सुरेन्द्र सिंघल की दो गजलें
मैं कि अब ख़ुद को समंदर में डुबोना चाहता हूं यानि खु़द में ही समंदर को समोना चाहता हूं मुझको खुद पर तो नहीं विश्वास तुमसे पूछता हूं मैं तुम्हारा ही कि या अपना भी होना चाहता हूं खूंटियों पर टांग सारा बोझ दिन भर की थकानें निर्वसन हो फर्श पर कमरे के सोना चाहता हूं अब कि जब तेरे बदन की आग भी धुंधुआ रही है घुट न जाए दम धुएं के पार होना चाहता हूं मुझको अब मेरे अंधेरों में भटकने दो अजीज़ो बात ये है रोशनी के दाग़ धोना चाहता हूं 2 गर नहीं बस में मेरे तेज हवाएं रोकूं जिस तरह भी हो मगर बुझने से शमऐं रोकूं मुझको दीवार समझ पीठ टिकाली उसने अब मेरा फ़र्ज़ है गिरती हुई ईंटें रोकूं दफ़्न जिंदा ही मुझे करने चली है ये सदी कैसे ताबूत में ठुकती हुई कीलें रोकूं रोज़ कुछ और सिमट जाती है तेरी दुनिया रोज़ कुछ कितना सिमट जाऊं कि सांसें रोकूं सुरेंद्र सिंघल