गुरुवार, 26 जनवरी 2023

विश्व में हिंदी : संजय जायसवाल

 

कविसमीक्षक और संस्कृति कर्मी।विद्यासागर 


विश्वविद्यालयमेदिनीपुर में सहायक प्रोफेसर।

आज दुनिया के लगभग 150 विश्वविद्यालयों और संस्थानों में हिंदी में पठन-पाठन एवं शोध के कार्य हो रहे हैं।विदेशों से कई हिंदी पत्रिकाओं का प्रकाशन हो रहा है।हाल में अबू धाबी के न्यायालयों में हिंदी को तीसरी भाषा का दर्जा दिया गया है।2008 के न्यूयार्क में हुए विश्व हिंदी सम्मलेन में हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा के तौर पर शामिल करने की मांग की गई थी।फलस्वरूप संयुक्त राष्ट्र संघ ने हाल में एक फैसला लेकर हिंदी में रेडियो और समाचार बुलेटिन का प्रसारण शुरू किया है।2016 में विश्व आर्थिक मंच ने दुनिया की दस सर्वाधिक बोली जाने वाली और महत्वपूर्ण भाषाओं की सूची में हिंदी को शामिल किया है।

वैश्वीकरण के इस चुनौतीपूर्ण समय में हिंदी का प्रयोग और प्रभाव वैश्विक पटल पर बना हुआ है।इंटरनेट पर हिंदी के सैकड़ों कंटेंट डेवेलप हुए हैं।हिंदी के उपभोक्ताओं की बढ़ती संख्या से समझ सकते हैं कि हिंदी का संजाल फैल रहा है।एक बड़ा सवाल यह है कि दुनिया के देशों में हिंदी का प्रयोग और शिक्षा में स्थान कितना बढ़ा है, क्योंकि एक तथ्य यह है कि कैंब्रिज विश्वविद्यालय जैसी कुछ जगहों पर दशकों से चल रहा हिंदी का पाठ्यक्रम स्थगित कर दिया गया है।विदेशों के भारतीय युवक-युवतियों में हिंदी सीखने की प्रवृत्ति कम हो रही है।

इस परिचर्चा में विदेश में रहने वाले विद्वानों के विचार हैं।यहां हम उनके देश में हिंदी की स्थिति और उपस्थिति के बारे में जान सकते हैं।

सवाल : भूमंडलीकरण के बाद पहले से बहुत अधिक अंग्रेजीमय हो चुके विश्व में हिंदी की क्या स्थिति हैभारतीय परिवारों में हिंदी की क्या स्थिति हैहिंदी शिक्षण के स्तर और स्थिति पर थोड़ा प्रकाश डालें।आप इधर क्या लिख रहे हैं?

फ्रेंचेस्का ऑर्सीनी

लंदन यूनिवर्सिटी की भूतपूर्व प्रो़फेसर और हिंदी की सुप्रसिद्ध विदुषी।चर्चित पुस्तकें :हिंदी का लोकवृत्त, ‘बफ़ॉर दे डिवाइड’ और  हाल में हिंग्लिश लाइव’ (रविकांत के साथ)

यू.केमें विद्यार्थी हिंदी खोज लेते हैं

यू.के. में भारत से आनेवाले परिवार ज़्यादातर पंजाब या गुजरात से आए थे, या तो सीधे हिंदुस्तान से या पूर्वी अफ्रीका में बसकर उखड़ने के बाद।इसलिए उनकी मातृभाषा पंजाबी या गुजराती थी।फिर भी उनके बच्चों ने अंग्रेज़ी और घरेलू पंजाबी और गुजराती के साथ साथ हिंदी को भी किसी तरह, ख़ासकर फ़िल्मों के ज़रिए या फिर कम्यूनिटी सेंटर्स के मा़र्फत, अपनाया।कुछ लोग हिंदी प्रदेश से भी यहां आए, सो उनके घर में हिंदी बोली जाती थी।इसलिए, यूं देखा जाए तो यू.के. में हिंदी में लिखने और पढ़नेवालों की तादाद कम नहीं है, जिसकी गवाही ‘पुरवाई जैसी पत्रिका और ‘कथा यू.के.’ जैसी संस्था देती हैं, भले उनके सदस्य ज्यादातर बुजुर्ग होते हों।लंदन में जब जयपुर लिटरेरी फेस्टिवल के हिंदी से संबंधित प्रोग्राम होते हैं, तो यू.के. का हिंदी समुदाय आकर इकट्ठा हो जाता है।

मैंने तीन दशक तक यू.के. के विश्वविद्यालयों में हिंदी और विशेषकर हिंदी साहित्य को पढ़ाया।इस सिलसिले में दुनिया भर के विद्यार्थियों को देखा।उनमें यू.के. के प्रवासी भारतीयों के बच्चे भी थे और भारत और पाकिस्तान से आए विद्यार्थी भी।दोनों को मौखिक हिंदी में रवानगी थी, मगर हिंदी में लिखाई-पढ़ाई का वास्ता काफ़ी सीमित था।साहित्य की रुचि, उन्होंने अंग्रेज़ी किताबों से ही पाई थी।रश्दी और अरुंधती रॉय को सबने पढ़ा था, निराला या रेणु या गीतांजलि श्री का नाम भी किसी ने नहीं सुना था, और सुनते भी कैसे? यू.के. के बच्चों को ख़ैर हिंदी साहित्य की कोई जानकारी थी ही नहीं, मगर भारत से आए बच्चों ने भी स्कूली दिनों के बाद हिंदी साहित्य से रिश्ता तोड़ा था।इसके प्रति उदासीन या निराश-से  हो गए थे।

मेरा काम यह था कि उनको जताऊं कि हिंदी साहित्य में बहुत सारे अच्छे और दिलचस्प लेखक और किताबें मौजूद हैं।कभी किसी मुद्दे के बहाने तो कभी भाषा की बारीकियों को सिखाने के वास्ते उनको मन्नू भंडारी की कहानियां, फणीश्वरनाथ रेणु के ‘मैला आँचल’ और ‘परती परिकथा’, कृष्णा सोबती का ‘दिलोदानिश’, और गीतांजलि श्री के ‘माई’ और ‘हमारा शहर उस बरस’ को पढ़ाती।जिनकी किसी एक साहित्यिक विधा में रुचि थी, उनको उसके हिंदी नमूने दिखाती।जब उनको दूसरे विषयों के लिए भी पर्चे लिखने होते तो उनको हिंदी के मजेदार पाठ सुझाती, ताकि उनको लगे कि दुनिया में अंग्रेजी के अलावा दूसरी भाषाओं में भी लोग सोचते हैं, और उनको पढ़ने से दिमाग़ खुल जाता है।इसी तरह ये विद्यार्थी यू. के. में आकर हिंदी की पुनः खोज करते रहे।

भाषा को लेकर लोगों के दिमाग में कई अवधारणाएं हैं जो परस्पर-विरोधी हैं और अकसर कष्ट पैदा करती हैं।जैसे अगर आप अंग्रेजी को तरजीह देते हैं तो हिंदी को नाकाफी या तुच्छ समझकर।आप हिंदी राष्ट्रभाषा पर गर्व करेंगे तो आपको लगेगा कि उसके लिए उर्दू  नकारना जरूरी है।साथ ही आप हिंदी की कोई एक किताब को हाथ नहीं लगाएंगे और अपने बच्चों से कहेंगे कि अंग्रेजी पर खास ध्यान दो।भाषा को लेकर इतनी उलझी हुई सोच रखना हिंदुस्तान में ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में उस फैले गहरे यथार्थ से मुंह मोड़ना है, जिसके तहत हमारे परिवारों में, हमारे माहौल में और हमारे इतिहास में लोग एक से अधिक भाषा सीखते, बोलते और पढ़ते आए हैं।

क्या एक से अधिक भाषा पर गर्व करना नामुमकिन या मना है? क्या अंग्रेजी को सीखने के लिए यह जरूरी है कि मैं अपनी हिंदी, पंजाबी, भोजपुरी या इतालवी को भूल जाऊं, या उनको ठुकराऊं? कतई नहीं।हमारे पूर्वजों ने ऐसा नहीं किया था, और षड्भाषी होना विशेष गुण समझते थे।भूमंडलीकरण के इस दौर में अंग्रेजी काम और संपर्क की भाषा ज़रूर हो गई है, मगर उनके ज्यादातर बोलनेवाले मूल अंग्रेजी भाषी नहीं होते और यही उसकी सांस्कृतिक समृद्धि और पहचान है।

ईमेल– fo@soas.ac.uk


रवींद्र बाबू के साहित्य से).......

 कलकत्ता के दो सेठों ने नाविकों से शर्त बदी कि जो अपनी नाव से हुगली पहले पार कर लेगा, उसे पुरस्कार मिलेगा। रात का समय तय हुआ। दोनों नाविकों ने अपने-अपने ख़ेमे के नाव खेने वालों को ख़ूब दारू पिलाई और रात दस बजे से नावें बढ़ने को तैयार। हुंकार भरी और नाव खेने लगे। सुबह का सूरज उगते ही दोनों नौकाओं के मुख्य नाविक ने शंख ध्वनि की। पर यह क्या, शंख ध्वनि एक साथ हुई। दोनों ने परदा हटा कर देखा तो पाया कि दोनों नावें समानांतर खड़ी हैं। और झांका तो पता चला कि दोनों नावें उसी किनारे पर हैं, जहां से चली थीं। नाविक नीचे उतरे तो देखा, कि अरे नावें तो खूँटे से ही बँधी रह गईं। भारत के समाज का यही हाल है। हुँकारा तो खूब भरते हैं लेकिन धर्म और समुदाय तथा जाति के खूँटे से अपनी नावें खोल नहीं रहे।


(रवींद्र बाबू के साहित्य से)

प्रिय, मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ! /

प्रिय, मैं तुम्हारे ध्यान में हूँO!

वह गया जग मुग्ध सरि-सा मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ!

तुम विमुख हो, किन्तु मैं ने कब कहा उन्मुख रहो तुम?

साधना है सहसनयना-बस, कहीं सम्मुख रहो तुम!


विमुख-उन्मुख से परे भी तत्त्व की तल्लीनता है-

लीन हूँ मैं, तत्त्वमय हूँ, अचिर चिर-निर्वाण में हूँ!

मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ!

क्यों डरूँ मैं मृत्यु से या क्षुद्रता के शाप से भी?


क्यों डरूँ मैं क्षीण-पुण्या अवनि के सन्ताप से भी?

व्यर्थ जिस को मापने में हैं विधाता की भुजाएँ-

वह पुरुष मैं, मर्त्य हूँ पर अमरता के मान में हूँ!

मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ!

रात आती है, मुझे क्या? मैं नयन मूँदे हुए हूँ,


आज अपने हृदय में मैं अंशुमाली की लिये हूँ!

दूर के उस शून्य नभ में सजल तारे छलछलाएँ-

वज्र हूँ मैं, ज्वलित हूँ, बेरोक हूँ, प्रस्थान में हूँ!

मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ!


मूक संसृति आज है, पर गूँजते हैं कान मेरे,

बुझ गया आलोक जग में, धधकते हैं प्राण मेरे।

मौन या एकान्त या विच्छेद क्यों मुझ को सताए?

विश्व झंकृत हो उठे, मैं प्यार के उस गान में हूँ!


मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ!

जगत है सापेक्ष, या है कलुष तो सौन्दर्य भी है,

हैं जटिलताएँ अनेकों-अन्त में सौकर्य भी है।

किन्तु क्यों विचलित करे मुझ को निरन्तर की कमी यह-


एक है अद्वैत जिस स्थल आज मैं उस स्थान में हूँ!

मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ!

वेदना अस्तित्व की, अवसान की दुर्भावनाएँ-

भव-मरण, उत्थान-अवनति, दु:ख-सुख की प्रक्रियाएँ


आज सब संघर्ष मेरे पा गये सहसा समन्वय-

आज अनिमिष देख तुम को लीन मैं चिर-ध्यान में हूँ!

मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ!

बह गया जग मुग्ध सरि-सा मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ!

प्रिय, मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ!


                                   ◆अज्ञेय

शमशेर बहादुर सिंह

 शाम का बहता हुआ दरिया कहाँ ठहरा!

साँवली पलकें नशीली नींद में जैसे झुकें

चाँदनी से भरी भारी बदलियाँ हैं,

ख़ाब में गीत पेंग लेते हैं

प्रेम की गुइयाँ झुलाती हैं उन्हें :

– उस तरह का गीत, वैसी नींद, वैसी शाम-सा है

वह सलोना जिस्म।


उसकी अधखुली अँगड़ाइयाँ हैं

कमल के लिपटे हुए दल

कसें भीनी गंध में बेहोश भौंरे को।


वह सुबह की चोट है हर पंखुड़ी पर।


रात की तारों भरी शबनम

कहाँ डूबी है!


नर्म कलियों के

पर झटकते हैं हवा की ठंड को।


तितलियाँ गोया चमन की फ़िज़ा में नश्तर लगाती हैं।


– एक पल है यह समाँ

जागे हुए उस जिस्म का!


जहाँ शामें डूब कर फिर सुबह बनती हैं

एक-एक –

और दरिया राग बनते हैं – कमल

फ़ानूस – रातें मोतियों की डाल –

दिन में

साड़ियों के से नमूने चमन में उड़ते छबीले; वहाँ

गुनगुनाता भी सजीला जिस्म वह –

जागता भी

मौन सोता भी, न जाने

एक दुनिया की

उमीद-सा,

किस तरह!


  ◆ शमशेर बहादुर सिंह


#❤️

मंगलवार, 24 जनवरी 2023

चेहरा देखा तुम्हारा- / विजय प्रकाश

 अजनबी इक चेहरे में

चेहरा देखा तुम्हारा- 

खुल गये अध्याय कितने

बंद पुस्तक के दुबारा।


पूर्व की खिड़की खुली,

छँटने लगा खुद ही अँधेरा,I

रश्मि-रथ पर चढ़ा आता

दिख रहा अद्भुत सबेरा;

रौशनी की बाढ़-सी

आने लगी चहुंओर से ज्यों

इक नदी इतनी बढ़ी कि

खो गया यह-वह किनारा।


खुल गये संदर्भ कितने

देह के, मन के मिलन के, 

खुल गये गोपन सभी

संसार के सुंदर सृजन के;

इस जगह इस मोड़ पर

अब प्रश्न बेमानी हुए कि 

कौन आया दौड़ता-सा

और किसने था पुकारा।


गंध का संसार केवल

रह गया चहुंओर अपने,

एक मिलकर हो रहे हैं

सच हमारे और सपने;

बिन्दु में ब्रह्माण्ड के

दर्शन सहज होने लगे हैं,

क्षीर-सागर में स्वयं

मिलने लगी है एक धारा।

                       * * *

- डॉ. विजय प्रकाश

सोमवार, 23 जनवरी 2023

लहसुन का प्रयोग

 रात को  से पहले कुछ दिन लहसून खाने से शरीर में क्या तब्दीली आती है?

💠💠💠💠💠


लहसुन का प्रयोग हर घर में सब्जी बनाते समय किया जाता है। कच्चे लहसुन में कई औषधीय गुण भी पाए जाते हैं। यह हमारे शरीर को बीमारियों से लडने की शक्ति प्रदान करता है। लहसुन का रोजाना सेवन स्वास्थ्य के लिए भी लाभकारी माना गया है।


रात को सोने से पहले कुछ दिन लहसुन खाने से शरीर में जो तब्दीलियां आती है, वह इस प्रकार हैं:-


1. लहसुन में पोषक तत्व होने के कारण यह पुरषों की शारीरिक कमजोरी को दूर करता है और मेल हार्मोन में भी इजाफा करता है।


2. यह खाना पचाने में मदद करता है। कब्ज और पेट गैस से हमेशा के लिए छुटकारा मिल जाता है।


3. लहसुन का सेवन कोलेस्ट्रॉल को कम करता और दिल की बीमारियों को ठीक करता है। इसके रोजाना सेवन से हृदय सेहतमंद बना रहता है।


4. हमारे शरीर के विषैले पदार्थों को बाहर निकालने में मदद करता है और संक्रामक बीमारियों में भी लाभकारी है ‌


5. तनाव और ब्लडप्रेशर को नियंत्रित करता है।


6. लहसुन के रोजाना सेवन से सर्दी और खांसी में बचाव होता है।


7. लहसुन के रोजाना सेवन करने से चेहरे पर चमक रहती है और भूख भी अच्छी लगती हैं।


8. लहसुन का प्रभाव सारे शरीर पर होता है। यह रक्त, ताकत और वीर्य बढ़ाने वाला है ‌


9. लहसुन का सेवन करने से क्षय रोग (टीबी) पास नहीं आता।क्षय रोग के लिए लहसुन एक वरदान है।


10. रात को नींद अच्छी आती है और रात को निकलने वाले पसीने को रोकता है।


11. जिन लड़कियों के वक्षस्थल का विकास ठीक तरह से न हो रहा हो उन्हें लहसुन का रोजाना सेवन करना चाहिए।


12. लहसुन का रोजाना सेवन करने से स्वप्नदोष की समस्या हमेशा के लिए खत्म हो जाती है।


13. इसके सेवन से पीलिया रोग भी ठीक हो जाता है और पेट के कैंसर होने का खतरा मिट जाता है।


14. यदि लहसुन का सेवन नियमित रूप किया जाए तो असमय ही बुढ़ापे का शिकार होने से बचा जा सकता है।


लहसुन खाने के बाद धनिया चबाने से इसकी गंध नहीं आती।


रात को खाना खाने के एक घंटे बाद लहसुन की 1–2 कलियां छीलकर चबा-चबाकर पानी के साथ निगल जाए। या इसे किसी चीज से पीसकर भी सेवन कर सकते हैं। तीन महीने इसका सेवन करें। 1–2 लहसुन की कलियां तो आप रोजाना भी ले सकते हैं। ज्यादा गर्मियों में एक क्लीं का ही सेवन करें।


लहसुन खाने से आने वाली गंध को दूर करने के लिए लहसुन को सुबह के समय पानी में भी भिगो सकते हैं।


(लहसुन की 50 ग्राम कलियां छीलकर शहद में डाल दें और ढक्कन को अच्छी तरह बंद कर दें। 10 दिन के बाद 1–2 कलियां रोजाना रात को सोने से पहले सेवन करें। यह एक सर्दियों का तोहफा है।

रविवार, 22 जनवरी 2023

मुंशी प्रेमचंद

 1


यह जमाना चाटुकारिता और सलामी का है तुम विद्या के सागर बने बैठे रहो, कोई सेंत (मुफ़्त) भी न पूछेगा।


- मुंशी प्रेमचंद


स्रोत : कायाकल्प


2


अब सब जने खड़े क्या पछता रहे हो। देख ली अपनी दुर्दशा, या अभी कुछ बाकी है। आज तुमने देख लिया न कि हमारे ऊपर कानून से नहीं, लाठी से राज हो रहा है। आज हम इतने बेशरम हैं कि इतनी दुर्दशा होने पर भी कुछ नहीं बोलते।


- मुंशी प्रेमचंद


[ स्रोत : समर यात्रा से .. ]


#munshipremchand #premchand #hindi


3


मुंशी प्रेमचंद बहुत ही हसमुँख स्वभाव के थे, उनकी हँसी मशहूर थी। एक बार इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एक व्याख्यान के उपरान्त एक छात्र ने उनसे पूछा- “आपके जीवन की सबसे बङी अभिलाषा क्या है?”


प्रेमचंद जी अपनी चिरपरिचित हँसी के साथ बोले- “मेरे जीवन की सबसे बङी अभिलाषा ये है कि ईश्वर मुझे सदा मनहूसों से बचाये रखे।”


प्रेमचंद जी 1916 से 1921 के बीच गोरखपुर के नोरमल हाई स्कूल में  में असिस्टेंट मास्टर  के पद पर रहे और इसी दौरान “सेवा सदन” सहित चार उपन्यासों की रचना की ।


#munshipremchand #premchand



4


मुंशी प्रेमचंद 1935 के नवंबर महीने में दिल्ली आए। वे बंबई से वापस बनारस लौटते हुए दिल्ली में रुक गए थे। उनके मेजबान ‘रिसाला जामिया’ पत्रिका के संपादक अकील साहब थे। उन दिनों जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी करोल बाग में थी। उसे अलीगढ़ से दिल्ली शिफ्ट हुए कुछ समय ही हुआ था। प्रेमचंद और अकील साहब मित्र थे। जामिया में प्रेमचंद से मिलने वालों की कतार लग गई। इसी दौरान एक बैठकी में अकील साहब ने प्रेमचंद से यहां रहते हुए एक कहानी लिखने का आग्रह किया। ये बातें दिन में हो रही थीं। प्रेमचंद ने अपने मित्र को निराश नहीं किया। उन्होंने उसी रात को जामिया परिसर में अपनी कालजयी कहानी ‘कफन’ लिखी। वो उर्दू में लिखी गई थी। कफन का अगले दिन जामिया में पाठ भी हुआ। उसे कई लोगों ने सुना। ये कहानी त्रैमासिक पत्रिका ‘रिसाला जामिया’ के दिसंबर,1935 के अंक में छपी थी। ये अंक अब भी जामिया मिलिया इस्लामिया की लाइब्रेरी में है। ‘कफन’ को प्रेमचंद की अंतिम कहानी माना जाता है। 1936 में उनकी मृत्यु हो गई।


#premchand #kafan #jamiamilliaislamia #jamia


5



शुक्रवार, 20 जनवरी 2023

कुमाऊं रेजिमेंट)

 यह पानी की बोतल, नाइक गुलाब सिंह (वीर चक्र मरणोपरांत, 13 कुमाऊं रेजिमेंट) की है। इसपर पड़े गोलियों के निशान शत्रु की फायरिंग का घनत्व बता रहे हैं जो युद्ध की भीषणता को समझाने में पर्याप्त हैं। नवंबर 1962 में लद्दाख में रेज़ांगला की लड़ाई में चीनी मशीन गन की स्थिति पर गुलाब सिंह ने सीधे हमला किया। इस लड़ाई में उस दिन अमर होने वाले 114 भारतीय सैनिकों में से एक नाइक गुलाब सिंह भी थे जो हरियाणा रेवाड़ी के मनेठी गाँव में पैदा हुए थे। इस टुकड़ी के 120 वीरों की वजह से ही आज लद्दाख भारत का हिस्सा बना हुआ है। 


मेजर-जनरल इयान कार्डोज़ो अपनी पुस्तक "परम वीर, अवर हीरोज इन बैटल" में लिखते हैं: 

जब रेज़ांग ला को बाद में बर्फ हटने के बाद फिर से देखा गया तो खाइयों में मृत जवान पाए गए जिनकी उँगलियाँ अभी भी अपने हथियारों के ट्रिगर पर थी ... इस कंपनी का हर एक आदमी कई गोलियों या छर्रों के घावों के साथ अपनी ट्रेंच में मृत पाया गया। मोर्टार मैन के हाथ में अभी भी बम था। मेडिकल अर्दली के हाथों में एक सिरिंज और पट्टी थी जब चीनी गोली ने उसे मारा ...।  सात मोर्टार को छोड़कर सभी को एक्टिव किया जा चुका था और बाकी सभी मोर्टार पिन निकाल दागे जाने के लिए तैयार थे। यह संसार का सबसे भीषण लास्ट स्टैंड वारफेयर था जहाँ 120 वीरों ने वीरता से लड़ते हुए 1300 चीनी सैनिकों को मार डाला था और लद्दाख को चीन द्वारा कब्जाने के मसूबों पर पानी फेर दिया। 


स्वतंत्रता की कीमत चुकानी होती है, यह मुफ़्त में नहीं मिलती ... 

#जयहिन्द 

#जयहिंदकीसेना

एक दिन आऊँगा... / जावेद अख़्तर

 मोहब्बत वालों ने, हमारे यारों ने

हमें ये लिखा है कि हमसे पूछा है

हमारे गाँव ने, आम की छाँव ने

पुराने पीपल ने, बरसते बादल ने

खेत खलिहानों ने, हरे मैदानों ने

बसंती बेलों ने, झूमती बेलों ने

लचकते झूलों ने, दहकते फूलों ने

चटकती कलियों ने

और पूछा हैं गाँव की गलियों ने

के घर कब आओगे

के घर कब आओगे

लिखो कब आओगे

कि तुम बिन गाँव सूना सूना है

संदेशे आते हैं... 


ऐ गुज़रने वाली हवा ज़रा

मेरे दोस्तों, मेरी दिलरुबा,

मेरी माँ को मेरा पयाम दे

उन्हें जा के तू ये पयाम दे

मैं वापस आऊँगk

मैं वापस आऊँगा

फिर अपने गाँव में

उसी की छाँव में

कि माँ के आँचल से

गाँव के पीपल से

किसी के काजल से

किया जो वादा था वो निभाऊँगा

मैं एक दिन आऊँगा... 


[जावेद अख़्तर]

धान कूट रही हैं औरतें! / प्रवीण परिमल

 कविता :


#धान_कूटती_हुई_औरतें


                      

ढेंकी में 

धान कूट रही हैं औरतें! 


अलसुबह

रात की काली चादर फाड़कर

सूरज के ऊपर चढ़ने से पहले 

वे कूट लेना चाहती हैं

ज़रूरत भर धान।


धूप निकलते ही

देर रात तक 

आँखें फोड़ते हुए

उसीने गए धान को 

घड़ों से निकाल कर

सूखने के लिए

ओटे पर पसारती हैं औरतें

ऐसे, जैसे पसार रही हों वे

सुख और समृद्धि

समूची पृथ्वी के लिए।


फूस की छत से 

लटक रही डोरी को पकड़कर 

बनाती हैं वे अपना संतुलन 

और पूरी ताकत के साथ

मारती हैं लात

ढेंकी की दुम पर

ऐसे, जैसे एक ही वार में 

वे कुचल देना चाह रही हों

अपने दुर्दिन के साँप को।


बैलों के खूँटों पर लौटने से पहले

सूखकर खनखनाते हुए 

धान के दानों को 

बड़े जतन से बुहारती हैं औरतें

और जमा करती हैं उन्हें

खँचिया, सूप और दउरा में।


ढेर की शक्ल में

अपनी मेहनत का ईनाम देख

भीतर तक 

भीग जाती हैं औरतें।


रंभाती हुई गाय की आवाज़ पर

बछड़े की रस्सी खोलती हुई

औरतों के स्तनों में भी

अनायास उतर आता है दूध।


थनों को अच्छी तरह फेनाने के बाद

बछड़े को पकड़कर

गाय के सामने ले आती हैं औरतें

और दुलराती हैं ऐसे,

जैसे दुलरा रही हों वे

पूरी सृष्टि को।

 

अपने आदमी के हाथों से

दूध- भरी बाल्टी लेकर

देर तक निहारती हैं औरतें,

जैसे हिसाब लगा रही हों

कि पास-पड़ोस के घरों में

बेचने के बाद

उनके बच्चों के हिस्से में

दूध की कितनी मात्रा आएगी।


धान कूटती हुई औरतें

धान के साथ-साथ 

कूटती हैं अपने दुख

अपनी तकलीफ 

और अपने संताप को भी। 


धान को

चावल के सफेद दानों में बदलते देख

उनकी आँखें 

खुशी से फैल जाती हैं।


कल्पना में ही

उन्हें दिखाई देने लगता है O

आँच पर चढ़ा

खदकता हुआ भात

जिसकी प्रतीक्षा में 

उनके बच्चे 

अभी भी 

लेदरा- कथरी में दुबके पड़े हैं

खाली पेट को 

दोनों हाथों से दबाए हुए।


धरती का सीना फाड़कर

उनके आदमी

उगाते हैं धान के जिन दानों को

कूटते वक़्त 

उन दानों पर भी 

रहम नहीं करतीं ये औरतें।


ढेंकी में धान कूटती हुई

आत्मविश्वास से भरी ये औरतें

कितनी सुंदर लग रही हैं --

बिल्कुल मेरी माँ और दादी जैसी!

            

॰ प्रवीण परिमल




गुरुवार, 19 जनवरी 2023

गीतों के संग गुलज़ार के प्रयोग /


   

गुलज़ारने गीतों के साथ जितने प्रयोग किए हैं, वह पृथक से शोध का विषय होना चाहिए। एक पूरी पुस्तक इस पर लिखी जा सकती है। विशेषकर तुकों के साथ तो उन्होंने ख़ासी खिलंदड़ मनमानी की है।


अब यह देखिये कि जो गीतकार लोग होते हैं, वो तुकों से बँध जाते हैं। कोई पंक्ति 'बिंदिया' पर ख़त्म हो रही हो तो अगली पंक्ति में 'निंदिया' होगी ही। इससे बचने का कोई उपाय नहीं। 'इज़हार' के बाद 'इक़रार' आएगा ही। बहुत हुआ तो 'इंतज़ार' आ जाएगा, पर गाड़ी उसी के इर्द-गिर्द घूमेगी। 'अपना' के साथ 'सपना' की ही जोड़ी जमेगी। ऐसा एक गीत नहीं, जिसमें कोई पंक्ति 'सपना' पर ख़त्म हुई और उसके बाद वाली पंक्ति में 'अपना' न आया हो।


फिर गुलज़ार हैं, जो एक दूसरी ही कौड़ी लेकर आते हैं। 'सपनी' और 'अपनी'- यह भला क्या तुक हुई? यह तो बेतुकी बात है। पर गुलज़ार के यहाँ नहीं। फ़िल्म 'गोलमाल' के इस गीत में वे तुक बिठाल ही देते हैं :


"इक दिन छोटी-सी देखी सपनी

वो जो है ना, लता अपनी

लता गा रही थी, मैं तबले पे था

वो मुखड़े पे थी, मैं अंतरे पे था

ताल कहाँ, सम कहाँ

तुम कहाँ, हम कहाँ?"


इसको कहते हैं आउट-ऑफ़-बॉक्स थिंकिंग। मेरा दावा है कोई और गीतकार इस बात को सोच नहीं पाता।


एक और उदाहरण देखिये। फ़िल्म 'कमीने' का गाना है- "पहली बार मुहब्बत की है।" अगर यह मिसरा किसी अन्य गीतकार को दिया जाता- जैसे समीर या इंदीवर या आनंद बक्षी- तो वो "पहली बार मुहब्बत की है" के आगे जोड़ते "हमने ऐसी चाहत की है" या "दिल ने एक इबादत की है" या ऐसा ही कुछ घिसा-पिटा। क्योंकि काफ़िया वही रहता है, रदीफ़ बदल जाता है- यह नियम है। 


पर गुलज़ार कहते हैं- "पहली बार मुहब्बत की है / आख़िरी बार मुहब्बत की है।" अब यह बात ही अलग है। एक स्ट्रोक में उन्होंने गाने का मेयार उठा दिया, उसको कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया। 'पहली बार' और 'आख़िरी बार' का काफ़िया और 'मुहब्बत' का रदीफ़। दोहराव से परहेज़ नहीं। पर कहने वाली बात थी सो कह दी कि यह पहली बार है और यही आख़िरी बार भी है। अब फिर मुहब्बत नहीं होने वाली! एक बार में ही थक गए, हार गए...


असंख्य गीत गुलज़ार ने ऐसे लिखे हैं, जिनमें क्रिएटिविटी की झोंक है। "कत्था-चूना ज़िंदगी सुपारी जैसा छाला होगा / पाप ने जना नहीं तो पापियों ने पाला होगा!" मैं चाहूँगा कि कोई क़द्रदान गुलज़ार के गीतों पर इस दृष्टि से रिसर्च करके पुस्तक लिखे। कोई नहीं लिखेगा तो मैं ही लिख डालूँगा।


क्योंकि सम्पूरन सिंह की यह सरगम भला कौन भूल सकता है :

"सा रे के सा रे

गा मा को लेकर

गाते चले

पा पा नहीं हैं

धा नि सी दीदी

दीदी के साथ हैं

सा रे!"

ब्रिलियंट!

..........................................

साभार - Sushobhit

 गुलज़ार ने गीतों के साथ जितने प्रयोग किए हैं, वह पृथक से शोध का विषय होना चाहिए। एक पूरी पुस्तक इस पर लिखी जा सकती है। विशेषकर तुकों के साथ तो उन्होंने ख़ासी खिलंदड़ मनमानी की है।


अब यह देखिये कि जो गीतकार लोग होते हैं, वो तुकों से बँध जाते हैं। कोई पंक्ति 'बिंदिया' पर ख़त्म हो रही हो तो अगली पंक्ति में 'निंदिया' होगी ही। इससे बचने का कोई उपाय नहीं। 'इज़हार' के बाद 'इक़रार' आएगा ही। बहुत हुआ तो 'इंतज़ार' आ जाएगा, पर गाड़ी उसी के इर्द-गिर्द घूमेगी। 'अपना' के साथ 'सपना' की ही जोड़ी जमेगी। ऐसा एक गीत नहीं, जिसमें कोई पंक्ति 'सपना' पर ख़त्म हुई और उसके बाद वाली पंक्ति में 'अपना' न आया हो।


फिर गुलज़ार हैं, जो एक दूसरी ही कौड़ी लेकर आते हैं। 'सपनी' और 'अपनी'- यह भला क्या तुक हुई? यह तो बेतुकी बात है। पर गुलज़ार के यहाँ नहीं। फ़िल्म 'गोलमाल' के इस गीत में वे तुक बिठाल ही देते हैं :


"इक दिन छोटी-सी देखी सपनी

वो जो है ना, लता अपनी

लता गा रही थी, मैं तबले पे था

वो मुखड़े पे थी, मैं अंतरे पे था

ताल कहाँ, सम कहाँ

तुम कहाँ, हम कहाँ?"


इसको कहते हैं आउट-ऑफ़-बॉक्स थिंकिंग। मेरा दावा है कोई और गीतकार इस बात को सोच नहीं पाता।


एक और उदाहरण देखिये। फ़िल्म 'कमीने' का गाना है- "पहली बार मुहब्बत की है।" अगर यह मिसरा किसी अन्य गीतकार को दिया जाता- जैसे समीर या इंदीवर या आनंद बक्षी- तो वो "पहली बार मुहब्बत की है" के आगे जोड़ते "हमने ऐसी चाहत की है" या "दिल ने एक इबादत की है" या ऐसा ही कुछ घिसा-पिटा। क्योंकि काफ़िया वही रहता है, रदीफ़ बदल जाता है- यह नियम है। 


पर गुलज़ार कहते हैं- "पहली बार मुहब्बत की है / आख़िरी बार मुहब्बत की है।" अब यह बात ही अलग है। एक स्ट्रोक में उन्होंने गाने का मेयार उठा दिया, उसको कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया। 'पहली बार' और 'आख़िरी बार' का काफ़िया और 'मुहब्बत' का रदीफ़। दोहराव से परहेज़ नहीं। पर कहने वाली बात थी सो कह दी कि यह पहली बार है और यही आख़िरी बार भी है। अब फिर मुहब्बत नहीं होने वाली! एक बार में ही थक गए, हार गए...


असंख्य गीत गुलज़ार ने ऐसे लिखे हैं, जिनमें क्रिएटिविटी की झोंक है। "कत्था-चूना ज़िंदगी सुपारी जैसा छाला होगा / पाप ने जना नहीं तो पापियों ने पाला होगा!" मैं चाहूँगा कि कोई क़द्रदान गुलज़ार के गीतों पर इस दृष्टि से रिसर्च करके पुस्तक लिखे। कोई नहीं लिखेगा तो मैं ही लिख डालूँगा।


क्योंकि सम्पूरन सिंह की यह सरगम भला कौन भूल सकता है :

"सा रे के सा रे

गा मा को लेकर

गाते चले

पा पा नहीं हैं

धा नि सी दीदी

दीदी के साथ हैं

सा रे!"

ब्रिलियंट!

..........................................

साभार - Sushobhit

मंगलवार, 17 जनवरी 2023

🌹🕉️ महासती माता कौशिकी 🕉️🌹

 प्रस्तुति - रेणु दत्ता / आशा सिन्हा 


जब एक ऋषि के श्राप पर भारी पड़ा एक सती का श्राप, तो विधाता को भी बदलना पड़ा विधि का विधान।


किसी नगर के बाहर मांडव ऋषि अपने शूल पर बैठकर तपस्या कर रहे थे, तभी वहां से सती कौशिकी और उनके पति कौशिक जो कि शरीर से लाचार थे उस रास्ते से गुजर रहे थे तभी अचानक कौशिकी और उनके पति कौशिक अंधेरा होने के कारण सूल से टकरा जाते हैं। उनके टकराने से शूल पर तपस्या कर रहे मांडवी ऋषि की तपस्या भंग हो जाती है। तपस्या भंग होते ही ऋषि पूछते है वो कौन है जिसने उनकी तपस्या भंग किया है। कौशिक कहती यह अपराध हमसे हुआ है महात्मा हम क्षमा करे। हमसे भूल हो गई।

मांडव ऋषि अधिक क्रोधित हो जाते हैं, और क्रोध में आकर कौशिकी को श्राप दे देते हैं कि सूर्योदय होते ही वहां विधवा हो जाएगी और उसका पति काल के मुख में समा जाएगा अर्थात कौशिक की मृत्यु हो जाएगी।

यह श्राप सुनकर कौशिकी मांडवी ऋषि से बहुत विनती करती है कि उनसे भूल हो गई उनको क्षमा करें, परंतु मांडव ऋषि वह श्राप वापस नहीं लेते, और मन में यह सोचते हुए कि श्राप देते ही उनका संपूर्ण पुण्य और तपोबल नष्ट हो गया है अतः अब वह श्राप वापस नहीं ले सकते और वापस ध्यान मग्न हो जाते हैं।

कौशिकी और कौशिक जैसे तैसे उनकी कुटिया मे आते हैं, उधर सूर्योदय होने में कुछ ही घंटे बाकी थे ।कोशिकी  उसी समय राजा के पास जाती है परंतु राजा आराम कर रहे हैं यह बोलकर राजा के पहरेदार कौशिकी को सुबह आने का बोलते हैं।

फिर कौशिकी राजगुरु के पास जाती है और उनको सारी बात बताकर उनसे आग्रह करती वह उनको ऐसा वरदान दे जिससे मांडव ऋषि का दिया हुआ श्राप निष्फल हो सके परंतु राजगुरु उन्हें यह कह कर मना कर देते हैं कि इस संसार में ऐसा कोई नहीं है जो मांडवी ऋषि के श्राप को निष्फल कर सके और उनके श्राप को निष्फल करना मेरे बस में नहीं है । उनका श्राप अटल है और जो बोला है वो होकर रहेगा। वह इतना कहकर वापस अपने कक्ष में चले जाते है।


उधर धर्मराज यह देख कर गहरी सोच में पड़ जाते हैं कि विधि के अनुसार अभी ना तो मांडवी ऋषि की मृत्यु का समय है और ना कौशिक की मृत्यु का।

तभी धर्मराज के पास नारद जी आते हैं और पूछते हैं किस समस्या में उलझे हो धर्मराज ?


धर्मराज:-- ऋषि श्रेष्ठ मांडव ऋषि ने कौशिकी को तो श्राप दे दिया परंतु कौशिकी के पति की मृत्यु अभी दूर है मैं सोच रहा था,.......तभी नारद जी बीच में ही बोलते हैं।


देवर्षि नारद:-- सोचिए मत धर्मराज वैसे भी श्राप अभिशाप से बच कर रहना चाहिए, श्राप के अनुसार आज सूर्य उदय होते ही आपको कौशिक के प्राण हरण कर लेना चाहिए।


धर्मराज:-- परंतु यह तो विधाता के विधान में हस्तक्षेप होगा देवर्षि।


देवर्षि नारद:--और यदि आपने श्राप का अनादर किया तो एक ऋषि के श्राप के विफल हो जाने का तात्पर्य है उनके वचन का मिथ्या हो जाना, और धर्मराज यदि एक ऋषि का वचन मिथ्या हो गया तो तब कौन करेगा, यज्ञ कौन करेगा, और यज्ञ ना होने का अर्थ है भगवान की पूजा नहीं होगी भक्ति नहीं होगी क्या आप यह चाहते हैं। 


धर्मराज:-- नहीं मैं यह कभी नहीं चाहता।


देवर्षि नारद:-- तो बस आप मांडवी ऋषि के श्राप का आदर करें और सूर्योदय होते ही कौशिकी के पति के प्राणों का हरण कर ले। और इतना कहकर नारद जी वह से चले जाते है।


उधर कोशिकी रोते रोते माता के मंदिर में जाती है और माता की प्रतिमा के आगे रोते हुए कहती है। में हार गई हूं मा, सबके आगे हाथ जोड़ जोड़ के थक गई हूं। मुझ निर्दोष को इतना बड़ा श्राप मिला। अब तक मुझे अपने पतिव्रता होने पर अभिमान था परन्तु अब वो ये जान गई है कि वो सिर्फ एक साधारण नारी है एक अबला नारी।

तभी माता की प्रतिमा से  आवाज आती है। और कौशिकी से माँ कहती है, जो अपनी रक्षा खुद नही करते उनकी रक्षा कोई नही करता, तुम इतनी कमजोर हो जाओगी इसकी किसी ने कल्पना भी नहीं कि थी। तुम सती हो अबला नही, तुम नारी शक्ति हो ब्रह्मा जी द्वारा दिये गए इस जीवन का तुमने इतना सदुपयोग किया है कि तुम अब एक शक्ति बन गई हो । जो तुम चाहो वो हो सकता है।


सूर्य उदय ना हो तो........माता रानी कहती है ... तो सूर्य उदय कभी नहीं होगा। इतना सुनते है कोशिकी खुश हो जाती है और वापस दौड़ कर अपने पति कोशिक के पास आ जाती है।

तभी उसे वहां यमदूत दिखाई देते है जो कोषिक के प्राण लेने आए थे और सूर्य उदय होने का इंतजार कर रहे थे। कौशकी यमदूतों को रुकने को कहती है यमदूत कहते है हम तुम्हारे पति के प्राण लेने आए है सूर्य उदय होने वाला है। कोशिकी कहती है सूर्य उदय अब नहीं होगा। इतना बोलकर कोशिकी  नीचे रखे कमंडल से जल लेकर आठो दिशाओं, सभी भगवान और प्रकृति को  मानकर कहती है। यदि वो सती है, उसमे थोड़ा भी सतित्वा है तो सूर्य उदय कभी नहीं होगा।

इतना कहते ही सभी दूर घोर अंधेरा छा जाता है, आसमान में बिजलियां चमकने लगती है, चारो तरफ हाहाकार मच जाता है, धरती कम्पन करने लगती है, इंद्र का आसान डोलने लगता है, पाताल लोक से लेकर यमलोक सब हिलने लगते है। सारे दैत्य दानव, ऋषि मुनि, देवी देवता सब को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि यह क्या हो रहा है।

उधर धर्मराज इस चिंता में डूब जाते है कि आज सूर्य देवता उजाला करना कैसे भूल गए। यदि आज सूर्य उदय नहीं हुआ तो जिनके प्राण हरना था उनके प्राण वो कैसे हरण कर पाएंगे।


सारे देवी देवता ऋषि मुनि एकत्र होकर ब्रह्मा विष्णु महेश भगवान को पुकारने लगते है और कहते हम हमारी रक्षा करे भगवान। 

तभी तीनों देवता वह आते है धर्मराज कहते है प्रभु सूर्य उदय ना होने के कारण उनका सरा लेखा जोखा उथल पुथल हो गया। जिनके प्राण हरण करने थे वो प्राण नहीं त्याग रहे। समय का ज्ञान ना रहने से तीनों लोको का काम रुक गया है, जिन आत्माओं को जन्म लेना था वो जनम नहीं ले पा रही है ।इस संकट से बचाइए प्रभु। और आपकी जो भी लीला है उसे जल्द पूरा कीजिए। शंकर भगवान कहते है विष्णु जी से , क्यूं आपने मांडव ऋषि को शूल पर लटकने दिया, क्यूं उस शूल से कौशकी और कोंशिक को टकराने दिया। और फिर कोशिकी के हाथो सूर्य उदय होने से रोक दिया। यह सब उन्हे भी समझ नहीं आ रहा। कृपया इस संकट से सभी को निकालने कि कृपा करे।


ब्रह्मा जी कहते है वह कोशिकी के पास गए थे परन्तु वह कोशिकी की मांग को पूरी नहीं कर सकते। वह मांडव ऋषि के श्राप का अनादर नहीं कर सकते।

सभी देवता कहते है विष्णु जी से। आप ही कुछ कीजिए। विष्णु जी कहते है। एक सती के  श्राप को निष्फल करना उनके भी बस में नहीं है।

इसका मतलब इस संसार में कभी उजाला नहीं होगा, यह संसार समाप्त हो जाएगा सारे देवता एक साथ बोलते है।

विष्णु भगवान कहते है इस संसार में एक सती के श्राप से कोई भी नहीं बच सकता और ना कोई बच पाएगा हम त्रिदेव भी नहीं बच सकते। परन्तु इस समस्या का एक हल है।  

सारे भगवान पूछते है वो क्या है प्रभु क्या उपाय है इस समस्या का।

विष्णु जी कहते है, एक सती के श्राप को एक सती ही खत्म कर सकती है।

देवी देवता कहते है ऐसी सती कहा होगी जो इस संसार को बचाने के लिए देवी कोशिकी से बात करे उन्हे समझाए। जो हमारी मदद करे। तभी नारद जी कहते है वो ऐसी सती को जानते है, धरती पर महर्षि अत्री कि पत्नी देवी अनुसुइया है। वो कोशिकी जैसी ही सात्विक, पतिव्रता और सती है। 

विष्णु जी कहते सभी देवी देवताओं से कहते है आप लोग देवी अनसुईया के पास जाए और उनसे विनती करे। और उन्हे समझाए कि धरती पर आए इस संकट से उन्हे निकालने की कृपा  करे।

सारे भगवान देवी अनुसुइया के पास जाते है उन्हे प्रणाम कर सारी बात बताते है और उनसे आग्रह करते है कि उनके जैसी एक और सती है जिन्होंने सूर्य देवता को निकलने से रोक दिया। इसलिए आप उनके पास जाकर विनती करे और उन्हे अपना श्राप वापस लेने के लिए मनाए। जिससे इस संसार को बचाया जा सके । अन्यथा यह संसार नष्ट हो जाएगा।


सती अनुसूया कौशिकी के पास जाती है और उन्हे प्रणाम कर अपना परिचय देते हुए उनसे आग्रह करती है कि वो सूर्य देव को दिया हुआ श्राप वापस ले ले।

परन्तु कोशिकी उन्हे बताती है कि यदि सूर्य उदय हुआ तो वह विधवा हो जाएगी और वो विधवा नहीं मरना चाहती।

अनुसुइया कहती है यदि तुम्हारे पति की मृत्यु हो भी गई तो मे उनके प्राण ले जाने नहीं दूंगी यमदूत से उन्हे ले आऊंगा, पल भर में उन्हे जीवित कर दूंगी । परन्तु तुम सूर्य को निकलने दो।

सती कोशिकी, देवी अनसुईया की बात मानकर अपना दिया हुआ श्राप वापस लेने को तैयार हो जाती है।

और नीचे रखें कमंडल मे से जल लेकर अपना श्राप वापस ले लेती है। और कुछ ही क्षणों में सूर्य उदय हो जाता है।

सूर्य उदय होते ही यमदूत कौशिक के प्राण हरण करने लगते है परन्तु देवी अनसुईया उन्हे मना करती है और कोशिक और कोशिकी के आस पास अपनी शक्ति से सुरक्षा चक्र बना देती है जिससे यमदूत प्राण हरण नहीं कर सके।

यमराज कहते है अनसुईया से कृपा करके आप उन्हे कौशिक के प्राण हरण करने दीजिए और विधाता के विधान मे हस्तक्षेप ना करे।

अनसुईया कहती है यमराज से आप अपना लेखा जोखा देखकर बताइए की क्या आज के दिन इनके प्राण हरण करने का लिखा है या नहीं।


यमराज कहते है। उनके पास आज के दिन इनके प्राण लेने का नहीं है परन्तु मांडव ऋषि के श्राप के कारण उन्हे आना पड़ा। और यदि वो उनके प्राण नहीं के जा पाए तो मांडव ऋषि के श्राप का अनादर होगा । यमराज देवी अनसुईया से मार्ग दर्शन करने को कहते है।

यदि वो उनके सतीत्व और बल से उन्हे मांडव ऋषि के श्राप से बन्धन मुक्त कर दे तो। यमराज कहते है यदि ऐसा हो सकता है तो वह कोशिकी के प्राण नहीं लेंगे।


और देवी अनसुईया यमराज को मांडव ऋषि के श्राप से बन्धन मुक्त कर देती है। इस तरह कौशिक के प्राण बच गए और यमराज भी श्राप से बन्धन मुक्त हो गए।

द्रौपदी हूँ मैं... / कात्यायनी...........

 सुनाती हूँ आज व्यथा कथा अपनी

हाँ द्रौपदी हूँ मैं / सुनाती हूँ आज व्यथा कथा अपनी...

सैरन्ध्री अग्निसुता भी नाम हैं मेरे ही

कहते हैं कृष्णा भी मुझे / सखी हूँ मैं कृष्ण की...

कोई कहता / अवतार हूँ मैं इन्द्राणी का 

जन्म हुआ जिसका प्रतिशोध की अग्नि से

इसीलिए कहलाई याज्ञसेनी भी...

कोई कहता / हूँ पूर्व जन्म की मुद्गलिनी इन्द्रसेना 

वैधव्य प्राप्त हुआ जिसे अल्पायु में...

कोई कहता / पिछले जन्म की नलयिनी हूँ मैं

नल और दमयन्ती की पुत्री लाडली बिटिया...

पर क्या यही सब अपराध थे इतने महान मेरे 

कि रौंदा गया बार बार आत्मा को मेरी ?

प्रतिशोध की अग्नि से उत्पन्न होना

क्या इच्छित रहा होगा मुझे ?

जीत कर स्वयम्वर में बाँट दिया पाँच भाइयों के मध्य

बनाकर वस्तु उपभोग की / विलासिता की...

कर दिया विदीर्ण हृदय को मेरे

एक स्त्री ने ही / जो स्वयं थी अपराधिनी उस पुत्र की

बिना ब्याहे ही जन्म देकर प्रवाहित कर दिया था जिसे नदी में

छिपाने को दुष्कर्म अपना...

मन में भरा था उल्लास जिसके नव दुलहिन की प्रथम रात्रि का

उमंग में भर कर रहे थे जो नर्तन

डाल दीं बेड़ियाँ उन्हीं पाँवों में / नाम पर संस्कारों के...

अब थी मैं पत्नी पाँच पुरुषों की

नहीं था अधिकार देखने का किसी अन्य पुरुष की ओर

और सहर्ष सगर्व किया स्वीकार नियति को मैंने अपनी...

पाँचों भाइयों की थीं अन्य पत्नियाँ भी

कह सकते हो मैं थी सौभाग्यवती इतनी 

कि मिला अगाध स्नेह पाँच पाँच पतियों का...

लेकिन मैं कहूँगी / मेरे हिस्से आया पौरुष बंटा हुआ... 

हाँ की थी मैंने प्रार्थना शंकर की पाँच बार

मिले पति सर्वगुण सम्पन्न मुझे / कौन नहीं करता...

पर मिला अभिशाप पाँच पतियों का / रूप में वरदान के...

हर बार लगाया गया मुझे ही दाँव पर

कभी नाम पर स्वयंवर के / तो कभी नाम पर राज्य के...

क्या अधिकार था पतियों का मेरे / लगाने का दाँव पर मुझे अकेली को 

जबकि थीं अन्य रानियाँ भी उनकी / जो नहीं थीं शापित मेरी तरह

जो नहीं बाँटी गई थीं पाँच पुरुषों में / नहीं बनाया गया था जिन्हें देवी...

हाँ कहा था मैंने अन्धे को पुत्र को अन्धा

पर क्या सत्य नहीं था यह ?

आँख से अन्धे पिता ने मूँदे हुए थे नेत्र मन के / पुत्रमोह में

और माता ने बाँध ली पट्टी आँखों पर

देने को छूट काली करतूतों को पुत्र की...

और महावीर अर्जुन तुम / जिसके गाण्डीव के एक तीर से फूट उठती थी वसुधा के हिय से अमृत की धारा

क्या टूट कर बिखर गया था गाण्डीव तुम्हारा / कष्ट से मेरे अपमान के...?

भीम तुम / बहुत बड़े गदाधारी थे न 

कर सकते थे जो समस्त ब्रह्माण्ड का भी भेदन

क्या वह भी रहा गया था बनकर काष्ठ का एक खण्ड मात्र...?

महाराज युधिष्ठिर / आप तो थे धर्म की प्रतिमूर्ति

किस अधिकार से किया आपने ये अधर्म

लगाने का दाँव पर मेरी अस्मिता को

जबकि हार चुके थे सर्वस्व अपना द्यूतक्रीड़ा में...?

वाह पितामह / झुका कर बैठ गए थे आप भी नेत्रों को अपने 

इतना मोह सिंहासन की अर्चना का / कि बन बैठे अधर्मी...?

मौन रहकर किया था आपने भी वही पाप

कम नहीं था अपराध आपका किसी दुःशासन से...

किन्तु दण्ड मिला मुझे सभी के कुकृत्यों का ऐसा

कि भरी सभा में किया गया प्रयास करने का निर्वसन...

न होता अगर सखा मेरा / या अनसुना कर देता वह भी प्रार्थना को मेरी

रह जाता बनकर मूक सुनकर चीत्कार मेरा

कौन ढकता तन एक रजस्वला नारी का...?

क्योंकि पति कहलाने वाले पाँचों पुरुष तो

बैठ रहे थे सर झुकाए कायर बने...

क्यों धर्म राज्य के नाम पर किया इतना बड़ा छल साथ मेरे 

कभी पिता ने / कभी पतियों ने...

किया गया अपमान बार बार आत्मा का मेरी...

किया गया प्रयास तोड़ने का बार बार स्वाभिमान को मेरे...

और देखो मुझे / फिर भी मैं खड़ी रही स्तम्भ बनी साथ पाण्डवों के

चलती रही अनवरत अन्तिम प्रयाण तक साथ उनके

क्योंकि मैं एक स्त्री हूँ / सदाचारिणी पतिव्रता

और गर्व है स्त्री होने पर स्वयं के...

हाँ, द्रौपदी हूँ मैं / सुनाती हूँ आज व्यथा कथा अपनी...

क्योंकि मैं हूँ प्रतीक समूची नारी शक्ति का

नारी / जो है स्वयं प्रकृति रूपा / मातृरूपा...

-------------------कात्यायनी...........

सोमवार, 16 जनवरी 2023

जाना हिंदी के एक और मैनेजर का - प्रेम प्रकाश



कलम और दवात जैसा मन

विदाई के भोजपत्र पर

पंक्तिबद्ध नमन!

...

स्मृति शेष : 1943-2023


जाना हिंदी के एक और मैनेजर का

- प्रेम प्रकाश


आपातकाल का अंधेरा तब थोड़ा दूर था, पर नेहरू युग जरूर किताब के पन्नों में प्रगतिशील आलोचकीय निकष पर आ चुका था। अगर नहीं थकी और झुकी थी तो हिंदी पत्रकारिता की वह असाधारण कलम, जिसने आजादी के आंदोलन के दौरान हासिल यशस्विता को इस दौरान भी विचार और लोकतंत्र की हिमायत में बहाल रखा। श्री कृष्ण किशोर पांडेय जी अब हमारे बीच नहीं रहे। हिंदी के घर-परिवार और संस्कार के बीच प्रखर आलोचक मैनेजर पांडेय के बाद शोक की यह दूसरी बड़ी खबर है। यह खबर और इससे जुड़ा संयोग और इस विदाई का पूरा समकाल नई चिंताओं और सवालों को जन्म देता है। यह हिंदी विमर्श और अभिव्यक्ति के एक और मैनेजर का जाना है, सर्द थपेड़ों के बीच एक और अलाव का ठंडा पड़ना है।


स्वर्णीय केके पांडेय का जीवन एक ऐसे प्रतिबद्ध हिंदी पत्रकार का सफरनामा है, जो 1968 से 2005 तक भरपूर सक्रियता के साथ अखबार के उस कक्ष को प्रतिष्ठा देता रहा, जिसे संपादकीय कक्ष कहा जाता है। मेरे जैसे पत्रकार के लिए उनकी स्मृति को नमन ऐसे विशाल वटवृक्ष के नीचे खड़ा होना है, जहां प्रशांत ऊर्जा की शालीन अनुभूति एक अक्षर मनोदशा को रचती है। उनके निधन पर सोशल मीडिया पर जिस तरह के संस्मरण लिखे जा रहे हैं, उन्हें लोग जिस लगाव और कचोट के साथ याद कर रहे हैं, वे ये जाहिर करते हैं कि पत्रकारिता की कम से कम दो पीढ़ी उनसे गहरे तौर पर जुड़ी रही। यह जुड़ाव पत्रकारिता के बदलते दौर में छपे शब्दों की अस्मिता को बहाल रखने के प्रशिक्षण के साथ हिंदी की अभिव्यक्ति और उसके सामर्थ्य को नए समकाल में ढालने की ईमानदार कोशिश थी।


गौरतलब है कि श्री कृष्ण किशोर पांडेय जब ‘हिंदुस्तान’ जैसे शीर्षस्थ अखबार के संपादकीय पृष्ठ को विचार और विमर्श के केंद्र में ला रहे थे, तब हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता पूरे लय में थी तो साथ ही खोजी पत्रकारिता की जमीन तेजी से पक रही थी। पत्र-पत्रिकाओं पर ताले झूलने का शोक तब किसी आशंका के गर्भ में भी नहीं था। हां, कई दूरद्रष्टा जरूर काल के क्षितिज पर छाते धुंधलके की बात कहने लगे थे। यह दौर अपने पूरे विस्तार में कुलदीप नैयर, बीजी वर्गीज, राजेंद्र माथुर, कमलेश्वर, धर्मवीर भारती, प्रभाष जोशी और सुरेंद्र प्रताप सिंह जैसी शख्सियतों की पत्रकारिता की लाजवाब पारी का साक्षी रहा।


इस दौरान दूरदर्शन ने जहां आंखें खोलीं, एशियाड दूसरी बार भारत लौटा, वहीं आगे चलकर श्रीमति इंदिरा गांधी के करिश्माई दौर का पटाक्षेप भारतीय राजनीति का सबसे दिलचस्प घटनाक्रम साबित हुआ। इतने सारे बदलावों और आगाजों के बीच कलम उठाना और अखबारी विमर्श का कंपास स्थिर करना आसान नहीं था। भाषाई संस्कार और हिंदी की अपनी धज और परंपरा के मुताबिक यह चुनौती कितनी बड़ी होगी, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि हिंदी सिनेमा का महानायक तब तक ‘पुष्पा के आंसू’ पर शोकाकुल होने के बजाय जमाने की नाइंसाफियों के खिलाफ सुलगते लावे की तरह एंग्री यंग मैन बन चुका था। बदलाव का दूसरा सिरा साहित्य को छू रहा था। हिंदी की किस्सागोई नई कहानी और कविताई नई कविता की शिनाख्त के साथ अपने होने को नई प्रतिबद्धता के सांचे में ढाल रही थी, नई चुनौतियों के बीच संवेदनशील सरोकारों को रच रही थी। कुल मिलाकर रचनात्मकता की दुनिया की हलचल हिंदी को नए प्रस्थान की ओर ले जा रही थी।


जिन लोगों ने भी उन्नत गौर ललाट और तिलकित भाल से सुशोभित पांडेय जी के साथ काम किया, उनके लिखने-पढ़ने की समझ और शैली को नजदीक से देखते-समझते रहे, वे ये बताते हैं कि उन्होंने भारतीय समाज और राजनीति के उत्तरायण और दक्षिणायन के बजाय उसके मध्याह्न को ज्यादा अहम माना। इसलिए विचार के तीखे कोणों के बजाए उन्होंने विमर्श और विरासत की दोमट मिट्टी पर अक्षर फूल खिलाए, नए समकोण खड़े किए।


इस अक्षर वाटिका की बड़ी बात यह रही कि इसमें नए चटख रंग और तासीर के फूलों ने हिंदी और हिंदुस्तान दोनों को एक साथ महकाया। नए कलम उठाने वालों ने लिखने के जोखिम और दायित्व को समझा। और इस तरह तैयार हुई नए लेखकों और पत्रकारों की एक पूरी खेंप। यह वह खेंप है जो भाषा से खिलवाड़, दो-तीन जीबी डेटा और अफवाह के दोस्ताने के बीच लिखने की मर्यादा को बचाए रखने के लिए अंतिम लश्कर के तौर पर आज भी कार्य कर रही है। 


इसके बाद हिंदी की बिंदी और मान को बचाए रखने के लिए न तो कोई लश्कर बचेगा और न ही बचेगा कोई संघर्ष। केके पांडेय की स्मृति और प्रेरणा को नमन के साथ यह बड़ा संकट बिल्कुल सामने दिख रहा है। बड़ी बात होगी कि इस संकट और अंधकार के बीच कहीं से एक नया कृष्ण किशोर होने की संभावना प्रकट हो। यह संभावना और इसके लिए बची-खुची उम्मीद हिंदी के पुराने कंगूरों और नए चबूतरों पर दीयों के बलने की अंतिम उम्मीद है। यह उम्मीद फलीभूत हो और इससे जुड़ा बोध चिरायु हो, ऐसी कामना है।

आपका तो वक्त आया हमारा तो दौर आयेगा! /........

 कुछ देर की खामोशी है फिर शोर आएगा

आपका तो वक्त आया हमारा तो दौर आयेगा!


हस्ताक्षर के साथ हर माह खूबसूरत लम्हें बनते हैं और लम्हों में शामिल वो सपने जो सच हुए है । पहली हस्ताक्षर पत्रिका के बनते वक्त "सहायक संपादक" का पद लेकर जिस जिम्मेदारी के साथ आगे बढ़े थे कदम , वही कदम कुछ महीनों के बाद मिली  पदोन्नती "प्रधान संपादक" से सम्मान और जिम्मेदारियों को थामें कुछ और आगे बढ़ते आए ।  मेरे लिए हस्ताक्षर और रुचि बाजपेयी शर्मा जी का साथ हर नई उपलब्धि के साथ साथ 

चलता है और आगे बढ़ जाने को प्रेरित करता है  ।  जनवरी अंक मेरे  लिए एक और खूबसूरत सा नए वर्ष का तोहफा एक और पदोन्नति को साथ लाया, मुझे पत्रिका में संपादक के पद से सम्मानित किया गया। मुझ पर इतना विश्वास रुचिपब्लिकेशन की टीम ने किया,जिस टीम की मैं खुद भी डायरेक्टर हूँ। इस पत्रिका के प्रति अपनी जिम्मेदारी को पूर्ण समर्पण के साथ निभाने का प्रयास करती रहूंगी। सभी हस्ताक्षर सहयोगियों का बहुत बहुत आभार और धन्यवाद।

  नए पथ पर मित्रों का स्नेहयुक्त आशीष अपेक्षित है।  💐💐




रविवार, 15 जनवरी 2023

धूप के अक्षर' केवल अभिनंदन ग्रंथ भर नहीं है-1/ अरविंद सिंह

 '


@अरविंद सिंह 


 "जब नसों में पीढ़ियों की, हिम समाता है 

       शब्द ऐसे ही समय तो काम आता है

           बर्फ पिघलाना जरूरी हो गया, चूंकि

               चेतना की हर नदी पर्वत दबाता है

                  बालियों पर अब उगेंगे धूप के अक्षर 

                       सूर्य का अंकुर धारा में कुलबुलाता है"

                       

                       (- ऋषभदेव शर्मा)


 


नौजवान शायर शौहर खतौलवी से कवि ऋषभदेव शर्मा बनने तक की यह साहित्यिक यात्रा, दरअसल  साहित्य, संस्कृति और हिंदी की सेवा भर नहीं है। बल्कि उत्तर भारत से, उस दक्षिण भारत का मिलन भी है। जो भाषा के सवाल पर, क्षेत्रीयता के सवाल पर भ्रमित देश को कभी एक नंगा फ़कीर जोड़ने चला था। जब एक तरफ उत्तर में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना हो रही थी, तो सुदूर दक्षिण भारत में हिन्दी प्रचार सभाओं की स्थापना, महात्मा गांधी के कर कमलों से हो रही थी। हिंदी की ताकत और उसकी समन्वयकारी शक्ति की पहचान महात्मा ने आजादी के आंदोलन के प्रारम्भिक दौर में ही कर लिया था। जिसके परिणाम स्वरूप दक्षिण भारत में तमिल, तेलुगू, कन्नड़ जैसी क्षेत्रीय भाषाओं का मिलन हिंदी से हो रहा था। यह मिलन भले राजनीतिक कारणों से महात्मा के माध्यम से हो रहा था, लेकिन यह भाषाई आधार पर एक महा-मिलन था, आर्य भाषाओं का द्रविण भाषाओं से । या यूं कहें कि यह मिलन, आर्य संस्कृति का द्रविण संस्कृति से हो रहा था। इस मिलन के केंद्र में पुरातन उत्तर भारत की सनातन संस्कृति थी, जिसके पताका को दक्षिण भारत में फहराने वाले विश्व के प्रथम समाजवादी, मर्यादा पुरुषोत्तम, स्वयं प्रभु श्रीराम थे। जिनके दर्शन को महात्मा गांधी ने अपने जीवन में आत्मसात कर, जीवन पर्यन्त उसी पथ का गामी बनना स्वीकार किया था। और आखिरी पल तक उसी रामनाम के मंत्र को जपते हुए आखिरी शब्द के रूप में बोला था- 'हे राम!'


   समय की रेखा पर हमारे समय में, भगवान श्रीराम और महात्मा गांधी के बताए हुए उसी पथ पर, उत्तर भारत से चलकर एक इन्टेलीजेंस का अफसर दक्षिण भारत पहुंचता है। अपनी महत्वपूर्ण पदवी और प्रतिष्ठा को त्याग कर, दक्षिण भारत में हिंदी की सेवा के लिए कंटकाकीर्ण पथ का वरण करता है और हिंदी की इस यज्ञशाला में अपना संपूर्ण जीवन ही न्यौछावर कर देता है। नाम है 'ऋषभदेव शर्मा', जो पिछले बरस 2015 में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा मद्रास के 'उच्च शिक्षा एवं शोध संस्थान' से आचार्य और अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त हुए। जिनके जीवन सफ़र, व्यक्तित्व और कृतित्व पर आधारित एक अभिनंदन ग्रंथ का संपादन उनकी शिष्य परंपरा ने किया। दो खंडों में प्रकाशित इस महाग्रंथ का शीर्षक कविताई है -'धूप के अक्षर'।

    उसी शिष्य परंपरा में यह पंक्तिकार भी आता है। लेकिन इस पुस्तक की समीक्षा करते हुए वह एक स्वतंत्र लेखक है। जो गुण-दोष के आधार पर नीरक्षीर देखने का हामी है, दरअसल इस नैतिकता को भी, इसी गुरु परंपरा ने सिखाया  था और है।

इस संदर्भ में "धूप के अक्षर" की निष्पक्ष समीक्षा करें तो आज एक बार फिर इतिहास की पुर्नस्थापना हो रही है। वह अतीत हमारे वर्तमान में प्रवेश कर रहा है। जिसे हमारे पुरखों ने गढ़ा और जन-जन के मानस में स्थापित किया था। उत्तर भारत की सनातन संस्कृति के ध्वजवाहक का, दक्षिण के द्रविण संस्कृति से मिलन हो रहा है।  यह मिलन साहित्यिक भी है और सांस्कृतिक भी है। यह यूं कहें कि यह उत्तर से दक्षिण का साहित्य-सेतुबंध है, और हम जैसे उत्तर भारतीयों के लिए दक्षिण भारत में प्रवेश द्वार भी है। भाषाई आधार पर बिखरते और टूटते भारत को महात्मा गांधी ने जिस समन्वयकारी हिंदी से जोड़ने का प्रयास, उत्तर भारत से दक्षिण भारत में पग-पग चल कर किया था, आज उसी पथ के गामी प्रोफेसर ऋषभदेव शर्मा भी हैं।

  साहित्य का जो कपाट तेलुगू, तमिल और हिंदी भाषाओं के सवाल पर एक मंच पर खुलता नज़र आता है, उसकी पृष्ठभूमि में भले हमारे पूर्वजों का योगदान रहा हो, लेकिन वर्तमान ऋषभदेव शर्मा सरीखे हिंदी सेवियों के महान त्याग और समर्पण से समृद्ध होता है। 'धूप के अक्षर' इस सन्दर्भ में दशकों की इस संघर्ष भरे पथ की परिचय की एक पारदर्शिया है, जो ग्रंथ के नायक के संपूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व का अंशमात्र निरुपण है। कुछ शख्सियतें शब्दों के सांचों में ढ़ाले नहीं जातें हैं। बस महसूस किए जाते हैं।

 

क्रमशः

 'धूप के अक्षर'-अभिनंदन ग्रंथ-प्रो०ऋषभदेव शर्मा 

  प्रकाशक- अनंग प्रकाशन,नई दिल्ली

  संपादक मंडल-(डॉ जी०नीरजा, डॉ राकेश कुमार शर्मा, डॉ बी०बालाजी, डॉ चंदन कुमारी, डॉ मंजु शर्मा )

   मूल्य -1195रु

   समीक्षक- डॉ अरविन्द सिंह

शनिवार, 14 जनवरी 2023

फिर शीतलहर../ *प्रेम रंजन अनिमेष*

 

फिर शीतलहर / प्रेम रंजन अनिमेष

                             🌀

खबरों को भी पीछे छोड़ कर

फिर आ गयी शीतलहर

बदहवास बेखबर 


वह गयी ही थी

विदा होकर अभी 

कि फिर आ पहुँची


यह तो अच्छा 

कि अब पहले से

मौसम और उसके बदलने का

चल जाता पता


फिर भी आदमी

क्यों नहीं 

कर पाता

जो वह कर सकता


जबकि मालूम है 

भेड़ें तैयार 

निछावर करने को

अपने रोंये रोंये 


और सदियों से दबे

कोयले बेताब निकलने को

धरती की खोह से

सुलगने दहकने के लिए  


क्यों जा रहा

चूल्हे से ताव

जबकि माँ अब भी

बैठी पास पकाने बनाने की खातिर

दादी अँगीठी बोरसी जोरती

आग तापने जुगाने के वास्ते

परिजन घेरे उसे

कि जाये नहीं वह कहीं 

रह जाये


जहाँ रहनी चाहिए आँच

होना चाहिए भाव

वही सबसे अधिक अभाव

क्या फिर जलाये नहीं जा सकते 

अहर्निश अलाव 


कि कुछ तो कम हो

सर्द हवाओं का प्रभाव

और पिघले भीतर रगों तक 

बर्फ का जमाव 


शीतयुद्ध समय समाप्ति की 

हो चुकी घोषणा बहुत पहले 

फिर भी क्यों 

हाल माहौल ऐसा


क्या फिर हिमयुग की ओर

जा रहा संसार 

या अब वक्त ऐसा

कि रुत हो चाहे कोई 

बोलेगी हर तरफ 

इति को ले जाती 

अति की तूती 


ऐसा आलम

जिसमें सम

या मध्यम 

नहीं कहीं 

या हो भी

तो उसकी

कोई कद्र नहीं 


देह में होती

सबसे अधिक धाह

आह कराह में आग

और आँच उन दिलों में 

जो धड़कते दूसरों के लिए 


मैं बस चाहता इतना

पूछना सबसे 

और अपने आप से 


कि जहाँ जहाँ शीतलहर

क्या चलायी नहीं जा सकती वहॉं 

प्रीतलहर...?

                               🔥

( आने वाले कविता संग्रह  *' अवगुण सूत्र '* से )

                                ✍️ *प्रेम रंजन अनिमेष*

पवित्र बंधन

 *इस समाज में एक रिश्ता ऐसा भी है जहां तीखी नोकझोंक भी होती है,*


*तकरार भी होता है*,

 *युद्ध भी होता है।*

*परन्तु*

*छिटपुट घटनाओं को छोड़ कर*

*जब पुनः मिलन होता है*  *रहीम का लिखा दोहा भी* *झूठा हो जाता है।*


*रहिमन धागा प्रेम का , मत तोड़ो चटकाय ।*

*टूटे पर फिर ना जुड़े , जुरे गाँठ पड़ जाय ।।*


*समाज में अक्सर देखा गया है अनुभव किया गया है पति* *पत्नी के रिश्ते में* *मिलन के बाद गांठ नहीं रह जाती*


* कारण इस रिश्ते को पवित्र बंधन कहा जाता है।*

बुधवार, 11 जनवरी 2023

🌹 गीता पढ़ने के दुर्लभ लाभ 🌹

 .



1.     जब हम पहली बार 

        भगवत गीता पढ़ते हैं, तो हम

   एक अंधे व्यक्ति के रूप में पढ़ते हैं.

   बस इताना ही समझ में आता है, कि 

           कौन किसके पिता, 

             कौन किसकी बहन,

               कौन किसका भाई है.

                  बस इससे ज्यादा 

              कुछ समझ में नहीं आता.


2.     जब दूसरी बार गीता पढ़ते हैं तो 

      हमारे मन मे सवाल जागते हैं , कि

         उन्होंने ऐसा क्यों किया या

             उन्होंने वैसा क्यों किया ?


3.    जब तीसरी बार गीता को पढ़ेंगे,

    तो हमें धीरे-धीरे उसके मतलब

      समझ में आने शुरू हो जायेंगे,

       लेकिन , हर एक को वो मतलब 

     अपने तरीके से ही समझ में आयेंगे.


4. जब चौथी बार हम गीता को पढेंगे, 

  तो हर एक पात्र की जो भावनायें हैं,

     उसको आप समझ पायेंगे कि

      किसके मन में क्या चल रहा है.


5. जब पाँचवी बार हम गीता को पढेंगे 

        तो पूरा कुरूक्षेत्र हमारे मन में

       खड़ा होता है , तैयार होता है.

    हमारे मन में अलग-अलग प्रकार की 

               कल्पनायें होती हैं.


6. जब हम छठी बार गीता को पढ़ते हैं,

   तब हमें ऐसा नहीं लगता कि हम

  पढ़ रहे हैं , हमें ऐसा ही लगता है , कि

        कोई हमें बता रहा है.


7. जब सातवीं बार गीता को पढेंगे

   तब हम अर्जुन बन जाते हैं , और

     ऐसा ही लगता हैं कि सामने

         वही भगवान हैं, जो मुझे

               ये बता रहे हैं.


8.    और जब आठवीं बार 

          गीता को पढ़ते हैं , तब 

          यह एहसास होता है कि

             कृष्ण कहीं बाहर नहीं हैं,

          वो तो हमारे अंदर हैं और हम

                 उनके अंदर हैं.

    जब हम आठ बार भगवत गीता

         पढ़ लेंगे , तब हमें

      गीता का महत्व पता चलेगा

  कि संसार मे भगवत गीता से अलग

    कुछ है ही नहीं और इस संसार में

      भगवत गीता ही हमारे मोक्ष का

             सबसे सरल उपाय है.


       भगवत गीता में ही मनुष्य के 

        सारे प्रश्नों के उत्तर लिखें हैं.

  जो प्रश्न मनुष्य ईश्वर से पूछना चाहता है,

      वो गीता में सहज ढंग से लिखे हैं.

   मनुष्य की सारी परेशानियों के उत्तर

         भगवत गीता में लिखे हैं.

    गीता के जितने अध्याय हैं ,

 उतनी बार भागवत गीता को पढ़िए.

   तब जाकर आप कृष्ण की तरह

    एक योद्धा बनेंगे,

      एक रणनीतिकार भी बनेंगे,

        और एक कुशल वक्ता भी बनेंगे.


         🌹

रविवार, 8 जनवरी 2023

कामता प्रसाद सिंह काम / आज़ादी के दीवाने और उनके चार नारे

  

वंदे मातरम आज हमारे लिए किसी सुमधुर गीत से अधिक कुछ न हो पर एक समय था जब इससे हमारे राष्ट्रीय जीवन की प्रतिष्ठा जुड़ी हुई थी। आज हमारे लिए इंकलाब जिन्दाबाद किसी जुलूस का उन्माद होकर भले ही रह गया हो, पर एक समय ऐसा भी था जब यह क्रांति का संवाहक हुआ करता था। जय हिन्द अब हमारे लिए महज एक बोल हो, पर कभी यह हमारी चेतना और स्फूर्ति का मंत्र था। और आज दिल्ली चलो की पुकार का चाहे कोई मतलह हो, न हो, पर एक वक्त यह हमारे धर्म और कर्म का मार्ग निर्धारित करता था।

स्वतंत्रता सेनानी और लेखक कामता प्रसाद सिंह काम जी का आलेख आजादी के चार नारे उस दौर को हमारे सम्मुख ला खड़ा करता है, जिसे हम भूलने लगे हैं। यह आलेख उन्होंने उन्नीस सौ बयालिस में या संभवतः उससे भी पहले लिखा था। इसमें उस समय के जोश और जज्बे को बखूबी देखा जा सकता है। ये नारे बुलन्द करते-करते कामता बाबू खुद भी जेल गए। 


इस आलेख की पहली कड़ी रंजन कुमार सिंह के स्वर में https://youtu.be/euGGrkn0RtY


शुक्रवार, 6 जनवरी 2023

💐💐ह्रदय रूपी मंदिर 💐💐*




*प्रस्तुति - रेणु दत्ता / आशा सिन्हा 



एक बार भगवान दुविधा में पड़ गए! कि कोई भी मनुष्य जब मुसीबत में पड़ता है, तब मेरे पास भागा-भागा आता है और मुझे सिर्फ अपनी परेशानियां बताने लगता है,मेरे पास आकर कभी भी अपने सुख या अपनी संतुष्टि की बात नहीं करता मेरे से कुछ न कुछ मांगने लगता है!


अंतत:  भगवान ने इस समस्या के निराकरण के लिए देवताओं की बैठक बुलाई और बोले- कि हे देवो, मैं मनुष्य की रचना करके कष्ट में पड़ गया हूं। कोई न कोई मनुष्य हर समय शिकायत ही करता रहता हैं, जबकी मै उन्हे उसके कर्मानुसार सब कुछ दे रहा हूँ। फिर भी थोड़े से कष्ट मे ही मेरे पास आ जाता हैं। जिससे न तो मैं कहीं शांति पूर्वक रह सकता हूं, न ही  शास्वत स्वरूप में रह कर साधना  कर सकता हूं। आप लोग मुझे कृपया ऐसा स्थान बताएं, जहां मनुष्य नाम का प्राणी कदापि न पहुंच सके।


प्रभु के विचारों का आदर करते हुए देवताओं ने अपने-अपने विचार प्रकट करने शुरू किए। गणेश जी बोले- आप हिमालय पर्वत की चोटी पर चले जाएं। भगवान ने कहा- यह स्थान तो मनुष्य की पहुंच में हैं। उसे वहां पहुंचने में अधिक समय नहीं लगेगा। इंद्रदेव ने सलाह दी- कि  आप किसी महासागर में चले जाएं। वरुण देव बोले- आप अंतरिक्ष में चले जाइए।


भगवान ने कहा- एक दिन मनुष्य वहां भी अवश्य पहुंच जाएगा। भगवान निराश होने लगे थे। वह मन ही मन सोचने लगे- “क्या मेरे लिए कोई भी ऐसा गुप्त स्थान नहीं हैं, जहां मैं शांतिपूर्वक रह सकूं"।


अंत में सूर्य देव बोले- प्रभु! आप ऐसा करें कि मनुष्य के हृदय में बैठ जाएं! मनुष्य अनेक स्थान पर आपको ढूंढने में सदा उलझा रहेगा, क्योंकि मनुष्य बाहर की प्रकृति की तरफ को देखता है दूसरों की तरफ को देखता है खुद के हृदय के अंदर कभी झांक कर नहीं देखता इसलिए वह यहाँ आपको कदापि तलाश नहीं करेगा। 


करोड़ों में कोई एक जो आपको अपने ह्रदय में  तलाश करेगा  वह आपसे शिकायत करने लायक नहीं रहेगा  क्योंकि उसकी बाहरी इच्छा शक्ति खत्म हो चुकी होगी ईश्वर को सूर्य देव की बात पसंद आ गई। उन्होंने ऐसा ही किया और भगवान हमेशा के लिए मनुष्य के हृदय में जाकर बैठ गए।


उस दिन से मनुष्य अपना दुख व्यक्त करने के लिए ईश्वर को मन्दिर, पर्वत पहाड़ कंदरा गुफा ऊपर, नीचे, आकाश, पाताल में ढूंढ रहा है पर वह मिल नहीं रहें हैं।

परंतु मनुष्य कभी भी अपने भीतर ईश्वर को ढूंढने की कोशिश नहीं करता है  

इसलिए मनुष्य "हृदय रूपी मन्दिर" में बैठे हुए ईश्वर को नहीं देख पाता और ईश्वर को पाने के चक्कर में दर-दर घूमता है पर अपने  ह्रदय के दरवाजे को खोल कर नहीं देख पाता..!!

*कहानी से सीखः-*

“हृदय रूपी मंदिर” में बैठे हुए ईश्वर को देखने के लिए “मन रूपी द्वार” का बंद होना अति आवश्यक है, क्योंकि “मन रूपी द्वार” संसार की तरफ़ खुला हुआ है और “हृदय रूपी मंदिर” की ओर बंद है।




*सदैव प्रसन्न रहिये।*

*जो प्राप्त है, पर्याप्त है।।*


🙏🌳🙏

गुरुवार, 5 जनवरी 2023

चकल्लस ----------

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“अरे नामाकूलो, मेरा चश्मा कहाँ मर गया” मां जी पूरी ताकत से चिल्लाईं। 



“फिर ये शैतान की औलाद मेरा चश्मा उठाकर ले गए। मेरा तो इस घर में जीना मुहाल हो गया है। पता नहीं क्या खाकर पैदा किया है इन चुड़ैलों ने औलादों को। सारे दिन मेरे ही सामानों के पीछे पड़े रहते हैं। कभी कोई मेरा चश्मा उठाकर ले जाएगा तो कभी मेरी एक चप्पल कानपुर में मिलेगी तो दूसरी बरेली में। इस छोटे की औलाद तो इतनी अफलातून है कि शैतान भी शरमा जाय। लाख खिलौने बाप ने लाकर रख रखे हैं मगर इन्हे तो चाहिए बस मेरी छड़ी, मेरी चप्पलें और मेरा चश्मा। अरे एक दिन तो हद हो गई। बरसात होकर थम गई थी। बच्चे बाहर रेत में मिट्टी के घरौंदे बना रहे थे। देखूँ तो डिब्बी में से मेरे दाँत गायब हैं। छड़ी उठाकर बाहर गई तो देखा कि इन शैतानों की औलादों ने एक मिट्टी का पुतला बना रखा है और उसके मुंह में मेरे दांतों का सैट लगा रखा है। 

मैंने भी कह दिया ‘अपनी मां चुड़ैलों की मूर्ती बना रहे हो क्या नालायको। नामुराद मुझे देखते ही दाँत वहीं छोड़कर रफूचक्कर हो गए। बड़ी मुश्किल से दांतों को पहले दो बार साबुन से धोया। फिर गंगाजल में डुबोकर रखा। अब बुढ़ापे में इतना भी कहाँ होता है। हाथ पाँव तो पहले ही काँपते हैं। ऊपर से इस गठिया की बीमारी ने जकड़ रखा है। फिर दुनिया के सब से शरारती बच्चों से सारे दिन की चिल्ल पों। अब देखो न। मेरे दोनों बेटे इतनी मेहनत करके अच्छी भली कमाई करते हैं। घर में फल चौकलेट और मिठाइयों से फ्रिज भरे पड़े रहते हैं मगर इन बंदर के बच्चों को देखो। स्टूल लगाकर मेरी आलमारी खोल लेंगे। पता चला कि मेरे बिस्किट चट्ट। खुद नहीं खाएँगे तो मुहल्ले के बच्चों को बाँट आएंगे। दो मिनट बारामदे में जा बैठूँ तो धमाचौकड़ी मचाने को इन्हे मेरा ही बिस्तर मिलता है। सुबह ही छोटी बहू से झाड़कर बिस्तर ठीक कराया था मगर नालयकों ने उसे खेल का मैदान बना दिया है।”

मांजी के कमरे से सारे दिन ऐसी आवाजें आती रहतीं। जब उनके स्वर में वास्तविक क्रोध सुनाई देता तो दोनों में से कोई एक बहू उनकी शिकायत सुनकर और माँजी की अनवरत झिड़कियाँ सुनते हुए व्यवस्था ठीक करके चली जाती। 

शाम को जब बेटे काम से लौटते तो एक बार माँ के कमरे में जरूर जाते। माँजी का शिकायतों से भरा टेप फिर शुरू हो जाता। “बहुओं को शऊर नहीं है। बच्चे बिगड़ते जा रहे हैं। मेरी आलमारी खोलकर मेरे सारे बिस्किट चट कर जाते हैं या मुहल्ले के बच्चों में बाँट देते हैं। मेरा पानी का ग्लास झूँठा कर देते हैं।” 

“अरे मां, क्यूँ चिंता करती हो। मैं लाया हूँ न आप के पसंद के बिस्किट।” 

“अरे बुद्धू, यही तो मैं कह रही हूँ। ऐसे क्या घर चलते हैं। घर में रखी चीज तो मुहल्ले भर के बच्चों में बांटते फिरो और खरीद खरीद कर खर्चा करते रहो। तुम समझाते क्यूँ नहीं इन ...।”

दुनिया की हर बात खत्म हो सकती है किन्तु माँजी के ताने उलाहनों और शिकायतों का पिटारा नहीं। 

गर्मियों के छुट्टियों के दिन थे। छोटी बहू के भैया माइके में छुट्टियाँ गुजरने के लिए बच्चों को लेने आ गए। तय हुआ कि चारों बच्चे छोटी बहू के साथ छुट्टी एंजोया करने चले जाएंगे और बड़ी बहू माँजी और घर की देखभाल करने के लिए यहीं रहेगी। 

सोमवार का दिन था। दोनों बेटे अपने अपने काम पर चले गए थे और बहू रसोई के काम निपटाने में लगी थी। तभी माँजी के कमरे से आवाज आई “अरे नालयको, मेरा चशमा कहाँ है।”

बहू पल्लू से हाथ पौंछती हुई भागी चली आई। 

“अरे बहू। देखना मेरा चशमा कहाँ गया। ये नालायक तो ...।”

“माँजी, चश्मा तो वहीं सामने मेज पर पड़ा है और बच्चे तो मामा के यहाँ गए हैं।”

“पता है। दिख रहा है। इतनी भी आँख नहीं फूट गई हैं मेरी। अच्छा है शरारती कुछ दिन मामा के यहाँ रहें। घर में शांति तो है। पूरे दिन धमाचौकड़ी मचाए रहते हैं।”

कुछ देर बीती थी कि माँजी के कमरे से दोबारा आवाज आई “अरे मेरे छड़ी कहाँ मर गई। अरे बहू, बहरी हो गई हैं क्या। मैं कितनी देर से गला फाड़ रही हूँ।”

“आई माँजी। आप की छड़ी तो वहीं दरवाजे के पीछे खड़ी है जहां आप रखती हैं। ठहरिए मैं देती हूँ।”

“अरे रहने दे। इतने भी हाथ पाँव नहीं टूट गए हैं मेरे। जरा सी आवाज मुंह से निकालो तो छाती पर आ खड़ी होती है। और देख ये खाने का सामान। अलमारी बिस्कुटों से भारी पड़ी है। भला सीलकर खराब नहीं हो जाएंगे। घर चलाने का शऊर तो है नहीं किसी को यहाँ। एक चीज मंगाओ, दस लाकर रख देंगे।”

थोड़ी ही देर में माँजी के कमरे से फिर आवाज आई “अरे बहू, जरा रेडियो ही चला दे। पता नहीं सारे दिन रसोई में घुसी क्या करती रहती है। इतना नहीं कि दो मिनट मेरे पास भी बैठ जाए। ये सन्नाटा तो मुझे खाये चला जाता है। सारा घर साँय साँय कर रहा है।”

शाम को बेटे घर लौटे तो माँजी का पारा सातवें आसमान पर था। दोनों को तुरंत हाजिर होने का आदेश दिया गया। माँजी के चेहरे पर क्रोध की रेखाएँ देखकर दोनों अपराधी की तरह चुपचाप बैठ गए। 

“क्यों रे, तुम दोनों के दिल में माया ममता बिलकुल मर गई है क्या। बालक आठ दिन से दूसरे की देहरी पर पड़े हैं। तुम्हारे घर में रोटियों के लाले पड़े हैं क्या।” उन्होने रोष के साथ कहा। 

“अरे माँजी, कुछ दिन और रहने दो शरारतियों को वही। आप को तो पूरे दिन परेशान करते हैं न।” छोटे ने शरारत से मुसकराकर कहा। 

“अरे मुझे करते हैं न परेशान। उस से तुझे क्या। तड़के ही चला जा और बालकों को लिवा ला।”

दोनों बेटे मुस्कराते हुए अपने कमरों में चले गए।


मंगलवार, 3 जनवरी 2023

कवि सम्मेलन से हुआ नये साल का आगमन

 

शिक्षक श्रीराम ने नव वर्ष कवि सम्मेलन का किया आयोजन


कवियों के रचनाकारों ने गुलजार हुई संध्या


नए वर्ष के आगमन के उपरांत ईश्वर चंद्र जायसवाल,संत कबीर नगर की अध्यक्षता में नव वर्ष काव्योत्सव का आयोजन कवि स्पर्श साहित्यिक मंच पर किया गया। जिसमें आगत कवि व कवियित्रियों के द्वारा नव वर्ष पर पेड़ लगाने से लेकर सामाजिक कुरीतियों को दूर करने संबंधित काव्य पाठ किए गए। महासचिव अरविंद अकेला,पटना ने आपस में मिल जुल कर रहने का संदेश दिया। जहां मुख्य अतिथि के रूप में डा ब्रजेंद्र नारायण द्विवेदी शैलेश ने मंच को अपना आशीर्वाद देते हुए कार्यक्रम का उद्घाटन किया। वहीं विशिष्ट अतिथि के रूप में आकाश कुमार सिंह,समाजसेवी ने अंग्रेजी नव वर्ष पर सभा को संबोधित करते हुए सभी को नव वर्ष की शुभकामनाएँ दी। कवि स्पर्श साहित्यिक पटल पर शिक्षक सह वरीय कवि श्रीराम राय के द्वारा कार्यक्रम का संचालन किया गया। वही इशिता सिंह,लखनऊ के द्वारा मंत्र मुग्धय करने वाला सरस्वती वंदना के साथ नव वर्ष कवि सम्मेलन प्रारंभ हुआ। कवि सम्मेलन में प्रथम स्थान पर डॉ गीता पांडे अपराजिता रायबरेली ने नव वर्ष के स्वागत में नव वर्ष के स्वागत में अपनी रचना प्रस्तुत की। इसके बाद नौशीन परवीन रायपुर ,जितेन्द्र परमार “जीत” ,उमेश कुमार श्रीवास, जयरामनगर, बिलासपुर छ. ग., यामिनी पाण्डे रायपुर, अमिता मिश्रा, बिलासपुर, छत्तीसगढ़, ईश्वर चंद्र जायसवाल, संत कबीर नगर (उत्तर प्रदेश) ,कवयित्री अन्नपूर्णा मालवीया (सुभाषिनी) प्रयागराज उत्तर प्रदेश,श्वेता दूहन देशवाल मुरादाबाद उत्तर प्रदेश ,प्रकाश कुमार मधुबनी’चंदन’,ललिता कुमारी वर्मा अविरल अलीगढ़ उत्तर प्रदेश ,सोनिया ओलाहन उत्तर प्रदेश,अर्चना अनुप्रिया, नयी.दिल्ली,गोवर्धन लाल बघेल टेढी़नारा छत्तीगढ़, राजेश तिवारी मक्खन झांसी उ प्र,सुधीर श्रीवास्तव गोण्डा उत्तर प्रदेश, खेमराज साहू ‘राजन ‘ दुर्ग, छत्तीसगढ़ ,मणि बेन द्विवेदी वाराणसी ,बालेश्वर राम चंद्रवंशी चतरा ,झारखंड , रंजुला चंडालिया कुमुदिनी महाराष्ट्र ,सनुक लाल यादव बालाघाट मध्य प्रदेश ,आशा झा सखी जबलपुर (मध्यप्रदेश), इशिता सिंह लखनऊ ,कलावती करवा षोडश कला,स्वाति जैसलमेरिया ,प्रीति हर्ष नागपुर ,रंजना बिनानी,आरती तिवारी दिल्ली ,मधु भूतड़ा ,मधु वैष्णव मान्या ,विद्या शंकर अवस्थी पथिक कानपुर , सुषमा सिंह, औरंगाबाद ,डॉ ब्रजेन्द्र नारायण द्विवेदी शैलेश वाराणसी , वी अरुणा, कोलकाता, जनार्दन शर्मा,इंदौर, भेरूसिंह चौहान “तरंग” झाबुआ(म. प्र.)रश्मि मिश्रा विदुषी छत्तीसगढ़ आदि तीन दर्जन से अधिक रचनाकारों ने नव वर्ष पर काव्य पाठ कर देश समाज को अपने संदेश दिए। कवि साहित्यकार अरविंद अकेला ने सभी का धन्यवाद ज्ञापन किया साथ ही शिक्षक श्रीराम राय के द्वारा सभी को आकर्षक सम्मान पत्र भेंट किया गया।।

खो गयी कहीं चिट्ठियां

 प्रस्तुति  *खो गईं वो चिठ्ठियाँ जिसमें “लिखने के सलीके” छुपे होते थे, “कुशलता” की कामना से शुरू होते थे।  बडों के “चरण स्पर्श” पर खत्म होते...