1.
*कोई धुन...*
💟
ग़म भी हो तो सरगमी रहे
कोई धुन क्यों मातमी रहे
दिल ही हो सबकी किताबे पाक
सब पढ़ें ये लाज़मी रहे
सूखे मत बाहर नदी कोई
आँखों में इतनी नमी रहे
आदमी को ढूँढ़े आदमी
सबमें ऐसी कुछ कमी रहे
रख हरी इनसानियत की पौध
और सब कुछ मौसमी रहे
शर्त इतनी सी ख़ुदाई की
आदमी सा आदमी रहे
ऐसा जग हो जिसमें सब हों साथ
क्या हुआ जो हम हमी रहे
रच दे सच की आँच हर लब पर
बर्फ़ यूँ कब तक जमी रहे
कब कहा ये नींद ने बोलो
अपना बिस्तर रेशमी रहे
भीगी आँखें जागतीं शब भर
सुबह भी कुछ शबनमी रहे
ख़त किसी का ख़ैरियत सबकी
अपनापन ये आलमी रहे
बिछड़ें ऐसे मिल सकें फिर से
चाहे कितनी बरहमी रहे
दुधमुँहे इन होंठों पर 'अनिमेष'
हश्र तक धरती थमी रहे
💔
2.
*हर घर...*
🈴
हर घर अपना घर लगता है
इस बस्ती से डर लगता है
भूले भटके हँस देता जो
कोई जादूगर लगता है
होती है इक उम्र कि जिसमें
साया भी सुंदर लगता है
सच में प्यार मिले तो कर ले
दिल इक ले देकर लगता है
जीता जगता ख़्वाब था कोई
अब दीवारो दर लगता है
पूछती है तितली क्या सचमुच
सपनों को भी पर लगता है
बिरहन सावन सा ये जीवन
दुख प्यारा देवर लगता है
है कितना अपना हर लम्हा
खो पाना दूभर लगता है
नीची छतें हैं इन रिश्तों की
आते जाते सर लगता है
अकसर होता हद में अपनी
ख़ुद से जो बाहर लगता है
हाथ की दूरी पर हैं तारे
रात कभी जग कर लगता है
मन की चींटी देख ललकती
उसको जहाँ शक्कर लगता है
तेरी अगन में दहके हुओं को
सूरज एक शरर लगता है
मुझको पहन कर इतराये वो
प्यार को भी पैकर लगता है
यार को प्यार बना लेने में
बस आधा अक्षर लगता है
छूते फिर से धड़क उठेगा
देखूँ जो पत्थर लगता है
हूँ इस पर इक साथ तुम्हारे
फ़ासला भी बिस्तर लगता है
पानी खोजता है ये चेहरा
तर होकर बेहतर लगता है
अच्छा लगता है जब कोई
अपने से बढ़ कर लगता है
दर्द दिखाता रस्ता सबको
रहबर पैग़म्बर लगता है
जिसका न कुछ किरदार वही अब
सबसे क़द्दावर लगता है
कैसे रहे इनसान यहाँ पर
दहर ख़ुदा का घर लगता है
उसको ख़ुदा मानें तो कैसे
जो ख़ुद से बाहर लगता है
किससे आस और आसरा किसका
दर से ख़ाली दर लगता है
जैसे अकेला बच्चा कोई
दिल ख़ुद से अकसर लगता है
मान बुरा मत भीड़ में कोई
हाथ से हाथ अगर लगता है
ठीकरे जैसा ये जग सारा
अपनी ठोकर पर लगता है
होता दुखी दुख देख के सबका
दीवाना शायर लगता है
लहजा अलग है इन ग़ज़लों का
सबसे जुदा तेवर लगता है
शहर के सहरा में कौन 'अनिमेष'
जो भीतर तक तर लगता है
🧡
✍️ *
3.
*इस दौर में...*
~ *
🌿
इस दौर में सवाल ये करना ग़लत तो है
मुद्दत पे मिल रहे हो कहो ख़ैरियत तो है
वे सूखी रोटियों में भी भर देती हैं मिठास
माँओं के हाथ में भरी कोई सिफ़त तो है
रस्तों पे आते जाते ही होता दुआ - सलाम
अब भी बची हुई कहीं इनसानियत तो है
चाहत की इस किताब को पढ़ सकते आज भी
ऊपर पड़ी यूँ धूल की मोटी परत तो है
इसको भी छोड़ने के लिए ज़िद करें न आप
ग़ुर्बत में अपने पास ये ग़ैरत फ़क़त तो है
ये ठीक है ग़लत ही सही और सही ग़लत
क्या इतना कम कि अब भी सही और ग़लत तो है
कब किससे क्या कहा नहीं होता ये रखना याद
सच बोलने से सच में कहीं कुछ बचत तो है
उपवास पर ही रहती हैं अकसर ये औरतें
कुछ इस तरह ही ख़ल्क़ में बरकत बढ़त तो है
खुलते ही आँखें सुबह यहाँ देखते सभी
सोये थे जिसके नीचे सलामत वो छत तो है
दो जोड़े होंठ मिल के जला लेते कल की लौ
अब कुछ भी कह लो प्यार मुहब्बत में सत तो है
कोई कहीं तो होगा इसे पढ़ने के लिए
ये शायरी लहू से लिखा दिल का ख़त तो है
'अनिमेष' एक सच को ज़ुबां दे हज़ारों में
अब भी क़लम कलाम की ये हैसियत तो है
🌱
✍️
4.
*साये हैं...*
~
🌴
जिन दरख़्तों के हम पे साये हैं
धूप ख़ुद सह के मुसकुराये हैं
उनसे शिकवे गिले भुला कर मिल
वो जो बरसों के बाद आये हैं
आँख से टूट कर गिरे भी तो
आ के होंठों पे मुसकुराये हैं
तुमको ख़ुशबू न रोक पायेगी
मैंने काँटें कहाँ बिछाये हैं
जाने कब तक फ़ज़ाँ में गूँजेगा
वो जो हम तुमसे कह न पाये हैं
देखना सुबह अपनी शबनम ने
रात में कितने गुल खिलाये हैं
ख़त न होंठों के पहुँचे होंठों तक
यूँ ही बैरंग लौट आये हैं
फिर से पलकों पे उभरीं कुछ बूँदें
फिर से सतरंग झिलमिलाये हैं
सबसे आख़िर में देखना हमको
इतने अपने कि हम पराये हैं
रोशनी किरचों की तरह चुभती
क्या अँधेरों ने दिन दिखाये हैं
हम पे इलज़ाम हमने लफ़्ज़ों को
ख़्वाब अनदेखे से दिखाये हैं
कोई क़द ढूँढ़ना इन्हीं में अब
पैरहन सब सिले सिलाये हैं
अपने हाथों से थामा है ख़ुद को
ये क़दम जब भी लड़खड़ाये हैं
पूछने देगा क्या सवाल कोई
हाथ तो हमने भी उठाये हैं
दूधमुँहे जिनके थे अभी सपने
फिर गये नींद से जगाये हैं
अम्न के वास्ते हुकूमत ने
पहरे अब ख़्वाबों पर बिठाये है
बाग़बां बन गये मुहब्बत के
बैर के बेर ही उगाये है
इनका गिरना तबाह कर देगा
ये जो जम्हूरियत के पाये हैं
धूल में खेलने चले बच्चे
बस अभी जो नहा के आये हैं
देते क़ुदरत को किसलिए गाली
सब तो इस कोख के ही जाये हैं
प्यार तो रोशनी है भीतर की
सारे सच जिससे जगमगाये हैं
कल की साँसें सहेजने के लिए
कुछ शजर हमने भी लगाये हैं
कर सके कुछ कहाँ मिला कर हर्फ़
दिल से दिल तक ये पुल बनाये हैं
आख़िरी वक़्त याद ये आया
चार काँधे कहाँ जुटाये हैं
छोड़ जायेंगे औरों की ख़ातिर
रस्ते 'अनिमेष जो बनाये हैं
🌱
✍️
5.
*अपना आप...*
💟
अपना आप रखोगे जग कर
पर सोओगे किससे लग कर
अंगुल दो अंगुल क्या बचाना
हाथों हाथ वो लेगा ठग कर
सच को जान गया हूँ कुछ कुछ
गर्म सलाख़ों से दग दग कर
दुनिया चलती उसके चलते
नन्हे पग डगमग डगमग कर
झिलमिल अँधेरों में खो रहना
जग सारा जगमग जगमग कर
आ न सका उँगली में तो क्या
दिल में कहीं रख लेना नग कर
प्यार बना लेगा पथ अपना
सुभगे तुमको और सुभग कर
बह वो रहा है और कहाँ अब
ख़ाली यूँ मेरी रग रग कर
लगता जैसे धधक उठूँगा
रह जाता हूँ फिर से सुलग कर
क्या ऐसा कर डाला किसी ने
रोता है ख़ुद से लग लग कर
दूसरी दुनिया देखी किसने
मिल के इसी धरती को सरग कर
धो दूँ धूप दिखा के पहन लूँ
मैली ये चादर बग बग कर
ढूँढ़ रहा फिरने की सवारी
पूरे काम सभी लगभग कर
जीवन मौत मिले हैं 'अनिमेष'
देखो न इन दोनों को अलग कर
💔
✍️
6.
*दर्द बाक़ी है...*
🧡
सभी बिछड़े मगर बन कर सहारा दर्द बाक़ी है
गुज़र जाने तलक होगा गुज़ारा दर्द बाक़ी है
कभी लगता मुहब्बत में कहा तो जा चुका सब कुछ
कभी लगता है ये मेरा तो सारा दर्द बाक़ी है
वो तश्ना लब जो इनसे आशना थे सिल गये कब के
कई दिन से मेरी आँखों में खारा दर्द बाक़ी है
नहीं है वो तो उसके नाम पर झगड़े ये किस ख़ातिर
अगर वो है तो फिर क्यों इतना सारा दर्द बाक़ी है
ज़रूरी क्या कि छूटे हाथ तो फिर साथ भी छूटे
मिला जो प्यार से अब भी वो प्यारा दर्द बाक़ी है
डुबोया मुझको मेरी नेकियों ने फिर से दरिया में
मगर मझधार में होकर किनारा दर्द बाक़ी है
उन्हीं गलियों में लेता ज़िंदगी का नाम रोज़ो शब
भटकता फिरता अब भी मारा मारा दर्द बाक़ी है
लबों से मिलते ही लब ग़म भी सब घुल मिल से जाते थे
वही मरहम ज़रा रख दे दुबारा दर्द बाक़ी है
मसीहाई ही करनी थी तो फिर आख़िर तलक करता
उसे हर मोड़ पर मैंने पुकारा दर्द बाक़ी है
मसर्रत कितनी थी उन चंद लम्हों के मरासिम में
सुलग उठता कहीं कोई शरारा दर्द बाक़ी है
यहाँ तक आते आते सब उजाले ज़र्द पड़ जाते
अँधेरी रात में बन कर सितारा दर्द बाक़ी है
बहुत कुछ खो गया है फिर भी जीने का सबब क्या कम
कि दिल के पास कुछ अब भी तुम्हारा दर्द बाक़ी है
हुए दो जिस्म मिल कर जान इक दूजा रहा ही क्या
न मेरा तेरा कुछ भी बस हमारा दर्द बाक़ी है
बिना सर पर उठाये आसमां कब उठती छत कोई
कि हर इक घर में बन कर ईंट गारा दर्द बाक़ी है
न देखूँ अपने लेकिन देख दुख दुनिया के दुखता दिल
कि इस खाते में तो सबका उधारा दर्द बाक़ी है
तू इनसां है तेरे होने को लाज़िम उसका होना भी
उसी से तो है सब करता इशारा दर्द बाक़ी है
जहां भी कह रहा जग जीत आया वो मगर सच ये
मेरे अंदर कहीं पर मुझसे हारा दर्द बाक़ी है
अभी हैं धड़कनें साँसें अभी तक ज़िंदगी ज़िंदा
नज़र है और अब भी है नज़ारा दर्द बाक़ी है
मिटाना किस तरह वो चाहता है मुझको देखो तो
ख़ुशी लेकर नहीं ये भी गवारा दर्द बाक़ी है
यही हीरा तराशा करता है भीतर के हीरे को
क्या ग़म 'अनिमेष' जब ख़ुद बन के चारा दर्द बाक़ी है
💗
7.
*वो रखे...*
~
💧
पलकों का पानी पिला कर
वो रखे कल को जिला कर
भूखे बच्चों को सुलाये
लोरियों में क्या मिला कर
आ गले लग जा न पहले
फिर जो करना है गिला कर
ठीक तो है नारियल ये
देखता है सर हिला कर
काम था कोई ख़ुदा का
हो गया कुछ दे दिला कर
ज़िद थी फिर बचपन को छू लें
आ गये घुटने छिला कर
बेटे तो परदेस में हैं
कौन देगा पानी ला कर
हाथ मिलने पर है बंदिश
देख दिल से दिल मिला कर
यूँ ही रह जाती है अकसर
सारे घर को वो खिला कर
चीख़ पड़ना चाहिए था
रह गया फिर तिलमिला कर
प्यार तो है कहना सुनना
यूँ न लब से लब सिला कर
राह सूनी तो न घबरा
हौसलों को क़ाफ़िला कर
उनसे अच्छा आइना कौन
दुश्मनों से भी मिला कर
और क्या फ़नकारी हँसना
आँसुओं में खिलखिला कर
जाना तो होगा अकेले
रह ले सबसे मिल मिला कर
आ गया दुनिया में यूँ ही
जाऊँ सबको इत्तिला कर
कर दी इक शुरुआत 'अनिमेष'
अब इसे तू सिलसिला कर
💔
✍️ *
8.
*चल जायेगा ...*
~ l
🌐
आसमां पर आसमां वाला न हो चल जायेगा
पर न हो इनसान में इनसान तो खल जायेगा
ख़ेमों ख़ानों सरहदों के काँटे दो चुन कर निकाल
और भी ये बाग़ जग का फूल और फल जायेगा
पत्थरों के हैं ख़ुदा सारे ये जब टकरायेंगे
आग इतनी फैलेगी सारा जहां जल जायेगा
एक माँ की गोद में दुनिया ये बच्चे की तरह
वो बचायेगी जहाँ तक उसका आँचल जायेगा
आज की हमने न जो परवाह मिल कर आज की
आने वाला कल भी कर के और बेकल जायेगा
सब भले कहते सियासत को बुरा रहते हैं दूर
इस तरह तो और भी बढ़ता ये दलदल जायेगा
दिल को समझाता हूँ मैं और दिल भी समझाता मुझे
इतना अच्छा होने से तो कोई भी छल जायेगा
होगी क्या लेकिन ये रंगत रोशनी ख़ुशबू बहार
काम हस्ती का तो चाहत के बिना चल जायेगा
प्यास गर होती बुझानी झुक के तो आता वो पास
लगता है तरसा के ही फिर ये भी बादल जायेगा
उससे पहले ऐ वफ़ा जाने दे अपनी रूह तक
वक़्त वरना ख़ाक यूँ ही ख़ाक में मल जायेगा
याद रखना काल का पहिया हमेशा घूमता
कितना भी सूरज चढ़ा हो शाम को ढल जायेगा
आने जाने से बना ये ख़ल्क़ फ़ानी सच यही
आज तेरे साथ है जो छोड़ कर कल जायेगा
बात जाने की चली है तो ये सोचा पूछ लूँ
क्या तुम्हारी उम्र में अपना कोई पल जायेगा
मुँदने ही वाली थीं लेकिन सोच कर रख लीं खुली
शायद इन पलकों पे सपना औरों का पल जायेगा
है कहाँ आशिक़ दीवाना शायर इस 'अनिमेष' सा
ज़िद है जिसकी आख़िरी मंज़िल भी पैदल जायेगा
💔
✍️
9.
*ज़िंदगानी...*
💧
ये जो पानी है
ज़िंदगानी है
हैं निशां इतने
क्या निशानी है
रंग धरती का
सुर भी धा नी है
आँखों में सपना
आसमानी है
कोरा कागद तन
मन ही मानी है
मुझमें मिट्टी की
बोली बानी है
दिन को महकाती
रातरानी है
प्यार तो ख़ुशबू
ज़ाफ़रानी है
और जवानी क्या
बस रवानी है
पूछे ख़ुद मछली
कितना पानी है
दौड़ती दिल पर
राजधानी है
तंत्र की जन पर
हुक्मरानी है
अब तो हर लब पर
बेज़ुबानी है
देख ले हालत
क्या बतानी है
क्या कहीं कोई
दुख का सानी है
झाँस देगी ही
कच्ची घानी है
बरसे बच्ची ज्यों
दादी नानी है
कब सुनी ख़ुद की
सबकी मानी है
तुझमें अपनी ही
ख़ाक छानी है
फूँका सब अब बस
राख उठानी है
तोड़ कर मूरत
फिर बनानी है
इश्क़ का ये रोग
ख़ानदानी है
उसको शह दे ख़ुद
मात खानी है
अब कफ़न में भी
खींचातानी है
फ़ानी है दुनिया
आनी जानी है
साथ में सबके
कुछ कहानी है
जान की क्या फ़िक्र
ये तो जानी है
अनकही सुन ली
अब सुनानी है
शेर हर 'अनिमेष'
इक कहानी है
💔
10.
*जहाँ फिर भी...*
🌐
यहाँ हर पल मुसीबत देखता हूँ
जहां फिर भी सलामत देखता हूँ
हवा के हाथ उस माथे पे रख कर
है अब कैसी तबीयत देखता हूँ
मुझे भेजा गया था रोकने को
मैं बच्चों की शरारत देखता हूँ
वे अपने साथ सब कुछ ले के गुज़रे
बुज़ुर्गों की वसीयत देखता हूँ
सहर तक देखता सपने नहीं बस
मैं आगे की हक़ीक़त देखता हूँ
तुझे तो जूझ कर दुनिया से लाऊँ
पर अपने घर की हालत देखता हूँ
मुझे अहसास मरने का नहीं है
मैं ख़ंजर की नफ़ासत देखता हूँ
अँधेरे भी हुए जाते हैं रोशन
तेरी हर इक इबारत देखता हूँ
अगर चाहे वो क्या से क्या बना दे
मुहब्बत की इनायत देखता हूँ
किसी सहमे हुए बच्चे की मानिंद
हर इक बुत की इबादत देखता हूँ
कहाँ आँखें वे जिनमें देखूँ चेहरा
मैं आईने की रंगत देखता हूँ
झलकता रूह के दरपन में कोई
बहुत ही ख़ूबसूरत देखता हूँ
टटोला करता दिल उम्मीद से फिर
कहीं क्या है मुरव्वत देखता हूँ
जिसे लिख कर कभी भेजा नहीं था
हर इक धड़कन में वो ख़त देखता हूँ
वो तो ख़ुशबू है छू सकता नहीं मैं
नहीं क्या ये ग़नीमत देखता हूँ
दुखों से भर गया है दिल का ये घर
हरेक दिन इसमें बरकत देखता हूँ
हुआ अरसा मिले ख़ुद से किसी से
है कब मिल पाती फ़ुर्सत देखता हूँ
जहाँ मोहलत मिले मिल बैठ जाते
दिखाता वो मैं जन्नत देखता हूँ
किसी का हाथ इन हाथों में लेकर
उसी में अपनी क़िस्मत देखता हूँ
हूँ आदमज़ाद छौंके छींके जो वो
तो उसमें भी बग़ावत देखता हूँ
खुले में सो के तारे देखता था
उठायी जबसे है छत देखता हूँ
सिवा अपने नहीं शीशे में कोई
इसी से कर के नफ़रत देखता हूँ
जुनूने तेज़ रफ़्तारी किसे कम
मगर पहले हिफ़ाज़त देखता हूँ
रही होगी कभी तो रहने लायक़
खँडहर से वो इमारत देखता हूँ
मेरी ख़ातिर ही सबके हाथ ख़ाली
फ़रिश्तों की नदामत देखता हूँ
लुटा सब वक़्त और हालात में अब
बची क्या थोड़ी ग़ैरत देखता हूँ
बड़ी मुद्दत हुई देखे सहर को
शबों की बादशाहत देखता हूँ
चराग़ों की तरह जल उठता हूँ फिर
जिधर जिस ओर ज़ुल्मत देखता हूँ
हुआ इस दौर में इनसान सस्ता
बढ़ी जिंसों की क़ीमत देखता हूँ
ख़ुदा को मोल जो ले लूँ ख़ुदी से
मिलेगी क्या रियायत देखता हूँ
झुके जो सर उन्हीं की होती गिनती
अजब सी ये रिवायत देखता हूँ
वो करता ख़ुद से ही वादाख़िलाफ़ी
बदलती कब ये आदत देखता हूँ
कहीं बेहतर गँवारों की है सोहबत
ज़हीनों की जहालत देखता हूँ
भलाई से भरोसा उठने लगता
शरीफ़ों की शराफ़त देखता हूँ
बहुत दिन से सुकूनो चैन सा है
अब आती कोई आफ़त देखता हूँ
हुई सदियाँ कोई गंगा न निकली
पिघलते पीर परबत देखता हूँ
चमकते जगमगाते इंडिया में
कहाँ खोया है भारत देखता हूँ
उसे मैं खोजने जाऊँ कहीं क्यों
तेरे क़दमों में जन्नत देखता हूँ
ग़ज़ल से कब बदलती है ये दुनिया
बदल कुछ जाये सूरत देखता हूँ
न होगा कुछ भी ऐसी दोस्ती से
कोई अच्छी अदावत देखता हूँ
बदलना तो नहीं इस दिल को मुमकिन
जो हो सकती मरम्मत देखता हूँ
गिरी इनसानियत कहती उठा लो
उठाये कौन ज़हमत देखता हूँ
दिमाग़ी वहशतों का दौर है ये
दिलों में बढ़ती दहशत देखता हूँ
मुखौटे ही नज़र आते हैं हरसू
कहीं सूरत न सीरत देखता हूँ
सियासत ने कई चेहरे तो बदले
मगर बदली न सूरत देखता हूँ
निज़ामे मुल्क करता चौकीदारी
है ये कैसी निज़ामत देखता हूँ
रहे बस पास ये काग़ज़ की कश्ती
कहाँ दौलत या शोहरत देखता हूँ
पड़ा बेजान सा ईमान लेकिन
कहीं कुछ होती हरकत देखता हूँ
बने आवाज़ हर इक बेज़ुबां की
क़लम तुझमें वो ताक़त देखता हूँ
जो नंगा है उसे कह पाये नंगा
है किसमें इतनी हिम्मत देखता हूँ
यहाँ कब मिल सका इनसाफ़ 'अनिमेष'
वही आख़िर अदालत देखता हूँ
🌀
✍️ *
11.
*बहुत दिनों से...*
~
🌿
बहुत दिनों से तो आया गया नहीं कोई
निगाह जाये जहाँ तक नहीं कहीं कोई
मुझी तलक मेरी आवाज़ लौट आती है
किसे पुकारूँ कि अपने सिवा नहीं कोई
ये दोस्ती ये मुहब्बत ये रिश्ते नाते वफ़ा
मकान ख़ाली हैं सारे नहीं मकीं कोई
ये मेरा तेरा ये उसका इसी की धुन में सभी
न हमनवा है किसी का न हमनशीं कोई
ख़ुदा तू होगा तेरा आसमान भी सारा
मगर न पाँव के नीचे कहीं ज़मीं कोई
हो ज़िंदगी से कहीं मिलता हू ब हू न सही
अँधेरी रात का साथी न महजबीं कोई
कहा था लौट के आऊँगा आ गया लेकिन
किवाड़ बंद ये कहता कि है नहीं कोई
ये कौन बेख़ुदी में करता जा रहा सज्दे
है आस्ताँ कहीं और है कहीं जबीं कोई
वो कैसी शै कि लगे खो के खो दिया सब कुछ
न जिसको पा के भी हो पाता मुतमईं कोई
अभी अभी जो गया छोड़ मेरा साया था
अँधेरे में हूँ अकेले कहीं नहीं कोई
है एक उम्र से दुनिया उम्मीद से 'अनिमेष'
पर आदमी को है ख़ुद पर हाँक़ीं
🌱
12.
*आते ही...*
🌿
आते ही फिर जाना होगा
यूँ ही आबोदाना होगा
क्या मैं करूँ इस चाँद का बोलो
होते सुबह रवाना होगा
ख़ुद से बातें करना जूनूं है
तनहाई को गाना होगा
इक लब पर ना इक लब पर हाँ
चूम के इनको मिलाना होगा
औरों तक जाने से पहले
अपने को अपनाना होगा
आसमां की परवाह किसे अब
पिंजरा होगा दाना होगा
थोड़ा सा बरताव जो बदले
नाता है जो ताना होगा
सबसे ज़्यादा दुखी है वो ही
उसने अपना माना होगा
रिश्ता अपना आँसू जैसा
पलकों पलकों छाना होगा
अपनी अपनी भटकन सबकी
आख़िर एक ठिकाना होगा
जग को बदलने वाला कोई
आशिक़ या दीवाना होगा
देर से आते जल्दी जाते
भरना तो हर्जाना होगा
होंठों ने जो रचा होंठों पर
होंठों से ही मिटाना होगा
ख़ुद को जोड़ना है तो पहले
ख़ुद से ख़ुद को घटाना होगा
जो बचपन को रखेगा बचा कर
सबसे वो ही सयाना होगा
दिल में जितनी हूक भरी हो
मीठा उतना तराना होगा
होंठों होंठों जाता सब तक
अपना ही अफ़साना होगा
इतनी ख़ुद्दारी से जिये तो
काँधा ख़ुद को लगाना होगा
हाथ मिलाना तो है मना अब
दिल से दिल को मिलाना होगा
अपनी राह चला चल 'अनिमेष'
पीछे सारा ज़माना होगा
💔
✍️ *प्रेम रंजन अनिमेष*
**************************************
संपर्क : एस 3/226, भारतीय रिज़र्व बैंक अधिकारी आवास, गोकुलधाम, गोरेगाॅव ( पूर्व ), मुंबई 400063
मो : 9930453711
ईमेल : premranjananimesh@gmail.com
ब्लॉग: *अखराई* ( akhraai.blogspot.in) तथा *बचपना* ( bachpna.blogspot.in )
[6/9, 12:35] PRA - प्रेम रंजन अनिमेष: *प्रेम रंजन अनिमेष*
*संक्षिप्त परिचय*
*जन्म* : आरा (भोजपुर, बिहार)
*शिक्षा* : विद्यालय स्तर तक आरा में, तदुपरांत पटना विश्वविद्यालय से अंग्रेजी भाषा साहित्य में स्नातकोत्तर
*स्थायी आवास*: 'जिजीविषा', राम-रमा कुंज, प्रो. रमाकांत प्रसाद सिंह स्मृति वीथि, विवेक विहार, हनुमाननगर, पटना 800020
बचपन से ही साहित्य कला संगीत से जुड़ाव । सभी विधाओं में लेखन ।
*प्रकाशित कविता संग्रह* : मिट्टी के फल, कोई नया समाचार, संगत, अँधेरे में अंताक्षरी, बिना मुँडेर की छत
*ईबुक* : 'अच्छे आदमी की कवितायें' एवं 'अमराई' ईपुस्तक के रूप में वेब ( ' हिन्दी समय ' एवं ' हिन्दवी ' ) पर
*आने वाले संग्रह* : कुछ पत्र कुछ प्रमाणपत्र, प्रश्नकाल शून्यकाल, अवगुण सूत्र, नींद में नाच, माँ के साथ, मरुकाल का मेघदूत, नयी कवितावली, बचपन का महाकाव्य, स्त्री पुराण स्त्री नवीन, पाखी, प्रेमधुन, प्रेमसूत्र, अंतरंग अनंतरंग, वृत्त अनंत, रेजगारियाँ, रात और फुटपाथ, कवितायें जिनसे झगड़ती हैं कहानियाँ, संक्रमण काल की कवितायें, आज राज समाज आदि
*अनेक लम्बी कविता श्रृंखलाएँ* चर्चित : ऊँट, सायकिल, आवाजें, एक लड़की का खंडकाव्य, स्त्रीसूक्त, नींद में कुछ कवितायें, कुछ हार्दिक, जीवन खेल, जीवन श्रृंखला, अकेले आदमी की कवितायें, ईश्वर की कवितायें, पसीना, कुछ जलचित्र कुछ जलचिह्न, मध्यस्थ, दाढ़ी बनाते हुए, बेकार की कवितायें, आदमगाड़ी, बची हुई आत्मा का संगीत, रक्त संबंध, वे नर मर चुके, बरसों बाद गाँव लौटे लड़की की डायरी, आदि
*कविता के लिए भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार*
कई कहानियाँ भी प्रकाशित पुरस्कृत
*कहानी संग्रह* 'लड़की जिसे रोना नहीं आता था', 'माई रे...', 'एक मधुर सपना' , 'एक स्वप्निल प्रेमकथा', 'पानी पानी' तथा ‘किसी असमय की बात है’ एवं *उपन्यास* 'स्त्रीगाथा', ' परदे की दुनिया', 'नौशीन', 'दि हिंदी टीचर' तथा 'द एविडेंस' प्रकाश्य
*बच्चों के लिए कविता संग्रह* 'माँ का जन्मदिन' प्रकाशित । 'आसमान का सपना', 'मीठी नदी का पानी', 'कुछ दाने कुछ तिनके', 'कच्ची अमियाँ पकी निंबोलियाँ' तथा और भी बाल पुस्तकें प्रकाश्य ।
*संस्मरण* : 'अगली दुनिया की पहली खबर' तथा 'कुछ दिन और'
*गीत संग्रह* 'हमारे समय के लिए कुछ गीत', 'नयी गीतांजलि' एवं ‘अभिनव छंद’ और *ग़ज़ल संग्रह* 'पहला मौसम', 'धानी सा', 'बातें बड़ी छोटी बहर', 'कोई अपना सा', 'हैं हम तो इश्क़ मस्ताने', ‘पत्थरों के पड़ोस में' एवं 'देर तक और दूर तक' आने वाले
*दोहा संग्रह* : 'नयी दोहावली'
*विचार* : 'अनुभव की स्लेट'
*आलोचनात्मक लेखन* : 'चौथाई' एवं 'ऊँचा सोचना'
*नाटक* : 'प्रथम पुरुष मध्यम पुरुष अन्य पुरुष'
प्रतिष्ठित कवि अरुण कमल की प्रतिनिधि कविताओं का *सम्पादन*
विलियम कार्लोस विलियम्स एवं सीमस हीनी की कविताओं का *अनुवाद* ।
कई रचनाओं को स्वरबद्ध किया है । अलबम *'माँओं की खोई लोरियाँ'* और *'धानी सा'* में अल्फ़ाज़ के साथ तर्ज़ और आवाज़ भी अपनी । एक और अलबम *'एक सौग़ात'*
*ब्लॉग* : 'अखराई' (akhraai.blogspot.in) तथा 'बचपना' (bachpna.blogspot.in)
*संपर्क*: एस 3/226, रिज़र्व बैंक अधिकारी आवास, गोकुलधाम, गोरेगाँव (पूर्व), मुंबई 400063 ईमेल : premranjananimesh@gmail.com दूरभाष : 9930453711