गुरुवार, 31 मार्च 2022

आत्ममुग्धता और निरे बुद्धि- विलास से बचें / किशोर कुमार कौशल

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आजकल व्यक्ति कुछ विचार करता है और उसे उत्तम मानकर आगे प्रचारित कर देता है,भले ही वह विचार उसके व्यक्तिगत हित से ही संबंधित हो और शेष समाज से उसका कोई सरोकार न हो। व्यक्ति अपने विचार पर पुलकित होता है,प्रसन्न होता है और उसे दूसरों को सुनाने चल पड़ता है। वह दूसरों की प्रतिक्रिया भी नहीं सुनता,बस अपने में मग्न रहता है। यह आत्ममुग्धता है।केवल अपने लिए सोचना स्वार्थ के दायरे में आता है। विचार तब तक सुविचार या उत्तम विचार नहीं बनता जब तक कि वह पूरे समाज के लिए हितकर न हो। 

  हमारे मनीषियों ने केवल अपने बारे में विचार करने की प्रक्रिया को स्वार्थ बताया है। जब तक हमारा विचार समष्टि  से नहीं जुड़ता,परोपकार से नहीं जुड़ता,तब तक वह केवल स्वार्थपरता है। ऐसा विचार जिसे हम आगे कार्य रूप में परिणत न करें,अपने क्रियाकलापों के माध्यम से उसे औरों तक न पहुंँचाएंँ और जिसकी सुगंध स्वतः औरों तक न पहुंँचे, कोरा बुद्धि-विलास है। हमें इससे बचना चाहिए। 

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--- किशोर कुमार कौशल 

      मै.- 9899831002

प्रेम पर नियंत्रण / ओशो

 *हम जिसे प्रेम करते हैं, उस पर नियंत्रण करने लगते हैं।* 


पति और पत्नी,  मां और बेटों,  भाइयों और बहनें,  मित्रों के बीच जो संघर्ष होता है वह यही है। कौन किस पर आधिपत्य जमाएगा? कौन किसको परिभाषित करेगा?  कौन किसका कद छोटा करके उसे छोटा करके उसे वस्तु बनाएगा ? कौन मालिक होगा और कौन दास होगा?  


  प्रेम का अर्थ होता है  : आदर,  अत्यधिक सम्मान; प्रेम है किसी को बेहद पसंद करना,  जिससे तुम प्रेम करते हो उसकी उपस्थिति में प्रेम विशुद्ध आनंद की प्रतीति.  प्रेम और क्या है  ? |लेकिन लोग वस्तुओं से प्रेम करते हैं. वे महद विकल्प हैं,  जिनसे एक गहरी जरूरत किसी तरह पूरी हो जाती है।


   ध्यान रहे,  पहली दुर्घटना तो यह है कि व्यक्ति का झुकाव मस्तिष्क की और होता है। दूसरी दुर्घटना यह है कि व्यक्ति प्रेम की आवश्यकताओं की पूर्ति वस्तुओं से करने लगता है। तब तुम रेगिस्तान में में खो जाते हो। तब तुम सागर तक कभी नहीं पहुंच पाओगे। तुम सुख कर वाष्पीभूत हो जाओगे। तुम्हारा संपूर्ण जीवन व्यर्थ हो जाएगा।


  जैसे ही तुम्हारे ध्यान में आए कि यह हो रहा है,  तुम तत्काल जाग जाओ,  ज्वार का रुख मोड़ दो,  पुन: इसे ह्रदय से जोड़ने का पूरा प्रयास करो। समाज ने तुम्हारे साथ जो किया है,  उससे मुक्त होने के लिए ह्रदय से संपर्क करो।  जो मूर्खतापूर्ण कृत्य तुम्हारे शुभचिंतकों ने तुम्हारे साथ किया है उसका प्रभाव मिटाने के लिए ह्रदय से जुड़ो.  शायद वे यह सोचते होंगे कि तुम्हारी सहायता कर रहे हैं, उन्होंने तुम्हें जान - बुझ कर बरबाद न किया हो,  वे स्वंय के माता - पिता और अपने समाज के साए हुए हो सकते हैं,  मैं उनके विरोध में कुछ  नहीं कह रहा हूं। उनके लिए बड़ी करुणा की आवश्यकता है।


  गुरजिएफ अपने शिष्यों से कहा करता थाकि कोई व्यक्ति धार्मिक तभी हो सकता है जब वह अपने माता - पिता को क्षमा कर सके.  क्षमा?  हां,  ऐसी ही बात है.  वह बहुत ही कठिन है,  माता - पिता क्षमा करना लगभग असंभव है,  क्योंकि उन्होंने तुम्हारे लिए बहुत कुछ किया होता है  - - निश्चित अनजाने में,  अचेतनता में  - - फिर भी उन्होंने किया तो है। 


   उन्होंने तुम्हारे प्रेम को नष्ट क्या है और उन्होंने तुम्हें मुर्दा तर्क दे दिया है. उन्होंने तुम्हारी बुध्दि को नष्ट किया है और उन्होंने उसकी जगह तर्क - बुध्दि थमा दी है.  उन्होंने जीवन और जीवंतता को नष्ट किया है और तुम्हें एक बंधा हुआ ढांचा दिया है,  जीने भर की एक योजना.  उन्होंने तुम्हारी दिशा को नष्ट कर दिया है,  और तुम्हें एक मंजिल दे दी है.  उन्होंने तुम्हारे उत्सव को नष्ट किया है और तुम्हें बाजार की एक वस्तु बना दिया है.  उन्हें क्षमा करना बहुत कठिन है,  इसलिए सारी पुरानी परंपराओं में यही कहा जाता है कि अपने माता - पिता का आदर करो.  


उन्हें क्षमा करना कठिन है,  उनका आदर करना भी कठिन है.  मगर यदि तुम उन्हें समझाोगे तो तुम क्षमा कर दोगे.  तुम सूली पर लटके हुए जीसस की तरह ही रहेगा,  ' उन्हें क्षमा कर दो,  क्योंकि वे नहीं जानते कि वे क्या करते हैं. ' हां,  यही है उनके शब्द.  और हर कोई सूली पर है - - और क्रॉस को तुम्हारे शत्रुओं नहीं बनाया है,  बल्कि तुम्हारे माता - पिता ने बनाया है,  तुम्हारे समाज ने बनाया है  - - 7और हर कोई सूली पर चढ़ा हुआ है. 


  मस्तिष्क का इतना अधिक प्रभाव रहा है कि अपने ह्रदय को चुप रहने पर विवश किया है.  तुम्हें पुन: ह्रदय की सुननी होगी.  तुम्हें तर्क को थोड़ा छोड़ देना होगा.  तुम्हें थोड़े जोखिम उठाने पड़ेगे.  तुम्हें खतरों में जीना होगा.  तुम्हें किसी के ऊपर आधिपत्य न रखने के लिए तैयार रहना होगा. क्योंकि जिस क्षण तुम आधिपत्य जमाते हो उस समय व्यक्ति वहां नहीं होता.  किसी वस्तु पर ही आधिपत्य रखा जा सकता है. 


  इसे जितना हो सके गहराई से समझने का प्रयत्न करो.  जिस क्षण तुम्हें किसी से प्रेम हो जाता है,  तो तुरंत ही तुम्हारे पूरे संस्कार उस व्यक्ति के ऊपर मालकियत करने का प्रयत्न करने लगते हैं.  जब भी तुम मालकियत करने की कोशिश करने लगते हो तुम प्रेम को मारते जाते हो.  या को तुम व्यक्ति को मुट्ठी में ले सकते हो या उसे प्रेम कर सकते हो, दोनों एक साथ संभव नहीं होते. ...


*✒️ ओशो*

युद्ध के बीच / आलोक यात्री

 

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मैं लड़ना नहीं चाहता था

लेकिन मुझे लड़ने को मजबूर किया गया

कहा गया कि देश के लिए लड़ना होगा

क्या करता, कोई रास्ता नहीं था 

मैं खुद को बचाने के लिए लड़ा

मैंने कई ऐसे लोगों को मार डाला

जिनसे मेरी कोई दुश्मनी नहीं थी

जिनसे मैं कभी मिला नहीं था


मैंने उनके बच्चों की उम्मीदों की हत्या कर दी

उनकी मांओं की प्रतीक्षा का खून कर दिया

उनके दोस्तों की खुशियां छीन ली


मेरी ही तरह हजारों लोग लड़ रहे हैं युद्ध

बिना जाने कि वे जिन्हें मारना चाहते हैं

उनकी मृत्यु से उन्हें क्या मिलेगा

जो लोग मोर्चे पर लड़ रहे हैं

उनके परिवार, उनके बच्चे, उनके रिश्तेदार

मोर्चे से दूर रहकर भी लड़ रहे हैं युद्ध

उन तक पहुंचने वाली सड़कें 

ध्वस्त हो रही हैं, पुल टूट रहे हैं

और इसी के साथ टूट रही हैं उनके 

प्रियजनों की वापसी की उम्मीदें


जहां युद्ध नहीं लड़ा जा रहा है

वहां भी लोग मारे जा रहे हैं

युद्धजनित भूख से, बीमारी से

अपनों की लम्बी प्रतीक्षा की थकान से


युद्ध की लपटें उन तक भी पहुँच रहीं हैं 

जो निकल गये हैं युद्धक्षेत्र से बाहर

वे पूरी तरह निकल नहीं पाये हैं

अपने घरों से, अपनी यादों से

वे जितना छूट गये हैं पीछे

उतना मर रहे हैं हर धमाके के साथ

पता नहीं वे लौटकर अपनी लाशों 

की शिनाख्त कर पायेंगे या नहीं


बहुत सारी स्त्रियाँ अकेली हो गयी हैं

कुछ ने हथियार उठा लिया और मारी गयीं

कुछ उठा ली गयीं बचकर निकलने के पहले 

वे मरती रहेंगी रोज भूखे राक्षसों के 

लौह चंगुल में फंसी- फंसी

जिनके बच्चे मारे गये हैं हमलों में

वे सह नहीं पायेगी इस आघात को

और बंध्या हो जायेंगी कई कई पीढ़ियाँ 


जो बच्चे खो चुके हैं अपने माता- पिता

वे भले ही निकल जायं सीमाओं के पार

लेकिन लौट नहीं पायेंगे कभी अपनी दुनिया में

मुक्त नहीं हो पायेंगे धूल और धुएं की स्मृति से

निकल नहीं पायेंगे अपने उजड़े संसार से

विनाश के एक पल को महसूस करते हुए 

बूढ़े हो जायेंगे


जो अपाहिज होकर भी बच जायेंगे

उनके सामने अपाहिजों की दुनिया होगी

जो साबुत दिख रहे होंगे युद्ध के बाद

वे भी अपाहिज ही होंगे 


वर्तमान में ही नहीं भविष्य में भी 

लड़ा जा रहा है युद्ध

जल रही हैं बस्तियाँ

ढह रही हैं इमारतें

मलबे में बदल रहा है सालों का श्रम 

ध्वंस के नीचे दबते जा रहे हैं बच्चों के सपने

बनने से पहले ही धराशायी हो रहे हैं

अस्पताल, स्कूल और फैक्ट्रियां 

धमाकों में उड़ रही हैं सारी

योजनाएं, सारी प्रतिज्ञाएँ

वर्तमान के छिपने की कोई जगह नहीं बची है

मिसाइलें चली आ रही हैं उसकी ओर


फिर भी दिन-रात बमों की यह बरसात   

तबाह नहीं कर पायी है अभी तक 

जीने की सारी वजहें 

प्रिया के एक चुम्बन की याद लिये

मोर्चे पर निकल रहे हैं सैनिक

मृत्यु से पूर्व अपनी प्रेमिकाओं से 

शादी रचा लेना चाहते हैं युवक

टैंकों की गड़गड़ाहट के बीच एक माँ 

की कोख से जन्म ले रही है आजादी

धधकती आग में प्रवेश कर रहे हैं

कुछ लोग घायलों को बचाने के लिए

लपटों से घिरे भूखे- प्यासे लोगों 

तक भी पहुँच रहे हैं कुछ हाथ

दूसरों की जान बचाने के लिए जान दे 

देने में भी नहीं हिचक रहे कुछ लोग

टूटे पुलों से होकर उजड़ती बस्तियों

तक पहुँच रही हैं उम्मीदें 

कि एक दिन खत्म हो जायेगा युद्ध 

और इन्हीं रास्तों से लौट आयेंगे 

बिछड़े हुए लोग


 

24/3/2022

बुधवार, 30 मार्च 2022

मैथिली लेखन की नयी संभावनाविभा रानी / हरीश पाठक

 कुछ रिश्ते होते ही कभी न भूल पाने के लिए हैं।उनकी खनक और धमक वक्त की रेत में न उड़ती है,न मिटती है।


       वे मेरे जीवन के कठोर दिन थे।1986 में बड़े बड़े सपने ले कर वाया दिल्ली 'धर्मयुग' में आया था,साल 1996 के सितम्बर महीने में टाइम्स ऑफ इंडिया ने उस 'धर्मयुग' को किसी नामालूम से प्रकाशक को बेच दिया।14 महीने की कानूनी लड़ाई के बाद हम लोग सुप्रीम कोर्ट से जीते पर जीत के बाद इस्तीफा दे कर मैं जिस 'कुबेर टाइम्स' का संपादक बना वह 'कुबेर टाइम्स' दो साल बाद बन्द हो गया।मैं सड़क पर।पत्नी कमलेश पाठक का मुम्बई आकाशवाणी से नासिक तबादला हो गया।बच्चे मुम्बई में।इसी बीच दैनिक 'हिंदुस्तान के भागलपुर संस्करण में(जो शुरू हो रहा था) मेरी समन्वय संपादक के पद पर नियुक्ति हो गयी।विकल्पहीनता के उस दौर में उस अनजान प्रदेश के अराजक माहौल में मुझे वहां जाना ही था, मैं गया भी।

       यह साल था 2001।ऐसे मौसम में भागलपुर के कचहरी चौक स्थित उस होटल 'निहार' में दोपहर 12 के पहले फोन देने और मिलनेवालों पर मैंने ही रोक लगवा दी थी, क्योंकि मैं लौटता ही रात 3 बजे था।एक दिन,एक फोन ने होटलवालों को खूब परेशान किया।फोन पर कहा जा रहा था,'मैं हरीश पाठक की भाभी हूँ और मुझे हर हाल में उनसे बात करना है।'

       अबकी मालिक नाटो बाबू खुद कमरे में आये और मैं फोन पर आया।उधर से आवाज आयी 'विभा बोल रही हूं, Vibha Rani।होटलवाले आपकी बड़ी दहशत में रहते है।कह रहे थे 12 के बाद फोन कीजिये।यहाँ एक विवाह में आयी थी आपके हाल जानने को बेताब।कैसा लग रहा है मेरा प्रदेश?खाने की या अन्य कोई दिक्कत?यहां मेरे बहुत रिश्तेदार हैं।कुछ भी दिक्कत हो तो बता दीजिए। बुरा तो लग रहा होगा पर यह वक्त भी कट ही जायेगा।'

      मैं एक क्षण रुआंसा हो गया।कोई था उस अजनबी प्रदेश में जो मेरा अपना था।मेरे दुख के,अकेलेपन के,कष्ट के उन कातर क्षणों में रिश्तों के आर पार --दिलासा के ताबीज लिए।

     मेरे लिए यह हैं और रहेंगी विभा रानी।हिंदी और मैथिली की लोकप्रिय कवयित्री।तीन साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता पुस्तकों की अनुवादक,'चल खुसरो घर आपने' और  'बन्द कमरे का कोरस' जैसे कथा संग्रहों, 'प्रेग्नेंट फादर' जैसे पुरस्कृत नाटक की लेखिका, अभिनेत्री और अवितोको जैसी संस्था की मुखिया।

     आज उन विभा रानी का जन्मदिन है।यह मेरे पारिवारिक उत्सव का भी दिन है।कभी न टूटे हमारे साढ़े तीन दशक पुराने रिश्तों की डोर।कभी न फीकी पड़े आपके यश की चमक।

    आपको खूब खूब मुबारक हो आज का यह मुबारक दिन।

सिमटे पृष्ठ में मेरी आज की कविता./ आनंद शंकर

 


जाने पहली बार कब निकला होगा चाँद?

जाने किसने चाँद को देखा होगा पहली बार?

चाँद को देखकर वो शरमाया होगा,

या उसको देखकर शरमाया होगा चाँद?


चाँद के साथ उसकी दूधिया रोशनी,

पहाडों पर,नदियों की मचलती धारा पर,

या पेड़ों की डाल पर पड़ी होगी,

यह तो वो जाने या जानता होगा चाँद।


चाँद के साथ ही उतरे होंगे हजारों अफसाने,

उन अफसानों के साथ जुड़कर,

उसकी भीनी प्यार की खुशबू में,

डूबता,मचलता, महकता होगा चाँद!


चाँद शुरु से ही शीतल रहा होगा,

उसे बनानेवाले ने यही सोचकर बनाया होगा उसे,

कि जब उलझन में फँसे मन को कुछ नहीं सूझेगा,

तब उसे बहलाएगा, समझाएगा, हरषाएगा चाँद।


सब चाँद को चाहते हैं,

पर चाँद की , 

चाहत को समझना इतना भी आसान नहीं है,

मैं भी देखता हूँ, और भी देखते होंगे,

पर कितना खुशनसीब होगा वह ?

जिसे देखता होगा चाँद।


साभार - हिंदी विभाग

मगध विवि  गया 

मनोहर श्याम जोशी सा कोई नहीं / प्रभात रंजन

 मनोहर श्याम जोशी से जब कोई पूछता था कि आपको अपनी सबसे अच्छी रचना कौन सी लगती है तो उनका जवाब होता- अगली, जो मैं लिखने वाला हूँ! एक बार लिख लेने के बाद वे उस रचना से बाहर निकल जाते थे और अगली रचना की तैयारी में लग जाते थे। यह तैयारी अक्सर मानसिक होती थी।



 उनके पास ऐसे-ऐसे उपन्यासों के आइडिया होते थे जिनको वे पूरा का पूरा सुना देते थे। मुझे उन्होंने कई उपन्यास सुनाए जिनमें एक उन्होंने लिखा भी और जो उनके मरणोपरांत प्रकाशित हुआ, 'वधस्थल' नाम से। इस उपन्यास का वर्किंग टाइटिल उन्होंने 'killing field' रखा था। तब वे कम्बोडिया की यात्रा से लौटकर आए थे और वहाँ उन्होंने वहाँ के नेता पोल पॉट द्वारा किए गए नरसंहार के बारे में जाना, नरसंहार से जुड़े स्थलों को देखा तो इतने विचलित हुए कि लौटकर कम्बोडिया पर रिसर्च करने लगे और यह उपन्यास लिखते रहे। लिखते जाते थे, काटते जाते थे। अपने जीवन काल में वे लगातार अपने लिखे में संशोधन करते रहे।


बहरहाल, एक उपन्यास उन्होंने मुझे सुनाया था जिसका वर्किंग टाइटल उन्होंने 'सम्यक् श्रद्धांजलियाँ' रखा था। उपन्यास का मूल कथानक यह था किसी छोटे से क़स्बे में एक लेखक की मृत्यु हो जाती है। ऐसे लेखक की जो जीवन भर इस आशा में लिखता रहा कि एक दिन हिंदी के सत्ता केंद्रों की नज़र उनके लिखे पर जाएगी और वे उनके लिखे के महत्व को समझेंगे। लेखक के जीते जी ऐसा नहीं हो पाया। लेकिन उस लेखक के निधन के बाद चमत्कार हो गया।


 हिंदी के सभी बड़े आलोचकों ने उस लेखक के लिए लम्बी लम्बी श्रद्धांजलि लिखी। पूरा उपन्यास यही होता। अगर वे लिखते तो उत्तर-आधुनिक विधा पैरोडी का संभवतः वह पहला और सशक्त उपन्यास होता। उस उपन्यास में हिंदी के सभी प्रख्यात आलोचकों के नाम से उनकी ही शैली में श्रद्धांजलि दी जानी थी। सबसे पहली श्रद्धांजलि नामवर सिंह की ओर से होती, सुधीश पचौरी, पुरुषोत्तम अग्रवाल आदि सभी प्रमुख आलोचकों की ओर से उस उपन्यास में उनके नाम से श्रद्धांजलियाँ लिखी जानी थीं।


 मैंने ऊपर ही लिखा है कि वे महज आइडिया ही नहीं सुनाते थे बहुत विस्तार से सुनाते थे। नामवर जी, सुधीश जी की श्रद्धांजलियाँ सुनकर मैं हँसते हँसते लोटपोट हुआ जा रहा था। बीच बीच में उनको अपनी ओर से आलोचकों के नाम भी सुझाता जाता था। कुल मिलाकर, तेरह आलोचकों की श्रद्धांजलियाँ किताब में होनी थी। तेरह इसलिए क्योंकि जब उस लेखक का निधन हुआ था तो वह अपना तेरहवाँ उपन्यास लिख रहे थे। तेरह की संख्या से मृत्यु के बाद मनाई जाने वाली तेरहवीं की ध्वनि भी आती है। यह चुभता हुआ व्यंग्य होता हिंदी की परम्परा पर जिसमें अनेक लेखकों का सम्यक् मूल्यांकन उनके निधन के बाद ही हुआ। प्रसंगवश, मेरे द्वारा सुझाए गये कई आलोचकों के नाम उन्होंने इस उपन्यास में शामिल किए लेकिन विश्वनाथ त्रिपाठी का नहीं किया। क्यों नहीं किया यह नहीं बताऊँगा! 

मनोहर श्याम जोशी के निधन के बाद मैंने कई बार सोचा कि इस उपन्यास को मैं ही लिख डालूँ। पूरा उपन्यास तो मेरा सुना हुआ ही था। लेकिन भाषा की वह प्रतिभा कहाँ से लाता। 

सादर नमन ऐसे जोशी जी को।


– प्रभात रंजन


साभार -हिंदी विभाग

 मगध विवि गया 

राजू शर्मा की कहानियाँ / चंदन पाण्डेय

 कुछ रचनाकारों को पढ़कर अनोखा एहसास होता है। जैसे राजू शर्मा। मिजाज खुश हो जाता है।


उनकी एक कहानी मिली: 'चुनाव के समक्षणिक सितम'। कहानी क्या है, यह तो आप पढ़कर जान ही लेंगे लेकिन जिस सूरत में वह बयान की गई है, वह, बस, कमाल ही समझिये।


मैं यहाँ पसंद नापसंद से इतर कहना यह चाहता हूँ कि लिखाई में जो 'हरकतें' हैं, वह शुरू से ही 'हुक' कर लेती है। वे 'हरकतें' चूँकि कहानी में गुँथी हुई हैं इसलिये आपको वह एहसासे-ज्यादती भी नहीं महसूस होती कि लेखक ने चमकदार वाक्यों का झालर दिखला दिया।


विषय में नयापन है, लेखन में विश्वास है वरना भारत के संविधान की उद्देशिका को लेकर कहानी लिखना चुनौतीपूर्ण है।


राजू शर्मा का ब्रिलियेंस पाठक से रत्ती या जवा भर धैर्य की माँग करता है। वह अगर है आपके पास तब आपको उन्हें पढ़ना चाहिये। अगर आप हिंदी में बेहतरीन लेखन के न होने का रोना रोते हुये टीवी और फोन देखकर थक जाते हैं, तब तो अवश्य ही पढ़िये। सोशल मीडिया पर प्रचार की उपलब्धता ने गुणवत्ता को अलग से उकेरने की गुंजाइश पर बहुत पहले से बुलडोजर चला रखा है, समतल कर दिया है, उत्तर प्रदेश की सरकार ने शायद इन्हीं से बुलडोजर का आइडिया लिया हो, ऐसे में अगर हम इतने साहसी नहीं कि खराब रचना को खराब कह सकें तब कम से कम अच्छी को अच्छी तो जरूर कहना चाहिये।


यह सप्ताह राजू शर्मा की उन पाँच कहानियों के नाम जो 'नोटिस - 2' और 'व्यभिचारी' नामक संग्रह में छपी हैं।


– चन्दन पाण्डेय

साभार - हिंदी विभाग  मगध  विवि, गया 

मंगलवार, 29 मार्च 2022

भवानी प्रसाद मिश्र / हिंदी विभाग मगध यूनिवर्सिटी गया

 भवानी प्रसाद मिश्र


जन्म : 29 मार्च 1913, होशंगाबाद


उनकी जयंती के अवसर पर उनकी रची 'कवि' नामक यह कविता पढ़िए और गुनिए -


कलम अपनी साध

और मन की बात बिल्कुल ठीक कह एकाध


यह कि तेरी भर न हो तो कह

और बहते बने सादे ढंग से तो बह

जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख

और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख

चीज ऐसी दे कि जिसका स्वाद सिर चढ़ जाए

बीज ऐसा बो कि जिसकी बेल बन बढ़ जाए

फल लगें ऐसे कि सुख–रस सार और समर्थ

प्राण संचारी की शोभा भर न जिनका अर्थ


टेढ़ मत पैदा कर गति तीर की अपना

पाप को कर लक्ष्य कर दे झूठ को सपना

विंध्य रेवा फूल फल बरसात और गरमी

प्यार प्रिय का कष्ट कारा क्रोध या नरमी

देश हो या विदेश मेरा हो कि तेरा हो

हो विशद विस्तार चाहे एक घेरा हो

तू जिसे छू दे दिशा कल्याण हो उसकी

तू जिसे गा दे सदा वरदान हो उसकी


साभार हिंदी विभाग मगध यूनिवर्सिटी

गया -+बिहार

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उफ़ ये बंदर हाय ये लीडर/ सुनील सक्सेना


अलकापुरी राज्‍य में मलकापुर नाम का एक नगर था । नगर आम नगरों जैसा ही था । अलकापुरी का राजा परंपरागत राजाओं की तरह सेम-टू-सेम  था । आदतों में । हरकतों में । बतोलेबाजी में । फिकरेबाजी में । अहंकारी । न स्‍वयं सोचे । न किसी की सलाह माने । रियाया की दुख तकलीफों से बेखबर ।  सत्‍ता के नशे में चूर ।


मलकापुर की प्रजा राजकीय व्‍यवस्‍था के बाद अगर किसी से परेशान थी तो नगर के बंदरों से । आए दिन बंदरों की  टोली नगरवासियों के घर में घुस जाती । उत्‍पात मचाती । बंदर कभी छत पर सूख रहे बहू-  बेटियों के कपड़े उठा ले जाते । तो कभी आंगन में पड़े बड़ी-पापड़ खा जाते । हद तो तब हो गई जब एक दिन एक बंदर घर के बाहर खेल रहे मजदूर के बच्‍चे को उठाकर ले गया और पास के पेड़ पर चढ़ गया । लोग इकठ्ठा हो गए । शोर मचाने लगे । कुछ ने जमीन पर डंडे फटकारे । कोई हुश-हुश करता । तो कोई हट-हट की आवाज से बंदर को भगाने का प्रयास करता । बंदर ढीठ था । वो बच्‍चे को गोद में लिए पेड़ पर डटा रहा  । तभी भीड़ में से किसी सयाने ने कहा – सुनो भाई लोगों,  ये बंदर हनुमान जी का  दूसरा रूप हैं । बड़े नकलची होते हैं ये बंदर । मेरी मानो तो बजरंग बली के नाम का परसाद बंदर के एक हाथ में धर दो तो वो अपने दूसरे हाथ से बच्‍चा लौटा देगा ।  बुजुर्गवार का आइडिया उस दिन काम कर गया । लेकिन  बंदरों का आतंक नगर में कम नहीं हुआ ।    


त्रस्‍त जनता बंदरों की शिकायत लेकर राजा के पास पहुंची । कोई सुनवाई नहीं हुई । आखिर हारकर इलम-हुनरवाले नगरवासियों ने जन सहयोग से एक बड़ा पिंजरा बनवाया । पिंजरे में गरीब-गुरबों ने अपने हिस्‍से की दाल-रोटी रख दी । इस उम्‍मीद में कि बंदर लालच में खाने आएंगे और पिंजरे में कैद हो जाएंगे । पर बंदर बड़े शाणे । पिंजरे के पास आते । देखते । आगे बढ़ जाते । पिंजरे में कोई नहीं घुसता ।


नगरवासी सलाह के लिए फिर सयाने के पास पहुंचे । वयोवृद्ध ने कहा – देखिए बंदर ऐसे पिंजरे में कभी नहीं आएंगे । बंदर अपने लीडर को बड़ा “स्ट्रिक्‍टली फॉलो” करते हैं । एक बार अगर  लीडर पिंजरे में घुस गया तो सारे बंदर पिंजरे में आजाएंगे । इसलिए पहले इनके लीडर को पकड़ो । बंदरों से मुक्ति का यही एक मात्र रास्‍ता है ।


 सवाल उठा कि ये कैसे पता चलेगा कि बंदरों का लीडर कौन है ? सयाने ने जिज्ञासा शांत करते हुए कहा –  बड़ा आसान है लीडर को पहचानना । लीडर को भीड़ पसंद है । समारोह । स्‍वागत । वंदनवार । जय जयकार । नारे । इन सारे ठन-गन में जो सबसे आगे हो वही लीडर है । मेरी मानो तो झट से बजरंगबली के मंदिर में कुछ पाठ-वाठ करवाओ । लीडर का आगमन निश्चित समझो ।   


 मंदिर में भंडारे का भव्‍य आयोजन किया गया । पास ही में फूलों और रंगबिरंगी पन्नियों से सुसज्जित  विशाल पिंजरा  रखा गया ।  उसमें  नाना प्रकार के फल,  स्‍वादिष्‍ट मिष्‍ठान आदि रखे गए । लीडर आदत के मुताबिक वानर दल के साथ पहुंचा । ऐसी अभूतपूर्व आवभगत से अभिभूत लीडर अपने संगी-साथियों के साथ पिंजरे में प्रवेश कर गया । पिंजरा लॉक हो गया । हुर्रे-हुर्रे । जनता के उत्‍साह कोई पारावार न था । समस्‍या अब ये थी कि इन बंदरों के साथ क्‍या सलूक किया जाए ? मार दिया जाए या कहीं छोड़ दिया जाए ? तय हुआ हत्‍या-वत्‍या से मसले हल नहीं होते लिहाजा बंदरों को नगर से दूर जंगलों में छोड़ दिया जाए ।


राजा के संज्ञान में ये घटना आई । राजा अचंभित । गुप्‍तचरों ने बताया कि नगर में एक सयाना-बुजुर्ग है जो आजकल जनता जनार्दन को गाइड कर रहा है । वही उनका अब पथ-प्रदर्शक और रहबर है  । प्रजा जागरूक हो गई है । इतना ही नहीं उस बुजुर्गवार ने जनता के मन में इस बात को पुख्‍ता कर दिया है कि लीडर ही उनके दुखों का असली कारण है । राजा के चेहरे पर कुटिल मुस्‍कान तिर गई।-बुजुर्ग है जो आजकल जनता जनार्दन को गाइड कर रहा है । वही उनका अब पथ-प्रदर्शक और रहबर है  । प्रजा जागरूक हो गई है । इतना ही नहीं उस बुजुर्गवार ने जनता के मन में इस बात को पुख्‍ता कर दिया है कि लीडर ही उनके दुखों का असली कारण है । राजा के चेहरे पर कुटिल मुस्‍कान तिर गई।


वो जनता का मार्गदर्शक, सरपरस्‍त, सयाना कुछ दिन बाद शहर में दिखाई नहीं दिया । कहां गया ?  कुछ पता नहीं । जितने मुंह उतनी बातें । कोई कहता है वो शहर छोड़ गया । कुछ कहते हैं मर गया । कुछ बोलते हैं उसे मरवा दिया । इस बीच राजा ने उसे “दिव्‍य आत्‍मा” घोषित कर दिया । नगर के सदर बाजार में उसकी आदमकद मूर्ति स्‍थापित करवा दी । जन भागीदारी से बना पिंजरा अजायब घर की शोभा बढ़ा रहा है । बंदर एक बार फिर नगर में लौट आएं हैं । जनता बेबस है । किसी शायर ने सही कहा है - मुंसिफ की अक्‍ल गुम है इस जे़रे बहस में, मक़तूल फिदा है क़ातिल के हुनर पे ।


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शनिवार, 26 मार्च 2022

अनागढ़

प्रस्तुति - अखौरी प्रमोद


प्रसिद्ध मूर्तिकार से किसी ने पूछा कि एक ऊबड़ खाबड़ अनगढ़ पत्थर से आपने इतनी सुंदर मूर्ति कैसे बना दी ? आपकी मूर्ति कला का कौशल अद्भुत है !

मूर्तिकार ने विनम्रता से उत्तर दिया-मैने कहाँ ,कौन सी मूर्ति बनाई, मूर्ति तो उसी पत्थर के अंदर थी, मैने तो सिर्फ पत्थर के ऊपर की धूल झाड़ दी है!

अपनी मूर्ति गढ़ने के कौशल का श्रेय न लेना भले उस मूर्तिकार की अति विनम्रता थी पर उसे उन महान कलाकारों ,चित्रकारों और मूर्ति कारों की महान परम्परा से जोड़ती हैं जो सदियों पूर्व पहाड़ की कन्दराओं, सुदूर गुफाओं में  जाकर अपनी कलाओं को उकेरते थे   और अनाम रहकर अपनी ख्याति से परहेज़ करते थे ।अजंता ऐलोरा की गुफाएं आज भी इसकी साक्षी हैं । खजुराहो कीअद्भुत मूर्तियां किन महान मूर्तिकारों ने गढ़ी  इसकी जानकारी इतिहास के पन्नों में खोजने पर भी नहीं मिलती जबकि दूसरी तरफ आत्मश्लाघा के संतृप्त घोल की तरहअपने मूर्ति कौशल को भुनाने वालों की लंबी कतार भी है जिसका छोर अनंत है जो अपनी नाखून जैसी कृति को भी

पहाड़ खोदने जैसा श्रेय हासिल करने में ज़मीन आसमान एक किये हुए हैं ।उनकी नज़र में उनकी सारी प्रतिभा, कला कौशल  धंधे में बदल गई है । शायद वे भूल गए हैं कि समय और इतिहास किसी को भी माफ नहीं करता ।

मुगल बादशाहों ,नवाबों से लेकर राजा रजवाड़ों तक मे अपनी ख्याति बनाये रखने के लिए भवन , इमारतें दुर्ग,बनवाये जाते थे, बावलियां खुदवाई जाती थीं, सराय बनवाई जाती थी  कालांतर में जमीदारों ने धर्मशाला,कुएं तक बनवाये।

पर यह सारे कार्य कलाप सामाजिकता से जुड़े हुए थे । लखनऊ के छोटे बड़े इमाम बाड़े के बीच बना रूमी दरवाज़ा इसकी मिसाल है। अंग्रेजों के शासन के आते आते रोब दाब दिखाने के लिए अंग्रेज़ शासकों की मूर्तियां बनवाने का चलन शुरू हुआ।

    मूर्ति कला में उफान अंगेरजी शासन के दौरान आया जब महारानी विक्टोरिया की मूर्ति जगह जगह लगाई गई ।उनकी मूर्ति की सुरक्षा के लिए गारद भी लगाई गई ।महारानी की मूर्ति की स्थापना एक धमक थी ब्रिटिश शासन की । इसके बाद  लाट साहबों की मूर्तियों को लगाने की होड़ लग गयी। आम हिंदुस्तानी  लाट साहबों की मूर्ति के पास गुजरते हुए सहम जाता था यही नहीं उसे सिर झुकाके अदब भी दर्शाना पड़ता था। अंग्रेजी शासन के खत्म होते ही उन मूर्तियों को हटा कर धूल खाने के लिए छोड़ दिया गया।

इसके दूसरी ओर भक्ति भावना में  साधू सन्तो की मूर्तियां लगाई गईलेकिन गोस्वामी तुलसी दास की मूर्ति के अलावा किसी भी सन्त महंत की मूर्ति को छतरी नसीब नही हुई। आज  भी सूरदास ,कबीर और नाहरदास की मूर्तियां जाड़ा, गर्मी ,बरसात झेलती देखी जा सकती हैं।


महात्मा गांधी,सुभाष चन्द्र बोस और नेहरू की मूर्तियों की स्थापना के बाद जिले से लेकर तहसील स्तर तक स्थानीय दिवंगत नेताओं की मूर्तियों की बहार दिखने लगी । बाद में डॉ अम्बेडकर की मूर्तियां बसपा की राजनीतिक पकड़ की साक्ष्य बनी ।इसी के साथ जीवित नेता काशी राम के साथ ही बसपा सुप्रीमो मायावती की मूर्ति का अनावरण भी उन्ही के हाथों सम्पन्न करते होने का दृश्य भी लोगों ने देखा 

पश्चात साहित्य और सांस्कृतिक पक्ष भी कैसे अछूता रहता। प्रेम चन्द से लेकर महावीर प्रसाद द्विवेदी,श्याम सुंदर दास , पुरुषोत्तम दास टण्डन की मूर्तियां भी सरकारों की साहित्य प्रियता की साक्ष्य में लगाई गईं। काशी और इलाहाबाद का कोई चौराहा,पार्क और सड़क नही बचा जो मूर्तियों से आच्छादित न हो । नाटी इमली के चौराहे पर "वंशी और मादल "

के रचनाकार प्रख्यात साहित्यकार ठाकुर प्रसाद सिंह की मूर्ति लगाने का जब प्रस्ताव आया तब भी ईश्वर गंगी के रास्ते पर पूर्व मुख्यमंत्री टी एन सिंह की मूर्ति न लग पाने का शिकवा भी उठा। ठाकुर प्रसाद सिंह की प्रतिमा का लोकार्पण तत्कालीन राज्यपाल विष्णु कांत शास्त्री ने यह कहते हुए किया कि वे मेरे बड़े भाई थे। उन्हें हम सभी ठाकुर भाई कहा करते थे मैं भी उन्हें प्रणाम निवेदित करने आया हूँ। अकेले ठाकुर भाई की प्रतिमा उस चौराहे पर आज भी लगी है जिन्हें उनके परिवार जन निश्चित तिथि पर माला बदलते रहते है जब कि काशी की सैकड़ो प्रतिमाएं ऐसी है जिन्हें लगा कर लोग भूल गए है उनकी धूल झाड़ने भी कोई नही आता । हां मालवीय जी की प्रतिमा जरूर इसकीअपवाद है जिसकी झाड़ पोंछ सरकारी तौर पर हर पखवारे की जाती है और उधर से निकलने वाले मालवीय जी की प्रतिमा को बिना प्रणाम किये नही रह पाते। उनका अटूट रिश्ता आज  भी कायम है ।

दिलचस्प बात यह है कि जिन महान भावों की प्रतिमा लगाई जाती है उन्ही की हो यह जरूरी नही है। प्रदेश की राजधानी के एक बड़े चौराहे पर हुई एक दुर्घटना के बाद जब एक ड्राइवर से पूछा गया कि दुर्घटना के समय किधर देख रहा था  उसने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया कि सर !मैं देख रहा था कि नेता जी की जगह किसकी मूर्ति लगी है?

इससे भी दिलचस्प वाकया निराला जी की मूर्ति को लेकर है जिसे तत्कालीन महापौर की अनुपस्थिति में लगा दी गयी थी । जब महापौर ने प्रतिमा का अनावरण किया तो वे भी अचम्भे में पड़ गए। निराला जी के स्थान पर प्रसिद्ध शायर मीर अनीस की प्रतिमा लगा दी गयी थी। महा पौर ने स्थिति सम्भालते हुए कहा कि यही मूर्ति निराला जी की असली मूर्ति है जिसे कलाकार ने अपने मन के चक्षुओं से गढ़ा है। श्री अमृतलाल नागर से निराला का अपमान सहन नहीं हुआ उन्होंने यह कहते हुए प्रतिमा स्थल पर अनशन प्रारम्भ कर दिया कि नागर के नगर में निराला का अपमान!नागर अपने प्राण दे देगा ।  सूचना पाकर महापौर प्रतिमा स्थल पर पहुंचे। नागर जी ने मुंह घुमा लिया। महापौर ने नागर जी को मनाते हुए कहा -नागर जी !मैं तो साहित्यकारों का सेवक हूँ एक दिन आपकी भी प्रतिमा मैं ही लगवाऊंगा। नागर जी सुनते ही लाल पीले हो गये "यानी मेरी जगह किसी और अनीस को खड़ा करोगे !"

महापौर ने वायदा किया क्षमा याचना की की मूर्तिकार के विदेश से लौटते ही निराला जी की नई प्रतिमा लगा दी जाएगी। नागर जी ने उस समय तो इस आश्वासन के बाद समाप्त कर दिया लेकिन कुछ समय बाद उन्होंने स्वयं मूर्तिकार को फोन करके पूछा आप विदेश से कब लौटे ? मूर्तिकार अचम्भे में था बोला-मैं तो यहीं था विदेश आज तक कभी भी गया ही नहीं। सुनते ही नागर जी बमक पड़े ।लेकिन उसी के कुछ घण्टे बाद ही राज्य सरकार ने एक राजाज्ञा जारी करके प्रदेश की सभी नगर महॉपालिकाओं के महापौरों को एक झटके में बर्खास्त कर दिया। तब से चौदह सालों तक निराला जी की मूर्ति के स्थान पर  मीर अनीस की प्रतिमा खड़ी रही।कालांतर में  नई सरकार के गठित होने पर निराला जी की नई प्रतिमा तो प्रतिस्थापित कर दी गयी पर मीर अनीस की प्रतिमा अभी भी धूल खा रही है ।

प्रतिमाये  चाहे किसी की  हों , किसी नेता की या धार्मिक महात्मा की अथवा किसी कलाकार ,कवि, फिल्मी अभिनेता की सभी का हश्र यही होना है। राजनेताओं ,फिल्मी अभिनेताओं की मोमिया प्रतिमा भी इसी हालत में पहुँचेंगी यह तय है।


अनूप श्रीवास्तव

लेखक वरिष्ठ पत्रकार है

09335276946

बैठे-ठाले/ अनूप श्रीवास्तव

 


कहावतें गले पड़ गयी हैं !


कभी बातें

मुहावरेदार हुआ करती थीं

अब तो लगता है

मुहावरे ही गले पड़ गए हैं.


कभी कहा जाता था

ऊंट पहाड़ के नीचे

आ गया है

लेकिन जब हम

पहाड़ के नीचे पहुंचे

तब जाकर यह राज़ खुला

यहां हर चोटी

सच्चाई से आंखे मीचे है

और ऊँट पहाड़ के नीचे नहीं

खुद पहाड़ ऊंट के नीचे है .

लेकिन यह पहाड़ की समस्या

तो गजब ढा रही है

नन्ही नन्ही बकरियों को ऊंट

और बड़े बड़े ऊंटों को

बकरियां बना रही है.


राजनीति में

ऊंट और पहाड़ का रिश्ता

गजब ढा रहा है


क्या पता कब कौन 

कितने अंदर पैठेगा

बड़े बड़े ऊंट परेशान हैं

कि न जाने यह पहाड़

किस करवट बैठेगा ?


हमने सुना था

एक और मुहावरा

ईंट का जवाब पत्थर से देना

हो सकता है तब

ईंटें सवाल करती हों

और पत्थर जवाब देते हों

अब पत्थर बोलते ही नहीं

आप ईंटे फेंकते रहिए

पत्थर मुंह खोलते ही नहीं


कुछ लोग कहते हैं

ईंट और पत्थर का हो गया

आपस मे समझौता है

जी हाँ, लोकतंत्र में

अक्सर ऐसा भी होता है .


और आपने सुनी होगी

एक और कहावत

एक ही नाव में सवार होना

जरा देखिये-हवाला का

कितना जबरदस्त बहाव है

सवार होने के लिए

सारे दलों के पास

एक ही नाव है

अब कहावतें ढूढे नहीं मिलती

सभी प्रथक प्रथक हैं

भला कोई कैसे

अपनी नाव को कैसे बचाये ?

हर नाव में बहत्तर से 

 ज्यादा छेद हैं.


 कहा जाता है कि

 एक मछली सारे तालाब को

 गन्दा कर देती है

 लेकिन सब यह कहावत भी

 किसी  के  गले

 नहीं उतर रही है

 अब तालाबों में मछलियां कहाँ

 उनकी जगह यहां

 बड़े बड़े मगरमच्छ हैं

  जो अंदर से मैले

  ऊपर से स्वच्छ हैं

 सारे मगरमच्छ मिलकर

 इस तालाब को

 देश समझ कर गन्दा कर रहे हैं


राम जाने !

इस देश मे

क्या होने वाला है

तालाब का हवाला देकर

 ये बड़े बूढ़े मगरमच्छ 

दशकों से कर रहे बवाला हैं

जिसे गन्दा करने में

इतने सारे मगरमच्छ जुटे हों

उस तालाब का अब

भगवान ही रखवाला है.


हम हैं कि कहावतों को

बैठकर रो रहे है लेकिन

उनपर तो उंगली 

तक नहीं उठा सकते

जो कम्बल ओढ़ कर

घी पी रहे हैं !

शुक्रवार, 25 मार्च 2022

मगही साहित्य

 

मगही साहित्य से तात्पर्य उस लिखित साहित्य से है जो पाली मागधीप्राकृत मागधीअपभ्रंश मागधी अथवा आधुनिक मगही भाषा में लिखी गयी है। ‘सा मागधी मूलभाषा’ से यह बोध होता है कि आजीवक तीर्थंकर मक्खलि गोसाल, जिन महावीर और गौतम बुद्ध के समय मागधी ही मूल भाषा थी जिसका प्रचलन जन सामान्य अपने दैनंदिन जीवन में करते थे। मौर्यकाल में यह राज-काज की भाषा बनी क्योंकि अशोक के शिलालेखों पर उत्कीर्ण भाषा यही है। जैनबौद्ध और सिद्धों के समस्त प्राचीन ग्रंथ, साहित्य एवं उपदेश मगही में ही लिपिबद्ध हुए हैं। भाषाविद् मानते हैं कि मागधी (मगही)[1] से ही सभी आर्य भाषाओं का विकास हुआ है।

साहिर लुधियानवी ,जावेद अख्तर और 200 रूपये

 एक दौर था.. जब जावेद अख़्तर के दिन मुश्किल में गुज़र रहे थे ।  ऐसे में उन्होंने साहिर से मदद लेने का फैसला किया। फोन किया और वक़्त लेकर उनसे...