गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

सुरेन्द्र सिंघल की दो गजलें








मैं कि अब ख़ुद को समंदर में डुबोना चाहता हूं
 यानि खु़द में ही समंदर को समोना चाहता हूं

मुझको खुद पर तो नहीं विश्वास तुमसे पूछता हूं
मैं तुम्हारा ही कि या अपना भी होना चाहता हूं

खूंटियों पर टांग सारा बोझ दिन भर की थकानें
निर्वसन हो फर्श पर कमरे के सोना चाहता हूं

 अब कि जब तेरे बदन की आग भी धुंधुआ रही है
घुट न जाए दम धुएं के पार होना चाहता हूं

मुझको अब मेरे अंधेरों में भटकने दो अजीज़ो
बात ये है रोशनी के दाग़ धोना चाहता हूं

             2


गर नहीं बस में मेरे तेज हवाएं रोकूं
 जिस तरह भी हो मगर बुझने से शमऐं रोकूं


मुझको दीवार समझ पीठ टिकाली उसने
अब मेरा फ़र्ज़ है गिरती हुई ईंटें रोकूं

दफ़्न जिंदा ही मुझे करने चली है ये सदी
कैसे ताबूत में ठुकती हुई कीलें रोकूं

रोज़ कुछ और सिमट जाती है तेरी दुनिया
रोज़ कुछ कितना सिमट जाऊं कि सांसें रोकूं

              सुरेंद्र सिंघल

मंगलवार, 28 अप्रैल 2020

बार बार बीमार क्यों?




*क्या वाकई इंसान बार बार बीमार होता है ?*

सभी अस्पतालों की OPD बन्द है,  आपातकालीन वॉर्ड में कोई भीड़ नही है। कोरोना बाधित मरीजों के अलावा कोई नए मरीज नही आ रहे हैं। सड़कों पर वाहन ना होने से दुर्घटनाएं नही हैं। हार्ट अटैक, ब्लड प्रेशर, ब्रेन हैमरेज के मामले अचानक बहुत कम हो गए हैं।

अचानक ऐसा क्या हुआ है, की बीमारियों की केसेस में इतनी गिरावट आ गई ? यहाँ तक कि श्मशान में आनेवाले मृतको की संख्या भी घट गई हैं।

क्या कोरोना ने सभी अन्य रोगों को नियंत्रित या नष्ट कर दिया है?

नही ? बिल्कुल नही ?

दरअसल अब यह वास्तविकता सामने आ रही है, की जहाँ गंभीर रोग ना हो, वहाँ पर भी डॉक्टर उसे जानबूझ कर गंभीर स्वरूप दे रहे थे और डॉ विश्वरूप राय चौधरी की बाते सही साबित हो रही कि अस्पताल से जिंदा कैसे लौटे ?

जब से भारत में कॉर्पोरेट हॉस्पिटल्स, टेस्टिंग लॅब्स की  बाढ आई, तभी से यह संकट गहराने लगा था। मामूली सर्दी, जुकाम और खांसी में भी हजारों रुपये की टेस्ट्स करनें के लिए लोगों को मजबूर किया जा रहा था। छोटी सी तकलीफ में भी धड़ल्ले से ऑपरेशन्स किये जा रहे थे। मरीजों को यूँ ही ICU में रखा जा रहा था। बीमारी से ज्यादा भय उपचार से लगने लगा था।

अब कोरोना आने के बाद यह सब अचानक कैसे बन्द हो गया?

इसके अलावा एक और सकारात्मक बदलाव आया है। कोरोना आने से लोगों के होटल में खाने पर भी अंकुश लग गया है। लोग स्वयं ही बाहर के सड़क छाप और यहाँ तक कि बड़ी होटलों से अधिक घर का खाना पसंद करने लगे हैं। लोग ताजे फल ,सलाद, सब्जियों का प्रयोग अपने विवेक से ही ज्यादा कर रहे है और फलस्वरूप स्वस्थ भी हो रहे है।यही नही

लोगों के अनेक अनावश्यक खर्च बंद हो गए हैं ? कोरोना नें इंसान की सोच में परिवर्तन ला दिया है। हर व्यक्ति जागृत हो रहा है। शांति से जीवन व्यतीत करने के लिए कितनी कम जरूरतें हैं, यह अगर वास्तव में समझ में आ रहा हो, तो उसे बीमारियाँ, भोजन, और पैसे की चिंताओं से बहुत हद तक मुक्ति मिल सकती है।

प्रदूषण का स्तर भी नीचे गिरा है जिसका लाभ भी मिल रहा है।सभी परिवार के सदस्य भी पास आ गए है जिससे मानसिक तनाव का स्तर भी नीचे गिरा है।लोगो के भगदौड़ कम होने से खुद की चीजो को व्यवस्थित करने का वक्त मिला है।ज्यादातर लोग व्यायाम कर रहे है दिनचर्या ठीक हुई है।

आज ना कल  कोरोना पर तो नियंत्रण हो ही जाएगा, पर उससे हमारा जीवन जो आज नियंत्रित हो गया है, उसे यदि हम आगे भी इसी तरह नियंत्रण में रखें, आवश्यकताएँ कम करें,  तो जीवन वास्तव में बहुत सुखद एवं सुंदर हो जाएगा।वस्तुतः अच्छे जीवन को इतनी जरूरत है नही जितना आडम्बर हमने जुटा रखे है।

यही कडवा सत्य है ।
अतः अपने जीवन को सरल,सहज बनाये व स्वस्थ रहे प्रशन्न रहे यही प्रकृति और यही परमपिता ईश्वर भी चाहते है।
💐💐💐🙏

शनिवार, 25 अप्रैल 2020

राधास्वामी


:


🙏🌹🙏

*धन*
        की
             भूख
                    *भिखारी*
                                   बना
                                          देती
                                                   है !

                     और

*'नाम'*
          की
               भूख
                     *बादशाह*
                                     बना
                                           देती
                                                   है !!


     🙏🙏 *- फैसला आपका -* 🙏🙏


🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
🙏🙏🙏🙏 *राधास्वामी* 🙏🙏🙏🙏


🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

राधास्वामी दयाल की दया राधास्वामी सहाय
राधास्वामी
राधास्वामी
राधास्वामी
राधास्वामी
राधास्वामी
।।।।।।।।।।। 

विनोद सिंह की हिंदी और भोजपुरी रचनाएं



V विनोद सिंह आरा: भोजपुरी व्यंग
 
   रउए बचाँई मोदी जी
  *****************

बाहर बेमारी घर में नारी, कहाँ लुकांई मोदी जी।
आपन हारल मेहरी के मारल,कहां सुनांई मोदी जी।।

जसहीं राउर लाँक डाउन के,टी.वी.प एलान भइल,
पतनी परायण हम पतिययन के,बहुत बड़ा नोकसान भईल।
कड़ी मोछ पर आफत के, अइसन अजगुत पाला पड़ल,
पलक झपकते खतम भईल,अपना मन के गामा बनल।।
मउराइल बैगन जस मुँखड़ा,कहाँ देखांई मोदीजी,
आपन हारल मेहरी के मारल,कहां सुनांई मोदीजी।।


दिन बड़ेड़ी प जढ़ जाला,झड़ू पोंछां आँटा चालत,
ठेहुना भर बरतन बेसिन में,रहेला असहीं झाँकत।
तबहुं भृकुटि तनल रहेला,जरत आग के शोला जस,
बोली इनकर घाव करेला,बम बरुद के गोला अस।
आगे कुँईया पीछे खाई, कहाँ पराईं मोदी जी,
आपन हारल मेहरी के मारल कहाँ सुनाइ मोदी जी।।

जरला में खोड़े खातिर सुजनी सुतार भईल बाऊर।
भइया इनकर घेरा के एहिजे,बढ़ा देलन दुखड़ा आउर।।
घर हमार देखते-देखते बा कुरुक्षेत्र मैदान बनल,
शर सय्या पर भीष्म नियर,असहीं बानी लाचार पड़ल।।
अहो नाथ कछु बाकी नाहीं,अबहुं बचाईं मोदी जी,
आपन हारल मेहरी के मारल, कहाँ सुनाईं मोदी जी।



       आम आदमी
       **********
कर  भरोसा अलख राज तुमको दिए
शानो शौकत भरा ताज तुमको दिए।
बन के आम आदमी से तू खास आदमी
कोढ़ में खाज तू आज हमको दिए।।

ऐसा मंजर न पहले था आया कभी
कोशो पैदल नहीं था चलाया कभी।
छीन कर मुंह से दोवक्त की रोटियां
पेट भूखे नहीं था सुलाया कभी।।

बेसहारों का कोई सहारा नहीं
डुबती नैया का कोई किनारा नहीं।
अब तो जाएंगे लहरें लें जायें जिधर
और इसके सिवा कोई चारा नहीं।।

हम गरीबों का सुध कोई लेता कहाँ
जितना लेता है बदले में देता कहाँ।
होती दिल में कसक, थोड़ी सी भी आगर
कोई यहां से भला जाने देता कहाँ।।

माँ हूँ तेरी शरण में बचा लो मुझे
लड़खड़ाने लगा हूँ संभालो मुझे।
मैं हूँ मुजदूर दिल्ली का आम आदमी
कर रहा हूँ पलायन बसालो मुझे।।

बिनोद सिंह
[25/04, 14:08] V विनोद सिंह आरा: साहित्य साधना के तप: पुरुष - श्री शिव पूजन लाल 'विद्यार्थी'
**********************
विनोद सिंह

वर्षों  सत्कर्म जब पुण्य बन कर धरती पर फलता है।
साहित्य का अलख जगाने को शिवपूजन सा लाल निकलता है।।

आज जब मैं अपने अतीत का विहंगावलोकन करने बैठता हूँ तो वो दिन मेरे लिए सबसे शुभ प्रतीत होता है जिस दिन मेरी चचेरी दीदी ने मुझसे कहा कि तुम्हारे गुरु श्री शिव पूजन लाल विद्यार्थी जी रांची में  इसी बिल्डिंग के चौथे तल्ले पर अपनी बेटी के यहां आए हैं।फिर क्या था उनसे मिलने की उत्कंठा मेरे हृदय में एक ऐसा तरंग उत्पन्न कर दिया  कि अब वह उनके पवित्र चरणों को छूकर ही शांत हो सकता था।  बिना समय गंवाए मैं पहुंच गया चौथे तल्ले पर,और क्यों नहीं , 1983 के बाद अपने इस महान गुरु से मिलने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ था।मिलने की इच्छा पहले से भी थी,और वो घड़ी आखिर आ हीं गई।

जेही कर जा पर सत्य सनेहु।
वा तेही मिलही कछु ना संदेहु।।

घंटी बजाई ,दरवाजा खुला।सामने खड़ा वहीं सोम्यता  सहजता और सादगी की प्रतिमूर्ति ,गोरा चेहरा प्रशस्त ललाट ,सफेद बाल ,सादा लिवास और ओठो पर वही चिर परिचित मृदुल मुस्कान।देखते हीं स्वतः मेरे दोनों हाथ पूर्ण समर्पण और श्रद्धा से उनके दिव्य चरणों पर और उनका वरद हस्त मेरे माथे पर।ऐसा लगा कि मेरे भीतर एक दिव्य ज्योति का संचार हो रहा हो।

सच में कहा गया है।

श्री गुरु पद नख गन मनि गन जोती।
सुमिरत दिव्य दृष्टि हिय होती।।

बडे स्नेह से कमरे के भीतर ले गए।लगभग, जीवन के आठ दशकों का उतार चढ़ाव देखने वाले,ईमानदार कर्तव्यनिष्ठ अनुशासन प्रिय ,हिन्दी साहित्य के अनन्य उपासक ,इसकी महिमा के पोषक और इसके विस्तार के समर्थक और हिंदी तथा भोजपुरी दोनों ही भाषाओं में अपनी रचनाओं से लोगों को  मंत्र मुग्ध कर देने वाले साहित्य के शिखर पुरुष आदरणीय शिवपूजन लाल विद्यार्थी जी से  मिलना एक दिव्य मिलन से कम नही था।
बैठते ही इधर उधर की बात न कर सीधे पूछ बैठे क्या कुछ लिखते -पढते हो या केवल विद्यालय में छात्रों को पढ़ा कर नौकरी करने का दायित्व निभाने तक हीअपने आप को सीमित रखे हो।विद्यार्थी जी शुरू से ही सीधे प्रश्न करने के आदी है और  मेरे पास इस प्रश्नं का कोई उत्तर नहीं था।उन्होने कहा कि साहित्य के शिक्षक यदि साहित्य सृजन से अपने आप को दूर रखते हैं तो यह साहित्य की सबसे बड़ी उपेक्षा है।ईश्वर ने मनुष्य को खुशहाल रखने के लिए तीन तरह के आनंदो  का विधान बनाया है- कामानन्द ,काव्यानंद और ब्रह्मानंद।साहित्य काव्यानंद की प्राप्ति का सबसे बड़ा आधार है।यह समुद्र जैसा विस्तृत और गहरा है।यह न तो कभी खाली होता और न कभी  भरता है।इसकी गहराई में जितना डुबो प्यास उतनी ही बढ़ती जाती है।ठीक उसी तरह जैसे -

राम कथा जे पढत अघाही।
रस विशेष जाना तिमी नहीं ।।

तब मुझे लगा कि आज पच्चासी वर्ष की अवस्था मे, कई किताबों को लिखने के बाद भी वो क्यों साहित्य साधना में लगे रहते हैं। शहर के छोटे या बड़े साहित्यकारों से मिलने के लिए अत्यंत आतुर रहते हैं।उनके लिखने और सीखने की प्रवृत्ति निश्चित रूप से मेरे  जैसे नवसिखुआ  साहित्यानुरागी के लिए प्रेरणा का अगाध स्रोत है।उनका सुखद सानिध्य, शब्दों की कल -कल छल -छल ,शीतल स्वच्छ  मीठा बहता हुआ प्रपात की तरह है जिसके दर्शन - मज्जन और पान से सदैव साहित्य की पिपास बुझती है। जीवन में नई स्फूर्ति, नई ऊर्जा का संचार होता है, कल्पना उर्वर हो जाती है, मौन मुखर हो जाता है और लेखनी को तो साहित्य के अनंत आकाश में उड़ने के लिए पंख मिल जाता है और वह फिर नित्य नई- नई रचनाएं करने में समर्थ हो जाता है।
विद्यार्थी जीआज जितना लोकप्रिय साहित्यकारों के बीच में है उतना ही लोकप्रिय अपने अध्यापक जीवन में अपने छात्रों के बीच में थे।छात्रों को सवारने, सुधारने ,प्रोत्साहित करने और भविष्य के लिए अच्छा नागरिक बनाने के लिए वे सतत प्रयत्नशील रहा करते थे।हो भी क्यों न-

"पारस के रंग कैसा,पलटा नहीं लोहा।
केते निज पारस नहीं, या बीच रहा बिछोहा।"

इस उक्ति को चरितार्थ करने में वह जीवनभर लगे रहे।उनका मानना है कि गुरु को छात्रों में ऐसा सामर्थ  डालना चाहिए कि वे अपने गुरु से भी ज्यादा नाम और प्रतिष्ठा हासिल करें-जैसे रामानंद के तुलसी,बल्लभाचार्य के सूरदास और और परशुराम के कार्ण।
विद्यार्थी जी के व्यक्तित्व का सबसे बड़ा आकर्षण है उनका विनोदी स्वभाव यह उन्हें कभी निराश नहीं होने देता बीती बाते  उन्हें उलझा नहीं पाती, आने वाला कल उन पर हावी नहीं हो पाता गंभीर से गंभीर परिस्थितियों में भी वे हमेशा सहज बने रहते हैं।यही कारण है कि उनका विधुर जीवन उन्हें कभी निराश नहीं किया और वे चुंबक की तरह अपनी ओर लोगों को आकर्षित करते रहे।
शिक्षक की नौकरी से अवकाश प्राप्त करने के बाद वे अपना ज्यादा समय वाराणसी में ही बिताए।यह  उनके साहित्य साधना के लिए उर्वर भूमि है।कहते हैं कि जिस तरह से गंगा गंगोत्री से निकलती है ,उसी तरह से साहित्य की धारा काशी से निकल कर अन्य जगहों में बहती है।
उनका मानना है कि शिक्षक का एक वाक्य भी शिष्य के जीवन में अभूतपूर्व परिवर्तन लाने का सामर्थ्य रखती है।इसे लोग सही माने या न माने और हाँ मानेंगे ही क्यों आज बातें  किसी को लगती ही कहाँ है - पर उनका कहना कि साहित्य के शिक्षक और विद्यार्थी अगर साहित्य सृजन मैं अपने आप को नहीं लगाते हैं, तो उनके सामर्थ और योग्यता पर प्रश्न चिन्ह खड़ा हो जाता है।और यह बात मुझे वैसी ही लगी जैसे -

आज मैंने देखी है जरा
क्या हो जाएगी एक दिन
ऐसी ही मेरी यशोधरा?

बातें लग गई और और शाक्य वंश के राज कुमार सिद्धार्थ से गौतम बुद्ध बन गए और मैं भी विद्यार्थी जी की बातों से प्रभावित होकर अपना अध्यापन कार्य से बचा खुचा समय साहित्य के सामानों में लगा रहा हूँ- मैं मानता हूं कि मेरी लेखनी उतनी मर्मज्ञ, सशक्त और उर्वर नहीं है -
"भूषण अथवा कवि चंद नहीं।
बिजली भर दें वो छंद नहीं।।"

पर इतना जरूर कह सकता हूँ कि शिष्य का अपने एक सामर्थ  गुरु से पुनर्मिलन उसकी जंग लगी हुई प्रतिभा और लेखनी में फिर से नई धार ला दी।
चलते चलते वे मुझे अपनी नई पुस्तक "क्षंदों की छांव में "उपहार नहीं प्रसाद स्वरूप भेंट की,मन गदगद हो गया आँखों में कृतज्ञता के आंसू भर आए।धन्य है विद्यार्थी जी! धन्य है उनका पुत्रवत स्नेह!यदि मैं शब्दों में कृतज्ञता व्यक्त करूं तो यह एक ढिठाई होगी -और हाँ, आज मैं जो कुछ हूं उन्हीं की बदौलत -

करते तुलसी दास भी कैसे मानस नाद।
महावीर का यदि उन्हें  मिलता नही प्रसाद।।
[25/04, 14:08] V विनोद सिंह आरा: बनके रावण राम को जीत पाएगा क्या?

हमले साधु संतों पर होते रहे
तू घोडे़ बेच कर यूँ हीं सोते रहे।
जिस भग्वे को तू पुजते थे कभी
संतों के रक्त में तू डुबोते रहे।।

वर्षों की दोस्ती पल में तज दिये
इमान नीलाम किए कुर्सी के लिए।
मुल्क के दुश्मनों को लगा के गले
नाम पुरखों के तूने कलंकित किये।।

संतों के खून से है सिंहासन सना
जनता के कोप का तू है भाजन बना।
अब संतों की हत्या तो होनी हीं थी
क्योंकि अर्जुन से,जो तुम दुशासन बना।।

हमला ना-ना निगम वेद पुरातन पर है
सभ्यता संस्कृति के अमानत पर है।
चुल्लू भर पानी में डूब कर मर जाओ
हमला सीधे-सीधे ये सनातन पर है।।

जो मिटा न कभी तू मिटाएगा क्या?
नाम पुरखों का यूं ही हंसाएगा क्या?
सोचते क्यों नहीं सत्ता के भेड़ियों
बनके रावण राम को जीत पाओगा क्या?

बिनोद सिंह





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शुक्रवार, 24 अप्रैल 2020

यानी के / आलोक यात्री



📎📎 यानी के...

... मौजूदा दौर के आदमी की बेबसी का ग़ालिब साहब को डेढ़ सदी पहले ही अहसास हो गया था
मियां की बानगी देखिए... हर शेर बोलता हुआ...

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी के हर ख्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमां लेकिन फिर भी कम निकले

डरे क्यूं मेरा क़ातिल क्या रहेगा उसकी गरदन पर
वो ख़ूं जो चश्म ए तर से उम्र भर यूं दमबदम निकले

निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन
बहुत बेआबरू होकर तेरे कूंचे से हम निकले

भरम खुल जाए ज़ालिम तेरे क़ामत की दराज़ी का
अगर उस तुररा ए पुरपेचोख़म का पेचोख़म निकले

मगर लिखवाए कोई उसको ख़त तो हम से लिखवाए
हुई सुबह और घर से कान पर रखकर क़लम निकले

हुई इस दौर में मनसूब मुझसे बादा आशामी
फिर आया वो ज़माना जो जहां में जामेजम निकले

हुई जिनसे तवक़्क़ो ख़स्तगी की दाद पाने की
वो हमसे भी ज़्यादा ख़स्ता ए तेग ए सितम निकले

मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख के जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले

कहां मैख़ाने का दरवाज़ा ग़ालिब और कहां वाइज़
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था के हम निकले

📎📎 यानी के....
बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले...
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था के हम निकले...
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले...
उसी को देखकर जीते हैं जिस काफ़िर पर दम निकले...
... मौजूदा दौर के आदमी की बेबसी क ग़ालिब साहब को डेढ़ सदी पहले ही अहसास हो गया था
जनाब की बानगी देखिए... एक-एक शेर बोलता हुआ...

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी के हर ख्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमां लेकिन फिर भी कम निकले

डरे क्यूं मेरा क़ातिल क्या रहेगा उसकी गरदन पर
वो ख़ूं जो चश्म ए तर से उम्र भर यूं दमबदम निकले

निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन
बहुत बेआबरू होकर तेरे कूंचे से हम निकले

भरम खुल जाए ज़ालिम तेरे क़ामत की दराज़ी का
अगर उस तुररा ए पुरपेचोख़म का पेचोख़म निकले

मगर लिखवाए कोई उसको ख़त तो हम से लिखवाए
हुई सुबह और घर से कान पर रखकर क़लम निकले



हुई इस दौर में मनसूब मुझसे बादा आशामी
फिर आया वो ज़माना जो जहां में जामेजम निकले

हुई जिनसे तवक़्क़ो ख़स्तगी की दाद पाने की
वो हमसे भी ज़्यादा ख़स्ता ए तेग ए सितम निकले

मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख के जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले

कहां मैख़ाने का दरवाज़ा ग़ालिब और कहां वाइज़
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था के हम निकले

//।। । आलोक यात्री।


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बुधवार, 22 अप्रैल 2020

आगरा में कोरोना और राधास्वामी संतमत दयालबाग





प्रस्तुति - स्वामी शरण /
आत्म स्वरूप /संत शरण

*Coronavirus in Agra:*

 *पढ़िए अंदर की बात :*

- (वरिष्ठ पत्रकार बृजेन्द्र पटेल की फेसबुक वॉल से साभार)

*Agra (Uttar Pradesh, India)।*
            जब नासमझ अफसरों के हाथ में आगरा जैसे शहर की कमान सौंप दी जाएगी तो आगरा को बुहान बनने से हुकूमत को क्या ईश्वर भी नहीं रोक सकता। यकीनन कोरोना संक्रमण की जैसी महामारी आगरा में फैली है, कुछ वक्त बीतने के बाद यहां चारो तरफ हाहाकार होगी। इसका अंदाजा इस बात से लगाइए, शहर के डाक्टर घर बैठ गए हैं। प्राइवेट हो या सरकारी अस्पतालों में कोरोना तो दूर दीगर रोगों का इलाज भी बंद हो गया है। ऐसे बद से बदतर हालात आजादी के सात दशक में किसी ने कभी नहीं देखे।

*"सत्संगी जागते रहे",*
                   *हुकूमतें सोती रहीं*

           जनवरी माह में कोरोना संक्रमण को लेकर मुल्क की हुकूमतें कुंभकरणी नींद सो रही थीं तब
*आध्यामिक केंद्र दयालबाग में सत्संगी जाग रहे थे। राधास्वामी सत्संग सभा के धर्म गुरू प्रो. पी एस सत्संगी साहब ने जनवरी माह में एक दिन सत्संग में सिर पर हेलमेट, मास्क, दस्ताने पहने। उस दिन उनका पूरा प्रवचन कोरोना वायरस पर केंद्रित रहा। प्रो. सत्संगी साहब ने बताया कि किस तरह कोरोना वायरस मानव समाज के लिए खतरा है और यह महामारी बनकर दुनिया तवाह कर देगी। इससे कैसे बचा जा सकता है। चूंकि कोरोना का वायरस हवा में तैरकर कपड़े, खुले शरीर की त्वचा और सिर के बालों पर चिपकता है। लिहाजा बचाव के लिए सत्संगी भाई हेलमेट पहनकर घर से निकलें और घर वापसी पर ही सिर से हेलेमेट उतारें। घर से बाहर किसी से भी फासले से मिलें। सफाई पर ध्यान दो। बार-बार हाथ धोंयें और गर्म पानी पिएं।*

           *राधास्वामी मत के पहले गुरू परम पुरूष पूरन धनी स्वामीजी महाराज की पोथी में इसका जिक्र है कि कैसे एक वायरस खतरा बनेगा और इससे बचने के लिए सबसे पहले "मन से कपट" निकालना होगा। मालिक के इस फरमान का असर दयालबाग के सत्संगियों पर त्वरित गति से दिखा। यहां सत्संगी हेलमेट लगाए दफ्तर, कार, पैदल और रिक्शे में दिखे तो बाकी आगरा वालों ने इनका मजाक उड़ाया। सत्संगियों से इसकी परवाह किए बगैर कोरोना वायरस को लेकर जागरुकता फैलाने का अभियान जारी रखा।*

              यह बात मेरे भी जेहन में आई, *प्रो सत्संगी खुद वैज्ञानिक और शिक्षाविद हैं।* मैं विज्ञान का छात्र रहा हूं लिहाजा उनके आध्यामिक पक्ष को दरकिनार करते हुए वैज्ञानिक पक्ष को ही आधार बनाकर जनवरी माह में कोरोना पर खबरें लिखी।
             जो संत्संगी डाॅक्टर हैं, इंजीनियर, शिक्षाविद और आईएएस, जो छह जिलों में डीएम रह चुके हैं, उनके कोरोना संक्रमण से बचाव करते हुए फोटो और बर्जन के साथ *हिन्दुस्तान अखबार* में खबरें छपीं।

          *दयालबाग के सरन आरश्र अस्तपाल में चिकित्सकों ने कोरोना से बचाव के लिए होम्योपैथी की दबाइयों का चयन कर लिया। यहां डाॅ सिद्धार्थ अग्रवाल की देखरेख में कोरोना से बचाव के लिए इमरजैंसी सेवा का सेंटर खोल दिया गया। पूरे दयालबाग में राधास्वामी सत्संग सभा द्वारा कोरोना से बचाव के लिए जारी गाइड लाइंस का पालन किया जाने लगा।*

*केंद्रीय हिंदी संस्थान और दयालबाग को छोड़कर* पूरा आगरा कोरोना संक्रमण की चपेट में है।

मंगलवार, 21 अप्रैल 2020

रवि अरोड़ा की दो रचनाएं




1

हे ईश्वर अब तू ही इन्हें समझा


रवि अरोड़ा

अब इसे आप संस्कार कहें अथवा परिवार का माहौल मगर यह सत्य है कि देश के अधिकांश धार्मिक स्थल पर मैं माथा टेक आया हूँ । इस मामले में मैंने मंदिर, गुरुद्वारे , चर्च और दरगाहें सब जगह समभाव से शीश नवाया । यदि सच कहूँ तो हमारे देश के धार्मिक स्थलों पर जाकर आप कुछ और पायें अथवा नहीं मगर थोड़ी देर को ही सही मगर अपने अहंकार से तो बरी हो ही जाते हैं । जी नहीं मैं आध्यात्मिकता के परिप्रेक्ष्य में यह नहीं कह रहा । मैं तो पीछे खड़ी बेतहाशा भीड़ और आराध्य देव के सामने पहुँचने पर पंडे-पुजारी द्वारा ख़ुद को आगे ठेले जाने के बाबत बात कर रहा हूँ । अक्सर एसा हुआ है कि ढंग से मूर्ति को देख भी नहीं पाये और किसी ने धकिया कर आगे बढ़ा दिया । अब मामला भगवान के दरबार का होता है सो अहंकार का सवाल ही नहीं , मान-अपमान का कोई मुद्दा ही नहीं , बस यही संतोष रहता है कि चलो जैसे तैसे दर्शन तो हो ही गए । उधर, सभी धार्मिक स्थलों पर एक ख़ास बात मुझे दिखी । अपने मोहल्ले के मंदिर-गुरुद्वारे में जो लोग खरीज चढ़ाते हैं , वहाँ बड़े बड़े नोट निकालते हैं । नोटों वाले सोने का कोई उपहार अपने इष्ट देवता के लिए लाते हैं । धार्मिक स्थलों के संचालक भी हमारे इस मनोभाव को समझते हैं और भगवान और हमारे बीच में पहले से हो बड़ी गुल्लक रख देते हैं । पहले पैसे डालो फिर दर्शन करो । हम भी इस व्यवस्था को समझते हैं अतः धार्मिक स्थल के गर्भ गृह पहुँचने से पहले ही चढ़ावे के पैसे तैयार रखते हैं । अब इष्ट देव के सामने पहुँचने पर इतना समय आपको कौन देगा कि आप जेब से अपना पर्स निकाल सकें ।

कई बार हिसाब लगाता हूँ कि इन धार्मिक स्थलों पर साफ़-सफ़ाई से लेकर अन्य छोटे बड़े सभी काम तो भक्तगण निशुल्क स्वयं ही कर देते हैं , फिर इतने चढ़ावे की ज़रूरत ही क्या है ? बेशक एसा कोई रिकार्ड नहीं है , जिससे पता चले कि देश में कुल कितने धार्मिक स्थल हैं मगर एक अनुमान लगाया जाता है कि इनकी संख्या पंद्रह लाख से अधिक होगी । अब यह अंदाज़ा तो क़तई नहीं लगाया जा सकता कि इन स्थलों पर प्रतिदिन कितना चढ़ावा चढ़ता होगा मगर इतना तो तय है कि यह राशि सैंकड़ों करोड़ रुपए तो अवश्य ही होती होगी । अख़बारों में अक्सर एसी रिपोर्ट छपती भी रही हैं कि देश के प्रमुख सौ मंदिरों का सालाना चढ़ावा देश के सालाना योजना बजट से अधिक होता है । कहते हैं कि पद्मनाथ स्वामी मंदिर, तिरुपति बालाजी, शिर्डी , सिद्धिविनायक, गोल्डन टेंपल , वैष्णोदेवी और गुरुवयूर जैसे प्रमुख मंदिर-गुरुद्वारों के तहखानों अथवा बैंक एकाउंट्स में इतनी दौलत है कि यदि सारी सरकार को मिल जाए तो देश बैठे बैठाये ही सोने की चिड़िया बन जाए । वैसे हमारी इस विसंगति पर पूरी दुनिया भी हैरान ही होती है कि धरती का हर चौथा ग़रीब जिस देश में रहता हो , वहाँ के धार्मिक स्थलों के पास इतनी दौलत है ? हालाँकि वे जब हमारा इतिहास पढ़ते होंगे और उन्हें पता चलता होगा कि मोहम्मद गजनी ने सत्रह बार भारत पर हमला देशवासियों को नहीं सोमनाथ मंदिर को लूटने के लिए किया था , तो उन्हें हमारे समृद्ध मंदिरों के बाबत सहज विश्वास हो ही जाता होगा । मंदिर ही क्यों हमारे हज़ारों की संख्या में धर्मगुरु क्या कम अमीर हैं ? सत्य साईं बाबा और जय गुरुदेव की सम्पत्ति उनके देहांत के बाद आँकी गई तो पचास पचास हज़ार करोड़ रुपये निकली । राधा स्वामी जैसे पचासों एसे बाबा देश में हैं जिन्होंने अपने पूरे पूरे शहर बसा रखे हैं । कमाल है कि कोरोना वायरस के आतंक के इस माहौल में भी किसी ने अभी तक अपने खीसे से इक्कनी भी नहीं निकाली ? कमाल यह भी है कि तंगी और बेपनाह ख़र्चों के बावजूद सरकार भी इन पर हाथ डालने का साहस नहीं दिखा रही । हे ईश्वर अब तू ही इन धर्मगुरुओं और मंदिरों के मठाधीशों को इतनी सदबुद्धि दे कि वे लोग यह सारा धन जनता के दुःख दर्द बाँटने में ख़र्च करें । हे ईश्वर इन्हें बता कि धन के इस उपयोग से तुझे ही सबसे अधिक ख़ुशी होगी ।


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फिर भी एक अवसर है

रवि अरोड़ा
कोरोना पर विधवा विलाप सुनते दिल ही न बैठ जाये इसलिए क्यों न कुछ अच्छी अच्छी बातें भी कर ली जायें । यूँ भी बुज़ुर्ग कहते तो हैं ही कि हर बुराई का कोई न कोई उजला पक्ष भी होता ही है । एसी कोई बाढ़ नहीं जिसने धरती की मृदा शक्ति न बढ़ाई हो अथवा सूख चुके जलायशों को फिर पानी से लबालब न किया हो । अब इस कोरोना से भी तो कुछ न कुछ हम भारतीयों की झोली में भी आएगा । राजनैतिक-सामाजिक परिवर्तन पर फिर कभी , आज तो आर्थिक पहलुओं पर ही चर्चा कर लेते हैं । बेशक क़ोविड-19 ने देश की अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी है और हमारी जीडीपी माइनस में पहुँचने का ख़तरा है। असंघटित क्षेत्र में रोज़गार का व्यापक संकट सिर पर है और भयंकर मंदी मुँह बाये खड़ी है मगर फिर भी कुछ तो एसा अब भी है जो हमारे लिए अवसरों की सौग़ात ला सकता है ।

पीछे मुड़ कर देखें तो वित्त वर्ष 2019-20 हमारे लिए अच्छी ख़बरें नहीं लाया और जाते जाते कोरोना का संकट और आन पड़ा । हालाँकि पिछले दो सालों से पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था नीचे जा रही है और नब्बे फ़ीसदी अर्थव्यवस्थाएँ ढलान पर हैं तथा पिछले दस सालों में सबसे कमज़ोर हैं मगर भारत की अर्थव्यवस्था तो निजी कारणों से ही नीचे आती मानी गई । नोटबंदी और जीएसटी की व्यवस्था से देश की जीडीपी आधी ही रह गई । रोज़गार के अवसर कम हुए और महँगाई में भी तेज़ी से वृद्धि हुई । और अब कोरोना के कारण पिछले चालीस सालों में पहली बार जीडीपी नकारात्मक होने के कगार पर पहुँच गई है । लोगों की आमदनी आधी रह जाने के कारण घरेलू माँग पर भी निश्चित तौर पर उसका असर पड़ना है । कोढ़ में खाज का काम करेंगे 45 फ़ीसदी असंघटित क्षेत्र के श्रमिक जिनके रोज़गार अब ख़तरे में हैं । शुक्र है कि देश की अर्थव्यवस्था में लगभग बीस फ़ीसदी का कृषि क्षेत्र अभी भी मज़बूती से खड़ा है वरना मैनुफ़ैक्चरिंग क्षेत्र के 26 फ़ीसदी और सेवा क्षेत्र के 53 फ़ीसदी कारोबार के ही भरोसे होते तो कई बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की तरह हमारी भी लुटिया डूब जाती ।

इसमें कोई दो राय नहीं कि बदले हालात में चीन से हमारा कारोबार अब पहले जैसा नहीं रहेगा । इस कारोबार से सदा चीन को ही फ़ायदा हुआ है । पिछले वित्त वर्ष में ही हमने लगभग 70 अरब डालर का आयात और केवल 17 अरब डालर का निर्यात चीन को किया । देश में 45 फ़ीसदी इलैक्ट्रोनिक , 90 परसेंट मोबाईल फ़ोन, एक तिहाई मशीनरी ,40 फ़ीसदी कैमिकल और 65 परसेंट दवाइयाँ चीन से आ रही हैं । भारत सरकार ने चीन से आयात पर अनेक क़िस्म की रोक फ़िलहाल लगा दी हैं । यदि यह जारी रहती हैं तो निश्चित तौर पर देश के मैन्युफ़ैक्चरिंग सेक्टर को इसका भरपूर लाभ मिलेगा । चीन की ऑनलाइन कम्पनियों पर भी मोदी सरकार की तिरछी नज़र है ।


पिछले कुछ सालों में चीन दुनिया का सबसे बड़ा मैन्युफ़ैक्चरिंग हब बन कर उभरा था और इसी के बल पर पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था में 19 फ़ीसदी उसकी हिस्सेदारी हो गई थी । बदले हालात में तमाम देश चीन से अपना कारोबार समेट रहे हैं और उनकी निगाह अब भारत और ब्राज़ील जैसे देशों पर है । भारत  का अपना बड़ा बाज़ार उन्हें अपनी ओर आकर्षित कर सकता है बस एसे में थोड़ी होशियारी और समझदारी की ज़रूरत है । भारत का कमज़ोर इंफ़्रास्ट्रक्चर और कम्पनियों की गुप्तता सम्बंधी हमारी कमज़ोर शैली आढ़े आ रही हैं । वोडाफ़ोन कांड और मेक इन इंडिया की घोषणाओं के सिरे न चढ़ाने से भी हमारी पहले ही काफ़ी बदनामी हो चुकी है । उधर, यह तय है कोरोना के ख़त्म होने के बाद पूरी दुनिया में राष्ट्रवाद का ज्वार आएगा । ज़ाहिर है कि भारत भी इससे अछूता नहीं रहेगा । अब राष्ट्रवाद की सबसे बड़ी दिक्कत यह होती है कि उसे अपने लिए कोई दुश्मन भी चाहिये । इस मामले में हमारे राजनीतिज्ञ पूरे सिद्धस्त हैं। यदि इस अवसर पर भी उन्होंने वही पुरानी हिंदू-मुस्लिम की राजनीति की तो यक़ीन जानिए यह मौक़ा तो हाथ से जाएगा ही साथ ही हम फिर से वहीं पहुँच जाएँगे , जहाँ से शुरू हुए थे ।




सोमवार, 20 अप्रैल 2020

दिनेश श्रीवास्तव के दोहे - कविताएं





दिनेश श्रीवास्तव: दिनेश की कुण्डलिया
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        विषय- "योद्धा''

                        (१)


कहलाता योद्धा वही,तरकस में हों तीर।
धीर वीर गंभीर हो,जैसे थे रघुबीर।।
जैसे थे रघुबीर,राक्षसी वंश विनाशा।
उनसे ही तो आज,देश ने की है आशा।।
कहता सत्य दिनेश,न्याय का पाठ पढ़ाता।
सद्गुण से हो युक्त,वही योद्धा कहलाता।।

                         (२)

आओ अब तो राम तुम,योद्धा बनकर आज।
यहाँ'कॅरोना'शत्रु को,मार बचाओ लाज।।
मार बचाओ लाज,किए संग्राम बहुत हो।
वीरों के हो वीर,किए तुम नाम बहुत हो।।
करता विनय दिनेश,शत्रु से हमे बचाओ।
मेरे योद्धा राम!आज धरती पर आओ।।

                         (३)

करना होगा आपको,बनकर योद्धा वीर।
एक 'वायरस' शत्रु से,युद्ध यहाँ गंभीर।।
युद्ध यहाँ गंभीर,हराना होगा उसको।
एक विदेशी शत्रु,यहाँ भेजा है जिसको।।
'घरबंदी' का शस्त्र, हाथ मे होगा धरना।
लेकर मुँह पर मास्क,युद्ध को होगा करना।।

                       (४)


बनकर योद्धा राम ने,रावण का संहार।
जनक नंदिनी का किया,लंका से उद्धार।
लंका से उद्धार, युद्ध मे योद्धा बनकर।
हुई वहाँ पर लाल,रक्त से लंका सनकर।।
खड़े हुए थे राम,न्याय के पथ पर तनकर। 
और किया था प्राप्त,साध्य को साधक बनकर।।

                          (५)


 बैठे हैं जो आपके,मन में बने विकार।
योद्धा बनकर कीजिये, इनपर पहले वार।।
इनपर पहले वार,बड़े घातक होते हैं।
मन शरीर को नष्ट,करें,पातक होते हैं।।
 ये जो मनः विकार,आपके मन पैठे हैं।
 देना इनको मार,छुपे जो तन बैठे हैं।।

                       (  6)

               "तालाबंदी का विस्तार"

तालाबंदी का हुआ,कुछ दिन का विस्तार।
टूटेगा निश्चित यहाँ, जटिल संक्रमण तार।।
जटिल संक्रमण तार,तोड़कर दूर भगाना।
'सप्तपदी' की शर्त,हमे है यहाँ निभाना।।
कहता सत्य दिनेश,देश में छाई मंदी।
कितना मुश्किल काम,यहाँ पर तालाबंदी।।


                      दिनेश श्रीवास्तव
 
                      ग़ाज़ियाबाद
ाएक गीत-सादर समीक्षार्थ

विषय-     "हिंद"

दोनो मेरे प्यारे नाम,हिन्द कहो या हिंदुस्तान।

बना हिमालय रक्षक जिसका,
सागर है संरक्षक जिसका।
आओ इसका मान बढ़ाएँ,
इस पर अपना शीश झुकाएँ।

दो दो मेरे अपने नाम,इस पर हो जाएँ कुर्बान।
दोनो मेरे प्यारे नाम,हिन्द कहो या हिंदुस्तान।।-१

सतरंगा है देश हमारा,
जो मेरा है वही तुम्हारा।
घाटी घाटी पुष्प खिले हैं,
टूटे दिल भी यहाँ मिले हैं।

काश्मीर की घाटी तक है,फैला अपना यहाँ वितान।
दोनो मेरे प्यारे नाम,हिन्द कहो या हिंदुस्तान।।-२

कल कल करती नदियाँ बहतीं,
झंझावातों को हैं सहतीं।
झरनों के संगीत सुहाने,
मन करता है वहाँ नहाने।

सुंदरता का ताना बाना,कुदरत का है कार्य महान।
दोनो मेरे प्यारे नाम,हिन्द कहो या हिंदुस्तान।।-३

भिन्न भिन्न भाषा का देश,
इससे मिलता हमको क्लेश।
भाषा एक राष्ट्र की बिंदी,
वही हमारी प्यारी हिंदी।

भाषा एक राष्ट्र की अपनी,हिंदी का भी होता मान।
दोनो मेरे प्यारे नाम,हिंद कहो या हिंदुस्तान।।-४

यहाँ देश में रंग अनेक,
रंग 'तिरंगा' केवल एक।
यहाँ एक है 'गान' हमारा,
विजयी विश्व तिरंगा प्यारा।

सभी यहाँ पर मिलकर गाएँ, जन गण मन अधिनायक गान।
दोनो मेरे प्यारे नाम, हिंद कहो या हिंदुस्तान।।

                      दिनेश श्रीवास्तव

                      १५ अप्रैल १.१५ अपराह्नए
एक गीत -

    "नीचे से मैं मरा हुआ"(मध्यम वर्ग)
  ------------------------------   

जीता हूँ मैं ऊपर ऊपर,
नीचे से मैं मरा हुआ।
देता हूँ निर्भीक दिखाई,
अंदर से मैं डरा हुआ ।।

आगत और अनागत का डर,
हमको बहुत सताता है।
सपने बनकर नींद निशा में,
हमको बहुत रुलाता है।
बुझा हुआ अंदर से लेकिन,
ऊपर से मैं जला हुआ।
जीता हूँ मैं ऊपर ऊपर,
नीचे से मैं मरा हुआ ।।



कुछ भी नहीं पास है मेरे,
कैसे अपना कर्ज चुकाऊँ।
जिम्मेदारी बोझ बड़ी है,
कैसे अपना फर्ज निभाऊँ।
नीचे से मैं बिल्कुल खाली,
लगता ऊपर भरा हुआ ।
जीता हूँ मैं ऊपर ऊपर,
नीचे से मैं मरा हुआ ।।


दिखने और दिखाने में ही,
जीवन मेरा बीत गया।
बाँट बाँट कर खुशियाँ अपनी,
बिल्कुल ही मैं रीत गया।
नीचे से  सूखा सूखा सा,
लगता ऊपर हरा हुआ।
जीता हूँ मैं ऊपर ऊपर,
नीचे से मैं मरा हुआ।।

सबसे पहले कठिन समय तो,
मेरे ही जिम्मे आता।
अधिकारों से वंचित होकर
ठोकर भी पहले खाता।
ऊपर से मैं संभला लगता
नीचे से मैं गिरा हुआ।
जीता हूँ मैं ऊपर ऊपर,
नीचे से मैं मरा हुआ।।

                 दिनेश श्रीवास्तव
दोहा छंद


     विषय -" वात्सल्य"


           "बाल रूप प्रभु राम"

प्रेम और वात्सल्य का,ऐसा अद्भुत रूप।
दिखा अवध में जब वहाँ, प्रगट हुए जग भूप।।-१

शिव भी मोहित हो गए,देखा राम स्वरूप।
धूल धूसरित गात को,किलकत बालक रूप।।-२

धुटनों के बल रेंगते,गिरते- पड़ते राम।
हुआ तिरोहित शोक तब,देखा छवि अभिराम।।-३

कभी गोंद दशरथ चढ़े,कभी मातु के अंक।
कभी खेलते धूल में,कभी लगाते पंक।।-४

उठत गिरत सँभलत कभी,देखत छवि जब मात।
पोंछत आँचल से तभी,रेणु लगी जो गात।।-५

नज़र उतारत हैं सभी,दे काज़ल की दीठ।
मातु सुलाती गोंद में,थपकी देती पीठ।।-६

माँ की ममता का यहाँ, कौन लगाए बोल।?
कौन बणिक इस धरा पर,सकता  उसको तोल।।?-७

बोल तोतली देखकर,नन्हीं सी मुस्कान।
फीके सारे मंत्र हैं,व्यर्थ वेद के ज्ञान।।-८

                    दिनेश श्रीवास्तव
कुण्डलिया छंद ---

विषय- नटखट


           "मेरे नटखट लाल"
             ---------------------

                      (१)

नटखट माखन लाल ने,फिर चोरी की आज।
सुनकर यशुमति को लगी,फिर से थोड़ी लाज।।
फिर से थोड़ी लाज,मातु को गुस्सा आया।
बाँध लला को आज,छड़ी को उन्हें दिखया।।
कहता सत्य दिनेश,बाँध दे जग को चटपट।
बँधे स्वयं भगवान,आज वो कैसे नटखट।।

                       (२)

जागो नटखट लाल अब,देखो!हो गई भोर।
गायें भी करने लगीं,तुम बिन अब तो शोर।।
तुम बिन अब तो शोर,बड़ी व्याकुल लगती हैं।
सुनकर मुरली तान,सदा सोती जगती हैं।।
कहता सत्य दिनेश, कर्म-पथ पर तुम भागो।
आलस को तुम छोड़,नींद से अब तो जागो।।

                    (  ३)

राधा ने चोरी किया,मुरली नटखट लाल।
बतियाने की लालसा,समझ गए वह चाल।।
समझ गए वह चाल,माँगते कृष्ण-कन्हैया।
मुस्काती यह देख,लला की यशुमति मैया।।
कहता सत्य दिनेश,कृष्ण तो केवल आधा।
तभी बनेंगे पूर्ण,मिलेंगी उनको राधा।।

                      (४)

आए नटखट लाल जब,यमुना जी के तीर।
चढ़े पेड़ ले वस्त्र को,गोपी भईं अधीर।।
गोपी भईं अधीर,किए नटखट तब लीला।
मन ही मन मुस्कात, गात जब देखें गीला।।
निःवस्त्र न हो स्नान,यही संकल्प कराए।
मेरे नटखट लाल,वस्त्र वापस दे आए।।

             दिनेश श्रीवास्तव

              ग़ाज़ियाबाद
जीवन अमूल्य
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 कुछ कुछ आज,
अहसास होने लगा है मुझे
जीवन-मूल्य का।
उन्हें देखकर
जो जेलों में बंद हैं,
पिंजड़े में बंद अपने तोते को देखकर,
उन शेरों को देखकर जो
चिड़िया घरों में कैद हैं।
सबको तो भोजन मिलता है,
मिलता है पानी और हवा भी,
उन्हें डॉक्टर भी और दवा भी,
फिर क्यों वो छटपटाते हैं
बाहर निकलने को-
अपने पिंजड़े और चिड़िया घरों से।
क्या स्वच्छंदता इतनी बहुमूल्य है?
क्या यह अतुल्य है?
फिर इसका क्या मूल्य है?
आज समझ आ गया और
जीवन  भा गया।
 जीवन और स्वच्छंदता का अंतर
आया समझ में।
 सत्य यही है कि-
जीवन का मूल्य
स्वच्छंदता के मूल्य से है
 अधिक मूल्यवान।
 क्योंकि-
  जीवन का अस्तित्व ही
होता है आधार
 समस्त पुरुषार्थों का।
आधार है वही-
सभी परमार्थों का।
बिना जीवन नहीं है
इनका कोई अर्थ।
सब कुछ है व्यर्थ।

फिर-
आइए!जीवन बचाएँ
जीवन देय नियमो को
अपनाएँ क्योंकि-
जीवन है अमूल्य।
इसका नहीं है-
कोई मूल्य।।


                 दिनेश श्रीवास्तव
मुक्तक
                     -----------

 निज आत्मा में परमात्मा की,लगन लगाए रखता है,
अभ्यन्तर में भक्ति भाव की,ज्योति जलाए रखता है।
निज पर का अभिमान त्याग कर,समदर्शी हो जाता है,
शबरी,बिदुर और केवट सा, प्रियदर्शी हो जाता है।।

           दिनेश श्रीवास्तव

रविवार, 19 अप्रैल 2020

जटायु की आवाज



✍🏻अंतिम *सांस* गिन रहे *जटायु* ने कहा कि मुझे पता था कि मैं *रावण* से नही *जीत* सकता लेकिन तो भी मैं *लड़ा* ..यदि मैं *नही* *लड़ता* तो आने वाली *पीढियां* मुझे *कायर* कहती

 🙏जब *रावण* ने *जटायु* के *दोनों* *पंख* काट डाले... तो *काल* आया और जैसे ही *काल* आया ...
तो *गिद्धराज* *जटायु* ने *मौत* को *ललकार* कहा, --

" *खबरदार* ! ऐ *मृत्यु* ! आगे बढ़ने की कोशिश मत करना... मैं *मृत्यु* को *स्वीकार* तो करूँगा... लेकिन तू मुझे तब तक नहीं *छू* सकता... जब तक मैं *सीता* जी की *सुधि* प्रभु " *श्रीराम* " को नहीं सुना देता...!

 *मौत* उन्हें *छू* नहीं पा रही है... *काँप* रही है खड़ी हो कर...
 *मौत* तब तक खड़ी रही, *काँपती* रही... यही इच्छा मृत्यु का वरदान *जटायु* को मिला।

किन्तु *महाभारत* के *भीष्म* *पितामह* *छह* महीने तक बाणों की *शय्या* पर लेट करके *मौत* का *इंतजार* करते रहे... *आँखों* में *आँसू* हैं ... रो रहे हैं... *भगवान* मन ही मन मुस्कुरा रहे हैं...!
कितना *अलौकिक* है यह दृश्य ... *रामायण* मे *जटायु* भगवान की *गोद* रूपी *शय्या* पर लेटे हैं...
प्रभु " *श्रीराम* " *रो* रहे हैं और जटायु *हँस* रहे हैं...
वहाँ *महाभारत* में *भीष्म* *पितामह* *रो* रहे हैं और *भगवान* " *श्रीकृष्ण* " हँस रहे हैं... *भिन्नता* *प्रतीत* हो रही है कि नहीं... *?*

अंत समय में *जटायु* को प्रभु " *श्रीराम* " की गोद की *शय्या* मिली... लेकिन *भीष्म* *पितामह* को मरते समय *बाण* की *शय्या* मिली....!
 *जटायु* अपने *कर्म* के *बल* पर अंत समय में भगवान की *गोद* रूपी *शय्या* में प्राण *त्याग* रहा है....

प्रभु " *श्रीराम* " की *शरण* में..... और *बाणों* पर लेटे लेटे *भीष्म* *पितामह* *रो* रहे हैं....
ऐसा *अंतर* क्यों?...   

ऐसा *अंतर* इसलिए है कि भरे दरबार में *भीष्म* *पितामह* ने *द्रौपदी* की इज्जत को *लुटते* हुए देखा था... *विरोध* नहीं कर पाये थे ...!
 *दुःशासन* को ललकार देते... *दुर्योधन* को ललकार देते... लेकिन *द्रौपदी* *रोती* रही... *बिलखती* रही... *चीखती* रही... *चिल्लाती* रही... लेकिन *भीष्म* *पितामह* सिर *झुकाये* बैठे रहे... *नारी* की *रक्षा* नहीं कर पाये...!

उसका *परिणाम* यह निकला कि *इच्छा* *मृत्यु* का *वरदान* पाने पर भी *बाणों* की *शय्या* मिली और ....
 *जटायु* ने *नारी* का *सम्मान* किया...
अपने *प्राणों* की *आहुति* दे दी... तो मरते समय भगवान " *श्रीराम* " की गोद की शय्या मिली...!

जो दूसरों के साथ *गलत* होते देखकर भी आंखें *मूंद* लेते हैं ... उनकी गति *भीष्म* जैसी होती है ...
जो अपना *परिणाम* जानते हुए भी...औरों के लिए *संघर्ष* करते है, उसका माहात्म्य *जटायु* जैसा *कीर्तिवान* होता है।

🙏 सदैव *गलत* का *विरोध* जरूर करना चाहिए। " *सत्य* परेशान जरूर होता है, पर *पराजित* नहीं। 🙏🏻🙏🏻🙏🏻*

शनिवार, 18 अप्रैल 2020

दुर्लभ ग्रंथ उल्टा सीधा में राम कृष्ण कथा




*अति दुर्लभ एक ग्रंथ ऐसा भी है हमारे सनातन धर्म मे*

इसे तो सात आश्चर्यों में से पहला आश्चर्य माना जाना चाहिए ---

*यह है दक्षिण भारत का एक ग्रन्थ*

क्या ऐसा संभव है कि जब आप किताब को सीधा पढ़े तो राम कथा के रूप में पढ़ी जाती है और जब उसी किताब में लिखे शब्दों को उल्टा करके पढ़े
तो कृष्ण कथा के रूप में होती है ।

जी हां, कांचीपुरम के 17वीं शदी के कवि वेंकटाध्वरि रचित ग्रन्थ "राघवयादवीयम्" ऐसा ही एक अद्भुत ग्रन्थ है।

इस ग्रन्थ को
‘अनुलोम-विलोम काव्य’ भी कहा जाता है। पूरे ग्रन्थ में केवल 30 श्लोक हैं। इन श्लोकों को सीधे-सीधे
पढ़ते जाएँ, तो रामकथा बनती है और
विपरीत (उल्टा) क्रम में पढ़ने पर कृष्णकथा। इस प्रकार हैं तो केवल 30 श्लोक, लेकिन कृष्णकथा (उल्टे यानी विलोम)के भी 30 श्लोक जोड़ लिए जाएँ तो बनते हैं 60 श्लोक।

पुस्तक के नाम से भी यह प्रदर्शित होता है, राघव (राम) + यादव (कृष्ण) के चरित को बताने वाली गाथा है ~ "राघवयादवीयम।"

उदाहरण के तौर पर पुस्तक का पहला श्लोक हैः

वंदेऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा यः ।
रामो रामाधीराप्यागो लीलामारायोध्ये वासे ॥ १॥

अर्थातः
मैं उन भगवान श्रीराम के चरणों में प्रणाम करता हूं, जो
जिनके ह्रदय में सीताजी रहती है तथा जिन्होंने अपनी पत्नी सीता के लिए सहयाद्री की पहाड़ियों से होते हुए लंका जाकर रावण का वध किया तथा वनवास पूरा कर अयोध्या वापिस लौटे।

अब इस श्लोक का विलोमम्: इस प्रकार है

सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी भारामोराः ।
यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देऽहं देवम् ॥ १॥

अर्थातः
मैं रूक्मिणी तथा गोपियों के पूज्य भगवान श्रीकृष्ण के
चरणों में प्रणाम करता हूं, जो सदा ही मां लक्ष्मी के साथ
विराजमान है तथा जिनकी शोभा समस्त जवाहरातों की शोभा हर लेती है।

" राघवयादवीयम" के ये 60 संस्कृत श्लोक इस प्रकार हैं:-

राघवयादवीयम् रामस्तोत्राणि
वंदेऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा यः ।
रामो रामाधीराप्यागो लीलामारायोध्ये वासे ॥ १॥

विलोमम्:
सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी भारामोराः ।
यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देऽहं देवम् ॥ १॥

साकेताख्या ज्यायामासीद्याविप्रादीप्तार्याधारा ।
पूराजीतादेवाद्याविश्वासाग्र्यासावाशारावा ॥ २॥

विलोमम्:
वाराशावासाग्र्या साश्वाविद्यावादेताजीरापूः ।
राधार्यप्ता दीप्राविद्यासीमायाज्याख्याताकेसा ॥ २॥

कामभारस्स्थलसारश्रीसौधासौघनवापिका ।
सारसारवपीनासरागाकारसुभूरुभूः ॥ ३॥

विलोमम्:
भूरिभूसुरकागारासनापीवरसारसा ।
कापिवानघसौधासौ श्रीरसालस्थभामका ॥ ३॥

रामधामसमानेनमागोरोधनमासताम् ।
नामहामक्षररसं ताराभास्तु न वेद या ॥ ४॥

विलोमम्:
यादवेनस्तुभारातासंररक्षमहामनाः ।
तां समानधरोगोमाननेमासमधामराः ॥ ४॥

यन् गाधेयो योगी रागी वैताने सौम्ये सौख्येसौ ।
तं ख्यातं शीतं स्फीतं भीमानामाश्रीहाता त्रातम् ॥ ५॥

विलोमम्:
तं त्राताहाश्रीमानामाभीतं स्फीत्तं शीतं ख्यातं ।
सौख्ये सौम्येसौ नेता वै गीरागीयो योधेगायन् ॥ ५॥

मारमं सुकुमाराभं रसाजापनृताश्रितं ।
काविरामदलापागोसमावामतरानते ॥ ६॥

विलोमम्:
तेन रातमवामास गोपालादमराविका ।
तं श्रितानृपजासारंभ रामाकुसुमं रमा ॥ ६॥

रामनामा सदा खेदभावे दया-वानतापीनतेजारिपावनते ।
कादिमोदासहातास्वभासारसा-मेसुगोरेणुकागात्रजे भूरुमे ॥ ७॥

विलोमम्:
मेरुभूजेत्रगाकाणुरेगोसुमे-सारसा भास्वताहासदामोदिका ।
तेन वा पारिजातेन पीता नवायादवे भादखेदासमानामरा ॥ ७॥

सारसासमधाताक्षिभूम्नाधामसु सीतया ।
साध्वसाविहरेमेक्षेम्यरमासुरसारहा ॥ ८॥

विलोमम्:
हारसारसुमारम्यक्षेमेरेहविसाध्वसा ।
यातसीसुमधाम्नाभूक्षिताधामससारसा ॥ ८॥

सागसाभरतायेभमाभातामन्युमत्तया ।
सात्रमध्यमयातापेपोतायाधिगतारसा ॥ ९॥

विलोमम्:
सारतागधियातापोपेतायामध्यमत्रसा ।
यात्तमन्युमताभामा भयेतारभसागसा ॥ ९॥

तानवादपकोमाभारामेकाननदाससा ।
यालतावृद्धसेवाकाकैकेयीमहदाहह ॥ १०॥

विलोमम्:
हहदाहमयीकेकैकावासेद्ध्वृतालया ।
सासदाननकामेराभामाकोपदवानता ॥ १०॥

वरमानदसत्यासह्रीतपित्रादरादहो ।
भास्वरस्थिरधीरोपहारोरावनगाम्यसौ ॥ ११॥

विलोमम्:
सौम्यगानवरारोहापरोधीरस्स्थिरस्वभाः ।
होदरादत्रापितह्रीसत्यासदनमारवा ॥ ११॥

यानयानघधीतादा रसायास्तनयादवे ।
सागताहिवियाताह्रीसतापानकिलोनभा ॥ १२॥

विलोमम्:
भानलोकिनपातासह्रीतायाविहितागसा ।
वेदयानस्तयासारदाताधीघनयानया ॥ १२॥

रागिराधुतिगर्वादारदाहोमहसाहह ।
यानगातभरद्वाजमायासीदमगाहिनः ॥ १३॥

विलोमम्:
नोहिगामदसीयामाजद्वारभतगानया ।
हह साहमहोदारदार्वागतिधुरागिरा ॥ १३॥

यातुराजिदभाभारं द्यां वमारुतगन्धगम् ।
सोगमारपदं यक्षतुंगाभोनघयात्रया ॥ १४॥

विलोमम्:
यात्रयाघनभोगातुं क्षयदं परमागसः ।
गन्धगंतरुमावद्यं रंभाभादजिरा तु या ॥ १४॥

दण्डकां प्रदमोराजाल्याहतामयकारिहा ।
ससमानवतानेनोभोग्याभोनतदासन ॥ १५॥

विलोमम्:
नसदातनभोग्याभो नोनेतावनमास सः ।
हारिकायमताहल्याजारामोदप्रकाण्डदम् ॥ १५॥

सोरमारदनज्ञानोवेदेराकण्ठकुंभजम् ।
तं द्रुसारपटोनागानानादोषविराधहा ॥ १६॥

विलोमम्:
हाधराविषदोनानागानाटोपरसाद्रुतम् ।
जम्भकुण्ठकरादेवेनोज्ञानदरमारसः ॥ १६॥

सागमाकरपाताहाकंकेनावनतोहिसः ।
न समानर्दमारामालंकाराजस्वसा रतम् ॥ १७ विलोमम्:
तं रसास्वजराकालंमारामार्दनमासन ।
सहितोनवनाकेकं हातापारकमागसा ॥ १७॥

तां स गोरमदोश्रीदो विग्रामसदरोतत ।
वैरमासपलाहारा विनासा रविवंशके ॥ १८॥

विलोमम्:
केशवं विरसानाविराहालापसमारवैः ।
ततरोदसमग्राविदोश्रीदोमरगोसताम् ॥ १८॥

गोद्युगोमस्वमायोभूदश्रीगखरसेनया ।
सहसाहवधारोविकलोराजदरातिहा ॥ १९॥

विलोमम्:
हातिरादजरालोकविरोधावहसाहस ।
यानसेरखगश्रीद भूयोमास्वमगोद्युगः ॥ १९॥

हतपापचयेहेयो लंकेशोयमसारधीः ।
राजिराविरतेरापोहाहाहंग्रहमारघः ॥ २०॥

विलोमम्:
घोरमाहग्रहंहाहापोरातेरविराजिराः ।
धीरसामयशोकेलं यो हेये च पपात ह ॥ २०॥

ताटकेयलवादेनोहारीहारिगिरासमः ।

हासहायजनासीतानाप्तेनादमनाभुवि  ॥ २१॥

विलोमम्:
विभुनामदनाप्तेनातासीनाजयहासहा ।
ससरागिरिहारीहानोदेवालयकेटता ॥ २१॥

भारमाकुदशाकेनाशराधीकुहकेनहा ।
चारुधीवनपालोक्या वैदेहीमहिताहृता ॥ २२॥

विलोमम्:
ताहृताहिमहीदेव्यैक्यालोपानवधीरुचा ।
हानकेहकुधीराशानाकेशादकुमारभाः ॥ २२॥

हारितोयदभोरामावियोगेनघवायुजः ।
तंरुमामहितोपेतामोदोसारज्ञरामयः ॥ २३॥

विलोमम्:
योमराज्ञरसादोमोतापेतोहिममारुतम् ।
जोयुवाघनगेयोविमाराभोदयतोरिहा ॥ २३॥

भानुभानुतभावामासदामोदपरोहतं ।
तंहतामरसाभक्षोतिराताकृतवासविम् ॥ २४॥

विलोमम्:
विंसवातकृतारातिक्षोभासारमताहतं ।
तं हरोपदमोदासमावाभातनुभानुभाः ॥ २४॥

हंसजारुद्धबलजापरोदारसुभाजिनि ।
राजिरावणरक्षोरविघातायरमारयम् ॥ २५॥

विलोमम्:
यं रमारयताघाविरक्षोरणवराजिरा ।
निजभासुरदारोपजालबद्धरुजासहम् ॥ २५॥

सागरातिगमाभातिनाकेशोसुरमासहः ।
तंसमारुतजंगोप्ताभादासाद्यगतोगजम् ॥ २६॥

विलोमम्:
जंगतोगद्यसादाभाप्तागोजंतरुमासतं ।
हस्समारसुशोकेनातिभामागतिरागसा ॥ २६॥

वीरवानरसेनस्य त्राताभादवता हि सः ।
तोयधावरिगोयादस्ययतोनवसेतुना ॥ २७॥

विलोमम्
नातुसेवनतोयस्यदयागोरिवधायतः ।
सहितावदभातात्रास्यनसेरनवारवी ॥ २७॥

हारिसाहसलंकेनासुभेदीमहितोहिसः ।
चारुभूतनुजोरामोरमाराधयदार्तिहा ॥ २८॥

विलोमम्
हार्तिदायधरामारमोराजोनुतभूरुचा ।
सहितोहिमदीभेसुनाकेलंसहसारिहा ॥ २८॥

नालिकेरसुभाकारागारासौसुरसापिका ।
रावणारिक्षमेरापूराभेजे हि ननामुना ॥ २९॥

विलोमम्:
नामुनानहिजेभेरापूरामेक्षरिणावरा ।
कापिसारसुसौरागाराकाभासुरकेलिना ॥ २९॥

साग्र्यतामरसागारामक्षामाघनभारगौः ॥
निजदेपरजित्यास श्रीरामे सुगराजभा ॥ ३०॥

विलोमम्:
भाजरागसुमेराश्रीसत्याजिरपदेजनि ।स
गौरभानघमाक्षामरागासारमताग्र्यसा ॥ ३०॥

॥ इति श्रीवेङ्कटाध्वरि कृतं श्री  ।।

*कृपया अपना थोड़ा सा कीमती वक्त निकाले और उपरोक्त श्लोको को गौर से अवलोकन करें कि यह दुनिया में कहीं भी ऐसा न पाया जाने वाला ग्रंथ है ।*
जय श्री राम। जय कुल देवी

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020

रामावतार त्यागी / मौत से ज्यादा क्या है.......




रामावतार त्यागी

रामावतार त्यागी पर जितना जानने का प्रयास किया जाए उतना कम ही है। उनका एक प्रसिद्ध गीत है -

एक हसरत थी कि आंचल का मुझे प्यार मिले।
मैंने मंजिल को तलाशा मुझे बाजार मिले।।
जिंदगी और बता तेरा इरादा क्या है?
तेरे दामन में बता मौत से ज्यादा क्या है?
जिंदगी और बता तेरा इरादा क्या है?

इस गीत को बचपन से सुनता आ रहा हूँ। कितनी ही बार इस गीत को सुनो मन ही नहीं भरता है। वेदना का यह गीत घोर निराशा से आशा की ओर ले जाता है।

 काल की बात करें तो यह वह समय था जब सिनेमा में निराशा भरे जीवन में साहस का संचार करने वाले कई गीत लिखे गए थे, जिन्होंने दर्शकों और श्रोताओं में नया उत्साह उत्पन्न किया। फिल्म ‘जिंदगी और तूफान’ (1975) के इस गीत में विशेष बात यह रही कि इसमें कवि रामावतार त्यागी ने जीवन की उस सच्चाई का प्रदर्शन किया है जिसे स्वीकारने से तत्कालीन समाज डरता रहा है।

यह विशेष प्रकार का और निडर प्रयोग था। उन्होंने समाज के तथाकथित सभ्य समाज की आँखों में आँखें डाल कर बात की। अवैध संतान पैदा करने वालों और फिर उस संतान को सभ्य समाज द्वारा ठोकरे मारने वालों को कटघरे में खड़ा कर दिया।

 कौम के अय्याश अगर अवैध संबंध बनाते हैं और संतान जन्म ले लेती है तो उसमें ऐसी संतान का दोष क्या है? इसके बावजूद ऐसी संतान किससे शिकायत करे? इसलिए वह अपनी जिन्दगी को चुनौति मानकर स्वीकार करता है।

 ‘मेरे दामन में बता मौत से ज्यादा क्या है।’ वह मृत्यु से तनिक भी डरता नहीं है। कवि रामावतार त्यागी ने सिनेमा के लिए लिखे गीत ‘जिंदगी और बता तेरा इरादा क्या है’ से काफी प्रसिद्धि बटोरी परंतु हिंदी साहित्य के समीक्षकों ने उनके साथ न्याय नहीं किया।


कवि रामावतार त्यागी के समय के साहित्य की बात करें तो सन् 1936 ई. के आस-पास कविता में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक शोषण से मुक्ति का स्वर अभिव्यक्त होने लगा था। इसी नवीन धारा को प्रगतिवाद नाम दिया गया। जिसका प्रारंभ पंत व निराला ने किया। बाद में भगवती चरण वर्मा, गोपाल सिंह नेपाली, शिवमंगल सिंह सुमन ने प्रगतिवादी रचनाओं का भण्डार भरा।

इसी यात्रा पर गोपालदास नीरज, रामावतार त्यागी, रामानंद दोषी, रमानाथ अवस्थी, वीरेन्द्र मिश्र, गजानन माधव मुक्तिबोध, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, त्रिलोचन जैसे कवि भी आगे बढ़े। इन कवियों की रचनाओं में बौद्धिक चिंतन की प्रधानता रही है। यह कविता व्यक्तिवाद, कलावाद के कारण चर्चा में रहीं।

 मध्यवर्गीय व्यक्तियों की मानसिक कुंठाओं और अपने अंतर्मुखी होने के कारण अधिकांश कवितायें साधारण पाठक की समझ में नहीं आती थीं। परंतु कवि राम अवतार त्यागी ने जिस शैली को अपनाया वह आम पाठक की समझ में खूब आती थी। वह शहर में रहते हुए और शहरी जिन्दगी से दुखी होकर कहते हैं-


मैं तो तोड़ मोड़ के बंधन
अपने गाँव चला जाऊँगा
तुम आकर्षक सम्बन्धों का,
आँचल बुनते रह जाओगे।
कवि राम अवतार त्यागी की लगभग पंद्रह पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। उनकी कुछ कविताएँ एनसीईआरटी के हिंदी पाठ्यक्रम में भी शामिल की गईं। उत्तर प्रदेश प्राथमिक शिक्षा के कक्षा आठ के पाठ्यक्रम में भी उनकी ‘समर्पण’ नामक कविता शामिल है। कवि सम्मेलनों में त्यागी जी स्वरचित कविताओं को लय-ताल के साथ गाते थे।

‘जिंदगी और बता तेरा इरादा क्या है’ गीत को तो मंचों पर उन्होंने सबसे ज्यादा बार गाया। त्यागी जी ने नवभारत टाइम्स में ‘क्राइम रिपोर्टर’ से लेकर साप्ताहिक स्तंभ लेखन तक का काम किया। यही नहीं बल्कि उनके जीवन की खास बात यह भी रही कि पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा ने उन्हें राजीव गांधी और संजय गांधी हिंदी वाचन के लिए निजी शिक्षक भी नियुक्त किया।


ऐसे यशस्वी साहित्यकार रामावतार त्यागी का जन्म 08 जुलाई सन 1925 को जनपद मुरादाबाद के अन्तर्गत संभल (वर्तमान में जिला है) तहसील के कुरकावली ग्राम में त्यागी (भूमिहार ब्राह्मण) परिवार में 17 मार्च, 1925 को हुआ। घर की रूढ़िवादिता से विद्रोह कर त्यागी ने अत्यंत विषम परिस्थितियों में शिक्षा प्राप्त की। अंत में दिल्ली आकर इन्होंने वियोगी हरि और महावीर अधिकारी के साथ सम्पादन कार्य किया।

त्यागी पीड़ा के कवि हैं। इनकी शब्द-योजना सरल तथा अनुभूति गहरी है। इनका कविता संग्रह ‘आठवाँ स्वर’ पुरस्कृत है। रामावतार त्यागी हिन्दी गीत की दुनिया में एक उल्लेखनीय, प्रतिष्ठित, सम्मानित कवि के रूप में तो विख्यात रहे ही, अपने स्वभाव, खुरदुरे व्यक्तित्व एवं स्वाभिमानी मिजाज के कारण विवादास्पद भी रहे। जिस आयोजन में त्यागी जी मौजूद हों, उस पर विशिष्ट हो जाना निश्चित था। जीवन की उदास शामों, कठिन चुनौतियों को प्रखर अभिव्यक्ति देने वाले रामावतार त्यागी अपने गहरे अवसाद पूर्ण गीतों में भी अभिव्यक्ति के ऐस आयाम प्रस्तुत करते थे जो अन्यत्र दुर्लभ हैं।

 यह महान कवि 12 अप्रैल सन 1985 को इस नश्वर दुनिया को छोड़ सदा के लिए चला गया।
वह देशप्रेमी कविताएं भी खूब लिखते थे। उनकी ‘समर्पण’ कविता विभिन्न पाठ्यक्रम में शामिल की गई है।
मन समर्पित तन समर्पित
और यह जीवन समर्पित
चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूँ
कविता का पाठ करते करते मन में जो देशभावना उमड़ती है वह देखने लायक होती है।

पत्र-पत्रिकाओं में भी रामावतार त्यागी की रचनाएं प्रकाशित हुई हैं। लेखक शेरजंग गर्ग ने रामावतार त्यागी पर एक पुस्तक - ‘हमारे लोकप्रिय गीतकार: रामावतार त्यागी’ लिखी है जो वाणी प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित है। एक और पुस्तक क्षेमचन्द्र सुमन ने भी ‘रामावतार त्यागी’ (हिन्दी के कवि) प्रकाशित कराई थी। इसके अलावा साहित्यकार रामावतार त्यागी की पुस्तकें हैं-
1. गीत बोलते हैं (काव्य)
2. गाता हुआ दर्द (काव्य)
3. आठवाँ स्वर  (काव्य)
4. मैं दिल्ली हूँ (काव्य)
5. गुलाब और बबूल वन  (काव्य)
6. समाधान (उपन्यास)
7. चरित्रहीन केे पत्र (उपन्यास)
8. नया खून (काव्य)
9. सपने महक उठे (काव्य)
10. दिल्ली जो एक शहर था
11. राम झरोखा
12. राष्ट्रीय एकता की कहानी
13. महाकवि कालीदास रचित मेघदूत का काव्यानुवाद (काव्य)
14. गीत सप्तक-इक्कीस गीत (काव्य)।


रामावतार त्यागी जिस गाँव में पले बढ़े उससे बहुत प्यार करते रहे। यहाँ तक कि दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में भी अपने गाँव की बात करना नहीं भूले। उन्होंने जितना प्रेम अपने गांव को किया उससे कहीं अधिक अपने देश को भी किया। प्रकृति प्रेम उनके साहित्य स्पष्ट झलकता है तो सामाजिक ताने-बाने को भी उन्होंने अपने साहित्य की विषयवस्तु बनाया है।

किंतु दुख का विषय है कि रामावतार त्यागी जैसे महान साहित्यकार और उनके साहित्य पर अभी आवश्यक प्रकाश नहीं डाला गया है। ऐसे में रामावतार त्यागी के व्यक्तित्व एवं उनके कृतित्व पर विषद अध्ययन की आवश्यकता है।
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गुरुवार, 16 अप्रैल 2020

कायस्थों का खानपान जाने सारा हिन्दुस्तान / अखिलेश श्रीवास्तव



कायस्थों का खाना-पीना –
 कड़ी नंबर 1 --
बनारस के अर्दली बाजार में काफी बड़ी संख्या में कायस्थ रहते हैं. अगर आप रविवार को यहां के मोहल्लों से दोपहर में निकलें तो हर घर के बाहर आती खाने की गंघ बता देगी कि अंदर क्या पक रहा है. ये हालत पूर्वी उत्तर प्रदेश के तकरीबन उन सभी जगहों की है, जहां कायस्थ अच्छी खासी तादाद में रहते हैं. बात कुछ पुरानी है. अर्दली बाजार में एक दोस्त के साथ घूम रहा था. पकते लजीज मीट की खुशबु बाहर तक आ रही थी.  दोस्त ने मेरी ओर देखा,  तपाक से कहा, "ललवन के मुहल्लवां से जब संडे में निकलबा त पता लग जाई कि हर घर में मटन पकत बा."
हकीकत यही है. उत्तर भारत में अब भी अगर आप किसी कायस्थ के घर संडे में जाएं तो किचन में मीट जरूर पकता मिलेगा. पूर्वी उत्तर प्रदेश में कायस्थों को लाला भी बोला जाता है. देशभर में फैले कायस्थों की खास पहचान का एक हिस्सा उनका खान-पान है. संडे में जब कायस्थों के घर जब मीट बनता है तो अमूमन बनाने का जिम्मा पुरुष ज्यादा संभालते हैं.
पिछले शनिवार और रविवार जब मैं किताबों और कागजों से कबाड़ हल्का कर रहा था, तब फ्रंटलाइन में छपा एक रिव्यू हाथ आ गया. जो काफी समय पहले पढ़ने के लिए रखा था. शायद इसलिए, क्योंकि वो उस किताब का रिव्यू था जो कायस्थों के खानपान पर आधारित है. इस की काफी तारीफ तब अखबारों और पत्रिकाओं में आई थी. किताब का नाम है "मिसेज एलसीज टेबल". इसकी लेखिका हैं अनूठी विशाल. मिसेज एलसी मतलब मिसेज लक्ष्मी चंद्र माथुर. और टेबल यानि उनके लजीज पाकशाला से सजी टेबल.
माना जाता है कि भारत में लजीज खानों की खास परंपरा कायस्थों के किचन से निकली है. कायस्थों में तमाम तरह सरनेम हैं. कहा जाता है कि खान-पान असली परंपरा और रवायतों में माथुर कायस्थों की देन ज्यादा है. खाने को लेकर उन्होंने खूब इनोवेशन किया. कायस्थों की रसोई के खाने अगर मुगल दस्तरख्वान का फ्यूजन हैं तो बाद में ब्रिटिश राज में उनकी  अंग्रेजों के साथ शोहबत भी.हालांकि पूर्वी उत्तर प्रदेश खासकर इलाहाबाद, लखनऊ, बनारस, जौनपुर में रहने वाले श्रीवास्तव भी खुद को कुछ कम नहीं मानते.
कहा जाता है कि कायस्थों की जमात तब उभर कर आई, जब मुगल भारत आए. फारसी में लिखा-पढ़ी, चकबंदी और अदालती कामकाज के नए तौरतरीके शुरू हुए. कायस्थों ने फटाफट फारसी सीखी और मुगल बादशाहों के प्रशासन, वित्त महकमों और अदालतों में मुलाजिम और अधिकारी बन गए. कायस्थ हमारी पुरातन सामाजिक जाति व्यवस्था में क्यों नहीं हैं, ये अलग चर्चा का विषय है. इसके बारे में भी कई मत हैं. कोई उन्होंने शुद्रों से ताल्लुक रखने वाला तो कोई ब्राह्मणों तो कुछ ग्रंथ क्षत्रियों से निकली एक ब्रांच मानते हैं.

लेखक अशोक कुमार वर्मा की एक किताब है, "कायस्थों की सामाजिक पृष्ठभूमि". वो कहती है, "जब मुगल भारत आए तो कायस्थ मुस्लिमों की तरह रहने लगे. उनके खाने के तौरतरीके भी मुस्लिमों की तरह हो गए. वो बीफ छोड़कर सबकुछ खाते थे. मुगलों के भोजन का आनंद लेते थे. मदिरासेवी थे."
14वीं सदी में भारत आए मोरक्कन यात्री इब्न बबूता ने अपने यात्रा वृत्तांत यानि रिह्‌ला में लिखा, "मुगलों में वाइन को लेकर खास आकर्षण था. अकबर के बारे में भी कहा जाता है कि वो शाकाहारी और शराब से दूर रहने वाला शासक था. कभी-कभार ही मीट का सेवन करता था. औरंगजेब ने तो शराब सेवन के खिलाफ कानून ही पास कर दिया था. अलबत्ता  उसकी कुंवारी बहन जहांआरा बेगम खूब वाइन पीती थी. जो विदेशों से भी उसके पास पहुंचता था. हालांकि अब मदिरा सेवन में कायस्थ बहुत पीछे छूट चुके हैं. लेकिन एक जमाना था जबकि कायस्थों के मदिरा सेवन के कारण उन्हे ये लेकर ये बात खूब कही जाती थी.

"लिखना, पढ़ना जैसा वैसा
दारू नहीं पिये तो कायस्थ कैसा"

वैसे पहले ही जिक्र कर चुका हूं. जमाना बदल गया है. खानपान और पीने-पिलाने की रवायतें बदल रही हैं. हरिवंशराय बच्चन दशद्वार से सोपान तक में लिख गए, " मेरे खून में तो मेरी सात पुश्तों के कारण हाला भरी पड़ी है, बेशक मैने कभी हाथ तक नहीं लगाया."

कायस्थों का खाना-पीना- कड़ी नंबर  2

कायस्थ हमेशा से खाने-पीने के शौकीन रहे हैं. लेकिन ये सब भी उन्होंने एक स्टाइल के साथ किया. आज भी अगर पुराने कायस्थ परिवारों से बात करिए या उन परिवारों से ताल्लुक रखने वालों से बात करिए तो वो बताएंगे कि किस तरह कायस्थों की कोठियों में बेहतरीन खानपान, गीत-संगीत और शास्त्रीय सुरों की महफिलें सजा करती थीं. जिस तरह बंगालियों के बारे में माना जाता है कि हर बंगाली घर में आपको अच्छा खाने-पीने, गाने और पढ़ने वाले लोग जरूर मिल जाएंगे, कुछ वैसा ही कायस्थों को लेकर कहा जाता रहा है.
जिस किताब का जिक्र मैने आपसे पहली कड़ी में किया, उसका नाम है मिसेज एलसीज टेबल. अनूठी विशाल की ये किताब तमाम ऐसे व्यंजनों की बात करती है, जिसका इनोवेशन केवल कायस्थों के किचन में हुआ.
मसलन देश में भरवों और तमाम तरह के पराठों का जो अंदाज आप अब खानपान में देखते हैं, वो मुगलों की पाकशाला से जरूर निकले लेकिन उसका असली भारतीयकरण कायस्थों ने किया. मुगल जब भारत आए तो उन्हें भारत में जो यहां की मूल सब्जियां मिलीं, उसमें करेला, लौकी, तोरई, परवल और बैंगन जैसी सब्जियां थीं. उनके मुख्य खानसामा ने करेला और परवल को दस्तरख्वान के लिए चुना, क्योंकि उन्हें लगा कि ये मुगल बादशाह और उनके परिवार को पसंद आएगी. लेकिन उन्होंने एक काम और किया. इन दोनों सब्जियों के ऊपर चीरा लगाकर उन्होंने इसे अंदर से खाली किया और भुना हुआ मीट कीमा डालकर इसे तंदूर में पकाया. बेशक ये जायका लाजवाब था. कायस्थों ने इसे अपने तरीके से पकाया. उन्होंने करेला, बैंगन, परवल में सौंफ, लौंग, इलायची, आजवाइन, जीरे और धनिया जैसे मसालों और प्याज का मिश्रण भरा. कुछ दशक पहले तक किसी और घर में पूरे खड़े मसालें मिलें या नहीं मिलें लेकिन कायस्थों के घरों में ये अलग-अलग बरनियों या छोटे डिब्बों में मौजूद रहते थे. उन्हें हर मसाले की खासियतों का अंदाज था. खैर बात भरवों की हो रही है. खड़े मसालों को प्याज और लहसुन के साथ सिलबट्टे पर पीसा जाता था. बने हुए पेस्ट को कढ़ाई पर भुना जाता था. फिर इसे करेला, बैंगन, परवल, आलू, मिर्च आदि में अंदर भरकर कड़ाही में तेल के साथ देर तक फ्राई किया जाता था. कड़ाही इस तरह ढकी होती थी कि भुनी हुई सब्जियों से निकल रही फ्यूम्स उन्हीं में जज्ब होती रहे. आंच मध्यम होती थी कि वो जले भी. बीच-बीच में इतनी मुलायमित के साथ उस पर कलछुल चलाया जाता था कि हर ओर आंच प्रापर लगती रहे.

दरअसल देश में पहली बार भरवों की शुरुआत इसी अंदाज में कायस्थों के किचन में हुई. हर मसाले के अपने चिकित्सीय मायने भी होते थे. यहां तक मुगलों के बारे में भी कहा गया है कि मुगल पाकशाला का मुख्य खानसामा हमेशा अगर किसी नए व्यंजन की तैयारी करता था तो शाही वैद्य से मसालों के बारे में हमेशा राय-मश्विरा जरूर कर लेता था.
चूंकि कायस्थ दरबारों में बड़े और अहम पदों पर थे लिहाजा मुगलिया दावत में आमंत्रित भी रहते थे. 1526 में बाबर ने जब भारत में मुगल वंश की नींव रखी तो अपने साथ मुगल दस्तख्वान भी भारत ले आया. तकरीबन सभी मुगलिया शासक खाने के बहुत शौकीन थे. जहांगीर तो अपनी डायरियों तक में खानपान का जिक्र करता था. अकबर के समय में उनके इतिहासकार अबुल फजल ने आइन-ए-अकबरी और अकबरनामा में उस दौर के खानपान का भरपूर जिक्र किया है. इब्नबबूता ने भी अपने यात्रा वृतांत में भी इसका जिक्र किया है. ये वो दौर था जब मुगल खानपान में ड्रायफ्रुट्स, किशमिश, मसालों और घी का भरपूर प्रयोग होता था. इसे वो अपने साथ यहां भी लाए थे. यानि कहा जा सकता है कि मुगल पाकशाला के साथ खानों की नई शैली और स्वाद भी आया था. ऐसा नहीं है कि भारत में ये सब चीजें होती नहीं थीं या इनका इस्तेमाल नहीं होता था लेकिन इन सारी ही खाद्य सामग्रियों को लेकर तमाम पाबंदियां और बातें थीं.

कायस्थ मुगल दस्तरख्वान के ज्यादातर व्यंजनों को अपनी रसोई तक ले गए लेकिन अपने अंदाज और प्रयोगों के साथ. फर्क ये था कि कायस्थों ने शाकाहार का भी बखूबी फ्यूजन किया. मांसाहार के साथ भी कायस्थों ने ये काम किया. कवाब से लेकर मीट और बिरयानी तक का बखूबी नया अंदाज कायस्थों की रसोई में मिलता रहा.

बिरयानी की भी एक रोचक कहानी है. कहा जाता है कि एक बार मुमताज सेना की बैरक का दौरा करने गईं. वहां उन्होंने मुगल सैनिकों को कुछ कमजोर पाया. उन्होंने खानसामा से कहा कि ऐसी कोई स्पेशल डिश तैयार करें, जो चावल और मीट से मिलकर बनी हो, जिससे पर्याप्त पोषण मिले. जो डिश सामने आई, वो बिरयानी के रूप में थी. बिरयानी में अगर मुगल दस्तरख्वान ने नए नए प्रयोग किए तो कायस्थों ने बिरयानी के इस रूप को सब्जियों, मसालों के साथ शाकाहारी अंदाज में भी बदला. चावल को घी के साथ भुना गया. सब्जियों को फ्राई किया गया. फिर इन दोनों को मसाले के साथ मिलाकर पकाया गया, बस शानदार तहरी या पुलाव तैयार.
अपने घरों में आप चाव से जो पराठे खाते हैं. वो बेशक मुगल ही भारत लेकर आए थे. दरअसल मुगलों की दावत में कायस्थों ने देखा कि फूली हुई रोटी की तरह मुगलिया दावत में एक ऐसी डिश पेश की गई, जिसमें अंदर मसालों में भुना मीट भरा था. इन फूली हुई रोटियों को धी से सेंका गया था. खाने में इसका स्वाद गजब का था. कायस्थों ने इस डिश को रसोई में जब आजमाया तो इसके अंदर आलू, मटर आदि भरा. ये कायस्थ ही थे. जिन्होंने उबले आलू, उबली हुई चने की दाल, पिसी हरी मटर को आटे की लोइयों के अंदर भरकर इसे बेला और सरसों तेल में सेंका तो लज्जतदार पराठा तैयार था. जब अगली बार आप अगर पराठे वाली गली में कोई पराठा खा रहे हों या घर में इसे तैयार कर रहे हों और ये मानें कि ये पंजाबियों की देन हैं तो पक्का मानिए कि आप गलत हैं. असलियत में ये कायस्थों की रसोई का फ्यूजन है.
बात सरसो तेल और घी की चली है, तो ये भी बताता चलता हूं कि इन दोनों का इस्तेमाल भारतीय खाने में बेशक होता था लेकिन बहुत सीमित रूप मे .
मशहूर खानपान विशेषज्ञ केटी आचार्य की किताब ए हिस्टोरिकल कंपेनियन इंडियन फूड में कहा गया है कि चरक संहिता के अनुसार, बरसात के मौसम में वेजिटेबल तेल का इस्तेमाल किया जाए तो वसंत में जानवरों की चर्बी से मिलने वाले घी का. हालांकि इन दोनों के ही खानपान में बहुत कम मात्रा में इस्तेमाल की सलाह दी जाती थी. प्राचीन भारत में तिल का तेल फ्राई और कुकिंग में ज्यादा इस्तेमाल किया जाता था. उस दौर में कहा जाता था कि गैर आर्य राजा जमकर घी-तेल का इस्तेमाल करके ताकत हासिल करते हैं. प्राचीन काल में सुश्रुत मानते थे ज्यादा घी-तेल का इस्तेमाल पाचन में गड़बड़ी पैदा करता है. सुश्रुत ने जिन 16 खाद्य तेलों को इस्तेमाल के लिए चुना था, उसमें सरसों को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता था. इसके चिकित्सीय उपयोग भी बहुत थे.

ॐ श्री चित्रगुप्ताय नमः 🙏

बुधवार, 15 अप्रैल 2020

दौलत / कवि - अनाम गुमनाम





अख़बार बेचने वाला 10 वर्षीय बालक एक मकान का गेट बजा रहा है।
मालकिन - बाहर आकर पूछी क्या है ?
बालक - आंटी जी क्या मैं आपका गार्डेन साफ कर दूं ?
मालकिन - नहीं, हमें नहीं करवाना है, और आज अखबार नही लाया ।
बालक - हाथ जोड़ते हुए दयनीय स्वर में.. "प्लीज आंटी जी करा लीजिये न, अच्छे से साफ करूंगा,आज अखबार नही छपा,कल छुट्टी थी दशहरे की ।"


मालकिन - द्रवित होते हुए "अच्छा ठीक है, कितने पैसा लेगा ?"
बालक - पैसा नहीं आंटी जी, खाना दे देना।"
मालकिन- ओह !! आ जाओ अच्छे से काम करना ।
(लगता है बेचारा भूखा है पहले खाना दे देती हूँ..मालकिन बुदबुदायी।)

मालकिन- ऐ लड़के..पहले खाना खा ले, फिर काम करना ।
बालक -नहीं आंटी जी, पहले काम कर लूँ फिर आप खाना दे देना।
मालकिन - ठीक है, कहकर अपने काम में लग गयी।
बालक - एक घंटे बाद "आंटी जी देख लीजिए, सफाई अच्छे से हुई कि नहीं।
मालकिन -अरे वाह! तूने तो बहुत बढ़िया सफाई की है, गमले भी करीने से जमा दिए। यहां बैठ, मैं खाना लाती हूँ।
जैसे ही मालकिन ने उसे खाना दिया, बालक जेब से पन्नी निकाल कर उसमें खाना रखने लगा।
मालकिन - भूखे काम किया है, अब खाना तो यहीं बैठकर खा ले। जरूरत होगी तो और दे दूंगी।

बालक - नहीं आंटी, मेरी बीमार माँ घर पर है,सरकारी अस्पताल से दवा तो मिल गयी है,पर डाॅ साहब ने कहा है दवा खाली पेट नहीं खाना है।


मालकिन की पलके गीली हो गई..और अपने हाथों से मासूम को उसकी दूसरी माँ बनकर खाना खिलाया फिर उसकी माँ के लिए रोटियां बनाई और साथ उसके घर जाकर उसकी माँ को रोटियां दे आयी ।

और आते आते कह कर आयी "बहन आप बहुत अमीर हो जो दौलत आपने अपने बेटे को दी है वो हम अपने बच्चों को नहीं दे पाते हैं" ।
माँ बेटे की तरफ डबडबाई आंखों से देखे जा रही थी...बेटा बीमार मां से लिपट गया...।

कवि-अनाम-गुमनाम

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                  🙏🙏🙏🙏

रविवार, 12 अप्रैल 2020

मेरा इंडिया भारत बन रहा है / कवि अनाम




*_मेरा इंडिया भारत बन रहा है।_*


_सुबह डीजे नही रामधुन सुन रहा है, मेरा इंडिया भारत बन रहा है।_

_हाथ मिलना और हेलो हाय भूल नमस्ते कर रहा है, मेरा इंडिया भारत बन रहा है।_

_मेड कल्चर ख़त्म हो गया घर में सबका काम बंट रहा है, मेरा इंडिया भारत बन रहा है।_

_पिज़्ज़ा बर्गर सब छोड़ के दाल रोटी चुन रहा है, मेरा इंडिया भारत बन रहा है।_

_प्रदुषण भी कम हो गया खुला आसमान दिख रहा है, मेरा इंडिया भारत बन रहा है।_

_बिगबॉस देखना बंद है हर घर में रामायण चल रहा है, मेरा इंडिया भारत बन रहा है।_

_भागती हुई ज़िन्दगी में जैसे अब हर कोई रुक रहा है, मेरा इंडिया भारत बन रहा है।_

_जरूरत सारी सिमट गई है थोड़े में भी काम चल रहा है, मेरा इंडिया भारत बन रहा है।_

_लौटा है किस्से कहानी का दौर बड़ों के साथ बचपन खेल रहा है, मेरा इंडिया भारत बन रहा है।_

_अपने घर के साथ साथ दूसरों के  लिए भी दीप जल रहा है, मेरा इंडिया भारत बन रहा है।_

_नई पीढी में संस्कार दिख रहे गली गली जरूरी सामान पहुंच रहा है, मेरा इंडिया भारत बन रहा है।_

_दर्द सबका एक है भूखा रहे न कोई सनातन धर्म की सुन रहा है, मेरा इंडिया भारत बन रहा है।_
😷🙏

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2020

संवाद : अपने आप से / रश्मि




लॉकडाउन में संवाद
,
संवाद -अपने आप से.
 वैशाख शुरू हो गया है.धूप में ताप बढ़ गया है.हवा कुछ गर्म और धूल भरी हो गई है .
क्यारी में गुलाब जल्द कुम्हला जाते हैं,पॉपी की पौध भी सूख गई है.लिली शर्माती सी खिल रही है.   छोटी सूरजमुखी के फूल शान से गर्दन उठा कर खिलखिला रहे हैं.
सदाबहार के सफ़ेद,गुलाबी फूलों के गुच्छे मुस्करा रहे हैं.
मौसम होली के बाद से ही बदलना प्रारंभ होगया था .कोरोना की आहट भी आने लगीथी.
मेरे पीछे के आगंन में लगे अमरूद के वृक्ष से पत्तियाँ झड़ झड़ कर यहाँ वहाँ दौड़ने लगी थीं.
इस वृक्ष को लेकर जगवीरी बीस दिन पहले बड़बड़ा रही थी -इसबार खूब अमरूद लगा है ,आप देखभाल करो तब ना खाने को मिलें.     कच्चे पक्के अमरूद रोज़ धरती पर पड़े मिलते और सफ़ाई करते उसका दिल जलता .  अब मै क्या कहूँ ? पेड़ पर बंदर होते तो लाठी लेकर भगाए जा सकते हैं .इस बार तोते थे.हरे हरे पत्तों के बीच बैठे तोतों का फ़ोटो लेने केलिए मैं सुबह से रेलिंग पर झुकी रहती ,कहाँ ले पायी ?कभी शैतान सी गोल आँख दिखाई देती तो कभी लम्बी पूछँ.मेरा प्रयास अधिक उतावला होते ही झट सारे उड़ जाते.
पत्तियाँ अब भी झड़ रही हैं.हवा  उन के साथ खेल रही है.आगे आगे पत्तियाँ,पीछे पीछे हवा.
मैं खिड़की से बाहर आकाश में झलकता नीलापन देख रही हूँ .कहीं कहीं बादलों की हल्की सी छटा है.उन्हें देखकर आसमानी रंग की ‘स्कूल ड्रेस ‘याद आती है,उसके ऊपर लहराती सफ़ेद शिफ़ॉन की चुनरियाँ.   ग़ज़ब है मेरे यादों की छवि !
आसमानी रंग ! हमें बचपन में माँ ऐसे ही बताती थीं - आसमानी , स्लेटी,जामुनी बैंगनी,तोतई,फाख्तई,कत्थई,मेंहदी,केलई,सिंदूरी,केसरी,नारंगी,संतरी,गेहुँआ..... यह नाम अब जिव्हा पर नहीं आते पर स्मृति में कौंध जाते हैं.
गेहुँआ से याद आया,पास के गाँवों में फसल कटनी शुरू हो गई है.श्रमिकों के एक वर्ग को कुछ काम मिल गया है .   मेरी तो अपने शहर और आसपास के गाँवों तक ही पहुँच है .सुनने में आरहा है सब ठीक है .कठनाई है ,कड़ाई है  लेकिन भूखा कोई नहीं है .
हम भी ठीक हैं.घर बैठे सब्ज़ी,दूध,राशन मिल जाता है. सफ़ाई कर्मचारी सड़क की सफ़ाई करता है और घरों का कूढ़ा लेजाता है . हमें सुविधा देने वाले कर्मवीरों को नमन !
टी .वी,इंटरनेट पर खूब हलचल है .एक अफ़वाह फैलते ही लोग व्याकुल हो उठते हैं.समाज में बौखलाहट पैदा करके निराशा फैलाना कुछ लोगों का कर्तव्य बन गया है.
कोरोना की विश्वव्यापी आपदा से डरे लोग शान्त नहीं हो पा रहे .हम शान्त हो जाएँ तो कितना अच्छा रहे ! ऐसा होगा -लगता नहीं.
अंदर बाहर चर्चा है कि लॉकडाउन और कोरोना संकट के बाद दुनियाँ बदल जाएगी .राजनीति ,बाज़ार,कार्यशैली में अंतर आएगा.इस समय जो रुका दबा है जाने किस रूप में फूटेगा.एक लावा पता नहीं क्या बहा ले जाएगा.
बदल तो अब भी बहुत कुछ रहा है. नदियों का पानी ,हवा की गुणवत्ता , आकाश का नीलापन ,पक्षियों की गुंजार,पशुओं की चहलक़दमी.
मैं एक साधारण महिला  हूँ राजनीति,अर्थव्यवस्था,समाजशास्त्र की बड़ी बातें नहीं समझ पाती.
बस इतना सोचती हूँ -सब बदल जाए,मेरे देश की ऋतु न बदले.   एकादशी ,द्वादशी,प्रदोष,चतुर्दशी,अमावस्या और फिर पूर्णिमा तक की प्रतीक्षा न बदले .
प्रवृत्ति बदल जाए-प्रकृति का सौंदर्य न बदले !

एडजस्ट / विजय केसरी



कहानी




एडजस्ट / विजय केसरी

श्रेया बचपन से ही सबकी दुलारी रही थी। उसका रूप भी बड़ा ही लुभावना था, जो भी उसे एक बार देखता, बस देखता ही रह जाता था। उसके रुप के समान ही उसकी वाणी में मिठास थी। श्रेया अपनी तोतली बोली से घर के सभी लोगों के चेहरे पर मुस्कान ला देती थी। घर के सभी सदस्य श्रेया को बहुत चाहते थे।
समय के साथ अब श्रेया चार वर्षों की हो गई थी।  आकाश और रीता ने श्रेया का दाखिला रांची के एक सबसे बड़े स्कूल में करवा दिया था।  समय के साथ दिन बीतते चले गए। इस दरम्यान आकाश और रीता के जीवन में दो और नन्हें बच्चें सुशांत एवं प्रवीण आ गए थे। तीनों बच्चें एक साथ बड़े हो रहे थें।
पांच जनों का यह परिवार अब एक नए मकान में शिफ्ट कर गए थे
इस नए मकान (वसंत विहार) को आकाश और रीता ने बड़े ही अरमानों से बनाया था। तीनों बच्चें नए मकान में आकर बहुत खुश थें। श्रेया अब दसवीं कक्षा में पढ़ रही थी। नए मकान में श्रेया के लिए एक अलग से कमरा बनवाया गया था। स्कूल से आने के बाद वह उसी कमरे में ज्यादातर समय बीताती थी। होमवर्क भी उसी कमरे में करती थी। पुराना मकान से नए मकान में शिफ्ट होने से श्रेया बहुत ही खुश थी।  पुराना मकान में उसे कई तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था।  वह पुराना मकान में बंधा - बधा सा महसूस करती थी।  ऊपर से कई बच्चों के शोर भी उसे सुनना पड़ता था। मम्मी-पापा के साथ एक ही कमरा में उसे सोना बिल्कुल पसंद नहीं था।  अब तो नये मकान में उसके लिए एक अलग से कमरा मिल गया था। अब वह अपने कमरे में मन की कर सकती थी। खुले रूप से गा सकती थी। नाच सकती थी। गीत सुन सकती थी। जब मर्जी हुई तो पढ़ सकती थी।  नहीं मर्जी हुई तो नहीं पढ़ सकती थी।
श्रेया बी०कॉमर्स की परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हो गई थी। वह अब एमबीए करना चाहती थी। श्रेया के पापा - मम्मी को जब यह जानकारी हुई कि उसकी बेटी बी०कॉमर्स की परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हो गई है। दोनों बहुत ही खुश हुए थे। आकाश की आंखें भरभरा गई थी।
 यह देखकर रीता ने कहा,- 'आप बहुत भावुक हैं। यह पल तो खुशी की है। और आप आंसू बहा रहे हैं'।
यह सुनकर अकाश ने कहा,- 'नहीं रीता ! यह मेरी आंखों से बहते आंसू खुशी के हैं। मैं भी अपने जीवन में आगे पढ़ना चाहता था। पढ़कर कुछ बनना चाहता था। परंतु परिस्थिति ने ऐसा ना होने दिया था। आज मेरी बेटी श्रेया  बी० कॉमर्स की परीक्षा पास कर ली है। उसने मेरे अरमानों को पूरा किया है। यह मेरे अरमानों की खुशी के आंसू हैं'।
यह सुनकर श्रेया की मम्मी ने कहा,- आप बड़े भावुक हैं जी! आंसू पोछिए। आप आज सभी बच्चों के साथ किसी होटल में डिनर करवाइए'।
'क्यों नहीं? आज जरूर हम सब डिनर करेंगे'। आंखों से बहते आंसूओं को पोछते हुए आकाश ने कहा।
 तभी रीता ने कहा,- 'देखिए।  रीता देखते ही देखते कितनी बड़ी हो गई है। वह तो मुझसे भी लंबी हो गई है'। यह कहते-कहते रीता की आंखों में भी आंसू की बूंदें छलक पड़ी थी।
  हां । तुम ठीक बोल रही हो। श्रेया अब बड़ी हो चुकी है। बस, भगवान से यही प्रार्थना करता हूं कि जैसे श्रेया अच्छे अंको से पास हुई है। उसी प्रकार एक नंबर के लड़के से उसकी शादी हो जाए'। आकाश यह बात बड़े ही गंभीरता के साथ कहा था।
यह सुनकर रीता ने कहा,- 'आप बिल्कुल सही बोल रहे हैं। श्रेया से जब भी शादी विवाह की बातें करती हूं, हो तो वह इसे टाल जाती है। और बातों को बीच में ही काट डालती है।उसकी शादी की उम्र भी हो गई है। हम सब मध्यम वर्गीय परिवार से आते हैं। समय से शादी हो जाए। यही अच्छा रहेगा'।
 इस बात पर आकाश ने कहा,- 'जमशेदपुर में एक लड़का का पता चला है। वह सॉफ्टवेयर इंजीनियर है। एक अच्छी सॉफ्टवेयर कंपनी में कार्यरत भी है। लड़का का परिवार हम लोगों की ही तरह है ।
 यह सुनते ही रीता के चेहरे में चमक आ गई। बीच में ही आकाश की बातें कर काटते हुए रीता ने कहा,- ' इतनी अच्छी बात अब तक आपने मुझसे छुपाए  रखा'।
   'मैं कोई भी बात तुमसे कभी छुपाई है भला। आज ही आदित्य का फोन आया था। शायद उसके ही किसी एक रिश्तेदार का वह लड़का है । अब श्रेया बी०कॉमर्स पास कर गई है। आदित्य से आगे बात करूंगा'।आकाश ने कहा।
    यह सुनकर रीता ने कहा,- 'आदित्य से आज ही क्यों नहीं बात कर लेते ? श्रेया बी० कॉमर्स पास कर ली है। यह खबर भी उन्हें दे दें'।
     रीता की बात सुनकर आकाश ने कहा,- 'तुम ठीक बोल रही हो। तुरंत आदित्य से बात कर लेता हूं'।
     अपनी बातें समाप्त कर अकाश ने अपने मोबाईल से आदित्य को श्रेया के बी०कॉमर्स पास होने की सूचना दिया। जमशेदपुर वाले लड़के के संबंध और भी विस्तृत से जानकारी लिया । साथ ही आकाश ने यह जानना चाहा कि श्रेया के लिए वह लड़का कैसा रहेगा ? आदित्य ने हर तरह से संतुष्ट किया कि श्रेया के लिए वह लड़का बहुत ही ठीक रहेगा। उस लड़के के संबंध में आकाश ने आदित्य से विस्तार से बात की। दोनों ने शीघ्र जमशेदपुर जाने का प्लान भी बना लिया।
     मोबाईल पर आकाश और आदित्य की बातें सुनकर रीता अंदर ही अंदर खुश हुई थी। साथ ही भगवान से भी प्रार्थना कर रही थी कि श्रेया के लिए यह रिश्ता पक्का हो जाए।
 होटल दीप में आकाश, रीता, श्रेया, सुशांत और प्रवीण डिनर कर ही रहे थे। तभी आकाश के मोबाईल पर आदित्य का एक व्हाट्सएप मैसेज आया। जब आकाश ने व्हाट्सएप ऑन किया तो व्हाट्सएप में आई तस्वीर और मैसेज पढ़ कर बहुत ही खुश हुआ। आकाश तस्वीर और मैसेज पढ़ कर तुरंत मोबाईल रीता को दे दिया था। रीता फोटो और मैसेज पढ़ कर बहुत खुश हुई थी। फिर उसने मोबाइल को श्रेया की ओर बढ़ा दिया। श्रेया चूंकि खाने में मशगूल थी। लेकिन मम्मी ने जब मोबाईल श्रेया के हाथों में थमा दिया तो उसे देखना ही पड़ा था। तस्वीर और मैसेज पढ़ श्रेया की आंखें झुक गई थी।
  श्रेया ने यह कहकर मोबाईल मां को वापस कर दिया,-'यह सब क्या है, मम्मी!
रीता ने कहा,- 'तुम जल्द ही समझ जाएगी बेटी।
 यह कहकर रीता ने आकाश से बात किए बिना आदित्य को फोन लगाकर कहा,- 'आदित्य" लड़का मुझे पसंद है। मैसेज में जो पता अंकित है। उससे प्रतीत होता है कि मैं लड़के के परिवार को जानती हूं'।
 उधर से आदित्य ने कहा,- 'यह तो बहुत अच्छी बात है, भाभी। जाना समझा परिवार में ही शादी होनी चाहिए'।
  यह सुनकर रीता ने पूछा,- 'जमशेदपुर जाने का प्रोग्राम कब बनाएंगे?
  आदित्य ने कहा,- 'यह तो आप लोगों पर निर्भर करता है'।
  आकाश समझ रहा था कि रीता किससे बातें कर रही थी। रीता को यह सब बातें  कहते सुनकर आकाश को अच्छा लग रहा था। श्रेया भी मां की बातों को समझ रही थी।  अनजान बनी, खाने में मशगूल थी।
डिनर के दूसरे ही दिन आकाश और आदित्य श्रेया के लिए लड़का देखने जमशेदपुर चले गए थे। दोनों को लड़का का परिवार पसंद आ गया । श्रेया की तस्वीर और बायोडाटा देखकर लड़के वाले बहुत प्रसन्न हुए। पंडित जी को बुलवाकर श्रेया और अभिनव की कुंडली मिलाई गई थी। श्रेया और अभिनव  की कुंडली 30 गुण बैठ था। 30 गुण बैठने की बात सुनकर वहां उपस्थित सभी लोग खुश हो गए थे। अभिनव के पिता ने अगले सप्ताह लड़की देखने का समय दिया था।
 नियत समय पर लड़की देखने अभिनव के परिवार वाले आकाश के घर आ गए थे। श्रेया एक ही नजर में सबों को पसंद आ गई थी। पसंद कैसे ना होती, श्रेया थी ऐसी।
इसी क्रम में अभिनव के पिता ने आकाश की ओर मुखातिब होकर कहा,-  'दस दिनों के अंदर अभिनव बेंगलुरु से जमशेदपुर आ रहा है। हम लोगों को तो लड़की पूरी तरह पसंद है। एक बार लड़का, लड़की दोनों को एक दूसरे को देख लेतें तो बहुत बेहतर होता'।
 इस बात पर आकाश ने कहा,- 'आप बिल्कुल ठीक बोल रहे हैं। आप जहां बोलेंगे, मैं लड़की लेकर वहां आ जाऊंगा'।
  यह सुनकर अभिनव के पिता अरविंद लाल ने कहा, 'आकाश जी! लड़की लेकर कहीं यहां - वहां, आने - जाने की जरूरत नहीं है। बल्किअभिनव के संग हम सब आपके ही घर आ जाएंगे। ऐसे हमारे परिवार को लड़की तो पूरी तरह पसंद है। आज मॉडर्न टाइम है। लड़का, लड़की एक दूसरे को देख लेंगे, तो बहुत अच्छा रहेगा'।
   तब आकाश ने कहा,- 'हां ! हां ! आप बिल्कुल सही बोल रहे हैं'।
देखते ही देखते दस दिन भी बीत गए। अभिनव अपने मम्मी-पापा के साथ श्रेया के घर पहुंच चुके थे।
 श्रेया अपने कमरे में बिल्कुल शांत बैठी जरूर थी, किंतु मन मस्तिष्क में कई तरह के विचार चल और उठ रहे थे। अभिनव जैसा फोटो में दिख रहा है, वैसा है अथवा नहीं ? किस नेचर का लड़का होगा ? कॉलेज आते जाते समय राह से गुजरते कुछ मनचले लड़कों की हरकतों को याद कर आज भी श्रेया सहम जाती है।  कहीं अभिनव मनचले लड़कों की तरह ही तो नहीं है!  तभी उसे अभिनव के मम्मी - पापा की कुछ बातें याद आ गई थी। पहली बार जब अभिनव के पापा उसे देखने के लिए घर आए थे। तब उन्होंने अभिनव के संबंध में जितनी बातें बताई थी, उन बातों से तो दूर-दूर तक अभिनव में मनचले लड़कों वाली कोई बात नहीं थी। श्रेया जब इन्हीं विचारों में खोई हुई थी। तभी उसे यह भी ख्याल आया किअभिनव अच्छा लड़का जरूर होगा । तभी उसने सभी परीक्षाएं अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हुआ था। जैसे ही यह ख्याल श्रेया के मन में प्रवेश किया। उसकी सभी दुश्चिंताएं दूर हो गई थी। चेहरे पर हल्की मुस्कान भी उभर आई थी।
  तभी जोर कदमों से चलते हुए रीता श्रेया के कमरों में प्रवेश की और उसकी ओर मुखातिब होकर उन्होंने कहा,- 'तुम अभी तक तैयार भी नहीं हुई है? लड़का भी आया हुआ है।अरे श्रेया!  लड़का तो बहुत सुंदर है। पापा लड़के को देखकर बहुत खुश हैं'।
   मम्मी से ऐसी बातें सुनकर श्रेया बहुत खुश हो गई थी। वह मम्मो से कुछ कहती किंतु सवाल ही मुंह से नहीं फूटे थे।
    रीता ने श्रेया की चुप्पी पर कहा,- 'अरे जल्दी करो। चाय लेकर तुम्हें ही जाना है। वे सब तुम्हें ही देखने के लिए आए हुए हैं। तुम भी लड़का को देख लेना श्रेया'।
     मम्मी की बातें सुनकर बिना कोई सवाल किए श्रेया तैयार होने के लिए चल गई थी।
      श्रेया चाय लेकर जैसे ही हॉल में दाखिल हुई । हॉल के एक ओर सोफा पर अभिनव और उसके मम्मी-पापा  बैठे हुए थे।
      अभिनव अपने सपनों की राजकुमारी को जिस रूप में देखा था, श्रेया बिल्कुल उसी कल्पना के अनुरूप थी। अपनी कल्पना को मूर्त रूप में देखकर अभिनव अंदर से बहुत खुश हुआ था।
       इसी बीच दोनों परिवारों के बीच कई तरह की बातें हुई।  बीच-बीच में नजरें छुपा कर श्रेया ने भी कई बार अभिनव को देखा। अभिनव को देखकर श्रेया भी अंदर ही अंदर खुश थी।  अभिनव तो बिल्कुल तस्वीर के ही जैसा दिख रहा था। शांत, सहज, कम बोलने का अभिनव का यह अंदाज श्रेया को बहुत पसंद आया था।
        अभिनव और श्रेया दोनों ने अपने-अपने  पापा-मम्मी को पसंद के लिए हामी भर दिया था। दोनों की पसंद की बातें सुनकर दोनों परिवार के सदस्यगण काफी खुश हुए थे।
अभिनव और श्रेया का रिंग शिरोमणि कार्यक्रम बहुत ही धूमधाम के साथ संपन्न हुआ था।
श्रेया और अभिनव शीघ्र ही परिणय बंधन में भी बंद गए थे। श्रेया कुछ दिनों तक ससुराल में रहने के उपरांत अभिनव के साथ बेंगलुरु चली गई थी।
शादी तय हो जाने के बाद अभिनव के जीवन में एक बड़ा बदलाव आ गया था । पहले वह अपने बैचलर, बेरोजगार मित्रों के साथ एक ही मकान में रहता था। तब की जिंदगी कुछ और थी। वे जैसे रहें। कोई बोलने वाला नहीं था। और ना ही कोई डांटने वाला था । सभी आपस में बड़े ही हिल - मिलकर रहते थे।
शादी के पूर्व ही अभिनव ने अपने सभी साथियों से कहा,-  'तुम सब अब अपने-अपने  लिए रैन बसेरा का जल्दी ही जुगाड़ कर लो। अब मेरी शादी होने वाली है। अब तुम लोगों का मेरे यहां रहना संभव नहीं होगा। मैं यह मकान छोड़ने जा रहा हूं ।और नया मकान ढूंढ रहा हूं'।
यह बात सुनकर सभी दोस्तों को करंट लग गया था। अभिनव की शादी में अभी छ: महीने का वक्त था। दोस्तों ने सोचा छ: महीने में कहीं न कहीं कुछ बंदोबस्त जरूर हो जाएगा। यह संयोग ही था कि अभिनव की शादी के पूर्व भी उसके सभी दोस्तों की नौकरी विभिन्न निजी कंपनियों में लग गई थी। मित्रों की नौकरी लग जाने से अभिनव के माथे का बोझ उतर गया था। क्योंकि उसी के विश्वास पर सभी मित्र बेंगलुरु गए थे।
बेंगलुरु में अभिनय और श्रेया के दिन बहुत ही मजे के साथ बीत रहे थे । दोनों शादी के तुरंत बाद हनीमून के लिए मैसूर गए थे । एक सप्ताह तक दोनों मैसूर के एक थ्री स्टार होटल में  रुके थे। मैसूर में दोनों ने बहुत ही शानदार ढंग से हनीमून सेलेब्रेट किया था।
एक सप्ताह बाद दोनों बेंगलुरु लौटे थे। दोनों के बीच पति - पत्नी के साथ दोस्ताना का भी रिश्ता बन गया था।  परिणय बंधन में बंधने के पूर्व दोनों के बीच मोबाईल पर जमकर बातें होती थीं। कई - कई बार तो दोनों के बीच रात - रात भर बातें होती रहती थी । इस बातचीत के क्रम में ही दोनों के बीच दोस्ती का नया रिश्ता स्थापित हो गया था। शादी हो जाने के बाद भी दोनों के बीच दोस्ताना रिश्ता कायम रहा था।
रोज की तरह आज भी अभिनव ऑफिस से लौटा था।
 गुमसुम उदास श्रेया को देखकर अभिनव ने कहा,- 'तुम आज उदास क्यों हो? क्या तबीयत ठीक नहीं है'?
  अभिनव के प्रश्न का कोई उत्तर श्रेया ने नहीं दिया ।अभिनव ने श्रेया की उदासी के कारण जानने का हर संभव प्रयास किया, किंतु श्रेया टस से मस नहीं हुई थी। श्रेया की चुप्पी से अभिनव अंदर ही अंदर परेशान हो रहा था, किंतु अपनी परेशानी को चेहरे पर नहीं आने दे रहा था।  बेंगलुरु में अभिनव को श्रेया के अलावा और कोई भी रिश्तेदारना ना था। वह अपने मन की बात किससे करता। यह सोचते सोचते अभिनव को एक बात याद आ गई थी।
   उसने श्रेया से कहा,-  'तुम्हें हमारी दोस्ती की कसम है। तुम उदास क्यों हो? कोई मन में परेशानी है, तो बेझिझक कर डालो'।
श्रेया आपस की दोस्ती को टूटने नहीं देना चाहती थी।
 अपने मौन को तोड़ते हुए श्रेया ने कहा,- 'मैंने बौ०कॉमर्स तक पढ़ाई की है। आगे एमबीए कर आपके ही तरह नौकरी करना चाहती हूं'।
  यह सुनकर अभिनव ने कहा,-  'बस इतनी सी बात के लिए तुम उदास हो। एमबीए करने से मैंने कहां तुम्हें मना किया है?  अगर तुम्हें एमबीए करना है तो करो'।
  अभिनव की बातें सुनकर श्रेया बहुत खुश हुई ।
  तब उसने कहा,- 'ठीक है पतिदेव जी।
   श्रेया ने फोन से उसी समय यह खुशखबरी सबसे पहले अपनी मम्मी को दी थी।
    श्रेया ने कहा,- :मम्मी, मैं बेंगलुरु में ही एमबीए करूंगी। मैं तो डर रही थी कि अभिनव आगे पढ़ने की इजाजत देंगे कि  नहीं'।
     बेटी की बात सुनकर रीता ने कहा,- 'ठीक है बेटी, तुम खुब पढ़ो और जीवन में आगे बढ़ो'।
 अभिनव ने श्रेया का दाखिला एमबीए विश्वविद्यालय में करवा दिया था। श्रेया के कंधों पर अब दो तरह की जवाबदेही आ गई थी। पहला खुद की गृहस्थी संभालने का और दूसरी पढ़ाई की।
  धीरे - धीरे कर श्रेया घर के कामों से ध्यान हटाती चली जा रही थी।  इधर अभिनव दो - दो प्रमोशन पा लिया था। मासिक तनख्वाह में काफी वृद्धि हो गई थी। अभिनव ने घर में झाड़ू - पोछा और खाना बनाने के लिए एक-एक आया रख लिया था। अभिनव चाहता था कि श्रेया को पढ़ाई में कोई दिक्कत ना हो। अभिनव द्वारा इतना ध्यान देने के बावजूद भी श्रेया किसी ना किसी बात को लेकर हमेशा अभिनव से नाराज हो जाया करती थी। दोनों के बीच नाराजगियां बढ़ती गई थी। श्रेया कभी-कभी अभिनव से ऐसी बातें कर जाती थी, जिसकी कल्पना तक कभी अभिनव ने ना की थी।  एक ही पलंग में दोनों सोते थे। फिर भी रात - रात भर दोनों के बीच कोई बातचीत ना होती थी। यह किच - किच, पीच - पीच रोज की बात हो गई थी। सुबह दोनों एक - दूसरे को बिना कुछ बोले घर से बाहर निकल जाते थे । अभिनव अपनी ओर से हर संभव प्रयास करता था कि श्रेया से कोई झंझट ना हो। अभिनव की तमाम कोशिशें निष्फल हो जाती थी। बात-बात पर श्रेया और अभिनव के बीच झगड़ा हो ही जाता था ।
  एक दिन सुबह जब अभिनव ऑफिस के लिए जा रहा था तभी श्रेया से किसी बात को लेकर झगड़ा हो गया था। दोनों के बीच बात इस हद तक बढ़ गई थी कि अभिनव ने हाथ ऊपर कर पीट देने की बात तक कह डाला था। अभिनव ने बहुत कोशिश की थी कि वह ऐसा ना करें, किंतु श्रेया की तीखी बातों ने उसे ऐसा करने पर विवश कर दिया था।
   श्रेया ने अभिनव के इन्हीं बातों का बतंगड़ बना दिया था। वह जोर-जोर से रोने लगी थी।
    उसने अभिनव को यहां तक धमकी दे डाला,- 'अब मैं बेंगलुरु में तुम्हारे साथ एक पल भी नहीं रहूंगी। रांची मम्मी पापा के पास चली जाऊंगी'।
    श्रेया की बातें सुनकर खिन्न मन से अभिनव ऑफिस चला गया था।
     अभिनव के ऑफिस जाने के बाद श्रेया ने रो-रोकर सारी बातें अपनी मम्मी से बोल दी थी।
श्रेया की बातें सुनकर रीता ने कहा,- 'बेटी, अभिनव तो तुम्हारे साथ अच्छा व्यवहार नहीं कर रहा है। और ऊपर से हाथ उठा दिया है। यह सब अभिनव की हरकतें सुनकर बहुत दुख हो रहा है। कैसे परिवार में हम सब ने तुम्हें डाल दिया है?
 मम्मी की बातें सुनकर श्रेया ने कहा,- 'अब मम्मी, मैं अभिनव के साथ एक पल भी नहीं रहूंगी। मैं रांची आ रही हूं'।
 रीता ने कहा, :ठीक है बेटी, तुम रांची आ जाओ। यहीं से अभिनव को मजा चखा दूंगी। हम लोगों को अभिनव क्या समझ रखें है ? श्रेया की मम्मी - पापा अभी जिंदा है'।
यह वाक्य जैसे ही रीता पूरी की थी। श्रेया के पिता अरविंद लाल, रीता से मोबाइल लेकर खुद श्रेया से बातचीत करने लगे।
 श्रेया ने रो-रोकर सारी बातों से अपने पिता को अवगत कराया ।
 रोते-रोते श्रेया ने आगे कहा,- 'पापा मैं अब एक पल भी अभिनव के साथ नहीं रहूंगी। मैं रांची आ रही हूं ।आप लोगों के साथ रहूंगी'।
यह सुनकर अरविंद लाल ने कहा, -  'ठीक है, बेटी तुम अभिनव के साथ मत रहो। पर एक भी कोई ठोस कारण बताओ कि अभिनव की क्या गलती है '?
पिता के इस बात पर श्रेया चुप्पी साध ली थी।  और रोए जा रही थी।
फिर चुप्पी तोड़ते हुए श्रेया ने कहा, - 'अभिनव बहुत बुरे हैं '।
यह सुनकर अरविंद लाल ने कहा,- 'मैं कहां कह रहा हूं कि अभिनव बुरा नहीं है, किंतु तुम उसकी एक बुराई तो बताओ । क्या अभिनव तुम्हारा ख्याल ठीक से नहीं रखता है? क्या नशा करता है '? क्या ऑफिस से लेट आता है '?
 पिता की सारी बातों को इग्नोर करते हुए श्रेया सिर्फ रोती ही चली जा रही थी।
तब अरविंद लाल ने कहा,- 'बेटी जब से तुम दोनों के बीच खटपट चल रहा है। हर रोज की जानकारी अभिनव मुझे देता आ रहा है। तुम्हारे आराम और पढ़ने के लिए जो व्यवस्था अभिनव ने कर रखी है। शायद उस तरह की व्यवस्था मैंने भी तुमको नहीं दिया था। अभिनव की समझदारी देखो। उसने मुझे अपने घर वालों को यह बात ना बताने की कसम दे दी है। उनके मम्मी पापा जानेंगे तो बेहद दुखी होंगे।  इतनी ऊंची सोच रखने वाला अभिनव गलत कैसे हो सकता है? रही बात तुम दोनों के बीच की तो इससे तुम दोनों को भी ठीक करना होगा । क्या किसी बात को लेकर तेरी मम्मी और मुझमें झगड़े नहीं होते थे। क्या मम्मी अथवा मैं कहीं भाग कर चले गए थे। हम दोनों के झगड़े को तुम कई बार देख चुकी हो। एक-दो दिन में सब नॉर्मल हो जाता है । रही बात तुम्हारे यहां आने की तो जब भी मन करे यहां आ जाओ।  पर मेरी एक शर्त है।  रिश्ता तोड़ कर नहीं बल्कि रिश्ता जोड़ कर।  अगर तुम रिश्ता तोड़ कर यहां आ भी जाती हो और तुम्हारी दूसरी जगह फिर से शादी भी कर देता हूं। तब क्या गारंटी है कि वह लड़का अभिनव से अच्छा होगा।  अगर बुरा हुआ तो क्या उसे भी छोड़कर फिर मेरे पास आ जाएगी। इसलिए बेटी यह तुम्हारा जीवन है। तुम्हारी खुशी के साथ दो परिवारों की खुशियां जुड़ी है। तुम दोनों को ही एडजस्ट करके रहना है। तुम दोनों का परिवार हजारों में दूर रहते है। हर पल तुम दोनों के लिए हम सब ईश्वर से दुआ करते रहते हैं । इतने दिनों में मैं अभिनव को भलीभांति जान चुका हूं । अगर वह बुरा लड़का होता तो मुझे ये बातें ना बताता। आज से पूर्व मैंने भी इन सब बातों की चर्चा तुमसे इसलिए नहीं की थी कि तुम दोनों पति-पत्नी का मामला है। एडजस्ट कर ही लोगे। किंतु आज तुम्हारी हरकतों ने सभी सीमाओं को लांग दिया।  इसलिए मजबूरी में  मुझे इतना कुछ कहना पड़ा है। अगर इसके बाद भी अभिनव को छोड़ कर तुम आना चाहती हो तो आ जाओ। ठीक है बेटी'।
यह कहकर अरविंद ने मोबाईल बंद कर दिया था।
रीता बहुत ही गंभीरता से अरविंद की बातों को सुन रही थी। रीता को भी अपनी गलती का एहसास हो रहा था।  बेटी की भावना में बहकर मैंने उसकी ही जिंदगी उजाड़ने चली थी।
 यह सोचते हुए रीता ने कहा,- 'आपने बिल्कुल सही कहा। मैं बेटी की भावना में बहकर बड़ी भूल करती जा रही थी'।
  अरविंद लाल ने कहा,- 'इसमें तुम्हारी कोई गलती नहीं है। इस तरह की भूल हर मां से होती रहती है।  खैर! तुम्हें जल्द ही बात समझ में आ गई '।
श्रेया पर पिता की बातों का बहुत ही गहरा असर हुआ था। उसे अपनी गलती का एहसास होने लगा था । खेल-खेल में उसने खुद की ही गृहस्थी  में आग लगा दी थी। मन में एक डर भी समा गया था कि अभिनव को छोड़कर मायके चली जाती तो सचमुच अभिनव से तलाक हो जाता। पापा-मम्मी कहीं ना कहीं मेरी शादी करी देंगे। अगर उसके साथ भी यही करती रही तो फिर गृहस्थी टूटेगी। जबकि अभिनव उसका इतना ख्याल रखता है । वह सिर्फ हंसने मुस्कुराकर ही रहने की बात कहता है। कहां किसी बात को लेकर जिद करता है। मैंने ही अपनी जिद पूरी करने के लिए उसे परेशान करती रहती हूं। श्रेया को अपनी गलतियों का एहसास होने लगा था।अब वह मन बना ली थी कि अपनी गलती के लिए अभिनव से माफी मांग लेंगे। जब वह माफी मांगने की बात सोच ही रही थी कि अभिनव घर में दस्तक दे दिया था।
अभिनव को देखते ही श्रेया ने कहा,- 'अभिनव तुम मुझसे बहुत नाराज हो। मैंने बहुत बड़ी गलती की है। अपने ही हाथों अपनी गृहस्थी बर्बाद करने चली थी। तुम मुझे माफ कर दो।
 यह सुनकर अभिनव ने कहा,- 'सुबह मुझे भी ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए थी। शायद मैंने कुछ ज्यादा ही कहकर घर से निकल गया था। तुम भी मुझे माफ कर दो'।
यह कहते - सुनते श्रेया और अभिनव की आंखें भरभरा गई थी। दोनों एक दूसरे से लिपट गए थे। इसी पल श्रेया ने मन ही मन संकल्प ले ली थीं कि अब दोबारा ऐसी गलती नहीं करेंगी। एडजस्ट कर अपनी गृहस्थी चलाएंगी।

 विजय केसरी,
  (कथाकार / स्तंभकार),
   पंच मंदिर चौक, हजारीबाग - 825 301, मोबाइल नंबर - 92347 99550,

कोई है जिसे हमारे शब्द छूते हैं / प्रज्ञा रोहिणी




लेखन में एक ही गहरा सन्तोष मिलता है कि कोई है जिसे हमारे शब्द छू रहे हैं। वो समय और हमें हमारी ही तरह महसूस कर रहा है । और इस तरह अपनी  दुनिया न सिर्फ बड़ी लगती है बल्कि लगातार अकेले कर दिए जाने वाले इस निर्मम समय में हम किसी को साथ खड़ा पाते हैं। लगता है समय की हिमशिलायें पिघलकर नदी होंगी। शुक्रिया हफ़ीज़ भाई।

कहानियों में संसार
 इक्कीसवीं सदी की दूसरी दहाई में जिन तरक़्क़ी याफ़्ता और मुखतलिफ़ मौज़ुआत (विषय) पर लिखने वाली महिला साहित्यकारों के नाम ज़हन में उभरते हैं उन में प्रज्ञा रोहिणी का नाम सरे फेहरिस्त (टॉप लिसटेड) है । प्रज्ञा रोहिणी आज हमारे दौर की एक अहम कहानीकार हैं । इन की ज़्यादतर कहानियाँ घरेलू और समाजी ताने बने से तयार होती हैं । बल्कि अर्थव्यवस्था , सांप्रदायिकता और समसामयिक विषयों पर लिख कर प्रज्ञा रोहिणी नें अपने को फ़ेमिनिस्म का ठप्पा लाग्ने से बचा लिया , जिस की वजह से फ़िकशन पढ़ने वाले हर हलक़े और तबक़े में उनका इस्तिक़बाल (स्वागत) किया गया ।
 ज़मीनी रिश्तों से ताल्लुक़ रखने वाले साहित्यकार उन साहित्यकारों से ज़्यादा अहमियत रखते हैं जो ड्राइंग रूम में बैठ कर मीडिया और मुखतलिफ़ ज़राए से हासिल शुदा मवाद पर साहित्य का क़िला तामीर करते हैं, ऐसी चीज़ों को “रचना” तो कह सकते हैं लेकिन रचनात्मक नहीं । इस के विरुद्ध प्रज्ञा जी पेशे से एक शिक्षक हैं और यह एक ऐसा पेशा है कि जिस से ताल्लुक़ रखने वाले को समाज के हर तबक़े के फ़र्द से सामना रहता है। और जिस से हर फ़र्द अपनी ज़ाहिरी (खुली) और बतिनी (छुपी) कुछ बातों को खुले या बंद लफ़्ज़ों में बयान ज़रूर करता है । और फिर अगर वह शिक्षक हस्सास और साहित्यकार भी हो तो वह चीज़ें उस के लेखन पर अपना असर ज़रूर डालती हैं । और शायद यही वजह बनी जिस ने प्रज्ञा रोहिणी को फ़ेमिनिन साहित्यकारों में ऊपर उठा दिया ।
 28 अप्रैल 1971 को दिल्ली में जन्मी प्रज्ञा रोहिणी को यूँ तो साहित्य विरासत में मिला है आप के पिता श्री रमेश उपाध्याय जी एक परतिष्ठित साहित्यकार व आलोचक हैं । इसी साहित्यतिक माहौल की वजह से प्रज्ञा जी ने जब आला तालीम (हाई एजुकेशन) के बाद तहक़ीक़ (रिसर्च) के मैदान का रुख़ किया तो अपने लिए हिन्दी साहित्य में “नुक्कड़ नाटक : रचना और प्रस्तुति” को अपना विषय बनाया । और यह काम 2006 में मुकम्मल किया और फिर इस के बाद कहानी लेखन की तरफ़ मुतावज्जह हुईं और पहली कहानी “मुखौटे” (कहानी संग्रह “तक़सीम” मे सम्मिलित) शीर्षक के साथ “परिकथा” के माध्यम से 2011 में पाठकों के हवाले करने के बाद से प्रज्ञा जी का क़लम अब तक दो कहानी संग्रह “तक़सीम”(2016), “मन्नत टेलर्स”(2019), और दो उपन्यास “गूदड़ बस्ती”(2017), “धर्मपुर लॉज”(2020) साहित्य के महारथयों और आलोचकों से दाद (प्रशंसा) हासिल कर चुका है ।
 प्रज्ञा जी कहानी की मक़्बूलियत के अहम हुनर यानी “कथा भाषा” से बा-ख़ूबी वाकिफ हैं इसी लिए वह हर कहानी और किरदार के मुताबिक़ ही ज़बान का इस्तेमाल करती हैं बल्कि अक्सर ख़ुद उन किरदारों में ढल कर कहानी रचती हैं जिस की वजह से कहानी में कहीं लोच नहीं आता और कहानी खूबसूरती से अपने अंजाम को पहुँचती है । और क़ारी (पाठक) कहानी को कहानी समझते हुए भी उसके हर किरदार से सही सही बरताओ करने पर मजबूर होता है । इन की कहानियों में अगर एक तरफ़ माज़ी (भूतकाल) की चमकदार तस्वीरें हैं तो मुस्तकबिल (भविष्य) के रौशन मनाज़िर भी हैं । अगर एक तरफ़ गिरती हुई इंसानियत का रोना है तो दूसरी तरफ़ उम्मीद की किरण भी । अगर एक तरफ़ जिहालत का अंधेरा है तो दूसरी तरफ़ इल्म का नूर भी । अगर एक तरफ़ “तक़सीम” है तो दूसरी तरफ़ मन्नत “टेलर्स” भी । मतलब हमारा साहित्यकार मायूस नहीं है बल्कि सुबह की पहली किरण के मानिंद बाहौसला और पुर-उम्मीद है , और यही सबक़ वह हम को भी देता है । प्रज्ञा जी का सफर अपने पूरे आब-व-ताब के साथ जारी है और सकारात्मक साहित्य के पाठकों को भी प्रज्ञा जी से भविष्य मे अच्छी कहानियों की उम्मीद है ।
हाफ़ीज़ बिन अज़ीज़, कानपुर

राहु बाबा के संग कदमताल करती सोनिया




प्रस्तुति - शिशिर सोनी

लगता है सोनिया गांधी पर भी अब राहुल गांधी का असर होने लगा है। तभी वो राहुल गांधी जैसी बहकी बहकी बातें कर रही हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर कहा है कि मीडिया को दिया जाने वाला विज्ञापन कोरोना से लड़ने के लिए दो साल के लिए बंद किया जाए।

मीडिया के बुनियाद पर वो चोट करने को क्यों कह रही हैं? जाहिर है कि उनका गुस्सा राहुल गांधी को लेकर मीडिया के ठंडे रवैये से होगा। गोया कि राहुल गांधी में दम नहीं तो उस बेदम में दम मीडिया कैसे फूंक दे? सोनिया गांधी की इस मांग का खूब मान मर्दन हो रहा है। होना भी चाहिए।

आईएएनएस, ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन सहित सभी मीडिया संगठनों ने सोनिया गांधी की इस मांग को अनुचित बताया है। समूची मीडिया को हर साल तकरीबन 2 हजार करोड़ रुपए का विज्ञापन केंद्र सरकार और विभिन्न पब्लिक सेक्टर यूनिट्स से रीलीज होता है। उसमें भी मोदी सरकार के केंद्र में आने के बाद कई तरह की बंदिशें लगी हैं। भरी बैठीं सोनिया गांधी को ज्ञान आया है कि मीडिया को विज्ञापन बंद कर दिया जाए। यानि मीडिया का गला घोट दिया जाए। ये लोकतंत्र के प्रहरी पर अंतिम प्रहार होगा।

सोनिया गांधी जैसे नेता आखिर इस बात पर सवाल क्यों नहीं उठाते कि सांसदों, विधायकों , विधान पार्षदों को वेतन और फिर फैमिली पेंशन क्यों दिए जाएं? वे जनसेवक या जनप्रतिनिधि हैं कोई सरकारी नौकर नहीं?

सोनिया गांधी ने ये क्यों नहीं प्रधानमंत्री से अपील किया कि

1. सांसदों को मिलने वाले वेतन को बंद कर दिया जाए इसके एवज में सरकार की तिजोरी में 2 हजार करोड़ रुपए हर साल बचत होगी।

2. पेंशन बंद किए जाएं जिससे तकरीबन 800 करोड़ रुपए की बचत होगी !!!

3. हर साल सांसद निधि के नाम पर 8 हजार करोड़ रुपए की लूट को सिरे से बंद किया जाए। इस निधि का सिवाय बंदरबाट के कुछ नहीं होता।

सोनिया गांधी ने इस पर सवाल क्यों नहीं उठाए कि

1. एक ही व्यक्ति जो विधायक रहा हो, विधान परिषद में रहा हो, राज्यसभा और लोकसभा का सदस्य भी रहा हो और अगर सरकारी सेवाओं में भी रहा हो तो उसे 5-5 पेंशन क्यों मिलना चाहिए?

क्या ये देश की गरीब जनता की लूट नहीं। ये एक पेेशेवर गैंग की दिनदहाड़े लूट है। इसे बंद होना चाहिए।

वो सांसद मर जाए तो उसके परिजनों को ताउम्र पचास फीसदी पेंशन हम अपने पॉकेट से क्यों दें? संसद से ये नियम बनाने से पहले ये नेता चुल्लू भर पानी में क्यों नहीं डूब मरे?

जटायु बनाम भीष्मपितामह






प्रस्तुति - स्वामी शरण /आत्म स्वरूप /
संत शरण


अंतिम *सांस* गिन रहे *जटायु* ने कहा कि मुझे पता था कि मैं *रावण* से नही *जीत* सकता लेकिन तो भी मैं *लड़ा* ..यदि मैं *नही* *लड़ता* तो आने वाली *पीढियां* मुझे *कायर* कहती

 🙏जब *रावण* ने *जटायु* के *दोनों* *पंख* काट डाले... तो *काल* आया और जैसे ही *काल* आया ...
तो *गिद्धराज* *जटायु* ने *मौत* को *ललकार* कहा, --

" *खबरदार* ! ऐ *मृत्यु* ! आगे बढ़ने की कोशिश मत करना... मैं *मृत्यु* को *स्वीकार* तो करूँगा... लेकिन तू मुझे तब तक नहीं *छू* सकता... जब तक मैं *सीता* जी की *सुधि* प्रभु " *श्रीराम* " को नहीं सुना देता...!

 *मौत* उन्हें *छू* नहीं पा रही है... *काँप* रही है खड़ी हो कर...
 *मौत* तब तक खड़ी रही, *काँपती* रही... यही इच्छा मृत्यु का वरदान *जटायु* को मिला।

किन्तु *महाभारत* के *भीष्म* *पितामह* *छह* महीने तक बाणों की *शय्या* पर लेट करके *मौत* का *इंतजार* करते रहे... *आँखों* में *आँसू* हैं ... रो रहे हैं... *भगवान* मन ही मन मुस्कुरा रहे हैं...!
कितना *अलौकिक* है यह दृश्य ... *रामायण* मे *जटायु* भगवान की *गोद* रूपी *शय्या* पर लेटे हैं...
प्रभु " *श्रीराम* " *रो* रहे हैं और जटायु *हँस* रहे हैं...
वहाँ *महाभारत* में *भीष्म* *पितामह* *रो* रहे हैं और *भगवान* " *श्रीकृष्ण* " हँस रहे हैं... *भिन्नता* *प्रतीत* हो रही है कि नहीं... *?*

अंत समय में *जटायु* को प्रभु " *श्रीराम* " की गोद की *शय्या* मिली... लेकिन *भीष्म* *पितामह* को मरते समय *बाण* की *शय्या* मिली....!
 *जटायु* अपने *कर्म* के *बल* पर अंत समय में भगवान की *गोद* रूपी *शय्या* में प्राण *त्याग* रहा है....

प्रभु " *श्रीराम* " की *शरण* में..... और *बाणों* पर लेटे लेटे *भीष्म* *पितामह* *रो* रहे हैं....
ऐसा *अंतर* क्यों?...   

ऐसा *अंतर* इसलिए है कि भरे दरबार में *भीष्म* *पितामह* ने *द्रौपदी* की इज्जत को *लुटते* हुए देखा था... *विरोध* नहीं कर पाये थे ...!
 *दुःशासन* को ललकार देते... *दुर्योधन* को ललकार देते... लेकिन *द्रौपदी* *रोती* रही... *बिलखती* रही... *चीखती* रही... *चिल्लाती* रही... लेकिन *भीष्म* *पितामह* सिर *झुकाये* बैठे रहे... *नारी* की *रक्षा* नहीं कर पाये...!

उसका *परिणाम* यह निकला कि *इच्छा* *मृत्यु* का *वरदान* पाने पर भी *बाणों* की *शय्या* मिली और ....
 *जटायु* ने *नारी* का *सम्मान* किया...
अपने *प्राणों* की *आहुति* दे दी... तो मरते समय भगवान " *श्रीराम* " की गोद की शय्या मिली...!

जो दूसरों के साथ *गलत* होते देखकर भी आंखें *मूंद* लेते हैं ... उनकी गति *भीष्म* जैसी होती है ...
जो अपना *परिणाम* जानते हुए भी...औरों के लिए *संघर्ष* करते है, उसका माहात्म्य *जटायु* जैसा *कीर्तिवान* होता है।

🙏 सदैव *गलत* का *विरोध* जरूर करना चाहिए। " *सत्य* परेशान जरूर होता है, पर *पराजित* नहीं।
🙏🏻🙏🏻

गुरुवार, 9 अप्रैल 2020

लघुकथा - - नि:शब्द / श्याम सुंदर भाटिया



                                                                    नि:शब्द 
                                              
 हिंदी के प्रो. राम नारायण त्रिपाठी को उनके सहपाठी और चेले पीठ पीछे प्रो.बक - बक त्रिपाठी कहते ... प्रो.त्रिपाठी के समृद्ध शब्दों के भंडार का कोई सानी नहीं था...लेकिन सवालों का पिटारा शब्द भंडार से भी संपन्न... कोरोना के चलते लाकडाउन तो बहाना था...बतियाने को किसी न किसी की रोज दरकार रहती... श्रीमती के इशारे पर तपाक से प्रो. त्रिपाठी मास्क लगाकर सब्जी खरीदने पहुंच गए...सोशल   डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए व्हाइट सर्किल में अनुशासित मुद्रा में खड़े होकर अपनी बारी का इंतज़ार करने लगे...नंबर आते ही बाबू ने सवाल दागा...क्या - क्या दे दें प्रोफेसर साहिब... सवाल पूर्ण होने से पहले ही धारा प्रवाह  बोलना शुरु कर दिया... गोभी क्या रेट है...खराब तो नहीं...नहीं साहिब...बाबू ने रिस्पॉन्ड  किया... प्रो. त्रिपाठी बोले,क्या गारंटी है...बताओ... टमाटर, आलू,प्याज, लौकी से लेकर बैंगन,धनिया, पोधीना होते हुए खरबूजे और तरबूज तक पहुंच गए... प्रो. आदतन दो ही सवाल करते ...क्या रेट...और क्या  गारंटी...20 मिनट हो गए और व्हाइट सर्किल में कतार और लंबी हो गई तो प्रो. त्रिपाठी से बाबू ने थोड़ा रफ लहजे में कहा...आपसे भी साहिब हम एक सवाल पूछ लेता हूं...आप तो बड़ी क्लास के टीचर...पूरी दुनिया और उसके कायदे जानते हो ... हां ... हां ... बोलो ना... प्रो.साहब ने सोचा...ससुर क्या पूछेगा...   कोरोना महामारी से कब मुक्ति मिलेगी...या...यूनिवर्सिटी कब खुलेगी...वगैरह...वगैरह...आप हर सब्जी और फल की गारंटी तो पूछ रहे हो... प्रो.साहिब इंसान की भी आज कोई गारंटी है क्या...यह सुनते ही प्रोफेसर त्रिपाठी  नि:शब्द हो गए... आनन - फानन में एक झ्टके में थैला उठाया और घर की ओर तेज - तेज कदमों से कूच कर गए...                                                               
 0 श्याम सुंदर भाटिया                                                     
विभागाध्यक्ष,पत्रकारिता कॉलेज                               
तीर्थंकर महावीर यूनिवर्सिटी,मुरादाबाद                               
7500200085।।।।




साहिर लुधियानवी ,जावेद अख्तर और 200 रूपये

 एक दौर था.. जब जावेद अख़्तर के दिन मुश्किल में गुज़र रहे थे ।  ऐसे में उन्होंने साहिर से मदद लेने का फैसला किया। फोन किया और वक़्त लेकर उनसे...