसकी साख जाती रहती है.
ठग मारे अनजान, बनिया मारे जान : ठग अनजान आदमियों को ठगता है, परन्तु बनिया जान-पहचान वालों को ठगता है.
ठुक-ठुक सोनार की, एक चोट लोहार की : जब कोई निर्बल मनुष्य किसी बलवान्‌ व्यक्ति से बार-बार छेड़खानी करता है.
ठुमकी गैया सदा कलोर : नाटी गाय सदा बछिया ही जान पड़ती है. नाटा आदमी सदा लड़का ही जान पड़ता है.
ठेस लगे बुद्धि बढ़े : हानि सहकर मनुष्य बुद्धिमान होता है.
डरें लोमड़ी से नाम शेर खाँ : नाम के विपरीत गुण होने पर.
डायन को भी दामाद प्यारा : दुष्ट स्त्र्िायाँ भी दामाद को प्यार करती हैं.
डूबते को तिनके का सहारा : विपत्त्िा में पड़े हुए मनुष्यों को थोड़ा सहारा भी काफी होता है.
डेढ़ पाव आटा पुल पर रसोई : थोड़ी पूँजी पर झूठा दिखावा करना.
डोली न कहार, बीबी हुई हैं तैयार : जब कोई बिना बुलाए कहीं जाने को तैयार हो.
ढाक के वही तीन पात : सदा से समान रूप से निर्धन रहने पर उक्त, परिणाम कुछ नहीं, बात वहीं की वहीं.
ढाक तले की फूहड़, महुए तले की सुघड़ : जिसके पास धन नहीं होता वह गुणहीन और धनी व्यक्ति गुणवान्‌ माना जाता है.
ढेले ऊपर चील जो बोलै, गली-गली में पानी डोलै : यदि चील ढेले पर बैठकर बोले तो समझना चाहिए कि बहुत अधिक वर्षा होगी.

मंगलवार, 29 सितंबर 2015

पिंगला


पिंगला
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पूरा नाम रानी पिंगला
पति/पत्नी राजा भर्तृहरि
विवरण उज्जैन के शासक राजा भर्तृहरि की रूपवान पत्नी थी जिसे वे अत्यन्त प्रेम करते थे, जबकि वह महाराजा से अत्यन्त कपटपूर्ण व्यवहार करती थी।
पिंगला उज्जैन के शासक राजा भर्तृहरि की रूपवान पत्नी थी जिसे वे अत्यन्त प्रेम करते थे, जबकि वह महाराजा से अत्यन्त कपटपूर्ण व्यवहार करती थी। भर्तृहरि के छोटे भाई विक्रमादित्य ने राजा भर्तृहरि को अनेक बार सचेष्ट किया था तथापि राजा ने उसके प्रेम जाल में फंसे होने के कारण उसके क्रिया-कलापों पर ध्यान नहीं दिया था। एक दिन जब उन्हें पूर्ण रूप से पता चला कि जिस रानी पिंगला को वह अपने प्राणों से भी प्रिय समझते थे, वह कोतवाल के प्रेम में डूबी है, उन्हें वैराग्य हो गया। वह अपार वैभव का त्याग करके अपने भाई विक्रमादित्य को राज्य देकर उसी क्षण राजमहल से बाहर निकल पड़े।

लोककथा/अनुश्रुति

एक समय श्री गुरु गोरखनाथ जी अपने शिष्यों के साथ भ्रमण करते हुए उज्जयिनी (वर्तमान में उज्जैन) के राजा श्री भर्तृहरि महाराज के दरबार मे पहुंचे। राजा भर्तृहरि ने गुरु गोरखनाथ जी का भव्य स्वागत और अपार सेवा की। राजा की अपुपम सेवा से श्री गुरु गोरखनाथ जी अति प्रसन्न हुए और युवा तेज युक्त राजा के ललाट पर हाथ रखते हुए गुरु गोरखानाथ ने दृष्टि डाली, तो देखा कि इस पर तो एक महान संत बनने की रेखाएं हैं। किन्तु अभी तो राजा भर्तृहरि अपनी सुन्दर पत्नी सहित अनेक स्त्रियों के कामुक प्रेमजाल और राज्य प्रशासन को संभालने में पूर्ण रूप से फंसा हुआ है। गोरखनाथ जब अपने शिष्यों के साथ जाने लगे तो राजा ने उनको श्रद्धापूर्ण नमन और प्रणाम किया। गोरखनाथ उसके अभिवादन से बहुत ही गदगद हो गए। तब गुरु गोरखनाथ ने उक एक पल सोचा कि इसे ऐसा क्या दूं, जो अद्भुत हो। तभी उन्होंने झोले में से एक फल निकाल कर राजा को दिया और कहा यह अमरफल है। जो इसे खा लेगा, वह कभी बूढ़ा नहीं होगा, कभी रोगी नहीं होगा, हमेशा जवान व सुन्दर रहेगा। इसके बाद गुरु गोरखनाथ तो अलख निरंजन कहते हुए अज्ञात प्रदेशों की यात्रा के लिए आगे बढ़ गए।
उनके जाने के बाद राजा ने अमरफल को एक टक देखा, उन्हें अपनी पत्नी से विशेष प्रेम था, इसलिए राजा ने विचार किया कि यह फल मैं अपनी पत्नी को खिला दूं तो वह सुंदर और सदाजवान रहेगी। यह सोचकर राजा ने वह अमरफल रानी को दे दिया और उसे फल की विशेषता भी बता दी। लेकिन अफसोस! उस सुन्दर रानी का विशेष लगाव तो नगर के एक कोतवाल से था। इसलिए रानी ने यह अमरफल कोतवाल को दे दिया और इस फल की विशेषता से अवगत कराते हुए कहा कि तुम इसे खा लेना, ताकि तुम्हारा यौवन और जोश मेरे काम आता रहे। इस अद्भुत अमरफल को लेकर कोतवाल जब महल से बाहर निकला, तो सोचने लगा कि रानी के साथ तो मुझे धन-दौलत के लिए झूठ-मूठ ही प्रेम का नाटक करना पड़ता है, इसलिए यह फल खाकर मैं भी क्या करूंगा। कोतवाल ने सोचा कि इसे मैं अपनी परम मित्र राजनर्तकी को दे देता हूं, वह कभी मेरी कोई बात नहीं टालती और मुझ पर कुर्बान रहती है। अगर वह युवा रहेगी, तो दूसरों को भी सुख दे पाएगी और मुझे भी। उसने वह आमफल अपनी उस नर्तकी मित्र को दे दिया। राज नर्तकी ने कोई उत्तर नहीं दिया और अमरफल अपने पास रख लिया। कोतवाल के जाने के बाद उसने सोचा कि कौन मूर्ख यह पापी जीवन लंबा जीना चाहेगा। मैं अब जैसी हूं, वैसी ही ठीक हूं। लेकिन हमारे राज्य का राजा बहुत अच्छा है। धर्मात्मा है, देश की प्रजा के हित के लिए उसे ही लंबा जीवन जीना चाहिए। यह सोचकर उसने किसी प्रकार से राजा से मिलने का समय लिया और एकांत में उस अमरफल की विशेषता सुना कर उसे राजा को दे दिया और कहा,
‘महाराज! आप इसे खा लेना क्योंकि आपका जीवन हमारे लिए अनमोल है।'
राजा फल को देखते ही पहचान गए और सन्न रह गए। गहन पूछताछ करने से जब पूरी बात मालूम हुई, तो राजा को उसी क्षण अपने राजपाट सहित रानियों से विरक्ति हो गयी।
इस संसार की मायामोह को त्याग कर भर्तृहरि वैरागी हो गए और राज-पाट छोड़ कर गुरु गोरखनाथ की शरण में चले गए।
Seealso.jpg इन्हें भी देखें: वेताल पच्चीसी एवं भर्तृहरि
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अल्मोड़ा





अल्मोड़ा का एक दृश्य

अल्मोड़ा से जुड़ी एक लोककथा भी है जिसके अनुसार-
"छह सौ साल पुरानी बात है। उत्तराखण्ड में कुमाऊँ का एक राजा था। वह एक बार शिकार खेलने अल्मोड़ा की घाटी में गया। वहाँ घना जंगल था। शिकार की टोह लेने के दौरान वहीं झाड़ियों में से एक खरगोश निकला। राजा ने उसका पीछा किया। अचानक वह खरगोश चीते में बदल गया और फिर दृष्टि से ओझल हो गया। इस घटना से स्तब्ध हुये राजा ने पंडितों की एक सभा बुलाई और उनसे इसका अर्थ पूछा।

पंडितों ने कहा इसका अर्थ है कि जहाँ चीता दृष्टि से ओझल हो जाय, वहाँ एक नया नगर बसना चाहिए, क्योंकि चीते केवल उसी स्थान से भाग जाते हैं, जहाँ मनुष्यों को एक बड़ी संख्या में बसना हो।

नया शहर बसाने का काम शुरू हुआ और इस प्रकार छह सौ साल पहले अल्मोड़ा नगर की नींव पडी।
Seealso.jpg इन्हें भी देखें: लोककथा संग्रहालय, मैसूर
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भारतकोश में संकलित लोककथाऐं
झारखण्ड की लोककथा अल्मोड़ा की लोककथा अशोक की लोककथा लक्ष्मी माता की लोककथा सिंहासन बत्तीसी
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लोककथाएँ 3


 

 

 

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लोककथा 2



Lok-kathayen.png
लोककथा से तात्पर्य किसी क्षेत्र विशेष में जनश्रुतियों के माध्यम से चली आ रही कथाएं हैं। इनका अस्तित्व पुरानी पीढ़ी से नयी पीढ़ी तक किंवदंती जनश्रुतियों के माध्यम से ही पहुंचता है। ये कथाएँ वे कहानियाँ हैं जो मनुष्य की कथा प्रवृत्ति के साथ चलकर विभिन्न परिवर्तनों एवं परिवर्धनों के साथ वर्तमान रूप में प्राप्त होती हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि कुछ निश्चित कथानक रूढ़ियों और शैलियों में ढली लोककथाओं के अनेक संस्करण, उसके नित्य नई प्रवृत्तियों और चरितों से युक्त होकर विकसित होने के प्रमाण है। एक ही कथा विभिन्न संदर्भों और अंचलों में बदलकर अनेक रूप ग्रहण करती हैं। लोकगीतों की भाँति लोककथाएँ भी हमें मानव की परंपरागत वसीयत के रूप में प्राप्त हैं। दादी अथवा नानी के पास बैठकर बचपन में जो कहानियाँ सुनी जाती है, चौपालों में इनका निर्माण कब, कहाँ कैसे और किसके द्वारा हुआ, यह बताना असंभव है।
उदाहरणार्थ सिंहासन बत्तीसी, वेताल पच्चीसी, पंचतंत्र
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लोककथा 1



छत्तीसगढ़
Chhattisgarh



बकरी और बाघिन
बहुत पुरानी बात है। एक गाँव में एक बुढ़ा और बुढिया रहते थे। वे दोनो बड़े दुखी थे क्योंकि उनके बच्चे नहीं थे। दोनों कभी-कभी बहुत उदास हो जाते थे और सोचते थे हम ही हैं जो अकेले जिन्दगी गुजार रहे हैं। एक बार बुढे से बुढिया से कहा - "मुझे अकेले रहना अच्छा नहीं लगता है। क्यों न हम एक बकरी को घर ले आये? उसी दिन दोनो हाट में गये और एक बकरी खरीदकर घर ले आये। चार कौरी में वह बकरी खरीद कर आये थे इसीलिये वे बकरी को चारकौरी नाम से पुकारते थे।
बुढिया माई बहुत खुस थी बकरी के साथ। उसे अपने हाथों से खिलाती, पिलाती। जहाँ भी जाती चारकौटि को साथ ले जाती।
पर थोड़े ही दिन में बकरी बहुत ही मनमानी करने लगी। किसी के भी घर में घुस जाती थी, और जो भी मिलता खाने लगती। आस-पास रहनेवाले बहुत तंग हो गये और घर आकर बकरी के बारे में बोलने लगे। बुढ़े बाबा को बहुत गुस्सा आने लगा। बुढ़ी माई को कहने लगे इस बकरी को जंगल में छोड़कर आए। बुढिया ने कहा "ये क्या कह रहे हो। ऐसा करते हैं राउत के साथ उसे जंगल में चरने के लिए भेज देते हैं।"
बकरी चराने वाले राउत के साथ बकरी जंगल जाने लगी। लेकिन थोड़े ही दिन में राउत भी बहुत तंग हो गया - चारकोरि उसका कहा जो नहीं मानती थी। उसने बकरी को चराने ले जाने से इन्कार कर दिया।
बकरी फिर से घर में रहने लगी और अब उसे बच्चे हो गये और बच्चे भी सबको तंग करने लग गये। अब बुढिया भी परेशान हो गई। उसने कहा "मैं और इनकी देखभाल नहीं कर सकती" -
बुढ़े बाबा ने बकरी और उसके बच्चों को जंगल में छोड़ दिया।
बकरी और उसके बच्चे खिरमिट और हिरमिट जंगल में घूमने लगे, फूल, पत्ते सब खाने लगे।
एक दिन अचानक एक बाघिन से मुलाकात हो गई। बाघिन खिरमिट और हिरमिट को देख रही थी और सोच रही थी कब इन दोनो को खाऊँगी।
बाघिन को देखकर बकरी को समझ में आ गया कि बाघिन क्या सोच रही है। बकरी को बहुत डर लगा पर हिम्मत करके वह बाघिन के पास गई और अपना सर झुकाकर उसने कहा - "दीदी प्रणाम।"
अब बाघिन तो बहुत अचम्भे में पड़ गई। ये बकरी तो मुझे दीदी कहकर पुकार रही है। उसके बच्चों को कैसे खाऊँ? बाघिन ने कहा - "तू कहाँ रहती है?" बकरी ने कहा - "क्या कहुँ दीदी। रहने के लिये कोई जगह ही नहीं है हमारे पास"।
बाघिन ने कहा - "तो तेरे पास रहने के लिये कोई जगह ही नहीं है? ऐसा कर - मेरे साथ चल - मेरे पास दो माँ है। एक में तू अपने बच्चों के साथ रह जा"
बकरी बड़ी खुशी से बाघिन के पीछे-पीछे चल दी। उसे पता था बाघिन दीदी सम्बोधन से बड़ी खुश हुई थी और अब वह उसके बच्चों को नहीं खायेगी।
बाघिन के माँद के पास दूसरे माँद में अपने बच्चों के साथ बकरी खुसी से रहने लगी। बाघिन भी उसे तंग नहीं करती थी।
लेकिन कुछ दिनों के बाद बाघिन को जब बच्चे हुए, बाघिन फिर से बकरी के बच्चों को खाने के लिए बेचैन हो गई। बच्चे पैदा होने के बाद वह शिकार करने के लिए नहीं जा पा रही थी। भूख भी उसे और ज्यादा लगने लगी थी।
बकरी बाघिन के आँखों की ओर देखती और मन ही मन चिन्तित हो उठती - वह बाघिन के पास जाकर "दीदी दीदी" कहती और बातें करती रहती ताकि उसकी आँखों के भाव बदल जाये। बाघिन उससे कहती - "मेरे बच्चों का कोई नाम रख दो" - बकरी ने ही कहा - "एक का नाम एक काँरा, दूसरे का नाम दू-काँरा"।
बाघिन के बच्चे एक काँटा और दू काँटा और बकरी के बच्चे खिरमिट और हिरमिट।
शाम होते ही बाघिन ने बकरी से कहा - "तुम तीनों अगर हमारे संग सोते तो बड़ा अच्छा होता। या किसी एक को अगर भेज दो ..." अब बकरी बहुत परेशान हो गई। क्या कहूँ बाघिन से? खिरमिट ने अपनी माँ को चिन्तित देखकर कहा - "माँ, तू चिन्ता मत कर। मैं जाऊँगा वहाँ सोने"
बाघिन के माँद में जाकर खिरमिट ने कहा - "मौसी मौसी, मैं आ गया"। बाघिन बड़ी खुश हुई। उसने खिरमिट से कहा - "तू उस किनारे सो जा..."। खिरमिट लेट गया लेकिन डर के कारण उसे नींद नहीं आ रही थी। थोड़ी देर के बाद वह उठकर बाघिन के पास जाकर उसे देखने ला - हाँ, बाघिन गाढ़ी नींद में सो रही थी। खिरमिट ने धीरे से एक काँरा को उठाया और अपनी जगह उसे लिटाकर खुद उसकी जगह में लेट गया। जैसे ही आधी रात हुई, बाधिन की नींद खुल गई - वह माँद के किनारे धीरे-धीरे पहुँची और आँखों तब भी नींद रहने के कारण ठीक से नहीं देख पा रही थी, पर उसने तुरन्त उसे खाकर सो गई।
जैसे ही सुबह हुई, खिरमिट ने कहा - "मौसी, मै अब जा रहा हूँ।"
बाघनि चौंक गई - खिरमिट ज़िन्दा है - तो मैनें किसको खाया? वह तुरन्त अपने बच्चों की ओर देखने लगी - कहाँ गया मेरा एक काँटा? बाघिन गुस्से से छटपटा रही थी। उसने कहा - "आज रात को आ जाना सोने के लिए"।
उस रात को जब खिरमिट पहुँचा सोने के लिए, उसने देखा बाघिन अपनी पूँछ से दू काँटा को अच्छे से लपेटकर लेटी थी। अब खिरमिट सोच में पड़ गया।
बाघिन ने कहा, "जा, उस किनारे जाकर सो जा" -
खिरमिट उस किनारे जाकर लेट गया लेकिन उसे नींद नहीं आ रही थी। वह धीरे से माँद से बाहर आ गया और चारों ओर देखने लगा। उसे एक बड़ा सा खीरा दिख गया, उसने उस खीरे को उठाकर माँद के किनारे पर रख दिया और खुद अपनी माँ के पास चला आया।
सुबह होते ही खिरमिट ने बाघिन के पास जाकर कहा - "मौसी, अब मैं जा रहा हूँ।"
बाघिन उसकी ओर देखती रह गयी, और फिर उसे डकार आया - यह तो खीरे का डकार आया, तो इस बार मैं खीरा खा गई। बाघिन बहुत गुस्से से खिरमिट की ओर देखने लगी। खिरमिट धीरे-धीरे माँद से बाहर निकल आया और फिर तेज़ी से अपनी माँ के पास पहुँचा -
"दाई, दाई अब बाघिन हमें नहीं छोड़ेगी - चलो, जल्दी चोल, यहाँ से निकल पड़ते हैं।" बकरी खिरमिट और हिरमिट को लेकर भागने लगी। भागते-भागते बहुत दूर पहुँच गई। बकरी खिरमिट और हिरमिट को देखती और बहुत दुखी होती। ये नन्हें बच्चे कितने थक गये हैं। उसने बच्चो से कहा - "थोड़ी देर हम तीनों पेड़े के नीचे आराम कर लेते हैं" - पर खिरमिट ने कहा - "माँ बाघिन तो बहुत तेज दौड़ती है, वह तो अभी पहुँच जायेगी।"
हिरमिट ने कहा - "क्यों न हम इस पेड़ पर चढ़ जायें?"
बकरी ने कहा - "हाँ, ये ठीक है - चल हम तीनों इस पेड़ पर चढ़ जाते हैं"।
बकरी और खिरमिट, हिरमिट पेड़ पर चढ़ गये और आराम करने लगे।
उधर बाघिन बकरियों के माँद में पहुँची। उसने इधर देखा, उधर देखा, कहाँ गयी बकरियाँ? बाहर आई और उसके बाद बकरियों के पैरों के निशान देखकर समझ गई कि वे तीनों किस दिशा में गये। उसीको देखते हुए बाघिन चलती रही, फिर दौड़ती रही। उसे ज्यादा समय नहीं लगा उस पेड़ के पास पहुँचने में। पैरों के निशान पेड़ तक ही थे और बकरियों की गंध भी तेज हो गयी थी।
बाघिन ने ऊपर की ओर देखा। अच्छा, तो यहाँ बैठे हो सब।
बाघिन ने कहा - "अभी तुम तीनों को मैं खा जाऊँगी - अभी ऊपर आती हूँ"।
खिरमिट और हिरमिट तो डर गये। डरके माँ से लिपट गये। बकरी ने कहा - "अरे डरते क्यों हो? जब तक हम पेड़ के ऊपर बैठे हैं वह बाघिन हमें खा नहीं सकती"- अब खिरमिट के मन में हिम्मत हुआ उसने कहा -
" दे तो दाई सोने का डंडा" । बाधिन ने सोचा पेड़ के ऊपर बकरी के पास सोने का डंडा कहाँ से आयेगा? बाघिन ने कहा - "सोने का डंडा तुझे कहाँ से मिला?" 
बकरी ने कहा " खिरमिट हिरमिट, ये ले डंडा" । ये कहकर बकरी ने ऊपर से एक डंडा फेका - बाघिन के पीठ पर वह लकड़ी गिरी। बाघिन ने सोचा डंडा तो डंडाही है - चोट तो लगती है - वह वहाँ से हट गई। लेकिन पेड़ के आस पास ही रही।
अब बकरी कैसे अपने बच्चों को लेकर नीचे उतरे? बकरी मन ही मन बहुत परेशान हो रही थी।
उधर बाघिन परेशान थी ये सोचकर की कब तक उसे बकरियों के इंतजार में पेड़ के नीचे रहना पड़ेगा?
तभी बाघिन ने देखा वहाँ से तीन चार बाघ जा रहे हैं। सबसे जो बड़ा बाघ था उसका नाम था बंडवा। बाघिन बंडवा के पास गई और उस पेड़ कि ओर संकेत किया जिस पर बैठी थी बकरियाँ। बंडवा तो बहुत खुश हो गया, वह अपने साथियों को साथ लेकर पेड़ के नीचे आकर खड़ा हो गया।
बकरी अपने बच्चों से कह रही थी - "डर किस बात का? ये सब नीचे खड़े होकर ही हमें देखते रहेंगे"। लेकिन तभी उसने देखा कि बडंवा पेड़ के नीचे खड़ा हो गया, उसके ऊपर बाघिन, बाघिन के ऊपर और एक बाघ, उसके ऊपर......अब तो चौथा बाघ पेड़ के ऊपर तक आ जायेगा - बकरी अब डर गई थी, कैसे बचाये बच्चों को - तभी खिरमिट ने कहा -
दे तो दाई सोना के डंडा
तेमा मारौ तरी के बंडा
ये सुनकर बडंवा, जो सबसे नीचे था, भागने लगा, और जैसे ही वह भागने लगा, बाकी सब बाघ धड़ाम धड़ाम ज़मीन पर गिरने लगे। गिरते ही सभी बाघ भागने लगे। सबको भागते देख बाघिन भी भागने लगी - बकरी ने कहा - "चल खिरमिट चल हिरमिट, हम भी यहाँ से भाग जाए। नहीं तो बाघिन फिर से आ जायेगी।"
बकरी अपने बच्चों को साथ लिए दौड़ने लगी। दौड़ते दौड़ते जंगल से बाहर आ गये। तीनों सीधे बुढ़ी माई के घर आ गये। और बुढ़ी माई को चारों ओर से घेर लिया। बुढ़ी माई और बुढ़ा बाबा उन तीनोंको देखकर बड़े खुश हुये। अब सब एक साथ खुशी-खुशी रहने लगे।

देही तो कपाल, का करही गोपाल
बहुत पहले की बात है। एक ब्राह्मण और एक भाट में गहरी दोस्ती थी। रोज़ शाम को दोनों मिलते थे और सुख-दुख की बाते कहते थे। दोनों के पास पैसे न होने के कारण दोनों सोचा करते थे कि कैसे थोड़े बहुत पैसा का जोगाड़ करे।
एक दिन भाट ने कहा - "चलो, हम दोनों राजा गोपाल के दरबार में चलते हैं। राजा गोपाल अगर खुश हो जाये, तो हमारी हालत ठीक हो जाये।"
ब्राह्मण ने कहा - 
"देगा तो कपाल
क्या करेगा गोपाल"
भाट ने कहा - "नहीं, ऐसा नहीं।
देगा तो गोपाल,
क्या करेगा कपाल"
दोनों में बहस हो गई। ब्राह्मण बार-बार यही कहता रहा 
देही तो कपाल
का करही गोपाल।
भाट बार-बार कहता रहा - "राजा गोपाल बड़ा ही दानी राजा है। वे अवश्य ही हमें देगा, चलो, एक बार तो चलते है उनके पास, कपाल क्या कर सकता है - कुछ भी नहीं -
दोनों में बहस होने के बाद दोनों ने निश्चय किया कि राजा गोपाल के दरबार में जाकर अपनी-अपनी बात कही जाए।
इस तरह भाट और ब्राह्मण एक दिन राजा गोपाल के दरबार में पहुँचे और अपनी-अपनी बात कहकर राजा को निश्चित करने के लिए कहने लगे।
राजा गोपाल मन ही मन भाट पर खुश हो उठे और ब्राह्मण के प्रति नाराज़ हो उठे। दोनों को उन्होंने दूसरे दिन दरबार में आने को लिये कहा।
दूसरे दिन दोनों जैसे ही राजा गोपाल के दरबार में फिर से पहुँचे, राजा गोपाल ने अपने देह रक्षक को इशारा किया। राजा के देह रक्षक ब्राह्मण को चावल, दाल और कुछ पैसे दिये। और उसके बाद भाट को चावल, घी और एक कद्दुू दिया।
उस कद्दुू के भीतर सोना भर दिया गया था।
राजा ने कहा - "अब दोनों जाकर खाना बनाकर खा लो। शाम होने के बाद फिर से दरबार में हाजिर होना।"
भाट और ब्राह्मण साथ-साथ चल दिए। नदी किनारे पहुँचकर दोनों खाना बनाने लग गये।
भाट ब्राह्मण की ओर देख रहा था और सोच रहा था - "राजा ने इसे दाल भी दी। मुझे ये कद्दुू पकड़ा दिया। इसे छीलना पड़ेगा, काटना पड़ेगा और फिर इसकी सब्जी बनेगी। ब्राह्मण के तो बड़े मजे हैं। दाल झट से बन जायेगी। ऊपर से ये कद्दुू अगर मैं खा लूँ, मेरा कमर का दर्द फिर से उभर आयेगी।"
भाट ने ब्राह्मण से कहा - "दोस्त, ये कद्दुू तुम लेकर अगर दाल मुझे दे दोगे, तो बड़ा अच्छा होगा। कद्दुू खाने से मेरे कमर में दर्द हो जायेगा।"
ब्राह्मण ने भाट की बात मान ली। दोनों अपना-अपना खाना बनाने में लग गये।
ब्राह्मण ने जब कद्दुू काटा, तो ढेर सारे सोना उसमें से नीचे गीर गया। ब्राह्मण बहुत खुश हो गया। उसने सोचा -
देही तो कपाल,
का करही गोपाल
उसने सोना एक कपड़े में बाँध लिया और कद्दुू की तरकारी बनाकर खा लिया। लेकिन कद्दुू का आधा भाग राजा को देने के लिये रख दिया।
शाम के समय दोनों जब राजा गोपाल के दरबार में पहुँचे, तो राजा गोपाल भाट की ओर देख रहे थे, पर भाट के चेहरे पर कोई रौनक नहीं थी। इसीलिये राजा गोपाल बड़े आश्चर्य में पड़े। फिर भी राजा ने कहा - "देही तो गोपाल का करही कपाल" - क्या ये ठीक बात नहीं?
तब ब्राह्मण ने कद्दुू का आधा हिस्सा राजा गोपाल के सामने में रख दिया।
राजा गोपाल ने एक बार भाट की ओर देखा, एक बार ब्राह्मण की ओर देखने लगे। फिर उन्होंने भाट से कहा - "कद्दुू तो मैनें तुम्हें दिया था?" भाट ने कहा - "हाँ, मैनें दाल उससे ली। कद्दुू उसे दे दिया" -
राजा गोपाल ने ब्राह्मण की ओर देखा -
ब्राह्मण ने मुस्कुराकर कहा -
देही तो कपाल,
का करही गोपाल।

महुआ का पेड़
बहुत पुरानी कहानी है। एक गांव में एक मुखिया रहता था जो अपने अतिथियों से बड़े आदर से बड़े प्रेम से पेश आता था। वह मुखिया हमेशा इन्तजार करता था कि उसके घर कोई आये, और वह उसकी देखभाल बहुत अच्छी तरह करे, और रोज़ सुबह मुखिया यही सोचता था कि आज अतिथियों को खिलाया जाये, क्या पिलाया जाये ताकि अतिथि खुशी से झूम उठे। अतिथि बड़ी खुशी से झूम उठे। अतिथि बड़ी खुशी से वहाँ से विदा लेते और जाने से पहले मुखिया को हमेशा कहते कि उन्हें इतने अच्छे से किसी ने नहीं रखा। लेकिन मुखिया के मन में यही बात खटकती कि अतिथि खुशी से झूम नहीं रहे हैं।
रोज सुबह होते ही मुखिया जंगल में घुमता रहता, फूल कंदमूल इकट्ठे करते रहता था ताकि कोई अतिथि अगर आये, तो उन्हें अच्छी तरह से भोजन करा सके।
मुखिया का बेटा भी अपने पिता की तरह अतिथि सत्कार में बड़ा माहिर था। एक दिन जब उनके घर में मेहमान आए जो पहले भी आ चुके थे, मुखिया और मुखिया का बेटा दोनो कंद-मूल और फलों से अच्छी तरह से उनका सत्कार किया। मेहमान भी बड़े प्यार से, खुशी से खा रहे थे। खाते-खाते मेहमान ने कहा - "इस जंगल में सिर्फ यही फल मिलता है - हमारे उधर के जंगल में बहुत कि के फल होते हैं। पर मुझे तो ये फल बहुत ही अच्छा लगता है।"
मुखिया का बेटा अपने पिता की ओर देख रहा था। मुखिया ने कहा - "हम जंगल में घुमते रहते हैं ताकि हमें कुछ और किस्म का फल मिल जाए। लेकिन इस जंगल में सिर्फ ये ही पाई जाती है" -
अतिथि ने कहा - "मुझे तो सबसे बेहतर आप का अतिथि सत्कार लगता है। इतने आदर से तो हमें कोई भी नहीं खिलाता।"
उस रात को मुखिया का बेटा मुखिया से कहा - "मैं कुछ दिन के लिए जंगल के भीतर और अच्छी तरह से छानबीन करने के लिए जा रहा हूँ। देखु-अगर मुझै कुछ और मिल जाये" -
मुखिया को बड़ा अच्छी लगी ये बात। उसने बेटे से कहा - "हाँ बेटा, तू जा" -
कई दिन तक मुखिया का बेटा जंगल में घूमता रहा पर उसे कोई नई चीज़ दिखाई नहीं दी। घूमते-घूमते वह बहुत ही थक गया था, एक पेड़ के नीचे बैठ वह आराम करने लगा। अचानक उसके सर पर एक चिड़िया आकर बैठी। और फिर फुदकती हुई चली गई।
अरे! ये चिड़िया तो बड़ी मस्ती से झूम रही है। उसने चारों ओर देखा - यहाँ की सारी चिड़िया तो बड़ी खुश नज़र आ रही है। क्या बात है? वह गौर से देखता रहा चिड़ियों की ओर। उस पेड़ के नीचे एक गड्ढ़ा था जिसमें पानी था। चिड़िया उड़ती हुई उस गड्ढ़े के पास गई, उन्होंने पानी पिया और झुमते हुये चहकनी लगी और जिस चिड़िया ने अभी तक पानी नहीं पिया था, वह उतने उत्साह से झूम नहीं रही थी। इसका मतलब है कि उस पानी में खुच है।
मुखिया का बेटा गड्ढ़े के पास बैठ गया और उसने गड्ढ़े का पानी पी लिया। अरे - ये पानी तो बड़ा अजीब है। पीने से झूमने को मन करता है। क्या है इस पानी में? अच्छा यह तो महुए का पेड़ है।
इसके फल झड़-झड़ के उसी पानी में गिर रहे थे। तो इसका मतलब है कि महुए के फल में वह झूमने वाली चीज़ है।
मुखिया का बेटा मन ही मन झूम उठा। ये ही तो वह कितने दिनों से तलाश कर रहा था। इतने दिनों के बाद उसे वह चीज़ मिल गई।
उसने महुए का फल इकट्ठा करना शुरु कर दिया। ढ़ेर सार फलों को लेकर वह घर की ओर चल दिया।
उधर मुखिया बहुत ही चिन्तित हो उठा था। कहाँ गया उसका बेटा? उस दिन तीन अतिथि आए हुए थे। अतिथीयों को मुखिया की पत्नी प्यार से खिला रही थी पर साथ ही साथ उदास भी थी। अपने पति की ओर बार-बार देख रही थी।
अचानक मुखिया के चेहरे पर रौनक आ गई। उसकी पत्नी समझ गई कि बेटा वापस आ गया है।
अतिथी अब जाने ही वाले थे। पर मुखिया के बेटे ने उनसे अनुरोध किया कि वह थोड़ी देर के लिए रुक जाये।
अपनी माँ को उसने सारी बात बताई। माँ ने कहा - "पर बेटा, पानी में कुछ समय वह फल रहने के बाद ही असर होगा - तुम्हारी कहानी से मुझे तो यही समझ आ रहा है।"
मुखिया का बेटा मान गया। इसके बाद पानी में वह फल डालकर कुछ दिन तक वे सब इन्तज़ार करने लगे। अगली बार जब अतिथि आए उन्हें वह पानी दिया गया पीने के लिए।
उस दिन मुखिया, मुखिया की पत्नी और मुखिया का बेटा, तीनों खुशी से झूम उठे। क्योंकि पहली बार अतिथि जाते वक्त झूमते हुए चले जा रहे थे।

एक बकरी थी। रोज़ सुबर जंगल चली जाती थी - सारा दिन जंगल में चरती और जैसे ही सूर्य विदा लेते इस धरती से, बकरी जंगल से निकल आती। रात के वक्त उस जंगल में रहना पसन्द नहीं था। रात को वह चैन की नींद सो जाना चाहती थी। जंगल में जंगली जानवर क्या उसे सोने देगें?
जंगल के पास उसने एक छोटा सा घर बनाया हुआ था। घर आकर वह आराम से सो जाती थी।
कुछ महीने बाद उसके चार बच्चे हुए। बच्चों का नाम उसने रखा आले, बाले, छुन्नु और मुन्नु। नन्हें-नन्हें बच्चे बकरी की ओर प्यार भरी निगाहों से देखते और माँ से लिपट कर सो जाते।
बकरी कुछ दिनों तक जंगल नहीं गई। आस-पास उसे जो पौधे दिखते, उसी से भूख मिटाकर घर चली जाती और बच्चों को प्यार करती।
एक दिन उसने देखा कि आसपास और कुछ भी नहीं है। अब तो फिर से जंगल में ही जाना पड़ेगा - क्या करे? एक सियार आस-पास घूमता रहता है। वह तो आले, बाले, छुन्नु और मुन्नु को नहीं छोड़ेगा। कैसे बच्चों की रक्षा करे? बकरी बहुत चिन्तित थी। बहुत सोचकर उसने एक टटिया बनाया और बच्चों से कहा - "आले, बाले, छुन्नु और मुन्नु, ये टटिया न खोलना, जब मैं आऊँ, आवाज़ दूँ, तभी ये टटिया खोलना" - सबने सर हिलाया और कहा - "हम टटिया न खोले, जब तक आप हमसे न बोले"।
बकरी अब निश्चिन्त होकर जंगल चरने के लिए जाने लगी। शाम को वापस आकर आवाज़ देती -
"आले टटिया खोल
बाले टटिया खोल
छुन्नु टटिया खोल
मुन्नु टटिया खोल"
आले, बाले, छुन्नु, मुन्नु दौड़कर दरवाज़ा खोल देते और माँ से लिपट जाते।
वह सियार तो आस-पास घुमता रहता था। उसने एक दिन एक पेड़ के पीछे खड़े होकर सब कुछ सुन लिया। तो ये बात है। बकरी जब बुलाती, तब ही बच्चे टटिया खोलते।
एक दिन बकरी जब जंगल चली गई, सियार ने इधर देखा और उधर देखा, और फिर पहुँच गया बकरी के घर के सामने। और फिर आवाज लगाई -
आले टटिया खोल
बाले टटिया खोल
छुन्नु टटिया खोल
मुन्नु टटिया खोल
आले, बाले, छुन्नु और मुन्नु ने एक दूसरे की ओर देखा -
"इतनी जल्दी आज माँ लौट आई" - चारों बड़ी खुशी-खुसी टटिया के पास आये और टटिया खोल दिये।
सियार को देखकर बच्चों की खुशी गायब हो गई। चारों उछल-उछल कर घर के और भीतर जाने
लगे। सियार कूद कर उनके बीच आ गया और एक-एक करके पकड़ने लगा।
आले, बाले, छुन्नु, मुन्नु रोते रहे, मिमियाते रहे पर सियार ने चारों को खा लिया।
शाम होते ही बकरी भागी-भागी अपने घर पहुँची - उसने दूर से ही देखा कि टटिया खुली है। डर के मारे उसके पैर नहीं चल रहे थे। वह बच्चों को बुलाती हुई आगे बढ़ी - आले, बाले, छुन्नु, मुन्नु। पर ना आले आया ना बाले, न छुन्नु न मुन्नु।
बकरी घर के भीतर जाकर कुछ देर खूब रोई। उसके बाद वह उछलकर खड़ी हो गई। ध्यान से दखने लगी ज़मीन की ओर। ये तो सियार के पैरों के निशान हैं। तो सियार आया था। उसके पेट में मेरे आले, बाले, छुन्नु, मुन्नु हैं।
बकरी उसी वक्त बढ़ई के पास गई और बढ़ई से कहा - "मेरे सींग को पैना कर दो" -
"क्या बात है? किसको मारने के लिए सींग को पैने कर रहे हो" -
बकरी ने जब पूरी बात बताई, बढ़ई ने कहा - "तुम सियार से कैसे लड़ाई करोगी? सियार तुम्हें मार डालेगा। वह बहुत बलवान है" -
बकरी ने कहा, "तुम मेरे सींग को अच्छी तरह अगर पैने कर दोगे, मैं सियार को हरा दूँगी" -
बढ़ई ने बहुत अच्छे से बकरी के सींग पैने कर दिए।
बकरी अब एक तेली के पास पहुँची। तेली से बकरी ने कहा - "मेरे सीगों पर तेल लगा दो और उसे चिकना कर दो" -
तेली ने बकरी के सीगों को चिकना करते करते पूछा - "अपने सीगों को आज इतना चिकना क्यों कर रहे हो?"
बकरी ने जब पूरी कहानी सुनाई, तेली ने और तेल लगाकर उसके सीगों को और भी चिकना कर दिया।
अब बकरी तैयार थी। वह उसी वक्त चल पड़ी जंगल की ओर। जंगल में जाकर सियार को ढ़ूढ़ने लगी। कहाँ गया है सियार? जल्दी उसे ढ़ूड निकालना है। आले, बाले, छुन्नु, मुन्नु उसके पेट में बंद हैं। अंधेरे में न जाने नन्हें बच्चों को कितनी तकलीफ हो रही होगी।
बकरी दौड़ने लगी - पूरे जंगल में छान-बीन करने लगी।
बहुत ढूँढ़ने के बाद बकरी पहुँच गई सियार के पास। सियार का पेट इतना मोटा हो गया था, आले, बाले, छुन्नु, मुन्नु जो उसके भीतर थे।
बकरी ने कहा - "मेरे बच्चों को लौटा दो", सियार ने कहा - "तेरे बच्चों को मैनें खा लिया है अब मैं तुझे खाऊँगा"।
बकरी ने कहा - मेरे सींगो को देखो। कितना चिकना है "तुम्हारा पेट फट जायेगा - जल्दी से बच्चे वापस करो"।
सियार ने कहा - "तू यहाँ मरने के लिये आई है"।
बकरी को बहुत गुस्सा आया। वह आगे बहुत तेजी से बढ़ी और सियार के पेट में अपने सींग घोंप दिए।
जैसे ही सियार का पेट फट गया, आले, बाले, छुन्नु, मुन्नु पेट से निकल आये। बकरी खुशी से अब चारों को लेकर घर लौट कर आई।
तब से आले, बाले, छुन्नु, मुन्नु टटिया तब तक नहीं खोलते जब तक बकरी दो बार तो कभी तीन बार दरवाजा खोलने के लिए न कहती।
रोज सुबह जाने से पहले बकरी उन चारों से फुसफुसाकर कहकर जाती कि वह कितने बार टटिा खोलने के लिए कहेगी।

बहुत दिनों पहले एक राजा रहता था। उनकी दो रानियाँ थीं। दोनों रानियाँ नि:सन्तान थी। राजा सभी मन्दिरों में जा - जाकर पूजा-पाठ करते, घर में पूजा-पाठ करवाते। दो रानियाँ भगवान से विनती करते रहने पर फिर भी दोनों रानियाँ माँ नहीं बन पाई।
एक बार एक सन्यासी उस राज्य से गु रहे थे। राजा के दरबार में सभी लोग कहने लगे कि वे सन्यासी बहुत ही महात्मा है। क्यों न उन्हें राज दरबार में बुलाकर इस सम्स्या को हल करने के लिये विन्ती किया जाये? राजा ने कहा कि सन्यासी को आदर से महल में बुलाया जाये।
वे महात्मा जब महल में पहुँचे, राजा ने दोनों रानियों को बुलाकर कहा "महात्मा का सत्कार बड़े आदर के साथ होना चाहिये।" बड़ी रानी उसी वक्त तैयार हो गई और महात्मा को बड़े आदर के साथ खिलाने लगी। छोटी रानी महात्मा के फटे कपड़ो की ओर देखती और उनकी सेवा करने से इन्कार कर देती है। छोटी रानी को अपने रुप और धन का बड़ा घमंड था।
कुछ दिनो बाद महात्मा जाने के लिए तैयार हो गये। जाने से पहले बड़ी रानी को उन्होंने खूब आशीर्वाद दिया और कहा "बहुत जल्द ही इस महल में बच्चों की आवाज़ सुनाई देगी" - बड़ी रानी तो बहुत खुश थी। और सचमुच कुछ ही दिनों के भीतर वह गर्भवती हो गई।
यह खबर राजा के पास पहुँचते ही राजा बहुत ही खुश हो गये। प्रजा तक उसी वक्त खबर पहुँच गई कि राजा अब पिता बनने वाले हैं। पूरे राज्य में लोक खुशियाँ मनाने लगे। बड़ी रानी का सम्मान बहुत बढ़ गया, और उनकी देखभाल करने के लिए और भी लोग रखे गये।
उधर छोटी रानी के मन में बहुत ज्यादा ईर्ष्या हो रही थी। रात दिन वह ईर्ष्या से जलने लगी थी। सोच रही थी कि अभी से जलने लगी थी। सोच रही थी कि अभी से बड़ी रानी का इतना आदर - न जाने बच्चे पैदा होने के बाद कितना ज्यादा आदर होगा, छटपटा रही थी छोटी रानी। उसने राजमहल की दाई को बुला भेजा और उसे ढेर सारा धन देकर अपने साथ शामिल कर लिया। और दोनों मिलकर इन्तज़ार करने लगे।
समय पर रानी ने दो बच्चों को जन्म दिया - एक बेटी, एक बेटा। दाई ने तुरन्त बच्चों को एक झाँपी में रखकर छोटी रानी के पास ले गई। और उसके बाद बड़ी रानी के पास दो पत्थर रख दिए।
बड़ी रानी ने जब पत्थरों को देखा उसे बहुत हैरानी हुई। ये कैसे हो सकता है। उधर राजा खुशी से झूमते हुये बड़ी रानी के पास पहुँचे और जब उन्होंने देखा बड़ी रानी दो पत्थरों को आश्चर्य से ताक रही है, राजा वहीं रुक गये और दाई से पूछने लगे क्या बात है। दाई ने कहा - "बच्चे नहीं, पत्थर निकले - राजा को बहुत गुस्सा आया। बड़ी रानी को उसी वक्त बंदी गृह में कैद कर दिया, पूरे राजमहल में ये बात फैल गई कि बड़ी रानी ने ईट पत्थर को जन्म दिया है।
उधर छोटी रानी अपने दो चौकिदारों को बुलाकर वह झाँपी दे दी और उनसे कहने लगी - "इस झाँपी में दो बच्चे हैं, दोनों को ले जाओ और मार डालो" - दोनों चौकिदार झाँपी लेकर जंगल में गये। झाँपी खोलकर बच्चों को जब देखा, तब दोनों ने निश्चय किया कि बच्चों को वही छोड़ देगें। भगवान बच्चों की रक्षा करेंगे। ये सोचकर वही झाँपी रखकर दोनों महल वापस आ गये। छोटी रानी ने जब पूछा - "हो गया काम"- उन्होंने कहा - "हाँ हो गया काम"।
इधर बड़ी रानी दिन रात पूजा पाठ में लग गई। राजा ने बड़ी रानी को फिर से महल में रहने दिया। बड़ी रानी सुबह से शाम तक पूजा करती रहती। पूजा करने के लिए फूल लाने सिपाही को भेजती। एक दिन आसपास कोई फूल नहीं मिले। सिपाही जंगल से फूल लाने गया। जंगल में सिपाही ने देखा बड़े सुन्दर चम्पा फूल लगे हुए थे। चम्पा और बाँस का झाड़ पास-पास उगे हुए थे। सिपाही फूल तोड़ने के लिए जैसे ही नज़दीक आया, चम्पा के झाड़ ने कहा "ए भैया बाँस" -
बाँस झाड़ ने कहा "काय बहिनी चंपा?"
चंपा ने कहा - "राजा के सिपाही फूलवा तोड़े बर आए दे",
बाँस ने कहा - "लग जा बहिनी आकाश" - जैसे ही बाँस ने कहा, वैसे ही चम्पा का झाड़ उपर की ओर बढ़ने लगा, बढ़ते बढ़ते वह इतना बढ़ गया की सैनिक फूल तक नहीं पहुँच पाए। सैनिक आश्चर्यचकित होकर ताकते ही रहे।
सैनिक दौड़ते हुए सेनापति के पास पहुँचे और उन्हें सारी बात बताई। सेनापति ने विश्वास ही नहीं किया - "ये सब क्या कह रहे हो?"
सैनिकों ने कहा - "आप एक बार हमारे साथ जंगल चलिये, एक बार खुद देख लीजिए" -
सेनापति चल पड़े सैनिको के संग - जैसे ही सेनापति चम्पा और बाँस के पास पहुँचे, चम्पा ने कहा - "ए भैया बाँस" - बाँस ने कहा - "काय बहिनी चंपा?" चम्पा ने कहा - "राजा के सेनापति फूल तोड़े बर आए हे"- बाँस ने कहा, "लग जा बहिनी आकाश"- चम्पा का झाड़ बढ़ते बढ़ते और भी ऊँचे तक पहुँच गया।
सेनापति बहुत ही डर गए। दौड़ते दौड़ते पहुँचे मन्त्री के पास - अब मन्त्री चल पड़े देखने के लिए। चम्पा को ऊपर से दूर तक दिखाई दे रहा था, उसने दूर से ही देख लिया कि मन्त्री जी आ रहे हैं।
"ए भैया बाँस" - बाँस ने कहा - "काय बहिनी चम्पा", चम्पा ने कहा - "राजा के मन्त्री फूल तोड़े बर आए हे" - "लग जा बहिनी आकाश"- मन्त्री जी जैसे ही पेड़ तक पहुँचे, पेड़ और ऊपर और भी ऊपर तक
पहुँच गया।
मन्त्री जी सीधे पहुँचे राजा के दरबार में। राजा ने कहा - "इतना घबरा क्यों गये हो?"
मन्त्री ने कहा - "आप इसी वक्त मेरे साथ चलिए राजा जी" -
सारी बात सुनकर राजा ने कहा - "मेरी छोटी रानी भी मेरे साथ चलेगी। ये तो उन्हें भी देखना चाहिए।"
छोटी रानी को खबर देने वही दो सिपाही पहुँचे, जिन्होंने उन बच्चों को वहाँ फेंका था। दोनों खूब डर गये थे। छोटी रानी भी डर गई थी। वे जल्दी से तैयार होकर राजा के साथ चल पड़ी।
उधर बड़ी रानी फूल के लिए व्याकुल हो रही थी और सैनिकों को बुला भेजी थी ये जानने के लिए कि वे अब तक फूल क्यों नही लाये। बड़ी रानी, छोटी रानी के महल के पास से गुज़र रही थी, उन्हे छोटी रानी और दो सिपाहियों की बात सुनाई दी। राजा और छोटी रानी जब जाने लगे, उनकी सवारी के पीछे-पीछे बड़ी रानी पैदल ही चलने लगी - बहुत व्याकुल होकर वह चली जा रही थी।
चम्पा के झाड़ को ऊपर से सब कुछ दिखाई दे रहा था - जैसे ही वे सब पास पहुँचे
"ए भैया बाँस" - बाँस ने कहा - "काय बहिनी चम्पा", चम्पा ने कहा - "छोटी रानी संग राजा फूल तोड़े बर आए हे" - "लग जा बहिनी आकाश"- चम्पा का झाड़ और भी ऊँचा हो गया।
राजा दोनों पेड़ो के पास पहुँचकर पूछने लगे - "क्या बात है - तुम दोनों भाई बहिन हो - कैसे चम्पा और बाँस बन गए?" उसी वक्त बड़ी रानी वहाँ तक पहुँची। चम्पा ने जोर से कहा - "ए भैया बाँस" - बाँस ने कहा - "काय बहिनी चम्पा", चम्पा ने कहा - "हमर महतारी, दुखियारी बड़े रानी ह फुलवा तोड़े बर आवथे"- "परो बहिनी पाँव" - चम्पा ज़मीन में झुक गई और बड़ी रानी के पैरों के पास झूमने लगी।
साथ-साथ बाँस का झाड़ भी झुककर बड़ी रानी के पैरों को छूने लगा।
इसके बाद चम्पा और बाँस ने राजा को सारी बात बताई। राजा ने उसी वक्त छोटी रानी को बन्द करने को कह दिया अंधेरी कोठरी में और बड़ी रानी से माफी मांगने लगे।
बड़ी रानी बड़े दुख से चम्पा और बाँस को देख रहे थे। ये दोनों मनुष्य कैसे बनेंगे?
बड़ी रानी दोनों के करीब पहुँचकर दोनों से लिपटकर रोने लगी। जैसे ही उनके आँसूओं ने चम्पा और बाँस को छुआ, चम्पा और बाँस मनुष्य बन गये। बेटा, बेटी को बड़ी रानी ने गले से लगा लिया और जाकर रथा में बैठ गई।
राजा रानी दोनों बच्चों के साथ राजमहल की ओर चल पड़े, साथ में बाजा, गाजा बजने लगे। पूरे देश में खुशियाँ फैल गई।

कौआ - अनोखा दोस्त
एक कौआ था। वह एक किसान के घर के आँगन के पेड़ पर रहता था। किसान रोज़ सुबह उसे खाने के लिए पहले कुछ देकर बाद में खुद खाता था। किसान खेत में चले जाने के बाद कौआ रोज़ उड़ते-उड़ते ब्रह्माजी के दरबार तक पहुँचता था और दरबार के बाहर जो नीम का पेड़ था, उस पर बैठकर ब्रह्माजी की सारी बातें सुना करता था। शाम होते ही कौआ उड़ता हुआ किसान के पास पहुँचता और ब्रह्माजी के दरबार की सारी बातें उसे सुनाया करता था।
एक दिन कौए ने सुना कि ब्रह्माजी कह रहे हैं कि इस साल बारिश नहीं होगी। अकाल पड़ जायेगा। उसके बाद ब्रह्माजी ने कहा - "पर पहाड़ो में खूब बारिश होगी।"
शाम होते ही कौआ किसान के पास आया और उससे कहा - "बारिश नहीं होगी, अभी से सोचो क्या किया जाये"।
किसान ने खूब चिन्तित होकर कहा - "तुम ही बताओ दोस्त क्या किया जाये"।
कौए ने कहा - "ब्रह्माजी ने कहा था पहाड़ों में जरुर बारिश होगी। क्यों न तुम पहाड़ पर खेती की तैयरी करना शुरु करो?"
किसान ने उसी वक्त पहाड़ पर खेती की तैयारी की। आस-पास के लोग जब उस पर हँसने लगे, उसे बेवकूफ कहने लगे, उसने कहा - "तुम सब भी यही करो। कौआ मेरा दोस्त है, वह मुझे हमेशा सही रास्ता दिखाता है" - पर लोगों ने उसकी बात नहीं मानी। उस पर और ज्यादा हँसने लगे।
उस साल बहुत ही भयंकर सूखा पड़ा। वह किसान ही अकेला किसान था जिसके पास ढेर सारा अनाज इकट्ठा हो गया। देखते ही देखते साल बीत गया इस बार कौए ने कहा - "ब्रह्माजी का कहना था कि इस साल बारिश होगी। खूब फसल होगी। पर फसल के साथ-साथ ढेर सारे कीड़े पैदा होगें। और कीड़े सारी फसल के चौपट कर देंगे।"
इस बार कौए ने किसान से कहा - "इस बार पहले से ही तुम मैना पंछी और छछूंदों को ले आना ताकि वे कीड़ों को खा जाये।"
किसान ने जब ढेर सारा छछूंदों को ले आया, मैना और पंछी को ले आया, आसपास के लोग उसे ध्यान से देखने लगे - पर इस बार वे किसान पर हंसे नहीं।
इस साल भी किसान ने अपने घर में ढेर सारा अनाज इकट्ठा किया।
इसके बाद कौआ फिर से ब्रह्माजी के दरबार के बाहर नीम के पेड़ पर बैठा हुआ था जब ब्रह्माजी कर रहे थे - "फसल खूब होगी पर ढेर सारे चूहे फसल पर टूट पड़ेगे।"
कौए ने किसान से कहा - "इस बार तुम्हें बिल्लियों को न्योता देना पड़ेगा - एक नहीं, दो नहीं, ढेर
सारी बिल्लियाँ"।
इस बार आस-पास के लोग भी बिल्लियों को ले आये।
इसी तरह पूरे गाँव में ढेर सारा अनाज इकट्ठा हो गया।

कौए ने सबकी जान बचाई।
डा. मृनालिका ओझा जिन्होंने छत्तीसगढ़ी लोक कथायें न सिर्फ इकट्ठे किये है। बल्कि गहरा अध्ययन भी की है - उनके साथ एक साक्षातकार
मैं डा. मृनालिका ओझा मैं लोकसाहित्य पर विशेष रुची रखती हूँ और यहाँ की विभिन्न संस्थाओं में लगातार क्रियाशील हूँ। छत्तीसगढ़ी साहित्य एवं कला विकास परिषद में मैं उपाध्याक्षा के पद पर हूँ। इसके सिवाय बहुत सारे यहाँ की सांस्कृतिक और साहित्यिक संस्थाओं में हूँ जैसे रिचा, सरस्वती साहित्य मन्दिर।
लोक कथाओं में मुझे बचपन से अधिक रुचि रही औैर ऐसे तो लोक साहित्य की समस्त विधाओं पर काम किया है। लोक गीतों में खूब गांव गांव जाकर सुना है और गाने वालो से बातचीत की, उनका सुख दुख जो है, उसे समझा और वैसे ही लोक कथायें जो बचपन में हम लोग सुनते थे - दादी नानी जो सुनाया करती थी। पहले तो बहुत अच्छी लगती थी सिर्फ इसलिये कि वह मनोरंजक होता था। परन्तु जब मैं मिडिल स्कूल में पहुँची तब मालूम हुआ कि लोककथा का जीवन से सम्बन्ध है। और मुझे बहुत आश्चर्य हुआ कि उसमें सिर्फ संस्कृति ही नहीं उसमें राष्ट्रीय विचारधारा भी है लोक कथाओं में और वैज्ञानिक शोध की मूल सूत्र भी लोक कथाओं में उपलब्ध है। ये बहुत आश्चर्य की बात है मैंने जब लोक कथाये पड़ी, पड़ी क्या, सुनी, प्रकाशित तो बहुत कम हुई है। तो छत्तीसगढ़ की लोक कथाओं में मेरा ध्यान आकृष्ट हुआ। मैं दूसरे प्रदेशों में गई तो तो वहा भी सुनी। किस तरह लोक कथायें यहाँ से वहाँ यात्रायें करती है इस पर मैं गौड़ किया और छत्तीसगढ़ी लोक कथाओं पर अपना ध्यान विशेष रुप से केन्द्रित किया। मैंने देखा कि सामाजिकता राष्ट्रीयता, संस्कृति इन तमाम चीजों के साथ साथ आज के जीवन का बहुत सारे समस्याओं का भी समाधान है। तो जब मैं आगें बड़ती गई तब मुझे लगा कि यदि मुझे पी.एच.डी. करना है तो लोक कथाओं पर ही केन्द्रित किया जाये । इस तरह मैंने लोककथाओं के अध्ययन को जारी रखा और उसी में डाक्टरेट करना उचित समझा लेकिन मेरा कार्य वहा रुका नहीं तब से लेकर अब तक लोक कथाओं में मुझे हर बार कई नई चीज़ मिलती है साथ साथ लोकगीतों को सुनती हूँ और कार्य कर रही हूँ।
सबसे बड़ी चीज़ है कि जब लोक कथाओं का जब मैने सुना तो मुझे लगा कि हम लोग एक के बाद एक सुन रहे है लोक कथाओं को लेकिन लोक कथाओं का मूल कहा है। तो हमारे नानाजी बताया करते थे कि राजाओं के जमाने में कुछ कथक हुआ करते थे। वे लोग राजाओं को कहानियाँ सुनाते थे। और वैसे छोटी छोटी कहानियाँ जो लिखी हुई नहीं मिलती, वे लोककथा कहलाती ये कहानियाँ, उनसे सम्पर्क करने से अधिक अच्छा रहेगा। तब मैं गांव गांव गई, छत्तीसगढ़ के सभी क्षेत्रो में मैंने ये कार्य किया है - अम्बिकापुर, सरगुजा, बिलासपुर, रायपुर, राजनांदगांव, बस्तर में जगदलपुर, दन्तेवाड़ा तमाम जगहों में जाकर मैंमे लोककथायें कलेक्ट की, उनसे सूनी, इसमें ढेर सारी कहानियाँ मुझे मिली। बचों वृद्धा जो होते है, जंगल में रहने वाले गांव में रहले वाले इन्होके जब कथा सुनाई मैंने कई बार इस चीज़ को स्पष्ट अनुभव किया कि गांव में जो पड़े लिखे हो गये है, उनसे कहते थे पहले फैसे ले लो इसके बाद कहानियाँ सुनाना। लोग इतने सीधे होते है कि वे आकर मुझे बताते थे कि हमको ऐसा ऐसा बोले है तो हमको पहले पैसा दो। तब हमने भी ऐसा किया। हम भी चाहते थे कि इतना समय जो हमारे साथ गुज़र रहे है, तो हम देते थे। इस तरह हँसी खुशी की वातावरण में हमारा ये कार्य हुआ। कभी कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ा। भूत प्रेत की भी कहानियाँ सुनाई। फिर किस तरह से गांव की ही कोई धटना लोककथा बन जाती है, उसका हमें बहुत सुन्दर अनुभव हुआ। एक बार मैं खैड़ागढ़ गई थी, तो उन लोगों ने कहा कि नेवता हो तो गण्डई का नेवता नहो कई लोगों के मुँह से जब मैं ये बात सुनी की गण्डई का नेवता क्या है। तो मैंने वहा के लोगों से पूछा, तब सब हँसने लगे। कोई सच बताने के लिये तैयार ही नहीं थे। बाद में एक वृधा थी, अस्सी से ऊपर उनका उमर था उन्होंने कहा कि बेटा ऐसा है। कि एक बार गण्डई में किसी ने निमन्त्रित दिया। खैरागढ़ के जितने लोग थे, सबको निमन्त्रित तो कर दिया फिर जब लोग वहा गये, तो बनाई नहीं था खाना पीना तो सब अपना अपना बनाये खाये। कुछ और बात थी जो उन लोग बता नहीं पाये। इस तरह से गण्डई का नेवता अविस्मरणीय हो गया। धीरे धीरे प्रचारित होते हुये वहाँ एक मुहवरा बन गया।
तो इस तरह धीरे धीरे लोककथा भी बन सकती है।
इस तरह मैंने ढेरो कहानियों का संग्रह किया लोक कथाओं का और उसके भीतर उसका जो वास्तविक उद्देश है, जो कि हमारे समाज, हमारे जीवन, हमारे पर्यावरण, हमारे मनुष्यता, इन तमाम चीज़ो को रक्षा करता है, इन चीजों को मैने गौड़ किया। एक उदाहरण छोटा सा देती हूँ। 
एक राजा था उसके दरबार में सेवक सेविकाय थी दोनों पति पत्नि थे ये जब रात में दीया बुझाते थे दोहरी के पास, तो कुछ मन्त्र पड़ते थे और मन्त्र पड़के आंचल से बुझाते थे। राजा के जो चापलूस नौकर होते है। उन लोगों ने देखा तो राजा के कान में फूक दिये कि राजा साहब ये लोग मन्त्र तन्त्र, जादु टोना करते है। राजा उनकी बात मान लिया और उन दोनों पर एक दिन कान लगाकर सुनते है तो हैरान रह जाते कि वे दोनो पूरे राज्य की कुशलता, राजा रानी के कुशलता, अपने लिये मंगल कामना करते हुये दीया बुझाते है। राजा ये सुनकर अबाक हो गया। वह चार पंक्तियाँ मैं आपको बताती हूँ।
दीपा बाड़ो डेहरी तीर
राजा यह देख कर खुश हो गया। खूब पुरस्कार दिया और पूरे राज्य में यह ढिंडोरा करवाया कि हर व्यक्ति सोने से पहले पूरे वि के लिये मंगल कामना करे और उसके बाद सोया करे।
ये बहुत बड़ी चीज़ है जो हमारे जीवन से लुप्त हो गई है। हम लोग तो व्यक्तिगत स्वार्थ के लिये ही सुबह से रात तक सोचते है। अगर ऐसी लोक कथायें इकट्ठे करके हम जनता के सामने रखे, तो आज भी मान व मुल्य को पहचानेंगे।

Content Prepared by Ms. Indira Mukherjee 
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खो गयी कहीं चिट्ठियां

 प्रस्तुति  *खो गईं वो चिठ्ठियाँ जिसमें “लिखने के सलीके” छुपे होते थे, “कुशलता” की कामना से शुरू होते थे।  बडों के “चरण स्पर्श” पर खत्म होते...