शनिवार, 30 जुलाई 2022

(बाबूजी उठे नहीं क्या अभी तक ?)

😊 प्रस्तुति - राजेश सिन्हा 


🙏🏿🍂 बाबूजी 🙏🏿🙏🏿

   

" अमित, अरे बाबूजी उठे नहीं क्या अभी तक ? टाइम पर दवा नहीं लेने से उनकी तबियत बिगड़ जाती है। अमित, जरा देखोगे क्या उनके कमरे में जाकर ? मैं रोटियाँ बना रही हूँ, सब्जी भी गैस पर रखी है, तुम्हारा टिफिन भी लगाना है अभी। जागते ही चाय चाहिए उनको, वो भी सुबह ठीक सात बजे। अब तो पौने आठ बज रहे हैं, आज चाय-चाय करते किचन तक आए भी नहीं। "🍂

 

अदिति की बातें सुनते अमित को भी आश्चर्य हुआ। बाबूजी आज अभी तक उठे क्यों नहीं ? वो तुरंत उनके कमरे में गया। बाबूजी अभी बिस्तर पर ही थे, गहरी नींद में। 

अमित ने उन्हें आवाज दी : " बाबूजी, उठिए, आठ बजने को आए। आज चाय नहीं पीनी क्या ? "🍂


कोई जवाब न पाकर अमित ने उन्हें हिलाया और जगाने की कोशिश की लेकिन उनके एकदम ठंडे पड़े शरीर के स्पर्श से वह चौंक गया और चीखा : " अदितिsss...अदितिsss...इधर आओ जरा। देखो, बाबूजी उठ नहीं रहे हैं। "🍂


रोटी बेलना छोड़, सब्जी की गैस बंद कर अदिति तेजी से बाबूजी के कमरे में पहुँची। 


अमित को कुछ सूझ नहीं रहा था। बोला : " अदिति, देखो, बाबूजी उठते नहीं हैं। "🍂


अदिति ने भी कोशिश की मगर बाबूजी न जागे। उसकी आँखों से अश्रु बह निकले फिर खुद को मानो सांत्वना देती हुई वह बोली : " जरूर रात की दवाओं के असर से गहरी नींद में हैं। ठहरो मैं डॉक्टर को फोन करती हूँ। "


अदिति ने बाबूजी के रेग्युलर डॉक्टर को कॉल किया : " हलो डॉक्टर साहब, मैं गीता बोल रही हूँ। "🍂


डॉक्टर : " हाँ, गीता, बोलो। बाबूजी तो ठीक हैं न ? परसों ही तो उन्हें चैक किया था, बीपी बढ़ा हुआ था इसलिए मैंने दवाई भी चेंज कर दी है। " 🍂

🍂

अदिती : " डॉक्टर साहब, बाबूजी उठ नहीं रहे। प्लीज आप जल्दी घर आएँगे क्या ? "🍂


डॉक्टर : " हाँ... हाँ... मैं तुरंत आता हूँ। "


10 मिनिट में डॉक्टर साहब आ गए। बाबूजी को चैक किया। फिर अमित की पीठ पर सांत्वना की थपकी देते हुए बोले : " सुबह-सुबह ही डेथ हुई है इनकी। बीपी ही इनपर भारी गुजरा। मैं डेथ सर्टिफिकेट बना देता हूँ। "


डॉक्टर की बात सुन, अदिति हिचकियाँ ले-लेकर रोने लगी।


डॉक्टर ने उसे कहा : " गीता, जन्म-मरण हमारे हाथ में थोड़ी होता है और फिर उम्र भी तो हो गई थी इनकी। होनी को कौन टाल सकता है। "🍂


फिर अमित की ओर देखते वे बोले : " मैं तो कहता हूँ, अच्छा ही हुआ जो तकलीफ से निजात पा गए। अल्जाइमर रोग बहुत तकलीफदेह होता है, खुद पेशेंट के लिए भी और उसके नाते-रिश्तेदारों के लिए भी। "🍂


" डेथ सर्टिफिकेट पर उनका नाम क्या लिखूँ ? उन्हें चैक करने आता था तो तुम लोगों की देखा-देखी मैं भी उन्हें बाबूजी ही कहता था। गीता के बाबूजी के रूप में ही जानता हूँ मैं इन्हें। " ---डॉक्टर ने आगे कहा।🍂

 

थोड़ी देर के लिए अमित और अदिति सकपकाए से एक दूसरे का मुँह देखने लगे फिर गीता ने चुप्पी तोड़ी और डॉक्टर से बोली : " डॉक्टर साहब, मेरा नाम गीता नहीं, अदिति है। पिछले दस सालों से मैं बाबूजी के लिए गीता बनी हुई थी। "


डॉक्टर : " क्या मतलब ? "🍂


अदिति : " कोई 10 साल पुरानी बात है डॉक्टर साहब, मैं साग-भाजी लेने सब्जी मार्केट गई थी। खरीदारी के बाद जब मार्केट से बाहर आई और किसी खाली रिक्शे की तलाश में इधर-उधर देख रही थी तभी, गीताss गीताss पुकारते एक बुजुर्गवार मेरे करीब पहुँचे और मेरी बाँह पकड़ मुझसे बोले, गीताss, अरे मुझे अपना घर ही नहीं मिल रहा। कब से मैं यहाँ खड़ा हूँ लेकिन किधर जाऊँ कुछ समझ ही नहीं आ रहा। अच्छा हुआ तू आ गई। चल, अब घर चलें। "🍂


" बुजुर्गवार किसी अच्छे घर के लग रहे थे, दिखने में भी और कपड़ों से भी। मेरा हाथ थामे बोलने लगे, गीताsss चल जल्दी। मुझे कबसे भूख लगी है। " 


" मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूँ ? बुजुर्गवार की स्नेहमयी, मीठी वाणी सुन सोचा कि, उनको घर ले जाती हूँ। कुछ खिलाकर, शांति से उनका एड्रेस पूछती हूँ और फिर उन्हें उनके घर छोड़ आती हूँ। अतः रिक्शे पर हम दोनों घर आए। "🍂


" घर पहुँचते ही, बुजुर्गवार बोलने लगे, गीताsss जल्दी खाना दे, बहुत भूख लगी है। "


" मैंने जल्दी से थाली में उन्हें उपलब्ध भोजन परोसा तो कई दिनों के उपवासे जैसे वे तेजी से खाने लगे। भरपेट भोजन के बाद मैंने उनसे पूछा, बाबूजी आप कहाँ रहते हो ? याद है क्या आपको ? चलो मैं आपको, आपके घर छोड़ आती हूँ। " 


बुजुर्गवार बोले : " अरे गीता, यही तो है अपना घर। "


" मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था। फिर वे बाहर सोफे पर ही सो गए। "🍂


" शाम को अमित के घर आने पर मैंने सारा किस्सा सुनाया। फिर अमित के कहने पर हमने न्यूजपेपर में गुमशुदा वाले पृष्ठ पर और टीवी के गुमशुदा वाले कार्यक्रम के माध्यम से बुजुर्गवार का एड्रेस और नाते-रिश्तेदारों का पता करना प्रारंभ किया। अमित ने पुलिस थाने में भी बुजुर्गवार की जानकारी दी। पुलिस ने कहा, कुछ पता चलने पर खबर करेंगे। तब तक बुजुर्गवार को अपने घर पर रखो या तुम्हें दिक्कत हो तो उन्हें सरकारी वृद्धाश्रम अथवा अस्पताल में दाखिल करवा दो। "🍂

 

" गीता...गीता...पुकारते वे मेरे आगे-पीछे घूमा करते। गीता आज भिंडी की सब्जी बना, आज बेसन के भजिए वाली कढ़ी बना, आज हलवे की इच्छा है, ऐंसी फरमाइशें किया करते। उनकी बातें, उनका अपनापन देख-सुन मेरा मन भर-भर आता। बड़े हक से वे मुझे हर बात कहते जो मुझे भी बहुत भाता। "


" हफ्ता गुजर गया लेकिन उनका कुछ पता नहीं चला। उनसे कोई हेल्प नहीं मिलती लेकिन घर में रह रहे एक बुजुर्ग का अस्तित्व हमें खूब अच्छा लगने लगा। उनके लिए कुछ करना हमें खूब भाता। "


" मैंने और अमित ने निर्णय लिया कि हम उन्हें कहीं नहीं भेजेंगे, अपने घर पर अपने साथ ही रखेंगे। फिर हमने पुलिस थाने में भी अपने इस निर्णय की सूचना दे दी। बस तभी से बुजुर्गवार हमारे बाबूजी बन गए। "


" दस बरस हो गए मेरा दूसरा नामकरण गीता हुए। आज बाबूजी के साथ गीता का भी अस्तित्व समाप्त हो गया। " ---बोलते हुए अदिति की आँखों से पुनः झर-झर आँसू बहने लगे।

 

🍂अदिति से सारा किस्सा सुन डॉक्टर निशब्द हो गए। थोड़ी देर बाद बोले : " इतने सालों में मुझे जरा भी महसूस नहीं हुआ कि, ये तुम्हारे पिता नहीं बल्कि कोई गैर हैं। सच कहूँ तो अल्जाइमर बड़ा गंभीर रोग है। आजकल वृद्ध लोगों में यह समस्या बढ़ती ही जा रही है। "🍂

" आज के दौर में खुद की औलादें अपने माता-पिता को साथ रखना पसंद नहीं कर रहीं। पैसे-प्रोपर्टी वसूली कर वृद्ध माता-पिता की जवाबदारी से मुँह मोड़ लेने का चलन समाज में बढ़ गया है। दिनोंदिन वृद्धाश्रमों में भीड़ बढ़ती ही जा रही है। लेकिन इसी समाज में आप जैसे लोग भी हैं, यह मेरे लिए बेहद आश्चर्य का विषय है। "🍂


फिर डॉक्टर साहब खामोश हो गए। उन्होंने अमित और अदिति की पीठ पर प्यार और सांत्वना भरी थपकी दी। फिर बाबूजी का डेथ सर्टिफिकेट उन्हें सौंपा और डबडबाई आँखों से घर के मुख्यद्वार की ओर बढ़ गए।।🙏

अहंकार बेमोल / कृष्ण मेहता

 अहंकार की कोई कीमत नहीं है


प्रस्तुति - उषा रानी - राजेंद्र प्रसाद सिन्हा 

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अशोक के जीवनी में मैंने पढ़ा है, गांव में एक भिक्षु आता था। अशोक गया और उस भिक्षु के चरणों में सिर रख दिया। अशोक के बड़े राज्य का जो बड़ा वजीर था, उसे यह अच्छा नहीं लगा। अशोक जैसा सम्राट गांव में भीख मांगते एक भिखारी के पैरों पर सिर रखे, महल लौटते ही उसने कहा कि नहीं सम्राट, यह मुझे ठीक नहीं लगा। आप जैसा सम्राट, जिसकी कीर्ति शायद जगत में कोई सम्राट नहीं छू सकेगा फिर, वह एक साधारण से भिखारी के चरणों पर सिर रखे!


अशोक हंसा और चुप रह गया। दो महीने बीत जाने पर उसने बड़े वजीर को बुलाया और कहा कि एक काम करना है। कुछ प्रयोग करना है, तुम यह सामान ले जाओ और गांव में बेच आओ। सामान बड़ा अजीब था। उसमें बकरी का सिर था, गाय का सिर था, आदमी का सिर था, कई जानवरों के सिर थे और कहा कि जाओ बेच आओ बाजार में।


वह वजीर बेचने गया। गाय का सिर भी बिक गया और घोड़े का सिर भी बिक गया, सब बिक गया, वह आदमी का सिर नहीं बिका। कोई लेने को तैयार नहीं था कि इस गंदगी को कौन लेकर क्या करेगा? इस खोपड़ी को कौन रखेगा? वह वापस लौट आया और कहने लगा कि महाराज! बड़े आश्चर्य की बात है, सब सिर बिक गए हैं, सिर्फ आदमी का सिर नहीं बिक सका। कोई नहीं लेता है।


सम्राट ने कहा कि मुफ्त में दे आओ। वह वजीर वापस गया और कई लोगों के घर गया कि मुफ्त में देते हैं इसे, इसे आप रख लें। उन्होंने कहा पागल हो गए हो! और फिंकवाने की मेहनत कौन करेगा? आप ले जाइए। वह वजीर वापस लौट आया और सम्राट से कहने लगा कि नहीं, कोई मुफ्त में भी नहीं लेता।


अशोक ने कहा कि अब मैं तुमसे यह पूछता हूं कि अगर मैं मर जाऊं और तुम मेरे सिर को बाजार में बेचने जाओ तो कोई फर्क पड़ेगा? वह वजीर थोड़ा डरा और उसने कहा कि मैं कैसे कहूं क्षमा करें तो कहूं। नहीं, आपके सिर को भी कोई नहीं ले सकेगा। मुझे पहली दफा पता चला कि आदमी के सिर की कोई भी कीमत नहीं है।


सम्राट अशोक ने कहा कि फिर इस बिना कीमत के सिर को अगर मैंने एक भिखारी के पैरों में रख दिया था तो क्यों इतने परेशान हो गए थे तुम।


आदमी के सिर की कीमत नहीं, अर्थात आदमी के अहंकार की कोई भी कीमत नहीं है। आदमी का सिर तो एक प्रतीक है आदमी के अहंकार का, ईगो का। और अहंकार की सारी चेष्टा है भीतर लाने की और भीतर कुछ भी नहीं जाता—न धन जाता है, न त्याग जाता है, न ज्ञान जाता है। कुछ भी भीतर नहीं जाता। बाहर से भीतर ले जाने का उपाय नहीं है। बाहर से भीतर ले जाने की सारी चेष्टा खुद की आत्महत्या से ज्यादा नहीं है, क्योंकि जीवन की धारा सदा भीतर से बाहर की ओर है।

बुधवार, 27 जुलाई 2022

प्रसाद की याद कहीं बची है क्या? / आलोक श्रीवास्तव

 


15 नवंबर, 1937 की भोर बनारस के दशाश्वमेध घाट से लगभग आधे किलोमीटर की दूरी पर गोवर्धन सराय में हलकी ठंड में भीगी सी थी. अभी जाड़ा पूरी तरह से आया नहीं था. पर उन दिनों गंगा में पानी की कमी न थी. गंगा की लहरों को छूकर आती हवा सिहरन पैदा करने लगी थी. जयशंकर प्रसाद ने अपने निवास प्रसाद मंदिर में अपनी अंतिम सांस इस भोर ली. पिछले साढ़े नौ महीनों से चल रहा मृत्यु से उनका संग्राम समाप्त हुआ.


प्रसाद को गुजरे 83 साल हो चुके हैं. वे मात्र 47 साल साढ़े नौ माह जिए. उनकी मृत्यु सहसा घटी घटना नहीं थी. उन्हें टीबी हो गया था. वे रोज क्षीण हो रहे थे और रोज मृत्यु कुछ और नजदीक आ रही थी. महीनों तक वे अशक्त मृत्युशैया पर लेटे रहे, धैर्य, विश्वास के संबल के साथ. उन्हें अभी बहुत कुछ लिखना था. हिंदी की दुनिया समझती है कि वे कामायनी, चंद्रगुप्त, कंकाल के रूप में अपना श्रेष्ठ दे चुके थे. यह बिल्कुल सच नहीं है. ये कृतियां निस्संदेह बेशकीमती हैं. परंतु प्रसाद की वृहत लेखन-योजनाएं थीं. भारत के प्राचीन इतिहास पर 11 खंडों की उपन्यास श्रृंखला का इरावती के रूप में वे आरंभ भी कर चुके थे. इंद्र के मिथकीय चरित्र पर वृहत नाटक शुरू ही करने वाले थे. काव्य, कथा, उपन्यास सभी विधाओं में उन्हें अभी विपुल लेखन करना शेष था. पर मृत्यु के पूर्व के नौ महीनों ने यह स्पष्ट कर दिया था कि वे अब कुछ नहीं लिख सकेंगे. मृत्यु सुनिश्चित है. टीबी का उन दिनों कारगर इलाज नहीं था. बस उन्हें प्रतीक्षा करनी है. उन्होंने गरिमापूर्वक इस स्थिति को अंतिम दिनों में जिया. उन पर लिखे ढेरों संस्मरणों में उनसे मिलने वाले आत्मीय जनों ने वह छवि सुरक्षित रखी है.


क्या हिंदी ने प्रसाद को उनका वास्तविक दाय दिया? निश्चित रूप से नहीं. ऐसा करके हिंदी के साहित्य की सृजनशीलता ने स्वयं को स्थाई रूप से अशक्त कर लिया, उसने अपने लिए बड़ी रचनाशीलता का मार्ग बंद कर दिया. हिंदी की परंपरा, जो यदि हो सकती थी, तो वह प्रसाद-प्रेमचंद की ही परंपरा थी, न कि केवल प्रेमचंद की परंपरा. इस परंपरा को विभाजित करके सिर्फ प्रेमचंद की पंरपरा के रूप में आगे बढ़ाने का उपक्रम करना और एक नकली-झूठी मध्यमवर्गीय प्रगतिशीलता से उसे मंडित करने का दीन प्रयास करना हिंदी साहित्य के भविष्य को बहुत दूर तक के लिए क्षतिग्रस्त कर गया.


यह कैसी विडंबना है कि अभी परसों ही मुक्तिबोध की जयंती पर भावुकतापूर्ण उदगारों की बाढ़ आई हुई थी. प्रसाद निस्संदेह उनसे न सिर्फ वरिष्ठ थे, बल्कि उनका युगांतरकारी महत्व है, उन्हें ठंडे ढंग से भी याद करते शब्द दुर्लभ हैं. यह ऐसा ही है जैसे अंग्रेजी शेक्सपियर के साथ, रूसी पुश्किन के साथ, अमेरिकी वाल्ट व्हिटमैन के साथ उदासीन हो जाएं. प्रसाद हिंदी के आधुनिक साहित्य का आरंभ हैं, उसकी अस्मिता हैं, उनसे जीवंत सबंध न होने का तात्पर्य जो कुछ इस भाषा के साहित्य विकास के लिए हो सकता था, वह हुआ है.


यदि हिंदी क्षेत्र में कोई नवजागरण होता तो उसके आदिकवि जयशंकर प्रसाद होते. पर हिंदी क्षेत्र में जो हुआ वह साहित्यिक नवजागरण था. भाषा और साहित्य का नवोत्थान. व साहित्य-समाज से बाहर अपना विस्तार न कर सका. वह हिंदी खड़ी बोली साहित्य के विकास का एक गौरवशाली चरण भर बन कर रह गया. प्रसाद उसकी एक उत्तुंग लहर थे.


यह विडंबना है कि उनका काव्य जिस संपदा को अपने भीतर धारण किए हुए है, हिंदी समाज के लिए उसका कुछ अधिक मूल्य नहीं है. ऐसा नहीं कि हिंदी समाज उनको महत्वपूर्ण रचनाकार नहीं मानता, पर उसकी दृश्टि में वे महान कवि होते हुए भी उसके बहुत काम के नहीं हैं - आज भी और विगत में भी. वे उसके काम के तब होते, जब इस समाज को अपने व्यक्ति-मन के पुनर्गठन की, उसके नव-निर्माण की आवश्यकता होती. प्रसाद का साहित्य स्वत्व के रूपांतरण का साहित्य है. वह मैथिलीशरण गुप्त का राष्ट्रीय प्रबोधन या जातीय पुनरुत्थान का साहित्य नहीं है. राष्ट्रीय उदबोधन व जातीय पुनरुत्थान की भावना उसमें एक प्रबल अंतःसलिला की तरह विद्यमान अवश्य है, पर वह भी मन के रूपांतरण को ही संबोधित है - किसी स्थूल अभियान को नहीं. वह निराला की तरह आत्मस्थ साधना-गीत या सहसा व्यवस्था-विरोधी हो उठा क्षुब्ध काव्य भी नहीं है.

प्रसाद का काव्य हिंदी की काव्य-परंपरा में अपवाद था - अपने काव्य-उत्कर्ष के कारण नहीं. इस कारण कि वह जिस भाव-भूमि पर खड़ा था, वह हिंदी की सहज भाव-भूमि नहीं थी. वे व्यक्ति-चेतना के धरातल पर खड़े थे. इसी कारण वे अपने सभी पूर्ववर्तियों व समकालीनों से भिन्न थे. हालांकि पूरी छायावादी काव्य-परंपरा को व्यक्ति-चेतना का काव्य कहा गया. पर इसकी जैसी घनीभूत और प्रामाणिक अभिव्यक्ति प्रसाद के काव्य में हुई थी, वैसी किसी भी अन्य कवि में नहीं.

शुक्रवार, 22 जुलाई 2022

रवि अरोड़ा की नजर से....

 पत्ता खड़कने का डर /  रवि अरोड़ा 




सावन का महीना है और आजकल चहुंओर कांवड़ियों की धूम है।  इस परम्परा से हो रही जन जीवन की तकलीफों पर कुछ साल पहले मैंने एक लेख लिखा था । फेसबुक पर कांवड़ियों से संबंधित अनेक पोस्ट देख कर मन मचल उठा कि क्यों न वही पुराना लेख सोशल मीडिया पर शेयर कर दिया जाए । मगर इस ओर कदम बढ़ाने से पहले उस लेख को जब दोबारा पढ़ा तो भयभीत हो उठा । अरे ये लेख तो मरवा देगा । बेशक उसमें ऐसा कुछ भी नहीं था जो देश-समाज को जागरूक करने के लिए ना लिखा गया हो मगर जागरूकता जैसी चीजें अब बची ही कहां हैं फिर उसकी बात भी कोई कैसे कर सकता है ? अब तो हर लिखा गया शब्द इस नजर से देखा जाता है कि इससे सत्ता प्रतिष्ठान का फायदा होता है अथवा नुकसान । यदि फायदा होता है तो स्वागत है और यदि नहीं तो हवालात बने ही ऐसे लेखकों के लिए हैं। गौर से देखिए कुछ सालों में ही मुल्क कितना बदल गया है । कुछ साल पहले तक खुल कर लिखी और कई जगह प्रकाशित टिप्पणियां अब सार्वजानिक करने से पहले भी सोचना पड़ रहा है। क्या पता कब कौन राष्ट्रद्रोह और धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के आरोप से आपकी खबर ले ले । अब आप ही सलाह दीजिए कि मुझ जैसी कमजोर पृष्ठभूमि वाले आदमी को क्या ऐसे में डरना नहीं चाहिए ?


देख कर हैरानी होती है कि हमारे पूर्वज क्या क्या लिख गए । कबीर, पेरियार, अंबेडकर, विवेकानंद, दयानंद सरस्वती, ज्योति बा फुले और बुल्ले शाह जैसे कवियों, संतों और समाज सुधारकों ने जो जो कहा अथवा लिखा उन्हें तो आज दोहराया भी नहीं जा सकता । हाल ही में एक साहब इसी बात पर जेल पहुंच गए कि उन्होंने महात्मा फुले द्वारा कही गई एक बात ट्वीट कर दी थी । कमाल है इन संतों, कवियों और सुधारकों की जयंतियां तो हम धूमधाम से मनाते हैं मगर उनकी बातों को दोहरा नहीं सकते। उन्हें पूज तो सकते हैं मगर उनके बताए मार्ग पर चल नहीं सकते। पता नहीं ये लोग आज होते तो उनके साथ क्या सलूक होता । यकीनन कुछ देशद्रोह में पकड़े जाते और बाकियों के खिलाफ धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने का मुकदमा चलता ।


नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि साल 2014 के बाद से हर साल देशद्रोह के मुकदमों की संख्या में हाल ही तक लगातार बढ़ोत्तरी हो रही थी। सुप्रीम कोर्ट की सख्ती के बाद जाकर माहौल अब कुछ ठंडा हुआ है मगर अब भी देशद्रोह संबंधी आईपीसी की धारा 124 ए के तहत आठ सौ मुकदमों में 13 हजार लोग जेलों में हैं । हैरानी की बात यह है कि पिछले आठ सालों में मात्र दस लोगों के खिलाफ अपराध साबित हो सका है । अदालतों में सिद्ध हुआ कि सरकार से अलग राय रखने की सजा हजारों निर्दोष लोगों को मिली। धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने की रिपोर्ट दर्ज होने के तो सारे रिकॉर्ड ही ध्वस्त हो रहे हैं। देश के हर कोने से हर दिन ऐसी खबरें आ रही हैं। अजब स्थिति है, पत्ता भी खड़के तो किसी ना किसी की धार्मिक भावना को ठेस लग जाती है । इससे संबंधित आईपीसी की धारा 295 ए फिल्मी कलाकारों, पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं व विरोधी दल के नेताओं की चूड़ियां टाइट करने का नया हथियार बन कर उभरी है। खौफ का ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि सही बात कहने से पहले भी चार बार सोचने को जी करता है। अब यही वजह है कि कांवड़ यात्रियों पर मैं अपना पुराना लेख पोस्ट नहीं कर रहा । इस बारे में आपकी क्या राय है, थोड़ा बहुत डर तो आपको भी लगता होगा या आप डराने वालों के साथ हो ?

गुरुवार, 21 जुलाई 2022

आनंद बक्शी सा कोई नहीं / सुनील दत्ता = कबीर

 आज जन्मदिन है 


'ज़िक्र होता है जब क़यामत का तेरे जलवों की बात होती है

तू जो चाहे तो दिन निकलता है तू जो चाहे तो रात होती है ''


'' धरती तेरे लिए , तू है धरती के लिए 

धरती के लाल तू न कर इतना मलाल .

 तू नही है कंगाल .तेरी दौलत है तेरे हौसले ''

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आज जिनका जन्मदिन है ==== आनन्द बख्शी


आंतरिक मन जब अपने कल्पनाओं को उड़ान देता है तो हृदय के समुद्र में ज्वार - भाटे आते रहते है | और यह सुकोमल मन अपने हृदय रूपी समुद्र से अनेक सीपियो को चुनकर उनमे से मोतियों के शब्दों को कागज के कैनवास पर शब्दों के विभिन्न रंगों से सजाकर एक मोतियों की माला बनाता है उसकी श्रृखला तैयार करता है 

तब जाकर वह गीत असंख्य मानव तक पहुचती है | ऐसा ही एक सृजनशील व्यक्तित्व पाकिस्तान के रावलपिंडी शहर में 21 जुलाई सन 1930 को गीतों का कोहिनूर बन कर जन्म लेता है और अपने शब्दों की सृजन शीलता से पूरी दुनिया के लोगो के दिलो पर राज करता है | 

ऐसे गीतों के चितेरा को लोग आनन्द बख्शी के नाम से जानते | आनन्द जी को परिवार के लोग नन्दू कहकर बुलाते थे और नन्दू बचपन से ही अपनी दुनिया में मस्त रहकर एक नई दुनिया के सपने गढ़ता था वो भी ऐसे एहसासों के सपने जो देश , काल , परिस्थितियों का ताना बना बुनता हो |

आनन्द बख्शी ने अपनी शिक्षा अधूरी छोड़कर 14 वर्ष की ही उम्र में वो बम्बई आ गये यहाँ आकर उन्होंने रायल इन्डियन नेवी में एक कैडेट के तौर पर दो वर्ष नौकरी की किन्ही विवादों के चलते उन्हें यह नौकरी छोडनी पड़ी इसके बाद 1947 से 1956 तक इन्होने भारतीय सेना में नौकरी की | 

एक संवेदनशील आदमी के हाथ में बंदूक भाति नही है कयोकी उसकी दुनिया तो अलग है जहा बारिश की बूंदों का एहसास तितलियों j मचलना ,फूलो का मुस्कुराना और आम आदमी के दुःख - दर्द की पिधा का समावेश होता है | ऐसे में आनन्द बख्शी ने फ़ौज की नौकरी छोड़ दी और अपने कल्पनाओं को साकार रूप देने के लिए उन्होंने फ़िल्मी दुनिया की राह पकड़ी ऐसे में उन्हें उस जमाने के मशहूर अभिनेता भगवान दादा से मुलाक़ात हुई | शायद नियति ने पहले से ही यह तय कर रखा था की उन्हें गीतकार बनना है |


बम्बई जाकर अन्होंने ठोकरों के अलावा कुछ नहीं मिला, न जाने यह क्यों हो रहा था? पर कहते हैं न कि जो होता है भले के लिए होता है। फिर वह दिल्ली तो आ गये और EME नाम की एक कम्पनी में मोटर मकैनिक की नौकरी भी करने लगे, लेकिन दीवाने के दिल को चैन नहीं आया और फिर वह भाग्य आज़माने बम्बई लौट गये। इस बार बार उनकी मुलाक़ात भगवान दादा से हुई जो फिल्म 'बड़ा आदमी(1956)' के लिए गीतकार ढूँढ़ रहे थे और उन्होंने आनन्द बक्षी से कहा कि वह उनकी फिल्म के लिए गीत लिख दें, इसके लिए वह उनको रुपये भी देने को तैयार हैं। पर कहते हैं न बुरे समय की काली छाया आसानी से साथ नहीं छोड़ती सो उन्हें तब तक गीतकार के रूप में संघर्ष करना पड़ा |


आनन्द बख्शी फिल्मो के कैनवास का वह नाम है जिसके बिना आज तक बनी हुई बड़ी से बड़ी म्यूजिकल फिल्मे शायद वह सफलता हासिल न कर पाती जिसको बनाने वाले आज गर्व से सर उंचा करते है | '' प्रेम हो या जीवन दर्शन - इनकी सभी व्याख्याए बस एक धुधली सी आकृति उकेरने की कोशिश करती है यह समझने की कोशिश है की जीवन में जो हो रहा है उसकी अंतर्धारा मनुष्यता को किस और ले जाता है |

प्रेम की महीन अभिव्यक्तिया जीवन के समस्त आयामों को पार करती निरंतर नये रूप में धरती को सृजित करती है |


प्रेम शाश्वत होते हुए भी अपनी अभिव्यक्ति में बहुरुपिया होता है | पल -- पल रूप बदलने वाला | ऐसे में प्रेम की भाषा को न्य स्वरूप दिया आनन्द बख्शी ने 

जब तक सूरज प्रकाश की फिल्म 'मेहदी लगी मेरे हाथ(1962)' और 'जब-जब फूल खिले(1965)' पर्दे पर नहीं आयी। अब भाग्य ने उनका साथ देना शुरु कर दिया था या यूँ कहिए उनकी मेहनत रंग ला रही थी |


जब आनन्द बख्शी ममता के प्यार को समझते है तो अन्यास ही यह बाते नही कहते 

''बड़ा नटखट है रे कृष्ण\-कन्हैया

का करे यशोदा मैय्या, हाँ ... बड़ा नटखट है रे


ढूँढे री अंखियाँ उसे चारों ओर

जाने कहाँ छुप गया नंदकिशोर

ढूँढे री अंखियाँ उसे चारों ओर

जाने कहाँ छुप गया नंदकिशोर

उड़ गया ऐसे जैसे पुरवय्या

का करे यशोदा मैय्या, हाँ ... बड़ा नटखट है रे '''


इनके गीतों में अथाह प्यार की अभिव्यक्ति नजर आती है | जब बंजारों के दर्शन की बात करते है तो कह पड़ते है

'' एक बंजारा गाए, जीवन के गीत सुनाए

हम सब जीने वालों को जीने की राह बताए ''


और जब वो किसी अल्हड युवती के सम्वेदनाओ को देखते है तो एक मीठी प्यार का एहसास कराते है 

'' अब के बरस भी बीत न जाये

ये सावन की रातें

देख ले मेरी ये बेचैनी

और लिख दे दो बातें ...


खत लिख दे सांवरिया के नाम बाबू

कोरे कागज़ पे लिख दे सलाम बाबू '' 

और जब दर्द की पराकाष्ठा को उकेरते है तो अन्यास ही नही निकलते यह शब्द असीम दर्द की गहराइयो से ये शब्द मुखरित होता है |सुपर स्टार राजेश खन्ना के कैरियर को ऊँचाइयोंतक पहुचने में आनन्द बख्शी के गीतों का बहुत बड़ा योगदान है '' अम्र प्रेम की वो व्यथा -----


''चिंगारी कोई भड़के, तो सावन उसे बुझाये

सावन जो अगन लगाये, उसे कौन बुझाये,

ओ... उसे कौन बुझाये


पतझड़ जो बाग उजाड़े, वो बाग बहार खिलाये

जो बाग बहार में उजड़े, उसे कौन खिलाये

ओ... उसे कौन खिलाये ----


आनन्द बख्शी को मिले सम्मानों को देखा जाये तो उन्होंने अपने गीतों के लिए चालीस बार फिल्म फेयर एवार्ड के लिए नामित किया गया था लेकिन इस सम्मान के के हकदार वो सिर्फ चार बार बने | आनन्द बख्शी ने अपने साइन कैरियर में दो पीढ़ी के संगीतकारों के साथ काम किया है जिनमे सचिन देव बर्मन , राहुल देव बर्मन , चित्रगुप्त , आनन्द मिलिंद , कल्याण जी आनन्द जी , विजू शाह ,रौशन और राजेश रौशन जैसे संगीतकार शामिल है |

फिल्म इंडस्ट्रीज में बतौर गीतकार स्थापित होने के बाद भी पाशर्व गायक बनने की इच्छा हमेशा बनी रही वैसे उन्होंने वर्ष 1970 में बनी फिल्म '' मैं ढूढ़ रहा था सपनो में '' और '' बागो में बहार आई '' में दो गीत गाये है | चार दशको तक फील्मी गीतों के बेताज बादशाह रहे आनन्द बख्शी ने 550 से भी ज्यादा फिल्मो में लगभग 4000 हजार गीत लिखे | अपने गीतों से लगभग चार दशक तक लोगो के दिलो पर हुकूमत किया 30 मार्च 2002 को को वो इस दुनिया से यह कहते हुए अलविदा किया |


'' नफ़रत की दुनिया को छोड़ के, प्यार की दुनिया में

खुश रहना मेरे यार

इस झूठ की नगरी को छोड़ के, गाता जा प्यारे

अमर रहे तेरा प्यार '' 

आज हमारे बीच गीतों के चितेरा नही है पर उनके लिखे गीत आज भी हमे महसूस कराते है वो कही हमारे आसपास ही मौजूद है ऐसे गीतों के चितेरा को शत शत नमन उनके जन्म दिन पर


''ज़िक्र होता है जब क़यामत का तेरे जलवों की बात होती है

तू जो चाहे तो दिन निकलता है तू जो चाहे तो रात होती है ''


सुनील दत्ता = कबीर

 स्वतंत्र पत्रकार व दस्तावेजी प्रेस छायाकार

रविवार, 17 जुलाई 2022

आ गया फिर एकबार.../ अरविंद अकेला



आ गया फिर एकबार सावन


आ गया फिर एकबार सावन,

करके मन को पावन-पावन,

देखो कैसी रूत हुयी सुहानी,

देखकर मन हो रहा मनभावन।

     आ गया फिर एकबार...।


चहुँओर ओर हरियाली छायी,

सबके चेहरे पर खुशियाँ आयी,

गोरी का मन खिल उठा है,

आये जबसे उसके साजन।

      आ गया फिर एकबार...।


उमड़-उमड़कर बदरा छाये,

बदरा देख सबके मन भाये,

मन मयूर नाच उठा रजनी का,

आये जबसे उसके राजन।

      आ गया फिर एकबार...।


भोले भी अब लगे मुस्कुराने,

भक्त लगे अब आने-जाने,

गूँज रहा कावरियों का नारा,

प्रकृति लगने लगी  सुहावन।

      ।


सावन देख खुश हो रहा "अकेला"

छोड़कर इस दुनियाँ का झमेला,

मौसम भी अब बेईमान हुआ है,

देखकर अपना प्यारा सावन।

      आ गया फिर एकबार...।

         -----0----

      अरविन्द अकेला,

पूर्वी रामकृष्ण नगर,पटना-27

शनिवार, 16 जुलाई 2022

श्रावण का श्रृंगार

 स्कंद पुराण की सनत्कुमार संहिता में श्री शिवपुराण का श्रवण व्रत करनेवालों यानी सुननेवालों के लिये विधि-निषेध, मने सुनते समय क्या करें क्या न करें ? - का वर्णन किया गया है - 


वक्ता का मुख उत्तर दिशा की ओर हो और मुख्य श्रोता - सुनने वाले का मुँह पूर्व की ओर हो,


उदङ्मुखो  भवेद्वक्ता श्रोता  प्राग्वदनस्तथा ६.२०


काहे भाई ?

बोले - माइक का युग था नहीं, और यदि सुनने के लिए बैठे हो तो कान में वाणी पड़े इसका क्या उपाय है ?


मने वक्ता की सुन्दरता गौण है,

मंच की सुन्दरता मुख्य नहीं है,


मुख्य है - भगवान की कथा का कान में पड़ना 



सावन यानी श्रावण

भगवान की कथा-श्रवण- सुनने का महीना 

...

स्रवन सुजस सुनि आयउँ ...

✍🏻सोमदत्त द्विवेदी


दृश्य का दृष्टिसम्पात....!


अभी वैदिक शुक्र और शुचि ने अपनी पीठ घुमाई है। आषाढ़ की क्रीड़ा अभी थकी नहीं है। नभ और नभस्य का आगमन हो चुका है। छिटपुट बादल डोलते रहते हैं। यदाकदा सूरज को छाप लेते हैं। पुरवाई उन्हें धकियाती हुई लिवा जाती है। अभी ताप की तपस्या शिखर पर है। हवा धूप को और चमका जाती है। सूरज का स्वच्छ चेहरा धरती के दर्पण में दीखता है।

पूर्वाषाढ़ नक्षत्र के स्वामी शुक्र हैं जबकि उत्तराषाढ़ा के सूर्य।श्रवण के स्वामी चंद्रमा हैं। ये तारा-समूह चन्द्रपथ पर चलते हुए कितना कुछ करा जाते हैं। धरती आकाश से दूर नहीं अपितु आकाश में ही स्थित है। यहाँ कुछ भी अपनेआप नहीं होता किन्तु कारणों और कारकों के लिए जो कुछ भी होता होगा, वह अपनेआप में अपनेआप जैसा ही लगता है।

सावन मेघों का होनहार है। हवा इसकी रथ है। बादलों की यात्रा घुमड़ती हुई है। वे चलते हुए ठहरते हैं और बरस जाते हैं। मेह गिरता है। तलैया चल पड़ती है। बन्धे टूटने लगते हैं। दादुर पीठ के सङ्गी पा जाते हैं। मेड़ बरोबर हो जाते हैं। सीमाएँ टूटती है। आम चूने लगते हैं। ध्वनियाँ कुछ और गाढ़ी हो जाती हैं। रेंवा गीतने लगते हैं। लोक गाता है:-

कवने करनवा तरइया ई घूमे

बरखा झूमि झूमि आवै

साधो की संगति, साधो की महिमा

साधो से नखत ई अँखिया मिलावे

कि बरखा झूमि झूमि आवै


प्रकृति श्रृंगार रचती है। छाया, प्रतिछाया, वर्ण, विवर्ण,उदय, अस्त, इसमें डोलते रहते हैं। इसकी लीला के हम लीलाचर हैं। हमारी गति इसकी इच्छा है। हमारा गन्तव्य इसका आँचल। यह सबकुछ समेट लेती हैं। सहज मानवीय संदर्भों के तल की हमारी यह समझ वह कहाँ समझ पाती है, जो इस अनन्त का सहज व्यवहार है।

हम इसके सिद्धान्त को सीखते हैं। ज्ञान का अर्थ ही प्रकृति के व्यवहार को समझ लेना है। इससे हमारी किन्हीं क्षणों में युति हो जाती है। हम कुछ सार्वभौमिक नियमों से परिचित हो जाते हैं। किन्तु अन्तिम नियम से परिचय नहीं हो पाता। उसे बचा लिया जाता है। सम्भवतः यहीं लीला है।

देह के भिन्न आयाम हैं। मन की अपनी गति है। आश्चर्य कि यह प्रकाश से भी तीव्र है। किन्तु इसकी सीमा है। यह अज्ञात में गति नहीं कर सकता। किन्तु इसके भीतर आई सभी बातें सम्भव होती हैं। और प्रकाश तो इसके भी परे है। अतएव प्रकाश की गति इससे सदा से अधिक रही है और रहेगी।

आखिर अन्धकार को कैसे महसूसा जाता है! आँख सूचित भले कर दे, किन्तु आँखों तक यह सूचना पहुँचने के लिए भी एक आश्रय तो चाहिए ही। यह आश्रय इसे कौन देता है। जब कुछ देखने के लिए होवे ही न, तब क्या देखा जाएगा भला। और सूर बिन आँख के भी क्या कह जाते हैं:-

काहू के मन को कोउ न जानत¸ लोगन के मन हांसी

सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस कौ¸ करवत लैहौं कासी


यह दृष्टि, यह दृष्टिसार, यह दृष्टिसंभेद, यह दृश्येतर, और इसकी पिछाई, अनुगमन और वृहत्तर होतीं रहस्य की इतनीं सीमाएँ। आदमी कितना जाये। कितना पाये। कहाँ से चले और कहाँ ठहर जाये। भौतिक पदार्थों का एक बिन्दु में यह संचयन इतना कुछ कर गया। परमशून्य की ऐसी गति। बुद्ध इसीलिए कह गये कि वहाँ न आनन्द है और न ही दुःख। वहाँ कुछ है ही नहीं। किन्तु यह 'कुछ नहीं' सदा से मुझे कुछ होने की खबर देता रहता है।

यहाँ प्रत्यक्ष में भी रहस्य उत्कीर्ण है। अवगुण्ठन है। पेड़ में ही डाली सूख जाती है। पेड़ उसे छोड़ देता है। धरती ही पेड़ है। मिटती हुई चीज़ें किसमें मिटती हैं किसे पता। पदार्थ की गति अपदार्थ में और यह सतत क्रम।

सावन अपने सङ्ग बरखा लाता है। आषाढ़ मात्र सूचना है। जैसे किसी आने वाले की गन्ध उसके पहले चली आती है। चित्त में उसकी पूर्वउपस्थिति निर्मित हो जाती है। ठीक वैसे ही आषाढ़ भी हरबार अपने ढंग से सावन का सन्देशवाहक बनकर आता है। किन्तु उसका सन्देश किसी आदेश से मुक्त है। 

पीठ घूमता रहता है। चेहरे पाछिल होते रहते हैं। ऋतुओं का आपस में स्नात होता रहता है। निरन्तरता कभी नहीं टूटती। और न ही टूटता है अस्तित्व का यह ध्यानपर। सुन्दरदास कहते हैं :-

भारी अचरज होइ, जरै लकरी अरु घासा

अग्नि जरत सब कहैं, होइ यह बडा तमासा


और अन्त में---

हम सभी में भीतर का दृश्य उतर जाय, इसी शुभेच्छा के साथ...

✍🏻कृष्ण के त्रिपाठी


 सुखों का सावन...

🌿

सावन सृजन का सुंदर समय है। बारहमासा में सावन मास की महत्ता सुंदर स्वरूप में सुलभ होती है। पांचवां महीना, पंचम भाव, स्वर, स्थान, स्वाद और स्वभाव वाला! हर सोमवार सुखी वार, श्रवण, स्वाति, उत्तराषाढ़ जैसे नक्षत्र और सरिता संगम, शिवालय, स्तुति और माहात्म्य परायण! लुभावनी धुन सुनाने और रेशमी धागों को गुनगुनाने वाला सावन!

सावन वनस्पति के अंकुरण, पल्लवन, फूलन और फलन का अवसर है और जो जातक सावन वाले हों, वे वनस्पति की तरह ही सबके प्रिय, खर्चा करने वाले, छाया, आश्रय देने वाले और मित्रों, प्रियजनों के धनी होते हैं... 

और क्या - क्या? 

सभी मित्रों को सावन की शुभ कामनाएं...

✍🏻डॉ श्रीकृष्ण जुगनु


'श्रावण शुक्ला सप्तमी, उगत दिखे जो भान, या जल मिलिहैं कूप में या गंगा स्नान।' 

यानि सावन माह की शुक्ल पक्ष की सप्तमी को प्रात: सूर्य का उगना दिखे तो घाघ के अनुसार निश्चित रूप से सूखा पड़ेगा। 

'श्रावण शुक्ला सप्तमी, डूब के उगे भान, तब ले देव बरिसिहैं, जब सो देव उठान।' सावन शुक्ल सप्तमी को यदि सूर्य बदली में डूब कर उगे तो कार्तिक माह में देवोत्थान एकादशी तक अवश्य वर्षा होती है।


अथ मयूर चित्रके...

#यथा_वृष्टिविज्ञानम्

श्रवण नक्षत्र युक्त सावनी पूर्णिमा को यदि वर्षा होती है तो उस क्षेत्र में सुभिक्ष जानना चाहिए। पृथ्वी बहुत अन्न उपजाती है :

श्रावणेर्क्षे पूर्णिमायां यदि मेघ: प्रवर्षति।

तस्मिन्काले सुभिक्षं स्याद्धरित्री चान्न संकुला।। 7।।


जो सावन शुक्ला 7 को बारिश हो तो लोक में आनंद होता है, धरती पर धन धान्य की वृद्धि होती है :

श्रावणे शुक्ल‌सप्तम्यां यदि मेघ: प्रवर्षति।

तदा प्रजाभि‌ नन्दति धनधान्याकुला धरा:।। 1।।


श्रावण में कृतिका नक्षत्र के दिन वर्षा होती है तो भरपूर वर्षा होनी चाहिए और धरती सागर सी तथा अन्न धन से पूर्ण होती है : 

श्रावणे कृतिकायाञ्च यदि मेघ: प्रवर्षति।

तदात्वेकार्णवा पृथ्वी धनधान्य कुला प्रजा:।। 2।।

                             ( मयूरचित्रकम् : नारद मुनि कृत, संपादन : डॉ. श्रीकृष्ण जुगनू, अनुभूति चौहान, परिमल पब्लिकेशन, दिल्ली, 2004, सप्तम अध्याय)

यदि नारद के इस ग्रंथ को प्रमाण माना जाए तो उक्त दिनों की बारिश शुभ बता रही है। 


श्रवण नक्षत्र भगवान् विष्णु का प्रिय नक्षत्र है। इस नक्षत्र में ३ तारे हैं, तीनों तारे पद(पैर का पञ्जा) की आकृति बनाते हैं, इसे विष्णुपद कहा जाता है।

नियम है कि पूर्णमासी का चन्द्रमा जिस नक्षत्र के निकट होता है उसी नक्षत्र के नाम से उस मास को पुकारते हैं। इस पूर्णिमा को चन्द्रमा श्रवण नक्षत्र में रहेगा , अतः मास श्रावण मास ही है और श्रावण कहा जायेगा।

ऋतुचक्र इन्हीं नक्षत्रों में घूमता रहता है। महाभारत के आश्वमेधिक पर्व में कहा गया है, 

श्रवणादीनि ऋक्षाणि ऋतवः शिशिरादयः।।

अर्थात् शिशिर ऋतु का आरम्भ सूर्य के श्रवण नक्षत्र में रहने पर होता है। हम जानते हैं कि शिशिरारम्भ का किसी नक्षत्र से स्थायी सम्बन्ध नहीं है, यह प्रत्येक सहस्र वर्ष में एक नक्षत्र पीछे सरक जाया करता है।

वर्षाकाल ४ मास का व्यवहृत है, जबकि वर्षा ऋतु ऋतुमान के अनुसार केवल २ मास की कही जायेगी

वेदपाठ वर्षाकाल में अर्थात् चातुर्मास में ही किया जाता रहा है, इसी से सम्बन्धित प्रत्येक वेद के अनुयायियों द्वारा स्व स्व वेदानुसार उपाकर्म सम्पन्न किया जाता रहा, ऋग्वेदी श्रावण पूर्णिमा को जबकि सामवेदी भाद्र तृतीया को अपना उपाकर्म करते हैं।

श्रावण मास तथा भाद्रपद मास वर्षा के मास हैं।

राखी बांधने बंधवाने की परम्परा का निर्वहन श्रावणी पूर्णिमा को ही होता है। 

वैदिकों में रक्षासूत्रबन्धन उपाकर्म दिवस को ही होता है।

✍🏻अत्रि विक्रमार्क अन्तर्वेदी

TMU परिसर में सियाराम विवाह

 टीएमयू के ऑडिटोरियम में हुआ सियाराम विवाह


कथा सियाराम की का सफल मंचनः अंतर्राष्ट्रीय फेम, भरतनाट्यम और ओडिसी की मशहूर नृत्यांगना एवम् पदम विभूषण से सम्मानित राज्यसभा सांसद डॉ. सोनल मानसिंह ने गद्य-पद्य और सुर-ताल के जरिए जीवंत किए श्रीराम चरितमानस के पात्र 


ख़ास बातें


अवध में जन्मे राम सलोना... बधाई गीत की प्रस्तुuति ने मोहा मन

जनता की नकारात्मक सोच को बदलना होगाः चौधरी भूपेन्द्र सिंह

संगीत में युद्ध की सोच की समाप्ति की शक्तिः डॉ. हरवंश दीक्षित

मुख्य अतिथि श्री सिंह को जीवीसी और ईडी ने दिया स्मृति चिन्ह

तीन दिनी कल्चरल फेस्टिवल- परंपरा 2022 का यादगार समापन



तीर्थंकर महावीर यूनिवर्सिटी में तीन दिनी कल्चरल फेस्टिवल- परंपरा की विदाई बेला पर ऑडिटोरियम श्रीराम की भक्ति के रंग में रंगा नजर आया। अंतर्राष्ट्रीय फेम, भरतनाट्यम और ओडिसी की मशहूर नृत्यांगना एवम् पदम विभूषण से सम्मानित राज्यसभा सांसद डॉ. सोनल मानसिंह ने सुसज्जित मंच पर अपनी अदभुत प्रस्तुति से न केवल श्रीराम के चरित्र को जीवंत किया बल्कि संगीत, नृत्य और भाव के मोती पिरोकर ऑडिटोरियम में भक्ति की लौ जला दी। कथा सियाराम की के मंचन करते समय उनके चेहरे पर करूणा, क्रोध, प्रेम, हास्य, स्तब्ध सरीखी भाव-भंगिमाएं देखने को मिलीं। वह मंच पर कभी शिक्षिका की तरह युवाओं को राम चरित्र आत्मसात करने के लिए प्रेरित करती तो कभी नृत्यांगना बन श्रीराम की भक्ति में लीन होकर कथा का रसपान करातीं। बीच-बीच में कभी गद्य, कभी पद्य, कभी सुर, कभी ताल के जरिए अपनी बात कहतीं। कथा सियाराम की के माध्यम से उन्होंने युवाओं को अपनी संस्कृति को जानने के लिए प्रेरित किया। उल्लेखनीय है, आजादी की 75वीं वर्षगांठ पर अमृत महोत्सव और टीएमयू ग्रुप की 21वीं सालगिरह पर यह कल्चरल फेस्ट- परम्परा 2022 का आयोजन हुआ था। 


पदम विभूषण डॉ. मानसिंह ने कथा का मंचन राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के जन्म वर्णन से किया। राजा दशरथ की ओर से कराए गए पुत्रकामेष्ठी यज्ञ का उल्लेख करते हुए चारों भाईयों लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न के चरित्र को भी अपने भावों से दर्शाया। चारों पुत्रों पर माता कौशल्या, कैकयी और सुमित्रा की प्रेम वर्षा से अयोध्या के हर किसी के मन में उल्लास भर दिया। अवध में जन्मे राम सलोना... बधाई गीत के जरिए उनके शिष्यों की टोली ने मनमोहक नृत्य की प्रस्तुति से ऑडिटोरियम में मौजूद सभी मेहमानों और मेजबानों का दिल जीत लिया। डॉ. सोनल ने राम के बालरूप की सुंदरता का बखान किया। राम के जीवन की घटनाओं- गुरू विश्वामित्र का अयोध्या में आगमन, राक्षसों का वध, मिथिला गमन, अहिल्या उद्धार, वन वाटिका में सीता राम मिलन, सीता स्वयंवर, राम विवाह  आदि को सिलसिले वार सुनाकर कथा सियाराम की के मंचन में स्टुडेंट्स को बार-बार डुबकी लगवाई । गोस्वामी तुलसीदास के पद्य से लेकर श्रीराम स्तुति को संगीत के सुरों में सजाकर सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया।


इससे पूर्व बतौर मुख्य अतिथि कैबिनेट मंत्री पंचायती राज, उत्तर प्रदेश सरकार श्री भूपेन्द्र सिंह चौधरी, कुलाधिपति श्री सुरेश जैन, एमएलसी डॉ. जयपाल सिंह व्यस्त, जीवीसी श्री मनीष जैन, उच्चतर शिक्षा सेवा चयन बोर्ड के पूर्व सदस्य डॉ. हरवंश दीक्षित, शहर विधायक श्री रितेश गुप्ता, अध्यक्षा जिला पंचायत, मुरादाबाद डॉ. शैफाली सिंह ने मां सरस्वती के समक्ष दीप प्रज्जवलित करके परम्परा का शुभारम्भ किया। इससे पूर्व बतौर मुख्य अतिथि श्री भूपेन्द्र सिंह चौधरी समेत तमाम मेहमानों को भी पुष्प गुच्छ दिए गए, जबकि जीवीसी श्री मनीष जैन और एग्जिक्यूटिव डायरेक्टर श्री अक्षत जैन ने मुख्य अतिथि को शॉल ओढ़ाकर स्मृति चिन्ह भेंट किया। अंत में डॉ. सोनल मानसिंह और उनकी पूरी टीम को स्मृति चिन्ह देकर सम्मानित किया गया। संचालन टीएमयू हॉस्पिटल के निदेशक श्री विपिन जैन और डॉ. सुगंधा जैन ने संयुक्त रूप से किया।


मुख्य अतिथि श्री भूपेन्द्र सिंह चौधरी ने कहा, पदम विभूषण डॉ. सोनल मानसिंह का मुरादाबाद में आगमन सौभाग्य की बात है। आज का मंच सियासत का नहीं है, लेकिन वर्तमान में जनप्रतिनिधियों और राजनेताओं के प्रति जनता में नकारात्मकता का भाव है। ऐसे में राजनेताओं को जनता की जरूरतों और उनकी भावनाओं के अनुसार कार्य करना होगा। उच्चतर शिक्षा सेवा चयन बोर्ड के पूर्व सदस्य डॉ. हरवंश दीक्षित बोले, युद्व हर समय मनुष्य के दिमाग में रहता है। संगीत एक ऐसा माध्यम है, जो युद्ध की सोच को समाप्ति का काम करता है। कल्चर के जरिए हम आपसी दूरी को करके समाज में फैली नकारात्मकता को खत्म कर सकते हैं। संस्कृति सभ्यता को आगे बढ़ाती है। पूरी दुनिया ने संगीत को पारलौकिक जगत से योग का साधन माना है। 


कल्चरल फेस्टिवल- परम्परा में हिन्दुस्तान, मुरादाबाद संस्करण के स्थानीय संपादक श्री भूपेश उपाध्याय, ब्रीथिंग आर्ट्स के संस्थापक श्री अनुराग चौहान, समाज सेवी श्री गुरविन्दर सिंह, विभाग प्रचारक श्री वतन जी, प्रचारक श्री सचिन जी, दैनिक जागरण के पूर्व प्रबंधक श्री अनिल अग्रवाल के अलावा रजिस्ट्रार डॉ. आदित्य शर्मा, एसोसिएट डीन प्रो. मंजुला जैन, डीन छात्र कल्याण प्रो. एमपी सिंह, निदेशक सीसीएसआईटी प्रो. आरके द्विवेदी, निदेशक टिमिट प्रो. विपिन जैन, पैरामेडिकल के वाइस प्रिंसिपल प्रो. नवनीत कुमार, कॉलेज ऑफ फार्मेसी के प्राचार्य प्रो. अनुराग वर्मा, मेडिकल कॉलेज के वाइस प्रिंसिपल प्रो. एसके जैन, फार्माकॉलोजी के एचओडी डॉ. प्रीथपाल सिंह मटरेजा, नर्सिंग के प्रिंसिपल प्रो. श्रीनाथ के. कुलकर्णी, नर्सिंग की वाइस प्रिंसिपल प्रो. एम. जसलीन, फिजियोथैरेपी की प्राचार्या डॉ. शिवानी एम. कौल, सीसीएसआईटी के एचओडी प्रो. एके सक्सेना, फैकल्टी ऑफ एजुकेशन की प्राचार्या प्रो. रश्मि मेहरोत्रा, श्री प्रेम प्रकाश एजुकेशन कॉलेज के प्राचार्य डॉ. अशोक कुमार लखेरा, कुन्थनाथ एजुकेशन कॉलेज के प्राचार्य डॉ. विनोद जैन, ज्वाइंट रजिस्ट्रार रिसर्च डॉ. ज्योति पुरी, टिमिट कॉलेज फिजिकल एजुकेशन के प्राचार्य प्रो. मनु मिश्रा, ज्वाइंट डायरेक्टर एडमिशन श्री अवनीश कुमार आदि की मौजूदगी रही।

स्त्री की खामोशी

 एक स्त्री जब खामोश होती है 

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एक स्त्री जब खामोश होती है 

तो वो चाहती है तुम बिन कहे

ही समझ लो उसके मन में 

चलने वाला अन्तर्द्वन्द 

उसके सपने ,उसका दुख

उसकी हर परेशानी 

उसकी हर वो इच्छा 

जो वो पूरा करना चाहती है 

लेकिन कह नहीं पाती और 

जो उसे खुशी दे वो हर बात

जैसे वो समझ लेती है 

तुम्हारे चेहरे को पढ़कर

कुछ नहीं होता उसके जीवन में 

तुम्हारी खुशियों से बढ़कर

उसकी हर धड़कन तुम्हारे लिए 

धड़कती है, तुम्हारे लिए ही

वो संजती संवरती है 

बस सुनना चाहती है 

तारीफ के दो शब्द 

तुम्हारे साथ हमेशा खड़ा हूँ

इतना सा बस

लेकिन जब तुम न समझ पाओ

उन अनकही बातों को 

न देख पाओ उन 

खामोश रातों को 

न देख पाओ तुम्हारे 

रूखे बर्ताब से आये 

आँखों में छिपे आँसुओं को 

तो वो अपने लिए खामोशी 

चुनती है


और पटर पटर बोलने वाली 

लड़की को यूं खामोश होने में 

दिन या महीने नहीं लगते

तुम्हारे सालों के व्यवहार 

से वो ये खामोशी चुनती है 

एक स्त्री जब खामोश होती है |

गुरुवार, 14 जुलाई 2022

सूफ़ी कव्वाली और शास्त्रीय संगीत से झूम उठा TMU परिसर

 सूफी कव्वाली और शास्त्रीय संगीत से निजामी बंधु ने सजाई टीएमयू की शाम 


कभी अमीर खुसरो की शायरी तो कभी अल्लाह की इबादत। कभी कबीर का दोहा तो कभी जिगर मुरादाबादी का शेर। तीर्थंकर महावीर यूनिवर्सिटी के ऑडिटोरियम में देर रात तक कव्वाली के रंग-ही-रंग देखने को मिले। निजामी बंधु ने सूफी और शास्त्रीय संगीत के संगम के संग सुरों को ऐसा पिरोया कि श्रोताओं से भरे ऑडी में मेहमान और मेजबान कव्वालियों के साथ ताल से ताल मिलाने को मजबूर हो गए। सैंकड़ों स्टुडेंट्स में इतना जोश भर गया कि खुद को निजामी बंधु की कव्वाली के बीच में तालियों से संगत करने से नहीं रोक पाए। निजामी बंधु ने सूफीयाना और क्लासिकल अंदाज में कव्वाली दर कव्वाली और शेर दर शेर पेश करके खूब वाह वाही लूटी। जैसे-जैसे रात ढ़लती गई महफिल परवान चढ़ती गई। इससे पूर्व संस्कृति एवम् विदेश राज्य मंत्री, भारत सरकार श्रीमती मीनाक्षी लेखी, कुलाधिपति श्री सुरेश जैन, एमएलसी डॉ. जयपाल सिंह व्यस्त, मेयर श्री विनोद अग्रवाल, बतौर विशिष्ट अतिथि अध्यक्षा जिला पंचायत, मुरादाबाद डॉ. शैफाली सिंह, बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ की जिला संयोजिका श्रीमती प्रिया अग्रवाल ने मां सरस्वती के समक्ष दीप प्रज्जवलित करके परम्परा के दूसरे दिन का शुभारम्भ किया। इस मौके पर कव्वाली एवम् सूफीयाना संगीत के पुरोधा निजामी बंधु को बुके देकर सम्मानित किया गया। इससे पूर्व मुख्य अतिथि श्रीमती मीनाक्षी लेखी समेत तमाम मेहमानों को भी पुष्प गुच्छ दिए गए, जबकि जीवीसी श्री मनीष जैन और एग्जिक्यूटिव डायरेक्टर श्री अक्षत जैन ने मुख्य अतिथि को शॉल ओढ़ाकर स्मृति चिन्ह भेंट किया। मुख्य अतिथि श्रीमती लेखी ने कार्यक्रम प्रारम्भ होने से पूर्व यूनिवर्सिटी का भी भ्रमण किया। संचालन टीएमयू हॉस्पिटल के निदेशक श्री विपिन जैन और डॉ. सुगंधा जैन ने किया। 


चांद निजामी ने अपने भतीजे शादाब, शोराब के संग-संग बेटे कामरान और गुलखान और दस सहकलाकारों ने कार्यक्रम की शुरूआत अल्लाह को याद करते हुए कोई पुकारे अल्लाह तुझको, कोई कहे भगवान और जिसके मन को जैसा भाए वैसा तेरा नाम... शेर सुनाकर की। अल्लाह हू, अल्लाह हू ... की गूूंज से निजामी बंधु ने कुछ समय के लिए माहौल रूहानी कर दिया। स्टुडेंट्स की तालियों की गूंज पर कव्वाल कभी आलाप तो कभी ताने लेकर सुरों की माला पिरोते रहे। उन्होंने छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइ के... सुनाकर हर किसी को अपनी आवाज का दीवाना बना दिया। कबीर का प्रसिद्ध दोहा हम तुम एक हैं, कहन सुनन को दो, अरे मन से मन को तोलिए तो दो मन कबहुं न हो.... सुनाकर सभी का दिल जीत लिया। इसी कव्वाली के बीच जब शेर मैं उनकी आंखों से ढलती शराब पीता हूं, गरीब होकर भी महंगी शराब पीता हूं, शराब दुनिया की पीना हमारा काम नहीं, निगाहे यार से पीना कोई हराम नहीं सुनाया तो हर कोई वाह-वाह करता हुआ नजर आया। 


ऑडी में निजाम बंधु ने दिल दिया है जान भी देंगे ऐ वतन तेरे लिए ... सुनाकर युवाओं में देशभक्ति का जोश भरने का भी काम किया। देशभक्ति माहौल बनाते हुए उन्होंने अर्ज किया, सुहानी सुबह लिख देना सुहानी शाम लिख देना, मैं उनको चाहता हूं बस यही पैगाम लिख देना और मुझे जब लोग ले जाएं जनाजे पे, तो कफन के चारों कोनों पर हिदंुस्तान लिख देना...। युवाओं की फरमाइश पर नुसरत फतेह अली खां की प्रसिद्ध कव्वाली कव्वाली मेरे रश्के कमर तुने पहली नजर जब नजर से मिलाई मजा आ गया... सुनाई तो ऑडी में बैठे युवा झूमने लगे। समारोह में निजामी बंधु ने प्रसिद्ध कव्वाली दमा दम मस्त कलंदर..., फिल्म रॉकस्टॉर का प्रसिद्ध गीत कुन फाया कुन..., फिल्म जोधा अकबर का प्रसिद्ध गीत ख्वाजा मेरे ख्वाजा... सुनाकर हर किसी को रूहानियत से भर दिया। इसी बीच कबीर दास का प्रसिद्ध भजन मन लागा मोरा फकीरी में... को एक नए अंदाज में बयां किया, जिसे सुन हर कोई भक्ति की बयार में डूब गया।



संस्कृति एवम् विदेश राज्य मंत्री, भारत सरकार श्रीमती मीनाक्षी लेखी बोलीं, युवा पीढ़ी को भारतीय इतिहास बोध होना बेहद जरूरी है। देश के डवपलमेंट को आत्मविश्वास की दरकार है। कॉन्फिडेंस इतिहास बोध से ही आता है। अमृत महोत्सव और टीएमयू ग्रुप की 21वीं सालगिरह पर तीर्थंकर महावीर यूनिवर्सिटी में उनकी मौजूदगी सौभाग्य की बात है। ऑडिटोरियम में आयोजित कल्चरल फेस्ट- परम्परा 2022 में वह बतौर मुख्य अतिथि बोल रही थीं। तीन सौ बरस के इतिहास पर क्रमवार प्रकाश ड़ालते हुए कहा, नारी हमेशा शक्तिशाली रही है। श्रीमती लेखी ने हिन्दी की सुप्रसिद्ध कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान, झांसी की रानी, रानी अब्बक्का चौटा, शिवगंगा रियासत की रानी वेलु नचियार आदि की देशभक्ति का भावपूर्ण स्मरण किया। बोलीं, सेनापति से लेकर सेना तक की कमान महिलाओं के हाथों में थी। पुरूष और नारी में कोई भेदभाव नहीं था। वे हथियार चलाने में भी पारंगत होती थी, क्योंकि उन्हें इसका सघन प्रशिक्षण दिया जाता था। हमें देश की एकता और अखंडता को नई ऊचाइंयों तक ले जाना है। इसके लिए आइडिया, रिजॉल्व, एक्शन और गोल्स को फोकस करना होगा। आजादी की 75वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में मनाए जा रहे अमृत महोत्सव पर बोली, हमें अपने आजादी के लिए दी गई कुर्बानियों का ज्ञान होना जरूरी है। साथ ही म्यूजियम के महत्व के पर भी प्रकाश ड़ाला। बोलीं, हम अपने बच्चों को म्यूजियम नहीं ले जाते हैं, जिससे वे इतिहास से दूर हैं। उन्होंने करीब आधे घंटे के अपने संबोधन में भारतीय ज्योतिष, टेक्नोलॉजी, संस्कृति, धरोहर, चिकित्सा आदि की व्यापक चर्चा की। उन्होंने प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के स्वच्छ भारत अभियान को बड़ी उपलब्धि बताया। टीएमयू के एग्जिक्यूटिव डायरेक्टर श्री अक्षत जैन को अपने बेटे के समान बताते हुए बोलीं, आज की युवा पीढ़ी के विज़न की मैं कायल हूं। उन्होंने राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता, सामाजिक कार्यकर्ता और ह्यूमन फॉर ह्यूमैनिटी एंड ब्रीथिंग आटर््स के संस्थापक श्री अनुराग चौहान से अपने रिश्तों का हवाला भी दिया। इससे पूर्व श्री चौहान ने अपने संबोधन में कहा, ईडी श्री अक्षत जैन ने इच्छा जताई थी कि ब्रास सिटी को कल्चर सिटी के रूप में पहचान दिलाई जाए। यह कल्चरल फेस्ट उसी चाह का एक हिस्सा है। एमएलसी डॉ. जयपाल सिंह व्यस्त ने तीर्थंकर महावीर यूनिवर्सिटी के विकास में  कुलाधिपति श्री सुरेश जैन, जीवीसी श्री मनीष जैन और एग्जिक्यूटिव डायरेक्टर श्री अक्षत जैन की भूमिका का स्मरण करते हुए कहा, 21 बरस में इतना डवलपमेंट मैंने अपनी पूरी जिंदगी में नहीं देखा है। उन्होंने कल्चरल फेस्ट का श्रेय श्री अक्षत जैन को देते हुए बोले, समाज से जो मिलता है, वह समाज को देना कुलाधिपति का यह समाज के प्रति समर्पण है।   



कल्चरल फेस्टिवल- परम्परा में उच्चतर शिक्षा सेवा चयन आयोग के सदस्य डॉ. हरबंश दीक्षित, महानगर जैन सभा के अध्यक्ष श्री अनिल जैन, निदेशक प्रशासन श्री अभिषेक कपूर, रजिस्ट्रार डॉ. आदित्य शर्मा, एसोसिएट डीन प्रो. मंजुला जैन, डीन छात्र कल्याण प्रो. एमपी सिंह, निदेशक सीसीएसआईटी प्रो. आरके द्विवेदी, निदेशक टिमिट प्रो. विपिन जैन, पैरामेडिकल के वाइस प्रिंसिपल प्रो. नवनीत कुमार, कॉलेज ऑफ फार्मेसी के प्राचार्य प्रो. अनुराग वर्मा, डेंटल कॉलेज की सीनियर फैकल्टी रामकृष्ण यलूरी, निदेशक सीटीएलडी प्रो. आरएन कृष्णिया, मेडिकल कॉलेज के वाइस प्रिंसिपल प्रो. एसके जैन, टिमिट कॉलेज फिजिकल एजुकेशन के प्राचार्य प्रो. मनु मिश्रा, ज्वाइंट डायरेक्टर एडमिशन श्री अवनीश कुमार, प्रो. श्याम सुंदर भाटिया आदि की मौजूदगी रही, जबकि राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता, सामाजिक कार्यकर्ता और ह्यूमन फॉर ह्यूमैनिटी एंड ब्रीथिंग आटर््स के संस्थापक श्री अनुराग चौहान और ब्रीथिंग आटर््स के सलाहकार बोर्ड की सदस्य श्रीमती चारू सानन की उल्लेखनीय उपस्थिति रही।

सावन में रपटन होवत है / ताल तलैयन पर मत जइयो -


मशकूर अहमद 'नजमी' बदायूँनी


 मत द्वारे पर टेर लगइयो,

साँकर धीरे- धीरे बजइयो


हमरी गली बिछुआ डो.लत हैं

हुसियारी से अइयो जइयो


हमरी निसानी ढाँप के रखियो,

जाको तमासो मत बनवईयो


सावन में रपटन होवत है

ताल तलैयन पर मत जइयो


हम जावत हैं कंडा थापन

पीछे पीछे मत आ जइयो


प्रेम का बिरवा सूख न जाये

पानी वानी देवत रहियो प्रेम


ऐसे ही अच्छे लागत हो

मजनू फजनू मत बन जइयो


हमरे दिखैया आवन लागे

तुम खेतन पर सोवत रहियो


चंपा हमरी पक्की दुश्मन,

बाकी बातन में मत अइयो,


हमका औरन से का मतबल,

कालिया मच्छी तुम मत खइयो


भौजी तो अपने माईं हैं

महतारी से बच के रहियो


नैन लडावन में कुछ न है

खोट नजर में मत ले अइयो


कोई ततैया जब रपटावे

हमरी चुनरी में डुक जइयो


हमरो बियानो जेब मे धर के,

और कहीं पर मत बिक जइयो,


होरी में "नजमी" औरन से

हमरी चुनरिया मत रंगवईयो

            


~ मशकूर अहमद 'नजमी' बदायूँनी

मंगलवार, 12 जुलाई 2022

नंदकिशोर नवल का पुण्य स्मरण) / गोपेश्वर सिंह

 तुम्हीं  से मोहब्बत,  तुम्हीं से लड़ाई 




अजीब रिश्ता रहा नंदकिशोर नवल से . वे हमारे अध्यापक भी थे और वरिष्ठ सहकर्मी भी. उनसे वैचारिक- साहित्यिक  हमारी लड़ाइयाँ  भी  ख़ूब हुईं और हमने एक- दूसरे से बेपनाह मोहब्बत भी  की. लगभग चार दशकों के संग- साथ में अनेक चढ़ाव- उतार आए. हम एक- दूसरे को कभी पसंद ,कभी नापसंद करते रहे. एक- दूसरे की रूचियों को सराहते रहे और मजाक़ उड़ाते रहे. अब जब कि वे नहीं हैं तो लगता है कि पटना से लगाव का एक बड़ा आधार ख़िसक गया. वह पटना जिसे वे बेहिसाब प्यार करते थे और मेरे लिए जो कभी ‘सिटी ऑफ़ जॉय’ था. हमारे बहुत ही बेतकल्लुफ़ गुरु और साथी थे नंदकिशोर नवल, जिन्हें याद करता हूँ तो अपने जीवन का धड़कता हुआ अध्याय खुलने लगता है.

   

1990 और 1998 के बीच की कोई तारीख थी. इतना ही याद है कि नवल जी तब विश्वविद्यालय की सेवा में थे. यह भी याद है कि अप्रैल महीने का कोई गर्म दिन था. रात के क़रीब आठ बजे मैं और तरुण कुमार नवल जी के साथ आरा रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर खड़े थे. हम एक सेमिनार से निकले थे और हमें पटना के लिए ट्रेन पकड़नी थी. ट्रेन के आने में एक घंटे की देर थी. गर्मी से ऊपर का  ए   स्बेसटस और प्लेटफ़ॉर्म तप रहे थे. ट्रेन की प्रतीक्षा और ऊपर से गर्मी . हम परेशान हो उठे. तभी नवल जी ने एक ऐसी बात कही जिसके कारण हम दोनों अपनी परेशानी भूल गए. उन्होंने कहा: “आप लोगों को एक बात बताना चाहता हूँ. ‘निराला रचनावली’ के संपादन के दौरान मुझे कई शहरों की यात्रा करनी पड़ी. कई बार इसी तरह के तपते हुए प्लेटफॉर्म पर रात में गमछा बिछाकर सोना पड़ा. लगता था कि मेरी पीठ जल गयी हो. जो रचनावली हिंदी संसार के सामने है उसके संपादन में जितने कष्ट झेलने पड़े उनमें से एक इस तरह के प्लेटफॉर्म पर गमछा बिछाकर सोना भी था’’. 


‘निराला रचनावली’ के संपादन में नवल जी ने बहुत मिहनत की. प्रायः सभी रचनाओं के प्रकाशन के संदर्भ और समय का उल्लेख किया. रचनाओं के क्रम-निर्धारण का काम भी सावधानी के साथ किया.  निराला-साहित्य के परिप्रेक्ष्य को ठीक से हिंदी संसार के सामने रखने के लिए रचनावली की लम्बी भूमिका लिखी. मैं कह सकता हूँ कि हिंदी में जो सुसंपादित रचनावलियाँ हैं उनमें ‘निराला रचनावली’ का ऊँचा स्थान है. नेमिचंद्र जैन के संपादन में तब ‘मुक्तिबोध रचनावली’ निकल चुकी थी. वह भी सुसंपादित रचनावली है. नवल जी के सामने संभव है कि वह आदर्श उदहारण के रूप में रही हो. बाद के दिनों में विजय बहादुर सिंह ने ‘नंद दुलारे वाजपेयी रचनावली’, ओमप्रकाश सिंह ने ‘रामचंद्र शुक्ल रचनावली’, और मस्तराम कपूर ने ‘राममनोहर लोहिया रचनावली’ के संपादन द्वारा आदर्श उदहारण पेश किए . इस क्रम में  सुसंपादित अन्य रचनावलियों का भी नाम लिया जा सकता है. लेकिन हिंदी में निकली सभी रचनावलियों को आदर्श के रूप में नहीं याद किया जा सकता. बहरहाल, नवल जी ने रचनावली के साथ कई पुस्तकों के संपादन में इसी आदर्श का निर्वाह किया. वे मानते थे कि मिहनत का कोई विकल्प नहीं है. संपादन का उद्देश्य और उसके पीछे काम करने वाली दृष्टि स्पष्ट होनी चाहिए. शायद यही कारण था कि मेरे द्वारा संपादित दो किताबें- ‘भक्ति आंदोलन के सामाजिक आधार’ और ‘कल्पना का उर्वशी विवाद’ उन्हें ख़ूब पसंद आयीं. 


उनकी संपादन- कला उनके द्वारा संपादित पत्रिकाओं में भी देखी गई. पत्रिका निकालना उनका प्रिय काम था. अपने युवा काल में अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर उन्होंने ‘ध्वजभंग’ नाम से एक पत्रिका निकाली थी. तब उन पर राजकमल चौधरी की संगति का असर था. भूखी पीढ़ी, नंगी पीढ़ी आदि का भी कुछ असर होगा. पटना में राजकमल के घर पर नंदकिशोर नवल, कुलानंद मिश्र, सिद्धिनाथ मिश्र और शिव वचन सिंह की बैठक हुई और एक पत्रिका निकालने का निर्णय लिया गया. राजकमल ने पत्रिका का नाम सुझाया- ‘प्रचोदयात’. राजकमल ने कहा कि गायत्री मंत्र का यह शब्द है जिसका अर्थ होता है- प्रेरित करना, आगे बढ़ाना आदि. लेकिन नवल जी और उनके साथी राजकमल जैसे साहसी नहीं थे. उनकी राय थी कि ‘ध्वजभंग’ नाम से पत्रिका निकले. तब नवल जी विश्वविद्यालय के शोध छात्र थे. अपने शोध के सिलसिले में वे कुछ हफ़्तों के लिए पटना से बाहर गए. इसी बीच राजकमल चौधरी का असामयिक निधन हो गया. यह 1967 के आसपास की बात है. बाद में ‘ध्वजभंग’ नाम से ही पत्रिका निकली. तीन-चार अंक निकलने के बाद पत्रिका बंद हो गई. ‘ ध्वजभंग’ गढ़ा हुआ नाम था, इससे कई अर्थ निकलते थे. एक अर्थ अकवितावादी संस्कार का भी था. बाद के वर्षों में ‘सिर्फ’, ‘धरातल’, और ‘उत्तरशती’ का उन्होंने संपादन किया.  नामवर सिंह के साथ सह संपादक के रूप में वे ‘आलोचना’ से भी जुड़े. अवकाश ग्रहण के बाद उन्होंने ‘कसौटी’ के पंद्रह अंक निकाले. 


 कुल मिलाकर यह कि पत्रिका निकालना नवल जी का प्रिय शौक़ था. अपने इस शौक़ को वे बहुत जतन से निभाते थे. रचनाओं के संपादन से लेकर प्रूफ़ रीडिंग तक का काम वे स्वयं करते थे. एक- एक शब्द की जाँच-परख करते थे. अपना बहुत-सा समय और पैसा उन्होंने पत्रिका निकालने में ख़र्च किया. क्यों किया? मुझे लगता है कि पत्रिका के जरिए नए रचनाकारों से जीवंत संवाद का आकर्षण उनके भीतर प्रबल था. वे हमेशा नये रचनाकारों का संग- साथ पसंद करते थे. वे गुरुडम के शिकार नहीं थे. उसी आदमी ने दो साल पहले एक ऐसी बात कही जो मुझे झकझोर गयी. उन्होंने पूछा कि अब आपका रिटायर्मेंट करीब आ रहा है तो क्या करने की योजना है? मैंने कहा कि सोचा नहीं है, मन हुआ तो कोई पत्रिका निकालूँगा. उन्होंने कहा कि अपनी पसंद के विषय पर क़िताब लिखिए. किसी कवि-कथाकार या आलोचक पर एकाग्र होकर काम कीजिए. अब तक यह काम आपने नहीं किया है. फुटकल लेख लिखने से कोई आलोचक नहीं बनता. पत्रिका हर्गिज मत निकालिए. यह ‘थैंकलेस जॉब’ है. होशियार लेखक कभी पत्रिका नहीं निकालते हैं, जैसे  ज्ञानेंद्रपति, आलोकधन्वा और अरूण कमल. इसी के साथ यह भी कहा कि दूसरों की रचनाओं को सुधारते रहने से अच्छा है कि आदमी अपने मन का पढ़े-लिखे. मैं चकित हुआ कि यह बात वह आदमी कह रहा है जिसने जीवन भर पत्रिकाएँ निकाली हैं. वे मुझसे , तरुण कुमार और अपूर्वानंद से उम्मीद करते थे कि हम ख़ूब लिखें, लेकिन जब हम उनकी उम्मीदों पर खरे उतरते नहीं नहीं दिखे तो हमारी हल्की- सी  आत्मीय शिकायत भी करने लगे. कहते कि बाबू साहेब को गप, अड्डेबाजी और भाषण से फ़ुर्सत नहीं है, तरुण जी लिखने में आलसी हैं और अपूर्वानंद की दिलचस्पी का क्षेत्र साहित्य नहीं, राजनीति है.( वे अक्सर मुझे ‘बाबू साहेब’ कहते थे. उनकी देखा- देखी तरुण कुमार, अपूर्वानंद, सत्येन्द्र सिंहा आदि भी कभी- कभी ‘बाबू साहेब’ कहते थे.)     


बहरहाल, नवल जी जितने समर्पित और मिहनती संपादक थे उससे अधिक मिहनती और समर्पित शिक्षक थे. समय से कक्षा में आना और निर्धारित विषय पर पूरे समय केन्द्रित होकर ठहर-ठहर कर बोलना उनकी आदत थी. वे हमें निराला और मुक्तिबोध की कविताएँ पढ़ाते थे. एक-एक शब्द की व्याख्या के साथ कविता को पूरे विस्तार से खोलते थे. कविता का सामाजिक संदर्भ भी बतलाते थे पर सबसे पहले कविता के धरातल पर हमें ले जाते थे.  छुट्टी पर जाने वाले अध्यापक की जगह पर भी वे अक्सर आ जाते थे. पटना विश्वविद्यालय में तब कोई कक्षा ख़ाली नहीं जाती थी. हम  जब उस खाली पीरियड का आनंद उठाना चाहते, तभी नवल जी कक्षा में हाज़िर. हम तब उन्हें ‘फिल अप द ब्लैंक’ के नाम से याद करते. हमारे हाव-भाव से वे समझ जाते कि हम कोई गंभीर व्याख्यान सुनने के मूड में नहीं हैं. तब वे किसी दिलचस्प साहित्यिक विषय पर बातचीत करते. एक दिन उन्होंने यह बताया कि किस लेखक-कवि का असली नाम क्या है; जैसे सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का मूल नाम सूर्य कुमार तिवारी, सुमित्रानंदन पंत का गुसाईं दत्त पंत, शांतिप्रिय द्विवेदी का मूंछन दुबे, जैनेंद्र कुमार का आनंदी लाल, मलयज का भरतजी लाल  श्रीवास्तव आदि-आदि. यह सब वे बता रहे थे तभी एक शरारती छात्र ने पूछा: “ सर, आपका मूल नाम?’’ वे मुस्कुराए. लेकिन इत्मीनान से जवाब दिया: “नंदकिशोर सिंह. लेकिन मैंने मैट्रिक का फॉर्म भरते समय अपने नाम से ‘सिंह’ हटाकर ‘नवल’ लगा लिया.’’ हमारे साथी ने रचनात्मक सवाल किया:  ‘तख़ल्लुस तो कवि लगाते हैं. आप ठहरे प्रगतिशील आलोचक?’ इस बार उन्होंने उस शरारती छात्र को ठहर कर देखा और कहा: “पहले मैं कवि था. मेरा एक काव्य संग्रह छप चुका है.’ उस छात्र ने कहा: “ओह, आप कवि थे! तभी तो!’’ नवल जी ने यह नहीं पूछा कि ‘क्या तभी तो’, लेकिन यह समझ गए कि छात्र पढ़ने के मूड में नहीं हैं. फिर भी पढ़ाते रहे. बाद के दिनों में भी वे आते और किसी दिलचस्प साहित्यिक विषय पर चर्चा करते. हमने भी मान लिया था कि गुरूजी लोग बिना पढाये नहीं मानेंगे, सो मन मारकर पढ़ने लगे. लेकिन जहाँ चाह, वहाँ राह जैसी कहावत छात्रों ने सुन रखी थी.


असल में ख़ाली पीरियड कम मिलते थे. दस बजे से दो बजे तक लगातार चार पीरियड होते थे. ख़ाली पीरियड में लडके अपनी कक्षा की लड़कियों से बात करना चाहते थे जिनकी संख्या लड़कों के बराबर ही थी. दो बजे के बाद सभी लड़कियाँ घर में अच्छी बनी रहने के लिए जल्दी घर भाग जाती थीं . देर से पहुँचने पर माता-पिता की डांट सुननी पड़ती. छुट्टी के दिन मिलने का तो सवाल ही नहीं था. सो, लड़कों के पास अपना ख़ाली पीरियड ही होता लड़कियों को प्रभावित करने के लिए. लेकिन नवल जी की अधिक तत्परता हमें भारी पड़ने लगी. लड़कों ने तय किया कि ख़ाली पीरियड में हम लोग गंगा किनारे बैठेंगे जो विभाग के पीछे ही था. लेकिन एक भक्त किस्म के छात्र ने उन्हें इसकी सूचना दे दी.  ग़नीमत रही कि उन्होंने इस पर ध्यान न दिया. मामले की नजाकत शायद वे समझ गए थे. 


  मैं जब वहीं अध्यापक हो गया तो वे मुझे भी तैयार होकर कक्षा में जाने के लिए प्रेरित करते थे. थोड़ी भी देर होती तो वे हमें टोकते थे. कहते थे कि शिक्षक को कक्षा में समय से जाना चाहिए और निर्धारित समय और निर्धारित विषय पर बोलना चाहिए. वे यह भी बताते थे कि जो विषय अगले दिन पढ़ाना है उसकी तैयारी एक दिन पूर्व कर लेनी चाहिए. वे यह भी कहते थे कि अपने व्याख्यान का आदि और अंत बिलकुल सुचिंतित होना चाहिए. यह सब मैंने  कितना सीखा यह तो नहीं कह सकता , लेकिन यह कह सकता हूँ  कि नवल जी इसका पालन जीवन भर करते रहे. वे कक्षा को जितनी गंभीरता से लेते थे उतनी ही गंभीरता से साहित्यिक आयोजनों को भी. विभाग में जब भी वे आयोजन करते उसकी पूरी रूपरेखा गंभीर होती. विश्वविद्यालय के बाहर प्रगतिशील लेखक संघ के बैनर तले या व्यक्तिगत रूप से भी उन्होंने जो विचार गोष्ठियाँ पटना में आयोजित कीं, उनकी बड़ी भूमिका नगर के युवाओं को प्रशिक्षित करने में रही. उन्हीं के जरिए उन आयोजनों में हमने नामवर सिंह के ऐतिहासिक भाषण सुनें. हमने केदारनाथ अग्रवाल, शमशेर बहादुर सिंह, नागार्जुन, त्रिलोचन, अमृतलाल नागर, रघुवीर सहाय, आदि को सुना और अपने को समृद्ध किया. मैं कह सकता हूँ कि नंदकिशोर नवल जैसा सुरुचि सम्पन्न आयोजक मैंने कम देखा  है.

 लेकिन इसी के साथ मैं यह भी कहना चाहता हूँ कि नंदकिशोर नवल पर प्रगतिशील लेखक संघ और कम्युनिस्ट पार्टी का ऐसा असर था कि वे अपने से भिन्न मत के विरोधियों को बर्दाश्त नहीं कर पाते थे. एक बार पटना विश्वविद्यालय की ओर से सात दिनों का सेमिनार हुआ. विषय था ‘लोक चेतना और हिन्दी साहित्य’. हिन्दी के तमाम छोटे-बड़े लेखक-विद्वान उसमें आमंत्रित हुए. डॉ. नगेन्द्र ने उद्घाटन किया और समापन डॉ. नामवर सिंह ने. रमेश कुंतल मेघ, शिव कुमार मिश्र, विष्णुकांत शास्त्री, मैनेजर पाण्डेय, मधुरेश, सुरेंद्र चौधरी, आदि की याद मुझे है, जिन्होंने वक्ता के रूप में शिरकत की थी. ढाई-तीन सौ लोग सुबह दस बजे से शाम पाँच बजे तक वक्ताओं को सुनते थे. बीच में लंच की व्यवस्था नहीं थी. तब भी श्रोता सुनने के लिए डटे रहते. इससे इस सेमिनार की बौद्धिक गुणवत्ता का अंदाजा किया जा सकता है. लेकिन अचानक एक ऐसा दृश्य उपस्थित हुआ जिसकी कल्पना किसी को नहीं थी. विष्णुकांत शास्त्री जब लोक चेतना की आस्थामूलक व्याख्या कर रहे थे तो नवल जी का धैर्य जवाब दे गया. वे उठे और शास्त्री जी को टोकते हुए उन्होने कहा कि यह संघ का मंच नहीं है और हम संघ के कार्यकर्ता भी नहीं हैं, यहाँ पढे-लिखे लोग बैठे हैं,आदि  . इसके बाद वह सत्र बाधित हो गया. बहुतों को नवल जी की यह हरकत अच्छी नहीं लगी. इसका बदला दक्षिण पंथी सोच के विभागाध्यक्ष  राम खेलावन राय ने अगले सत्र में  लिया. रमेश कुंतलमेघ जब बोल रहे थे तो लोक चेतना की उनकी जनवादी व्याख्या को राम खेलावन राय ने बीच में टोककर चुनौती दी और कहा कि यह कम्युनिस्ट पार्टी का मंच नहीं है. इसके बाद हंगामा हुआ और वह सत्र भी नष्ट हो गया. इसी तरह फिर एक बार रघुवीर सहाय का व्याख्यान पटना प्रगतिशील लेखक संघ ने कराया. रघुवीर सहाय किस विषय पर बोले यह तो याद नहीं है लेकिन यह याद है कि उन्होंने कहा था कि प्रगतिशील लेखक संघ एक सांप्रदायिक संगठन है. सांप्रदायिक संगठन से उनका आशय यह था कि जैसे पहले साधु-संतों के संप्रदाय हुआ करते थे वैसा ही यह संगठन है. उनका आशय यह भी था कि संगठन की प्रगतिशीलता संबंधी समझ संकीर्ण है. नवल जी से रघुवीर सहाय की अपने संगठन की यह आलोचना बर्दाश्त नहीं हुई. धन्यवाद ज्ञापन में उन्होंने रघुवीर सहाय की ‘भूरी-भूरी निंदा’ की. रघुवीर चुपचाप सुनते रहे. इसे श्रोताओं ने अच्छा नहीं माना. 


 कुल मिलाकर नंदकिशोर नवल जितने अच्छे अध्यापक, संपादक और आयोजक थे उतने ही ‘अच्छे’ असहिष्णु मनुष्य थे. जितने लोगों से उनकी पटती थी उससे अधिक लोगों से उनकी खटपट रहती थी. नवल जी लिख कर और बातचीत की अपनी टिप्पणियों से अपने दुश्मन स्वयं बनाते थे. नगर के जो भी कवि –लेखक थे उनमें कइयों से उनके सम्बन्ध शिथिल थे. कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह, ज्ञानेंद्रपति, आलोकधन्वा, प्रेम कुमार मणि, नचिकेता, जितेन्द्र राठौर आदि से अबोला जैसा था. वे तब अरुण कमल की कविता पसंद करते थे और उन्हें साथ लेकर घूमते थे. उस समय एक चतुष्पदी पटना के साहित्यिक हलके में सुनी-सुनाई जाती थी-

आलोचना की नवल शैली चली है

कुछ लोचनों को रचना खली है 

कुछ पालतू हैं, बाकी फालतू हैं

भले हैं वे जिनकी दाल गली है. 

कहा जाता है कि यह चतुष्पदी ज्ञानेंद्रपति की लिखी हुई है. बाद के दिनों में अरुण कमल को नवल जी कम पसंद करने लगे और ज्ञानेंद्रपति तथा आलोकधन्वा उनके प्रिय हो गए. वैसे आठवें दशक के कवियों में अंतिम दिनों में उनके सर्वाधिक प्रिय भोपाल के राजेश जोशी हो गए थे. 


 आयोजनों की बात चली है तो यह भी बताता चलूँ कि 1970 में नवल जी ने अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर एक विराट युवा लेखक सम्मेलन किया. इसमें नामवर सिंह, धूमिल, वेणु गोपाल, विजेंद्र, कुमारेन्द्र आदि लगभग पचास लेखकों ने भाग लिया. यह नवल जी की आयोजन क्षमता थी जो अत्यंत व्यवस्थित थी. इसी के साथ यह भी बताना चाहता हूँ कि नवल जी को सुंदर काव्य- पंक्तियाँ और शेर ख़ूब याद थे. बातचीत में सही जगह पर वे उनका प्रयोग करते थे. एक बार हम दोनों राजेंद्र नगर स्टेडियम में सुबह घूम रहे थे. सामने से सुंदर काया वाली स्त्री आती हुई दिखी. नज़दीक आने पर मैंने देखा कि चेचक के गहरे गड्ढों से उसके चहरे का सौंदर्य बिगड़ गया है. मेरे मुंह से दुःख सूचक ‘आह’ की ध्वनि निकली. नवल जी ने मेरे दुखी होने पर एक शेर सुनाया जिसकी दूसरी लाइन याद है-‘ देखा है आशिकों ने आँखें गडा गडा कर’. मतलब यह कि चहरे पर जो गड्ढे  हैं वे आशिकों की गहरी निगाहों के कारण बन गये  हैं.  उसके बाद मैं अपना दुःख भूल गया.


 नवल जी का वस्त्र विन्यास भी बहुत सुंदर और सुसंपादित होता था. वे सूट -टाई, धोती-कुर्ता और पाजामा-कुर्ता तीन तरह का पोशाक पहनते थे. घर पर लूंगी. जाड़े में सूट और टाई तथा शेष महीनों में धोती-कुर्ता या कुर्ता-पाजाम या पैंट शर्ट. वे जो भी पहनते कपड़े बहुत ही साफ-सुथरे होते और उनके व्यक्तित्व पर फबते थे. उनका व्यक्तित्व अत्यंत सुदर्शन था. जाड़े में सूट, टाई पहनकर जब वे साइकिल चलाते हुए विभाग आते थे तो बहुत लोग उत्सुकता से उन्हें देखते थे. वे टाई का नॉट बहुत बढ़िया बनाते थे.मुझे टाई का नॉट बनाना उन्होंने ही सिखलाया था. उनका व्यक्तित्व इतना चमकता हुआ रहता था कि हम लोग कहते थे कि उनकी मैडम उन्हें ठाकुर जी की बटिया तरह धो-पोंछकर रखती हैं. इसके पीछे कारण यह था कि नवल जी घर-गृहस्थी की चिंता से प्रायः मुक्त रहते थे. उनकी पत्नी रागिनी शर्मा सब कुछ संभालती थीं. यहाँ तक कि कई दफा नवल जी का दिया हुआ डिक्टेशन भी वे लेती थीं. वे सही अर्थों में नवल जी की ‘सचिव-सखी-सहचरी’ रहीं. 


 नवल जी में अनुशासन और अराजकता दोनों का अद्भुत मेल था. वे अपने लिखने-पढ़ने के समय में कोई कटौती नहीं करते थे. इसके चलते कई दफा उनके संबंधी, मित्र और छात्र नाराज हो जाते थे. लेकिन कभी-कभी उनकी अराजक मस्ती देखते हुए बनती थी. छुट्टी के दिन एक बार तरुण कुमार के साथ सुबह टहलते हुए मेरे घर आए. गपशप का सिलसिला शुरू हुआ तो लंबा हो गया. उन्होंने मेरे घर के एक लड़के को भेजकर कचौड़ी और जलेबी मंगाई. नाश्ता करने के बाद हम लोग फिर गपशप में जुट गए. यह क्रम तब टूटा जब एक बजे के लगभग उन्हें कई जगह खोजते हुए  परेशान रागिनी शर्मा मेरे घर आयीं. तब मोबाइल का जमाना नहीं था. और हम लोगों के घर फोन भी नहीं था. इसी तरह की एक और घटना याद आती है. दो बजे जब कक्षाएँ समाप्त हो जाती थीं तो हम बैठकर साहित्य, समाज और राजनीति पर गपशप करते थे. बीच में चपरासी को भेजकर भूंजा मंगाते थे. भूंजा  खाने के बाद कभी-कभी गुलाब जामुन खाने की हमारी आदत थी. यूनिवर्सिटी के बाहर लालजी की दुकान पर हम पान खाते और तब अपने-अपने घर जाते. कभी- कभी हमारी बैठक राजकमल प्रकाशन में होती. महीने -डेढ़ महीने पर हम कभी-कभी पटना की मशहूर मिठाई की दुकानों में जाते और कई तरह की मिठाइयाँ तब तक खाते रहते जब तक कि हम थक न जाते. इसी क्रम  में एक बार ऐसा हुआ कि हमने मिठाइयाँ खूब खा लीं. पैसे देने की बारी आई तो किसी की जेब में पैसे नहीं थे. दुकान यूनिवर्सिटी इलाके में नहीं, रेलवे स्टेशन के पास थी. दुकानदार हमें बिलकुल नहीं जानता था. नवल जी ने अपने सुदर्शन और सूट-टाई वाले व्यक्तित्व का उपयोग किया और दुकान मालिक से कहा कि हम पैसे कल भेज देंगे. दुकानदार हमें पहचानता तो नहीं था, लेकिन वह समझ गया कि ये यूनिवर्सिटी के विद्वान लोग हैं.


वे बहुत संयमी थे. बाहर कभी कुछ नहीं खाते थे. लेकिन कभी – कभी यह संयम ढीला पड़ता था तब अराजक रूप ले लेता था. एक बार मेरे घर हम दोनों मछली खाने बैठे. उत्साह में पांच लोगों का हिस्सा हम दो ही खा गए. मेरे घर के बाकी लोग हमारा यह रूप देखकर मुस्कुराते रहे.उनको अंचार के साथ भोजन करना पड़ा. उस अति का फल यह हुआ कि उसको पचाने के लिए मुझे चौबीस घंटे और नवल जी को अड़तालीस घंटे का उपवास  करना पड़ा. मैडम रागिनी शर्मा ने हमारी इस आदत को देहातीपना कहा तो हमने चुपचाप मान लिया. आखिर हम गाँव के तो थे ही. इसी तरह एक बार सोनपुर का विश्व प्रसिद्ध पशु मेला देखने का उनका  मन हुआ. उनके साथ उनके आग्रह पर उनके तीन शिष्य हृषीकेश सुलभ, तरुण कुमार और गोपेश्वर सिंह तथा चौथे  कवि मदन कश्यप मेला देखने गए. दो बजे से लेकर रात दस बजे तक हमने मस्ती काटी. तरह- तरह के व्यंजन चखे, तरह- तरह के कौतुक किए और तरह- तरह के पशु- पक्षी देखे.तरुण जी, सुलभ और मैंने भंग खायी और झूले पर झूले. तरुण कुमार ने तीन सौ की एक कश्मीरी टोपी अपनी अद्भुत मोल- तोल वाली क्षमता के बल पर दस रुपये में खरीदी. धोती- कुर्ता के साथ कश्मीरी टोपी जब उन्होंने पहनी तब उनके उस रूप की प्रशंसा में हम सबने  सामूहिक रूप से एक कुंडलिया लिखी- ‘धोती कुर्ता टोपी में ही फबते तरुण कुमार’. वह कुंडलिया अब भी  याद है जिसका अंत होता है  इस पंक्ति से –‘ वस्त्र राशि में वैसे ही टी के. की  धोती’. उस दिन तरुण जी कुछ नहीं बोले, अपने ऊपर बनी कुंडलिया का आनंद उठाते रहे. बाद के. दिनों में हमने सामूहिक रूप से पटना के साहित्यिक संसार पर बहुतेरी कुंडलिया लिखीं जो हमारी रचनात्मक आवारगी का प्रमाण प्रस्तुत करती हैं. सब कुछ इस मेला यात्रा का आनंददायी रहा लेकिन अंत बड़ा ही तनाव पूर्ण हुआ. नवल जी की ज़िद पर सोनपुर से पटना तक लगभग पचास किमी की यात्रा रिक्सा पर करने का फ़ैसला हुआ . एक रिक्सा पर  नवल जी और तरुण कुमार निकल गए. हमें रिक्सा मिलने में देर हुई . जब हम तीनों  रात क़रीब दो बजे गंगा पुल से उतर रहे थे, तभी हमारा रिक्सा तेजी से नीचे गिर पड़ा. हम तीनों और रिक्सावाले को चोट तो बहुत लगी लेकिन जान बच गयी. नवल जी की मस्ती की वह रात  मुझे , सुलभ और मदन कश्यप को जब भी याद आती है हमारे भीतर सिहरन- सी दौड़ जाती है.                  


 नवल जी की साहित्यिक रुचि कई पड़ावों से होकर गुजरी थी. पहले वे उत्तर-छायावादी कवियों  की भावभूमि पर कविता लिखते रहे. उसके बाद राजकमल चौधरी के संग-साथ के कारण अकविता के प्रभाव में आए. उसके बाद नक्सलबाड़ी आंदोलन की ओर घूम आए. बाद में अज्ञेय का प्रभाव उन पर रहा. प्रगतिशील लेखक संघ और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता लेने के बाद वे प्रगतिवादी सोच के आलोचक हो गए. शमशेर, नागार्जुन, केदार, मुक्तिबोध, त्रिलोचन आदि को खूब पसंद करते थे और गैर-प्रगतिशीलों को रूपवादी यानी वर्ग शत्रु मानते थे. बाद में राजेश जोशी, अरुण कमल, उदय प्रकाश आदि उनके प्रिय युवा कवि थे. आलोकधन्वा, वीरेन डंगवाल, मंगलेश डबराल आदि की खूब आलोचना करते थे . उनकी नज़र में अशोक वाजपेयी तब रूपवादी कैंप के नेता  थे. लेकिन एक गुणात्मक बदलाव 1990 के दशक में नवल जी में आया. इस बदलाव के मूल में सोवियत संघ का पतन एक कारण तो था ही, बड़ा कारण था नागार्जुन का विरोध. उन दिनों  नागार्जुन भाकपा और प्रलेस  के  खिलाफ ख़ूब बोलते थे. सोवियत संघ के खिलाफ भी वे बोलते थे. नागार्जुन का यह ‘राजनीतिक भटकाव’ नवल जी से बर्दाश्त नहीं हुआ. वे लिखकर और बोलकर नागार्जुन की आलोचना करने लगे. उसका परिणाम यह हुआ कि नवल जी को पार्टी और संगठन से हटना पड़ा या विरोध को देखते हुए वे खुद हट गए. यही दौर था जब नवल जी प्रगतिशीलता बनाम गैर प्रगतिशीलता, कंटेन्ट बनाम फार्म के रूढ विभाजन से मुक्त हुए और पाठ केन्द्रित आलोचना की ओर मुड़े. 


असल में नवल जी बीच का रास्ता नहीं जानते थे. इधर या उधर- या तो आप मित्र हैं या शत्रु . यही कारण था कि नगर के कवियों- लेखकों में से कुछ उनके मित्र थे, शेष से संवादहीनता थी. उनके छात्र रहे लेखकों में से कई लोग थे, जिनसे बातचीत बंद थी. बलराम तिवारी,  राणाप्रताप, भृगुनंदन त्रिपाठी, कर्मेंदु शिशिर. अरविंद कुमार, आनंद भारती, हृषीकेश सुलभ आदि से बहुत दिनों तक मुँह फुलौवल की स्थिति रही. अपनी टिप्पणियों से दूसरों को चिढ़ाने में नवल जी का कोई जवाब नहीं था. ऐसा करके उन्हें शायद मजा आता था. लेकिन ऐसा करके वे अपने प्रशंसकों को खो रहे हैं, इसकी चिंता उन्हें नहीं थी. मेरे साथ सम्बन्धों में उतार- चढ़ाव तो आया, लेकिन मुझसे  बातचीत कभी बंद नहीं हुई. इसे मैं उनका बड़पन मानता हूँ. बाद में उन्होंने आगे बढ़कर सबसे सम्बन्ध ठीक किये. एक बार दिल्ली में अपूर्वानंद के घर पर मुझे गले लगाकर रोने लगे. बोले कि आपको ठीक से मैंने देर से समझा. यह कम उन्होंने कई लोगों के साथ किया. तब भी गोपाल राय और खगेन्द्र ठाकुर से सम्बन्ध- सुधार की दिशा में कोई प्रगति नहीं हुई. उसे अपवाद कहा जाएगा. उन दोनों ने अपनी ओर से पहल की, लेकिन नवल जी का अंत- अंत तक क्रोध शांत नहीं हुआ

.बहरहाल, नवल जी में बदलाव आया. लेकिन  शायद उन्होंने देर से यह बात समझी कि जीवन सिर्फ़ सफ़ेद और स्याह रंगों से नहीं बना है, वह अनगिनत रंगों के मेल का नाम है. इस बदलाव के बाद जो नंदकिशोर नवल दिखाई देते हैं, वह ‘उत्तर नवल पक्ष’ है- जीवन में भी और अपनी आलोचना में भी. लेकिन जो भी कहा जाए , नवल जी की पूर्व पक्ष की गतिविधियों से पटना का साहित्य जगत गुलज़ार रहता था. दूसरों को जब वे चिढ़ाते थे तो लोगों को मजा आता था.     


 नवल जी मूलतः कविता के आलोचक थे. कविता में भी छायावाद, उत्तर-छायावाद, नई कविता और आठवें दशक की कविता पर लिखना – बोलना उनकी रूचिकर लगता था. इस दौर के बहुतेरे कवियों पर उन्होंने लिखा है और कविता पढ़ने की एक पद्धति विकसित की है. ‘निराला: कृति से साक्षात्कार’ तथा ‘मुक्तिबोध: ज्ञान और संवेदना’ न सिर्फ नवल जी की श्रेष्ठ आलोचना पुस्तके हैं, बल्कि हिन्दी आलोचना के विकास का  श्रेष्ठ उदाहरण भी हैं. मुक्तिबोध की कविताओं की, विशेषत: ‘अँधेरे में’ की उन्होंने जो व्याख्या की है, वह हिन्दी आलोचना में अन्यतम है. मुक्तिबोध के किसी आलोचक के यहाँ वैसी सुंदर और आत्मीय व्याख्या नहीं मिलती है. उनकी मुक्तिबोध वाली क़िताब पढ़कर मैंने एक दिन कहा कि आपने इस क़िताब के जरिए मुक्तिबोध के ‘मनस्विन रूप’ की ख़ोज की है. मेरी बात सुनकर वे देर तक मुझे देखते रहे. फ़िर कहा – शुक्रिया. मैंने बाद में  ‘मुक्तिबोध का मनस्विन रूप’ शीर्षक से ‘ हिंदुस्तान’ अख़बार में समीक्षा लिखी. अख़बार पढ़ने के बाद वे  सुबह- सुबह मेरे घर आए और देर तक बैठे रहे. उस समीक्षा की कोई चर्चा नहीं हुई. यही बात निराला की कविताओं की व्याख्या के संदर्भ में भी कही जा सकती है.


निराला की कविता के महत्त्व की चर्चा करते हुए नवल जी ने एक ज़रूरी पक्ष की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया है कि श्रेष्ठ कविता गद्य की शक्ति को आत्मशात करके चलती है. नवल जी की पाठ केन्द्रित आलोचना का एक सुंदर उदाहरण राजकमल चौधरी की लंबी कविता ‘मुक्ति प्रसंग’ की व्याख्या भी है, जिसके जरिए वे मुक्ति प्रसंग को ‘अँधेरे में’ के बाद हिन्दी कविता की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि बताते हैं. नवल जी ने अपनी पाठ केन्द्रित आलोचना के जरिए हिन्दी कविता के पाठक को ऐसे समय में पाठ प्रेमी बनाने का काम किया,जब देश में एक विश्वविद्यालय की कृपा से हिंदी आलोचना में रचना की कम, साहित्य- सिद्धान्त का अधिक बोलबाला हो गया था और विदेशी साहित्य चिंतकों के नाम गोष्ठियों में और लेखों में पटापट गिरने लगे थे. 

नवल जी ऐसे आलोचक थे जिनसे कालिदास से लेकर संजय कुंदन तक की कविता पर बात की सकती थी. उतने बड़े फ़लक बात करने वाले आलोचक- अध्यापक आज कितने हैं ! लेकिन निराला, दिनकर, अज्ञेय, मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय, राजकमल आदि पर वे  बहुत प्रेम से लिखते- बोलते थे. वे साहित्य- सिद्धांत का प्रतिपादन करके आलोचना का नैरेटिव बदलने में विश्वास नहीं करते थे. वे रचना की नयी व्याख्या के जरिए नयी काव्य- रूचि का विकास करने में विश्वास करते थे. वे आलोचना से आलोचना पैदा करने के खिलाफ़ थे. वे ‘तेजाबी आलोचना’ लिखने वालों से कहते थे कि मूल टेक्स्ट शुरू से अंत तक एक बार पढ़ लो, तब लिखो. रचना की व्याख्या आलोचना का व्यावहारिक पक्ष है. इसे दृष्टि से उन्होंने कभी ओझल नहीं किया.    

 नवल जी को पटना शहर बहुत प्रिय था. उस नगर का साहित्यिक इतिहास उनकी जुबान पर था. उन्होंने अध्यापन कार्य के अलावा दूसरी कोई इच्छा नहीं पाली. वे पटना विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग से बहुत प्रेम करते थे. वे कहते थे कि इसे गुरुदेव नलिन विलोचन शर्मा ने बनाया है. नलिन जी की अध्यापन कला और वैदुष्य के वे कायल थे. वे बार- बार यह बताते थे कि नलिन जी दुनिया के लिटररी प्रॉब्लम से अपने छात्रों को परिचित करा देते थे.


नवल जी की अंतिम इच्छा थी कि श्मशान  घाट ले जाने के पूर्व उनका शव थोड़ी देर के लिए हिंदी विभाग ले जाया जाए. उनकी यह इच्छा पूरी हुई. आजकल मेरा मन पटना विश्वविद्यालय के परिसर में, वहाँ के हिंदी विभाग में और सामने के अशोक राजपथ पर घूम रहा है, जहाँ नवल जी के साथ हमने सबसे अधिक समय बिताए. मेरी आँखों में रिक्शा पर बैठे हुए नवल जी दिख रहे हैं. रिक्शा का हूड गिरा हुआ है और वे छाता लगाए हुए विश्वविद्यालय की ओर जा रहे हैं. लोगों को आश्चर्य होता कि यह आदमी रिक्शा पर बैठकर छाता क्यों लगाता हैं ! या सूट-टाई में साइकिल चलाते हुए हिंदी विभाग की ओर आते हुए नवल जी दिखाई दे रहे हैं और लोग आश्चर्य से उन्हें देख रहे हैं और सूट-टाई तथा साइकिल का सामंजस्य नहीं बैठा पा रहे हैं!

गिरमिटिया' पेपरबैक

 गिरमिटिया' अंग्रेज़ी के शब्द 'एग्रीमेंट' का बिगड़ा हुआ रूप है। यह वह एग्रीमेंट या 'गिरमिट' है जिसके तहत हज़ारों भारतीय मज़दूर आज से डेढ़ सौ साल पहले दक्षिण अफ्रीका में काम की तलाश में गए थे। एक अजनबी देश, जिसके लोग, भाषा, रहन-सहन, खान-पान, एकदम अलग.... और सारे दिन की कड़ी मेहनत के बाद न उनके पास कोई सुविधा, न कोई अधिकार। तभी इंग्लैंड से वकालत कि पढ़ाई पूरी कर 1893 में मोहनदास करमचंद गांधी दक्षिण अफ्रीका पहुंचते हैं। रेलगाड़ी का टिकेट होने के बावजूद उन्हें रेल के डिब्बे से सामान समेत बाहर निकाल फेंका जाता है। इस रंगभेद नीति के पहले अनुभव ने युवा गांधी पर गहरी छाप छोड़ी। रंगभेद नीति की आड़ में दक्षिण अफ्रीका में काम कर रहे भारतीय मजदूरों पर हो रहे अन्याय गांधी को बर्दास्त नहीं होते और वे उन्हें उनके अधिकार दिलाने के संघर्ष में पूरी तरह जुट जाते हैं। बंधुआ मजदूरों के साथ अपनी एकता को प्रदर्शित करने के लिए अपने आपको 'पहला गिरमिटिया' कहते हैं। 19वीं और 20वीं सदी के दक्षिण अफ्रीका की सामाजिक, राजनीतिक पृष्ठभूमि पर आधारित इस उपन्यास को सन् 2000 के व्यास सम्मान से पुरस्कृत किया गया है। 'शतदल सम्मान' और 'गांधी सम्मान'से सुसज्जित पहला गिरमिटिया गांधी जी को समझने का एक सफल प्रयास है।


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#गाँधी #गिरमिट #गिरिराज_किशोर #उपन्यास

मंगलवार, 5 जुलाई 2022

छतरियाँ हटा के / शशि कान्त सोनी

 *छतरियाँ हटा के*

*मिलिए इनसे,*

*ये जो बूंदें हैं*

*बहुत दूर से आई हैं...*


*कुछ बूंदें लाई हैं,*

*बचपन की यादें,*

*भाई-बहनों के संग,*

*आंगन में भीगना,*

*दौड़ना और फिसलकर गिरना,*

*जब तक बारिश रहे,*

*तब तक नहीं अंदर आना,*

*फिर माँ की वो,*

*प्यार से भरी झिड़की,*

*अपने हाथों से उसका,*

*हम सबके सिर पोंछना,*

*फिर हल्दी वाला,*

*गर्म दूध देना,*

*कौन ज़्यादा भीगा,*

*और किसने की,* 

*ज़्यादा मस्ती,*

*इस बात पर,*

*सोने तक बहस करना,*

*और फिर,*

*अगली बारिश का,*

*इंतज़ार करना।*


*कुछ बूंदें लाई हैं,*

*जब बारिश में,*

*स्कूल की छुट्टी होना,*

*अपने बस्ते को,*

*रखकर अपने सिर पर,*

*भीगते हुए,*

*संग मित्रों के,*

*अपने घर आना,*

*फिर वही माँ की,*

*वो प्यारी झिड़की,*

*फिर वही,*

*हल्दी वाला,*

*गर्म दूध पीना।*


*कुछ बूंदें लाई हैं,*

*कॉलेज की,*

*यादों को भी,*

*वो बारिश में,*

*लेक्चर हॉल की,*

*टूटे कांच वाली,*

*खिड़की से,*

*लेक्चर हॉल में,*

*पानी भरना,*

*और फ़िर,*

*टीचर का,* 

*मुस्कुराते हुए,*

*उस दिन का,*

*लेक्चर कैंसिल करना,*

*साथ यारों के,*

*फिर बाहर जाना,*

*बड़े तालाब के,*

*किनारे बैठना,*

*और कैंटीन के,*

*गर्म समोसे खाना।*


*कुछ बूंदें लाई हैं,*

*वो यादें भी,*

*संग वो अपनी,*

*प्रियतमा के,*

*भीगते हुए,*

*सड़क पर चलना,*

*छतरी टूटी है,*

*ये सब से कहना,*

*और फिर धीरे से,*

*उसका वो,*

*हाथ नाज़ुक सा,*

*अपने हाथों में,*

*थामने की,*

*कोशिश करना,*

*"कोई देख लेगा",*

*धीरे से,*

*उसका कहना,*

*और फिर,*

*हाथ छुड़ा लेने की,*

*कोशिश करना,*

*मगर ना छूटे हाथ,*

*दिल में यह,* 

*ख़्वाहिश करना,*


*कुछ बूंदें लाई हैं,*

*उन यादों को भी,*

*बच्चों को बारिश में,*

*उनके स्कूल से,*

*घर पर लाना,*

*फिर बदल कर,*

*उनके वो गीले कपड़े,*

*उन्हें रूम हीटर के,*

*पास बैठा कर,*

*वो बातें करना।*


*कुछ बूंदें लाई हैं,*

*वो यादें भी,*

*जब काम से,*

*लौटते समय पर,*

*मूसलाधार बारिश का आना,*

*घर पहुँचते ही,*

*प्याज़ के पकोड़ों की,*

*वो ख़ुशबू आना,*

*और फिर साथ,*

*बैठकर सबके,*

*संग वो,*

*तीखी हरी चटनी के,*

*प्याज़ के,*

*गर्म पकोड़े खाना।*


*कुछ बूंदें लाई हैं,*

*वो यादें भी,*

*जब बच्चों के,*

*कॉलेज से,*

*आने के समय,*

*अचानक तेज,*

*बारिश का आना,*

*वो घर आ जायें,*

*सुरक्षित अपने,*

*यही भगवान से,*

*प्रार्थना करना,*

*उनके आने पर,*

*"आगे मत भीगना"*

*नसीहत देना,*

*"अब मैं बच्चा नहीं हूँ"*

*यह उनका कहना!*


*आज फिर,*

*हो रही है,*

*तेज़ बारिश, पर,*

*मैं बैठा हूँ,*

*पास खिड़की के,*

*बच्चे रहते हैं,*

*कहीं और,*

*संग उनके,*

*परिवार के,*

*पत्नी कहती है,*

*"खाओगे प्याज़ के पकोड़े क्या?"*

*मैं "नहीं" कहता हूँ,*

*फिर उठकर,*

*जाता हूँ,*

*किचन में अपने,*

*और बनाता हूँ,*

*पकोड़े ख़ुद ही,*

*और देता हूँ*

*जब मैं पत्नी को,*

*उसकी आँखों में,*

*झलकती हैं,*

*प्यार की नम बूंदें,*

*बस उनमें ही,*

*भीग जाता हूँ,*

*और बारिश में,*

*भीग जाने का,*

*वो अहसास,*

*पा जाता हूँ,*

*लेकिन डरता हूँ,*

*कल अगर हम,*

*बिछड़ गए,*

*जो कहीं तो फ़िर,*

*कौन मेरे लिए,*

*या मैं किसके लिए,*


*बनायेगा पकोड़े फिर,*

*फिर किसके साथ,*

*भीगूंगा बारिश में,*

*फिर झिड़क देhता हूँ,*

*इस ख़्याल को मैं,*

*और पत्नी को,*

*अपने हाथों से,*

*खिलाता हूँ,*

*इक पकोड़ा मैं।*



*_शशि कान्त सोनी _*

शनिवार, 2 जुलाई 2022

डॉ. कुंअर बेचैन की स्मृति को नमन / आलोक यात्री

 


रिश्ता चाक और मिट्टी का

आलोक यात्री 



  मैं परम सौभाग्यशाली हूं कि गुरुवर डॉ. बेचैन का सानिध्य मुझे बचपन से ही हासिल हो गया था।जो जीवनपर्यंत चला। बचपन में वह मेरे लिए एक पड़ोसी थे। मेरे किशोरावस्था तक पहुंचने तक उनसे मेरा साक्षात्कार बतौर गीतकार के रूप में हुआ। वह अपनी नवप्रकाशित पुस्तक देने पिताश्री के पास आते थे। उनका संभवतः पहला संग्रह "पिन बहुत सारे" था

  जिस समय वह पुस्तक आई उस समय मैं दस ग्यारह साल का रहा होऊंगा। लेकिन पुस्तकों से मेरा नाता तब तक काफ़ी मज़बूत हो गया था। चंदामामा, इंद्रजाल कॉमिक्स, नंदन, चंपक, पराग की दुनिया में विचरण करने वाले बालक के हाथ में पहली किताब "डेविड कॉपरफील्ड" डॉ. बेचैन ने ही थमाई थी। उस समय शाय मैं चौथी क्लॉस में पढ़ता था। चार्ल्स डिकेंस के इस उपन्यास को पढ़ते हुए बार-बार हिचकियों के साथ रोना आ जाता था। कोई रोना देख न ले इसलिए डेविड कॉपरफील्ड छिप-छिप कर पढ़ी जाती थी।

बाल पत्रिकाओं से निकलने की उम्र और किशोरावस्था तक पहुंचने के बीच हाथ में डॉ. बेचैन की पुस्तक "पिन बहुत सारे" आ गई।

इस पुस्तक का कवर आज भी ज़ेहन में महफूज़ है। संग्रह की कुछ कविताएं भी स्मृति में होंगी।

  हाई स्कूल तक आते-आते डॉ. बेचैन का पड़ोस तो छूट गया लेकिन उनके घर आगमन का सिलसिला निरंतर जारी रहा।और... हम सब का उन्हें मंत्रमुग्ध होकर सुनना। सच कहूं तो मुझे उनके गीतों से इश्क हो गया था।

उसी दौरान आई "भीतर सांकल, बाहर‌ सांकल"। क्या बताऊं...? कितनी बार पढ़ी होगी "भीतर सांकल बाहर सांकल"। एक-एक गीत, एक-एक कविता कंठस्थ थी उस समय। गुरुदेव के गीतों का खुमार सिर चढ़कर बोलता था।

कह सकता हूं कि वह मेरा कविता से रोमांस का स्वर्णिम काल था।उसी समय नीरज जी के "कारवां गुज़र गया..." ने दिल की सांकल खटखटा दी। ऊपर से कविता से हमारे रोमांस पर गुरुदेव के गीतों का मुलम्मा।

  इसी दौरान मैंने साइंस साइड से इंटर कर लिया और बीएससी में एडमिशन लेने के लिए एम. एम. एच. कॉलेज के चक्कर लगा रहा था। आप पूछ सकते हैं कि एडमिशन के लिए चक्कर लगाने की क्या ज़रूरत थी? असल में हुआ यूं था कि उसी साल बी.एस.सी. का पाठ्यक्रम तीन साल का हो गया, जिसके विरोध में विश्व विद्यालय स्तर पर छात्र आंदोलन पर उतर आए थे।

कॉलेज परिसर में गुरुदेव से मुलाकात हुई तो गुरुवर ने समझाया "अव्वल तो सरकार झुकेगी नहीं, झुकेगी तो छात्रों का एक साल बर्बाद होना तय है, लिहाजा बीए में एडमिशन ले लो"।

  सलाह तो ठीक थी लेकिन सब्जेक्ट...?

  गुरुवर ने सुझाया "हिंदी, इंग्लिश लिटरेचर के अलावा दर्शनशास्त्र ले सकते हो..."

  एडमिशन काउंटर पर पहुंच कर वहां बैठे इंचार्ज प्रोफेसर से मंशा जता दी। उन्होंने साथ बैठे क्लर्क से मेरा फार्म भरवा कर फीस जमाकर रसीद मेरे हाथ में थमा दी।चार-पांच दिन बाद क्लासेज शुरू हो गईं। हिंदी की क्लास में पहले ही दिन गुरुवर हमारे हीरो होने के साथ-साथ रोल मॉडल भी बन गए।

एक दो-दिन बाद दर्शनशास्र की क्लॉस में पहुंचे तो प्रोफेसर फतेह सिंह जी ने बताया कि बी.ए. दर्शनशास्र में दो ही छात्रों ने एडमिशन लिया है। दोनों ही मेरे मौहल्ले के थे। लिस्ट में अपना नाम क्यों नहीं है? पता किया तो पता चला काउंटर पर बैठे क्लर्क ने फार्म में साइक्योलॉजी की जगह सिस्योलॉजी भर दिया था। खैर... वहां भी एक पड़ोसी प्रोफेसर डॉ. जे. एल. रैना जी का भरपूर आशीर्वाद मिला।

  गुरुवर की क्लॉस अद्भुत होती थी। पीरियड खत्म होने के घंटे से ही तंद्रा भंग होती‌ थी। क्लाॅस में हर दिन एक नए कुंअर बेचैन से साक्षात्कार होता था और हम अपने इर्दगिर्द हर दिन गीत, कविताओं के नए-नए "शामियाने" खड़े करते या फिर कविता की "महावर" रचते रहते थे। कह सकते हैं कि व्यस्क होने के साथ हम न सिर्फ कुंअर बेचैन के गीतों के इश्क में पागल थे, बल्कि एक तरह से उन्हें ही ओढ़ते-बिछाते थे। 

  खैर... गुरुवर की इस तस्वीर से तमाम लोग वाक़िफ होंगे, लेकिन मैं आता हूं अब दूसरी बात पर...।

हमारे सिलेबस में कहानी और उपन्यास भी शामिल थे। एक दिन गुरुवर‌ ने सिलेबस में लगी एक कहानी पढ़ कर आने को कहा।

घर पहुंचकर कहानी कई बार पढ़ी। हर बार सिर के ऊपर से गुज़र गई।

अगले दिन गुरुवर ने क्लास में उस कहानी पर चर्चा शुरू की। असल में वह "अकहानी" थी। तब तक मैं लगभग एक हजार से अधिक कहानियां और तीन सौ से अधिक उपन्यास पढ़ चुका था। काफ्का, निर्मल वर्मा, अज्ञेय और ज्यां पॉल सात्र से भी पाला पड़ चुका था। लेकिन "अकहानी" से मेरी वह पहली मुठभेड़ थी।

  गुरुदेव ने "अकहानी" के संदर्भ में जिस तरह से बताया वह किसी टॉनिक की तरह भीतर उतरता चला गया। गुरुवर तो टॉनिक पिला कर मुक्त हो गए लेकिन "अकहानी" दीमाग में अटक गई। देह ने गर्भ धारण कर लिया था। प्रसव पीड़ा भयंकर रूप धारण कर चुकी थी।

"चौराहे पर मौत" के साथ मैं प्रसव पीड़ा से मुक्त हुआ। कहानी लिखने की यह मेरी पहली कोशिश थी।

  सोचा इस कहानी को पिताश्री का आशीर्वाद दिला दूं, लेकिन यह पता न होने के कारण कि कहानी लिखी कैसे जाती है, उनसे बात करने का साहस नहीं हुआ। कोई और ज़रिया न देखते हुए नवजात "चौराहे पर मौत" को गुरुवर की झोली‌ में डाल आया। गुरुवर ने नवजात को यथावत दुलारा-पुचकारा। और... बी.ए. के एक जाहिल से छात्र की कहानी "चौराहे पर मौत" उसी साल "सारिका" में छप गई। कहानी भले ही मैंने लिखी थी लेकिन द्रोणाचार्य के रूप में गुरुवर‌ ही‌ थे।

  नवजात को देश भर में आशीर्वाद मिला। दर्जनों ख़त आए, सराहना भी मिली, गुरुवर का प्रोत्साहन भी,

गुरुवर की छाया में कविता लिखने वाला मैं अकिंचन अचानक कहानी की पगडंडी पर निकल गया। उन दिनों विश्वविद्यालय स्तर पर "मोदी कला भारती" द्वारा कहानी, कविता और लेख पर पुरस्कार दिए जाते थे। गुरुवर के प्रोत्साहन से एक और कहानी "आवाज़ों का सैलाब" मोदी कला भारती में बाज़ी मार ले गई।

  गुरुवर से बहुत लंबा नाता रहा।

"ग़ज़ल का व्याकरण" लिखते हुए उनके सामने बैठ कर ग़ज़ल के क्षेत्र में भी खूब कूद-फांद की गई। लेकिन गुरुवर की बदौलत "अकहानी" से हुआ इश्क मुझे आज भी खुमार में रखे हुए है। मेरा और गुरुवर का रिश्ता मिट्टी और कुम्हार का सा है। कहानी की पगडंडी से मैं हाइवे पर तो नहीं पहुंच सका, लेकिन इस मार्ग पर मुझे अग्रसर करने के लिए परम आदरणीय गुरुवर डॉ. कुंअर बेचैन का आजीवन ऋणी रहुंगा।

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- आलोक यात्री

खो गयी कहीं चिट्ठियां

 प्रस्तुति  *खो गईं वो चिठ्ठियाँ जिसमें “लिखने के सलीके” छुपे होते थे, “कुशलता” की कामना से शुरू होते थे।  बडों के “चरण स्पर्श” पर खत्म होते...