शनिवार, 31 मार्च 2012

ज्ञान का धंधा


ज्ञान को धंधा बना लें तो...

May022010

आप मानें या न मानें, हमारे पूरे हिंदी समाज में ज्ञान का डेफिसिट, ज्ञान का घाटा पैदा हो गया है। सरकार घाटे को उधार लेकर पूरा करती है। लेकिन ज्ञान का घाटा केवल उधार लेकर पूरा नहीं किया जा सकता। उधार के ज्ञान से प्रेरणा भर ली जा सकती है। उसका पुनर्सृजन तो अपने ही समाज और अपनी ही मिट्टी व भावभूमि से करना पड़ता है। हिंदी में लोगबाग कविताएं ठोंक कर लिखते हैं। लेकिन जहां गद्य लिखना होता है तो भाई लोगों के पांव कांपने लगते हैं। यहां से, वहां से उठाकर लिख मारते हैं। बड़े दिग्गज कहानीकार भी कहानियां तक चुराकर लिख मारते हैं। फिल्मी जगत में 99.99 फीसदी कहानियां कहीं न कहीं से ‘प्रेरित’ होती हैं। दिक्कत यह भी है कि हिंदी के बुद्धिजीवी के सामने जीवन-यापन की ऐसी कठिन-कठोर शर्तें पेश कर दी गई हैं कि उसे रचनाकर्म के लिए जरूरी फुरसत ही नहीं मिलती। उसे अपने पंख कुतर-कुतर कर देने होते हैं, तब जाकर उसका घर-परिवार चलता है। ऐसे में पहचान के संकट से निपटने और दुकानदारी चलाने के लिए वे जंग खा चुकी वाम या अतिवाम विचारधारा की शरण में चले जाते हैं।
मेरे मन में कभी-कभी आता है कि जब साहित्य से लेकर दर्शन व आम जानकारियों के क्षेत्र में ज्ञान का इतना डेफिसिट है तो क्यों न हम हिंदी के लोग ज्ञान की तलाश और पूर्ति को ही धंधा बना लें? मैं ऐसा मन से नहीं कह रहा हूं। बल्कि इसे थोड़ा-थोड़ा होता हुआ भी देख रहा हूं। कई लोग फालतू की अप्रासंगिक नैतिकता से मुक्ति पाकर इस तरह की कोशिश में लग रहे हैं। मैं तो एक बात समझता हूं कि अगर कहीं किसी चीज की जरूरत है और कोई इस जरूरत को, मांग को पूरा करने का जतन करता है तो उसे देर-सबेर लोग हाथोंहाथ ले लेते हैं। बाजार को कोई कितना ही गाली दे ले, लेकिन बाजार के इस सकारात्मक पहलू को अंधा भी अनदेखा नहीं कर सकता। हां, शर्त यह है कि आप जो पेश कर रहे हैं, वह आपके मन का धन न होकर सचमुच लोगों की जरूरत को पूरा करनेवाला हो।
असल में पिछले डेढ़ दो साल में मुझे कॉरपोरेट से लेकर देश के नीति-नियांकों के बीच जिस तरह घूमने का मौका मिला, उनसे साबका पड़ा, उससे मुझे कहीं अंदर से एहसास हुआ जैसे अब भी हम औपनिवेशिक शासन में रह रहे हों। देश को आगे बढ़ाने की जो भी बारीक नीतियां हैं, उन पर सोचने और उन्हें बनाने का काम वे करते हैं जो अंग्रेजी में ही सोचते हैं, अंग्रेजी में ही बोलते हैं। हम हिंदी वाले उनका अनुसरण करते हैं। हम उद्यमशीलता में किसी से कम नहीं। देश के किसी भी कोने में जाकर छोटा-मोटा धंधा शुरू कर देते हैं। लेकिन इन धंधों का वास्ता शारीरिक मेहनत से ज्यादा और बुद्धि से कम होता है। जो पढ़-लिख लेते हैं वे भागकर नौकरियों की शरण में चले जाते हैं और माहौल में ढलने की कोशिश में पूरे अंग्रेज बन जाते हैं।
ऐसे में हमारे मानस में एक रीतापन बनता चला जा रहा है। हम पिछलग्गू बने रहने को अभिशप्त हो गए हैं। हम एक के आगे लगकर उसको दस, सौ और लाख तक बना देते हैं, लेकिन खुद हमारी स्थिति जीरो की, शून्य की बनी रहती है। धीरे-धीरे हो यह रहा है कि हम ज्ञान, विज्ञान, दर्शन व साहित्य के मामले में शून्य होते जा रहे हैं। हम पारंपरिक तौर से ज्ञान पर आधारित समाज रहे हैं। लेकिन आज ज्ञान के नाम पर रह गई हैं 1500-2000 साल पुरानी चीजें। हम उन्हीं को फेटते रहते हैं, पागुर करते रहते हैं। हर नई समस्या का समाधान गर्दन को 180 डिग्री मोड़कर पीछे खोजते हैं।
दूसरी तरफ, अंग्रेजी में हो ये रहा है कि जरा-सी उपयोगी सूचनाओं का लेकर कोई कंपनी खडा कर देता है। साल भर के अंदर तीन-चार करोड़ कमाने लगता है। हम हैं कि ठेला-खोंमचा ही लगाते रह जाते हैं। बहुत कलाकार हुए तो नेता बन जाते हैं। मेरा कहना है कि हमें इस आत्मविश्वास से हीन होने की स्थिति को तोड़ना पड़ेगा। हमें भावुकता से स्थिति से उबरना होगा नहीं तो कहां मैं घर-घर खेली जैसे सीयिरल और मैं हूं खान जैसे फिल्में बनाकर हमें शून्य में ही बनाए रखा जाएगा।
हमें असल में ज्ञान और सूचनाओं पर आधारित धंधे शुरू करने होंगे। धंधे का मतलब होता है जरूरत को सही चीज से पूरा करने का साधन जुटा देना। पहले परोपकार को नैतिकता माना जाता था। लेकिन आज जो जितना पर-उपकार करता है, वह उतना ज्यादा पैसे बनाता है। हमारे समाज के आत्मबल को वापस लाने के लिए आज हर क्षेत्र के ज्ञान की भारी जरूरत है। चाहे वे रोजमर्रा की जिंदगी के सवाल हों या विज्ञान और दर्शन के। सूचनाओं की भारी जरूरत है हमारे समाज को। इसको हमारे समाज को समझने और इसमें सहयोग करने की जरूरत है।
मैंने भी हिंदी में अर्थकाम इसी मकसद से शुरू किया है कि 42 करोड़ से ज्यादा आबादी वाला हमारा हिंदी समाज अपने आर्थिक व वित्तीय फैसले खुद ले सके। वह वित्तीय रूप से इतना साक्षर हो जाए कि उसे जबरदस्ती किसी गुरू घंटाल की जरूरत न पड़े। लेकिन मुश्किल यही है कि यह अभी तक कल्याण का काम ही बना हुआ है, धंधा नहीं बन पाया है। और, धंधा नहीं बन पाया तो इसे जारी रखना मुश्किल हो जाएगा। कोशिश जारी है और भरोसा भी है कि अर्थकाम एक न एक दिन करोड़ों हिंदी भाषाभाषी लोगों की जरूरत पूरा करने लगेगा और समाज भी खुलेहाथ इसे स्वीकार करेगा। बस, आपसे गुजारिश यही है कि इसे कानोंकान औरों तक पहुंचाते जाएं। बाकी तो हम संभाल ही लेंगे।

सोमवार, 5 मार्च 2012

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 प्रस्तुति  *खो गईं वो चिठ्ठियाँ जिसमें “लिखने के सलीके” छुपे होते थे, “कुशलता” की कामना से शुरू होते थे।  बडों के “चरण स्पर्श” पर खत्म होते...