हिंदी दिवस: सौ बरस, 10 श्रेष्ठ कविताएं
शनिवार, 14 सितंबर, 2013 को 07:29 IST तक के समाचार
हिंदी साहित्य में पिछले सौ
वर्षों में जो सैकड़ों कविताएं प्रकाशित हुई हैं उनमें से मैंने अपनी पसंद
से ये दस श्रेष्ठ कविताएं चुनी हैं.
1. अंधेरे में – गजानन माधव मुक्तिबोधसमय बीतने के साथ वह अतीत की ओर नहीं गई, बल्कि भविष्य की ओर बढ़ती रही है. आठ खंडों में विभाजित इस कविता के विशाल कैनवस पर स्वाधीनता संघर्ष, उसके बाद देश की राजनीति और समाज और बुद्धिजीवी वर्ग में आई नैतिक गिरावट के बीहड़ बिंब हैं और यथास्थिति में परिवर्तन की गहरी तड़प है.
उसमें चित्रित शक्तिशाली वर्गों और बौद्धिक क्रीतदासों की शोभा-यात्रा का रूपक आज भी सच होता दिखता है. हिंदी के एक और अद्वितीय कवि शमशेर बहादुर सिंह ने लिखा था कि यह कविता ‘देश के आधुनिक जन-इतिहास का, स्वतंत्रता के पूर्व और पश्चात् का एक दहकता दस्तावेज़ है. इसमें अजब और अद्भुत रूप का जन का एकीकरण है.’
2. मेरा नया बचपन – सुभद्रा कुमारी चौहान
कई वर्ष पहले लिखी गई सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता ’मेरा नया बचपन’ अपनी मार्मिकता और निश्छलता के लिए अविस्मरणीय है. यह कविता काफ़ी समय तक स्कूली पाठ्यक्रम में लगी रही और पुरानी पीढ़ी के बहुत से लोगों को आज भी कंठस्थ होगी.
’खूब लड़ी मरदानी वह तो झांसी वाली रानी थी’ जैसी ओजस्वी कविता लिखनेवाली सुभद्रा जी इस कविता में अनूठी कोमलता निर्मित करती हैं. अपने बीते हुए बचपन को याद करते हुए वो सहसा अपनी नन्ही बेटी को सामने पाती हैं और देखती हैं कि उनका बचपन एक नए रूप में लौट आया है.
एक बचपन की स्मृति और दूसरे बचपन के वर्तमान के संयोग से एक विलक्षण कविता उपजती है जो सरल और ग़ैर-संश्लिष्ट होने के बावजूद मर्म को छू जाती है. सीधे हृदय से निकली हुई ऐसी रचनाओं को भूलना कठिन है.
3. सरोज स्मृति – निराला
मंगलेश डबराल की पसंद
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वोल्गा से गंगा – राहुल सांकृत्यायन
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अनामिका – निराला
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कुछ और कविताएं – शमशेर बहादुर सिंह
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ठुमरी – फणीश्वरनाथ रेणु
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एक साहित्यिक की डायरी – मुक्तिबोध
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निराला की साहित्य साधना 1- रामविलास शर्मा
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हंसो हंसो जल्दी हंसो – रघुवीर सहाय
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आधा गांव – राही मासूम रज़ा
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सपना नहीं – ज्ञानरंजन
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संसद से सड़क तक - धूमिल
इस कविता में निराला अपनी बेटी सरोज के बचपन के खलों, फिर विवाह और असमय मृत्यु की विडंबना-भरी कहानी कहते हैं, जाति व्यवस्था और ब्राह्मणवाद पर तीखी चोट करते हैं और एक असहाय पिता के रूप में खुद को धिक्कार भेजते हैं:
’धन्ये, मैं पिता निरर्थक था/ तेरे हित कुछ कर न सका’
‘सरोज स्मृति’ संवेदना को विकल कर देने वाली कविता है और दो स्तरों पर पाठक के भीतर अपनी छाप छोड़ती है: पहले करुणा और ग्लानि के स्तर पर और फिर घटना के ब्यौरों और कथा कहने के स्तर पर. ’राम की शक्तिपूजा’ जैसी महाकाव्यात्मक विस्तार की रचना को निराला की प्रतिनिधि कविता माना जाता है, लेकिन ’सरोज स्मृति’ का महत्व यह भी है कि उसमें निराला अपने क्लासिकी सांचे को तोड़कर कविता को कथा के संसार में ले आते हैं.
4. टूटी हुई बिखरी हुई – शमशेर बहादुर सिंह
‘सरोज स्मृति’ की करुणा के बाद शमशेर बहादुर सिंह की ‘टूटी हुई बिखरी हुई’ में प्रेम की करुणा दिखाई देती है, जो अपने विलक्षण बिंबों, अति-यथार्थवादी दृश्यों के कारण चर्चित हुई. यह प्रेम का प्रकाश-स्तंभ है. एक प्रेमी का विमर्श, उसका आत्मालाप और ख़ुद को मिटा देने की उत्कट इच्छा.
इस कविता में अंतर्निहित संगीत पाठक के भीतर एक उदास और खफीफ अनुगूंज छोड़ता रहता है. इस अनुगूंज को रघुवीर सहाय जैसे कवि ने अपनी एक टिप्पणी में सुंदर ढंग से व्याख्यायित किया था. कविता में प्रेम के बारे में जब भी कोई ज़िक्र होगा, ‘टूटी हुई बिखरी हुई’ उसमें ज़रूर नज़र आएगी.
5. कलगी बाजरे की – अज्ञेय
खड़ी बोली की कविता का इतिहास अभी सौ वर्ष का भी नहीं है, लेकिन उसमें विभिन्न आंदोलनों के पड़ाव काफ़ी महत्वपूर्ण हैं. ऐसा ही एक प्रस्थान-बिंदु प्रयोगवाद या नयी कविता है, जिसकी घोषणा अज्ञेय की कविता ‘कलगी बाजरे की’ बखूबी करती है.
पुराने प्रतीकों-उपमानों को विदा करने और प्रेमिका के लिए ‘ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका’ की बजाय ‘दोलती कलगी छरहरे बाजरे की’ जैसा आधुनिक संबोधन देने के कारण इस कविता की काफी चर्चा हुई.कविता में छायावादी बिंबों से मुक्ति और नयी कल्पना को अभिव्यक्ति देनेवाली यह कविता ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण है. 6. अकाल और उसके बाद – नागार्जुन
दोहा-छंद में लिखी जनकवि नागार्जुन की कविता ‘अकाल और उसके बाद’ अपने स्वभाव के अनुरूप नाविक के तीर की तरह है – दिखने में जितनी छोटी, अर्थ में उतनी ही सघन.
नागार्जुन भारतीय ग्राम जीवन के सबसे बड़े चितेरे हैं और ‘अकाल और उसके बाद’ में घर में रोते चूल्हे, उदास चक्की और अनाज के आने के चित्र हमारी सामुहिक स्मृति में हमेशा के लिए अंकित हो चुके हैं.
7. चंपा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती – त्रिलोचन
प्रगतिशील परंपरा के एक और प्रमुख कवि त्रिलोचन की कविता ‘चंपा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती’ भी एक अविस्मरणीय कविता है जिसकी कथा और संवेदना की कोमलता दोनों अभिभूत करती हैं. यह एक छोटी बच्ची चंपा और कवि का संवाद है.
कवि उसे अक्षर-ज्ञान के लिए प्रेरित करता है ताकि बड़ी होकर वह अपने परदेस गए पति को चिट्ठी लिख सके. लेकिन चंपा नाराज़ होती है और कहती है कि वह अपने पति को कभी परदेस यानी कलकत्ता नहीं जाने देगी और यह कि ‘कलकत्ते पर बजर गिरे’.
एक मार्मिक प्रसंग के माध्यम से इस कविता में खाने-कमाने की खोज में विस्थापन की विडंबना झलक उठती है और चंपा का इनकार स्त्री-चेतना के एक मज़बूत स्वर की तरह सुनाई देता है. कवि और चंपा का संवाद बचपन की मासूमियत लिए हुए है और कविता के परिवेश में लोक संवेदना घुली हुई दिखाई देती है.
8. रामदास – रघुवीर सहाय
उसमें एक असहाय व्यक्ति की यंत्रणा है जिसे सब देखते-सुनते हैं, लेकिन उसे बचाने के लिए कोई नहीं आता. दुर्बल लोगों पर होनेवाले अत्याचारों पर रघुवीर सहाय की बहुत सी कविताएं हैं, लेकिन ‘रामदास’ हादसे की ख़बर को जिस वस्तुपरक और बेलौस ढंस से देती है, वह बेजोड़ है. छंद में लिखी होने के कारण यह और भी धारदार बन गई है.
9. बीस साल बाद – धूमिल
धूमिल की कविता ‘बीस साल बाद’ देश की आज़ादी के बीस वर्ष बीतने पर लिखी गई थी, लेकिन आज 66 वर्ष बाद भी वह पुरानी नहीं लगती तो इसकी वजह यह है कि
‘सड़कों पर बिखरे जूतों की भाषा में
एक दुर्घटना लिखी गई है’
जैसी उसकी पंक्तियां आज और भी सच हैं और यह सवाल आज भी सार्थक है कि
‘क्या आज़ादी सिर्फ़ तीन धके हुए रंगों का नाम है
जिन्हें एक पहिया ढोता है?’
10 मुक्तिप्रसंग – राजकमल चौधरी
राजकमल चौधरी की लंबी कविता ‘मुक्तिप्रसंग’ न सिर्फ़ इस अराजक कवि की उपलब्धि मानी जाती है, बल्कि लंबी कविताओं में भी एक विशिष्ट जगह रखती है. वह भी हमारी लोकतांत्रिक पद्धतियों की दास्तान कहती है जो जन-साधारण को ‘पेट के बल झुका देती हैं.’
यह मनुष्य को धीरे-धीरे अपाहिज, नपुंसक, राजभक्त, देशप्रेमी आदि बनाने वाली व्यवस्था के विरुद्ध एक अकेले व्यक्ति के एकालाप और चीत्कार की तरह है जिसे शारीरिक इच्छाओं के बीच एक यातनापूर्ण यात्रा के अंत में यह महसूस होता है कि मनुष्य की मुक्ति दैहिकता से बाहर निकलकर ही संभव है. ‘मुक्तिप्रसंग’ का शिल्प अपने रेटरिक और आवेश के कारण भी पाठकों को आकर्षित करता है.
ये ऐसी रचनाएं हैं जो हिंदी कविता की लगभग एक सदी के इस सिरे से देखने पर सहज ही याद आती हैं और यह भी याद आता है कि इनके रचनाकार अब इस संसार में नहीं हैं. लेकिन उनके बाहर और अगली पीढ़ियों के भी अनेक कवि हैं, जिनकी रचनाएं अपने कथ्य और शिल्प में विलक्षण हैं.
केदारनाथ अग्रवाल, विजयदेव नारायण साही, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, श्रीकांत वर्मा, कुंवर नारायण और केदारनाथ सिंह की कई कविताएं, विष्णु खरे की ‘लालटेन जलाना’ और ‘अपने आप’, लीलाधर जगूड़ी की ‘अंतर्देशीय’ और ‘बलदेव खटिक’, चंद्रकांत देवताले की ‘औरत’, विनोद कुमार शुक्ल की ‘दूर से अपना घर देखना चाहिए’ और ‘हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था’, ऋतुराज की ‘एक बूढ़ा आदमी’, आलोक धन्वा की ‘जनता का आदमी’ और ‘सफ़ेद रात’ और असद ज़ैदी की ‘बहनें’ और ‘समान की तलाश’ जैसी अनेक कविताएं अनुभव के विभिन्न आयामों को मार्मिक ढंग से व्यक्त करने के कारण याद रहती हैं और समय बीतने के साथ वे हिंदी की सामूहिक स्मृति में बस जाएंगी.
(प्रस्तुति: अमरेश द्विवेदी)
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