रविवार, 26 जुलाई 2020

प्रेमचंद की लुप्त कहानिया


प्रेमचन्द की दुष्प्राप्य किंतु विवादित और बहुचर्चित हिन्दी कहानी है ‘सम्पादक मोटेराम जी शास्त्री’ जो ‘प्रहसन’ शीर्षक से ‘माधुरी’ के अगस्त-सितम्बर, १९२८ के अंक में दूसरी बार फिर छपी थी। यह एक हास्य-प्रधान कहानी थी, किंतु इसके प्रकाशन ने साहित्य-जगत में एक बड़ा विवाद खड़ा कर दिया था और मामला न्यायालय तक जा पहुँचा।

बीसवीं सदी के सर्वश्रेष्ठ हिन्दी कथाकार प्रेमचन्द की मृत्यु के पैंसठ वर्ष बाद भी अभी तक उनके समग्र कथा-साहित्य का सही आकल्पन नहीं हो पाया है। यह कार्य जटिल है और इस दिशा में गहन खोजबीन और प्रयास की आवश्यकता है। इसका मुख्य कारण यह है कि प्रेमचन्द द्विभाषी कथाकार थे, हिन्दी और उर्दू दोनों ही भाषाओं में मौलिक लेखन करते थे। कभी पहले हिन्दी में तो कभी उर्दू में कहानियाँ लिखते थे। मूलत: हिन्दी में लिखी गई कहानी का उर्दू रूपांतरण वह बाद में सुविधानुसार करते थे, किंतु यह विशुद्ध अनुवादन होकर मौलिक रचना होती थी। इसी प्रकार पहले उर्दू में लिखी गई कहानी को बाद में स्वतंत्र हिन्दी रूप प्रदान करते थे। कभी-कभी समयाभाव के कारण एक भाषा से दूसरी भाषा में रूपांतरण की प्रक्रिया में कुछ अंतराल भी हो जाता था।

शोध से उनकी अनेक अनेक ऐसी कहानियाँ प्रकाश में आई हैं जिन्हें एक भाषा से दूसरी भाषा में रूपान्तरित करना वे भूल भी गए थे। कुछ ऐसी भी कहानियाँ हैं जिनका एक भाषा से दूसरी भाषा में रूपांतरण संभवत: उन्होंने क़स्दन नहीं किया था। इन्हीं सब कारणों से उनके सम्पूर्ण कथा साहित्य का सही-सही आकलन काफी दुष्कर कार्य बन गया है। इसके लिए दोनों ही भाषाओं के जानकार खोजी प्रवृति के लगनशील शोधकर्मियों को कुछ समय तक काफी परिश्रम करना होगा और दोनों भाषाओं की प्रेमचन्द-कालीन पत्रिकाओं में खोजबीन करनी पड़ेगी। यह कार्य दुस्साध्य अवश्य है किंतु असाध्य नहीं, आवश्यकता है लगन, परिश्रम और धैर्य की।

प्रेमचन्द के ज्येष्ठ पुत्र श्रीपत राय ने अपने जीवन-काल में इसी दिशा में कुछ ठोस प्रयास की शुरूआत की थी, जिसका कुछ सार्थक परिणाम भी सामने आया। समय-समय पर तत्कालीन हिन्दी और उर्दू की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित प्रेमचन्द की ऐसी सोलह दुष्प्राप्य कहानियों की पहचान करने में श्रीपत राय सफल हो सके थे जो उनके किसी प्रकाशित कथा-संग्रह में संकलित नहीं थी। इनमें से बारह कहानियाँ उस समय के उर्दू रिसालों में छपी थी। इन कहानियों को अप्राप्य कहना तो उचित न होगा, किंतु वह दुष्प्राप्य अवश्य है। इन कहानियों का हिन्दी रूपांतरण कहीं उपलब्ध नहीं है और अब किसी दीगर शख्स द्वारा यह कार्य करना भी प्रेमचन्द के साथ न्याय नहीं होगा, क्योंकि रूपांतरण कार्य यदि वह स्वयं करते तो उसका हिन्दी रूप क्या होता और उसकी भाषा कैसी होती, यह अनुमान लगाना संभव नहीं है। अत: ऐसी उर्दू कहानियों का हिन्दी में रूपांतरण करने या कराने के बजाए, कठिन उर्दू शब्दों के हिन्दी भावार्थ सहित उनका नागरी में लिप्यंतरण करना उचित होगा और ऐसा ही करके श्रीपत राय ने उन कहानियों का एक छोटा सा संग्रह कुछ वर्ष पूर्व सरस्वती प्रेस प्रकाशन से छापा था। इस प्रकार हिन्दी पाठक भी इन उर्दू कहानियों को आसानी से पढ़ और समझ सकते हैं और प्रेमचन्द की उर्दू ज़बान की कहानी का लुत्फ भी उठा सकते हैं।

अपनी खोज की प्रक्रिया के दौरान श्रीपत राय के संज्ञान में चार ऐसी हिन्दी कहानियाँ भी आईं जो उस समय की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में तो छपीं थीं किंतु बाद को अनुपलब्ध होने के कारण प्रेमचन्द के किसी प्रकाशित कथा-संग्रह में संकलित नहीं हैं और न इन कहानियों के उर्दू रूपांतरण के बारे में ही कुछ पता चलता है। इनमें से एक पुरानी पत्रिका तो मैंने ही भाई श्रीपत राय को उपलब्ध कराई थी। इस छोटे से आलेख में मैं मुख्यत: प्रेमचन्द की इन्हीं चारों दुष्प्राप्य हिन्दी कहानियों के संबंध में काल-क्रमानुसार चर्चा करूँगा।

प्रेमचन्द की जो सबसे पुरानी लुप्त हिन्दी कहानी प्रकाश में आई है उसका शीर्षक है ‘वियोग और मिलाप’। यह एक लम्बी कहानी है और ‘प्रताप’ के अंक ४९ (वर्ष ४) (विजय दशमी, संवत १९७४ , ईस्वी वर्ष १९१७) में प्रकाशित हुई थी। कहानी में लेखक का नाम संभवत: त्रुटिवश ‘श्री प्रेमचन्द’ छपा है, जबकि उनका सही लेखकीय नाम ‘प्रेमचन्द’ था। कहानी की भाषा और कथानक से स्पष्ट है कि कहानी ‘प्रेमचन्द’ की ही लिखी हुई है। यह कहानी स्वाधीनता-संग्राम की पृष्ठभूमि पर आधारित है। इस कहानी के रचना-काल के समय ‘धनपत राय’ भले ही सरकारी सेवक रहे हों, लेकिन ‘प्रेमचन्द’ के रूप में वह उस समय भी अपनी कलम से जंगे-आज़ादी में भरपूर सहयोग दे रहे थे। उनके प्रथम उर्दू कहानी संग्रह ‘सोज़े-वतन’ के वर्ष १९०८ में प्रकाशन के पश्चात उन्हें तत्कालीन अंग्रेज़ कलेक्टर द्वारा मिली धमकियाँ और चेतावनी उन्हें देशप्रेम के पथ से डिगा नहीं सकी थीं। यह काम बड़े ही साहस का और ज़ोखिम भरा भी था। उत्पीड़न और दमन के आगे कलम कभी नहीं झुकती, इसका प्रत्यक्ष दृष्टांत एक सरकारी मुलाज़िम के रूप में भी प्रेमचन्द की विद्रोही आवाज़ थी जिसकी अंतिम परिणति कुछ ही वर्षों बाद उनकी स्थाई सरकारी नौकरी से त्याग-पत्र के रूप में हुई।

प्रेमचन्द की दूसरी दुष्प्राप्य किंतु सर्वाधिक विवादित और बहुचर्चित हिन्दी कहानी है ‘सम्पादक मोटेराम जी शास्त्री’ जो ‘प्रहसन’ शीर्षक से ‘माधुरी’ के अगस्त-सितम्बर, १९२८ के अंक में दूसरी बार फिर छपी थी। उस समय प्रेमचन्द स्वयं भी ‘माधुरी’ के त्रि-सदस्यीय संपादक-मंडल के सदस्य थे। यह एक हास्य-प्रधान कहानी थी, किंतु इसके प्रकाशन ने साहित्य जगत में एक बड़ा विवाद खड़ा कर दिया था। मामला न्यायालय तक जा पहुँचा। उस समय के तमाम शीर्ष साहित्यकार इस विवाद को लेकर दो धड़ों में बँट गए थे। बड़ा वर्ग प्रेमचन्द-विरोधी था, जबकि छोटा धड़ा प्रेमचन्द के समर्थन में खड़ा था। विरोधी गुट में प्रमुख थे पं. दुलारेलाल भार्गव, पं. रूपनारायण पाण्डेय, पं. पदम सिंह शर्मा, पं. बदरीनाथ भट्ट, ‘आर्यमित्र’ के संपादक पं. हरिशंकर शर्मा, पं. हेमचन्द जोशी, पं. इलाचन्द जोशी, पं. ज्योतिप्रसाद मिश्र ‘निर्मल’ आदि. ‘माधुरी’ के ब्राह्मण सह-संपादक द्वय पं. कृष्ण बिहारी मिश्र और पं. रामसेवक त्रिपाठी सामूहिक उत्तरदायित्व के कारण तटस्थ की भूमिका निभाने को विवश थे, क्योंकि मानहानि के मुकदमें में उन्हें भी प्रतिवादी बनाया गया था। पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी श्री मैथिलीशरण गुप्त श्री जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’ सदृश कुछ अन्य साहित्य-महारथियों ने भी प्रेमचन्द के सनातन-धर्म विरोधी लेखन के विरुद्ध अपनी तीखी प्रतिक्रियाएँ व्यक्त की थीं। इस विवाद का मुख्य कारण यह था कि विरोधियों के मतानुसार उक्त कहानी देहरादून निवासी तत्कालीन वैदिक विद्वान और कर्मकाण्डी ब्राह्मण लेखक पं. शालग्राम शास्त्री को लक्ष्य कर लिखी गई थी जिससे उनकी मर्यादा और प्रतिष्ठा पर आँच आती थी।

प्रेमचन्द के समर्थन में खड़े साहित्यकारों की संख्या नगण्य थी, गोकि उसमें पं. सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ , पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ , पं. विष्णु दत्त शुक्ल, पं. मन्नन द्विवेदी गजपुरी सरीखे ब्राहमण साहित्यकार तथा श्री शिव भूषण सहाय और श्री रघुपति सहाय ‘फिराक गोरखपुरी’ जैसे जाने-माने लोग भी शामिल थे।

परंतु बहुसंख्यक दिग्गज साहित्यकारों की अपने विरुद्ध एकजुटता को देखते हुए अंतत: प्रेमचन्द को ही झुकना पड़ा और अदालती कार्यवाही से जान बचाने के लिए उन्हें न्यायालय के समक्ष खेद प्रकट कर क्षमा-याचना करनी पड़ी। ‘माधुरी’ के प्रकाशक श्री विष्णु नारायण भार्गव पहले तो विरोधी गुट के दबाव में प्रेमचन्द को सेवा से पृथक करने पर सहमत न थे किंतु परिस्थितियाँ धीरे-धीरे प्रेमचन्द के विपरीत बनती गईं और फलस्वरूप उन्हें वर्ष १९३१ में ‘माधुरी’ के संपादक-मंडल से नाता तोड़कर काशी लौटना पड़ा।

शायद इसी अशोभनीय प्रकरण के कारण प्रेमचन्द अपनी इस हास्य-प्रधान दिलचस्प कहानी का उर्दू रूपांतरण भी प्रस्तुत करने का साहस नहीं जुटा सके और कहानी को अपने किसी कथा-संग्रह में स्थान देकर दुबारा मुसीबत नहीं मोल लेनी चाही। फलस्वरूप हिन्दी का अधिकांश भावी पाठक-वर्ग इस रोचक कहानी को पढ़ने और लुत्फ उठाने से वंचित रह गया। किंतु यदि आज के परिप्रेक्ष्य में कहानी को देखा जाए तो उसमें ऐसी कोई खास बात नज़र नहीं आती जिसे किसी की मानहानि का कारण माना जाए। आज तो एक से एक व्यंग्य रचनाओं और बड़ी-बड़ी हस्तियों तक का पानी उतार लिया जाता है और कोई चूँ तक नहीं करता। परंतु उस समय की परिस्थितियाँ शायद भिन्न थीं।

प्रेमचन्द की तीसरी लुप्त हिन्दी कहानी का शीर्षक है ‘ग़मी’। यह एक छोटी सी हास्य-प्रधान कहानी है जो मिर्ज़ापुर से प्रकाशित ‘मतवाला’ के ३१ अगस्त, १९२९ के अंक में छ्पी थी। पत्र का यह दुर्लभ अंक मुझे ‘मतवाला’ के स्वामी एवं संपादक स्व. महादेव प्रसाद सेठ के सुपुत्र स्व. मानिक चन्द सेठ के सौजन्य से प्राप्त हुआ था। मानिक चन्द बचपन में कई वर्षों तक मिर्ज़ापुर में मेरा सहपाठी रह चुका था और लगभग दो दशक पूर्व उसने यह अंक मुझे दिया था। मैंने इसे भाई श्री राय को दे दिया था और उन्होंने ही मुझे सूचित किया था कि कहानी प्रेमचन्द के किसी कथा-संग्रह में सम्मिलित नहीं है। आज से सात-आठ दशक पूर्व देश की जनसंख्या की वृद्धि के बारे में न तो कोई सोचता था और न यह समस्या आज की भाँति चुनौती के रूप में सामने खड़ी थी।

किसी बुद्धिजीवी ने इस बारे में कभी चिंतन करना आवश्यक नहीं समझा। परिवार में नए शिशु का जन्म खुशियाँ लेकर आता था, विशेषकर पुत्र के जन्म पर तो खूब जश्न मनाया जाता था भले ही वह तीसरी, चौथी या पाँचवीं संतान क्यों न हो। ऐसे समय में किसी मध्यम-वर्गीय परिवार के मुखिया द्वारा दो पुत्रों के बाद तीसरे पुत्र-रत्न के जन्म को अपने ‘आनन्द’ की मृत्यु की संज्ञा देते हुए ग़मी मनाने की प्रेमचन्द की अभिनव परिकल्पना निश्चित ही उनकी दूर-दृष्टि का परिचायक थी। आज हम देख रहे हैं कि इस देश की जनसंख्या की बेतहाशा अनियंत्रित वृद्धि, जो एक अरब की विस्फोटक संख्या को भी कब का पार कर चुकी है, ने कैसा विकराल रूप धारण करके देश के कर्णधारों और विशेषज्ञों की नींद हराम कर रखी है। लेकिन प्रेमचन्द की इस कहानी का नायक तो आज से ७२ वर्ष पूर्व तीसरे पुत्र के जन्म से दुखी होकर अपने मृत ‘आनन्द’ की अंत्येष्टि के लिए गंगा तट पर जाने को उद्यत था और हाथ में गंगा जल लेकर यह प्रतिज्ञा करना चाहता था कि अब ऐसी महान मूर्खता वह फिर कभी न करेगा। यह छोटी सी कहानी आज के परिप्रेक्ष्य में वास्तव में गंभीर प्रभाव छोड़ती है। काश प्रेमचन्द जैसी दूरदृष्टि वाले कुछ और बुद्धिजीवी उसी जमाने में पैदा हो गए होते तो आज जनसंख्या विस्फोट की गंभीर और जटिल समस्या को लेकर देश को इतना चिंतित क्यों होना पड़ता।

प्रेमचन्द की चौथी दुष्प्राप्य हिन्दी कहानी जो प्रकाश में आई है उसका शीर्षक है ‘स्वप्न’ । यह भी एक छोटी सी हास्य प्रधान कहानी है जो ‘वीणा’ के माह जुलाई, १९३० के अंक में प्रकाशित हुई थी। प्रेमचन्द को जानने वाले सभी पाठकों को संभवत: इतना तो पता होगा कि उन्होंने अपने वास्तविक जीवन में प्रथम पत्नी के जीवित रहते और उससे कोई कानूनी तलाक हुए बिना, सरकारी कर्मचारी होते हुए भी वर्ष १९०६ में एक अवयस्क बाल-विधवा से दूसरा विवाह रचाकर तत्कालीन रूढिवादी समाज के विरुद्ध विद्रोह का बिहुल बजा दिया था। लेकिन पाठकों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि वृद्धावस्था में वह अपना कायाकल्प कराने तथा एक और विवाह रचाने का ख्वाब देखने लगे थे।

स्वप्न-लोक में वह कायाकल्प कराने के बाद एक बार फिर से दूल्हा बनते हैं। पालकी में सवार होकर बारात के साथ वधू के द्वार पर जा पहुँचते हैं। प्रारम्भिक रस्मों के बाद पाणिग्रहण का मुहूर्त भी आ पहुँचता है लेकिन ऐन वक्त पर उनकी अक्ल का बन्द दरवाज़ा अचानक खुल जाता है और मन में ख्याल आता है कि यह तो पाँवों में नई बेड़ी पड़ने जा रही है। और यदि कहीं उनकी बनावटी नकली जवानी मृग-मरीचिका निकली तथा नव-वधू से साबिका पड़ने पर बर्फ की तरह पिघल गई तो ज़िन्दगी ग़रक हो जाएगी, कितनी छीछालेदार और जग हँसाई होगी। फिर क्या था, वे इस कदर आतंकित हो उठते हैं कि जामा-जोड़ा पहने ही मण्डप से जान छुड़ाकर भाग खड़े होते हैं और इस तरह भागने लगते हैं मानो कोई भयानक जंतु उनका पीछा कर रहा हो। इसी बीच सामने एक नदी आ जाती है वे उसमें कूद पड़ते हैं। अचानक उनकी नींद उचट जाती है और स्वप्न टूट जाता है। वे अपने को चारपाई पर पड़ा पाते हैं लेकिन साँस अब तक फूल रही है।

कहानी ज़रूर एक दिलचस्प ख़्वाब की है लेकिन उसकी परिकल्पना प्रेमचन्द ने निश्चित ही जाग्रत अवस्था में की होगी और उसे पूरे होशो-हवास में शब्दों में ढाला होगा। यह भी संभव है कि उन्होंने वाकई इसी तरह का कोई ख़्वाब देखा हो और उसी स्वप्न की घटना को कलमबन्द कर डाला हो। जो कुछ भी हो, कहानी से इतना तो स्पष्ट है कि बुढ़ापे में भी कितने मनमौजी और रसिक थे प्रेमचन्द और उन्हें कैसा-कैसा मसख़रापन सूझता था।

प्रेमचन्द की लुप्त कहानियों की खोज के संबंध में स्व. श्री राय द्वारा आरंभ किए गए सत्प्रयास को अभी और आगे बढ़ाने की आवश्यकता है ताकि इसी प्रकार की प्रेमचन्द की अन्य विलुप्त कहानियाँ भी प्रकाश में आ सकें और उनके कथा-साहित्य का सही आकलन और मूल्यांकन हो सके। 
२९ जुलाई २०१३

माया महामाया नारी


नारी मात्र महामाया का स्वरुप है। यही उद्भव है,विकास है,संहार भी है। नारी के बिना नर का अस्तित्व ही क्या है ? शिवा रहित शिव शव हैं—यह केवल शिव के लिए ही नहीं कहा गया है।नारी नव दलकमला है जबकि पुरुष अष्ठ दल कमल युक्त है।पुरुष नारी संभव है नारी पुरुष संभव नहीं है

अब हम उसके समर्पण-भाव की बात करते हैं। सच पूछा जाय तो एक स्त्री जितना सहज समर्पति हो सकती है,पुरुष कदापि नहीं। पुरुष के अहं के विसर्जन में बहुत समय लगता है,जब कि स्त्रियां मौलिक रुप से समर्पित होती है। यही कारण है कि स्त्रियों के लिए शास्त्र के बहुत से नियम ढीले हैं। उन्हें न उपवीती होने की आवश्यकता है और न गायत्री दीक्षा की । वे तो साक्षात महामाया की परम चैतन्य-जाग्रत विभूति हैं, फिर वाह्याडम्बर क्यों ! पवित्री धारण भी उनके लिए नहीं है। जवकि पुरुष की क्रिया उपवीत,गायत्री और पवित्री के वगैर अधूरा है। वह विविध मन्त्रों के बन्धन में बन्धा हुआ है। पुरुष के लिए बात-बात में नियम-आचार-विचार है और वाध्यता भी है। पुरुष के लिए मुण्डन अनिवार्य है- मरणाशौच में और जननाशौच में भी। अन्यान्य लौकिक-पारलौकिक क्रियाकलापों में भी मुण्डन को अत्यावश्यक कहा गया है। जबकि स्त्रियों के लिए सधवावस्था में केश-छेदन भी वर्जित है। मात्र नख-छेदन करके स्त्री शुद्ध हो जाती है। पुरुष सचैल(वस्त्र सहित) शिरोस्नान के वगैर कदापि शुद्ध नहीं हो सकता। जबकि स्त्रियां मात्र अधोवस्त्र परिवर्तन करके भी सायंकालीन क्रिया सम्पन्न कर सकती है। सचैल शिरोस्नान उसके लिए अनिवार्य नहीं है।

स्त्री का अध्वांग सर्ग-विस्तार क्षेत्र है,तो उर्ध्वांग सर्ग-सम्पालन क्षेत्र। स्त्री की पवित्रता और गरिमा इतनी है कि महादेवी पृथ्वी ने भी विष्णु से वचन लिया था कि वह सबकुछ सहन कर सकती है, किन्तु नारी भार को कदापि सहन नहीं कर सकती । यही कारण है कि स्त्रियों के लिए पेट के बल लेटकर साष्टांग विष्णुजी को प्रणाम नहीं करती केवल पंचांग नमस्कार करती है।केवल मस्तक दोनो करकमल और चरण भूमि पर लगते हैं पूरा शरीर नहीं।

कुल परम्परा-रक्षण में भी इसी मातृका-शक्ति का सर्व विध मान रखा गया है। स्त्रियों को विशेषाधिकार दिये जाने के पीछे एक और कारण है- क्रिया को सरल,सहज बनाना। किन्तु कहीं-कहीं अज्ञानवश या प्रमादालस्यवश कुलदेवी पूजन को गृहस्थ कृत्य की वरीयता सूची से ही निकाल फेंकते हैं और इसका प्रत्यक्ष-परोक्ष दुष्परिणाम भी भुगतते रहते हैं।

प्रेमचंद विशेष


बर्थडे स्पेशल: नाम बदलकर रखा 'प्रेमचंद'

यूं तो प्रेमचंद की हर रचना बहुमूल्य है जो अपने समय की सच्चाई को बयां करती हैं और उनकी ख़ासियत है कि वे आज भी प्रासंगिक हैं। प्रेमचंद की कहानी ईदगाह आपने भी शायद ज़रूर पढ़ी होगी। हामिद को मेला घूमने के लिए उसकी दादी अमीना ने तीन पैसे दिए। मेले में किस्म-किस्म की मिठाईयां, झूले और तोहफ़े बिक रहे थे। जहां दूसरे बच्चों ने मेले से अपने लिए खिलौने, भिश्ती और मिठाइयां ख़रीदी, वहीं चार या पांच साल के हामिद ने दादी के लिए चिमटा खरीदा। 6 पैसे के चिमटे को मोलभाव कर 3 पैसे में ख़रीद लेता है। क्योंकि रोटियां सेकते समय दादी का हाथ तवे से जल जाता था और पैसों की कमी की वजह से दादी चिमटा नहीं ख़रीद पा रही थी। हामिद ने अपने बचपन की ख़्वाहिशों को भुलाकर अपनी उम्र से बड़ा हो गया। गरीबी कैसे इंसान को उम्र से पहले बड़ा बना देती है, इस मनोविज्ञान को ईदगाह की कहानी खोल कर रख देती है।

प्रेमचंद को हिंदी और उर्दू के महानतम लेखकों में शुमार किया जाता है। प्रेमचंद की रचनाओं को देखकर बंगाल के विख्यात उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने उन्हें 'उपन्यास सम्राट' की उपाधि दी थी। प्रेमचंद ने कहानी और उपन्यास में एक नई परंपरा की शुरुआत की जिसने आने वाली पीढ़ियों के साहित्यकारों का मार्गदर्शन किया। प्रेमचंद ने साहित्य में यथार्थवाद की नींव रखी। प्रेमचंद की रचनाएं हिंदी साहित्य की धरोहर हैं।

प्रेमचंद का मूल नाम धनपतराय था और उनका जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी के नज़दीक लमही गांव में हुआ था। पिता का नाम अजायब राय था और वे डाकखाने में मामूली नौकरी करते थे। वे जब सिर्फ आठ साल के थे तब मां का निधन हो गया। पिता ने दूसरा विवाह कर लिया लेकिन वे मां के प्यार और वात्सल्य से महरूम रहे। प्रेमचंद का जीवन बहुत अभाव में बीता।

जब उनकी उम्र महज़ 15 साल थी तो पिता अजायब राय ने उनकी शादी उम्र में बड़ी लड़की से करा दी। शादी के एक साल बाद पिता का निधन हो गया और अचानक ही उनके सिर पांच लोगों की गृहस्थी और ख़र्च का बोझ आ गया। प्रेमचंद को बचपन से ही पढ़ने का शौक था और वे वकील बनना चाहते थे। लेकिन गरीबी की मार के कारण उच्च शिक्षा प्राप्त करने का सपना अधूरा रह गया। प्रेमचंद को बचपन से ही उर्दू भाषा की शिक्षा मिली थी। हिंदी साहित्य के इतिहासकार बताते हैं कि उन्हें उपन्यास पढ़ने का ऐसा चस्का था कि बुकसेलर की दुकान पर बैठकर ही उन्होंने सारे उपन्यास पढ़ लिए और दो-तीन सालों के भीतर सैकड़ों उपन्यास पढ़ डाले।

PC: BBC
13 साल की उम्र में से ही प्रेमचन्द ने लिखना शुरू कर दिया था। शुरुआत में कुछ नाटक लिखे और बाद में उर्दू में उपन्यास लिखा। इस तरह उनका साहित्यिक सफर शुरु हुआ जो उनके अंतिम समय तक उनका हमसफर बना रहा।

आर्थिक तंगी और पारिवारिक समस्याओं के कारण उनकी पत्नी मायके चली गई और फिर कभी नहीं लौटी। वे उस समय के धार्मिक और सामाजिक आंदोलन आर्य समाज से प्रभावित रहे। प्रेमचंद विधवा विवाह का समर्थन करते थे और 1906 में अपनी प्रगतिशील परंपरा को जीवन में ढालते हुए उन्होंने दूसरा विवाह बाल-विधवा शिवरानी देवी से किया। इसके बाद उनकी ज़िंदगी के हालत कुछ बेहतर हुए। अध्यापक से प्रोमशन होकर वे स्कूलों के डिप्टी इंस्पेक्टर बने और इसी दौरान उनकी पांच कहानियों का संग्रह 'सोज़े वतन छपा' जो बहुत लोकप्रिय हुआ।

प्रेमचंद आज़ादी से पहले के समय के समाज और अंग्रेज़ी शासन के बारे में लिख रहे थे। उन्होंने जनता के शोषण, दुख, दर्द और उत्पीड़न को बहुत बारीकी से महसूस किया और उसे लिखा। लेकिन अंग्रेज़ी हुकूमत को ये गवारा नहीं था। 1910 में उनकी रचना 'सोजे़-वतन' (राष्ट्र का विलाप) के लिए हमीरपुर के जिला कलेक्टर ने तलब किया और उन पर जनता को भड़काने का आरोप लगाया। उस समय वे नवाबराय के नाम से लिखते थे। उनकी खोज हुई और उनकी आंखों के सामने 'सोजे़-वतन' की सभी प्रतियां जला दी गईं। कलेक्टर ने उन्हें बिना अनुमति के लिखने पर भी पाबंदी लगा दी।

20वीं सदी में उर्दू में प्रकाशित होने वाली 'ज़माना' पत्रिका के संपादक और प्रेमचंद के घनिष्ठ मित्र मुंशी दयानारायण निगम ने उन्हें प्रेमचंद नाम से लिखने की सलाह दी। इसके बाद नवाबराय हमेशा के लिए प्रेमचंद हो गए और इसी नाम से लिखने लगे।

प्रेमचंद का रचना संसार बहुत बड़ा और समृद्ध है। बहुआयामी प्रतिभा के धनी प्रेमचंद ने कहानी, नाटक, उपन्यास, लेख, आलोचना, संस्मरण, संपादकीय जैसी अनेक विधाओं में साहित्य का सृजन किया है। उन्होंने कुल 300 से ज़्यादा कहानियां, 3 नाटक, 15 उपन्यास, 10 अनुवाद, 7 बाल-पुस्तकें लिखीं। इसके अलावा सैकड़ों लेख, संपादकीय लिखे जिसकी गिनती नहीं है। हालांकि उनकी कहानियां और उपन्यास उन्हें प्रसिद्धि के जिस मुकाम तक ले गए वो आज तक अछूता है।

 प्रेमचंद ने शुरुआती सभी उपन्यास उर्दू में लिखे जिनका बाद में हिंदी में अनुवाद हुआ। 1918 में 'सेवासदन' उनका हिंदी  में लिखा पहला उपन्यास था। इस उपन्यास को उन्होंने पहले 'बाज़ारे हुस्न' नाम से उर्दू में लिखा लेकिन हिंदी में इसका अनुवाद 'सेवासदन' के रूप में प्रकाशित हुआ। यह एक स्त्री के वेश्या बनने की कहानी है। हिंदी साहित्यकार डॉ. रामविलास शर्मा के मुताबिक़ सेवासदन भारतीय नारी की पराधीनता की समस्या को सामने रखता है। इसके बाद 1921 में किसान जीवन पर उनका पहला उपन्‍यास 'प्रेमाश्रम' प्रकाशित हुआ। अवध के किसान आंदोलनों के दौर में 'प्रेमाश्रम' किसानों के जीवन पर लिखा हिंदी का शायद पहला उपन्‍यास है। फिर 'रंगभूमि', 'कायाकल्प', 'निर्मला', 'गबन', 'कर्मभूमि' से होता हुआ उपन्यास लिखने का उनका यह सफर 1936 में 'गोदान' के उफ़क तक पहुंचा।

प्रेमचंद के उपन्यासों में 'गोदान' सबसे ज़्यादा मशहूर हुआ और विश्व साहित्य में भी उसका बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। एक सामान्‍य किसान को पूरे उपन्‍यास का नायक बनाना भारतीय उपन्‍यास परंपरा की दिशा बदल देने जैसा था। गोदान पढ़कर महसूस होता है कि  किसान का जीवन सिर्फ़ खेती से जुड़ा हुआ नहीं होता। उसमें सूदखोर जैसे पुराने ज़माने की संस्थाएं तो हैं ही नए ज़माने की पुलिस, अदालत जैसी संस्थाएं भी हैं। यह सब मिलकर होरी की जान लेती हैं। होरी की मृत्‍यु पाठकों के ज़हन को झकझोर कर रख देती है। गोदान का कारुणिक अंत इस बात का गवाह है कि तब तक प्रेमचंद का आदर्शवाद से मोहभंग हो चुका था। उनकी आख़िरी दौर की कहानियों में भी ये देखा जा सकता है। जीवन के आख़िरी दिनों में वे उपन्यास मंगलसूत्र लिख रहे थे जिसे वे पूरा नहीं कर सके।

लंबी बीमारी के बाद 8 अक्टूबर 1936 में उन्होंने आख़िरी सांसें लीं। प्रेमचंद अपने उपन्‍यासों में भारतीय ग्रामीण जीवन को केंद्र में रखते थे। प्रेमचंद ने हिंदी उपन्‍यास को जिस ऊंचाई तक पहुंचाया वो आने वाली पीढ़ियों के उपन्‍यासकारों के लिए एक चुनौती बनी रही। प्रेमचंद के उपन्‍यास और कहानियों का भारत और दुनिया की कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है। प्रेमचंद हिंदी साहित्य में एक मील का पत्थर हैं और बने रहेंगे।

दयानंद पाण्डेय /अपने अपने युद्ध का सारांश


खिन्न था वह महेंद्र मधुकर के सम्मान समारोह में जाते हुए। मधुकर जो सिरे से फ्राड था। संजय ने महेंद्र मधुकर को पहली बार अपने शहर के एक रेस्टोरेंट में देखा था। तब वह पढता था, तभी एक लड़की से प्यार में मुब्तिला उसे कविता से भी मुहब्बत हो गई थी। वह कविताएं तो लिखने ही लगा था, बातचीत भी वह कविताओं, शेर और मुक्तकों में करता था। कविताओं का जुनून सा सवार था उस पर उन दिनों। वह इमर्जेंसी के दिन थे। इमर्जेंसी के दिनों में आलम यह था कि कवि अपनी घुटन और हताशा साफ-साफ बयान करने के बजाय प्रेम कविताओं की शरण लेते थे। इमर्जेंसी की ज्यादतियों को बिंबों में बांधकर वह प्रेमिका की ज्यादतियों ढालते और प्रतीकात्मक विरोध दर्ज करते। यह जैसे उन दिनों की कविताओं की परंपरा हो गई थी। कवि, प्रेमिका की आंखों में प्यार, उपेक्षा, उदासी, खुशी देखने के बजाय उसकी आखों के अंगार, अहंकार और फट पड़ने वाला आसमान देखते और आह भरते हुए उसे ऐसे दुत्कारते जैसे व्यवस्था को, इमर्जेंसी को ललकार रहे हो। पर सब कुछ बिंबों, प्रतीकों में। साफ-साफ कुछ भी नहीं। उन दिनों विशुद्ध प्रेम कविताएं लिखने वालों की भी इस चक्कर में दुर्गति हो जाती। जैसे एक बार संजय की खुद की दुर्गति हो गई। आकाशवाणी द्वारा आयोजित एक स्टूडियो गोष्टी में जब उसने एक लंबी प्रेम कविता की पांच-सात पंक्तियां ही पढ़ी "आंखें/तुम्हारी आंखें/उदास, सूनी बेचैन और बिमार आंखें/जिनमें मैं/एक छोटी सी, उजली सी/खुशी की एक किरन तलाशना चाहता हूं/सिर्फ अपने लिए।" यह पंक्तियां सुनते ही रिकार्डिंग करने वाले अधिकारी ने तुरंत रिकार्डिंग रोक दी। बोला, "यह उदास सूनी, बेचैन बीमार आंखें नहीं चलेंगी।"
"क्यों?" संजय ने पूछा।
"क्योंकि इसमें इमर्जेंसी की आलोचना है।" अधिकारी बोला, "कोई खुशी की कविता हो वह पढ़िए। इसको रहने दीजिए। यह नहीं चलेगी। बिलकुल नहीं।"
"पर इस कविता का इमर्जेंसी से क्या लेना देना? यह तो विशुद्ध प्रेम कविता है!" संजय हैरान होता हुआ बोला। कुछ और साथी कवियों ने संजय की पैरवी की। पर वह अधिकारी नहीं माना। कहने लगा, "दूसरी कविता पढ़िए।"
"पर मेरे पास दूसरी कविता नहीं है।" संजय खीझ कर बोला।
"तो इसी कविता से वह उदास, सूनी, बेचैन जैसे शब्द हटा दीजिए।" वह अधिकारी बोला।
"यह तो नहीं हो सकता।" संजय ने साफ-साफ अधिकारी से कहा।
"क्यों?"
"क्योंकि कविता की ध्वनि उसका मकसद, उसकी बुनावट, शिल्प और उसकी आत्मा मर जाएगी। क्योंकि इस कविता में आगे और भी ऐसे शब्द आएंगे।" संजय बिफरता हुआ बोला, "कहां-कहां और क्या-क्या बदलूंगा?"
"कुछ भी हो।" वह अधिकारी बोला, "यह कविता नहीं चलेगी। मैं अपनी नौकरी खतरे में नहीं डाल सकता।" बात जब नौकरी की आ गई तो संजय चुप हो गया। वह घर जाकर अपनी कविताओं की कापी उठा लाया और उसमें से दो तीन छोटी-छोटी कविताएं उस अधिकारी को दिखाता हुआ बोला, "इनसे तो नौकरी नहीं जाएगी आपकी?"
"नहीं।" कविताएं देखता हुआ वह अधिकारी बोला, "अच्छी है। इन्हें कहीं छपने के लिए भेज दीजिए।"
"छप चुकी हैं धर्मयुग में।" बताते हुए संजय चहका।
"तब तो यह भी नहीं चलेंगी।"
"क्यों?" संजय उबल पड़ा, "अब क्या हो गया?"
"छपी हुई भी नहीं चलेंगी।"
"ओफ!" कह कर संजय ने सिर पकड़ लिया। बोला, "तो फिर मुझे आज्ञा दीजिए। क्योंकि इस कापी में लिखी लगभग सारी कविताएं कहीं न कहीं छपी हुई हैं।" वह अधिकारी अंतत: मान गया कि, "कोई भी कविता पढ़ दीजिए। बस इमर्जेंसी का विरोध नहीं।" उस दिन उसने देखा कि बाकी तीन कवियों में से दो ने परिवार नियोजन, पेड़ लगाने जैसे नारों पर "कविताएं" गा-गा कर पढ़ीं और तीसरे ने कइन, गौरेया, फूल, पत्ते जैसी बिंब विधान वाली कविताएं पढ़ीं।
सचमुच उन दिनों कविताओं की तो छोड़िए सार्वजनिक जगहों, चाय या पान की दुकानों पर इमर्जेंसी या सरकार के खिलाफ कुछ कहना, या कोई भी उत्तेजित करने वाली बात करना गुनाह क्या अपराध माना जाता था। उन तनाव और घुटन भरे दिनों में यह महेंद्र मधुकर उस रोज रेस्टोरेंट में सिगरेट फूंकता एक के एक खौलते हुए शेर सरेआम सबको सुना रहा था। उसके शेर सुनने वालों की संख्या दो से चार, चार से दस, दस से बीस होती जा रही थी। वह शेर भी गजब के पढ़ रहा था और बिलकुल झूमके, "कैसे-कैसे मंजर सामने आने गले हैं/ गाते गाते लोग चिल्लाने लगे हैं/अब तो इस तालाब का पानी बदल दो/ये कंमल के फूल कुम्हलाने लगे हैं।" शेर बिलकुल ताजा हवा के झरोंके की मानिंद थे। संजय और उसके साथी महेंद्र मधुकर की बेंच के पास जाकर खड़े हो गए। वह शेर पढ़े जा रहा था, "सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए/मेरे सीने में हो या तेरे सीने में सही हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए।"
संजय और उसका साथी राय, मधुकर से बड़ा प्रभावित हुए। और उससे बड़ी गर्मजोशी से मिले। राय ने कहा, "बड़ी हिम्मत का काम है इस तरह खुलेआम ऐसे शेर पढ़ना। हम लोग आपको बधाई देना चाहते हैं।" कहते हुए राय ने पूछा, "यह शेर बाई द वे हैं किसके?"
"ये खुद ही मशहूर कवि हैं।" मधुकर के पास बैठा एक मरियल सा व्यक्ति उसकी तारीफ करता हुआ बोला। "खाकसार को महेंद्र मधुकर कहते हैं।" वह राय की ओर हाथ बढ़ाते हुए बोला, "आप साहबान की तारीफ?"
"हम लोग छात्र हैं। यूनिवर्सिटी में हैं।" कहते हुए राय ने फिर पूछा, "यह शेर किसके हैं?"
मैं अपने ही पढ़ता हूं। सिगरेट का धुआं उड़ाते हुए मधुकर ने बोला, "दूसरों के शेर पढ़ना मेरी आदत नहीं। अपनी तौहीन समझता हूं।"
"तो आपको डबल बधाई।" राय मधुकर से दुबारा हाथ मिलाते हुए बोला, "एक इतना जिंदा, धड़कता हुआ शेर लिखने के लिए, दूसरे इस तरह इसे सरेआम सुनाने के लिए।" राय ने जोड़ा, "इसके लिए बड़ा भारी कलेजा होना चाहिए। बधाई, बहुत-बहुत बधाई।"
"शुक्रिया।" दोनों हाथ जोड़कर माथे से लगाते हुए मधुकर बोला, "यहां तो खून से लिखते हैं, और आवाम की धड़कन बन जाती हैं।" उसने जोड़ा, "आवाम जो चाहती है उससे दो कदम आगे की हम सोचते हैं, खून पसीना जलाते हैं तब जाकर कहीं एक रचना कागज पर शक्ल अख्तियार करती है। हम उसे खून पसीने से सींचते हैं, अपने आपको निचोड़ डालते हैं तब कहीं जाकर आप सबकी "वाह-वाह" मिलती है।" कह कर उसने माथे पर आया पसीना रूमाल से पोंछा और लगे हाथ उसने तीन शेर और सुना दिए, "आहों में जो पाया है गीतों में दिया है/इसपर भी सुना है कि जमाने को गिला है/हम फूल हैं औरों के लिए हैं खुशबू/अपने लिए ले दे के बस इक दाग मिला है।" सुनाते हुए वह बोला, "शेर सुनिएगा कि, जो साज से निकली है वह धुन सबने सुनी है/ जो तार पे गुजरी है, वो किस दिल को पता है।" सुना कर वह अभी कुछ बोलता कि एक मजनूनुमा बूढ़ा झूमा। बोला, "यह तो फिल्मी गाना है। तलत महमूद ने गाया है।"
"हां, पर लिखा साहिर लुधियानवी ने है।" मधुकर ने तुरंत पैंतरा बदल लिया, "और क्या लिखा है साहब कि, जो तार पे गुजरी है वो किस दिल को पाता है?" वह बोला, "तो साहब, यह हम कवियों का दिल ही जानता है कि कहां-कहां से गुजर कर, क्या-क्या जी कर लिखना पड़ता है।" रूमाल से पसीना पोंछते हुए वह बोला, "फिर भी हमें दाग मिलता है, क्योंकि हम फूल हैं। और फूल कि नियति है सबको खुशबू देना। और अपने हिस्से दाग लेना।"
"अच्छा परिभाषित किया है आपने।" संजय बोला, "और आपके कहने का अंदाज भी खूब है।"
"आप नौजवानों से मिल कर खुशी हुई।" कहते हुए उसने सिगरेट का लंबा कश खींचा और उतना ही लंबा धुआं भी फेंका। बोला, "कभी घर पर मिलिए।" उसने अपना पता भी लिख कर दिया। और कहा कि, "कभी आए जरूर खुशी होगी।"
"हमलोग भी कविताएं लिखते हैं।" राय शर्माते हुए बोला।
"तो इसमें शर्माने की क्या बात है?" मधुकर बोला, "कभी किसी कवि गोष्ठी या सम्मेलन में नहीं दिखे आप लोग?" मधुकर उन दोनों को खारिज करता हुआ बोला।
"पर हमारी कविताएं छपी हैं।" कह कर संजय ने कुछ पत्रिकाओं के नाम गिना दिए।
"गुड!" मधुकर बोला, "पर सिर्फ छपने भर से तो काम नहीं चलेगा।" सिगरेट का धुंआ फेंकता हुआ वह बोला, "जनता के बीच आना पड़ेगा। नहीं तो बंद कमरे में कविता लिखने और छप जाने का क्या मतलब है?" वहा बोला, "परसों डॉक्टर साहब के यहां कवि गोष्ठी है। अरे वही होम्योपैथी वाले, उन्हीं के यहां, आप लोग आइए।"
उस गोष्ठी में राय और संजय बड़ी तैयारी से गए। मधुकर ने उन दोनों का वहां उपस्थित कवियों से परिचय कराया। पर संजय ने गौर किया कि किसी ने भी उन दोनों की नोटिस नहीं ली। गोष्ठी क्या थी चू-चू का मुरब्बा थी। दो तीन को छोड़ कर किसी ने कभी कायदे की कोई कविता नहीं पढ़ी। दो तीन कवि तो सरस्वती वंदना में ही लगे रहे। कोई अमराइयों तो कोई गोइयां, सइयां के गीत गाता रहा। संजय ऊब सा गया। संजय और राय ने भी दो-दो कविताएं पढ़ी। यूनिवर्सिटी के एक अध्यापक ने, "बहुत सुंदर, बहुत सुंदर" कहा। पर बाकी "अच्छा प्रयास है।" कह कर चुप हो गए। मधुकर के कविता पढ़ने की जब बारी आई तो राय ने उससे रेस्टोरेंट वाले शेर पढ़ने का अनुरोध किया। कहा कि, "मधुकर जी वही सुनाइए।" पर मधुकर टाल गया। बोला, "जनता के बीच जनता की बात, कवियों के बीच कवियों की बात।" कहते हुए खानाबदोशी पर कविता पढ़ने लगा। गोष्ठी में संजय और राय को बिलकुल मजा नहीं आया। कम से कम जिस तैयारी से वह दोनों गए थे, उस हिसाब से तो बिलकुल नहीं। हां, खाने-पीने की व्यवस्था उन्हें अच्छी लगी।
बाद में मधुकर उन दोनों को कवि सम्मेलनों में भी बुलवाने लगा। कवि सम्मेलनों से पैसा भी मिलता। जो उन दोनों की जेब खर्च के काम आता। कुछ दिनों बाद संजय ने सारिका में वही शेर दुष्यंत कुमार के नाम से छपे देखे जो मधुकर ने उस दिन रेस्टोरेंट में सुनाए थे और खूब दाद बटोरी थी। संजय ने राय को वह पत्रिका दिखाई तो वह बोला, "यह तो साला पक्का चोर निकला।" राय बोला, "चलो आज उसके यहां चलते हैं, उस दिन साले को दाद ही थी, आज खाज दे देते हैं।"
वह दोनों उस शाम मधुकर के यहां वह पत्रिका लेकर पहुंचे तो उसने बड़ी आवभगत की। कुछ देर लिए दोनों उससे असली बात करने से टालते रहे। पर राय ज्यादा देर नहीं टाल पाया। पत्रिका दिखाते हुए बोला, "मधुकर जी आपकी गजले इसमें छपी हैं। पर?"
"पर दुष्यंत कुमार के नाम से छपी हैं।" मधुकर बोला, "वह गजलें हैं ही दुष्यंत की।" उसने सिगरेट का धुआं छोड़ा, "क्या लिखता है, कलेजा निकाल लेता है।"
"पर उस दिन तो आप अपने शेर बता रहे थे।"
"कब कहा कि वह शेर मेरे लिखे हैं?" वह बोला, "हां!" माथे पर हाथ फिराते हुए वह कहने लगा, "वह शेर अब हम सबके हैं, सबकी धड़कन हैं। कोई भी उन्हें पढ़ सकता है, सुना सकता है, क्योंकि हम सब उसी दौर से गुजर रहे हैं, उसी तकलीफ, उसी घुटन, संत्रास और सांघातिक तनाव से गुजर रहे हैं, जिससे वह शेर गुजर रहे हैं। दुष्यंत की आवाज हम सकबी आवाज है।"
"पर मधुकर जी यह तो चोरी है।" राय ने जोर देकर कहा।
"क्या हमने अपने नाम से छपवा लिया?" मुधकर बोला, "शेर पढ़ना चोरी नहीं है। और ये खौलते हुए शेर पढ़ना, सार्वजनिक तौर पर पढ़ना वो भी आज के दौर में आसान है क्या? है किसी का जिगरा, है किसी में हिम्मत? शेर दुष्यंत का सही पर उसे पढ़ कर मैंने लोगों को झिंझोड़ा, यह क्या कम है?" कहते हुए वह बोला, "लो सिगरेट पियो।" और उसने सिगरेट की डिबिया दोनों की ओर बढ़ा दिया।
"नहीं, मैं सिगरेट नहीं पीता।" संजय हाथ जोड़ते हुए बोला।
"सिगरेट नहीं पिएंगे, शराब नहीं पिएंगे और कविता लिखेंगे?" वह आंख मटकाता हुआ बोला, "यह तो नहीं हो पाएगा।" उसने जोड़ा, "मीर, गालिब फिराक फैज सबने पी। बिना पिए का गुजारा नहीं हुआ।"
"हम लोग पीने नहीं, आपकी चोरी की चर्चा करने आए हैं।" राय बोला, "आपको कवि कहलाने का हक नहीं है।"
"तो अब आप हमें कवि होने का सर्टिफिकेट देंगे?" मधुकर उबला, "मैं चोर हूं! अरे कौन साला चोर नहीं है?" वह पसीना पोंछता हुआ बोला, "यें पंत, निराला, अज्ञेय किस-किस को चोर कहेंगे आप? इन लोगों ने सीधे-सीधे बायरन, इलियट, मिल्टन और जापानी हाइकूज पार कर दी हैं और मशहूर हो गए। जाने कहां-कहां डुबकी मार-मार कर, पानी-पी-पी कर हिंदी साहित्याकाश में एक से एक कवि, महाकवि दुकान लगाए बैठे हैं। आप लोग, जिनको हमने ही पैदा किया, हमने ही शहर में लोगों से मिलाया, वही लोग आज हमें कठघरे में खडा़ कर चोर बताना चाहते हैं?"
"नहीं बात यह नहीं है।" संजय बोला।
"तो क्या बात है?" मधुकर बोला, "टेक इट इजी।"
बाद में पता चला कि मधुकर की कारस्तानी शहर के अमूमन सभी कवि जानते थे। इसलिए हर कोई उससे कटता रहता था। पर चूंकि शहर के तकरीबन सारे सरकारी कवि सम्मेलनों का संयोजक, संचालक वह ही होता था सो उससे बिलकुल कट कर भी कोई नहीं रह पाता। डी.एम., कमिश्नर सबको पटाने में वह माहिर था। उन दिनों वह एक अनियतकालिक पत्रिका भी निकालता था सो छपने की लालसा भी कई नए पुराने कवियों को उसके पास घसीट ले जाती। फिर भी ढेर सारे लोग उसे नापसंद करते, उसकी आदतों, हरकतों और चार सौ बीसी के कारण। पत्रिका के विज्ञापन के लिए फोन कर वह कमिश्नर, डी.एम., विधायक, मंत्री कुछ भी बन जाता। खुद ही अला फला बनकर वह खुद ही की सिफारिश कर लेता। राय ने उसे एक बार टोका तो मधुकर कहने लगा, "किसे लूटता हूं? पूंजीपतियों को ही न?" वह बोला, "वह साले जनता को लूटते हैं, मैं उन्हें लूट लेता हूं, अपना हिस्सा ले लेता हूं। साहित्य के लिए खर्च करता हूं। कोई महल, अटारी तो खड़ा नहीं कर रहा?" कह कर वह सिगरेट के धुएं में खो जाता।
महेंद्र मधुकर रेलवे में क्लर्क था। पर बाहर वह अपने को अधिकारी ही बताता। और दफ्तर महीने में ज्यादा से ज्यादा दस दिन जाता। संजय पूछा, "काम कैसे चलता है?"
"चल जाता है। मधुकर लापरवाही से बोला।"
"फिर भी?"
"अरे पचास रुपए आजू, पचास रुपए बाजू की सीट वालों को दे देता हूं। साले, अपना काम बाद में करते हैं, मेरा काम पहले निपटा देते हैं। बस! और जाता हूं तो सालों को नाश्ता करा देता हूं, बॉस को कवि सम्मेलनों की वयस्तता बता कर, दो चार कविताएं सुना देता हूं।"
सचमुच संजय देखता, मधुकर हफ्तों कमरे में सोया रहता, अचानक शहर में निकलता और बताता कि, "अटैची उठी हुई थई।" और चार छह दूर दराज के शहरों के नाम गिनाते हुए कहता, "कवि सम्मेलन से आ रहा हूं।" जबकि वह कहीं नहीं गया होता। हकीकत में कवि सम्मेलनों में जाने के लिए हरदम बेताब रहता और बेशर्मी पर उतर आता। जिन-जिन कवियों को अपने संयोजकत्व वाले कवि सम्मेलनों में बुलाता उन्हें पलट कर चिट्ठी लिखता कि "अब आप मुझे बुलवाइए।" किसी-किसी को वो लिखता, "अगर आपको दस बार मैं बुलाता हूं को कम से कम तीन या चार बार आप भी हमको बुलवाइए।" इस पर भी बात नहीं जमती तो वह लिख देता, "तो अब आपको बुलाने के लिए हमें सोचना पड़ेगा।" और दिलचस्प यह कि ज्यादातर जगह उसकी दाल गल जाती। बाद में तो वह कवियों के तय पारिश्रमिक में से अपना कमीशन भी काटने लगा। कभी-कभी आधा से ज्यादा काट लेता। कई संकोची कवि सब कुछ जानते हुए भी चुप रहते। तो एकाध कवि अगर मुंह खोल भी देते तो वह कहता, "मालूम है आपका रेट क्या है और बाकी कवि सम्मेलनों में आप कितना पाते हैं? और उससे तो यह ज्यादा ही है।"
लोकल कवियों को वह मार्ग व्यय भी नहीं देता। कहता, "अभी टूटे नहीं है, बाद में ले लीजिएगा। कहीं भाग थोड़े ही जा रहा हूं"। और फिर उसका वह "बाद में" कभी नहीं आता। एकाध बेहया कवि फिर भी पीछा नहीं छोड़ते तो वह कहता, "ठीक है अगली बार से आप मत आइएगा।" वह कहता, "एक तो इनको मंच दो दूसरे ये सूदखोर की तरह पीछे पड़ जाएंगे। माफ करो भाई।"
कवि सम्मेलनों के मंच पर भी वह कवियों को अलग-अलग ढंग से पेश करता। वह जिसको चाहता उसकी तारीफ के पुल बांध देता, उसे राई से पहाड़ बता देता, नहीं हूट करवा देता। श्रोताओं में पांच सात हूटर वह हमेशा "तैयार" रखता। उसके पैसा मार लेने की आदत से कुछ कवि बहुत परेशान रहते। जैसे कि शेखर! शेखर भी रेलवे में क्लर्क था और कई बार मधुकर की काट वही बनता। पर उसे सलीका नहीं आता। और बड़ी जल्दी एक्सपोज हो जाता। पर मधुकर के स्तर पर आकर काटना वही जानता। जैसे कि एक बार कवि सम्मेलन में वह एक निरीह टाइप के कवि को लेकर पीछे श्रोताओं में पहुंच गया। बोला, "कवियों को चाय पिलाने भर का पैसा नहीं है। आप लोग कुछ चंदा दीजिए तो कवियों को चाय नसीब हो।" और पैसा वसूल लाया। उस सरकारी कवि सम्मेलन का संयोजक मधुकर था। उसकी बदनामी भी हुई और खिंचाई भी। बाद में शेखर अक्सर ऐसा करने लगा। तो मधुकर माइक पर ही एनाउंस कर देता कि कोई चंदा मांगने जाए तो उसे पकड़ कर मंच पर लाइए। इससे कवि सम्मेलन की शालीनता खत्म हो जाती। राय ने एक बार मधुकर से कहा कि, "शेखर को बुलाते ही क्यों हैं?" तो मधुकर धुआं उड़ाते हुए बोला, "वह साला भी तो दस कवि सम्मेलनों में बुलाता है।" उसने जोड़ा, "और शेखर साला इतना काइयां है कि न बुलाऊं तो भी आ जाएगा और मंच पर सीना फुला कर बैठ जाएगा। अब भगा तो सकता नहीं। आखिर सार्वजनिक मंच होता है।"
शेखर ही क्या मधुकर भी कई बार बिन बुलाए कवि सम्मेलनों ही क्या मुशायरों तक में पहुंच जाता। बस उन्हें सूचना होनी चाहिए कि कहां कवि सम्मेलन या मुशायरा है। दोनों ही के पास रेलवे का पास होता था। दोनों ही घर बार और नौकरी की चिंता से मुक्त रहते। कभी भी, कहीं भी जा सकते थे। दोनों रेलवे स्टेशन भी तड़े रहते। और जो कवि कहीं जा रहा होता तो उससे चिपक जाते। भले वह कवि सम्मेलन की बजाय कहीं और जा रहा हो। ज्यादातर कवि, कवि सम्मेलनों में जाना वैसे भी नहीं छुपाते थे।
कहीं से बुलावा आ जाता तो दस जगह बताए बिना, निमंत्रण पत्र दिखाए बिना उन्हें नींद नहीं आती थी। एक जगह बुलाए जाते, दस जगह जाना बताते। ऐसे ही एक बार शेखर रेलवे स्टेशन पर टहल रहा था। लखनऊ जाने वाली गाड़ी में पयाम दिख गया। शेखर समझ गया पयाम कहीं जा रहा है। धड़ उसके पास जा बैठा। बोला, "तो तुम लखनऊ चल रहे हो?"
"हां, उमर साहब की मेहरबानी है। और फिर लखनऊ का मुशायरा कौन छोड़ता है।" पयाम बोला।
"चलो सफर अब तनहा नहीं कटेगा।" शेखर बोला, "मैं भी वहीं चल रहा हूं।"
"जेहे नसीब!" कह कर पयाम ने आदाब बजाया।
"यार तुमको सुने बहुत दिन हो गए?" शेखर बोला, "कुछ नया हो तो सुनाओ।"
"हां, हां। शौक से।" पयाम चहका। और ताबड़तोड़ दो गजले सुना दीं।
"वाह खुब। बड़ी प्यारी गजलें हैं।" शेखर बोला, "जरा नोट करवा दो। मेरी एक शागिर्द रेडियो पर गाती है उसे गाने के लिए दे दूंगा।" पयाम ने दोनों गलजें खुशी-खुशी लिखवा दीं। अब अलग बात है कि पयाम को शायरी से वास्ता था पर गजल वह खुद कह नहीं पाता था। एक मुस्लिम मियां हलकी फुलकी गजलें दे दिया करते। पयाम का काम उसी से चल जाता। बाकायदा तरन्नुम में जब वह गजल पढ़ते तो यह कभी नहीं लगता कि उन्होंने नहीं लिखी होगी। और पयाम ही क्यों, ऐसे कई लोग थे संजय के उस शहर में, जिन्हें गजलें लिखने के बजाय तरन्नुम से पढ़ने में कहीं ज्यादा महारत हासिल थी। एक बार तो संजय दंग रह गया। एक ही रात एक जगह कवि सम्मेलन भी था और दूसरी जगह एक नशिस्त भी थी। दोनों ही जगह जाना था। कवि सम्मेलन के बाद वह जब "क्यों इशारों से बात करते हो, साफ कह दो कि हम तुम्हारे हैं" गुनगुनाता हुआ पहुंचा तो देखा कि यही गजल वहां एक दूसरे शायर साहबान पढ़ रहे थे। जबकि कवि सम्मेलन में एक दूसरे शायर यही गजल झूम कर पढ़ कर उसी के साथ नशिस्त में पहुंच रहे थे। नशिस्त जब खत्म हुई तो संजय ने हमदम से पूछा, "यह क्या माजरा है?" हमदम बोला, "जाने दो। क्या फायदा?" और जब संजय, "यह क्या माजरा है?" के एक ही मिसरे पर बड़ी देर तक लगा रहा तो अज्ञात बोला, "इन बेचारों की क्या गलती?"
"तो?"
"गलती तो उस्ताद की है जिसने एक ही गजल दोनों को दे दी।" लारी बोला।
"तुम्हें भी तो नहीं दे दी यही गजल उस्ताद ने?" अज्ञात ने चुटकी ली।
"क्या बकते हो?" कहता हुआ लारी वहां से खिसक गया।
बाद में अज्ञात कहने लगा, "आपको क्या लगता है दिन भर दर्जीगिरी, काज-बटन या जुलाहागिरी करने के बाद शाम को यह सब गजल भी लिख डालेंगे।" "क्यों, कबीर दोहा लिख सकते थे जुलाहागिरी करके तो कोई गजल क्यों नहीं लिख सकता? रैदास जूते सीकर भजन गा सकते हैं तो ये गजल क्यों नहीं गा सकते?" संजय बोला, "पर यह तो हद है। हम समझते थे हमारे यहां मधुकर, शेखर ही हैं। पर यहां तो पूरा का पूरा कुनबा ही। हद है।"
"बात यहीं तक हो तो गनीमत। अभी तो सवाल यह है कि उस्ताद ने भी कहां से मारके दी होगी?" हमदम बोला, "और यह मारा-मारी उर्दू में इतनी ज्यादा है कि मत पूछो। कोफ्त हो जाती है कभी-कभी।"
तो खैर उस बार शेखर ने पयाम की दोनों गजलें नोट कीं और लखनऊ के रेलवे स्टेशन से पयाम से विदा ली और कहा कि, "इंशा अल्ला मुशायरे में फिर मिलेंगे।"
"ठीक जनाब।" कह कर पयाम चल दिया।
रात को मुशायरे में पयाम समय से पहुंच गया और शेखर को ढूंढने लगा। पर शेखर नदारद। मुशायरा शुरू हो गया पर शेखर फिर भी नदारद। बीच मुशायरे में शेखर दिखा। मंच पर पहुंचा। दो चार लोगों से जबरदस्ती हाथ मिलाया, आदाब किया और ठीक-ठाक जगह देख कर बैठ गया। बैठे-बैठे एक परची पर मुशायरे के कनवीनर को चिट्ठी लिखी, "उमर भाई आदाब, लखनऊ एक काम के सिलसिले में आना हुआ था। वापस जा रहा था कि पता चला कि मुशायरा है और आप हुए हैं सो आप को सलाम करने आ गया। ठीक समझिए तो मुझे भी पढ़वा दीजिए। कुछ खर्चा बर्चा दिलवा दीजिएगा। और जरा जल्दी पढ़वा दीजिए। अभी रात की गाड़ी से ही वापस जाना है। रिजर्वेशन हो गया है।" उमर भाई संकोच में पड़ गए। न चाहते हुए भी उन्होंने तुरंत शेखर का नाम एनाउंस कर दिया। शेखर ने माइक संभाला और ताबड़तोड़ दो गजले पढ़ दीं। वह गजलें जो पयाम ने ट्रेन में सुनाई थीं। पयाम की तो हवा खराब हो गई। शेखर मुशायरे के बाद में गया। पर पयाम ने तुरंत चप्पल उठाई और खिसक लिया क्योंकि तीसरी गजल उसके पास थी नहीं। और जो दो थीं, वह शेखर पढ़ गया था। वापस जाकर पयाम मुस्लिम मियां से उलझ गया कि, "शेखर की गजलें क्यों दी हमें पढ़ने को?" मुस्लिम मियां के होश उड़ गए। बोले, "तो क्या वह दीवान उसके पास भी है क्या?"
"कौन सा दीवान?"
"जिसमें से गजल निकाल कर तुम्हें दी थी।"
"तो आपने गजल दी ही चोरी की थी।" कहता हुआ पयाम निकल गया, "मां चुदाएं आप और आपकी शायरी। मुझे नहीं बनना शायर!" बाद में पयाम छुटभैया नेता बन गया। और शेखर एक दिन ए.सी. में सफर करता हुआ टिकट चेकिंग में पकड़ा गया तो चेकिंग कर्मचारियों पर वह अंग्रेजी में डपट पड़ा। कहा कि, "मैं रेल मंत्री का पी.ए. हूं। तुम लोगों की हिम्मत कैसे हुई मुझे चेक करने की।" कर्मचारी सकते में आ गए। ऊपर के अधिकारियों को खबर दी कि रेलमंत्री के पी.ए. ट्रेन में हैं। अधिकारी उसकी आवभगत में पहुंचे। और शेखर की कलई खुल गई। वह जेल गया और उसकी नौकरी भी गई।
शहर के लोगों में तब यही चरचा थी कि देर सबेर मधुकर भी जेल जाएगा। पर मधुकर को ठीक से जानने वाले लोग जानते थे कि वह जेल जाने वाली नहीं जेल भिजवाने वाली चीज है। मौका बेमौका वह थाने के दरोगा तक के सम्मान में कवि गोष्ठी करवा डालता। दरोगा का सम्मान करवाता, छोटे-छोटे लोगों पर रौब डालता। विज्ञापन बटोरता, लेखक सम्मेलन करवाता, चंदा बटोरता, सरकार और प्रशासन से अनुदान लेता। मधुकर कवि सम्मेलनी कवियों और पत्रिकाओं में छपने वाले कवियों के बीच अजीब तालमेल बनाए रखता। कवि सम्मेलनों में जाता तो बाकी कवियों को हड़काता "साहित्य का आदमी हूं, खाली मंचीय नहीं।" और सिर्फ लिखने छपने वाले कवियों से कहता, "जनता से सीधा रिश्ता रखता हूं, छोटी-मोटी पत्रिकाओं के चंद छपे पन्नों का मोहताज नहीं हूं।" वह खुद पत्रिका निकालता ही था और जैसे कवियों से कहता कि "तुम हमें बुलाओ, हम तुम्हें बुलाएं" वैसे ही लघु पत्रिकाओं के संपादकों को उसी बेशर्मी से लिखता, "हम तुम्हें छापते हैं, तुम हमें छापो।" और मजा यह कि यहां भी वह ज्यादातर जगहों पर कामयाब रहता।
मधुकर कई बार जैसे कवि सम्मेलनों में वहीं बैठे कवियों की कविताएं पढ़ जाता था और पलट कर उस कवि से कह देता, "क्षमा कीजिए जरूरत पड़ गई थी।" उसी तरह वह छपने के लिए भी यहां, वहां कविताएं मार लेता। कई बार वह उर्दू की हिंदी, हिंदी की उर्दू भी कर डालता और किसी को पता भी नहीं पड़ता। कई बार वह नए कवियों की कविताएं भी ठीक करने के बहाने पार कर देता। उस नए कवि से कहता, "किसी काम की नहीं है तुम्हारी कविता।" और वही कविता कुछ दिन बाद थोड़े से रद्दोबदल के बाद में महेंद्र मधुकर नाम से छपी मिलती। कोई कवि अगर टोक देता, "कि यह तो मेरी ही कविता है।"
''तुम्हारी कविता कहां है?'' वह खीझता।
"पर बात तो वही है।"
"हो सकता है तुम्हारी वह बात कहीं जेहन में रह गई हो। और इस कविता में आ गई हो।" कह कर वह उसे टाल देता। अपनी पत्रिका में नए कवियों द्वारा भेजी गई ठीक-ठाक कविताएं भी वह जब तब पार कर दूसरी पत्रिकाओं में अपने नाम से छपवा डालता। कविताओं की पैरोडी भी वह बखूबी लिख डालता। बीच-बीच में उसको यह भी इलहाम होता रहता कि महाकवि होने के लिए "होमो सेक्सुअल" होना भी जरूरी है। फिराक निराला की वह गिनती कराता। और अपने होमो होने के किस्से भी जब-तब फैलाता रहता। वह कब किसके लिए क्या कह दे, कुछ पता नहीं होता। पिनक में जब वह आता तो शहर का ऐसा कोई कवि नहीं होता जिसको वह अपने "मार लेने" वाली सूची में दर्ज करने से छोड़ देता। कभी न कभी, किसी न किसी मौके पर वह हर किसी की मार चुका होता। चाहे वह बूढ़ा हो, जवान हो इससे उसको कोई फर्क नहीं पड़ता। कई बार इस फेर में वह बेइज्जत होता, पिट जाता पर आदत से लाचार वह फिर सबकी गिनती गिना जाता। कभी-कभी उसकी सूची शहर के हदें पार कर बंबई तक पहुंच जातीं और वह सुजीत कुमार से लगायत ऋषि कपूर तक के नाम गिना जाता। क्या तो तब वह उन्हें हिंदी सिखाता था। एक बार उसने हमदम, राय और संजय को भी "मार लेने" की फेहरिस्त में किसी से गिना दिया। हमदम बेचारा तो उदास हो गया। पर राय और संजय मधुकर पर सवार हो गए। बोले, "लो आज मेरी मारो। नहीं तो साले तुम्हारी गांड़ तोड़ दूंगा।"
"क्या कह रहे हैं! क्या कह रहे हैं आप लोग?" मधुकर हांफने लगा, "किसी ने बहका दिया है आप लोगों को।" कह कर वह माफी मांगने लगा। कहने लगा, "कवियों के साथ इस तरह का आचरण राम-राम!" हाथ जोड़ कर बोला, "पाप है पाप।"
"आइंदा हम लोगों के बारे में अगर कोई लूज टाक की तो हाथ पैर तोड़ के सड़क पर फेंक देंगे।" राय बोला, "बात यूनिवर्सिटी के लड़कों से कहने भर की देर है।"
"नहीं, नहीं।" वह बोला, "ऐसी कोई बात ही नहीं होगी।"
मधुकर ऐसी हरकतें फिर भी करता रहता, बेइज्जत होता रहता, पर वह अपनी आदत से बाज नहीं आता। वह रह-रह चोंगा भी बदलता रहता। कभी वह हिंदूवादी हो जाता, कभी कम्युनिस्ट बन जाता। जब जैसे मौका देखता चोंगा बदल लेता।
शहर के "प्रगतिशीलों" से वह हरदम सावधान रहता। और कहता रहता, "आप हमें यूं ही नहीं खारिज कर सकते।" इसी खारिज न होने की धुन में वह यकायक जनवादी बन गया। और शहर में जनवादी लेखक सम्मेलन आयोजित कर बैठा। कहानी से उसका कोई सरोकार नहीं था पर शहर के जनवादी हो चले क्योंकि को काटने की गरज से इस जनवादी लेखक सम्मेलन में उसने कहानी को ही केंद्रित किया। और बाहर के कई कहानी लेखकों और संपादकों को चिट्ठी लिख डाली। इत्तफाक से कई लोग आ गए। जिनमें दो-तीन नामी कहानीकार भी थे।
उसने बाहर से बुलाए लेखकों को आने-जाने का किराया, ठहरने आदि का आश्वासन दिया था। ज्यादा लोगों के आने से उसका बजट बिगड़ गया। उसको बिलकुल ही उम्मीद नहीं थी कि इतने सारे लोग आ जाएंगे। उसने सोचा था कि इस आयोजन के चंदे से कुछ बचा भी लेंगे। पर अब उसकी योजना पर पानी फिर गया था। वह बकबकाने लगा, "ये साले जनवादी बिलकुल भूखे ही होते हैं। जिसको देखो वही मुंह उठाए चला आ रहा है। जैसे और कोई काम ही नहीं सालों को।" एक लेखक ने सुन लिया तो मधुकर पर बिगड़ गया और सीधा अटैची उठा कर वापस हो गया। सम्मेलन खत्म होते न होते मधुकर सिर पर हाथ रख कर बैठ गया। क्या तो उसका रुपया चोरी हो गया है। कितना रुपया चोरी हुआ है, कब हुआ, ऐसी किसी बात का हिसाब मधुकर के पास नहीं था। उसके पास जैसे एक ही संवाद बाकी रह गया था, "रुपया चोरी हो गया।" जनवादी लेखकों की समझ में आ गया कि अपने ही किराए से वापस जाना है। ज्यादातर चले भी गए। पर कुछ तंबू गाड़ कर सो गए कि जब किराया मिलेगा, तभी जाएंगे। विवश होकर मधुकर को उन लेखकों को किराया देना पड़ा। किराया नहीं देता तो उनके रहने खाने का बिल देना पड़ता।
"आखिर किसने रुपया चुरा लिया?" संजय ने मधुकर से पूछा
"आपने ही चुराया होगा।" मधुकर बउराया।
"क्या कहना चाहते हैं आप?"
"आप ही और राय इस कमरे में बहुत आ जा रहे थे।"
"इसका क्या मतलब हुआ, हम लोगों ने रुपया चुरा लिया?" राय गरजा।
"नहीं मेरे बाप, रुपया मैंने ही चुरा लिया।" वह हाथ जोड़ता हुआ बोला, "अब आप लोग जाइए।"
"हद है।" कहता हुआ संजय मधुकर के कमरे से बड़बड़ाता हुआ निकला, "बड़ा गंदा आदमी है। लेखकों को किराया न देना पड़े इसलिए साला किसी को भी चोर कह देगा।"
"ऐसे गंदे आदमी की बात का क्या बुरा मानना।" हमदम बोला, "कौन इसकी बात का विश्वास करता है। सब जानते है कि मामला क्या है।"
"फिर भी।" कह कर राय उदास हो गया।
पर मधुकर था ही ऐसा। वह किसी को कभी भी कुछ भी कह सकता था। अपनी लड़की की शादी में भी वह ऐसे ही बोल गया था। हुआ यह कि वहां भी बाराती ज्यादा हो गए और कैंपा कोला की बोतलें कम पड़ गईं। उसने फौरन एक आदमी को और बोतलें लाने के लिए दौड़ाया और खुद बारातियों को संभालने में लग गया। पर बाराती कोई लेखक कवि तो थे नहीं, वह कहां मानने वाले, नहीं माने। मधुकर आजिज आ कर बोला, "एक छोटे से सुख की इतनी बड़ी सजा मिलेगी, नहीं जानता था।" समझने वाले समझ गए पर एक करुण रस के कवि की समझ में नहीं आया। बोले, "आपकी बात समझ में नहीं आई। सुख, सजा। क्या मतलब?"
"महाकवि जी, इतना भी नहीं समझे?" मधुकर बोला, "न बीवी के साथ सोता, न संभोग करता, न यह बेटी जनमती, न उसकी शादी होती, न मैं सजा भुगतता!" और मधुकर यह सब जोर-जोर से कहता रहा। कई लोग यह बात सुन कर सकते में आ गए, कई लोग शर्मा गए तो कई लोग बात टाल कर वहां से खिसक लिए। पर मधुकर चालू था, "एक छोटे से सुख की इतनी बड़ी सजा?" वह बोलता ही जा रहा था, "इतनी बड़ी कीमत?"
उस जनवादी लेखक सम्मेलन समाप्ति के दो दिन बाद मधुकर संजय के घर गया। बोला, "आप तो बुरा मान गए। अरे, वह तो नाटक था। ऐसा न करता तो वह जनवादी साले पिंड नहीं छोड़ते, चूस जाते साले पूरा का पूरा हमको।"
संजय काफी देर चुपचाप मधुकर की बातें सुनता रहा। और जब बहुत हो गया तो मधुकर से बोला, "अब बंद करिए अपनी नौटंकी। और चुपचाप यहां से दफा हो जाइए।" उसने जोड़ा, "आइंदा मेरे मुंह मत लगिएगा।"
"आप समझिए तो, आप समझिए तो।" कहता हुआ वह चला गया।
संजय फिर उससे कभी नहीं बोला। मधुकर ने दो तीन बार कवि सम्मेलनों के निमंत्रण भी भेजे पर वह फिर कभी उसके कवि सम्मेलनों में नहीं गया। बल्कि जिस कवि सम्मेलन में वह जाता, संजय वहां नहीं जाता। ऐसे ही एक बार एक कवि सम्मेलन में एक कवि को श्रोता अचानक "चोर-चोर" कहने लगे तो भी वह कवि महोदय कुछ समझ नहीं पाए और चुपचाप कविता पढ़ते रहे। पर जब "चोर-चोर" ज्यादा हो गया तब उन्होंने कविता पढ़ना बंद किया और श्रोताओं से पूछा कि, "आप चोर-चोर क्यों कह रहे हैं?"
"क्योंकि आप चोरी की कविता पढ़ रहे हैं।" श्रोताओं की ओर से किसी ने जवाब दिया।
"पर आप कैसे कह सकते हैं कि मैं चोरी की कविता पढ़ रहा हूं?" कवि ने जोड़ा, "आपको विश्वास दिलाना चाहता हूं कि यह कविता मेरी है और मेरे नाम से छपी हुई कविता है।" पर कवि महोदय की इस सफाई का श्रोताओं पर कोई असर नहीं हुआ। तो उक्त कवि ने कहा कि, "आप साबित कर दीजिए कि यह मेरी कविता नहीं है तो मैं मंच से नीचे आ जाऊंगा। और फिर कभी कवि सम्मेलन के मंच पर जिंदगी में नहीं चढ़ूंगा।"
"पिछले साल एक कवि आए थे, उन्होंने यह कविता सुनाई थी और आप की अपेक्षा बहुत अच्छी तरह सुनाई थी।" श्रोताओं में से एक व्यक्ति बोला।
"ओ हो!" कह कर संजय ने माइक संभाल लिया और श्रोताओं से पूछा, "कहीं उन कवि का नाम महेंद्र मधुकर तो नहीं?"
"हां-हां महेंद्र मधुकर ही नाम था उनका।" श्रोता बोले।
"आप लोगों की याददाश्त बहुत अच्छी है।" संजय बोला, "और इससे यह भी साबित होता है कि कविता के प्रति आप लोग काफी गंभीर हैं तभी आपको यह कविता साल भर बाद भी याद है। पर विश्वास मानिए यह कविता मंच पर खड़े इसी कवि की है। रही बात पिछले साल यही कविता पढ़ जाने वाले कवि की तो किसी पर व्यक्तिगत लांछन लगाना इस मंच से अच्छा नहीं लगता, मर्यादा टूटती है। बाकी आप सुधी श्रोता खुद ही समझदार हैं।" संजय कह कर बैठ गया। श्रोता समझ गए थे और "वही चोर था, वही चोर था" उच्चारने लगे।
मधुकर उन दिनों बड़ा परेशान रहता। पहली बार उसको अपने कवि होने के अस्तित्व को बचाए रखने की चिंता सताने लगी थी। कवि सम्मेलनों, पत्रिकाओं हर जगह से वह खारिज होता जा रहा था। ऐसे में उसे एक नई चाल सूझी। शहर में हैंड कंपोजिंग पर टेबलायड साइज में छपने वाले साप्ताहिक अखबारों में काम करने वाले पत्रकारों को उसने साधना शुरू किया। गाल पर हाथ रखे अपने फोटो का डबल कालम ब्लाक उसने अपने पैसे से बनवाया। और उन साप्ताहिक अखबारों में ब्लाक लगवा कर अपने फोटो सहित कविताएं छपवा कर सो पचास कापी उन अखबारों की लेकर यहां वहां बांटता फिरता। इन पत्रकारों को वह शराब की दावत पर बुलाता। वह एक बोतल देशी शराब की चार बोतल बना कर अंग्रेजी की बोतलों में भरता और इन नौसिखिया पत्रकारों को उसी से नशा आ जाता।
कुछ दिन बाद अलीगढ़ के जनवादी लेखक सम्मेलन में संजय ने मधुकर को देखा पर वह बोला नहीं। मौका देख कर मधुकर उसके पास आया और बुदबुदाया, "शहर का झगड़ा शहर में। यहां कुछ नहीं होना चाहिए।" हाथ जोड़ता हुआ वह बोला, "अपने शहर की बेइज्जती नहीं होनी चाहिए।" पर संजय कुछ नहीं बोला। पर मधुकर यहां भी अपनी आदत से बाज नहीं आया। तारादत्त निर्विरोध की एक गजल तोड़ मरोड़ कर कवि गोष्ठी में पढ़ गया। और उसकी बड़ी थू-थू हुई घबरा कर वह नीरज के यहां पहुंच गया और उसने, "शराब पिलाइए" कहने लगा। नीरज ने भी उसे उलटे पांव वापस किया। अंतत: सम्मेलन खत्म होने से पहले ही उसने ट्रेन पकड़ ली।
वापस आकर उसने अपनी कविता की किताब छपवाने की धुन लग गई। वह कहता था, "जब तक हाथ में किताब न आ जाए, तब तक कोई हमें नहीं मानेगा। बस एक किताब आ जाए तो एक-एक से निपट लूंगा।" और सचमुच उसने चंदा बटोर कर "अपनी" एक "कविता की किताब" छपवा ली। किताब का छपना था कि उस पर चोरी के आरोप लगने चौतरफा शुरू हो गए। पर उसको इसकी फिक्र नहीं थी। यह सब तो उसके लिए पुरानी बात हो गई थी। नई बात यह थी कि अब उसके हाथ में अपनी किताब थी, उसकी फोटो भी उसमें छपी थी। जिस-तिस को वह बुला कर अपनी किताब भेंट करता और कहता, "सहयोग राशि पांच रुपए दे दीजिए।" वह हर किसी से कहता, "आप से किताब के दाम तो ले नहीं सकता, आप मित्र आदमी हैं पर प्रोडक्शन कास्ट तो निकालनी ही पड़ेगी।" ज्यादातर लोग यह पांच रुपए की सहयोग राशि संकोचवश दे देते। पर कुछ घाघ किस्म के लोग किताब उलट-पलट कर देखते और उन्हें लगता कि पांच रुपए का सौदा महंगा है, वह पांच रुपए देने से इंकार कर देते। कहते, "अगर फ्री में दे दीजिए तो ठीक है।" पर तब तक मधुकर उस घाघ के हाथ से किताब छीन लेता और उस पर लिखा, "प्रिय फला को सप्रेम भेंट" भी उसके सामने किचकिचा कर काट देता। आफिसों के सामने वह वेतन बंटने की पहली तारीख को किताब लेकर खड़ा हो जाता। और सो पचास कापी बेच ही डालता।
मधुकर की किस्मत अब जैसे उसकी राह देख रही थी। उन्हीं दिनों शहर में जो नया कमिश्नर आया वह "कवि" भी था। मधुकर को यह बात पता चल गई। अपनी कविता की किताब और अपनी पत्रिका लेकर उससे मिलने पहुंच गया। कमिश्नर भी भुखाया कवि था। मधुकर ने उसकी कविता की भूखी नब्ज छू ली। जगह-जगह कमिश्नर के सम्मान में वह कवि गोष्ठी, कवि सम्मेलन करवाने लगा। मामला चूंकि कमिश्नर का था सो जिला प्रशासन का पूरा अमला लग जाता। धीरे-धीरे मधुकर ने कमिश्नर की कविताओं की किताब छापने का जिम्मा ले लिया। कमिश्नर की एक किताब छपी, दूसरी छपी, तीसरी छपी और चौथी किताब के साथ-साथ मधुकर ने अपनी भी दो किताबें छाप लीं। और कोई भी किताब दस हजार से नीचे नहीं छपी। हालत यह थी कि तब समूची कमिश्नरी के लेखपाल तक कविता प्रेमी हो गए। और वह कविता की किताब खरीद रहे थे, किताब बेंच रहे थे। यह सारा माजरा दिल्ली की एक पत्रिका में जब छपा और सीधे-सीधे कमिश्नर को रिपोर्ट में हिट करते हुए सवाल उठाया गया कि आज के दौर में जब बड़े से बड़े कवि का भी कविता संग्रह दो हजार से ज्यादा कोई प्रकाशक नहीं छापता और अव्वल तो कविता संग्रह की कोई नहीं छापना चाहता तो कमिश्नर साहब की कविता पुस्तकों की दस-दस हजार प्रतियां कैसे बिक जा रही हैं? रिपोर्ट में आरोप लगाया गया था कि कमिश्नर अपने पद का दुरुपयोग कर रहे हैं और उनके एक हम पियाला हम निवाला दोस्त इस सबका बेजां फायदा उठा रहे हैं।
मधुकर यह रिपोर्ट पढ़ कर इस बात पर नहीं नाराज हुआ कि यह रिपोर्ट क्यों छपी? उसकी नाराजगी इस बात को लेकर थी कि पूरी रिपोर्ट में उसका जिक्र तो था पर कहीं उसका नाम क्यों नहीं आया। उसे लगा कि उसे कमिश्नर से दूर करने की साजिश है। और उसने तुरंत पत्रिका के संपादक को चिट्ठी लिखी कि कमिश्नर का वह हम पियाला हम निवाला दोस्त कोई और नहीं मैं ही हूं। और रही कविता संग्रहों के दस हजार की संख्या में छपने और बिकने की बात तो हम लोगों की कविताओं में इतनी ऊर्जा है कि लोग खरीद रहे हैं और पढ़ रहे हैं। चिट्ठी छपी तो वह उस पत्रिका को लोगों को दिखाता फिरता और बताता कि, "देखो कमिश्नर मेरे दोस्त हैं।" और इसको भी उसने कैश किया।
पर इस सबके बावजूद महेंद्र मधुकर की चिंताओं का अंत नहीं था। उसकी नई चिंता अब पुरस्कृत होने की थी, सम्मानित होने की थी। उसने बड़ी दौड़ धूप की, बड़ा हाथ पांव मारा कि कम से कम उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का सबसे छोटा दो तीन हजार रुपए वाला पुरस्कार ही मिल जाए। पर वह हर बार असफल हो जाता। उलटे यूनिवर्सिटी के प्राध्यापक टाइप कवि, आलोचक यह पुरस्कार मार ले जाते। वह इस पर भी बड़बड़ाता और पछताता कि वह भी क्यों न यूनिवर्सिटी में प्राध्यापक हुआ? वह बड़बड़ाता, "ये विश्वविद्यालयी कविता एक दिन मर जाएगी। जिंदा रहेगी तो सिर्फ मेरी कविता।"
मधुकर की यह सारी बातें संजय के दिमाग में सिनेमा के किसी रील की तरह दौड़ गईं। रिक्शा धीरे-धीरे लाल बारादरी पहुंच गया था। सरोज जी रिक्शेवाले को डपट कर बोले, "रुको, हईं रुको।" तब जाकर कहीं संजय उसकी सिनेमा के रील से अलग हुआ। सरोज जी रिक्शे से उतरे, संजय भी उतरा। उतर कर रिक्शेवाले को पैसे देने लगा तो सरोज जी ने उसे रोक दिया। बोले, "आप क्यों दे रहे हैं, आयोजक देंगे।" कह कर उन्होंने लगभग चिल्ला कर एक आयोजक टाइप के व्यक्ति को बुलाया और कहा कि, "रिक्शे के पइसे दइ दीजिए।" उसने विनम्रता से सिर झुकाया और बोला, "एक मिनट में आया।" कह कर वह बारादरी के भीतर गया। और लौटा तो मधुकर उसके साथ था। मधुकर ने सरोज जी को देखा, रिक्शा देखा और जेब से पैसा निकाल कर दिया। अब तक उसने संजय को भी देख लिया था। उसके चेहरे पर घबराहट की रेखाएं फैल गईं। उसने उस गुलाबी मौसम में भी रूमाल से पसीना पोंछना शुरू कर दिया। पर संजय ने उसकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया। सरोज जी के पीछे-पीछे चल दिया। मधुकर दौड़ कर सरोज जी की अगवानी में आया।
बारादरी के ऊपर हाल में सम्मान समारोह आयोजित था। हाल बहुत ही छोटा था। बमुश्किल पच्चीस तीस कुर्सियों की जगह थी, और इतनी कुर्सियां लग भी गईं थीं। पहुंचने वालों में आयोजकों में सी तीन चार लोगों के अलावा सरोज जी पहले व्यक्ति थे। जिनके साथ संजय नत्थी था। आयोजकों में से मधुकर को छोड़ कर कोई भी उसे नहीं पहचानता था। हां, मधुकर भी यहां आयोजक ही था, अपने सम्मान समारोह के बावजूद। इंतजाम में लगा बझा मधुकर अचानक परेशान हो गया था। उसके चमचे उसकी परेशानी देख परेशान हो गए थे पर परेशानी का सबब वह नहीं जा पा रहे थे। मधुकर को सरोज जी के इतनी जल्दी आ जाने की उम्मीद नहीं थी। और साथ में संजय के आने की तो कल्पना तक नहीं थी उसे। सरोज जी की अगवानी में लगा मधुकर सरोज जी को किसी सामान्य कुर्सी पर बिठाने लगा। पर सरोज जी ने जैसे उसका निवेदन सुना ही नहीं कि, "यहां बैठिए।" सरोज जी ने मन ही मन मंच पर रखी खास अतिथियों की कुर्सी में से बीच की कुर्सी तजवीज की जो जाहिर तौर पर समारोह के अध्यक्ष की होनी चाहिए, और उसी पर जाकर धप्प से बैठ गए।
"अच्छा-अच्छा" कह कर मधुकर मुड़ा तो उसने देखा कि जिस कुर्सी पर वह सरोज जी को बिठाना चाह रहा था उस पर संजय बैठ गया था। वह तमतमाया संजय के पास आया और उसे घूरने लगा। शकल ऐसे बनाई जैसे वह पूछना चाहता हो कि, "तुमको यहां किसने बुलाया?" वह शायद यह पूछना भी चाहता था कि तब तक सरोज जी शायद माजरा समझ गए थे या कि औपचारिकतावश बोले, "यह संजय जी हैं, हमारे वरिष्ठ सहयोगी हैं, अऊर हम इन्हें लइ आए हैं हियां।"
"मैं इन्हें जानता हूं।" मधुकर बोला, "एक समय बड़ी उष्मा और ऊर्जा होती थी इनकी कविता में।" उसने जोड़ा, "बड़े होनहार कवि थे पर जाने क्यों आज कल लिखना छोड़ दिया है।" मधुकर फीकी मुस्कान बिखेरता हुआ बोला, "कि फिर शुरू कर दिया?"
संजय चुप रहा।
पर मधुकर चुप नहीं रहा। बोला, "कविताएं लिखना।"
संजय फिर भी चुप रहा।
मधुकर उसकी बगल की कुर्सी पर बैठ गया। पसीना पोंछता हुआ बुदबुदाया, "शहर का झगड़ा शहर में।" और जैसे उसने हिदायत दी, "यहां अपने शहर की बेइज्जती नहीं होनी चाहिए।"
संजय कुछ बोला नहीं। न ही मधुकर की ओर उसने देखा।
पर मधुकर जैसे आश्वस्त हो लेना चाहता था। बोला, "आप तो दिल्ली में थे। लखनऊ कबसे आ गए?" उसके स्वर में अतिशय विनम्रता टपक रही थी। संजय की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं पाकर वह उठ खड़ा हुआ। बोला, "कुछ भी हो अपने शहर की बेइज्जती नहीं होनी चाहिए।"
फिर वह माइक वगैरह के इंतजाम और चमचों को निर्देश देने में लग गया।
यहां मधुकर का जाल बट्टा काफी तीखा और चौकस था। उसका यह सम्मान समारोह पूरी तरह प्रायोजित तो था ही, प्रायोजक भी वह खुद ही था। छोटी और घटिया बुद्धि ही सही पर इसका इस्तेमाल उसने बखूबी किया था। पूरी योजना इतनी नियोजित थी कि यह समारोह प्रायोजित है इसकी गंध भी किसी को लगती नजर नहीं आ रही थी। संजय तो खैर सब समझ गया था। क्योंकि मधुकर एक बार ऐसा पहले शहर में भी कर चुका था। तब उसने सम्मान समारोह के बजाय अपनी किताब पर बहसनुमा गोष्ठी आयोजित करवाई थी। इसके लिए उसने एक संस्था गठित की। तीन चार नए कवि टाइप लड़कों को पकड़ कर उनको पदाधिकारी बना दिया। सो वह सब पूरे उत्साह से जुट गए। शहर भर के अनजाने साहित्यकारों को बटोरा। संस्था चूंकि नई थी मधुकर का लेबिल नहीं था, सो ज्यादातर लोग आ गए। पर आकर पछताए। अब चूंकि आ गए थे सो विवशता थी बैठने की। बैठ गए। और बोलने की बात हुई तो बोले भी। जैसी कि मधुकर की आदत थी कि किसी समारोह में वह होता जैसे-तैसे संचालक बनकर माइक वह थाम ही लेता। ऐसा उसने अपनी किताब वाली गोष्ठी में नहीं किया। बिलकुल निरपेक्ष बना बैठा रहा। पर जब उसने देखा कि कई लोग उसे धोने में लग गए। उसे कवि मानने और उसकी कविताओं को कविता मानने से इंकार करने लगे। कुछ ऐसे भी "होशियार" लोग थे जो यह कह कर निकलने लगे कि किताब यहीं देखने को मिली, पढ़ी नहीं है सो कुछ बोलना उचित नहीं हैं पर जब दो तीन लोग बार बार "कहीं से प्रेरित कविताएं" की स्थापना देने लग गए और एक आलोचक ने साफ कह दिया कि यह किताब कविताओं की हेरा फेरी की किताब है तब मधुकर से नहीं रहा गया। उछल कर माइक थाम लिया। और जिससे जो बुलवाना चाहा वही बुलवाया और बाकी लोगों को यह कह कर चुप करा दिया कि "कुछ लोग पूर्वाग्रहवश व्यक्तिगत रूप से मुझे बदनाम करने की सायास कोशिश कर रहे हैं। वह लोग इस गोष्ठी को उखाड़ने की नियत बना कर आए हैं। पर हम उनकी इस मंशा को कामयाब नहीं होने देंगे।" बात फिर भी नहीं बनी तो उसने चाय समोसे का जलपान शुरू करवा दिया। और दुनाकदारों को वहीं सबके सामने पेमेंट कर गोष्ठी के समापन की घोषणा खुद ही कर दी थी। सब लोग संस्था वालों को गाली देते हुए चले गए। तो एक आलोचक ने कहा, "उन बेचारे लड़कों का क्या कसूर, इसने उनका इस्तेमाल कर लिया।"
मधुकर ने यहां लखनऊ में भी वही सब किया था पर बड़े जतन और यत्न से। विद्रोही नाम के एक लड़के से एक संस्था गठित करवाई। अपने सम्मान की योजना बनाई। सम्मान समारोह में भीड़ कैसे जुटे? इसके लिए उसने लखनऊ के छोटे और मझोले कवियों, कलाकारों, रंगकर्मियों, पत्रकारों और नेताओं की भी एक सूची बनाई और इसमें से करीब पैंतीस, चालीस लोगों को सम्मानित करने के लिए नाम तय कर लिया। और सूची में शामिल पुरस्कृत लोगों से ही एक सौ इक्यावन, एक सौ एक, इक्यावन या इक्कीस रुपए सहयोग के नाम पर मांग लिया। जिसने यह सहयोग नहीं दिया उसका नाम काट दिया। और जिसने जैसा सहयोग दिया उसके लिए वैसा ही पुरस्कार, शील्ड, कप या फीता तय कर दिया। सम्मान और पुरस्कार के भुखाए यह लोग इसी से खुश थे। इस तरह धीरे-धीरे लाल बारादरी का यह छोटा सा हाल भर गया।
हाल तो भर गया पर समारोह के अध्यक्ष सरोज जी को छोड़ कर बाकी विशिष्ट अतिथि, उदघाटनकर्ता वगैरह अभी तक नहीं आए थे। मधुकर ने अतिथियों का इंतजाम भी अपनी ओर से बहुत ही पुख्ता किया था। हिंदी के नाम पर हर जगह पहुंच जाने वाले एक कैबिनेट स्तर के खाद्य मंत्री वासुदेव सिंह समारोह के मुख्य अतिथि और उदघाटनकर्ता के रूप में आमंत्रित थे। हिंदी संस्थान के उपाध्यक्ष सुमन जी और एक सांध्य अखबार के संपादक विशिष्ट अतिथि थे। लखनऊ के तब सबसे ज्यादा प्रसार संख्या वाले अखबार के सरोज जी समारोह के अध्यक्ष पहले ही से नामित थे। न सिर्फ नामित थे, समारोह में सबसे पहले पहुंच कर अध्यक्ष की कुर्सी पर आसीन भी थे। संजय ने देखा सरोज जी जबसे कुर्सी पर बैठे तबसे वह सिर झुका कर ही बैठे थे। और करीब एक घंटे से वह ऐसे सिर झुकाए बैठे थे जैसे किसी तपस्या में लीन हों। संजय बैठे-बैठे ऊब गया था। कि तभी हाल में जैसे हलचल सी हुई।
पता चला सांध्य अखबार के संपादक जी विशिष्ट अतिथि की हैसियत से पधार गए थे। सुनहरे बटनों वाला कुर्ता जाकेट पहने वह संपादक कम व्यापारी ज्यादा लग रहे थे। उनकी देह से सेंट ऐसे गमक रहा था, उनके हाव-भाव और मुसकुराने का अंदाज ऐसा था जैसे वह किसी सम्मान समारोह में नहीं, वहां मुजरा सुनने आए हों। इन संपादक महोदय को संजय पहले से जानता था। पहले ये संपादक महोदय दिल्ली में एक हिंदी समाचार एजेंसी में जनरल मैनेजर और संपादक थे। हिंदी समाचार एजेंसी बंद करवा कर अब वह लखनऊ में सांध्य अखबार के संपादक का दायित्व निभाने आ गए थे। महिलाओं पर हमेशा लार गिराने तथा संस्थानों को बंद कराने के लिए मशहूर यह संपादक महोदय भी पत्रकारिता जगत के मधुकर थे। इसलिए उन्हें यहां मुद्रा में देख कर संजय को जरा भी आश्चर्य नहीं हुआ। मधुकर की अगुवानी में अभी यह संपादक महोदय कुर्सी पर बैठे ही थे कि हिंदी संस्थान के उपाध्यक्ष सुमन जी भी आ गए। मधुकर लपक कर उनकी अगुवानी में लग गया। उसके चेहरे की चमक अचानक बढ़ गई थी। अब जब सुमन जी आए तो सरोज जी फिर भी सिर झुकाए तपस्वी मुद्रा में लीन थे, हर किसी से बेखबर। पर जब सुमन जी मंच के पास पहुंचे तो मधुकर ने सरोज जी को लगभग झिंझोड़ा। ऐसे जैसे वह नींद में हो। सरोज जी ने सिर उठाया, मंद-मंद मुसकुराए और चुप ही चुप जैसे पूछा कि "बात क्या है?"
"सरोज जी जरा सा इस कुर्सी पर आ जाइए।" हाथ जोड़ते हुए मधुकर धीरे से बोला। जवाब में सरोज जी ने खा जाने वाली नजरों से देखा पर बोले कुछ नहीं, न ही अपनी कुर्सी पर से उठे। संजय ने देखा, मधुकर का जैसे धैर्य चुक रहा था। उसने रूमाल से माथा पोंछा और फिर पूरी विनम्रता से हाथ जाड़ कर बोला, "सरोज जी प्लीज।" अबकी उसकी आवाज का वाल्यूम बढ़ गया। सरोज जी ने उसे फिर खा जाने वाली नजरों से देखा। संजय को लगा जैसे वह उसे कच्चा चबा जाएंगे। पर उन्होंने कुर्सी छोड़ी नहीं, उसी को उठा कर एक कुर्सी के बराबर खिसक गए। दरअसल सरोज जी इस बात से डर गए थे कि सुमन जी के आ जाने से कहीं उनकी अध्यक्षता तो खतरे में नहीं पड़ गई? ऐसा उन्होंने बाद में बताया। बहरहाल, मधुकर ने भी सरोज जी को अजीब नजरों से घूरा और पलट कर विद्रोही जो उस समारोह का घोषित "संयोजक" था, को ऐसा डपटा कि उसे वह बस झापड़ मार देगा। पर मारा नहीं, बोला, "कैसे-कैसे बेहूदे लोगों को बुला लिया !" कह कर उसने विद्रोही को आदेश दिया कि, "सरोज जी के बगल में कुर्सी पड़ी है उसे उठा लाओ।" विद्रोही थोड़ी झिझका तो मधुकर फिर डपटा, "कह रहा हूं कुर्सी उठा लाओ।" सींकिया काठी का विद्रोही जिसके अंग-अंग से विद्रोह फूट रहा था उसको यह सब अपमानित करने वाला लगा। वह मधुकर से तो कुछ नहीं बोला। पर लपक कर उसने अपने दूसरे चेले से कह कर सरोज जी के बगल वाली कुर्सी उठवा ली। सरोज जी की बगल वाली कुर्सी जब उठी तो सरोज जी ने मधुकर और विद्रोही को ऐसे देखा जैसे वह दोनों मिलकर उनकी दुनिया उजाड़ देना चाहते हों। वह जैसे अनाथ हो गए हों। सरोज जी की यह दशा और "प्रतिष्ठा" संजय को भी अच्छी नहीं लग रही थी। उसने देखा सरोज जी सचमुच बहुत लाचार लग रहे थे पर संजय की ओर देखने से भी कतरा रहे थे।
संजय मधुकर की विवशता भी देख रहा था। लाल बारादरी का वह हाल वास्तव में इतना छोटा था कि आने जाने की जगह छोड़ने के बाद चार कुर्सियां ही मंच पर लग पाई थीं। मधुकर को अंदाजा कतई नहीं था कि आमंत्रित चारों विशिष्ट अतिथियों में से चारों के चारों आ जाएंगे। उसको दो-एक के ही आने की उम्मीद थी। पर चार में से तीन आ चुके थे। और चौथे अतिथि मंत्री जी थे। मंत्री जी के भी आने की सूचना आ गई थी। पुलिस वाले अपनी ड्यूटी पर मुस्तैद थे। एक इंस्पेक्टर ने आकर बता दिया था कि वायरलेस पर संदेश आ गया है कि मंत्री जी घर से निकल चुके हैं। रास्ते में हैं। और कि बस यहां पहुंचने ही वाले हैं। विद्रोही माइक पर इस बात की घोषणा भी बार-बार कर रहा था। तो तीन विशिष्ट आ चुके थे। चौथे मंत्री जी आ रहे थे। और मंच पर कुर्सी थी सिर्फ चार। मधुकर की सारी परेशानी यही थी। क्योंकि अतिथियों के साथ मंच पर वह खुद भी बैठना चाहता था। उसका वश चलता तो सरोज जो को मंच से उतार देता। क्योंकि चारों विशिष्ट अतिथियों में न सिर्फ सबसे गरीब, निरीह और कम जोर बल्कि बेकार भी उसे सरोज जी ही लग रहे थे। पर कहीं वह नाराज होकर समारोह की गरिमा नष्ट न कर दें इसी चिंतावश उन्हें मंच से उतारने के बजाय मंच पर एक पांचवी कुर्सी लगवाने की जुगत में मधुकर लगा हुआ था। इसी जुगत में, रणनीति में उसने एक दूसरे चमचे को बुलाया और निर्देश दिया कि सरोज जी को थोड़ा किनारे खिसकाओ। उसने जाकर बिना किसी मुरौव्वत के सरोज जी की कुर्सी किनारे खिसकवा दी। और मधुकर ने अपनी पांचवीं कुर्सी मंच पर न सिर्फ रखवा ली, बगल की कुर्सी भी मंत्री जी के लिए खाली रखवा ली। ताकि वह फोटो में मंत्री जी के बगल में नजर आए। पर मंत्री जी के आने में लगातार विलंब होता जा रहा था। इस विलंब से एक व्यक्ति को छोड़ कर समारोह में उपस्थित सभी उकता रहे थे। पर विद्रोही माइक पकड़ कर लगातार अपने ही को स्थापित करने में डटा पड़ा था। वह माइक पर जैसे जूझ गया था। संजय ने देखा, मधुकर को विद्रोही की यह अदा बिलकुल ही अच्छी नहीं लग रही थी। और वह रह-रह कर बैठे-बैठे पीछे से विद्रोही का कुरता पकड़ कर खींच लेता। कुरता खींच कर मधुकर जैसे उसे संकेत दे रहा था कि, "अपना यह प्रलाप बंद करो।" मधुकर और विद्रोही का यह प्रसंग मंच और मंच से नीचे सभी देख रहे थे। पर विद्रोही न यह सब देख रहा था, न समझ रहा था, उलटे जब बहुत हो गया तो वह माइक उठा कर दो कदम आगे बढ़ गया। इस तरह मधुकर की पहुंच से बाहर होकर वह अपने को स्थापित करने में जी जान से जुट गया।
मधुकर कुढ़ कर रह गया।
संजय यह सब देख-देख कर उकता सा गया था। वह वहां से खिसक लेने की सोच ही रहा था कि मंत्री जी आ गए। सभी उठ खड़े हुए। पर संजय बैठा रहा। सब लोग बैठ गए। सरोज जी की छटपटाहट अब देखने लायक थी। मंत्री जी की बगल में बैठने को हालांकि हर कोई लालायित था। सुमन, संपादक जी, सरोज जी और मधुकर खुद। पर सबसे ज्यादा छटपटाहट सरोज जी के चेहरे पर थी। सरोज जी अपनी कुर्सी से उठे भी। उधर लपके भी। पर तब तक मंत्री जी को मधुकर अपनी बगल में आसीन करा चुका था। इस अफरा-तफरी में सुमन जी भी पिछड़ गए और मंत्री जी की दूसरी बगल वाली कुर्सी में संपादक जी फिट हो गए। तब जब कि अभी तक सुमन जी उसी कुर्सी पर बैठे हुए थे। वह मन मार कर संपादक जी की पुरानी कुर्सी पर बैठे। सरोज जी के बगलगीर बन कर। पर इस पूरे उठा पटक में सबसे ज्यादा नुकसान में सरोज जी ही रहे। उनकी कुर्सी अब बिलकुल हाशिए पर खिसक क्या खिसका दी गई थी। और जरा संभल कर नहीं बैठते सरोज जी तो नीचे भी लुढ़क सकते थे। पर सरोज जी जरा नहीं पूरा संभल कर बैठ गए थे। क्योंकि अब समारोह के अध्यक्ष का नाम घोषित होने का समय आ गया था। और जैसा कि तय था सरोज जी सचमुच अध्यक्ष घोषित कर दिए गए। सरोज जी अपना छोटा सा सीना फुला कर जो जीता व ही सिकंदर का भाव चेहरे पर चिपका कर ऐसे बैठे जैसे उनके आगे वहां सभी बौने हों। माल्यार्पण शुरू हो गया था। मंत्री जी से माल्यार्पण शुरू होकर मधुकर से होते हुए सबसे आखिर में माला सरोज जी तक पहुंची तो शायद उन्हें अपनी हीनता का एक बार फिर एहसास हुआ। माला भी उन्हें अपेक्षतया छोटी ही मिली। पर मिली, इस भर से उन्होंने संतोष कर लिया। माला पहनते ही सबने माला उतार दी थी। पर सरोज जी ने माला आखिर तक नहीं उतारी। वह पहने रहे। अब हालत यह थी एक तरफ समारोह के अध्यक्ष सरोज जी थे, माला पहने हुए। दूसरी तरफ समारोह का संचालक विद्रोही था, माइक लिए हुए। दोनों में जैसे मुकाबला हो रहा था कि कौन ज्यादा "ठेंठ" है। कौन ज्यादा "ढींठ" और "हया प्रूफ" है। जाहिर है कि सरोज जी ही अंतत: सफल साबित हुए। क्योंकि विद्रोही विद्रोही पर उतर आया कि कुछ भी हो जाए माइक नहीं छोड़ेंगे। तभी मधुकर अपनी सीट पर से उठा और पीछे से उसके कान में बोला, "अब मुझे आमंत्रित करो" तो जैसे विद्रोही तुरंत कुछ समझ नहीं पाया और मंत्री जी के स्वागत में अपना कवितामय भाषण बीच में ही छोड़ कर बोल पड़ा, "आदरणीय मधुकर जी का आदेश है कि अब मुझे आमंत्रित करो तो मैं अब उन्हें सादर आमंत्रित करता हूं।" सुन कर सब के सब हंसने लगे। और विद्रोही बिना कुछ समझे कि लोग क्यों हंस रहे हैं टिप से खुद भी हंस पड़ा। पर माइक उसने नहीं छोड़ा और बोला, "हां तो मैं कह रहा था" वह अभी यह बोल ही रहा था कि मधुकर, "सब कुछ तुम्हीं बोल डालोगे तो मैं क्या बोलूंगा" कहते हुए घसीट कर उससे माइक छीनता हुआ शुरू हो गया, "प्रात: स्मरणीय...." और फिर जितने विशेषण, अलंकरण उसे याद आए वह बड़ी देर तक बोलता रहा, "हिंदी के धूमकेतु, हिंदी के वो, हिंदी के ये" और सब सारे विशेषण, अलंकरण वह दो-दो, तीन-तीन बार मंत्री जी के सम्मान में बोल चुका पर उनका नाम उसकी जबान पर फिर भी नहीं आ पाया तो माइक पर हाथ लगाकर, सिर झुका कर वह मंत्री जी से ही पूछ बैठा, "क्षमा कीजिएगा, आपका नाम क्या है?" पूछा मधुकर ने धीरे से था पर माइक जरा ज्यादा सेंसिटिव था उसने यह सवाल सबको सुना दिया। मंत्री जी का काला-काला चेहरा तमतमा कर सुर्ख हो गया। मारे गुस्से के वह लाल हुए जा रहे थे कि इसी बीच संपादक ने इलायची चबाते हुए उनका नाम उच्चार दिया, "वासुदेव सिंह जी!" तो मधुकर ऐसा उछला जैसे गावसकर ने सिक्सर मारा हो, "हां, तो वासुदेव सिंह जी!" कह कर वह फिर उनके यशोगान में लग गया। पर मंत्री जी को अब कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। वह दो तीन बार उठने को उद्धत हुए पर बैठ-बैठ गए। पर उनके बैठने का रंग उड़ गया था। ढंग बदल गया था। पर मधुकर उनकी वंदना में मुक्तक पर मुक्तक पढ़े जा रहा था। अंतत: जब बहुत हो गया तो मंत्री जी मधुकर की बीच "वंदना" में बोल पड़े, "मेरे पास ज्यादा समय नहीं है, मुझे जाना है।" कहते हुए वह उठ खड़े हुए, "अब मुझे आज्ञा दीजिए!" मधुकर की जैसे हवा सरक गई। वह हकबका गया। पर धैर्य उसका कायम था। हाथ जोड़कर बोला, "पर कृपा करके पुरस्कार वितरण करते जाइए।"
"बहुत विद्वान लोग बैठे हैं।" मंत्री जी ने संपादक और सुमन जी को इंगित किया, "पुरस्कार वितरण आप लोगों से करा लीजिए।"
"बस ज्यादा नहीं दस मिनट का समय और दे दें।" मधुकर हाथ जोड़ता हुआ बोला।
"अब इन लोगों का मन रख लीजिए।" संपादक ने भी विनती की। मंत्री जी मान गए। पर मधुकर की जाहिलियत से समारोह का रंग उतर चुका था।
पुरस्कार वितरण शुरू हुआ। सबसे पहले उस समारोह का सबसे बड़ा पुरस्कार महेंद्र को मिला-मुक्ति बोध पुरस्कार। उसने अपने लिए एक शील्ड बनवा रखी थी और दो हजार एक रुपए का एक बैंक ड्राफ्ट। बैंक ड्राफ्ट वह जेब से निकाल कर विद्रोही को दे रहा था कि वह मंत्री जी को दे दे उसे देने के लिए। इस तरह जो भद हुई वह तो हुई ही पर जो नहीं जानता था वह भी जान गया कि पुरस्कार समारोह पूरा का पूरा न सिर्फ प्रायोजित है बल्कि खुद के लिए खुद के द्वारा आयोजित है। खैर, धड़, धड़ पैंतीस-चालीस लोगों के नाम विद्रोही ने कुछ इस तरह पुकारे जैसे वह लोग किसी बच्चे की तरह मेले में खो गए हों और माइक पर एनाउंसमेंट किया जा रहा हो कि उनके अभिभावक आकर उन्हें ले जाएं। खैर, पुरस्कारों के अभिभावक आ-आ कर अपने-अपने पैसे की शील्ड, कप और फीता मय प्रमाण-पत्र को ले गए। पुरस्कार वितरण के बाद यह हुआ कि सभी विशिष्ट अतिथि दो-दो शब्द बोल दें। संपादक जी का नंबर पहले आया वह मौके की नजाकत देखते हुए पारंपरिक शब्दावली को दुहरा कर सभी पुरस्कृत लोगों को बधाई देकर दो मिनट में ही बैठ गए। सुमन जी जैसा वक्ता भी जो घंटे दो घंटे से कम बोलना नहीं जानता था बस बधाई देकर एक दो बार बाल झटक कर ऐसे बैठ गए जैसे इस समारोह में आकर उसने बहुत बड़ा गुनाह कर दिया हो। ऐसी शर्मिंदगी सुमन जी के चेहरे पर संजय ने कभी नहीं देखी थी। मंत्री जी ने भी अपना नंबर आने पर सबको बहुत-बहुत बधाई दी, आयोजकों को धन्यवाद कहा और समारोह से अचानक चल पड़े। मंत्री जी क्या चले, सभी उनके पीछे चल पड़े। आखिर में मंच पर सिर्फ सरोज जी बैठे रह गए। शायद अपने अध्यक्षीय भाषण की बारी जोहते हुए। और दर्शकों में संजय बैठा रह गया था सरोज जी को जोहते हुए। इतना होने पर भी सरोज जी सिर धंसाए बैठे हुए थे। उनके इस धैर्य को देख कर दंग ही हुआ जा सकता था। और वह बड़ी देर तक इस तरह बैठे-बैठे जोहते रहे कि अध्यक्षीय भाषण तो उनका होगा ही। लोग लौट कर आएंगे ही। पर लौट कर कौन आने वाला था, यह संजय जानता था। वही मधुकर, विद्रोही और उसके दो तीन चेले, चमचे। यही आए भी। सरोज जी से विद्रोही ने कहा, "अच्छा दादा, आशीर्वाद देने के लिए आप आए, बहुत-बहुत शुक्रिया।"
सरोज जी चुप।
"अच्छा दादा चला जाए।" थोड़ी देर रुक कर जब विद्रोही बोला तो सरोज जी उठ खड़े हुए। वह उठे ऐसे जैसे कोई उनका सारा कुछ लूट ले गया हो। वह खड़बड़-खड़बड़ चल कर नीचे आए। विद्रोही उन्हें नीचे तक छोड़ने आया। नीचे आने के बाद वह नमस्कार कर जाने लगा तो सरोज जी का धैर्य जैसे चुक गया, उनकी अपमान कथा जैसे पूरी हो गई। वह चिल्लाए, "रिक्शा पर तो बइबाइ देव!"
"हां दादा, बुलाते हैं रिक्शा।" विद्रोही ने जोड़ा, "चिल्लाते क्यों हैं?" कह कर उसने अपने दूसरे चेले से रिक्शा लाने को कहा। बड़ी देर बाद वह एक खटारा सा रिक्शा लेकर आया। सरोज जी रिक्शे पर बैठ गए। और संजय से खीझते हुए बोले, "आप भी बैठ जाइए।" संजय भी जब रिक्शे पर बैठ गया और रिक्शा वाला चलने लगा तो सरोज जी फिर चीखे, "रुको।"
"का बात है?" रिक्शा वाला भी उसी टोन में चीखा।
"जवन तुमका बुलाइ लाए हैं, उनसे आपन पइसा भी मांग लेव।"
"तब उतरौ तुम, हम जाते हैं।" रिक्शे वाले ने घुड़पा।
"अच्छा, अच्छा तुम चलो। पैसा हम देंगे।" संजय बोला।
"बड़ा बेशर्म हैं सब।" सरोज जी बोले, "आप ठीक ही कहि रहे थे कि आदमी ठीक नहीं है।" उन्होंने जोड़ा, "बताइए भला कहीं अध्यक्षीय भाषण के बिना भी समारोह होता है?" लगा जैसे वह अभी रो पड़ेंगे। पर उसने देखा, माला उनके गले में अभी भी पड़ी हुई थी।
"मैं तो पहले ही आप से कह रहा था कि मत चलिए।" संजय बोला।
"हां, आपका कहना मान लेना चाहिए था।" सरोज जी कहने लगे, "कोई साहित्यिक संस्कार था ही नहीं उसमें।" कह कर उन्होंने माला गले से निकाल कर कुरते की जेब में रखी। और वह रिक्शे पर बैठे-बैठे जैसे सो गए। संजय भी चुप रहा। रिक्शा खटर-पटर चलता रहा।
पर दूसरे दिन सरोज जी जैसे सारा अपमान पी गए थे। उन्होंने संजय को अपनी केबिन में बुलाया और कहा कि, "कल के समारोह की रिपोर्ट बना दीजिए।"
"कौन सा समारोह?" संजय अचकचा गया।
"वही कल का पुरस्कार समारोह, सम्मान समारोह।" सरोज जी सहज होकर बोले। पर संजय असहज हो गया। और बिना बोले वह सरोज जी को घूरने लगा।
"साहित्यिक समारोह था। भूल जाएइ बाकी सब कुछ।" सरोज जी बोले, "दो पैरा ही बना दीजिए।" वह रुके, "बोले, आखिर मंत्री आए थे। खबर तो है ही।"
"पर मैंने तो कुछ भी नोट भी नहीं किया।" संजय टालते हुए बोला।
"यह कार्ड ले लीडिए। और याददाश्त के आधार पर बना दीजिए।" सरोज जी अनुरोध के लहजे में बोले।
"बना तो दूंगा।" वह बोला, "पर जो-जो घटा था सब कुछ जस का तस!" संजय उत्तेजित हो गया।
"अरे नहीं। वह सब नहीं।" सरोज जी बोले, "बस एक औपचारिक सी खबर बना दीजिए।"
"मैं नहीं बनाऊंगा।" संजय सख्त होकर बोला, "चाहे आप बुरा मानिए चाहे भला।" उसने जोड़ा, "फिर आपका इतना अपमान हुआ। तब भी आप खबर बनाने को कह रहे हैं। पर मैं एक लाइन नहीं लिखूंगा।" कह कर
संजय उनकी केबिन से बाहर निकल आया।
रात को वह जब दफ्तर से चलने लगा तो सरोज जी ने फिर उसे बुलाया। वह उनकी केबिन में पहुंचा तो सरोज जी बोले, "वह बेचारे सब फिर आए थे। गलती के लिए माफी मांग रहे थे। मेरे पैर गिर पड़े।" वह जैसे संजय को टटोलते हुए बोले, "मैंने माफ कर दिया।"
"पर मैं खबर नहीं लिखूंगा।" संजय बोला।
"ठीक है, मैं ही आपकी ओर से लिख देता हूं।" कह कर सरोज जी लिखने में लग गए।
संजय घर चला गया।
दूसरे दिन संजय अखबार में उस पुरस्कार समारोह की लंबी चौड़ी रिपोर्ट देख कर चकित रह गया। रिपोर्ट सरोज जी के अध्यक्षीय भाषण से शुरू हुई थी, और उनका अध्यक्षीण भाषण भी काफी लंबा था, बाकी रिपोर्ट भी बिलकुल "हरी-हरी" थी। हेडिंग भी सरोज जी के अध्यक्षीण भाषण पर ही थी।
दफ्तर आकर वह सरोज से भिड़ गया, "यह सब क्या है सरोज जी।"
सरोज जी कुछ नहीं बोले।
"पर आपका तो वहां अध्यक्षीय भाषण भी नहीं हुआ था। इतना अपमानित किया गया आपको वहां और आप फिर भी?"
"जो बात वहां नहीं कह पाए, वह यहां अखबार में कह दी।" सरोज जी सहज भाव से बोले, "वहां सिर्फ पैंतीस चालीस लोग सुनते, यहां हजारों लोग पढ़ेंगे। मतलब जो अपनी बात लोगों तक पहुंचाने से है।" कह कर सरोज जी बोले, "मुझे एक इस्टोरी लिखनी है। अब आप जाइए।"
शाम को उस सांध्य अखबार के संपादक जी सरोज जी से भी दो कदम आगे निकल गए। सांध्य अखबार में चार कालम की उस पुरस्कार समारोह की बड़ी सी फोटो छपी थी। जिसमें मंत्री जी मधुकर को शील्ड दे रहे थे और संपादक जी मंत्री जी को निहार रहे थे। पूरे फोटो में मंत्री जी और मधुकर गौड़ थे, संपादक जी, फ्लैश हो रहे थे। फोटो के साथ छपी खबर में यहां संपादक जी का भारी भरकम वक्तव्य था और खबर की हेडिंग भी संपादक जी के वक्तव्य से ही लगाई गई थी। बाद में हमदम ने बताया कि मधुकर ने इस पुरस्कार समारोह की बड़ी-बड़ी रिपोर्टेंमय फोटो के अपने शहर के अखबारों में भी छपवाईं।
मधुकर और उस सांध्य अखबार के संपादक का मामला तो फिर भी समझ में आता था। पर सरोज जी तो बाकायदा अपमानित हुए थे। सम्मान सहित अपमानित।
[अपने-अपने युद्ध उपन्यास से । पूरा उपन्यास पढ़ने के लिए नीचे कमेंट बाक्स में दिए गए लिंक पर क्लिक करें । ]

सावन में ज़ब याद आये / सुधेन्दु ओझा


यूँ ही........(सावन में जब याद तुम्हारी आई)

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यूँ ही....सावन में जब याद तुम्हारी आई

बेताबी थी
तुम आओगी
बढ़ती गई परछाईं
तुम नहीं आई ।

एक सुगंध
जो पहचानी थी
मिलने हम से आई
तुम नहीं आई ।

आम्र पत्तियां
द्वारे लटकीं
वन्दनवार पर
आंखें अटकीं
अभिनन्दन की
ऋचा भी गाई
तुम नहीं आई ।

विस्मृतियों के
पृष्ठों पर बिखरी
छवि सामने
फिर से उतरी
मन प्रांतर में
झंकृत हो गई
मीठी सी शहनाई
तुम नहीं आई ।

तुलसी हँसी
नीम हर्षाया
प्रथम प्रहर
कागा चिल्लाया
दांयीं पलक लेती रह गई
बार-बार अंगड़ाई
तुम नहीं आई ।

पाहुन घर आएगा अपने
आंखों में उतरे सब सपने
मरी पड़ी आशाओं में
चेतनता लहराई
तुम नहीं आई ।

विश्वास नहीं कि
छल जाओगी
बोला था कि
कल आओगी
बुरा समय आया तुम
नहीं पड़ीं दिखलाई
तुम नहीं आई!!!!

सुधेन्दु ओझा
9868108713/7701960982

शनिवार, 25 जुलाई 2020

सपने / डॉ. प्रियंका सोनी प्रीत


🌹 नाबालिग सपने🌹

अंगों के थिरकन की भाषा ये मौन है,
अधरों के कंपन को समझे वो कौन है।
डरती हूं इस धड़कन की धड़क से,
प्रेम हुआ मुझको ये समझेगा कौन है।

बचपन की देहरी पर आ गई जवानी है
अल्हड़ नदी से मुझमें आई रवानी है।
बह जाऊं संग तेरे मन यही चाहे रे,
यौवन का पंछी अब करता किल्लोल है।

अधरों के कंपन को समझे वो कौन है।

सांसों की कोयलियां प्रीत गीत गाए रे,
सोंधी- बयार मुझे हर पल महकाए रे।
बाहों में तेरी बिन पंख उड़े जाती हूं,
सतरंगी सपने सजे मेरे रोम रोम है।

अधरों के कंपन को समझे वो कौन है।

भंवरों की गुनगुन अब रस घोले कान में,
मस्ती में झूंमू जब मिल के आऊं जान से।
कैसे खोल दूं मैं दिल के गहरे सारे भेद रे,
मीठे लगे आलिंगन बाकी सब गौड़ है।

अधरों के कंपन की भाषा ये मौन है।

नाबालिग सपने हैं प्यार बहुत गहरा,
प्राण हुए बगिया कांटो का इसपें पहरा।
मनभावन पिया संग फूलों में बस जाऊं,
शहद जैसे लगने लगे प्रेम भरे बोल हैं।

प्रेम हुआ मुझको यह समझेगा कौन है।

नर्तकी सा नाचे मन जब से छुआं ये तन,
जेठ की दुपहरियां में भी खिल गया यौवन।
सपनों की सेज सजी मिलन अब पास है,
साजन की बाहों में शब्द हुए मौन है।

अंगो के थिरकन की भाषा ये मौन है,
अधरों के कंपन को समझे वो कौन है
डरती हूं इस धड़कन की धड़क से,
प्रेम हुआ मुझको ये समझेगा कौन है।

डॉ प्रियंका सोनी "प्रीत"

भले दिनों की बात हैं / अहमद फ़राज़


'भले दिनों की बात है ,भली सी एक शक्ल थी
न ये कि हुस्न-ए-ताम हो , न देखने में आम सी

न ये कि वो चले तो कहकशाँ सी रहगुज़र लगे
मगर वो साथ हो तो फिर भला भला सफ़र लगे

कोई भी रुत हो उसकी छब , फ़ज़ा का रंग-रूप थी
वो गर्मियों की छाँव थी, वो सर्दियों की धूप थी

न मुद्दतों जुदा रहे , न साथ सुब्ह-ओ-शाम हो
न रिश्ता-ए-वफ़ा पे ज़िद , न ये कि इज़्न-ए-आम हो

न ऐसी ख़ुश-लिबासियाँ , कि सादगी गिला करे
न इतनी बे-तकल्लुफ़ी , कि आइना हया करे

न इख़्तिलात में वो रम , कि बद-मज़ा हों ख़्वाहिशें
न इस क़दर सुपुर्दगी , कि ज़च करें नवाज़िशें

न आशिक़ी जुनून की , कि ज़िंदगी अज़ाब हो
न इस क़दर कठोर-पन , कि दोस्ती ख़राब हो

कभी तो बात भी ख़फ़ी , कभी सुकूत भी सुख़न
कभी तो किश्त-ए-ज़ाफ़राँ , कभी उदासियों का बन

सुना है एक उम्र है , मुआमलात-ए-दिल की भी
विसाल-ए-जाँ-फ़ज़ा तो क्या,फ़िराक़-ए-जाँ-गुसिल की भी

सो एक रोज़ क्या हुआ ,वफ़ा पे बहस छिड़ गई
मैं इश्क़ को अमर कहूँ ,वो मेरी ज़िद से चिढ़ गई

मैं इश्क़ का असीर था ,वो इश्क़ को क़फ़स कहे
कि उम्र भर के साथ को ,वो बद-तर-अज़-हवस कहे

शजर हजर नहीं कि हम , हमेशा पा-ब-गिल रहें
न ढोर हैं कि रस्सियाँ ,गले में मुस्तक़िल रहें

मोहब्बतों की वुसअतें ,हमारे दस्त-ओ-पा में हैं
बस एक दर से निस्बतें ,सगान-ए-बा-वफ़ा में हैं

मैं कोई पेंटिंग नहीं कि इक फ़्रेम में रहूँ
वही जो मन का मीत हो उसी के प्रेम में रहूँ

तुम्हारी सोच जो भी हो ,मैं उस मिज़ाज की नहीं
मुझे वफ़ा से बैर है ,ये बात आज की नहीं

न उस को मुझ पे मान था ,न मुझ को उस पे ज़ोम ही
जो अहद ही कोई न हो तो क्या ग़म-ए-शिकस्तगी

सो अपना अपना रास्ता हँसी-ख़ुशी बदल दिया
वो अपनी राह चल पड़ी मैं अपनी राह चल दिया

भली सी एक शक्ल थी, भली सी उसकी दोस्ती
अब उसकी याद रात दिन नहीं, मगर कभी कभी'

अहमद फ़राज़

शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

एक दुर्लभ संवाद




प्रख्यात आलोचक एवं कवि विजय कुमार की वाल से साभार ।

तीन रचनाकारों के बीच एक दुर्लभ संवाद

                     * विजय कुमार

क्या  साहि्त्य की अन्दरूनी राजनीति , गॉसिप , शिविर बंदियां,  छोटी मोटी सफलताएं , उपलब्धियां,  यश , पुरस्कार , सम्मान , आत्म -तुष्टियाँ  , गुरुडम  आदि कभी भी साहित्य का अंतिम सच बन सकते  हैं ? या फिर इनके  बरक्स एक कृतिकार का परिवेश, उसका प्रेरणाएं , उसका  आत्म -संघर्ष  , उसके असंतोष और विकलताएं और इस सबसे होकर गुज़रती उसकी कला के   विकास की चर्चाएं  कोई वास्तविक अर्थ रखती हैं ?     जब भी प्रतिभशाली रचनाकारों के बीच सृजन की दुनिया को लेकर   कोई आपसी ,ईमानदार और अंतरंग बातचीत हुई हैं , उसने  हमें मथा है। बहुत सारे विचार सूत्रों ,  किसी मूलगामी खोज और भटकन  में डूबी हुई ऐसी चर्चाएं ही कोई अर्थ रखती  है। ‘ पल प्रतिपल ‘ का ‘का नया अंक   तीन कथाकारों पर केन्द्रित एक अनूठा विशेषांक है , जिसमें समकालीन कहानी के तीन महत्वपूर्ण हस्ताक्षर मनोज रूपड़ा,  योगेंद्र आहूजा और ओमा शर्मा अपनी एक आपसी लंबी बातचीत में अपने अपने  जिए हुए जीवन ,  अनुभवों के कच्चे माल ,अपने परिवेश  और अपनी  अपनी रचना प्रक्रियाओं   की जो   तफसील  पेश करते हैं , और उसे पढना बेहद दिलचस्प है ।    इस आत्मीय , विचारोत्तेजक और लगभग 150 पृष्ठों में फैली हुई खुली गपशप  में  ये तीन रचनाकार  बेहद निजी और सार्वजनिक , भीतर और बाहर , पास पडोस और समग्र संसार  , अतीत और वर्तमान , उम्मीद और हताशाओं से भरी  सृजन की एक जटिल   दुनिया के तमाम  मुद्दों को खंगाल रहे हैं।  अंतरंग बातचीत का ऐसा मटेरियल अब लघु पत्रिकाओं में लगभग दुर्लभ है । मैं इस लम्बे संवाद को पढता रहा और और उसमें डूबता उतराता रहा । यहां सारे मुद्दों का बखान ज़रूरी  नहीं , स्मृति में जो अटका रह गया , उसके मात्र कुछ बिन्दु पेश  हैं।

कितना दिलचस्प है इस बात को जानना कि  मनोज रूपड़ा  जैसा एक कथाकार छत्तीसगढ के दुर्ग शहर  के  एक मिष्ठान विक्रेता  के  परिवार में जन्म लेता है । दुकानदारी के इस परिवेश और  परिवार में पढ़ने लिखने की कोई  परंपरा नहीं। छठी कक्षा के बाद उसकी पढ़ाई भी छूट जाती है । फिर जीवन के कुछ संयोग  ऐसे बनते हैं कि वह किसी रंग शिविर के पोस्टर से आकर्षित होकर उसमें हिस्सा लेता है । और स्कूल के बाहर की एक बड़ी दुनिया उसकी पाठशाला बन जाती है ।  उसका वह जादुई यथार्थ से भरा यह   बहु पर्तीय संसार, उसका संघर्ष और उसकी जिज्ञासाएं, उसकी अन्तदृष्टि  और लगन  ।   वह हिंदी के एक महत्वपूर्ण कथाकार के रूप में विकसित होता जाता है । और वह न अपने उस पैतृक व्यवसाय को त्यागता है न अपना लेखकीय जुनून । अपना सारा महत्वपूर्ण लेखन वह उस मिठाई की दुकान पर बैठकर ही करता है। एक बहुपर्तीय जीवन और एक विलक्षण अनुभव संसार, बहुत सारे चरित्रों  और घटनाओं का सूक्ष्म अध्य्यन ।  ।एकदम नई विषय वस्तु और कुछ  रचने की अदम्य  आकांक्षा । समय के साथ उसके लिये एक नई दुनिया खुलती  जाती है । मिठाई की दुकान में  फालतू पड़े    कागज- पन्नों ,  छोटे-मोटे बिलों , पर्चियों के   पीछे के हिस्से  में  किया गया वह लेखन उस नौजवान  को हिन्दी का एक सफल कथाकार बनाते चले जाते हैं ।  एक लंबी यात्रा।  आज वह अपने समकालीनों के साथ विश्वभर के साहित्य पर अपनी गहरी अंतर्दृष्टि से भरी महत्वपूर्ण राय प्रस्तुत कर रहा है।
80 और 90 के दशक का वह समयजब मध्यप्रदेश में प्रगतिशील लेखक संघ  और हिंदी साहित्य सम्मेलन के वर्कशॉप और शिविर हुआ करते थे ।  कमला प्रसाद ,स्वयं प्रकाश, भाऊ समर्थ , भगवत रावत और हबीब तनवीर  जैसों से उस नवयुवक मनोज रूपड़ा की वह सोहबत और मार्गदर्शन। उस सबसे  जन्मा एक नवोदित लेखक का वह विकसित होता लेखन संसार। मनोज रूपड़ा   बताते हैं के नाट्य शिविर में हबीब तनवीर साहब पाँच -पाँच और छह - छह  घंटों तक लगातार बोलते रहते थे और उन सात  दिनों के शिविर में वे जो कुछ भी कहते थे वह अपने आप में एक महान नाट्यशास्त्र की तरह होता था । लेकिन हिंदी का दुर्भाग्य केवल उसकी कोई रिकॉर्डिंग नहीं हुई । अगर उसे रिकॉर्ड किया जाता तो स्तानिस्लावस्की    के बाद हबीब तनवीर का नाम दुनिया के सबसे बड़े नाटक विशेषज्ञ के रूप में दर्ज हो जाता।
इस बातचीत के दो अन्य सहभागी कथाकार ओमा शर्मा और योगेंद्र आहूजा शिक्षित मध्यमवर्गीय परिवारिक पृष्ठभूमि से आते हैं । ओमा शर्मा ने दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से अर्थशास्त्र की पढाई की  । जे.एन.यू .से अर्थशास्त्र में   एम  फिल. किया।  युनिवसिटी में कुछ समय पढाया फिर भारत सरकार की राजस्व सेवा   में आ गये । आर्थिक विषयों पर लिखते लिखते  संयोग से उनका झुकाव  हिंदी में कथा लेखन की ओर हुआ  । योगेंद्र आहूजा  का परिवार विभाजन की त्रासदी को झेलता हुआ पेशावर से 300 किलोमीटर दूर डेरा इस्माइल खान नामक शहर से भारत आया  था। और उनका जन्म विभाजन के बाद हुआ।  बचपन नैनीताल के काशीपुर में बीता । शिक्षा दीक्षा के बाद बैंक की नौकरी में  रहे।  उत्तर प्रदेश के विभिन्न स्थानों पर नौकरी की। बहुत सूक्ष्म स्तरों पर  एक खास तरह के ‘ विस्थापित  ‘  आउटसाइडर का मनोजगत और पिछली पीढियों से जाने महसूस किये गये एक कठिन अतीत की  स्मृतियाँ ।     तीन कथाकारों के तीन विकास क्रम और अपने विशिष्ट अनुभव संसार। उनके बीच की तमाम बातें जिसमें उनके बचपन का समय, साहित्य की ओर झुकाव , आसपास  की दुनिया,  रचना प्रक्रियाएं , विषय वस्तु की प्राथमिकताएं, रुचियां आदि भी  किसी हद तक एक दूसरे से अलग हैं। उनके बीच की सहमति और असहमतियाँ  महत्वपूर्ण हैं। एक दूसरे के प्रति जिज्ञासाएं  महत्वपूर्ण है। और महत्वपूर्ण है वह अंतरंगता जिसमें किसी विषय पर दूर तक कुछ खोजने  का एक ‘ पैशन ‘ को जी रहे हैं वे ।वे  एक दूसरे की कुछ चर्चित कहानियों पर बातचीत कर रहे हैं , उनमें कुछ अंतर सूत्र ढूंढ रहे  हैं , अपने पूर्ववर्ती रचनाकारों के सृजन संसार का विश्ले्ष्ण कर रहे  हैं  और इस सबसे होते हुए  अपने इस जटिल  और बहुपर्तीय  समय के भीतरी पर्तों  में उतर रहे हैं ।

सबसे महत्वपूर्ण है तीनों के बीच हुए इस संवाद में यह जानना कि एक सतत विकल लेखक के लिये उसकी प्रारम्भिक  सफलता, उसे मिली पाठकीय स्वीकृति , आलोचकों की  प्रशंसा  और पत्र पत्रिकाओं , संपादकओं आदि के दुलार  का कोई अर्थ नहीं होता। उसके लिये सर्वाधिक महत्वपूर्ण वह  विकलता , वह ‘वह दबाव क्षेत्र है जिसने उसे लेखन संसार की ओर प्रवृत किया । आजीवन वह अपनी इस ‘ इनोसेंस ‘ कोहर कीमत पर बरकरार रखना चाहता है ।  हर नयी  रचना में उसे अपनी यात्रा एक ‘ शून्य ‘ से आरम्भ करनी होती है ।

मनोज रूपड़ा  कहते हैं साहित्य में स्वीकृति और सफलता  का जो मामला है वह कई बार आपको बहुत आत्ममुग्ध भी कर देता है । बुनियादी रूप में लेखक के भीतर एक आत्म संशय होना चाहिए। इसमें कुछ भी नया लिखते हुए डर का होना बहुत जरूरी है अगली हर रचना के समय भीतर की आशंकाएं और अनिश्चितताएं अपनी बहुत बड़ी भूमिका अदा कर रही होती  हैं। अगर आप ख्याति को ध्यान में रखकर आगे बढ़ेंगे तो वह बहुत आपको आगे नहीं ले जाएगी । कोई भी मुकाम किसी लेखक को मिलता है तो वह सिर्फ उसके लेखन से मिलता है।  बाकी सारी जितनी भी गतिविधियां है वह साहित्य से हटकर है । मूल रूप से साहित्य से आपका जो लगाव है ,लिखने का जो मामला है वह वहीं तक होना चाहिए।
ओमा शर्मा कहते हैं कि ‘ हंस ‘ में छपी अपनी एक कहानी पर प्रारंभिक प्रशंसा और थोड़ी सी मान्यता हासिल कर लेने के बाद अचानक वे विश्व स्तर के कुछ   रचनाकारों की कालजयी कृतियों से परिचित हुए और उन्हें यह लगा के छोटी मोटी सफलताओं का कोई अर्थ नहीं है। वे कहते हैं जब मैंने जर्मन लेखक स्टीफन स्वाइग  और विश्व के दूसरे कुछ बड़े लेखकों को पढ़ा तो मुझे लगा कि मुझे जो थोड़ी बहुत कामयाबी मिली थी उसका तो कोई अर्थ ही नहीं था । मैं तो साहित्य के उस विश्वविद्यालय में प्राइमरी के विद्यार्थी जैसा था । और मुझे अपनी मान्यता और सफलता का जो थोड़ा सा मुगालता हुआ था उसे वक्त ने ऐन वक्त बेरहमी से पंछीट  दिया और मेरी उस लेखकीय आत्म मुग्धता  की लबादे के चिथड़े उड़ गए ।
योगेंद्र आहूजा कहते हैं साहित्य में लेखक की शिद्दत और समूची चेतना के नियोजन के अलावा से सब कुछ अवांतर है । स्वीकृति मिल रही है या नहीं आपकी कहानियों पर रिसर्च  हो रही है या नहीं , कितनी समीक्षाएं आ गईं  यह हिसाब रखना  बेहद अश्लील है।

 बहुत दिलचस्प बातें इन तीनों के संवाद में उभरी हैं। यह तीनों रचनाकार शीत युद्ध के बाद की दुनिया में विकसित हुए है। योगेंद्र आहूजा का यह कथन बहुत दिलचस्प है कि  बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में  शीत युद्ध की राजनीति का  जो भी पक्ष रहा  हो हमारे लिए यह उसका सकारात्मक पहलू था कि हमें अपने शुरुआती दौर में महान रूसी साहित्य की कृतियां  नाम मात्र के मूल्य  पर उपलब्ध हुई।  गोगोल तुर्गनेव , दॉस्तोयव्स्की  , टॉलस्टॉय , गोर्की , चेखव , मायकोव्स्की  हमें  सहज ही पढ़ने को उपलब्ध  हो गए । यह हमारे विकास क्रम का एक महत्वपूर्ण्पहलू था और आज की युवा पीढी संसार में उस समय के महौल से लगभग अनजान है ।

इस संवाद में ये तीनों लेखक विभिन्न सहवर्ती कलाओं के आपसी रिश्तों  , संसार की महत्वपूर्ण फिल्मों,   देसी विदेशी संगीत,  लोक संगीत और चित्रकला आदि के बारे में बहुत दिलचस्प बातें कर रहे हैं । इस बातचीत में न तो कला रुचियों के किसी अभिजात्य  का प्रदर्शन है  , न ही जानकारियों का कोई बड़बोलापन ।  इस बात को जानना भी कितना दिलचस्प हैकि  एक लेखक को  यदि बड़े गुलाम अली खां , आमिर खां  , भीमसेन जोशी , गंगूबाई हंगल, मल्लिकार्जुन मंसूर  पसंद हैं   और यदि वह पश्चिमी संगीत की बारीकियों पर बात कर रहा है तो साथ ही उसे गजलें,  कजरी , चैती,  दादरा , ठुमरी या कव्वालियां भी पसंद करता है । वह अनिल विश्वास,  पंकज मलिक, एसडी बर्मन से लेकर नौशाद , सी.  रामचंद्र , ओपी नैयर , मोहम्मद रफी ,तलत महमूद और हेमंत कुमार आदि के बारे में  भी उतनी ही पैशन के साथ बातें कर रहा है । ओमा शर्मा का चित्रकार एम. एफ. हुसैन से सम्पर्क रहा । वे कला में मौलिकता , प्रसिद्धि  और   बाजार के रिश्तो पर कुछ बेहद महत्वपूर्ण बातों  को रखते हैं ।
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तीनों प्रबुद्ध कथा कारों की इस बातचीत में  लेखक की पक्षधरता  , किसी उपलब्ध संसार के सम्मुख लेखक के  किसी प्रति-संसार  या ‘ काउंटर वर्ल्ड को रचने की बातें,  जेनुइन  और संवेदनशील कलाकार के इस समाज में  ‘ आउटसाइडर ‘ होने की एक अनिवार्य स्थिति,  कला के सवाल,  कृति की संरचनागत विशिष्टताओं , शिल्प और कथ्य के सम्बन्धों ,विचारधाराओं और सर्जना के द्वन्द्वात्मक  रिश्तों  , प्रतिबद्धता के आशय और कला में उसके रूपायन की  जटिलताएं , कला में स्वायत्त्तता का सवाल   , आत्म संघर्ष के  सवाल  ,ईमानदारी, अवसाद , अकेले होते जाने की पीड़ा और आत्म हनन की स्थितियों से जुड़े तमाम ऐसे मुद्दे उभरे हैं  जो हमारे आज के   तथाकथित ‘ सफल’  लेखकों की बातचीत में प्राय सुनने नहीं मिलते। कहना ना होगा की  हमारे इस बाजार उन्मुख सफलता कामी लेखकीय  संसार में  कलाकार के भीतर की किसी  वास्तविक  विकलता  का एक बड़ी हद तक क्षरण भी हुआ है।  योगेंद्र आहूजा मनोज रूपड़ा  और ओमा शर्मा की इस बातचीत में  स्टीफन स्वाइग, काफ्का, मुक्तिबोध , निर्मल वर्मा आदि के संदर्भ कलाकार के आत्म संशय से जुड़े विमर्श का केंद्रीय तत्व बनकर उभरते हैं ।

लॉक डाउन में इधर वेब सेमिनारों का प्रचंड तूफान आया हुआ है । वाचिक ज्ञान की ‘ स्मार्ट ‘ सुनामी में सारे कूल किनारे प्रतिदिन टूट रहे  हैं । श्रोता बेचारा क्या करे ? मोबाइल को ‘ स्विच ऑफ ‘ कर कुछ देर  के लिये त्राण  पाये ।  ऐसे में ‘ कोरोना पूर्व युग’  की एक पत्रिका में यह छपी हुई बातचीत बेहद बेहद महत्वपूर्ण है और लम्बे समय तक हमारी स्मृतियों में रहेगी ।  कुल मिलाकर यह बातचीत इसलिये भी महत्वपूर्ण है कि वह विश्विद्यालयीन ‘ साहित्यवाद ‘ से मुक्त है और न उसमें  पत्रकारिता के लोकप्रिय लटके – झटके हैं । यह इस  बात का भरोसा दिलाती है कि मुक्त विचार यात्राएं अभी भी संभव हैं ।    इसमें समाज,  राजनीति , अर्थ  जगत,दर्शन , संस्कृति , मनोविज्ञान , साहित्य आदि  के एक दूसरे से जुड़े हुए वे तमाम सूत्र  दिखाई देते हैं जिनका एक विस्तृत और  अनिवार्य संदर्भ आज हमारे बीच उपस्थित है। नई-नई शक्लों में ।

तीनों कथाकार लगभग एक ही पीढ़ी के हैं, किसी भी अकादमिक संस्थान के बंधे बंधाए ढर्रे के बाहर है।  इसलिये द्बाव मुक्त  हैं।  इसलिये  उनके भीतर एक सख्य भाव है। मुद्रा, जेस्चर , सिनिसिज़्म , आत्म तुष्टि   और  अपने स्व के आरोपण का उनके लिए कोई मतलब नहीं है। यहाँ जिज्ञासाएं  हैं और प्रति- प्रश्न भी । बहस है और आत्मीयता भी। वे एक दूसरे से सहमत है और एक दूसरे से विनम्र असहमत भी।

क्या कोरोना काल का आक्रामक ‘ वेब कल्चर ‘ बाकी सारी संभाव्यताओं को लील जायेगा ?

या

 शायद ‘कोरोनोत्तर काल’  में    हमारी लघु पत्रिकाएं रचनाकारों के बीच इस तरह के आत्मीय विचारोत्तेजक संवाद की ओर लौटेंगी  ।
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बुधवार, 22 जुलाई 2020

जोकर काम पर / देवेंद्र कुमार


(—कहानी-)
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सड़क पर काम चल रहा है।  सड़क का एक हिस्सा नीचे धंस गया है।  शायद नीचे पानी की पाइप लाइन फट गई है।  गड्ढा खोदकर उसे घेर दिया गया है।  लोहे के बोर्ड लगा दिए हैं, जिन पर लिखा है-‘ सावधान, आदमी काम पर हैं। ’ इसलिए वहां सड़क संकरी हो गई है।  ट्रैफिक को नियंत्रित करने के लिए वहां सिपाही रामभज की ड्यूटी लगा दी गई है।
दोपहर में एक घंटा काम बंद रहता है।  एक दोपहर वह लौटा तो देखा एक मजदूर बोर्ड पर कुछ लिख रहा है-‘ आदमी’ शब्द पर कागज चिपका कर उस पर ‘जोकर’ लिख दिया गया था।  रामभज ने पढ़ा –‘जोकर काम पर’ – ‘’यह क्या है?’’ उसने पूछा।  जवाब में एक मजदूर ने कहा- ‘’मैने सही ही तो लिखा है, हमारे बीच एक जोकर मौजूद है। ‘’ और उसने अपने एक साथी की ओर इशारा किया। जिसे जोकर कहा गया था वह उठ कर रामभज के पास आ खड़ा हुआ।  उसने कहा- ‘’जी, पेशे से मैं जोकर हूँ।  लेकिन सर्कस बंद हो गया और मैं बेरोजगार।  जब जहाँ जो भी काम मिलता है वही कर लेता हूँ। ’’  छोटे कद और दुबले शरीर वाला वह आदमी कहीं से भी तो सर्कस के जोकर जैसा नहीं लग रहा था।  रामभज ने फिर पूछा –‘’ क्या तुम सच में सच कह रहे हो!’’
“जी। -“-- ज़वाब आया।  उस का नाम डेविड था।
रामभज  बोला-‘’ अगर तू जोकर है तो वही करतब दिखा जो सर्कस में दिखाया करता था।’’
‘‘लेकिन मेरे पास जोकर की पोशाक तो अब है नहीं। ’’ डेविड बोला।
‘‘कोई बात नहीं तू जोकर के करतब दिखा। ’’--रामभज हंस रहा था।
डेविड ने रामभज का डंडा थाम लिया और कुछ देर तक खामोश खड़ा रहा। एकाएक उसने   डंडा हवा में उछाला और फिर लपक कर पकड़ लिया।  तब उसके दोनों पैर हवा में थे।  फिर उसने गोल गोल घूमते हुए डंडे को कभी इधर तो कभी उधर उछालते हुए उसे हवा में अधर रखा, और हर बार जमीन पर गिरने से पहले ही दुबारा लपक लिया।  वह बड़ी कुशलता से अपने करतब दिखा रहा था।  उसका बदन रबर की तरह लचकीला दिख रहा था।  डेविड ने डंडे को एक बार फिर हवा में काफी ऊपर उछाल दिया और खुद भी उछला उसे हवा में पकड़ने के लिए,  फिर न जाने क्या हुआ – डंडा फुटपाथ पर आ गिरा और डेविड गड्ढे में।
1
डेविड के दो साथी तुरंत गड्ढे में कूद गए।  रामभज भी झुक कर मदद करने लगा।  डेविड गड्ढे की तली में पीठ के बल पड़ा था। उसे बाहर निकाल कर पटरी पर लिटा दिया गया।  वह बेहोश था।  रामभज पछता रहा था कि काश उसने डेविड से खेल दिखाने को न कहा होता। उसने वहां से गुज़रती हुई एक कार को रोका फिर कई मजदूरों ने डेविड को सीट पर लिटा दिया।  रामभज ने ड्राईवर से हॉस्पिटल चलने को कहा।  साथ में डेविड के दो साथी भी थे।  डॉक्टर ने डेविड को देखा और उसे एडमिट कर लिया ।  डॉक्टर ने कहा कि डेविड को ठीक होने में कई दिन लगने वाले थे।  डॉक्टर ने दवा का परचा रामभज को थमा दिया। केमिस्ट की दुकान अंदर ही थी। दवाओं का बिल काफी ज्यादा था। रामभज की जेब में उतने पैसे नहीं थे।  उसने केमिस्ट से कहा_ ‘‘मैं बाकी पैसे अभी लाकर देता हूँ। ’’
डेविड का एक साथी रामभज के साथ हॉस्पिटल में ही रहा।  रामभज सोच रहा था कि अब क्या करे?  डेविड की मां गाँव में रहती थी।  अब जो करना था उसे ही करना था।  इलाज महंगा था, लेकिन डेविड को इस हालत में बेसहारा तो नहीं छोड़ा जा सकता था।  डेविड के साथी ने कहा - ‘’अब क्या होगा।  हम लोगों के पास तो पैसे एकदम नहीं हैं।  रामभज ने उसके कंधे पर हाथ रख दिया_’’ चिंता मत करो।  कुछ न कुछ इंतजाम तो होगा ही। ’’
सुबह ड्यूटी से पहले हॉस्पिटल जाकर डेविड का हालचाल लिया।  डॉक्टर से बात की।    डेविड के एक साथी से रामभज ने हॉस्पिटल में ही रहने को कहा_’’ काम की चिंता मत करो, अभी डेविड की देख भाल ज़रूरी है।  बाकी मैं संभाल लूँगा। ’’ वहां से वह ड्यूटी पर आ गया। आगे क्या होगा अभी इसकी कल्पना मुश्किल थी।  तभी दिमाग में एक विचार आया।  वह कुछ पल बोर्ड की ओर देखता रहा जिस पर ’जोकर काम पर’ लिखा था.उस पर  नया कागज़ चिपका कर उस पर लिख दिया_ ‘जोकर घायल है।  उसे मदद चाहिए। ’
यह लिख कर रामभज ड्यूटी में व्यस्त हो गया।  तभी वहां एक कार आकर रुक गई।  कार से उतर कर एक आदमी रामभज के पास आया।  उसने कहा_’’ यह जोकर का क्या मामला है?’’ रामभज ने संक्षेप में पूरी बात बता दी।  “ अस्पताल में दवाओं की दुकान मेरी ही है’’। -- उसने कहा। मैं मदद करूंगा। ” कह कर वह चला गया। रामभज शाम को ड्यूटी निपटा कर उस आदमी से मिला।  उसने डेविड के लिए दवाएं आधी कीमत पर देने का वादा किया।  बोला_’’ आप आधी कीमत भी बाद में चुका देना।“
2
रामभज को इसकी आशा नहीं थी।  यह तो चमत्कार ही हो गया था।  एक बड़ी चिंता दूर हो गयी थी। अब डेविड की तबियत में काफी सुधार  था।  कुछ दिन बाद उसे हॉस्पिटल से छुट्टी मिल गई।  वह ख़ुशी का दिन था।  डेविड फुटपाथ पर कुर्सी पर बैठा था।  रामभज और डेविड के साथी आसपास खड़े हंस रहे थे।  रामभज मिठाई लाया था।  जिस गड्ढे में डेविड जा गिरा था उसे  भर दिया गया था।  सड़क की मरम्मत हो चुकी थी।  डेविड के साथी कहीं और काम कर रहे थे।
‘’ अब क्या इरादा है?’’ ‘रामभज डेविड से पूछ रहा था।
‘‘सोचता हूँ गाँव चला जाऊं माँ के पास।  उन्हें चिंता  हो रही होगी। ’’
‘’हाँ, यही ठीक रहेगा। ’’- रामभज ने कहा।  डॉक्टर ने डेविड को कुछ दिन आराम करने की सलाह दी थी।  रामभज डेविड को उसके गाँव छोड़ आया।  डेविड को सही- सलामत देख कर उसकी माँ बहुत खुश हुई। डेविड की माँ की साधारण झोंपड़ी थी पर साफ़ सुथरी।  आगे फूल लगे थे और पीछे फलों के पेड़ और साग-- भाजी की क्यारियाँ।  डेविड की माँ सब्जी बेच कर गुज़ारा करती थी।  पहले डेविड शहर से पैसे भेज दिया करता था, लेकिन सर्कस बंद होने से मुश्किल बढ़ गई थी।
रामभज समझ गया कि डेविड को जल्दी ही कोई काम-धंधा करना होगा।  चलते समय उसने डेविड से कहा-‘’ कुछ दिन आराम कर लो फिर शहर आ जाना।  कुछ तो हो ही जाएगा। ’’ रामभज को तसल्ली थी कि एक बड़ी आफत दूर हो गई।  घर जाकर वह पत्नी को डेविड के बारे में बताने लगा,  तभी उसका बेटा रजत वहां आ गया।  डेविड के बारे में सुन कर बोला-‘’ पापा, हमारे स्कूल की बस रोज वहाँ से गुज़रती है जहां बोर्ड पर जोकर के बारे में लिखा हुआ है।  हमारी क्लास ने जोकर भाई के लिए कुछ पैसे जमा किये हैं।  हम वह पैसे उन्हें देना चाहते हैं। ’’
‘’ लेकिन डेविड तो मैं  उसके गाँव छोड़ कर आ रहा हूँ। ’’ पिता की यह बात सुनकर रजत कुछ देर चुप रहा फिर बोला-‘’ तब उन पैसों का क्या करें?’’
रामभज समझ नहीं पा रहा था कि रजत से क्या कहे।  अगले दिन स्कूल से लौटने के बाद रजत ने रामभज को बताया कि प्रिंसिपल सर ने कल उसे मिलने के लिए बुलाया है।  रामभज जाकर रजत के प्रिंसिपल से मिला।  उन्होंने कहा-‘’ बच्चे गाँव जाकर डेविड से मिलना और उसे जमा की गई रकम देना चाहते हैं। ’’
3
रामभज जानता था कि डेविड इस तरह दान के पैसे कभी नहीं लेगा।  पर उसने कुछ कहा नहीं, वह बच्चों की टोली को डेविड के पास ले जाने को तैयार हो गया।  प्रिंसिपल ने स्कूल की ओर से बस का प्रबंध कर दिया था।  बस डेविड के घर के सामने जाकर रुकी तो पूरे गाँव में हल्ला मच गया।  बच्चों की टोली को देख कर डेविड और उसकी माँ तो ख़ुशी से जैसे पागल हो गए।  डेविड की माँ ने कहा-‘’ बच्चों को खिलाने के लिए घर में तो कुछ है नहीं । ’’ इस पर रामभज ने कहा- ‘’आप कोई चिंता न करें ।  बच्चों के पास उनके लंच बॉक्स हैं।  आप उन्हें अपने बाग़ के कुछ फल खिला दें। ’’ बच्चों को डेविड से मिल कर बहुत अच्छा लगा।  वे डेविड को पैसे देने को उतावले थे पर रामभज ने उन्हें मना कर दिया।  विदा लेते समय उसने डेविड से कहा—‘’ अब तुम ठीक हो गए हो।  शहर आकर स्कूल के बच्चों से मिल लो।  कोई  काम भी देखो। ’’
कुछ दिन बाद डेविड गाँव से आ गया।  रामभज उसे रजत के स्कूल ले गया।  प्रिंसिपल ने डेविड से कहा-‘’ हमारे स्टूडेंट्स तुम्हारे सर्कस वाले करतब देखना चाहते हैं। ’’
डेविड ने कहा-‘’ काफी दिन हो गए सर्कस बंद हुए। ’’
‘’ तो क्या हुआ।  बच्चों के लिए क्या इतना भी नहीं करोगे। ’’  कह कर प्रिंसिपल हंसने लगे।  आखिर डेविड राजी हो गया।  सर्दी का मौसम था।  स्कूल के ग्राउंड पर गुनगुनी धूप बिखरी थी।  पूरा स्कूल वहां जमा था।  डेविड के लिए जोकर की पोशाक का बंदोबस्त कर लिया था।  जोकर की पोशाक में डेविड सामने आया तो सब बच्चे तालियाँ बजाने लगे।  डेविड को सर्कस के दिन याद आ गए।  वह अपने करतब दिखाने लगा।  पूरा ग्राउंड रह रह कर तालियों से गूंजने लगा।  बाद में प्रिंसिपल ने उसे एक लिफाफा दिया।  कहा—‘’यह बच्चों की ओर से तुम्हारे लिए है। ’’
डेविड ने तुरंत लिफाफा लौटा दिया।  बोला—‘’ मैं यह पैसे कभी नहीं ले सकता। ’’ अब रामभज को अपनी बात कहने का अवसर मिला।  उसने कहा—‘’ ये पैसे तुम्हारे लिए नहीं हैं।  ये हैं तुम्हारी माँ और तुम्हारे मजदूर दोस्तों के लिए।  उन लोगों ने रात दिन तुम्हारी देख भाल की है।  क्या उनकी मदद नहीं करोगे? और अभी हॉस्पिटल के केमिस्ट का उधार भी चुकाना है। ’’
प्रिंसिपल ने कहा-‘’ डेविड, शहर में रहकर तुम्हें कुछ तो करना ही होगा, तब फिर यही क्यों नहीं।  मैं कोशिश करूंगा कि दूसरे स्कूलों में भी तुम खेल दिखाओ।  अपनी माँ और अपने दोस्तों की उसी तरह मदद करो जैसे उन्होंने तुम्हारी सहायता की है। ’’ अब कुछ और कहने की जरूरत नहीं थी।
सड़क की मरम्मत हो चुकी थी।  रामभज की ड्यूटी कहीं और लग गई थी,लेकिन ‘जोकर वाला बोर्ड’ अब भी वहीँ लगा था, उस पर जोकर की सुंदर ड्राइंग बनी थी।  उसके नीचे लिखा था- धन्यवाद।
( समाप्त )

जिंदगी मिले ना दोबारा



एक सहेली ने दूसरी सहेली से पूछा:- बच्चा पैदा होने की खुशी में तुम्हारे पति ने तुम्हें क्या तोहफा दिया ?

सहेली ने कहा - कुछ भी नहीं!

उसने सवाल करते हुए पूछा कि क्या ये अच्छी बात है ?
क्या उस की नज़र में तुम्हारी कोई कीमत नहीं ?

*लफ्ज़ों का ये ज़हरीला बम गिरा कर वह सहेली दूसरी सहेली को अपनी फिक्र में छोड़कर चलती बनी।।*

थोड़ी देर बाद शाम के वक्त उसका पति घर आया और पत्नी का मुंह लटका हुआ पाया।।
फिर दोनों में झगड़ा हुआ।।
एक दूसरे को लानतें भेजी।।
मारपीट हुई, और आखिर पति पत्नी में तलाक हो गया।।

*जानते हैं प्रॉब्लम की शुरुआत कहां से हुई ? उस फिजूल जुमले से जो उसका हालचाल जानने आई सहेली ने कहा था।।*

रवि ने अपने जिगरी दोस्त पवन से पूछा:- तुम कहां काम करते हो?
पवन- फला दुकान में।। रवि- कितनी तनख्वाह देता है मालिक?
पवन-18 हजार।।
रवि-18000 रुपये बस, तुम्हारी जिंदगी कैसे कटती है इतने पैसों में ?
पवन- (गहरी सांस खींचते हुए)- बस यार क्या बताऊं।।

*मीटिंग खत्म हुई, कुछ दिनों के बाद पवन अब अपने काम से बेरूखा हो गया।। और तनख्वाह बढ़ाने की डिमांड कर दी।। जिसे मालिक ने रद्द कर दिया।। पवन ने जॉब छोड़ दी और बेरोजगार हो गया।। पहले उसके पास काम था अब काम नहीं रहा।।*

एक साहब ने एक शख्स से कहा जो अपने बेटे से अलग रहता था।। तुम्हारा बेटा तुमसे बहुत कम मिलने आता है।। क्या उसे तुमसे मोहब्बत नहीं रही?
बाप ने कहा बेटा ज्यादा व्यस्त रहता है, उसका काम का शेड्यूल बहुत सख्त है।। उसके बीवी बच्चे हैं, उसे बहुत कम वक्त मिलता है।।

पहला आदमी बोला- वाह!! यह क्या बात हुई, तुमने उसे पाला-पोसा उसकी हर ख्वाहिश पूरी की, अब उसको बुढ़ापे में व्यस्तता की वजह से मिलने का वक्त नहीं मिलता है।। तो यह ना मिलने का बहाना है।।

*इस बातचीत के बाद बाप के दिल में बेटे के प्रति शंका पैदा हो गई।। बेटा जब भी मिलने आता वो ये ही सोचता रहता कि उसके पास सबके लिए वक्त है सिवाय मेरे।।*

*याद रखिए जुबान से निकले शब्द दूसरे पर बड़ा गहरा असर डाल देते हैं।। बेशक कुछ लोगों की जुबानों से शैतानी बोल निकलते हैं।। हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में बहुत से सवाल हमें बहुत मासूम लगते हैं।।*

जैसे-
*तुमने यह क्यों नहीं खरीदा।।*
*तुम्हारे पास यह क्यों नहीं है।।*
*तुम इस शख्स के साथ पूरी जिंदगी कैसे चल सकती हो।।*
*तुम उसे कैसे मान सकते हो।।*
वगैरा वगैरा।।

इस तरह के बेमतलबी फिजूल के सवाल नादानी में या बिना मकसद के हम पूछ बैठते हैं।।
जबकि हम यह भूल जाते हैं कि हमारे ये सवाल सुनने वाले के दिल में
नफरत या मोहब्बत का कौन सा बीज बो रहे हैं।।

आज के दौर में हमारे इर्द-गिर्द, समाज या घरों में जो टेंशन टाइट होती जा रही है, उनकी जड़ तक जाया जाए तो अक्सर उसके पीछे किसी और का हाथ होता है।।
वो ये नहीं जानते कि नादानी में या जानबूझकर बोले जाने वाले जुमले किसी की ज़िंदगी को तबाह कर सकते हैं।।

ऐसी हवा फैलाने वाले हम ना बनें।।

*लोगों के घरों में अंधे बनकर जाओ और वहां से गूंगे बनकर निकलो।।*

🙂👆👆सभी शांत भाव से पढें,, आग लगाने वाले ना बनकर पानी डालने ही बने सुकून मिलेगा हर बात को समस्या ना बनाए हल निकाले   अच्छे इंसान की परिचय देवे क्योंकि कि

जिंदगी ना मिलेगी दोबारा

साहिर लुधियानवी ,जावेद अख्तर और 200 रूपये

 एक दौर था.. जब जावेद अख़्तर के दिन मुश्किल में गुज़र रहे थे ।  ऐसे में उन्होंने साहिर से मदद लेने का फैसला किया। फोन किया और वक़्त लेकर उनसे...