शुक्रवार, 30 सितंबर 2022

रवि अरोड़ा की नजर से....

 गाय के कुपूत / रवि अरोड़ा 


हालांकि इस तरह का कोई सर्वे आज तक नहीं हुआ कि सर्वाधिक पाखंडी किस धर्म के लोग हैं मगर यदि कभी हुआ तो यकीनन हम हिन्दू बाज़ी मार ले जायेंगे। अब हिन्दू धर्म के पाखंडों की बात करते ही अपने ही लोग चढ़ दौड़ते हैं और चुनौती देना शुरू कर देते हैं कि हिम्मत है मुसलमानों के खिलाफ कुछ कह कर दिखाओ.. वगैरह वगैरह । बेशक मुसलमानों समेत तमाम धर्मों में भी अनगिनत बेवकूफियां हैं मगर पाखंड के मामले में तो वे सभी हमसे बहुत पीछे ही हैं। वैसे हिंदू धर्म के पाखंडों की बात हो तो एक हज़ार मुद्दे हैं जिन पर बात हो सकती है मगर आज तो सिर्फ गायों के बाबत बात करने का मन है। दरअसल खबरें बता रही हैं कि लम्पी रोग के चलते अब तक एक लाख गोवंश तड़फ तड़फ कर मर चुका है मगर मुल्क के लगभग सौ करोड़ हिन्दुओं के कानों पर अभी तक जूं नहीं रेंगी। ये वही आबादी है जो गाय को अपनी माता बताती है और उसके मूत्र को अमृत समझ कर पीती है तथा उसके गोबर से अपने घर को लीप कर पवित्र समझती है। जीवन के प्रारंभ से लेकर अंत तक जिसके यहां गाय की भूमिका है और उसकी हत्या को घोर पाप बताने की बातें शास्त्रों में भरी पड़ी हैं। मगर क्या वजह है कि उसी देश में मनुष्यों को होने वाली महामारी कोरोना की आशंका भर से तो लॉकडाउन लग जाता है मगर बहुसंख्यकों  की कथित एक लाख माताओं की मौत पर पत्ता तक नहीं खड़कता ?  साफ दिखता है कि गाय हमारी माता नहीं है और शास्त्र झूठ कहते हैं । यदि सचमुच माता है तो हर सूरत हम उसके पूत नहीं महा कपूत हैं। 


बीसवीं पशु गणना के अनुरूप देश में तीस करोड़ गोवंश है और इस वायरल इंफेक्शन लंपी से उनके समक्ष अब तक का सबसे बड़ा संकट आन पड़ा है। हालांकि इस वायरस का कोई वेरिएंट अभी तक सामने नहीं आया है मगर वायरसों की प्रवृति के अनुरूप इसके आने की आंशका तो है ही । यदि ऐसा हुआ तो लंपी के खिलाफ जो थोड़ी बहुत कारगर वैक्सीन है , वह भी बेअसर हो जायेगी मगर इस आशंका के बावजूद कहीं कोई हलचल नहीं दिख रही। लगता है कि हम इस वायरस के जूनोटिक यानि पशुओं से मनुष्यों में पहुंचने का ही इंतजार कर रहे हैं। क्या विडंबना है कि जो देश गाय को माता कहता है उसी देश में उसकी सर्वाधिक बेकद्री होती है। न तो अधिकांश लोग उसका दूध पीते हैं और अधिक मुनाफा न होने के चलते न ही खुशी से कोई इसे पालना चाहता है। गोभक्तों की सरकार होने के चलते अनेक राज्यों में गोवंश का कटान बंद है और उसी के चलते पशु पालक अपने अनुपयोगी गोवंश को अब छुट्टा छोड़ देते हैं। नतीजा आवारा गोवंश खेतों में घुस कर फसलों को नुकसान पंहुचा रहे हैं। आवारा गोवंश के सड़कों पर डेरा डाल लेने से राज्य मार्गों पर भी यातायात दूभर होता है सो अलग। कहने का कदापि यह अर्थ नहीं कि गो वंश का कटान शुरू हो मगर उन्हें हम चैन से जीने का हक भी न दें,यह कौन सा धर्म है ? 


मूक गायों की अकाल मौत पर केंद्र और राज्य सरकारों की उदासीनता की वजह कहीं यह तो नहीं कि गोपालक गरीब तबकों से आते हैं और बड़े बड़े शहरों में नहीं वरन सुदूर गांवों में बसते हैं ? धार्मिक रीति रिवाजों के अतिरिक्त गाय की कोई ख़ास अन्य उपयोगिता नहीं बची है और लोगबाग गाय का नहीं वरन भैंस जैसे अन्य जानवरों का दूध अधिक पसंद करते हैं  ? खेती और ढुलाई में बैलों का इस्तेमाल घटते के चलते यूं भी आधा गोवंश यानि बैल पशु पालकों के लिए अब आर्थिक रूप से बोझ के अतिरिक्त कुछ और नहीं रहे और उनके मरने जीने से किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ता ? यदि ऐसा है तो क्यों नहीं हम खुल कर स्वीकार करते और क्यों गो वंश की बेकद्री और उससे जुड़े पाखंड को समानांतर खींचे जा रहे हैं ? क्यों आडंबरों के अतिरिक्त हम गाय को पशुओं वाले उसके अधिकार भी नहीं देते ? मान क्यों नहीं लेते कि गाय हमारी माता वाता बिलकुल नहीं है ? और यदि है तो हम स्वीकार क्यों नहीं लेते कि हम अव्वल दर्जे के कुपूत हैं।

गुरुवार, 29 सितंबर 2022

आत्मकथा का अंश (१) / 'डा.शैलेन्द्र श्रीवास्तव

 आत्मकथा की परिभाषा 

                    

     कई दिनों से इस उलझन मे हूँ कि आत्मकथा कहां से शुरू करूँ । मेरा  जन्म हुआ है शहर के रुद्र नगर वाले किराए वाले मकान मे ,जिसे बाबा जगन्नाथ ने पुत्र यानी मेरे  पिता  अम्बिका.प्रसाद  के वकालत करने के लिये था  सन् 19 35 में। इसके पहले  वह  रामकली स्कूल के  मुख्य सड़क के दक्षिण मे स्थित अपने कच्चे मकान मे रहे हैं ।

      कायदे से हमारा स्थायी घर बाबा का बनवाया गांव भिदूरा वाला घर  ही है जिसकी.दूरी शहर से बीस -बाइस कि.मी.है , जिसका स्थायी पता ग्राम भिदूरा , परगना बरोंसा ,तहसील व जिला सुलतान पुर (अवध ) है । पहले हमारा गां व फैजाबाद जिले मे लगता था ।


अथ कथा सुल्तापुर

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     1857 की जनक्रांति को कुचलने केबाद बिट्रिश हुकूमत के निर्देश पर  जिले को नये सिरे से व्यवस्थित करना शुरू किया गया  । 1858-59 में गोमती के दक्षिण किनारे नया शहर बसाया उसे जिले का मुख्यालय भी  बनाया ।पहले इस स्थान पर अंग्रेजी सेना का कैम्प था इसलिये नये बस रहे शहर को लोग कैम्पू कहने लगे ।मिस्टर पार्किंस पहले डिप्टी कमीशनर नियुक्त हुये थे ।

    बड़े बुजुर्ग बताते हैं कि 1863-70 के मध्य जिला फैजाबाद सुलतानपुर का  प्रथम भूमि बंदोबस्त किया गया ।1869 में जिले का पुर्नगठन किया गया । नये सीमाकंन में मेरा गांव भिदूरा फैजाबाद जिला से हटा कर परगना बरोंसा के अंतर्गत जिला सुलतानपुर मे आ गया । 

       1869 में ही पहली जनगणना हुई तब जिले की की जनसंख्या थी -930231 और सीमा परिवर्तन के बाद आबादी बढकर 10,40227 हो गई ।प्रति वर्ग मील 593 लोग रहते थे । 1891मेंआबादी 10,75851 थीं यानी नाम मात्र की बढत 32 साल में ।आबादी न बढने का कारण जिले में पड़ा 1873 व.1877 मे भयंकर अकाल बताते हैं । 1901 की जनगणना मे आबादी 10,83,904 थी तथा प्रति मील 637 लोग रहते थे । 1903 मे पहला जिला गजेटियर प्रकाशित किया गया जिसमें उपरोक्त आंकड़े दर्ज हैं ।

       गजेटियर के अनुसार जिले में हिंदू आबादी 9,57,912 तथा मुसलमानों की संख्या 1,19,740 थी ।जिले में ब्राह्मण 1,60300,राजपूत 86561 ,वैश्य 22970 ,कायस्थ 12,832 तथा शेष अन्य जाति के लोग थे ।जिले की कृषि भूमि के 76 प्रति शत हिस्से के मालिक राजपूत थे ।उनके पास 1633 मौजे थे  ,मुसलमानों के पास 175, ब्राह्मणों के पास 75 तथा कायस्थो के पास 67 मौजे थे ।शेष अन्य जातियों के पास थी ।जिले  की लगभग पूरी आबादी कृषि आधारित थी ।

    जिला हेड क्वार्टर शहर की आबादी दस हजार से भी कम थी । पर डिस्ट्रिक्ट मुनस्यपैलिटी का दर्जा 1890 में ही मिल गया था । ( 2011की जनगणना के अनुसार  जिले की आबादी 3,797,117 थी ।)।

      भिदूरा कायस्थों का गां व है ।सजरे के अनुसार  कम से कम पाँच  सौ साल से यह गांव कायस्थों से आबाद है ।पुरानी खतौनी से पता चलता है कि यहाँ के कायस्थ फारसी भाषा के अच्छे जानकर थे और  प्रायः राजस्व विभाग में  कानूनगो व पटवारी की नौकरी  करते थे ।।

    हमारी पीढी से चार पीढी पीछे अवदान लाल  वाजिद अली शाह के जमाने  मे इस क्षेत्र के कानूनगो थे । 1856 में लार्ड डलहौजी  ने बिना वाज़िब कारण के अवध का राज्य अंग्रेजी राज्य में मिला लिया जिससे अवध के तालुक्केदारों व आम जनता मे अंग्रेजी शासन के विरुद्ध  आक्रोश पैदा हुआ जिसकी परिणित 1857 मे जनक्रांति थी ।  जिले के तालुक्केदारों  ( दियरा रियासत छोडंकर )की छोटी बड़ी सैन्य टुकड़ियाँ हसनपुर के नाज़िम मेहँदी हसन के नेतृत्व में शहर के हर रास्ते पर अंग्रेजी सेना से भिड़ी थी ।  लड़ाई में कम्पनी की सेना  से भागे सिपाहियों तथा अमहट के  खानजादों ने 1857 की जनक्रांति मे बढ़चढ कर हिस्सा लिया था । कुछ समय के लिये पूरे जिले  मे शासन सत्ता क्रांति कारियों के हाथ में  आ गई थी ,पर जल्दी ही  अंग्रेजों ने जनक्रांति को दबाने में सफलता पा ली । सुलतानपुर शहर  9 जून ,1857 को अंग्रेजी सत्ता से  मुक्त  हो गया  था । विद्रोही सिपाहियों ने कर्नल फिशर तथा उनके सहायक कैप्टन गिविंग्स को मौत की घाट उतार दिया था  ।इस घटना से घबरा कर लेफ्टिनेंट टुकर भागकर दियरा रियासत मे शरण ली थी  ।फिर वहाँ से बनारस भाग गया । सुलतान पुर अक्तूबर 1958 तक आजाद रह सका । अंग्रेजों ने गोरखा  फौज की मदद से जनक्रां ति को कुचल दिया ।

        1857 की जनक्रांति के समय ग्राम भिदूरा जिला फैजाबाद जिले मे रहा है । अंग्रेजी सेना एक मुठभेड़ भिदूरा के पास सेमरी बाजार मे खपड़ाडीह की सैन्य टुकड़ी से हुई थी.।अंग्रेजी सेना  सेमरी ,पीढी होते हुये ही आजादी के दीवानों सबक सिखाने सुलतानपुर पहुंची थी ।

             जनक्रांति को दबाने बाद विद्रोही तालुक्कदाऱों के साथ दमन नीति अपनायी । उनकी जमीं दारी जब्त कर नीलाम कर वफादार  तालुक्कदाऱों को दिया गया।  1869 में बरोंसा ,इसौली व अल्देमऊ 

सुलतान पुर जिले मे आ जाने पर इसक्षेत्र के तालुक्कदाऱों की जमींदारी का पुर्नवितरण हुआ ।इस कार्य में कानूनगो अवदानलाल  ने  महत्वपूर्ण योगदान दिया ।

 बड़े बुजुर्ग बताते हैं कि कानून गो के इलाके मे कुछ विवाद था ।खपड़ाडीह  के तालुक्कदाऱ ,पीढी गांव जो ठाकुरों गां व का माना जाता था , चाहते थे कि पीढी की जमीं दार उनको मिल जाये ।इसके लिये कानूनगो की सिफारिश जरूरी था ।कानूनगो अवदानलाल  अपने घोड़े से लखनऊ जाते हुये रास्ते मे खपड़ाडीह तालुक्कदाऱ( राजा )के यहाँ रुके तो उनका खूब आदर सत्कार किया और पीढी गांव की सिफारिश करने को कहा ।

    बताते हैं कि अवदानलाल ने  लखनऊ पहुँच कर अपनी रिपोर्ट में कहा कि पीढी गांव के ठाकुर स्वयं जमींदार हैं अतः पीढी का  लगान सीधे लिया जाना चाहिए ,उसे किसी तालुक्का के अंतर्गत नहीं दिया जाना चाहिए ।इसप्रकार पीढी गांव की जमीं दारी खपड़ाडीह ताल्लुकेदार को नहीं मिल सका  ।

   अवदानलालक लौटानी में खपड़ाडीह में रात्रि विश्राम किया । ताल्लुकेदार ने अवदानलाल के घोड़े के चारे में जहर मिलवा दिया जिससे सुबह घोड़ा मृत मिला ।बताते हैं यह घोड़ा सात सौ रुपये से कानूनगो ने खरीदा था ।

        इसी के मध्य अवदानलाल.ने अपनी निजी जमींदारी  में विस्तार किया । सात गांवों में जमींदारी बना ली ।ग्राम भिदूरा मे ही  उनके खाते में 52 बीघा जरीबी जमीन दर्ज रही है ।

   हमारे पूर्वजों मे कौन  व्यक्ति सर्वप्रथम भिदूरा गांव मे बसे ,इसे जानने के लिये उपलब्ध सजरे पर नज़र दौड़ाई तो मालूम हुआ कि अवदानलाल से दो पीढी पूर्व हमारे पूर्वज भवानी दीन लाल पहले व्यक्ति थे जो भिदूरा गांव के उत्तर मे यहाँ बसे थे ।इसकारण हम लोग उत्तर पट्टी के कायस्थ  कहे. गये । भवानीदीन लाल किस पद पर यहाँ रहने आये  थे ,यह तो नहीं मालूम ,पर उनके खाते मे भी 52 बीघा जरीबी  भूमि दर्ज है जिसका विभाजन उत्तराधिकारी को  अंश के अनुसार चकबंदी मे चले  मुकदमे आपसी बंटवारे मे मिला है । इस मुकदमे का फैसला चकबंदी न्यायालय में 1998 में हुआ है ।

भवानी दीन लाल के दो पुत्र हुये -गजाधर लाल व अमृतलाल ।

गजाधर लाल के चार पुत्र थे - केशव प्रसाद , हरचरनलाल ,कन्हई लाल , लालता प्रसाद । कन्हई लाल के पुत्र अवदानलाल हमारे बाबा  जगन्नाथ प्रसाद के बाबा( ग्रांड फादर ) थे ।

  अवदानलाल की मृत्यु के पश्चात  बड़े पुत्र केशव प्रसाद  को नवाब से पिता अवदानलाल कानूनगो के स्थान पर नियुक्ति लेना था लेकिन वो  पंडित से यात्रा के लिये शुभ मुहुर्त निकलवाते  रह गये  ,कई दिन तक लखनऊ जाने का अच्छा मुहुर्त.नहीं बना ।

   इसका लाभ उठाकर पास के गंगेव गांव के कायस्थ लखनऊ से अपनी नियुक्ति करवा ली ।इसतरह यह पद हमारे परिवार से निकल गया ।

   अवदानलाल के चारों पुत्र गांव से बाहर जाकर अन्य नौकरी का प्रयास नहीं किया ।सभी बाप दादा की.बनाई जमीं दारी से काम चलाया ।

       अवदानलाल की मृत्यु के पश्चात चारों भाईयों  मे आपसी बँटवारा हुआ ।जमींदारी मे सब संयुक्त रहा  ।भिदूरा व विनवन की आराजी में हिस्सा कसी की गई ।

     मिट्टी खपरैल से बना पुश्तैनी मकान ढहने लगा था इसलिये उसे वैसे छोड़ दिया गया ।उसके पास की जमीन पर अलग अलग घर बनाने के लिये साढे सात लाठा का प्लाट प्रत्येक को मिला जिसपर सभी ने कच्चे पक्के  नये घर खड़े कर लिये ।

     अवदानलाल के तीसरे नम्बर के पुत्र  कन्हई लाल के दो पुत्र जगन्नाथ प्रसाद  व धर्मकिशोर हुये थे ।

    धर्म किशोर बहुत कम उम्र मे बाप बनते ही गुजर  गये ,उनसे केवल एक पुत्र मुकुट बिहारी हुये थे ।पिता की मृत्यु के समय मुकुट बिहारी  दो साल के ही थे ।इसलिये उनके परिवरिश की जिम्मेदारी जगन्नाथ प्रसाद ने उठाया ।

  अवदानलाल.के बाद  बाबा जगन्नाथ प्रसाद कमाऊ पूत निकले । वह परिवार की जिम्मेदारी के साथ जरूरत पड़ने पर खानदान बँट जाने के बाद भी अन्य तीन चाचाओं के परिवार की आर्थिक सहायता देने में कोताही नहीं करते थे ।

     वह अमेठी राज्य मे प्रबंधक थे ।इस पद पर रहते हुये अच्छी कमाई कर लेते थे  ।इसके अलावा आसपास के जरुरत मंद जमींदारों को ब्याज पर पैसा उधार पर.दिया करते थे ।पक्की रजिस्टर्ड लिखा पढी पर.ही रुपया उधार देते थे , पीढी के राजपूतों को बिना गिरवी   केवल  जुबान पर ही उधार दिया करते थे। परंतु ज्यादा तर जमीन गिरवी रख कर.ही उधार दिया करते थे ।ऐसे दस्तावेज आज भी घर में सुरक्षित रखे हैं । कभी कोई समय पर ब्याज नहीं चुका पाता और ब्याज बढता जाता था तो  वह  गिरवी रखे  खेत आदि को बेचने की पेशकश करता तो प्रायः खरीद भी लेते थे ।इसतरह जमींदारी मे और विस्तार हुआ ।कुछ पैसा एक मारवाड़ी सेठ  के साझे में अमेठी में  कपड़े की दूकान खोली ,पर बनिया हिसाब किताब मे गड़बड़ कर काफी पैसा डूबा दिया । 

    बाबा जगन्नाथ ने गांव मे अपने हिस्से की जमीन पर  काफी बड़ा ईटों से पक्का नया  घर बनवाया जिसकी.बाहरी दीवार चौड़ाई मे छहफुटी है ।बताते है कि घर के निर्माण में छह लाख ईंटे लगी है । प्लाट मे थोड़ा गड्ढा था इसलिये नींव काफी नीचें तक है ।सामने. से घर की चौड़ाई लगभग सात लाठा (8.25 इंच का एक लाठा होता है ।)है तथा लम्बाई कुछ इससे अधिक है ।

        जब भूमि तल बन गया और दूसरा तल बनने लगा तो रास्ता का विवाद लेकर  जगन्नाथ के पुत्रों तथा चाचाओं मे झगड़ा होने लगा ।चाचा आमदा फौजदारी हो गये ,भवन निर्माण रुक गया ।दूसरे दिन पुनः लाठी लेकर भिड़ गये ।इसी लाठी भाजने मे  जगन्नाथ के बड़े बेटे ओंकार नाथ से गलती से चाचा के सिर  लाठी चला दी ,वह वहीं गिर पड़े । कोहराम मच गया ।आनन फानन चाचा  को शहर के जिला अस्पताल में भर्ती करवाया गया ।अस्पताल हमारे रुद्रनगर वाले किराए के मकान के सामने ही है ,इसलिये देखभाल इस मकान मे रहकर करने में सुविधा होती । फौजदारी के दिन बाबा अमेठी मे थे । समाचार पाकर अपने परिवार के जो सदस्य गांव मे रह रहे थे ,सभी को शहर बुला लिया । गांव का घर निर्माण स्थगित कर दिया गया । इसप्रकार गांव से हमारा नाता एक बार छूटा तो व  हमेंशा के लिये छूट गया ।बाबा का परिवार रुद्र नगर के मकान में रहने लगा ।

     अस्पताल में भर्ती चाचा का इलाज के दौरान मृत्यु हो गई ।पुलिस ने 302 का मुकदमा दर्ज कर लिया ।ओं कार नाथ महीने तक रिश्ते दारों के छिपते रहे ।अंत में पकड़े गये ।302दफा मे मुकदमा चला ।सात साल की जेल हुई । वह इंजीनियरिंग में डिप्लोमा होल्डर थे ,इस घटना से सब बेकार गया ।जेल से छूटकर आये तो साईकिल की दूकान खोली , पर नहीं चल पाई ,फिर दूसरा धंधा किया वह भी न चल पाया ।अंततः शहर छोड़ कर गां व चले गये ।अपने हिस्से की.कृषि भूमि पर खेती करवाने लगे ।

       उनका छोटा भाई यानी हमारे पिताजी अम्बिका प्रसाद इलाहाबाद विश्व विद्यालय से ला की डिग्री लेकर रुद्र नगर  वाले  मकान से वकालत शुरू किया ।इस दो विस्वा ( लगभग 310 वर्ग फुट) मे बने मकान का मासिक किराया    पांच रुपये था ।बाद  मकान मालिक ने हमलोगों की गैरमौजूदगी मे उसी मकान के तिहाई हिस्से को.  प्रभु दयाल तिवारी वकील को किराये पर दे दिया ।

   अवध मे चल रहे किसान आन्दोलन से सुलतानपुर मे बहुत हलचल थी । महाराष्ट्रीय ब्राह्मण बाबा रामचंद्र की प्रेरणा से  शहर के प्रभावशाली व्यक्ति बाबा रामलाल और बाबू गनपतसहाय  किसान आन्दोलन से जुड़े थे ।

  बाबू गनपतसहाय शहर.के अति प्रतिष्ठित एडवोकेट थे । रिश्ते मे ओंकार नाथ ताऊ के ससुर थे ।बाबू गनपतसहाय के बड़े भाई हेडमास्टर की लड़की ओंकारनाथ से ब्याही थी । उन दिनों मेरे पिताजी बाबू अम्बिका प्रसाद  नये नये वकीलों में थे ।कांग्रेस के.समर्थक थे इसलिये हर.आंदोलन ,धरना के समय.एक रुपया चंदा देने वालों की सूची में शामिल किये गये थे ।

  किसानों को आन्दोलन के दौरान  बार बार शपथ लेना होता था - वे गैरकानूनी टैक्स नहीं देंगे ,बेगार.नहीं करें गे ,पलई ,भूसा ,रसद बाजार भाव पर बेचेंगे, नजराना नहीं दें गे चाहे बेदखल हो जाय  ,बेदखल खेत को कोई दूसरा किसान नहीं लेगा ।वे आन्दोलन मे सदा शांत रहेंगे ।इसप्रकार जगह जगह एकत्र होकर ये चौदह प्रण दोहराते थे । 

      किसानों का यह आन्दोलन सुलतानपुर के अलावा प्रतापगढ़, रायबरेली, फैजाबाद  में काफी तेजी से.चल रहा था । फैजाबाद में किसान आन्दोलन का नेतृत्व आचार्य नरेंद्र देव व महा शय केदारनाथ कर रहे थे । आचार्य नरेन्द्र देव इलाहाबाद में म्योर सेंट्रल कालेज में 1905 से 1912 तक छात्र रहे हैं ।इसी कालेज में.गनपत सहाय बी.ए.में सर्वोच्च स्थान प्राप्त कर झालावार स्वर्ण पदक प्राप्त किया और इसी कारण  मात्र ग्रेजुएट डिग्री पर उसी कालेज में अंग्रेजी प्रवक्ता नियुक्त कर लिये गये थे । पर 1907 में  बाबू गनपत सहाय अपने शिष्यों के साथ गरम दल के नेता बिपिन चन्द्र पाल जो बंगाल से तूफानी दौरे पर इलाहाबाद आये थे , का भव्य स्वागत किया औऱ उनको गाड़ी पर बैठाकर गाड़ी स्वयं शिष्यों के साथ खींचा । इस घटना के कारण वह कालेज से निकाल दिये गये । इसकारण आचार्य नरेंद्र देव बाबू गनपत सहाय का बहुत आदर.करते थे । 1907 में गनपत सहाय सुलतानपुर आकर वकालत करने लगे ।

    1920 मे सुलतानपुर में कांग्रेस कमेटी की स्थापना हुई ।बाबू गनपत सहाय  प्रथम अध्यक्ष व प्र धानमंत्री  रमाकांत सिंह  हुये । किसान जागरण जोर शोर से चल  रहा था । नवम्बर 1920 में एक सार्वजनिक सभा भाले सुलतानी इलाके में हुआ जिसमें कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष बाबू गनपत सहाय ,बाबा रामलाल और.नाज़िम शामिल थे ।  भाले सुलतानिय़ों की भारी भीड़ को ललकारते हुये बाबू गनपतसहाय ने.शेर पढ़ा -

   हो खबरदार जिन्होंने यह अजीयत दी है ।

  कुछ तमाशा तो नहीं कौम ने करवट ली है। 

   शेर सुनकर जोर से तालियां बजने लगी कि तभी पुलिस कप्तान सिपाहियों के साथ आ धमके । सिपाहियों ने इनको  गिरफ्तार करना चाहा तो भीड़. उग्र हो उठी । तय हुआ सभा समाप्त कर.शहर.लौटेंगे तब वे स्वयं गिरफ्तारी दे देंगे । 

    सभा समाप्त कर जब तीनों नेता इक्के से वापस लौट रहे थे तो अलीगंज बाजार में गिरफ्तार कर लिये गये ।इससे किसान आन्दोलन और तीव्र गति से चलने लगा । ऐसी ही एक उग्र भीड़ पर मुंशी गंज में 7 जनवरी ,1921 में गोली चली जिससे कुछ लोग घायल हो गये ।कुछ लोग घायल भी हुये।इससेसुलतानपुर ,रायबरेली ,प्रतापगढ़ में आन्दोलन शिथिल पड़ गया ।इसपर  बाबू गनपत सहाय एक दैनिक समाचार पत्र तत्कालीन अंग्रेज कलेक्टर की व्यक्तिगत निन्दा करने के कारण पुनः जेल गये ।

       गांधी जी ने अचानक आन्दोलन स्थगित कर दिया जिससे कई बड़े नेता गांधी जी आलोचना करने लगे ।

      सुलतानपुर के पितामह कहे जाने वाले  बाबू गनपत सहाय प्रारंभ मे लाला लाजपत राय,विपिन चन्द पाल के समर्थक रहे हैं ।अतः उनकी नीति में परिवर्तन के कारण वह भी  स्वराज पार्टी के नेता मदन मोहन मालवीय तथा लाला लाजपत राय के खेमे में आ गये और सरकार को समर्थन देने के कायल.हो गये ।वह 1924 में ही नगरपालिका के अध्यक्ष चुन लिये गये ।

    12 मार्च,1930 को गांधी जी ने नमक कानून तोड़ने के लिये दाण्डी यात्रा शुरू की और 6अप्रेल को समुद्र तट पर नमक कानून तोड़ा ।

      सुलतान पुर में उससमय बाबू गनपत सहाय जिला परिषद के चेयरमैन थे ही ।उनके प्रोत्साहन से गाँव गाँव में फैले प्राइमरी स्कूलों के अध्यापक राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रचार में जुट गये । जिला कांग्रेस के अध्यक्ष पं.रामलाल तथा महामंत्री रमाकांत सिंह ने 26 जनवरी को.लौहोर कांग्रेस का प्रस्ताव दोहराया । 

    10 जून ,1930 के दिन  स्वामी नारायण देव के नेतृत्व मे सामुहिक रूप में आपार जनसमूह के समक्ष कराह में नमक बनाकर नमक कानून तोड़ा ।नमक की पुड़िया बनाकर भारी मूल्य पर आम जनता को बेच टपपपटं । इसी साल. गाँधी जी कस्तूरबा गाँधी के.साथ सुलतानपुर आये और  बाबू गनपत सहाय की.कोठी में ठहरे जिन्हें देखने हजारों छात्र एकत्र हो गये । गांधी जी ने उसीदिन जगरामदास धर्मशाला मे मीटिंग की और आन्दोलन जारी रखने का आह्वान किया । शहर में कांग्रेस विदेशी कपड़ों काबहिष्कार तथा शराब की दूकानों पर धरना प्रदर्शन कर रही थी ।

     दिसम्बर,1930  मे  सविनय  अवग्या  आंदोलन,  धरना देना  थम गया क्यों कि गांधी जी इरविन से बातचीत करने को  तैयार हो गये थे । सन् 31 में गांधी -इरविंग पैक्ट हुआ ।समझौते के अनुसार सभी सत्याग्रही जेल से.रिहा कर दिये गये ।


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     बाबा जगन्नाथ प्रसाद अब सुलतानपुर शहर से अमेठी आने जाने लगे । वे अमेठी इस्टेट में  मैनेजर थे।उन्हें गांव से अमेठी जाना मुमकिन नहीं हो.रहा था। इसलिये  इसी मकान में  उनके पुत्र और.मेरे पिताजी  सन् 35  में इलाहाबाद विश्व विद्यालय से कानून की डिग्री लेकर वकालत करने आ गये ।  

   गांव वाले  में ताऊ ओंकार नाथ तथा चाचा मुकुट बिहारी का  परिवार  रहने लगा।  वे ही गांव की जमीं दारी व  जायदाद की देख भाल  व खेती करवाते  थे । पिताजी के परिवार का कोई सदस्य गाँव में नहीं रहा है।सभी शहर वाले मकान मे रहने लगे  । 1939 में बाबा जगन्नाथ प्रसाद का स्वर्ग वास हो गया । 

   सितम्बर -39 मे विश्व युद्ध छिड़ गया ।बाबू गनपत सहाय  हिंदू महासभा छोड़कर आचार्य नरेंद्र देव.के अनुरोध पर पुनः कांग्रेस में लौट आये ।  बिट्रिश सरकार भारत की ओर से युद्ध में शामिल होने की घोषणा कर दी ।इसपर कांग्रेस ने गहरी नाराजगी जाहिर की ।कांग्रेस ने सहयोग देने के कुछ शर्त रखी जिसे सरकार ने नहीं मानी ।इसपर कांग्रेस ने व्यक्ति गत सत्याग्रह शुरू कर दिया । अंग्रेजों के विश्व युद्ध मे फँसे होने का लाभ उठाकर छह अप्रैल 1940 को स्वतंत्रता संग्राम की घोषणा कर दी ।देश भर में झण्डा चढाने.का आन्दोलन चला व्यक्ति गत सत्याग्रह के प्रचार के लिये  जवाहर लाल नेहरू इलाहाबाद से सुलतानपुर आये ।जनता ने तहेदिल से स्वागत किया । सत्याग्रह की घोषणा होते ही धर पकड़ शुरू हो गई ।केवल सदर तहसील से 50 हजार सत्याग्रही गिरफ्तार होकर जेल गये ।बाबू गनपत सहाय, देवकली दीन, सुंदर लाल ,नाजिम अली इसमें शामिल थे ।

  विश्व युद्ध मे हिटलर ने रूस पर आक्रमण कर देने पर व्रिटिश सरकार घबरा गई ।अतः दिसम्बर,41 में कांग्रेस के प्रमुख नेताओं को रिहा कर पुनः बातचीत की पेशकश की ।इसपर कांग्रेस ने 30 दिसम्बर को व्यक्ति गत सत्याग्रह वापस लेने की घोषणा कर दी ।

  1942 के मार्च -अप्रैल में क्रिप्स मिशन भारतविधेयक घोषणा का मसविदा लेकर भारत आया । मसविदा में युद्ध की समाप्ति पर भारत को औपनिवेशिक देने की बात थी ।पर कई विन्दुओं पर कांग्रेस व मुस्लिम लीग असहमत थी ।अतः क्रिप्स मिशन वापस लौट गया । 

  बम्बई अधिवेशन मे 8 अगस्त 1942 को अंग्रेजो भारत छोड़ो का प्रस्ताव पास हुआ । 9 अगस्त को आन्दोलन शुरू हुआ ।

     सुलतानपुर में  भारत छोड़ो आन्दोलन जोर पकड़ रहा था । 9 अगस्त को ही गनपत सहाय सहित कई नेता गिरफ्तार कर.लिये गये ।

चौक के  सेठ परिवार के  त्रिभुवन सण्डा बताते हैं उन्होंने भी स्व प्रेरित होकर पहली बार टेलीफोन के.तार काटे थे । 

  यह आन्दोलन दिसम्बर ,42 तक दबा दिया गया था ।

  5 जुलाई ,1945 में पहली बार लेबर पार्टी की सरकार आई ।वह भारत को आजादी देने की बात पर ही सत्ता में आई थी ।अतः उसने बात आगे बढा ने के लिये कैविनेट मिशन को भारत भेजा ।य मिशन भारत आकर 472 नेताओं से बातचीत कर वापस चला गया ।16 मई ,1946 को अपना निर्णय दिया । कैविनेट योजना में कई खामियां थीं ।सर्वप्रथम देसी रियासतो की स्थिति स्पष्ट नहीं थी कि सारी शक्ति भारतीयों को सौंपने के बाद वे किसके अंतर्गत. रहेंगे ।योजना में पाकिस्तान की योजना खटाई मे पड़ जाने से  मि.जिन्ना असंतुष्ट थे ।

        पिता जी  अब छह दिन कचेहरी जाते थे ।और हर शनिवार शाम को विन्दवन गांव पाही  जाते औऱ सोमवार  को  22 कि.मी.साईकिल चला कर सुबह घर आते थे ।विन्दवन की जमींदारी के अपने हिस्से कृषि वही करवाते थे ।वैसे खेती व आम के बाग की देख रेख एक कुर्मी परिवार पाही में स्थायी। रूप से रहता था ।

   मेरे पिता जी दो शादी हुई थी ।पहली पत्नी से दो पुत्र -संकठा प्रसाद ,माता प्रसाद  तथा एक पुत्री सावित्री देवी थी ।पहली पत्नी की मृत्यु हो जाने पर दूसरी शादी शायद 1941-42 मे हुई थी ।दूसरी पत्नी से दो पुत्र  बृजेंद्र श्रीवास्तव ,जन्म 10 अक्तूबर 1943 तथा मेरा यानी शैलेंद्र श्रीवास्तव का जन्म 20जुलाई ,1945 है ।इसके बाद.पांव पुत्री के बाद फिर एक पुत्र का जन्म हुआ किन्तु ढाई साल मे लीवर बढ जाने से मृत्यु हो गई ।उसके बाद.फिर दो पुत्री हुई ।इसतरह से दूसरी पत्नी से तीन पुत्र सात पुत्री हुई । रीता 12 साल की उम्र में मृत्यु हो गई थी ,वह आँठवीं कक्षा मे पढ रही थी ।

      कैबिनेट मिशन लौटने के बाद सत्ता हस्तरण के लार्ड माउंट बेटन आये  । माउंट बेटन ने पहला प्रस्ताव नेहरू के सामने यूनाइटेड इंडिया का रखा जिसपर नेहरू बोले ,इसे तो जिन्ना भी नहीं मानेंगे ।

    इसपर माउंट बेटन ने " डिवाडेड इंडिया " की घोषणा कर दी ।इसके अनुसार पाकिस्तान एक स्वतंत्र देश होगा । देसी रियासतों के बारे मे यह व्यवस्था थी उसके शासक अपना स्वतंत्र निर्णय लेंगे कि वह भारत या पाकिस्तान में से किसी एक मे अपनी रियासत को.मिला सकते हैं।अथवा चाहे तो सीधे ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत स्वतंत्र इकाई के रूप में रह सकते हैं । इस योजना के अनुसार भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम ,1947 ब्रिटिश संंसद मे पास हुआ जिसके अनुसार 15 अगस्त 47  को भारत और.पाकिस्तान स्वतंत्र राष्ट्र बन गये । इस प्रकार लम्बी लडाई के बाद 15 अगस्त सन्.47 को.देश आजाद हुआ ।

       उस समय मेरी उम्र मात्र दो वर्ष थी ,आजादी का अर्थ नहीं जानता था ।पर बड़े भैया के साथ सड़क से गुजरतीं स्कूली झांकियां उत्सुक नजरों से देखना अच्छा लगा था ।बहुत बाद में झांकियो के बारे जान पाया कि झांकी मे खादी वस्त्र में आजादी के हीरो हैं ।

   बड़े भाई बृजेंद्र हमसें पहले स्कूल मे जा रहे थे  जबकि उसके दो साल बाद. मुझे भी 

चार साल की उम्र में सुभाष प्राथमिक पाठशाला मे 20 जुलाई ,48 को पिताजी ने  कक्षा एक मे दाखिल करा दिया । पांच साल की उम्र मे कक्षा दो का  विद्यार्थी था कि एक शाम मैं अपनी छोटी बहन के सं ग सड़क पर मस्ती करते रामलीला देखने जा रहा था कि अचानक सामने से  आ रहे  इक्के के चपेट में आ गये ।

   इक्के का पहिया मेरे दायें हाथ के ऊपर गुजर गया था जिस कारण दर्द से मैं जोर जोर से रोने लगा था ।लोग जमा हो गये ।औऱ सब इक्के वाले को पीटने लगे थे।वह हाथ जोड़ कर कहना चाह रहा था कि उसने बच्चे को बचाने की बहुत कोशिश की पर बच्चे उछल कूद रहे थे ।

        हम द़ोनों को तुरंत अस्पताल लाया गया ।डाक्टर ने चेक करके बताया कि मेरे दायें हाथ की  हड्डी टूट गई है ,इसपर पलास्टर चढाना होगा जबकि बहन को मामुली चोट आई  थी ।

      अम्मा बाबू बहन सब अस्पताल के बरामदे में  खड़े सब कुछ ठीक होने की ईश्वर से मन   ही मन प्रार्थना कर रहे थे ।

       डाक्टर के मुख से पलास्टर चढाने की बात निकली तो पास खड़ा इक्के वाला बोला," डाक्टर साहब आप पलास्टर चढाइये ,जो खर्च आयेगा मैं भुगतान करूंगा ।"

        उन दिनों अस्पताल बदनाम नहीं हुये थे । हर तरह का इलाज मुफ्त होता था । 

   डाक्टर बोला,"कोई बाहर.से  पलास्टर नहीं आना है ।सब अस्पताल में है ।"

     डाक्टर ने  एक घंटे में पलास्टर चढाकर मुझे खड़ा कर दिया ।बोले," दो महीने यह बंधा रहेगा ।उसके बाद पलास्टर काटकर देखा जायेगा ।"

 पलास्टर चढ़ जाने से मेरा         स्कूल जाना छूट गया था ।दाँया  हाथ आधा लटकाये मुहल्ले में बच्चों संग खेल करता था ।बायें हाथ से  पतंग उड़ाता था ।

        दो महीने बाद पिताजी मुझे लेकर अस्पताल आये तो वहाँ इक्के वाला भी मौजूद था ।

        डाक्टर साहब पलास्टर काटते हुये कह रहे थे कि हड्डी ठीक से नहीं बैठी होगी तो पलास्टर दोबारा चढाना होगा ,इसके लिए सोलह रुपये खर्च आयेगा ।

   इक्केवाला तुरंत भुगतान भरने की हामी भरी ।पर डाक्टर ने चेक करके कहा ,"हड्डी ठीक बैठ गई है ।दोबारा नहीं चढाना पड़ेगा ।"

      दो महीने खेलकूद में इतना मस्त रहा कि पढा लिखा सब भूल गया था ।

  पिताजी मुझे लेकर पुन : उसी स्कूल मे पहुंचे ।

   मास्टर ने दो तीन सवाल किए जिसका ठीक जवाब मैं नहीं दे सका था ।

    मास्टर ने कहा ,इसको फिर दर्जा एक मे भर्ती करना होगा ।औऱ पिता जी ने मुझे कक्षा एक में दाखिला करा दिया  था । 

   फिर तख्ती कलम लेकर मैंने स्कूल जाना शुरू कर दिया था ।  स्कूल में  मैं.रोज सेंठा कलम से तख्ती पर  किताब के पृष्ठ की नकल उतारता रहता था । तख्ती भर जाने पर स्कूल प्रांगण में  बने हौद के पानी में तख्ती धोकर साफ करता  था ।

   दर्जा दो पास करने के बाद  छह महीने दर्जा तीन मे पढा ।फिर मास्टर ने दर्जा चार  में  बैठा दिया था ।दर्जा  चार में  अच्छा रिजल्ट देखते हुये कक्षा छह में  एडमिशन के लिये टीसी दे दिया था ।.पाँचवे की परीक्षा से बच गया था ।

  डा०शैलेन्द्र श्रीवास्तव  /लखनऊ

  मो. 7021249526

कौन खतरनाक ?


कौन खतरनाक ?


 एक बार रात के समय, एक शेर, जंगल से एक गाँव में आ गया। वह एक झोपड़ी के बाहर, दीवार के साथ जा बैठा।

उस समय उस झोपड़ी में, एक चार वर्ष का बच्चा जोर जोर से रो रहा था। उसकी माँ उसे चुप कराने का प्रयास कर रही थी।

माँ ने बच्चे से कहा- बेटा चुप हो जा, नहीं तो शेर आ जाएगा।

पर बच्चा चुप नहीं हुआ। उस बाहर बैठे शेर ने सोचा कि ये बच्चा बड़ा ढीठ है, जो मुझ से भी नहीं डरता।

फिर माँ ने कहा- बेटा चुप हो जा, मैं किशमिश लाती हूँ।

बच्चा तुरंत चुप हो गया। उस शेर ने विचार किया कि लगता है यह किशमिश कोई मुझसे भी खतरनाक जीव है। यह विचार कर शेर भय से काँपने लगा।

संयोग से उस समय, उसी झोपड़ी के छप्पर पर एक चोर भी छिपा हुआ था। शेर के काँपने से, उसे लगा कि कोई आ गया। नीचे देखा तो उसे शेर दिख गया। शेर देख कर वह भी भय से काँपने लगा और हड़बड़ी में छप्पर से फिसल कर, सीधा शेर के ऊपर ही आ गिरा। और मरता क्या न करता, वह चोर शेर की गर्दन के बाल (अयाल) कस के पकड़कर शेर से चिपक गया।

शेर को लगा कि उस पर किशमिश चढ़ आया। वह घबरा कर तेजी से जंगल की ओर दौड़ने लगा।

वह तो दैवयोग से इतने में उस चोर को, सामने पेड़ की एक टहनी लटकती दिखाई दे गई। वह चोर उस टहनी को पकड़ कर लटक गया। और शेर जंगल में भाग गया।

गुरु कहता है कि जब कोई मनुष्य, उस शेर की ही तरह, वस्तु को कुछ का कुछ समझ लेता है, माने जब मनुष्य को वस्तु में अवस्तु का भ्रम हो जाता है, तब उसके स्वरूप पर आवरण पड़ जाता है और वह योंही अपना बल भूल कर, बिना किसी बात के, भयग्रस्त हुआ, मारा मारा दौड़ा करता है।

समझना यह है कि मिथ्या जगत को सत्य मान लेने से, अपने आत्मस्वरूप पर अज्ञान का आवरण पड़ गया है, और सर्वसमर्थ शाश्वत मुक्त परमेश्वर का अंश, अपने को असहाय मरणधर्मा और बंधनग्रस्त मानकर, बार बार मृत्यु का ग्रास बन रहा है।

-पंडित विनोद त्रिपाठी

गोस्वामी तुलसीदास जी के कुछ शिक्षाप्रद दोहे*

 

✍🏻गोस्वामी तुलसीदास जी के कुछ शिक्षाप्रद दोहे*


प्रस्तुति - रेणु दत्ता / आशा सिन्हा 


१. तुलसी इस संसार में, भांति भांति के लोग।

सबसे हस मिल बोलिए, नदी नाव संजोग॥


अर्थ : तुलसीदास जी कहते हैं, इस संसार में तरह-तरह के लोग रहते हैं. आप सबसे हँस कर मिलो और बोलो जैसे नाव नदी से संयोग कर के पार लगती है वैसे आप भी इस भव सागर को पार कर लो.


२. आवत ही हरषै नहीं नैनन नहीं सनेह।

तुलसी तहां न जाइये कंचन बरसे मेह॥


अर्थ : तुलसीदास जी कहते हैं, जिस स्थान या जिस घर में आपके जाने से लोग खुश नहीं होते हों और उन लोगों की आँखों में आपके लिए न तो प्रेम और न ही स्नेह हो. वहाँ हमें कभी नहीं जाना चाहिए, चाहे वहाँ धन की हीं वर्षा क्यों न होती हो.


३. तुलसी साथी विपत्ति के, विद्या विनय विवेक।

साहस सुकृति सुसत्यव्रत, राम भरोसे एक॥


अर्थ : तुलसीदास जी कहते हैं, विपत्ति में अर्थात मुश्किल वक्त में ये चीजें मनुष्य का साथ देती है. ज्ञान, विनम्रता पूर्वक व्यवहार, विवेक, साहस, अच्छे कर्म, सत्य और राम ( भगवान ) का नाम.


४. काम क्रोध मद लोभ की, जौ लौं मन में खान।

तौ लौं पण्डित मूरखौं, तुलसी एक समान॥


अर्थ : तुलसीदास जी कहते हैं, जब तक व्यक्ति के मन में काम की भावना, गुस्सा, अहंकार, और लालच भरे हुए होते हैं. तब तक एक ज्ञानी व्यक्ति और मूर्ख व्यक्ति में कोई अंतर नहीं होता है, दोनों एक ही जैसे होते हैं.


 ५. दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान।

तुलसी दया न छांड़िए, जब लग घट में प्राण॥


अर्थ : तुलसीदास जी कहते हैं, धर्म का मूल भाव ही दया हैं और अहम का भाव ही पाप का मूल (जड़) होता है. इसलिए जब तक शरीर में प्राण है कभी दया को नहीं त्यागना चाहिए.


६. तुलसी मीठे बचन ते, सुख उपजत चहुँ ओर।

बसीकरन इक मंत्र है, परिहरू बचन कठोर॥


अर्थ : तुलसीदासजी कहते हैं, मीठे वचन सब ओर सुख फैलाते हैं. किसी को भी वश में करने का ये एक मन्त्र है इसलिए मानव को चाहिए कि कठोर वचन छोड़कर मीठा बोलने का प्रयास करे.


७. तुलसी भरोसे राम के, निर्भय हो के सोए।

अनहोनी होनी नही, होनी हो सो होए॥


अर्थ : तुलसीदास जी कहते हैं, भगवान् राम पर विशवास करके चैन की बांसुरी बजाओ. इस संसार में कुछ भी अनहोनी नहीं होगी और जो होना उसे कोई रोक नहीं सकता. इसलिये आप सभी आशंकाओं के तनाव से मुक्त होकर अपना काम करते रहो.


८. तुलसी पावस के समय, धरी कोकिलन मौन।

अब तो दादुर बोलिहं, हमें पूछिहै कौन॥


अर्थ : तुलसीदास जी कहते हैं, वर्षा ऋतु में मेंढकों के टर्राने की आवाज इतनी ज्यादा हो जाती है कि, कोयल की मीठी वाणी उनके शोर में दब जाती है. इसलिए कोयल मौन धारण कर लेती है. अर्थात जब धूर्त और मूर्खों का बोलबाला हो जाए तब समझदार व्यक्ति की बात पर कोई ध्यान नहीं देता है, ऐसे समय में उसके चुप रहने में ही भलाई है.


९. सहज सुहृद गुरस्वामि सिख जो न करइ सिर मानि।

सो पछिताइ अघाइ उर अवसि होइ हित हानि॥


अर्थ : स्वाभाविक ही हित चाहने वाले गुरु और स्वामी की सीख को जो सिर चढ़ाकर नहीं मानता, वह दिल से बहुत पछताता है और उसके हित की हानि अवश्य होती है.


१०. मुखिया मुखु सो चाहिऐ, खान पान कहुँ एक।

पालइ पोषइ सकल अंग, तुलसी सहि त बिबेक॥


अर्थ : तुलसीदास जी कहते हैं, मुखिया मुख के समान होना चाहिए जो खाने-पीने को तो अकेला है, लेकिन विवेकपूर्वक सब अंगों का पालन-पोषण करता है.


११. तुलसी नर का क्या बड़ा, समय बड़ा बलवान।

भीलां लूटी गोपियाँ, वही अर्जुन वही बाण॥


अर्थ : तुलसीदास जी कहते हैं, समय ही व्यक्ति को सर्वश्रेष्ठ और कमजोर बनता है. अर्जुन का वक्त बदला तो उसी के सामने भीलों ने गोपियों को लूट लिया जिसके गांडीव की टंकार से बड़े बड़े योद्धा घबरा जाते थे.


*🙏🏻🙏🏻जय श्री राम🚩🚩*

बुधवार, 28 सितंबर 2022

हमारा भी एक जमाना था...

 प्रियंका गिरी 


हमें खुद ही स्कूल जाना पड़ता था क्योंकि साइकिल, बस आदि से भेजने की रीत नहीं थी, स्कूल भेजने के बाद कुछ अच्छा बुरा होगा ऐसा हमारे मां-बाप कभी सोचते भी नहीं थे उनको किसी बात का डर भी नहीं होता था।

🤪पास/ फैल यानि नापास यही हमको मालूम था... परसेंटेज % से हमारा कभी संबंध ही नहीं रहा।

😛 ट्यूशन लगाई है ऐसा बताने में भी शर्म आती थी क्योंकि हमको ढपोर शंख समझा जा सकता था।

🤣

किताबों में पीपल के पत्ते, विद्या के पत्ते, मोर पंख रखकर हम होशियार हो सकते हैं, ऐसी हमारी धारणाएं थी।

☺️ कपड़े की थैली में बस्तों में और बाद में एल्यूमीनियम की पेटियों में किताब, कॉपियां बेहतरीन तरीके से जमा कर रखने में हमें महारत हासिल थी।

😁 हर साल जब नई क्लास का बस्ता जमाते थे उसके पहले किताब कापी के ऊपर रद्दी पेपर की जिल्द चढ़ाते थे और यह काम लगभग एक वार्षिक उत्सव या त्योहार की तरह होता था। 

🤗  साल खत्म होने के बाद किताबें बेचना और अगले साल की पुरानी किताबें खरीदने में हमें किसी प्रकार की शर्म नहीं होती थी क्योंकि तब हर साल न किताब बदलती थी और न ही पाठ्यक्रम।

🤪 हमारे माताजी/ पिताजी को हमारी पढ़ाई का बोझ है ऐसा कभी लगा ही नहीं। 

😞  किसी दोस्त के साइकिल के अगले डंडे पर और दूसरे दोस्त को पीछे कैरियर पर बिठाकर गली-गली में घूमना हमारी दिनचर्या थी।इस तरह हम ना जाने कितना घूमे होंगे।


🥸😎 स्कूल में मास्टर जी के हाथ से मार खाना,पैर के अंगूठे पकड़ कर खड़े रहना,और कान लाल होने तक मरोड़े जाते वक्त हमारा ईगो कभी आड़े नहीं आता था सही बोले तो ईगो क्या होता है यह हमें मालूम ही नहीं था।

🧐😝घर और स्कूल में मार खाना भी हमारे दैनिक जीवन की एक सामान्य प्रक्रिया थी।

मारने वाला और मार खाने वाला दोनों ही खुश रहते थे। मार खाने वाला इसलिए क्योंकि कल से आज कम पिटे हैं और मारने वाला है इसलिए कि आज फिर हाथ धो लिए😀......


😜बिना चप्पल जूते के और किसी भी गेंद के साथ लकड़ी के पटियों से कहीं पर भी नंगे पैर क्रिकेट खेलने में क्या सुख था वह हमको ही पता है।


😁 हमने पॉकेट मनी कभी भी मांगी ही नहीं और पिताजी ने भी दी नहीं.....इसलिए हमारी आवश्यकता भी छोटी छोटी सी ही थीं। साल में कभी-कभार एक आद बार मैले में जलेबी खाने को मिल जाती थी तो बहुत होता था उसमें भी हम बहुत खुश हो लेते थे।

छोटी मोटी जरूरतें तो घर में ही कोई भी पूरी कर देता था क्योंकि परिवार संयुक्त होते थे।

दिवाली में लिए गये पटाखों की लड़ को छुट्टा करके एक एक पटाखा फोड़ते रहने में हमको कभी अपमान नहीं लगा।


😁 हम....हमारे मां बाप को कभी बता ही नहीं पाए कि हम आपको कितना प्रेम करते हैं क्योंकि हमको आई लव यू कहना ही नहीं आता था।

😌आज हम दुनिया के असंख्य धक्के और टाॅन्ट खाते हुए और संघर्ष करती हुई दुनिया का एक हिस्सा है किसी को जो चाहिए था वह मिला और किसी को कुछ मिला कि नहीं क्या पता

स्कूल की डबल ट्रिपल सीट पर घूमने वाले हम और स्कूल के बाहर उस हाफ पेंट मैं रहकर गोली टाॅफी बेचने वाले की दुकान पर दोस्तों द्वारा खिलाए पिलाए जाने की कृपा हमें याद है।वह दोस्त कहां खो गए वह बेर वाली कहां खो गई....वह चूरन बेचने वाला कहां खो गया...पता नहीं।


😇 हम दुनिया में कहीं भी रहे पर यह सत्य है कि हम वास्तविक दुनिया में बड़े हुए हैं हमारा वास्तविकता से सामना वास्तव में ही हुआ है।


🙃 कपड़ों में सिलवटें ना पड़ने देना और रिश्तों में औपचारिकता का पालन करना हमें जमा ही नहीं......सुबह का खाना और रात का खाना इसके सिवा टिफिन क्या था हमें अच्छे से मालूम ही नहीं...हम अपने नसीब को दोष नहीं देते जो जी रहे हैं वह आनंद से जी रहे हैं और यही सोचते हैं और यही सोच हमें जीने में मदद कर रही है जो जीवन हमने जिया उसकी वर्तमान से तुलना हो ही नहीं सकती।


😌 हम अच्छे थे या बुरे थे नहीं मालूम पर हमारा भी एक जमाना था। वो बचपन हर गम से बेगाना था।

किसान मंत्र

 अपने खेतों में बीज बोते हुए जो हलूर गाई जाती है वो ही किसान के मंत्र हैं,

मेहनत करने में जो पसीना बहता है वही इस महायज्ञ की आहुतियाँ हैं,

जँगली जानवरों पक्षियों से सुरक्षा करते समय विभिन्न प्रकार की आवाज़ें निकालना ही श्लोक और लयबद्ध राग हैं,

खेत की झोपड़ी में जलने वाला अलाव ही उस किसान का हवन कुंड है,

कड़कड़ाती भूख में खेत की मेड़ पर घर से आई रोटी खाना ही उसका भोग लगाना है,

छह महीने की तपस्या के पश्चात प्रकृति द्वारा प्रदत्त उपहार ही उसकी तपस्या का फल है,

इस हठयोगी से बड़ा कोई हठी नही हर बरस अपनी खेती में सट्टा लगाता रहता है,

परिणाम चाहे जो भी हो,

#जोहार 🌱??

#जय_किसान

Post by Satish Kaler

एक कवि के भीतर झांकने का अवसर / आलोक यात्री

 


(पिछले दिनों कवि उद्भ्रांत जी की आत्मकथा 'जो मैंने जिया...' का दूसरा खंड पढ़ने का सौभाग्य हासिल हुआ। यह पुस्तक समीक्षार्थ मुझे मिली थी। पुस्तक की समीक्षा दैनिक ट्रिब्यून के चंडीगढ़ संस्करण में रविवार 18 सितंबर को प्रकाशित भी हो गई। (जो संलग्न है)। मेरे लिखे को कुछ जायज ठहरा रहे हैं, कुछ ओछी टिप्पणी पर उतर आए हैं। आप साथियों से उम्मीद करता हूं आप सार्थक प्रतिक्रिया दे कर अनुगृहित करें)


उद्भ्रांत को जानना इतना आसान नहीं है जितना वह अपनी किताब 'जो मैंने जिया...' में कहते हैं। व्यक्ति और कवि के रूप में वह दो अलग अलग शख्सियत के तौर पर नजर आते हैं। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से यह आंकलन कर पाना मुश्किल है कि बतौर कवि वह बड़े हैं या शख्सियत के तौर पर उनका बड़ा मुकाम है।

  'मैंने जो जिया...' उनकी आत्मकथा का दूसरा खंड है। जो उनकी रहगुजर का बयान अधिक प्रतीत होता है। इस पुस्तक में उनका बयान यह साबित करने में सफल है कि उद्भ्रांत उन कुछ गिने चुने लोगों में से हैं जो सच को सच के तौर पर कहने का साहस रखते हैं। इस बात का यकीन जरूर हुआ कि हर समय हर कालखंड में एक उद्भ्रांत आवश्यक है। जो सच को जिंदा रखने, परोसने का साहस अपने भीतर रख सके। 

हम सब प्रेमचंद को पढ़ते हुए बड़े हुए हैं। हमारे प्रतिमान निसंदेह उद्भ्रांत से मेल नहीं खाते। लेकिन उनके द्वारा कई तरह का सच जब आम आदमी की जिंदगी के फ्रेम की तस्वीर में ज्यों का त्यों सामने खड़ा मिलता है तो हमें सोचना पड़ता है कि यह कौन शख्स है जो बजिद हमें आईना दिखा रहा है।

'जो मैंने जिया...' का दूसरा खंड पढ़ते हुए मैं यह कह सकता हूं कि उद्भ्रांत को लेकर कई तरह की अफवाहें उड़ी होंगी। लेकिन बतौर एक लेखक, एक कवि आप उन्हें खारिज नहीं कर सकते। 'मैंने जो जिया...' उद्भ्रांत की आत्ममुग्धता का ही जयघोष है, लेकिन यह किताब यह सोचने पर भी मजबूर करती है कि दूसरा उद्भ्रांत हमारे पास है कहां? होता तो सच कहने का कोई और सरोकार उसके पास होता क्या? मुझे लगता है कि एक कवि जो चंद पंक्तियों में अपनी बात कह सकता है, वह खंडकाव्य रूपी रचना हमारे समक्ष प्रस्तुत क्यों करता? मैं तो यहीं कहुंगा कि किसी बहाने उद्भ्रांत के भीतर झांकने का अवसर मिल जाए तो चूकिएगा नहीं। 'मैंने जो जिया...' निसंदेह एक श्रमसाध्य प्रयास है।

रमाकांत शर्मा 'उद्भ्रांत' हिंदी के उन चंद साहित्यकारों में शामिल हैं जिन्होंने गीत, कविता, नवगीत, ग़ज़ल, कहानी के अलावा समीक्षा, अनुवाद से लेकर बाल साहित्य के क्षेत्र में भरपूर कार्य किया है। यूं तो उन्होंने अपनी साहित्यिक यात्रा नव गीतकार के रूप में शुरू की थी। लेकिन हाल ही में आए उनके आत्मकथात्मक ग्रंथ 'मैंने जो जिया-2' ने साहित्य के क्षेत्र में काफी हलचल मचा रखी है। आत्मकथा को लेकर यह मान्यता है कि वह सच का बयान भी है, लेकिन सच कहने की एक मर्यादा है। अपनी आत्मकथा में वह कहीं-कहीं बहुत अधिक मोहग्रस्त और आत्ममुग्धता से भरे दिखाई देते हैं। कई नामचीन हस्तियों का ज़िक्र वह बहुत हल्के तौर पर करते हैं।

पुस्तक में अपना चरित्र चित्रण वह कई जगह करते हैं। एक जगह वह कहते हैं 'उद्भ्रांत का व्यक्तित्व तमाम तरह की उचित-अनुचित भावदशाओं का प्रतिबिंब था। वह रोमैंटिक था, प्रेमी था। रुढ़ियों के विद्रोह, नवीनता के प्रति आकर्षण। अराजकता की सीमा तक दुस्साहसी...। कहा जा सकता है कि  उद्भ्रांत ने सत्य को अनावृत ही रखा है। लेकिन यह पुस्तक स्वयं के जयघोष के तौर पर अपनी पहचान बनाएगी। इसे उत्कृष्ट आत्मकथा के तौर पर पहचान बनाने में लंबा समय लग सकता है



बुद्धिनाथ मिश्र के दस नवगीत

 वागर्थ में आज 

बुद्धिनाथ मिश्र जी के दस नवगीत

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बहुत दिनों के बाद


बहुत दिनों के बाद

आज बाहर निकला।

जो भी देखा, सब

पाने को जी मचला।


बाहर की दुनिया देखी

हलचल देखी

पटरी पर दौड़ती

रेल एकल देखी।


ठहरी हुई घड़ी का

दिल यों धड़क उठा

जमी झील का पानी

जैसे बह निकला।


जाम हुए जीवन ने

सरपट गति देखी

भय की छाया में

कीलित संप्रति देखी


धुली-धुली सी देह

सयानी धरती की

हरा-भरा जंगल, पर्वत

नीला-उजला।


पिंजरे वाले हैं चिंतित,

क्या होगा कल

खेतों से सीमा तक

लेकिन चहल-पहल

बहुत अकेलापन झेला

घरबंदी में

दौड़ रहा बादल पर

अब यह मन पगला।



 रात हमारी बात न माने  


दिन बनकर हम क्या कर लेंगे

रात हमारी बात न माने

उसकी जिद का क्या जो घर की

छाती पर ही तंबू ताने।


जो धीवर को ही उतार दे

उस नौका की गति क्या होगी

बिना चिकित्सक की सलाह के

खाने लगा दवा है रोगी

सारी दुनिया लोहा माने

लेकिन अपनी जात न माने।


बजता तो है सच सरोद-सा

लेकिन शोर झूठ का ज्यादा

घुड़सवार के घोड़े से चिढ़

पत्थर मार रहा है प्यादा

संविधान के निर्देशों को

भूतों की बारात न माने ।


एक कमासुत,सौ जाहिल हैं

जहां,वहां की बात जुदा है

टांग खींचनेवाले वंदों के

भीतर जज्बात जुदा हैं

संकट में संतों का आश्रम है

जो दिन को रात न माने ।

एक हारिल

_________

फेंक कविता की लकड़ियों का पुलिंदा

आत्महत्या पर तुला है एक हारिल ।


गांव से भागा ,घुटन -सा था वहां पर

जिंदगी फुटपाथ वाली ही बदी थी

रास आया कुछ न उस निर्धन कलम को

हर जगह उसके लिए बस त्रासदी थी


पोथियों में ब्रह्मराक्षस अनगिनत थे

बर्फ के घर में जला है एक हारिल।


क्या शहर ,क्या गांव है सर्वत्र फैला

यह करोना वायरस नारायणी है

बंद हैं अपने घरों में मित्र सारे

आदमी इस दौर का कितना ऋणी है


दूरियां नज़दीकियों से आज बेहतर

फासला रख कर चला है एक  हारिल ।


हर तरफ कुरखेत वाले दृश्य दिखते

मौत की खबरें बुरी आकर डराती

नाश का संकल्प ले बहती हवाएं

नाव लेकर आंधियां उस पार जाती


चैत का वह चांद भी पीला पड़ा है

भोर बन सूरज ढला है एक हारिल।

 मन सवर्ण-सा

___________


बहुत दिनों तक अड़ा रहा

अपने गौरव पर

मन सवर्ण -सा

धीरे-धीरे हार रहा है।


जिन देवों के होने से

सदियां संवरी थीं

उन देवों के ना होने की

बात चली है

बादल के तहखाने में

चंद्रमा चुराकर

दिग्विजयी-सी तारों की

बारात चली है


जन्मों-जन्मों जिसे

सहेजा कस्तूरी कह

रश्मिरथी वह कुंडल 

-कवच उतार रहा है ।


तालाबों में खिले कमल से

डाह कर रहे

नीलकुसुम जलकुंभी के

फैले दिगंत में

टूट रहा हौसला

सभी संवादी स्वर का

नई संधियां पनप रही

है आदि-अंत  में


कितनी पीड़ा सही

बासुकी ने मंथन में

असली साक्षी तो

पर्वत मंदार रहा है।


बड़ी शिकायत है अबकी

विषधर सांपों को

मिलती नहीं सुगंध उन्हें

शीतल चंदन में

हाथ पांव के श्रम  को

पद्मश्री मिल जाती

मस्तक रहा उपेक्षित

इस पद के  वंदन में


फिर न मिलेगी वेगवती 

नदियां, सुरम्य वन

पुनर्नवा का सूखा लहू

पुकार रहा है।  


बनजारा मन

__________

सिर पर बादल

आंखों में कंदरा लिये

घूम रहा है जन्मों से

बंजारा मन ।


नींबू के फूलों की गंध

लगी बेहतर

उसे कमल से, तो इसमें 

उसका क्या दोष?

 जिन कलशों को गढ़ा

चाक पर पंडित ने

उन्हें प्रजापति के

कौशल पर है अब रोष


इसके आगे

मरी हुई भाषा मत बोल

दिया रात का

और भोर का तारा मन।


सदियों कुचली-दबी पीर

सिर उठा रही

नये समय की हीर

इबारत मिटा रही

मंदिर के भग्नावशेष की

अकथ कथा

धर्मांतरित विवशता

गर्दन कटा रही।


शमी वृक्ष की आग

सुलगने को आतुर

जाने कब बन जाय

स्वयं अंगारा मन।


पतझर बीता, नव

वसंत के रंग खिले

महुआ वन में

झरता हुआ अभंग मिले

अभिमंत्रित नारायण

अस्त्र जगे फिर से

श्रद्धा के आंगन में

उगते व्यंग मिले


टूटा-सा परिवार

जुड़ गया बिना कहे

घर का पुनर्पाठ

पढ़ता आवारा मन।


   ६

 लद गये दिन

___________

छोड़ कर लिखना सुनहरे गीत

आओ लिखें नारे  । 

 

  प्रेम के अनुबंध के दिन

लद गए हैं

शोर करने काफिले

संसद गए हैं


पी गए मीठी नदी का नीर

सब ये सिंधु खारे ।


फेंक सारी चिट्ठियों को

डस्टबिन में

रात के सब काम

होने लगे दिन में


ढूंढ मत इस मॉल में

देहात की पुरवा हवा रे!


प्रेम की, सौंदर्य की

बातें अजूबा

हो गई है चांदनी

रातें अजूबा


दौर यह ऐसा अजूबा है

कि तमसे सूर्य हारे ।

छोड़कर लिखना सुनहरे गीत

आओ लिखें नारे ।


एक उड़ान तुम्हारी  

_____________

एक उड़ान तुम्हारी, धरती से 

नभ की ऊंचाई तक

 एक कहानी मेरी भी है 

शोहरत से तनहाई तक।


चलन नहीं अब नाम 

बुजुर्गों का लेना त्योहारों पर 

उग आयीं अनजान वनस्पतियाँ 

मन की दीवारों पर 


तुम खुश हो लो, हाथ तुम्हारा 

पहुँचा दियासलाई तक 

अपना है संकल्प कि पहुँचूँ 

सागर की गहराई तक। 


श्वानों को हविष्य के दोने 

बलियाँ  अश्वों के हिस्से 

नव संकल्पों में न चलेंगे  

शुनःशेप वाले किस्से 


कौन छलाँग लगाएगा अब 

अरबों की अँगड़ाई तक 

व्यस्त उँगलियाँ अभी, फटी 

चादर की ही तुरपाई तक। 


कलमबंद आँधियाँ तोड़कर 

गयीं रात पीले पत्ते 

सुबह किन्तु निकले बच्चों के 

मुँह से 'सत्तमेव जत्ते '


एक जहान सियासत का है 

वैभव से कुड़माई तक 

एक सिवान हमारा भी है 

तुलसी की चौपाई तक। 



सूरज अपने पास बहुत है 

___________________

सोचो तो कोहरे- बादल से

सूरज अपने पास बहुत है

देखो  तो गणतंत्र दिवस में

अबकी  रंग-उजास बहुत है.  

टूटा मौन त्रिनेत्र रुद्र का

टूटी संधि ज्योति की तम से

दिग्भ्रम के कीड़े जहरीले

दो-दो हाथ कर रहे यम से

दूर भानु से, भानुमती का

कुनबा आज उदास बहुत है.


नहीं चलेगी ठकुरसुहाती

नहीं चलेगा ढंग पुराना

जन-धन सँवरेगा डिजिधन से

नयी दिशाएँ, नया तराना

काशी-करवट लेगा वह, जिस-

का काला इतिहास बहुत है.


यह पतझर है अग्रदूत जीवन

में आते नव वसंत का

यह उत्सव है विजयी विश्व

तिरंगेवाले प्राणवंत का

जीवन- ज्योति जलेगी जग में

आशा से  विश्वास बहुत है.



 कालिदास के लिए

_______________

नकली सूरज वाले

माढव्यों का दिन है

कालिदास के लिए

सृजन-पथ बड़ा कठिन है।


कमल झील पर कब्जा है

अब सेवारों का

मन्त्रों के घर पर

अधिकार हुआ नारों का

जब-तब निकला करता

अफवाहों का जिन है।


मरी धूप में धूम मचाती

सर्द हवाएं

घुटने मोड़ नहीं पाती हैं

वृद्ध दिशाएं

पात झरे नीमों के,

कीकर हुआ गझिन है।


कहने लगे, सुहाने हैं ये

ढोल दूर के

ठगे-ठगे से वन हैं

चंदन के, कपूर के

कितना बेकल आज

रसप्रिये, मन तुम बिन है!  


१०


यह दीवारों का जेवर है

_________________

आड़ी- तिरछी रेखाओं का

अपना मतलब, अपना स्वर है

पाटी पर भारी दीवारें कहतीं -

यह बच्चों का घर हैै। 


ये पुरखों की आदिम लिपियाँ

इनका अर्थ गुनो

ये भविष्य की आवाजें हैैं

कानोकान सुनो


पहली कड़ी सृजन की ये हैं

इन्हें मिटाना सख्त मना है

तारे -पेड़- नदी- जंगल- चिड़िया-

गुड़िया इनके अन्दर हैं। 


बच्चों की अनगढ़ी अजन्ता

जिस घर में उतरे

उस अकूत वैभव पर 

सौ- सौ यक्ष कुबेर मरे


खुले खजाने हैं बचपन के

लड़ी बुजुर्गों के जातक  की

नयी उमर की छोटी- सी

जागीर देख कुढ़ता गब्बर है। 


बीज- रूप ये नये कल्प की

नयी ऋचाओं के

भीमबैैठका में पनपी

हेमन्त लताओं के


यह किलकारी भित्तिचित्र की

फूलों की घाटी, देहरी  पर

पाणिनि या हुसैन से पूछो


यह दीवारों का जेवर है। 


दीवारों पर किसी बच्चे की चित्रकारी देखकर 


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परिचय

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बुद्धिनाथ मिश्र 

बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाएँ

जन्म: मई,1949 को मिथिलांचल में समस्तीपुर(बिहार) के देवधा गाँव में मैथिल ब्राह्मण परिवार में जन्म ।


शिक्षा: गाँव के मिडिल स्कूल और रेवतीपुर(गाज़ीपुर) की संस्कृत पाठशाला में प्रारम्भिक शिक्षा,वाराणसी के डीएवी कालेज और बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी के आर्ट्स कालेज में उच्च शिक्षा। एम.ए.(अंग्रेज़ी),एम.ए.(हिन्दी),‘यथार्थवाद और हिन्दी नवगीत’ प्रबंध पर पी.एच.डी. की उपाधि।


1966 से हिन्दी और मातृभाषा मैथिली के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में निबंध,कहानी,गीत,रिपोर्ताज़ आदि का नियमित प्रकाशन। ‘प्रभात वार्ता’ दैनिक में ‘साप्ताहिक कोना’, ‘सद्भावना दर्पण’ में ‘पुरैन पात’ और ‘सृजनगाथाडॉटकॉम’ पर ‘जाग मछन्दर गोरख आया’ स्तम्भ लेखन।


देश के शीर्षस्थ नवगीतकार और राजभाषा विशेषज्ञ।मधुर स्वर,खनकते शब्द,सुरीले बिम्बात्मक गीत,ऋजु व्यक्तित्व। राष्ट्रीय -अन्तरराष्ट्रीय काव्यमंचों के अग्रगण्य गीत-कवि।


1969 से आकाशवाणी और दूरदर्शन के सभी केन्द्रों पर काव्यपाठ, वार्ता,संगीत रूपकों का प्रसारण। बीबीसी,रेडियो मास्को आदि से भी काव्यपाठ,भेंटवार्ता प्रसारित।दूरदर्शन के राष्ट्रीय धारावाहिक ‘क्यों और कैसे?’ का पटकथा लेखन। वीनस कम्पनी से ‘काव्यमाला’ और ‘जाल फेंक रे मछेरे’ कैसेट,मैथिली संस्कार गीतों के दो ई.पी. रिकार्ड और संगीतबद्ध गीतों का कैसेट ‘अनन्या’। डीवीडी ‘राग लाया हूँ’ निर्माणाधीन।


सम्पादन: ‘जाल फेंक रे मछेरे’ ‘शिखरिणी’ ‘जाड़े में पहाड़’ गीत संग्रह,‘नोहर के नाहर’ ‘स्वयंप्रभ’ ‘स्वान्तः सुखाय’ ‘नवगीत दशक’ ‘विश्व हिन्दी दर्पण’ तथा सात मूर्धन्य कवियों के काव्य संकलनों का सम्पादन।


प्रकाशन: ‘अक्षत’ पत्रिका और ‘खबर इंडिया’ ई-पत्रिका में कर्तृत्व पर केन्द्रित विशेषांक और ‘बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता’ पुस्तक(सं. डॉ. अवनीश चौहान) प्रकाशित।


सम्मान: अन्तरराष्ट्रीय पूश्किन सम्मान, दुष्यन्त कुमार अलंकरण,परिवार सम्मान, निराला,दिनकर और बच्चन सम्मान।‘कविरत्न’ और ‘साहित्य सारस्वत’ उपाधि।


यात्रा: रूस,अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, नीदरलैंड, जापान, मारिशस, उज़बेकिस्तान, दक्षिण अफ्रीका, थाईलैंड, सिंगापुर,यूएई आदि अनेक देशों की साहित्यिक यात्रा। न्यूयार्क और जोहान्सबर्ग विश्व हिन्दी सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व। सार्क देशों में बेहद लोकप्रिय कवि।


सम्प्रति: ‘आज’ दैनिक में साहित्य और समाचार सम्पादन,यूको बैंक,हिन्दुस्तान कॉपर लि. और ऑयल एण्ड नेचुरल गैस कार्पोरेशन(ओएनजीसी) मुख्यालय में राजभाषा प्रभारी पद पर सेवा। सम्प्रति ‘स्वयंप्रभा’ और ‘अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन’ के अध्यक्ष।

देवधा हाउस , 5 /2  वसंत विहार एन्क्लेव ,देहरादून-248006 


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सोमवार, 26 सितंबर 2022

एक कुंतल मिठाई../ सीमा मधुरिमा

 लघुकथा


 गुड़िया दूसरी बार गर्भवती थी अभी 2 साल पहले ही उसने एक बेटी को जन्म दिया था... दर्द शुरू हुआ तो उसे हॉस्पिटल में एडमिट कराया गया .. चिकित्सकों की जद्दोजहद से अगले 2 घंटे बाद हाथ में एक सुंदर सा बेटा... गुड़िया के सास ससुर और माता पिता सभी बहुत खुश हुए... तुरंत पूरे अस्पताल में 15 किलो मिठाई बांटी गई... और गांव में संदेश दे दिया गया कि 1 कुंटल मिठाई कम से कम बांटी जाएगी... मुझसे रहा नहीं गया तो मैंने पूछ लिया कि क्या बड़ी बेटी के जन्म के समय भी ऐसे ही मिठाईयां बांटी गयी थीं ... उत्तर गुड़िया की मां ने दिया .. "नहीं नहीं आप गलत समझ रही हैं .. यह मिठाई बेटा पैदा होने की खुशी में नहीं है... यह मिठाई उस डर के खत्म होने की खुशी में है जो गुड़िया के गर्भ के समय से ही मन में चल रहा था की कहीं इस बार भी बेटी ना हो जाए "

 


 सीमा मधुरिमा

लखनऊ

शनिवार, 24 सितंबर 2022

मोक्ष की धरती गया / मुकेश प्रत्यूष

 मोक्ष की धरती गया  / मुकेश प्रत्यूष 


सीता कुंड, विष्णुपद, अक्षयवट   में पिंडदान करने के बाद  शाम को दक्षिण बिहार विश्विद्यालय के अध्यापक, कवि,  अनुजवत कर्मानंद आर्य से बात करते समय अपने संस्मरणों की किताब - मोक्ष की धरती पर जन्म लिया है मैंने  - के इस अंश की याद  आई। 


पौराणिक काल से गया हिन्‍दुओं के मोक्ष की धरती रही है। हिन्‍दू  जन्‍म कहीं ले,  उसकी मृत्‍यु  कहीं हों   क्‍योंकि इन दोंनों पर उसका अधिकार नहीं है लेकिन जानता  है इस जीवनचक्र, यदि वास्‍तव में होता है, तो उससे मुक्ति उसे  गया में ही मिलेगी । कभी-न-कभी उसका कोई-न-कोई   वंशज यहां आयेगा और उसका नाम लेकर यहीं कहीं उसका तर्पण करेगा और तब उसकी जीवन-यात्रा पूरी होगी ।  जीवन-चक्र समाप्‍त होगा। 


इसका मतलब यह नहीं कि गया केवल एक धार्मिक या कर्मकांडी शहर है । दरअसल गया दो भागों में बंटा हुआ है अंदर गया यानी पुराना गया और नया गया। कहें तो  धार्मिक गया और लौकिक गया।  धार्मिक भाग गया के दक्षिण में है जहां बहुत से मंदिर, तीर्थ स्‍थान, पुराने बाजार, संकरी गलियां, गयावाल पंडों, पुजारियों और कर्मकांडियों के घर-बार हैं।  हम इसे अंदर गया के नाम से जानते हैं  और हिन्‍दू धर्मावलंबी इसे  आदर से गयाजी कहते हैं। 


लौकिक गया क्षेत्र का विकास मुस्लिम तथा ब्रिटिश शासनकाल में हुआ । मुसलमान शासकों ने इसका नाम अल्‍लाहाबाद रखा था । इस  नाम का एक मुहल्‍ला आज भी है तो ला नाम के एक कलक्‍टर ने साहेबगंज नामका मुहल्‍ला बसाया।  दोनों गया के  बीच में रमना नाम का एक मैदान हुआ करता था जो आज एक व्‍यस्‍त बाजार है और तिलकुट-लाई के लिए प्रसिद्ध है। इससे सटा ला रोड आज भी मौजूद है विकास क्रम में अंदर गया और गया मिलकर एक हो गए हैं।  एक तीसरा गया भी है जो बुद्धगया या बोधगया के नाम से प्रसिद्ध है।  बौद्धधर्म की जन्‍मसथली होने के कारण यह ईसा की पांचवी शदी से ही मशहूर है तथा देश-विदेश  के  बौद्ध धर्मालंबियों की आस्‍था और आराधना का केन्‍द्र है।  ।  गया आकर  जहां हिन्दु तीर्थ यात्री मुक्ति की कामना करते हैं वहीं  बौद्ध - धर्म के अनुयायी शांति की तलाश। मुक्ति और शांति क्‍या इन दोनों में कोई भेद है। इस प्रकार कहें तो गया हिन्दुओं और बौद्धों की आस्थाओं का मिलन स्थल है। 


गया जिले के उत्‍तर में आर्य तथा दक्षिण में जनजातीय संस्‍कृति थी। जनजाति बहुल राज्‍य झारखंड, जो पहले  बिहार का अविभाज्‍य अंग था,  गया के दक्षिण में है। 


फल्‍गु नदी गया शहर और गया मुफ्फसिल को बांटती है। मोहाना और निरंजना नदियों की धाराएं फल्गु में आकर मिलती हैं। इस नदी में  शायद ही कभी पानी मिलता है और इसमें शायद ही कभी  पानी नही मिलता है दोनों ही बातें सत्‍य हैं। दरअसल फल्‍गू अंत:सलिला है जल का प्रवाह तो है लेकिन नदी की सतह पर नहीं। पानी की जरूरत है तो ऊपर से थोड़ा बालू हटाइये पानी मिल जाएगा। छठ के दौरान हम प्राय: यह काम करते थे बालू हटा कर काम के लायक पानी से भरा हुआ एक गढा बना लेते थे शायद लोग अब भी यही करते हों।  कपड़ा धोने  के लिए कपड़ा धोने वाले भी यही किया करते हैं। गया शहर को खतरा हो जाए फल्‍गू में ऐसी बाढ़ की कल्‍पना भी नहीं की जा सकती। 


वैज्ञानिक तथ्‍य जो भी हों, हिन्दू मानस फल्गु के अंत:सलिला होने का कारण इसी पिंडदान की प्रक्रिया से जोड़कर देखता है।  लोकश्रुति है कि दशरथ के निधन के बाद जब राम, सीता और लक्ष्‍मण के साथ श्राद्ध करने गया आए तो राम-लक्ष्मण व्यवस्था करने  चले गए।  सीता फल्गु के किनारे बैठ कर प्रतीक्षा कर रही थी तभी दशरथ की आत्मा ने उनसे पानी देने को कहा क्योंकि उन्हें जोरों की प्यास लगी थी। सीता ने उनकी इच्छा को आज्ञा मानकर नदी, गाय तथा पास में श्राद्ध करवाने के लिए बैठे घाट के एक पुरोहित को साक्षी बनाकर उन्हें जल अर्पित कर दिया। जब राम-लक्ष्मण लौटे तो उनके साथ दान की सामग्री को देखकर तीनों साक्षियों के मन डोल गया और उन्होंने इस प्रकार की किसी घटना से इंकार कर दिया तो सीता ने फल्गु को अंत:सलिला होने का, गाय को गंदगी भी खाने का तथा उस पुरोहित  को दरिद्र होने का श्राप दे दिया। इसमें कितनी सचाई है नहीं कहा जा सकता। 


समय-समय पर वैष्णव धर्माचार्यों का गया आगमन के कारण गया के प्रति हिन्दुओं का ध्यान आकृष्ट हुआ। शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, वल्लभाचार्य, चैतन्य महाप्रभु की यात्राओं का ही यह परिणाम था कि चीनी यात्री फाहियान ने अपनी यात्रा के दौरान सन् 409 ई. में जिस क्षेत्र को मुर्दा और उजाड़ कहा था या ह्वेनसांग ने सन् 607 ई. में जिसे केवल एक हजार ब्राह्मणों की बस्ती घोषित किया था वह एक घनी आबादी वाले शहर में परिवर्तित हो गया।  जैन तथा बौद्ध  धर्म के विभिन्न प्रचारकों, अरबी विद्वान अलबेरुनी, ईरानी यात्री गुरदेजी, मैथिल कवि  विद्यापति के गया प्रवास का असर भी इस शहर के विकास पर पड़ा है । 


अन्‍य धार्मिक शहरों की तरह गया में भी मुख्‍य रूप से  देवी-देवताओं के प्रतीकों की पूजा की जाती है। जैसे विष्‍णुपद में काले पत्‍थर पर अंकित विष्‍णु के चरण की, मंगला गौरी में काले पत्‍थर के दो गोल पिंड की,  जिन्‍हें पुजारी भगवान शिव की प्रथम पत्‍नी सती के दोनों स्‍तनों का प्रतीक बताते हैं।  माना जाता है कि जब भगवान विष्‍णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को विभाजित किया था तो उनके दोनों स्‍तन यहीं पर आकर गिरे थे।  गया शहर में ब्रह्मयोनी, रामशिला, प्रेतशिला जैसे तीन पहाड़ तथा मुरली तथा रामवेदी जैसी पहाड़ियां असंख्य मंदिर जैसे - विष्पुपद, गयाश्री, मंगलागौरी, परपितामह, पितामहेश्वर, शीतलास्थान, बंगलास्थान, दु:खहरणी, बागेश्वरी, कृष्ण द्वारका, मार्कण्डेय महादेव तालाब जैसे सूर्य कुंड, रामसागर, वैतरणी, ब्रह्मसरोवर, रामकुंड, सीताकुंड, गोदावरी, उत्तरमानस (जिनमें अधिकांश पाल वंश के पांचवे शासक नारायण पाल के समय बने थे और आज अपनी अंतिम घड़ियां गिन रहे) हैं। गया,  गयावाल पंडों की यादाश्त, तंग मुड़ती-जुड़ती गलियों, पसरी गंदगी और जानलेवा गर्मी के लिए भी जाना जाता है ।  


कहते हैं गया गय के नाम पर बसा है । गय नाम के कई व्यक्तियों का जिक्र वेदों, पुराणों, महाभारत, रामायण, जैन तथा बौद्ध साहित्य और मथिकों  में मिलता है । कुछ पढ़ी-सुनी बातों की चर्चा करता हूं -


भागवत पुराण (9.1.41) तथा मत्स्य पुराण (12.17) के अनुसार गय इला तथा सुद्युम्न का एक पुत्र था, जो पूर्वी राज्य का राजा और दक्षिणापथ का अधिपति था उसकी  राजधानी गया थी । उसके यज्ञ तथा दान से प्रभावित होकर देवताओं ने गयपुरी की स्थापना की थी । 


भागवत पुराण (4.13.17)  में एक और गय की चर्चा है जो उल्मुक तथा पुष्पकरिणी का   पुत्र था।


भागवत पुराण (5.15.6-14, 10.16.41), वायु पुराण (33.57) तथा विष्णु पुराण (2.1.38) के अनुसार गया नक्त तथा द्रुति का एक राजर्षि पुत्र था जिसकी पत्‍नी का नाम गयन्ती तथा पुत्र का नाम  चित्ररथ था। गया इसकी राजधानी थी । 


गौतम बुद्ध के भी गय नामक एक ऋषि के आश्रम में जाने की बात कही जाती है । 


पहले गया नामक एक नदी था और वायु पुराण (3.16) के  अनुसार वह  गंगा से ज्यादा पवित्र था ।  संभव है फल्गु नदी ही पहले गया के नाम से जाना जाता हो और उसके किनारे बसे होने के कारण इस शहर को गया नाम दिया गया हो । 


वायु पुराण (105.5.13) के अनुसार गय नामक असुर त्रिपुरासुर का पुत्र था । यह 125 योजन लम्बा तथा 60 योजन चौड़ा था । यह विष्णुभक्त तथा वैष्णव था तथा इसने वायुपुराण (106.5) के अनुसार कोलाहल पर्वत पर एक हजार वर्षों तक तप करके   विष्णु से यह वरदान प्राप्त किया था कि उसके दर्शन मात्र से लोगों को स्वर्ग में स्थान मिल जाए ।  वरदान प्राप्ति के बाद उसने घूम-घूम कर लोगों को दर्शन देना आरंभ कर दिया । इससे घबराकर देवताओं ने ब्रह्मा तथा यम की सहायता से इसे मारने की योजना बनाई और यज्ञ के लिए उससे उसी का  शरीर  मांगा । इसे  उसने स्वीकार कर लिया । उसके शरीर को अचल करने के लिए देवताओं ने उसे एक शिला से दबा दिया और स्वयं उस शिला  पर बैठ गए किन्तु उसके शरीर को फिर भी हिलते देख  स्वयं विष्णु भी उस शिला पर आकर  बैठ गये  तब अपनी मृत्यु निश्चित जानकर गयासुर ने यह वरदान मांगा कि आप सभी देवता इसी शिला पर बैठे रहें तथा जो भी इस स्थान पर आकर श्राद्ध या पिण्डदान करे उसे ब्रह्मलोक की प्राप्ति हो । वायुपुराण (105.4.46; 106; 108.8; 109.13) के अनुसार इसी  स्थान को गयातीर्थ कहा गया ।  गयासुर को स्थिर करने के लिए उसके शिर पर जो पर्वत रखा गया था वह एक कोस का था उसे वायुपुराण (105.29) के अनुसार गयाशिर कहा गया तथा इसी पुराण (105.31) के अनुसार यहां श्राद्ध करने से 100 पीढियों को मुक्ति मिलती है। 


वायु पुराण (112.60) के अनुसार  गयागय, गयादित्य, गायत्री, गदाधर, गया और गयासुर छह मोक्षदायक हैं. माघ, चैत्र तथा महालया के दिनों में यहां हिन्दू विशेष रुप से श्राद्ध  कर्म करने आते हैं. हालांकि उत्तर वैदिक काल में 365 जगहों पर होने वाला पिंडदान अब महज 45 जगहों पर होता है वह भी मुख्य रुप से गया शहर में ही.


भागवत पुराण (10.79.11) के अनुसार बलराम ने यहां पितरों का पिंडदान किया था तो वायु पुराण (85.19) तथा मत्स्य पुराण (12.17) के अनुसार यहां परशुराम ने श्राद्ध  किया था. राम, लक्ष्मण तथा सीता द्वारा भी यहां आकर अपने पूर्वजों का पिंडदान करने की बात कही जाती है. 


महाभारत वनपर्व (95.18-29) के अनुसार अमूर्तरथ के  एक पुत्र का नाम भी गया था जो प्रतिदिन एक लाख साठ हजार गाय, दस हजार घोड़े और एक लाख मुद्राएं दान करता था । उसने एक विशाल यज्ञ भी किया था तथा सौ वर्षों तक केवल उस यज्ञ से बचे हुए अन्न का भोजन किया था ।


ऋगवेद की दो ऋचाओं (10.63.17 तथा 10.64.17) तथा ऐतरेय ब्राह्मण के एक मंत्र (5.2.12) में भी गया नाम के व्यक्ति का उल्लेख है ।


अथर्ववेद (1.14.1) में गया नाम के एक राक्षस की बात कही गई है । 


जैन लेखकों ने समुद्रविजय तथा उसके पुत्र गया की चर्चा अपनी किताबों  में की है ।


हिन्दुओं के बीच ऐसी मान्यता है कि गया में  तीन पखवारे तक रहने से सात पीढ़ी को मोक्ष मिल जाती है. 


सच क्‍या है कोई नहीं जानता सिवा इसके कि समकालीन दुनिया के साथ गया कदमताल कर रहा है।

भाषा बोलियों की निर्मम हत्या कर देती है ।


भाषा बोलियों की निर्मम हत्या कर देती है ।


बचपन मे मेरी बोली के हजारों शब्द बुजुर्गों ने दिये थे जिन्हे मैं आज भूल चुका हूँ । भूलने का कारण हिंदी भाषा का बोली मे प्रयोग करना है । बस एक शब्द जेहन मे याद आता है कि बचपन में रेशेदार सब्जी को सब लोग तिवण कहा करते थे । आज मेरे गांव और आसपास एक भी आदमी मुझे तिवण कहता नही मिला है । 

आप भी बताइये आपकी बोली के कितने शब्द मार दिये गये है ?

बाकि यहां कहावत है.......कोस कोस पर पानी बदले चार कोस पर वाणी !

भारत विविध भाषा और बोलियों का देश है । मात्र हिंदी को ही भारतीयता प्रतिक बना देना अन्य भाषाओं के साथ अन्याय है । आप अपेक्षा रखते हो कि सब हिंदी बोले क्योंकि आप हिंदी बोलते हो ? यह गलत विचार है । वह जमाना गया जब चंद प्रभावशाली लोग हिंदी का गुणगान सिर्फ इसलिए करते थे ताकि अपने बच्चों को फर्राटेदार अंग्रेज़ी सिखा कर देश मे प्रभावशाली स्थित मे ला सके ।

आप तमिल, तेलगु, कन्नड़, मराठी, असमिया को क्या देश की भाषा नही मानते ? बात अगर परस्पर संवाद की है तो क्या आप इन भाषाओं को सीखना नही चाहिए ? 

क्या आप सिर्फ सिखाना जानते है ? आप सीखना नही जानते ? 

देश की मिट्टी से उपजी हर बोली, भाषा हमारी है इनमे कोई भी श्रेष्ठ और हीन नही है । जब आप यह मानकर चलेगे तो भाषाई विवाद स्वंय खत्म हो जायेगें ।

वरना बात तुम हिंदी की करते हो मगर बिहार,छत्तीसगढ़, झारखण्ड, या दक्षिण भारत का मजदूर वर्ग एनसीआर, हरियाणा, राजस्थान मे अगर आता है तो स्थानीय लोग उसकी भाषा बोली को लेकर तरह तरह के तंज कसते है उन्हे हेय दृष्टी से देखती है । 

तब तुम हिंदी और भारतीय भाषाओं का अपमान नही करते ?

#हरेन्द्र_प्रजापति

तेरे दामन में बता..मौत से ज्य़ादा क्या है..

 .! 


०आज गीतकार रामावतार त्यागी की पुण्यतिथि है

@ अरविंद सिंह


''एक हसरत थी कि आँचल का मुझे प्यार मिले

मैने मंज़िल को तलाशा मुझे बाज़ार मिले

ज़िन्दगी और बता तेरा इरादा क्या है... !''


'जिंदगी और तूफान'(1975) फिल्म के लिए जब गायक मुकेश ने गीतकार रामावतार त्यागी की इस अमर रचना को स्वर दिया तो मानों जिंदगी और उसके मर्मस्पर्शी दर्शन को लेकर रामावतार त्यागी के अतीत के पन्ने खुलने लगें हों. बचपन की हसरतों को लेकर जो तड़प और दर्द उन्होंने सहन किया, मानों इन शब्दों में वे मुखरित होने लगते हैं. जीवन के यथार्थ और उसके गुढ़ दर्शन को बताने लगते हैं. और यह अनुभूति उनकी उधार की नहीं, बल्कि खुद की भोगी और जी गयी लगती है. विरह और वेदना की ज़मीन पर तपायी और खपायी गयी होती है.

किसी रचनाकार की, अपने भोगे और जीये गये यथार्थ व उसकी पीड़ा की अनुभूति का दर्शन उसकी रचनाधर्मिता में देखने को मिलती है. आदमी अपने परिस्थितियों का उत्पाद होता है. और यही परिस्थितियां ही उसे गढ़ती और बनातीं हैं.

जब रामावतार त्यागी के भीतर का रचनाकार यह कहता है कि-

''मुझको पैदा किया संसार में दो लाशों ने और बरबाद किया क़ौम के अय्याशों ने/ तेरे दामन में बता मौत से ज्य़ादा क्या.."

 तो समाज और उसके रिश्ते-नातों और कौ़मी फिरकापरस्ती को लेकर एक आक्रोश जनित भाव दिखाई देते हैं.दूसरे ही पल वहीं आत्मविश्वास से लबरेज एक अदम्य साहस का गीतकार भी दिखता है जो जीवन की अंतिम यात्रा मौत को भी चुनौती देता दिखाई देता है. आशा- और नैराश्य के विपरीत भावों और अनुभूतियों का यह कवि, गीतकार जब मुरादाबाद के छोटे से हिस्से संभल (जो अब जनपद है)के एक छोटे से गाँव से निकल कर संघर्ष पथ पर चलता है तो कदम-दर कदम कठोर चुनौतियों से सामना होता है. और इन्हीं से दो-दो हाथ करते हुए देश की राजधानी दिल्ली पहुँच जाता है. दिल्ली विश्वविद्यालय से परास्नातक करते हुए, जीवन की यथार्थ सच्चाईयां इस युवा रामावतार को गढ़ती और मांजती हैं. उसके भीतर का कलमकार उसे वहां पहुंचने का मार्ग प्रशस्त करता है जहाँ प्रकृति ने निर्धारण किया था. टाइम्स ऑफ इंडिया के लिए क्राइम रिपोर्टर के रूप में सेवाएं देने लगते हैं.यह अपराध और इसके मनोविज्ञान को समझने और महसूसने का अवसर देते हैं.

उनकी भाषा और शैली की विशिष्टता उन्हें एक नई पहचान देती है. और हिंदी के कलमकार की यह पहचान उन्हें देश की सबसे ताकतवर महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के करीब पहुंचा देती है. परिणाम यह होता है कि स्वयं इंदिरा गांधी अपने दोनों बच्चों राजीव गांधी और संजय गांधी को हिंदी सिखाने के लिए रामावतार त्यागी से निवेदन करती हैं. और वे राजीव और संजय को हिंदी में पारंगत करते हैं.15 से अधिक किताबें लिखने वाले रामावतार त्यागी के रचना संसार में कविता और गीत के साथ उपन्यास जैसी विधाओं में विपुल साहित्य समाया हुआ है. और यह साहित्य निरा कल्पनाओं पर आधारित भर नहीं है बल्कि व्यवहारिक धरातल पर अनुभूति के रस से सिक्त है. हिंदी गीत को नई ऊंचाई देने वाले इस कवि की सराहना रामधारी सिंह दिनकर से लगायत अनेक तत्कालीन रचनाकारों ने मुक्तकंठ से किया था. 

'नया खून, 'मैं दिल्ली हूँ', 'आठवां स्वर', 'गीत सप्तक-इक्कीस गीत', 'गुलाब और बबूल वन', 'राष्ट्रीय एकता की कहानी' ,जैसी काव्य संकलन के साथ 'समाधान', 'चरित्रहीन के पत्र', 'दिल्ली जो एक शहर था', 'राम झरोखा' जैसी गद्य रचनाओं ने उनके भाव और विचार को बहुकोणीय तरीके से समाज के मानस पर अमिट छाप छोडी. दर्द का यह गीतकार जब जज़्बात के संग दौलत को खेलते हुए देखता है तो मुखर विरोध कर बैठता है. उसका जनपक्षीय चरित्र उसे विसंगतियों और रूढियों से लड़ने के लिए कागज के कुरूक्षेत्र में उतार देता है. और एक ऐसे रामावतार त्यागी को गढ़ने लगता है जो युग पीड़ा और शोषण का स्थायी विपक्ष और ज़बान बन जाता है. क्योंकि उनको इस बात का अदम्य विश्वास था कि आदमी चाहे तो तकदीर बदल सकता है, पूरी दुनिया की वो तस्वीर बदल सकता है.बस आदमी सोच ले कि उसका इरादा क्या है....! 

(लेखक शार्प रिपोर्टर का संपादक है)

शुक्रवार, 23 सितंबर 2022

शब्द निष्ठा सम्मान-2023* अजमेर



*शब्द निष्ठा सम्मान-2023* अजमेर 



आचार्य रत्न लाल विद्यानुग स्मृति अखिल भारतीय स्तर एवं स्थानीय स्तर पर शब्द निष्ठा प्रतियोगिता के अन्तर्गत शब्द निष्ठा सम्मान-2023 हेतु प्रविष्टियाँ आमंत्रित की जाती हैं। प्रविष्टि हेतु किसी प्रकार का शुल्क नहीं है।


*प्रतियोगिता के लिए नियम व शर्तें* 

अखिल भारतीय स्तर पर:

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वर्ष 2015 से आरम्भ हुई शब्द निष्ठा प्रतियोगिता के स्वरूप में इस वर्ष से महत्वपूर्ण परिवर्तन किए जा रहे हैं।

गत 8 वर्षों तक प्रतियोगिता हेतु अलग-अलग विधाओं में रचनाएँ आमंत्रित की जाती रही हैं लेकिन अब यह सिलसिला समाप्त कर प्रकाशित पुस्तकों पर ही शब्द निष्ठा सम्मान निम्नानुसार देय होंगे:

1.शब्द निष्ठा कहानी संग्रह सम्मान-2023

2.शब्द निष्ठा कविता संग्रह सम्मान-2023 

3.शब्द निष्ठा उपन्यास सम्मान-2023 

4.शब्द निष्ठा आत्मकथा सम्मान-2023 

उक्त चारों सम्मान हेतु गत तीन वर्षों अर्थात 2020/2021/ 2022 में प्रकाशित पुस्तक की सम्बन्धित विधा में लेखक को केवल एक प्रति भेजनी होगी। 

उक्त चारों विधाओं में प्रत्येक विधा के लिए एक विजेता का चयन किया जाएगा तथा सम्मान की राशि प्रत्येक विजेता के लिए ₹ 5000 होगी। 

पुस्तक प्राप्त करने की अन्तिम तिथि 14 जनवरी, 2023 है।  

परिणाम घोषित करने के पश्चात् *कला रत्न भवन, अजमेर* में समारोह भी आयोजित किया जाएगा जिसकी तिथि बाद में घोषित की जाएगी। समारोह में सम्मान राशि के साथ प्रशस्ति पत्र, स्मृति चिह्न एवं संस्थान द्वारा प्रकाशित पुस्तकें भी भेंट की जाएंगी।

नोट- जो लेखक संयोजक को उक्त वर्षों में पुस्तकें समीक्षार्थ/अवलोकनार्थ भेज चुके हैं तथा वर्ष 2023 में प्रेषित की गई पुस्तक की विधा में प्रतियोगिता में सम्भागी बनना चाहते हैं, उन्हें पुनः पुस्तक भेजने की आवश्यकता नहीं है। वे प्रतियोगिता में भाग लेने की सहमति वाट्सएप पर भेज सकते हैं। चूँकि अब प्रतियोगिता प्रकाशित पुस्तकों पर ही होनी है अतः गत वर्ष तक विजेता रहे लेखक भी इसमें भाग ले सकते हैं लेकिन एक बार विजेता होने पर भविष्य में वे उसी विधा में भाग नहीं ले सकेंगे। 

 

स्थानीय स्तर पर:

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स्थानीय स्तर पर राजकीय अथवा गैर राजकीय सीनियर विद्यालयों में विद्यालय के प्रधानाचार्य महोदय के आमंत्रण/सहमति पर विद्यार्थियों में हिन्दी के प्रति रुचि उत्पन्न करने के उद्देश्य से विद्यालय में जाकर छात्र-छात्राओं की मौखिक परीक्षा ली जाएगी जिसमें हिन्दी भाषा से सम्बन्धित प्रश्न पूछे जाएंगे। सफल विद्यार्थियों को मौके पर ही नकद भुगतान किया जाएगा जिससे विद्यार्थी भविष्य में इस तरह की प्रतियोगिताओं के लिए प्रेरित हो सकेंगे, साथ ही उनमें वर्तनी की अशुद्धियों पर समुचित ध्यान देने की ललक पैदा हो सकेगी। सभी विद्यार्थियों को संस्कार बढ़ाने वाली पुस्तकें तथा विद्यालय के पुस्तकालय के लिए भी पुस्तकें भेंट की जाएंगी। 


अखिल भारतीय स्तर पर होने वाली प्रतियोगिता हेतु पुस्तक नीचे लिखे पते पर रजिस्टर्ड डाक से अथवा कूरियर से भेजें तथा स्थानीय स्तर पर प्रधानाचार्य निम्न मोबाइल नम्बर पर सम्पर्क कर सकते हैं:

*डाॅ. अखिलेश पालरिया*

(सेवानिवृत्त प्रमुख मुख्य चिकित्सा अधिकारी)

*संयोजक* 

*शब्द निष्ठा सम्मान* 

 पता:

*कला रत्न भवन,*

*पाल बीसला,*

*भरोसा अगरबत्ती ऑफिस के पास, (निकट राजा साइकिल सर्कल, फ्रेजर रोड)*

*अजमेर (राज.) 305007*


मोबाइल: 9610540526

हिंदी संस्कृति का स्वप्न / शंभुनाथ

 संपादकीय - वागर्थ    सितंबर-2022





हिंदी एक गंवारू बोली है, यह अग्रवाल, कायस्थ, खत्री जातियों की भाषा थी, यह एक सांप्रदायिक निर्मिति है- 19 वीं सदी से यूरोपीय विद्वान इस तरह की बातें कहते आए हैं। आमतौर पर यूरोपीय विद्वता ही, जिसका एक हिस्सा औपनिवेशिक मिजाज का है, हिंदी क्षेत्र के कई बुद्धिजीवियों का वैचारिक पोषण करती रही है। इन सबने कभी नहीं खोजा कि अंग्रेजी भाषा में कैसे ईसाइयत और सभ्यता को पर्याय बताया गया या दूसरी भाषाओं में किस प्रकार सांप्रदायिक तत्व हैं। उन्हें हिंदी सांप्रदायिक लगी, जबकि फोर्ट विलियम कॉलेज में गिलक्राइस्ट ने सर्वप्रथम नागरी लिपि में हिंदी ग्रंथ तैयार कराए थे। हिंदी के बारे में बेसिर-पैर की सनसनीखेज बातें इधर पुनरुत्थानवादियों और एलीट सेकुलरवादियों दोनों की तरफ से हो रही हैं, जो इनकी बौद्धिक थकान का लक्षण है।


अंग्रेजीदां बुद्धिजीवी बौद्धिक उपनिवेशन के शिकार हैं

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अंग्रेजों ने 1857 की घटना के बाद सामाजिक सुधार में हाथ डालना बंद कर दिया था। वे अब धार्मिक कूपमंडूकता और भेदभाव को अपने मुख्य सांस्कृतिक हथियार बनाने में लग गए थे। कूपमंडूकता जितनी ज्यादा होगी, भिन्नता बनाना उतना आसान होगा। 


19वीं सदी में उर्दू और हिंदी दो भिन्न सेकुलर भाषाओं के रूप में विकास कर रही थीं। ये स्पष्ट रूप से दो गौरवशाली भाषाएं हैं, भले इनमें एक संबंध हो। उपनिवेशकों ने इनके सह-अस्तित्व को मान्यता न देकर भाषा के आधार पर  सांप्रदायिक विभाजन किया। इसकी शुरुआत विलियम याटेस के व्याकरण ‘इंट्रोडक्शन टु हिंदुस्तानी लैंग्वेज’ (1827) से हो चुकी थी, ‘हिंदुस्तानी मुस्लिम लोगों की भाषा है, जबकि हिंदी हिंदुओं की भाषा है।’ यही बात फ्रेंच विद्वान गार्सा-द-तासी (1794-1878) ने कही, ‘हिंदी में हिंदू धर्म का आभास है- वह हिंदू धर्म, जिसके मूल में बुतपरस्ती और इसके आनुषंगिक विधान हैं।... मैं सैयद अहमद खां जैसे विख्यात मुसलमान विद्वान की तारीफ में और ज्यादा कुछ कहना नहीं चाहता। उर्दू भाषा और मुसलमानों से मेरा जो लगाव है, वह कोई छिपी बात नहीं है।... इस वक्त हिंदी की हैसियत एक बोली की-सी रह गई है जो हर गांव में अलग-अलग बोली जाती है।’ सैयद अहमद खां सुधारवादी होते हुए भी भाषा के मुद्दे पर सांप्रदायिक थे। वे हिंदी को ‘गंवारू बोली’ कहते थे। हिंदी से संबंधित यह औपनिवेशिक सोच आज भी कई अंग्रेजीदां बुद्धिजीवी ढो रहे हैं। उनकी दृष्टि से हिंदी एक हीन, कृत्रिम और सांप्रदायिक भाषा है। 


क्या हिंदी क्षेत्र में हिंदी राष्ट्रवाद जैसी कोई चीज कभी थी या आज है, जिस तरह बांग्ला और तमिल राष्ट्रवाद 19वीं सदी से अस्तित्व में है? देश की कौन-सी भाषा अंध-राष्ट्रवादी और सांप्रदायिक तत्वों से सर्वथा मुक्त रही है? कुछ अंग्रेजीदां बुद्धिजीवियों और उनके पिछलग्गुओं ने हिंदी राष्ट्रवाद की कल्पना करके नागरी लिपि में हिंदी और हिंदी साहित्य को एक अन-ऐतिहासिक और सांप्रदायिक घटना के तौर पर देखना शुरू कर दिया। वे कुछ नया नहीं कहते, बल्कि वे गार्सा-द-तासी और इनके पश्चिमी वंशज क्रिस्टोफर किंग, सैंड्रिया फ्रीटैग आदि अनुसंधानकर्ताओं की ही जेरॉक्स कॉपी हैं। उनपर उस सबाल्टर्नवाद का भी असर है जो हिंदी के संघर्ष से आंखें मूंदकर ‘राष्ट्र’ की तरह खड़ी बोली हिंदी को भी खलनायक के रूप में देखने की दृष्टि देता है। आखिरकार प्रेमचंद उर्दू के साथ हिंदी में क्यों लिखने लगे?


कहा जा सकता है कि हिंदी को ‘हिंदी राष्ट्रवाद’ कहनेवाले प्रेमचंद के पोते आलोक राय और ‘हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान’ कहने वाले भारतेंदुयुगीन प्रताप नारायण मिश्र एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। फर्क सिर्फ यह है कि एक का मुंह पश्चिम की तरफ है, जबकि दूसरे का अतीत की तरफ था।


भारतेंदु (1850-1885) ने खड़ी बोली हिंदी को शहर में रहने वालों की मातृभाषा और आधुनिक साहित्य की भाषा बनते देखा था, ‘घर की बोलचाल की भाषा हिंदी है, यह तो हम नहीं कह सकते, पर हां यह कह सकते हैं कि इसी पश्चिमोत्तर देश में कई नगर ऐसे हैं जहां यही खड़ी बोली मातृभाषा है।’ उन्होंने नई चाल में ढली हिंदी को उसी प्रकार विकसित किया, जिस तरह 19वीं सदी में बांग्ला, मराठी, गुजराती, तमिल, मलयालम आदि भाषाएं भी नई राष्ट्रीय चाल में ढल रही थीं। भारतेंदु के चित्त की समावेशिकता देखिए, ‘मैं संस्कृत, हिंदी और उर्दू कवि हूँ।’ उन्होंने हंटर कमीशन की गवाही (1882) में बेधड़क अपना यह परिचय दिया था। यह हिंदी उदारवाद है या सांप्रदायिकता? हिंदी क्षेत्र के बुद्धिजीवियों में सबसे पहले सुधीरचंद्र, फिर वसुधा डालमिया ने भारतेंदु को सांप्रदायिक कहना शुरू किया जो एक ट्रेंड बन गया। इसे समाज विज्ञान का बौद्धिक उपनिवेशन कहा जाएगा।


हिंदी उदारवाद के कुछ उदाहरण

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हिंदी उदारवाद का एक लक्षण धार्मिक होते हुए भी धार्मिक पाखंडों की बुद्धिपरक आलोचना है। भारतेंदु मंडल के एक प्रमुख लेखक राधाचरण गोस्वामी (1859-1925) को संस्कृत की शिक्षा मिली थी। उन्होंने अपने प्रहसनों ‘तन मन धन श्री गोसाईं जी को अर्पण’ तथा ‘बूढ़े मुँह मुहासे’ में मथुरा-वृंदावन के धार्मिक पाखंडों पर निर्मम प्रहार किया। वे विधवा पुनर्विवाह के समर्थक थे। उन्होंने हिंदी क्षेत्र के रूढ़िवादी सामाजिक बंधनों के साथ-साथ साम्राज्यवाद पर भी प्रहार किया, ‘न विलायत जाने की रोक उठी। न जाति-पांति का झगड़ा मिटा। न हमारे जीते जी प्रेस एक्ट उठा। न लाइसेंस-टैक्स का मुंह काला हुआ।’ अपनी एक फैंटेसी ‘यमलोक की यात्रा’ में यह पूछने पर कि ‘गोदान किया है’, वे लिखते हैं,‘यदि गौ की पूंछ पकड़ कर पार उतर जाते हैं तो क्या बैल से नहीं उतर सकते। जब बैल से उतर सकते हैं तो कुत्ते ने क्या चोरी की?’ फिर राधाचरण टिप्पणी करते हैं, ‘यहां अंधेर नगरी और हिंदुस्तानी घिसघिस है, विवेक-विचार कुछ नहीं।’ वे हिंदू-मुसलमान के बारे में कहते हैं, ‘ऐसा न हो कि दोनों ट्रेनें लड़ जाएं या दोनों कुएं में गिरें।’ (‘भारतेंदु’ पत्र)। वे हिंदू धर्म में कूपमंडूकता की जगह विवेक-विचार लाना चाहते थे। उन्होंने हंटर कमीशन के पास हिंदी के प्रश्न पर अपना जो मेमोरंडम भेजा, उसपर उन्होंने 25 हजार लोगों के हस्ताक्षर करवाए थे। उस जमाने में यह साधारण संख्या नहीं है।


एक उदाहरण श्रद्धाराम फिल्लौरी (1837-1881) का है। उन्होंने हिंदुओं की प्रसिद्ध प्रार्थना ‘ओम जय जगदीश हरे’ की रचना की थी। उन्होंने सिख धर्म पर भी लिखा, बाइबिल के कुछ हिस्सों का अनुवाद किया, हिंदी के एक आरंभिक उपन्यास ‘भाग्यवती’ की रचना की और अंग्रेजी राज के खिलाफ विद्रोह किया, जिसके फलस्वरूप वे अपने जनपद से निष्कासित कर दिए गए।


बालकृष्ण भट्ट (1844-1914) संस्कृत के विद्वान थे, पर उन्होंने पत्र निकाला ‘हिंदी प्रदीप’। वे आर्य समाज के प्रशंसक थे, लेकिन बौद्धिक स्वतंत्रता के पक्ष में कहते थे, ‘स्वामी दयानंद की जो जो बातें अच्छी हैं, उनका अनुमोदन हम डंके की चोट पर करते हैं। आत्महनन करके गुलामी की बेड़ी पहिनें तो सभी आर्य सिद्धांत स्वीकार करें।’ आज के शिक्षित जन सतत बौद्धिक आत्महनन करते हैं। हिंदी जब विकासशील अवस्था में थी, बौद्धिक स्वतंत्रता एक प्रधान गुण था। 


भारत के लोगों द्वारा अंग्रेजों के अंधानुकरण पर बालकृष्ण भट्ट ने व्यंग्य किया, ‘गुलामी से छूटना चाहो तो उनकी नकल करने की कोशिश करो... चुरुट मुँह में दाब घूमा करो...।’ उन्होंने खुद ब्राह्मण होते हुए पंडितों को ‘भोंदू दास’ कहा और टिप्पणी की, उनमें ‘अटल विश्वास जमा है कि सब हमारे वेद और संस्कृत में है’। उन्होंने स्त्री शिक्षा के लिए इलाहाबाद में गौरी पाठशाला खोली थी। उन लोगों का हिंदी नवजागरण सिर्फ हिंदी भाषा की उन्नति तक सीमित न था।


उसी दौर में ‘देवरानी जिठानी की कहानी’ लिखनेवाले पंडित गौरीदत्त जैसे व्यक्ति भी थे जो नागरी के प्रचार के लिए मेले-ठेले, जहां भी सभा हो वहां बेहिचक पहुंच जाते थे। वे विधवा पुनर्विवाह के समर्थक थे। उन्होंने अपनी कमाई से अर्जित 35 हजार रुपये की राशि, जो उस जमाने में एक बड़ी राशि थी, नागरी और हिंदी के प्रचार के लिए खर्च कर डाली थी। आज का बुद्धिजीवी साहित्यिक-सांस्कृतिक काम के लिए अपने पास से फूटी कौड़ी न निकाले, उल्टे उसे बहुत कुछ चाहिए!


संस्कृत की जगह जब पालि-प्राकृत-अपभ्रंश भाषाएं आ रही थीं, तब सिर्फ भाषा नहीं बदल रही थी, एक नया मानसिक जगत भी बन रहा था। इसी तरह जब स्थानीय बोलियों की जगह खड़ी बोली हिंदी में साहित्य लिखा जाना शुरू हुआ और पत्र-पत्रिकाएं निकलीं तो खड़ी बोली हिंदी भी एक नया मानसिक जगत लेकर आई। उसमें संकीर्णताओं से ऊपर उठा हुआ राष्ट्रीय जागरण का स्वर था। 


वह संक्रमण का दौर था। इसलिए आधुनिकता, स्वातंत्र्यबोध तथा नए जन-सरोकारों की ओर बढ़ते हुए अतीत की कुछ रूढ़ियाँ भी साथ थीं। इनकी वजह से उन युगों के साहित्यकारों पर या हिंदी पर अंध-राष्ट्रवाद, सांप्रदायिकता और जातिवाद का आरोप लगाना एलीट आत्म-जयजयकारात्मक मिजाज का लक्षण है। 19वीं सदी से ज्यादा तो 21वीं सदी का दौर रूढ़िवादी है! 


हिंदी संस्कृति भी बांग्ला संस्कृति, तमिल संस्कृति की तरह महत्वपूर्ण है

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हिंदी क्षेत्र वर्तमान में 10 राज्यों में फैला है और अति विस्तृत है। लक्षित किया जा सकता है कि भारत के तटीय राज्यों जैसे बंगाल, ओडिशा, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र आदि में स्थानीय राष्ट्रीयता का बोध तेजी से पनपा। उदाहरण के रूप में जब बंग भंग(1905) हुआ था, धर्म-जाति की चौहद्दियों को लांघते हुए बांग्ला जातीय बोध उग्र रूप में उभरा था। ईसाई धर्म प्रचारक राबर्ट काडवेल ने तमिल भाषा को खड़ा करके तमिल राष्ट्रवाद जाग्रत करने में एक बड़ी भूमिका निभाई। उत्तर भारत में उस समय ग्रियर्सन हिंदी को पश्चिमी और पूर्वी बोलियों में विभाजित करके टुकड़े-टुकड़े कर रहे थे। 1857 के बाद विभिन्न किस्म के विभाजनपरक नैरेटिव की वजह से हिंदी प्रांत में खंड-चेतनाएं लगातार मजबूत हुईं। हिंदी भाषियों के बीच हिंदी-भाव पैदा नहीं हो सका, भले भारतेंदु से लेकर रामविलास शर्मा तक की गुहार लगती रही।


हिंदी क्षेत्र में उद्योगों की कमी, व्यापार में अरुचि, गरीबी, शिक्षा के अभाव, बड़े पैमाने पर मौजूद सामंती मिजाज, अंग्रेजों की ‘फूट डालो’ नीति और तेज दमन की वजहों से हिंदी संस्कृति की धारणा पनप नहीं सकी, जबकि तमिल संस्कृति, मराठी संस्कृति, बांग्ला संस्कृति आदि की बात खुलकर की गई। हिंदी संस्कृति के निर्माण में भारतीय परंपराओं की सैकड़ों साल की जीवंत चीजें शामिल हैं। 


हिंदी संस्कृति जितनी भी उभर पाई, उसमें हिंदी राष्ट्रवाद का अहंकार नहीं रहा है। उसमें भारतीयता और आलोचनात्मक समावेशिकता की प्रवृत्ति प्रबल रही है। हिंदी संस्कृति में धार्मिक पाखंड और पश्चिम के अंधानुकरण दोनों के लिए जगह नहीं है। उसमें स्त्रियों के प्रति उदारवाद पनप रहा था। प्रेमचंद और प्रसाद-निराला के समय तक आते-आते दलितों के अधिकार भी समझे जाने लगे थे। ऊपर के उदाहरणों से समझा जा सकता है कि उस जमाने में मानवतावाद और बौद्धिक स्वतंत्रता की तीव्र भूख थी। आज भी हिंदी संस्कृति में आत्मकेंद्रिकता नहीं है, अन्यथा इसमें इतनी भाषाओं के अनुवाद नहीं होते। अनुवाद करने की प्रवृत्ति और अनुवाद पढ़ना बड़े चित्त का लक्षण है।


हिंदी संस्कृति में दीमक

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निश्चय ही 19वीं सदी में राजा लक्ष्मण सिंह (1826-1896) और प्रताप नारायण मिश्र  (1856-1894) जैसे व्यक्ति भी थे। लक्ष्मण सिंह 1857 के विद्रोह में अंग्रेजों का साथ देने के कारण डिप्टी कलक्टर बन गए थे। वे रॉयल एशियाटिक सोसाइटी के सदस्य थे और धार्मिक कट्टरवादी थे। उपनिवेशवाद और धार्मिक कट्टरवाद का गहरा संबंध है। प्रताप नारायण मिश्र को अंग्रेजी राज ‘न्यायशील बृटिश सिंह का राज्य’ लगता था। वे विधवा पुनर्विवाह के घोर विरोधी और बाल विवाह के समर्थक थे। वे ‘भारतेंदु मंडल’ में बुद्धिपरक धारणाओं के सबसे बड़े विरोधी थे और रूढ़िपोषक संरक्षणवादी थे। उस जमाने में ‘हिंदू प्रकाश’ जैसे धार्मिक पत्र और ‘कायस्थ समाचार’, ‘खत्री हितकारी’, ‘भूमिहार ब्राह्मण’ जैसे जातिवादी पत्र भी निकल रहे थे। जाहिर है, 1871 के पहले जन सर्वेक्षण के बाद अंग्रेजों की विभाजन की नीति सफल होती जा रही थी। ऐसी चीजें विकासशील हिंदी संस्कृति के सामने बड़ी चुनौतियां थीं।


हिंदी लोगों को पुराने सामान, पुरानी जगह और पुरानी धारणाओं से अपेक्षाकृत अधिक चिपके देखा जा सकता है। वे टूटी-पुरानी चीजें जल्दी नहीं फेंकते, कोने-अंतरे में जमा करके रखते हैं। कई बुद्धिजीवी अपनी पुरानी शब्दावलियों की चौहद्दी से निकलना नहीं चाहते। हिंदी लोग नवोन्मेषों की तरफ कम आकर्षित होते हैं, वैसे मात्रा-फर्क से यह भारतीय मामला है।


भारतेंदु ने अपने जमाने के हिंदी क्षेत्र के लोगों का बड़ा निराशाजनक चित्र खींचा है। उन्होंने यथार्थ बताया है, ‘छोट चित्त अति भीरु बुद्धि मन चंचल विगत उछाह’। हिंदी भाषी लोगों का चित्त बहुत छोटा होता है। वे बहुत डरते हैं, दृढ़ता की कमी है और उत्साह का जैसे लोप हो गया है। उन्होंने ब्राह्मण पुरोहितों की आलोचना की है, ‘पुराणों में चालाकी से अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए कई वाक्य घुसा दिए। शैव-शाक्त-वैष्णव कई मत चलाए। कई जातियां बनाईं, नीच-ऊँच का भेद किया। खान-पान का संबंध तोड़ दिया (गद्य रूप)।’ कुछ और देखें, ‘टके-टके पर धर्म छोड़कर मनमानी व्यवस्था दी, दक्षिणा मात्र दे दीजिए... केवल दंभार्थ इनका तिलक, मुद्रा और ठगने का अर्थ इनकी पूजा।’ आम लोगों के आलस्य के बारे में लिखा, ‘दुनिया में हाथ-पैर हिलाना नहीं अच्छा/मर जाना पै उठ के  कहीं जाना नहीं अच्छा/मिल जाए हिंद खाक में हम काहिलों का क्या/ऐ मीरे फर्श रंज उठाना नहीं अच्छा।’ ये सब उस भारतेंदु की पंक्तियां हैं, जिन्हें बिना ठीक से पढ़े ‘हिंदू परंपराओं के राष्ट्रीयकरण’ का उद्योक्ता ठहराया गया।


भारतीय राष्ट्रीयता की परियोजना अधूरी रह गई

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किसी भी देश के लोगों का सामाजिक चरित्र इसपर निर्भर करता है कि उसका अपने देश-दुनिया से कैसा संबंध है, अपनी भाषा से कैसा संबंध है और वे ‘सत्ता’ को किस नजरिये से देखते हैं। एक समय अंग्रेजी राज से संवाद और टकराहट के भीतर से यह संबंध निर्धारित हो रहा था। देश में समाज सुधार और राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलनों के फलस्वरूप लोगों का ‘हम’ बड़ा हो रहा था। कई प्रांतों के लोग पुरानी रूढ़ियों से कमोवेश मुक्त होकर ‘अन्य’ के प्रति उदार दृष्टि की ओर बढ़ रहे थे। दूसरों के धर्म के प्रति सहिष्णुता, दूसरी भाषाओं के प्रति आदर, स्त्री उत्पीड़न के प्रति क्रोध, दूसरी जातियों के अधिकारों के लिए आवाज और त्याग की भावना- एक समय भारत ने यह सब देखा था। वह अपनी परंपराओं से रचनात्मक संबंध रखते हुए अंधेरे से बाहर निकल रहा था। वह पश्चिमी ज्ञान के प्रति आलोचनात्मक खुलापन लेकर एक विश्व दृष्टि की ओर बढ़ रहा था। कट्टरवाद के खुराफात चल रहे थे, पर यह आंधी में पतंग उड़ाने के समान था। 


 भारतेंदु की कृति ‘भारत दुर्दशा’ (1875) और  कलकत्ता से प्रकाशित हिंदी पत्र ‘भारतमित्र’ (1878) से लेकर मैथिलीशरण गुप्त की ‘भारत भारती’ (1923) तक हिंदी क्षेत्र में भारत की जो लगातार चिंता है, वह अपने कुछ अंतर्विरोधों के बावजूद 1857 के बाद के व्यापक राष्ट्रीय जागरण का एक प्रमुख तत्व है। 


अंग्रेजों ने 1947 में इस देश के लोगों को एक लूटा हुआ विध्वस्त भारत ही नहीं सौंपा, चौड़ी की गई सामाजिक खाइयां भी उपहार में दीं। ये धर्म, जाति और क्षेत्रीयता की खाइयां थीं। ये सबसे ज्यादा हिंदी प्रदेश में थीं, क्योंकि यहां के शहरों में सुधार की जो सीमित चेतना थी, वह सामयिक राष्ट्रीय आवेग से ज्यादा न थी। हिंदी प्रांतों में सुधारवाद को जबरदस्त औद्योगिक, व्यापारिक और शैक्षिक गतिरोध का सामना करना पड़ रहा था। यहां सामंती मिजाज प्रबल था, औपनिवेशिक साजिश धारदार दी। मद्रास, कलकत्ता और बंबई में आधुनिक विकास को बल मिला, पर हिंदी प्रांतों में दमन ही अंग्रेजों का प्रमुख हथियार था। यह 1857 के बाद बढ़ गया था। इसलिए बांग्ला राष्ट्रीयता, तमिल राष्ट्रीयता, मराठी राष्ट्रीयता की तरह हिंदी राष्ट्रीयता गठित नहीं हो पाई। फिर भी हिंदी प्रांतों में धर्म-जाति की दीवारों के बावजूद भारत-भावना काफी थी।


देखा जा सकता है कि आजादी के बाद, सत्ता की विडंबनापूर्ण होड़ की वजह से ‘नीचे से भारतीय राष्ट्रीयता’ के निर्माण का दायित्व ग्रहण नहीं किया गया। उल्लेखनीय है कि वामपंथियों ने कई अवसरों पर ऐतिहासिक संघर्ष में हिस्सा लेते हुए भी भारतीय राष्ट्रीयता के विकास की चिंता नहीं की, वे राष्ट्रीयता की सीढ़ी पर चढ़े बिना अपने को अंतरराष्ट्रीयतावादी बताते थे। सत्ताधारियों का कला-साहित्य से इतना ही संबंध बचा था कि कुछ चुने व्यक्तियों को विदेश भेजते रहे। हर तरफ से लोकतंत्र का दुरुपयोग हुआ, उसमें भ्रष्टाचार की दीमक लग गई। उसमें ‘हम-वे’ भी था, निजी पसंद-नापसंद भी थी। लफ्फाजी-भरे कथनों के बीच सर्वहारा, गरीब, मुसलमान, दलित, स्त्री और आदिवासी वस्तुतः राजनीतिक सिक्के की तरह चलाए गए। ये सीढ़ी बना दिए गए। कई लोग शहीद हुए। ये सभी कितनी मेहनत से त्याग के साथ काम करते थे, पर किसी समुदाय का उत्पीड़न कम नहीं हुआ, दुख कम नहीं हुआ। यह एक त्रासद घटना है कि सिर्फ नेताओं का घर भरा, समाज नहीं बदला। 


भारतीय राष्ट्रीयता की परियोजना अंततः अधूरी रह गई। सांप्रदायिकता का महाविमर्श बिखरे हुए विमर्शों पर भारी पड़ गया। उदार भारतीय राष्ट्रीयता पहले ही खोखली की जा चुकी थी। ‘राष्ट्र’ खलनायक बना दिया गया था। इसलिए राष्ट्रवाद के धार्मिक रूप को कोने से केंद्र में आने में कोई मुश्किल नहीं हुई। वह एक शक्ति बन गया। उसे सबसे अधिक शक्ति हिंदी प्रदेशों से मिली, क्योंकि उनमें हिंदी संस्कृति का विकास नहीं हुआ था। 


यदि हिंदी है तो हिंदी संस्कृति भी है

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हिंदी को लेकर जिन अंग्रेजीदां हिंदी बुद्धिजीवियों को ग्लानि है, वे उस दौर की दूसरी भारतीय भाषाओं को नहीं देखते कि उनमें कितना अंध-राष्ट्रवाद है या अंगेजी को नहीं देखते कि उसमें कितना ‘ओरियंटलिज्म’ भरा है। हिंदी के प्रति तरह-. से विरक्ति पैदा की जाती है यह भारतीयता और मानवता से प्रेम को जानने का एक महत्वपूर्ण दरवाजा बंद कर लेना है।


‘शेखर एक जीवनी’ (अज्ञेय, 1943) में शेखर के पिता कहते हैं, ‘हिंदी की हैसियत ही क्या है?’ शेखर स्वाभिमान के साथ कहता है, ‘हिंदी जनभाषा है। करोड़ों व्यक्तियों के प्राण इसमें बोले हैं... और हमारी जाति की परंपरा इसमें बोलती है- हमारा सारा अतीत इससे बंधा है।’ पिता कहते हैं, ‘होगा। पर जिससे आदमी का भविष्य न बने, उस अतीत को लेकर क्या करें, चाटें?’ शेखर जवाब देता है, ‘मुझे तो भविष्य दिखता ही हिंदी में है- अगर हिंदी हमसे छूट गई तो भविष्य हुआ न हुआ बराबर है।’ आज निश्चय ही अंग्रेजी का रमरमा ज्यादा है। पर हिंदी भाषी लोग यदि हिंदी को खो देंगे तो वे अंततः त्रिशंकु की दशा में होंगे।


हिंदी में रूढ़ियां हैं तो रूढ़ियों से विद्रोह भी है। कलह है तो संवाद और सामंजस्य की कोशिशें भी हैं। भिन्नता है तो अभिन्नता का बोध भी है। हिंदी वस्तुतः जीवन-सौंदर्य, असहमति और आजादी की भाषा है। इसमें दुनिया भर के नवोन्मेषों के प्रति एक आलोचनात्मक खुलापन रहा है। यह विभाजन की नहीं, सबको जोड़ने वाली भाषा के रूप में जन्मी है। यह अंग्रेजीदां एलीटों की नहीं, वंचितों की आवाज है। हिंदी में बनते हुए भारत की छवियां हैं। यदि हिंदी है तो धर्म, जाति और क्षेत्रीयता से ऊपर उठी हिंदी संस्कृति भी है। यदि बांग्ला संस्कृति है, तमिल संस्कृति है, मराठी संस्कृति है, पंजाबी संस्कृति है तो हिंदी संस्कृति क्यों नहीं है? 


हिंदी अपनी सैकड़ों साल की साहित्यिक सांस्कृतिक परंपराओं के साथ एक सामूहिक निर्मिति है। उर्दू, मैथिली, राजस्थानी, ब्रज, भोजपुरी, अवधी, छत्तीसगढ़ी, बुंदेली, हरियाणवी आदि हिंदी की 48 मांएं हैं। सबने मिलकर हिंदी की रचना की है। अब कोई अलग से भी अपनी साहित्यिक अभिव्यक्ति, संस्कृति, ग्रामीण बोली या भाषा रखना चाहे तो जरूर रखे। सब अपनी-अपनी स्थानीय कलाओं को विकसित करें। लेकिन अब बोलियों में स्कूल-कॉलेज नहीं खुल सकते। इनमें विधानसभा, बाजार, दुकानें, समाचार पत्र, ई-मीडिया नहीं चल सकते। इसलिए हिंदी क्षेत्र की सभी बोलियां-उपभाषाएं-भाषाएं मिलकर हिंदी को ज्ञान की भाषा के रूप में विकसित कर सकें तो यही एक बड़ी घटना होगी। अंग्रेजी-वर्चस्व के सामने दूसरा कोई रास्ता नहीं है। निश्चय ही हिंदी को अपनी लोक सांस्कृतिक जड़ों को बचाना होगा। पर देखा गया है, नवोन्मेषों के बिना परंपराओं को बचाना असंभव होता है।


कैसा नवोन्मेष? जीवन के प्रति दृष्टिकोण ही भाषा के प्रति दृष्टिकोण को निर्धारित करता है। यदि जीवन के प्रति दृष्टि में छिछलापन और छलावा है तो कोई भाषा हो हिंदी, अंग्रेजी या लोकभाषा, वह दृष्टि भाषा को भी छिछली और छलावापूर्ण बनाएगी, जितनी भी उन्नत टेक्नोलॉजी हो! 


हिंदी अपने ही घर में खो गई है

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यह यथार्थ है कि खड़ी बोली हिंदी आज भी हिंदी क्षेत्र के सभी हिस्सों से जुड़ नहीं पाई है। ऊपर से, वह अपने ही घर में खो गई है। आज भी हिंदी संस्कृति जनजीवन का अंग नहीं बन सकी, क्योंकि जातिवाद, जिलावाद, धर्मांधता और अंधविश्वास हावी हैं। वह विध्वंस से गुजर रही है। हिंदी समाज पर बंबई का मनोरंजन-उद्योग और कट्टरवादियों का राजनीति-उद्योग छाया हुआ है। पहले की तरह स्त्रियों को घरेलू वस्तु समझा जाता है और दलितों को निम्न। 19वीं सदी में हिंदी नवजागरण, बाद में गांधी के प्रयत्न, श्रमजीवी संगठनों के आंदोलन और स्त्री, दलित, आदिवासी समुदायों के बीच से उठे विमर्शों ने हिंदी जीवन में कुछ हलचलें पैदा कीं। लेकिन अब बहुत कुछ ‘बाहर से आधुनिकता-भीतर कूपमंडूकता’ की जुगलबंदी में खोता जा रहा है।


आज लगता नहीं कि यहां कभी कबीर ने हिंदू-मुसलमान दोनों को फटकारा था। लोग कभी राधा-कृष्ण के प्रेम में गाते थे। मीरा की तरह नाचते थे। तुलसी ने अपने पूरे साहित्य में कहीं ‘हिंदू’ शब्द का प्रयोग किए बिना ‘भलि भारत भूमि’ कहा था। सूफियों का प्रेम गूंजा था, ‘मानुष प्रेम भये बैकुंठी’! अब पता नहीं चलता कि इसी बनारस में कबीर की ही तरह भारतेंदु ने धार्मिक पाखंडों की खिल्ली उड़ाई थी। लिखा था, ‘हिंदू चूरन इसका नाम’, विलायत पूरन इसका काम’। आज कोई अवशेष नहीं दिखता कि प्रेमचंद का सूरदास यहीं की मिट्टी से जन्मा था। सब एकजुट होकर लड़ते थे, गाते-बजाते थे, अंतर्कलह के बावजूद। अब विश्वास नहीं होता, प्रसाद ने ‘कामायनी’ और निराला ने ‘राम की शक्तिपूजा’ और ‘कुकुरमुत्ता’ कविताएं यहीं लिखी थीं? अज्ञेय, नागार्जुन और मुक्तिबोध हिंदी के लेखक थे, इसका हिंदी जनजीवन में क्या प्रमाण है? यदि कोई जाति अपनी साहित्यिक आंखें फोड़ ले तो उसे उल्लू की तरह अंधेरा ही सूर्योदय लगेगा। वह रोशनी पसंद नहीं करेगी।


हिंदी साम्राज्यवाद का आरोप अंग्रेजी साम्राज्यवाद को ढकना है

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इस दौर में हिंदी सहित सभी भारतीय भाषाएं अंग्रेजी का बौद्धिक उपनिवेश बनती जा रही हैं। देश की बहुभाषिकता, जो यहां की सांस्कृतिक प्राणवायु है, अंग्रेजी में विलीन हो रही है। यह एक बड़ा संकट है। देखा जा सकता है कि जो अंग्रेजी पढ़े-लिखे हैं, उनको किसी दूसरी भारतीय भाषा के संसार को जानने में रुचि नहीं होती। वे आत्मतृप्त हैं, देखना नहीं चाहते कि दूसरी भाषाओं में क्या लिखा-सोचा जा रहा है। दरअसल जब लोकतंत्र मजबूत होता है, तभी बहुभाषिकता भी मजबूत होती है और सांस्कृतिक बहुलता सुरक्षित रहती है। भारत को ऐसा देश बनाया जा रहा है, जहां मानो अब अंग्रेजी ही श्रेष्ठ भारतीय सभ्यता की निर्माता है और अंग्रेजी में लिखा भारतीय लेखकों का साहित्य ही भारतीय साहित्य है। 


एक विडंबना यह भी है कि आजादी के पहले हमारे देश में अंतरभाषाई संवाद और मेलजोल काफी था, जबकि आज पशु-पक्षियों की तरह अपने ही जातीय वृत्त में सीमित रहने की प्रवृत्ति बढ़ी है। इसके अलावा, हर भाषा के प्रयोक्ता का निजी शब्द-भंडार घट गया है, क्योंकि उसका जीवन सिकुड़ा है, उसकी संवेदना और संस्कृति सिकुड़ी है, उसके सामाजिक सरोकार सिकुड़े हैं। इन चुनौतियों के बीच हिंदी की तरफ से कोशिश हो सकती है कि वह भारतीय भाषाओं का आंगन बने, अनुवाद के प्रति सांस्कृतिक गंभीरता पैदा हो और हिंदी संसार में अधिक से अधिक ‘कॉमन प्लेस’ बनें।


अंग्रेजी लूटे और कठघरे में खड़ी हो हिंदी, ‘हिंदी साम्राज्यवाद’ का आरोप ऐसा ही है। यह एक सचाई है कि कई हिंदीतर राज्यों में हिंदी को हिंदुत्व से जोड़कर देखा जा रहा है, कुछ व्यक्ति हिंदीप्रेम को देशप्रेम का पर्याय बताते हैं। इसकी ओर दृष्टि जानी चाहिए कि इसका खामियाजा हिंदीतर राज्यों में रहने वाले हिंदी भाषियों को भुगतना पड़ता है। उनको भी भुगतना पड़ता है जिन्होंने जाति, धर्म या प्रांतीयता के बंधनों को तोड़कर शादी की है, परिवार बनाए हैं। समझने की जरूरत है कि हिंदी, हिंदू धर्म और देश एक-दूसरे के पर्याय नहीं हैं। निश्चय ही ऐसे भ्रामक प्रचारों की वजह से हिंदी ‘हिंदी साम्राज्यवाद’ नहीं बन जाती। साम्राज्यवाद आर्थिक संपन्नता का विस्फोट है। हम पाते हैं कि अधिकांश हिंदी प्रदेश देश के सबसे पिछड़े प्रदेशों में हैं। दरअसल अंग्रेजी साम्राज्यवाद की रक्षा के लिए ही हिंदी साम्राज्यवाद का भूत खड़ा किया जाता है।


यह समझने की जरूरत है कि न हिंदी राष्ट्रीय अखंडता का सूत्र है और न अंग्रेजी, बल्कि अंग्रेजी तो आम जनता को हेय दृष्टि से देखने और उससे विच्छिन्न कर देने वाली भाषा है। राष्ट्रीय अखंडता का बुनियादी सूत्र लोकतंत्र है। इसके बिना राष्ट्रीय भावना अधूरी है। इस दौर में लोकतंत्र तेजी से खोखला होता जा रहा है। इसलिए हर तरफ बाजार एक है और राष्ट्र अंतर्विभाजित है। आज हमलोग सिर्फ बाजार में एक हैं!


--शंभुनाथ

प्रदीप सौरभ का ब्लाइंड स्ट्रीट / धीरेंद्र अस्थाना

 प्रदीप सौरभ अपने मित्र हैं। पत्रकार, फोटोग्राफर, पेंटर, यायावर, उपन्यासकार, एक्टिविस्ट रहे हैं। ब्लाइंड स्ट्रीट उनका नया उपन्यास है जिसे उपन्यास मानना कम से कम मेरे लिए कठिन है। यह उपन्यास की प्रचलित परिभाषा में नहीं अंटता। इसे एक प्रयोगधर्मी,औपन्यासिक रिपोर्ताज कहा जा सकता है।जो भी है,इसका महत्व इस तथ्य से वाबस्ता है कि यह नेत्रहीन लोगों की दुनिया में आंख खोलता है।

 नेत्रहीन लोगों के सुखों दुखों पर हिंदी फिल्में तो आयी हैं लेकिन हिंदी साहित्य के लिए यह वर्जित प्रदेश ही रहा आया है। प्रदीप ने इस अंधेरी दुनिया में कुछ रचने, खोजने, समझने की कोशिश की,यह बड़ी बात है। इसमें कोई एक केंद्रीय कथा नहीं है।अनेक कथाओं को एक जिल्द में संकलित कर दिया गया है। लिखने की यह भी एक तकनीक है लेकिन समस्या तब आती है जब हम देखते हैं कि कथाओं को बहुत तटस्थ भाव से लिख दिया गया है। इनमें लेखक का बरताव अपने पात्रों से सर्जक और सृजन जैसा नहीं बल्कि एक पत्रकार जैसा निर्वैयक्तिक और असंपृक्त कैमरामैन जैसा है। भाषा भी एकसार और लयात्मक नहीं बल्कि बेहद रुक्ष और सपाट है।

 लेकिन इस किताब को इसलिए जरूर पढ़ा जाना चाहिए कि यह एक ऐसी दुनिया के जीवन संघर्षों से हमारी मुठभेड़ कराती है जिसके बारे में हम बहुत बहुत कम जानते हैं। अंधेरी दुनिया को रौशन करते इस कोलाज का स्वागत है।

गुरुवार, 22 सितंबर 2022

मिटत न हिय कौ शूल!/ ऋषभ देव शर्मा

 

#(डेलीहिंदीमिलाप)

आज #14सितंबर है। अर्थात, #हिंदी_दिवस। यह दिन भारत की भाषिक आज़ादी की घोषणा का दिन है। विडंबना यह है कि इसके बावजूद हम आज भी 'अंग्रेज़ी का भाषिक उपनिवेश' बने हुए हैं!


भारत जैसे विशाल देश का बहुभाषिक होना स्वाभाविक है। यही कारण है कि स्थान बदलने के साथ बानी (भाषा) का बदलना यहाँ लोक में उतना ही सहज माना जाता है, जितना कि पानी का बदलना। युगों से यह विविधता और बहुलता भारत की पहचान रही है। यहाँ अनेक भाषाएँ हैं, लेकिन उनमें कोई नैसर्गिक विरोध नहीं है। वे परस्पर अविरोधी तो हैं ही, सहयोगी भी हैं। एकता का एक सर्वनिष्ठ सूत्र उन्हें परस्पर जोड़ता है और भारतीय संस्कृति का संयुक्त वाहक बनाता है। जैसे क्षेत्रीय विविधताओं के बावजूद यह देश एक सामासिक संस्कृति को व्यंजित करता है, वैसे ही बहुभाषी होते हुए भी अपनी राष्ट्रीय पहचान को एक सार्वदेशिक भाषा के माध्यम से भी प्रकट करता है। लंबी सांस्कृतिक परंपरा के साथ ही स्वतंत्रता आंदोलन की आग में तप कर इस सार्वदेशिक भाषा के रूप में हिंदी ने अपनी पात्रता सिद्ध की है। यही कारण है कि हिंदी आज उसी प्रकार इस महादेश की संपर्क भाषा है, जिस प्रकार कभी अतीत में संस्कृत थी। इसे ध्यान में रख कर ही आधुनिक भारत के संविधान निर्माताओं ने हिंदी को 'भारत संघ की राजभाषा' घोषित किया। इससे जुड़े अंशों की स्वीकृति के दिन यानी 14 सितंबर को इसीलिए '#हिंदीदिवस' के रूप में मनाया जाता है। 


याद रहे कि उपनिवेश काल में ब्रिटिश-भारत की राजभाषा अंग्रेज़ी थी और उसका पोषण करने के लिए सुनियोजित ढंग से हिंदी सहित तमाम भारतीय भाषाओं को अपोषित तथा उपेक्षित रखा गया था, ताकि इनसे पुष्ट हो सकने वाली भारतीयता और भारतीय संस्कृति को क्षीण किया जा सके। इस कारण लंबी गुलामी ने इन भाषाओं का विकास अवरुद्ध कर दिया था। इसलिए आज़ादी मिलने के समय यह महसूस किया गया कि केंद्र में हिंदी और राज्यों में विविध भारतीय भाषाओं को राजकाज में अंग्रेज़ी का स्थान लेने में कुछ समय लग सकता है।   इसके लिए 15 साल की अवधि तय की गई। राजनैतिक कारणों से 15 वर्ष बाद भी यह बदलाव संपन्न न किया जा सका और संघ की सहराजभाषा के रूप में तब तक के लिए अंग्रेज़ी को छूट दे दी गई, जब तक कोई एक भी राज्य संघ का सारा कामकाज हिंदी में किए जाने के लिए असहमत रहे! इस प्रकार संवैधानिक रूप से हिंदी भारत संघ की राजभाषा होते हुए भी व्यावहारिक रूप से सहराजभाषा अर्थात अंग्रेज़ी की मोहताज है। इसलिए हिंदी को राजभाषा का अपना संवैधानिक स्थान दिलाने के अनुकूल वातावरण और मानसिकता के निर्माण और विकास के लिए हिंदी दिवस मनाना केवल औपचारिकता नहीं, बल्कि हमारी राष्ट्रीय आवश्यकता है। 


यहाँ यह भी कहना ज़रूरी है कि संविधान का जो खंड हिंदी को भारत संघ की राजभाषा बनाता है, वही राज्यों को अपना अपना राजकाज अपनी अपनी भाषाओं में चलाने की आज़ादी भी देता है। इसी कारण हर राज्य की अपनी अपनी राजभाषाएँ हैं। इसका अर्थ है कि 14 सितंबर केवल हिंदी नहीं, बल्कि समस्त भारतीय भाषाओं की संवैधानिक स्वीकृति की तिथि है। इसलिए इसे 'हिंदी दिवस' के साथ ही 'भारतीय भाषा दिवस' के रूप में एक राष्ट्रीय पर्व की तरह मनाया जाना चाहिए। इस तरह यह दिन भारतीय भाषाओं के सद्भाव पूर्ण सह अस्तित्व का प्रतीक है। स्वतंत्रता आंदोलन के एक अंग के रूप में चले स्वभाषा आंदोलन का उद्देश्य भी यही तो था कि - 'एक राष्ट्रभाषा हिंदी हो, एकहृदय हो भारत जननी!'


अंततः यही कि जब तक हम संसद से लेकर सड़क तक, यानी न्याय, शिक्षा, रोजगार, ज्ञान-विज्ञान, तकनीक, वाणिज्य व्यवसाय, अर्थ व्यवस्था, सृजन, अनुवाद, विचार विमर्श, संचार, मनोरंजन, कूटनीति और अंतरराष्ट्रीय संबंधों तक तमान व्यवहार क्षेत्रों में अपनी भाषाओं का सशक्तीकरण सिद्ध नहीं करते, तब तक यह महादेश उपनिवेशवादी मानसिकता से मुक्त नहीं हो सकता। इस 'शूल' को तो 'निज भाषा' से ही मिटाया जा सकता है, क्योंकि-


"बिन निज भाषा ज्ञान के, 

मिटत न हिय कौ शूल!"  (भारतेंदु)। 000

साहिर लुधियानवी ,जावेद अख्तर और 200 रूपये

 एक दौर था.. जब जावेद अख़्तर के दिन मुश्किल में गुज़र रहे थे ।  ऐसे में उन्होंने साहिर से मदद लेने का फैसला किया। फोन किया और वक़्त लेकर उनसे...