मंगलवार, 31 अगस्त 2021

ऋषि या मुनि?

 प्रश्न :-नारद, वशिष्ट और भारद्वाज आदि ऋषि थे या मुनि थे ?

उत्तर :- ऋषि शब्द को समझने के लिए वैदिक शब्द ऋक् का निहित भावार्थ समझना होगा ।

 ऋ =ऋ वर्ण का प्रतीकार्थअसीम,अनन्त अनादि शून्य क्षेत्र होता है । वेद विज्ञान के आधार पर रचित श्रीदुर्गा सप्तशती ग्रंथ में ऐकार्णवीकृते विष्णुपद वर्णित किया है।

क् =  वर्ण का प्रतीकार्थ असीम -अनादि  शून्य क्षेत्र के मध्य में उत्पन्न ब्रह्मांड की उत्पत्ति का कारक ब्रह्मांड का शून्य क्षेत्र होता है।

        अतः ऋक् का अर्थ है असीम -अनादि  शून्य क्षेत्र के मध्य में उत्पन्न ब्रह्मांड की उत्पत्ति का कारक ब्रह्मांड का प्रथम प्रकट शून्य क्षेत्र है जिसे वेद विज्ञान में ब्रह्मा कहा गया है । इसीलिए वैदिक वर्णमाला के क वर्ण का प्रतीक अर्थ ब्रह्मा होता है । या यूं कहें कि क वर्ण  ब्रह्मा भाव का वाचक है । 

           इस विवेचना से ऋषि शब्द का अर्थ हुआ कि जो वैज्ञानिक असीम -अनादि  शून्य क्षेत्र के मध्य में उत्पन्न ब्रह्मांड की उत्पत्ति के कारक ब्रह्मांड के आधार प्रथम प्रकट शून्य क्षेत्र की उत्पत्ति और उसमें ब्रह्मांड के उत्पन्न होने के कारण तथा उस क्षेत्र में चल रही स्वचालित गतिविधियों को समझता है और  इनमें से किसी भी है विषय पर अपनी शोध के आधार पर विज्ञान परक आविष्कार करता है वह वैज्ञानिक ऋषि होता है ।

       वेदों,अरण्यक एवं ब्राह्मण ग्रंथों में ऋषि शब्द ऐसे ही वैज्ञानिकों और विज्ञान के विद्वानों के लिए प्रयुक्त हुआ है। 

        मुनि शब्द में प्रयुक्त वर्णों के अनुसार स्थिति इस प्रकार है ।

मु= उ की मात्रा सहित म वर्ण का प्रतीकार्थ निरंतर सृजनशील महत्त्व ब्रह्म प्रकृति होता है।

नि र्‍ इ की मात्रा सहित न वर्ण का प्रतीकार्थ अदृश्य रूप में सक्रिय पुरुषतत्व (basic being element of the universe) होता है। 

           इस विवेचना के अनुसार मुनि शब्द का अर्थ है कि  सृजनशील प्रकृति और अदृश्य रूप में सक्रिय सजीव पुरुष तत्व  की समझ रखने वाला विचारशील व्यक्ति मुनि होता है !

          दक्षिण भारत में वैदिक युग के बाद वैदिक ज्ञान परंपरा के ही विकसित वेदांत दर्शन के वैचारिक धरातल पर लिखित उपनिषदों और पुराणों में मुनि शब्द का प्रयोग बहुत हुआ है।  

          उक्त विवेचनाओं के अनुसार ऋषि वैज्ञानिक होता है और मुनि अपने विवेक और अपनी ज्ञान संपदा से ब्रह्मांड के स्वरूप और इसके अंदर की समस्त गतिविधियों के साथ जैविक संपदा के संबंन्धों को अध्यात्म ( स्वभाव )  ज्ञान की विधि से समझने वाला महामानव होता  है।

            इस अंतर के अनुसार वैदिक युग  के नारद, वशिष्ट और भारद्वाज  सहित समस्त ऋषिगण वैज्ञानिक थे और कपिलदेव की अध्यात्म विचारधारा आधार पर सृष्टि और उससे स्वयं के संबंध को समझने की विचार शैली परआधारित चिंतनशील महामानव मुनि थे । मुनि परंपरा के प्रवर्तक कपिल मुनि थे और श्रीसुखदेवजी महाराज मुनि परंपरा के ही सनातन धर्म रक्षक महामुनि थे। 

          कालांतर में जैन मत के वेद विरोधी अनेक चिंतक हुये जिन्हें मुनि कहा गया । आज भी जैन मत के सभी साधुओ को मुनि कहा जाता है । 

           इस पोस्ट को लिखने के लिए मैं काफी समय से विचार कर रहा था । हो सकता  उत्तर वैदिक साहित्य के अरण्यक और ब्राह्मण ग्रंथों में मुनि शब्द मिल जाए । उस कृति को वैदिक गुरुकुल ज्ञान परम्परा  और उत्तर वैदिक

 युग की विकसित ज्ञान परंपरा के संधि काल का ग्रंथ मानना चाहिए ।

            सभी मित्रों से निवेदन है कि इस पोस्ट के सभी कथन केवल मेरे चिंतन पर आधारित है। इसकी शास्त्रीय पुष्टि मेरे पास नहीं है । जो विद्वान इसकी आलोचना करना चाहिए उनका में स्वागत करूंगा ।

सनातन धर्म ध्वजवाहक

पंडित शंभू लाल शर्मा " कश्यप "

सोमवार, 30 अगस्त 2021

परनिंदा का पाप (ओड़िशा लोक-कथा)

 एक राजा के दरबार में ब्राह्मण भोज का आयोजन किया गया । छप्पनभोग महल के खुले आंगन में बनवाए गए ।उसी वक्त अनजाने में एक हादसा हो गया ।


खुले में पक रही रसोई के ऊपर से एक चील अपने पंजे में जिंदा सांप दबोचकर निकल रही थी । सांप ने चील के पंजों से छुटकारा पाने के लिए फुफकार भरी और साथ ही जहर उगला । उसके मुख से निकली जहर की कुछ बूंदें पाकशाला में पक रही रसोई के व्यंजनों में गिर गईं । जहरीले भोजन के खाने से सभी ब्राह्मण काल के गाल में समा गए ।


जब राजा को इस बात का पता चला तो ब्रह्महत्या के पाप ने उसको दुखी कर डाला ऐसे में सबसे ज्यादा मुश्किल खड़ी हो गई यमराज के लिए कि आखिर इस पाप का भागी कौन है और ब्रह्महत्या के पाप के लिए किसको दंड दिया जाए ।


सबसे पहला नाम राजा का आया क्योंकि राजा ने ब्राह्मणों को भोजन के लिए आमंत्रित किया था । यमराज के मन में दूसरा नाम आया रसोइये का जिसने ब्राह्मणों लिए महाप्रसाद तैयार किया था । यमराज को तीसरा ख्याल चील का आया जो सांप को पकड़कर ले जा रही थी ।


सबसे अंत में यमराज ने सांप के पाप पर विचार किया । लंबे समय तक यमराज अनिर्णय की स्थिति में रहे कि आखिर ब्रह्महत्या का दंड किसको दिया जाए । घटना के कुछ समय बाद कुछ ब्राह्मण राजा से मिलने के लिए उसके महल में जा रहे थे । ब्राह्मणों ने एक महिला से महल का रास्ता पूछ लिया । तब महिला ने ब्राह्मणों को रास्ता बताते हुए कहा' देखो भाई जरा ध्यान से जाना । वह राजा ब्राह्मणों को खाने में जहर देकर मार देता है ।


जैसे ही महिला ने यह बात कही यमराज ने फैसला कर लिया कि मृत ब्राह्मणों के पाप का फल इस महिला के खाते में जायेगा और यह दंड को भोगेगी ।

यमदूतों ने यमराज से पूछा -"प्रभु ऐसा क्यों ?"


तब यमराज ने कहा -'जब कोई व्यक्ति पाप करता है तो उसको पापकर्म करने में बड़ा आनंद आता है । ब्राह्मणों की मौत से न तो राजा को, न रसोईये को, न चील को और न ही सांप को आनंद आया ये सभी इस अपराध से अनजान भी थे । महापाप की इस दुर्घटना का इस महिला ने जोर - शोर से बखान कर जरूर मजा लिया इसलिए ब्रह्महत्या का यह पाप इसके खाते में जाएगा । अक्सर हम यही सोचते हैं कि हमने कभी कोई बड़ा पाप नहीं किया है उसके बावजूद हमको किस बात का दंड मिल रहा ।

यह दंड वही होता है, जो हम परनिंदा का पाप कर संचित करते रहते हैं ।

हनुमान ब्रह्मा जी औऱ बाली

 आज आपको  हनुमान जी एक लोक कथा के बारे में बताने जा रहा हूँ,


*जिसका विवरण संसार के किसी भी पुस्तक में आपको शायद ही मिलेगा..

 जय श्री राम,


*कथा का आरंभ तब का है ,,*


जब बाली को ब्रम्हा जी से ये वरदान प्राप्त हुआ,,

की जो भी उससे युद्ध करने उसके सामने आएगा,,

उसकी आधी ताक़त बाली के शरीर मे चली जायेगी,,


और इससे बाली हर युद्ध मे अजेय रहेगा,,


सुग्रीव, बाली दोनों ब्रम्हा के औरस ( वरदान द्वारा प्राप्त ) पुत्र हैं,,


और ब्रम्हा जी की कृपा बाली पर सदैव बनी रहती है,,


बाली को अपने बल पर बड़ा घमंड था,,

उसका घमंड तब ओर भी बढ़ गया,,

जब उसने करीब करीब तीनों लोकों पर विजय पाए हुए रावण से युद्ध किया और रावण को अपनी पूँछ से बांध कर छह महीने तक पूरी दुनिया घूमी,,


रावण जैसे योद्धा को इस प्रकार हरा कर बाली के घमंड का कोई सीमा न रहा,,


अब वो अपने आपको संसार का सबसे बड़ा योद्धा समझने लगा था,,


और यही उसकी सबसे बड़ी भूल हुई,,


अपने ताकत के मद में चूर एक दिन एक जंगल मे पेड़ पौधों को तिनके के समान उखाड़ फेंक रहा था,,


हरे भरे वृक्षों को तहस नहस कर दे रहा था,,


अमृत समान जल के सरोवरों को मिट्टी से मिला कर कीचड़ कर दे रहा था,,


एक तरह से अपने ताक़त के नशे में बाली पूरे जंगल को उजाड़ कर रख देना चाहता था,,


और बार बार अपने से युद्ध करने की चेतावनी दे रहा था- है कोई जो बाली से युद्ध करने की हिम्मत रखता हो,,

है कोई जो अपने माँ का दूध पिया हो,,

जो बाली से युद्ध करके बाली को हरा दे,,


इस तरह की गर्जना करते हुए बाली उस जंगल को तहस नहस कर रहा था,,


संयोग वश उसी जंगल के बीच मे हनुमान जी,, राम नाम का जाप करते हुए तपस्या में बैठे थे,,


बाली की इस हरकत से हनुमान जी को राम नाम का जप करने में विघ्न लगा,,


और हनुमान जी बाली के सामने जाकर बोले- हे वीरों के वीर,, हे ब्रम्ह अंश,, हे राजकुमार बाली,,

( तब बाली किष्किंधा के युवराज थे) क्यों इस शांत जंगल को अपने बल की बलि दे रहे हो,,


हरे भरे पेड़ों को उखाड़ फेंक रहे हो,

फलों से लदे वृक्षों को मसल दे रहे हो,,

अमृत समान सरोवरों को दूषित मलिन मिट्टी से मिला कर उन्हें नष्ट कर रहे हो,,

इससे तुम्हे क्या मिलेगा,,


तुम्हारे औरस पिता ब्रम्हा के वरदान स्वरूप कोई तुहे युद्ध मे नही हरा सकता,,


क्योंकि जो कोई तुमसे युद्ध करने आएगा,,

उसकी आधी शक्ति तुममे समाहित हो जाएगी,,


इसलिए हे कपि राजकुमार अपने बल के घमंड को शांत कर,,


और राम नाम का जाप कर,,

इससे तेरे मन में अपने बल का भान नही होगा,,

और राम नाम का जाप करने से ये लोक और परलोक दोनों ही सुधर जाएंगे,,


इतना सुनते ही बाली अपने बल के मद चूर हनुमान जी से बोला- ए तुच्छ वानर,, तू हमें शिक्षा दे रहा है, राजकुमार बाली को,,

जिसने विश्व के सभी योद्धाओं को धूल चटाई है,,


और जिसके एक हुंकार से बड़े से बड़ा पर्वत भी खंड खंड हो जाता है,,


जा तुच्छ वानर, जा और तू ही भक्ति कर अपने राम वाम के,,


और जिस राम की तू बात कर रहा है,

वो है कौन,


और केवल तू ही जानता है राम के बारे में,


मैंने आजतक किसी के मुँह से ये नाम नही सुना,


और तू मुझे राम नाम जपने की शिक्षा दे रहा है,,


हनुमान जी ने कहा- प्रभु श्री राम, तीनो लोकों के स्वामी है,,

उनकी महिमा अपरंपार है,

ये वो सागर है जिसकी एक बूंद भी जिसे मिले वो भवसागर को पार कर जाए,,


बाली- इतना ही महान है राम तो बुला ज़रा,,

मैं भी तो देखूं कितना बल है उसकी भुजाओं में,,


बाली को भगवान राम के विरुद्ध ऐसे कटु वचन हनुमान जो को क्रोध दिलाने के लिए पर्याप्त थे,,


हनुमान- ए बल के मद में चूर बाली,,

तू क्या प्रभु राम को युद्ध मे हराएगा,,

पहले उनके इस तुच्छ सेवक को युद्ध में हरा कर दिखा,,


बाली- तब ठीक है कल के कल नगर के बीचों बीच तेरा और मेरा युद्ध होगा,,


हनुमान जी ने बाली की बात मान ली,,


बाली ने नगर में जाकर घोषणा करवा दिया कि कल नगर के बीच हनुमान और बाली का युद्ध होगा,,


अगले दिन तय समय पर जब हनुमान जी बाली से युद्ध करने अपने घर से निकलने वाले थे,,

तभी उनके सामने ब्रम्हा जी प्रकट हुए,,


हनुमान जी ने ब्रम्हा जी को प्रणाम किया और बोले- हे जगत पिता आज मुझ जैसे एक वानर के घर आपका पधारने का कारण अवश्य ही कुछ विशेष होगा,,


ब्रम्हा जी बोले- हे अंजनीसुत, हे शिवांश, हे पवनपुत्र, हे राम भक्त हनुमान,,

मेरे पुत्र बाली को उसकी उद्दंडता के लिए क्षमा कर दो,,


और युद्ध के लिए न जाओ,


हनुमान जी ने कहा- हे प्रभु,,

बाली ने मेरे बारे में कहा होता तो मैं उसे क्षमा कर देता,,

परन्तु उसने मेरे आराध्य श्री राम के बारे में कहा है जिसे मैं सहन नही कर सकता,,

और मुझे युद्ध के लिए चुनौती दिया है,,

जिसे मुझे स्वीकार करना ही होगा,,

अन्यथा सारी विश्व मे ये बात कही जाएगी कि हनुमान कायर है जो ललकारने पर युद्ध करने इसलिए नही जाता है क्योंकि एक बलवान योद्धा उसे ललकार रहा है,,


तब कुछ सोंच कर ब्रम्हा जी ने कहा- ठीक है हनुमान जी,,

पर आप अपने साथ अपनी समस्त सक्तियों को साथ न लेकर जाएं,,

केवल दसवां भाग का बल लेकर जाएं,,

बाकी बल को योग द्वारा अपने आराध्य के चरणों में रख दे,,

युद्ध से आने के उपरांत फिर से उन्हें ग्रहण कर लें,,


हनुमान जी ने ब्रम्हा जी का मान रखते हुए वैसे ही किया और बाली से युद्ध करने घर से निकले,,


उधर बाली नगर के बीच मे एक जगह को अखाड़े में बदल दिया था,,


और हनुमान जी से युद्ध करने को व्याकुल होकर बार बार हनुमान जी को ललकार रहा था,,


पूरा नगर इस अदभुत और दो महायोद्धाओं के युद्ध को देखने के लिए जमा था,,


हनुमान जी जैसे ही युद्ध स्थल पर पहुँचे,,

बाली ने हनुमान को अखाड़े में आने के लिए ललकारा,,


ललकार सुन कर जैसे ही हनुमान जी ने एक पावँ अखाड़े में रखा,,


उनकी आधी शक्ति बाली में चली गई,,


बाली में जैसे ही हनुमान जी की आधी शक्ति समाई,,


बाली के शरीर मे बदलाव आने लगे,

उसके शरीर मे ताकत का सैलाब आ गया,

बाली का शरीर बल के प्रभाव में फूलने लगा,,

उसके शरीर फट कर खून निकलने लगा,,


बाली को कुछ समझ नही आ रहा था,,


तभी ब्रम्हा जी बाली के पास प्रकट हुए और बाली को कहा- पुत्र जितना जल्दी हो सके यहां से दूर अति दूर चले जाओ,


बाली को इस समय कुछ समझ नही आ रहा रहा,,

वो सिर्फ ब्रम्हा जी की बात को सुना और सरपट दौड़ लगा दिया,,


सौ मील से ज्यादा दौड़ने के बाद बाली थक कर गिर गया,,


कुछ देर बाद जब होश आया तो अपने सामने ब्रम्हा जी को देख कर बोला- ये सब क्या है,


हनुमान से युद्ध करने से पहले मेरा शरीर का फटने की हद तक फूलना,,

फिर आपका वहां अचानक आना और ये कहना कि वहां से जितना दूर हो सके चले जाओ,


मुझे कुछ समझ नही आया,,


ब्रम्हा जी बोले-, पुत्र जब तुम्हारे सामने हनुमान जी आये, तो उनका आधा बल तममे समा गया, तब तुम्हे कैसा लगा,,


बाली- मुझे ऐसा लग जैसे मेरे शरीर में शक्ति की सागर लहरें ले रही है,,

ऐसे लगा जैसे इस समस्त संसार मे मेरे तेज़ का सामना कोई नही कर सकता,,

पर साथ ही साथ ऐसा लग रहा था जैसे मेरा शरीर अभी फट पड़ेगा,,,


ब्रम्हा जो बोले- हे बाली,


मैंने हनुमान जी को उनके बल का केवल दसवां भाग ही लेकर तुमसे युद्ध करने को कहा,,

पर तुम तो उनके दसवें भाग के आधे बल को भी नही संभाल सके,,


सोचो, यदि हनुमान जी अपने समस्त बल के साथ तुमसे युद्ध करने आते तो उनके आधे बल से तुम उसी समय फट जाते जब वो तुमसे युद्ध करने को घर से निकलते,,


इतना सुन कर बाली पसीना पसीना हो गया,,


और कुछ देर सोच कर बोला- प्रभु, यदि हनुमान जी के पास इतनी शक्तियां है तो वो इसका उपयोग कहाँ करेंगे,,


ब्रम्हा- हनुमान जी कभी भी अपने पूरे बल का प्रयोग नही कर पाएंगे,,

क्योंकि ये पूरी सृष्टि भी उनके बल के दसवें भाग को नही सह सकती,,


ये सुन कर बाली ने वही हनुमान जी को दंडवत प्रणाम किया और बोला,, जो हनुमान जी जिनके पास अथाह बल होते हुए भी शांत और रामभजन गाते रहते है और एक मैं हूँ जो उनके एक बाल के बराबर भी नही हूँ और उनको ललकार रहा था,,

मुझे क्षमा करें,,


और आत्मग्लानि से भर कर बाली ने राम भगवान का तप किया और अपने मोक्ष का मार्ग उन्ही से प्राप्त किया,,


तो बोलो,

❤जय श्री राम❤

❤जय महावीर❤

हनुमान जी की लोक कथा

 आज आपको  हनुमान जी के एक लोक कथा के बारे में बताने जा रहा हूँ,


*जिसका विवरण संसार के किसी भी पुस्तक में आपको शायद ही मिलेगा..

 जय श्री राम,


*कथा का आरंभ तब का है ,,*


जब बाली को ब्रम्हा जी से ये वरदान प्राप्त हुआ,,

की जो भी उससे युद्ध करने उसके सामने आएगा,,

उसकी आधी ताक़त बाली के शरीर मे चली जायेगी,,


और इससे बाली हर युद्ध मे अजेय रहेगा,,


सुग्रीव, बाली दोनों ब्रम्हा के औरस ( वरदान द्वारा प्राप्त ) पुत्र हैं,,


और ब्रम्हा जी की कृपा बाली पर सदैव बनी रहती है,,


बाली को अपने बल पर बड़ा घमंड था,,

उसका घमंड तब ओर भी बढ़ गया,,

जब उसने करीब करीब तीनों लोकों पर विजय पाए हुए रावण से युद्ध किया और रावण को अपनी पूँछ से बांध कर छह महीने तक पूरी दुनिया घूमी,,


रावण जैसे योद्धा को इस प्रकार हरा कर बाली के घमंड का कोई सीमा न रहा,,


अब वो अपने आपको संसार का सबसे बड़ा योद्धा समझने लगा था,,


और यही उसकी सबसे बड़ी भूल हुई,,


अपने ताकत के मद में चूर एक दिन एक जंगल मे पेड़ पौधों को तिनके के समान उखाड़ फेंक रहा था,,


हरे भरे वृक्षों को तहस नहस कर दे रहा था,,


अमृत समान जल के सरोवरों को मिट्टी से मिला कर कीचड़ कर दे रहा था,,


एक तरह से अपने ताक़त के नशे में बाली पूरे जंगल को उजाड़ कर रख देना चाहता था,,


और बार बार अपने से युद्ध करने की चेतावनी दे रहा था- है कोई जो बाली से युद्ध करने की हिम्मत रखता हो,,

है कोई जो अपने माँ का दूध पिया हो,,

जो बाली से युद्ध करके बाली को हरा दे,,


इस तरह की गर्जना करते हुए बाली उस जंगल को तहस नहस कर रहा था,,


संयोग वश उसी जंगल के बीच मे हनुमान जी,, राम नाम का जाप करते हुए तपस्या में बैठे थे,,


बाली की इस हरकत से हनुमान जी को राम नाम का जप करने में विघ्न लगा,,


और हनुमान जी बाली के सामने जाकर बोले- हे वीरों के वीर,, हे ब्रम्ह अंश,, हे राजकुमार बाली,,

( तब बाली किष्किंधा के युवराज थे) क्यों इस शांत जंगल को अपने बल की बलि दे रहे हो,,


हरे भरे पेड़ों को उखाड़ फेंक रहे हो,

फलों से लदे वृक्षों को मसल दे रहे हो,,

अमृत समान सरोवरों को दूषित मलिन मिट्टी से मिला कर उन्हें नष्ट कर रहे हो,,

इससे तुम्हे क्या मिलेगा,,


तुम्हारे औरस पिता ब्रम्हा के वरदान स्वरूप कोई तुहे युद्ध मे नही हरा सकता,,


क्योंकि जो कोई तुमसे युद्ध करने आएगा,,

उसकी आधी शक्ति तुममे समाहित हो जाएगी,,


इसलिए हे कपि राजकुमार अपने बल के घमंड को शांत कर,,


और राम नाम का जाप कर,,

इससे तेरे मन में अपने बल का भान नही होगा,,

और राम नाम का जाप करने से ये लोक और परलोक दोनों ही सुधर जाएंगे,,


इतना सुनते ही बाली अपने बल के मद चूर हनुमान जी से बोला- ए तुच्छ वानर,, तू हमें शिक्षा दे रहा है, राजकुमार बाली को,,

जिसने विश्व के सभी योद्धाओं को धूल चटाई है,,


और जिसके एक हुंकार से बड़े से बड़ा पर्वत भी खंड खंड हो जाता है,,


जा तुच्छ वानर, जा और तू ही भक्ति कर अपने राम वाम के,,


और जिस राम की तू बात कर रहा है,

वो है कौन,


और केवल तू ही जानता है राम के बारे में,


मैंने आजतक किसी के मुँह से ये नाम नही सुना,


और तू मुझे राम नाम जपने की शिक्षा दे रहा है,,


हनुमान जी ने कहा- प्रभु श्री राम, तीनो लोकों के स्वामी है,,

उनकी महिमा अपरंपार है,

ये वो सागर है जिसकी एक बूंद भी जिसे मिले वो भवसागर को पार कर जाए,,


बाली- इतना ही महान है राम तो बुला ज़रा,,

मैं भी तो देखूं कितना बल है उसकी भुजाओं में,,


बाली को भगवान राम के विरुद्ध ऐसे कटु वचन हनुमान जो को क्रोध दिलाने के लिए पर्याप्त थे,,


हनुमान- ए बल के मद में चूर बाली,,

तू क्या प्रभु राम को युद्ध मे हराएगा,,

पहले उनके इस तुच्छ सेवक को युद्ध में हरा कर दिखा,,


बाली- तब ठीक है कल के कल नगर के बीचों बीच तेरा और मेरा युद्ध होगा,,


हनुमान जी ने बाली की बात मान ली,,


बाली ने नगर में जाकर घोषणा करवा दिया कि कल नगर के बीच हनुमान और बाली का युद्ध होगा,,


अगले दिन तय समय पर जब हनुमान जी बाली से युद्ध करने अपने घर से निकलने वाले थे,,

तभी उनके सामने ब्रम्हा जी प्रकट हुए,,


हनुमान जी ने ब्रम्हा जी को प्रणाम किया और बोले- हे जगत पिता आज मुझ जैसे एक वानर के घर आपका पधारने का कारण अवश्य ही कुछ विशेष होगा,,


ब्रम्हा जी बोले- हे अंजनीसुत, हे शिवांश, हे पवनपुत्र, हे राम भक्त हनुमान,,

मेरे पुत्र बाली को उसकी उद्दंडता के लिए क्षमा कर दो,,


और युद्ध के लिए न जाओ,


हनुमान जी ने कहा- हे प्रभु,,

बाली ने मेरे बारे में कहा होता तो मैं उसे क्षमा कर देता,,

परन्तु उसने मेरे आराध्य श्री राम के बारे में कहा है जिसे मैं सहन नही कर सकता,,

और मुझे युद्ध के लिए चुनौती दिया है,,

जिसे मुझे स्वीकार करना ही होगा,,

अन्यथा सारी विश्व मे ये बात कही जाएगी कि हनुमान कायर है जो ललकारने पर युद्ध करने इसलिए नही जाता है क्योंकि एक बलवान योद्धा उसे ललकार रहा है,,


तब कुछ सोंच कर ब्रम्हा जी ने कहा- ठीक है हनुमान जी,,

पर आप अपने साथ अपनी समस्त सक्तियों को साथ न लेकर जाएं,,

केवल दसवां भाग का बल लेकर जाएं,,

बाकी बल को योग द्वारा अपने आराध्य के चरणों में रख दे,,

युद्ध से आने के उपरांत फिर से उन्हें ग्रहण कर लें,,


हनुमान जी ने ब्रम्हा जी का मान रखते हुए वैसे ही किया और बाली से युद्ध करने घर से निकले,,


उधर बाली नगर के बीच मे एक जगह को अखाड़े में बदल दिया था,,


और हनुमान जी से युद्ध करने को व्याकुल होकर बार बार हनुमान जी को ललकार रहा था,,


पूरा नगर इस अदभुत और दो महायोद्धाओं के युद्ध को देखने के लिए जमा था,,


हनुमान जी जैसे ही युद्ध स्थल पर पहुँचे,,

बाली ने हनुमान को अखाड़े में आने के लिए ललकारा,,


ललकार सुन कर जैसे ही हनुमान जी ने एक पावँ अखाड़े में रखा,,


उनकी आधी शक्ति बाली में चली गई,,


बाली में जैसे ही हनुमान जी की आधी शक्ति समाई,,


बाली के शरीर मे बदलाव आने लगे,

उसके शरीर मे ताकत का सैलाब आ गया,

बाली का शरीर बल के प्रभाव में फूलने लगा,,

उसके शरीर फट कर खून निकलने लगा,,


बाली को कुछ समझ नही आ रहा था,,


तभी ब्रम्हा जी बाली के पास प्रकट हुए और बाली को कहा- पुत्र जितना जल्दी हो सके यहां से दूर अति दूर चले जाओ,


बाली को इस समय कुछ समझ नही आ रहा रहा,,

वो सिर्फ ब्रम्हा जी की बात को सुना और सरपट दौड़ लगा दिया,,


सौ मील से ज्यादा दौड़ने के बाद बाली थक कर गिर गया,,


कुछ देर बाद जब होश आया तो अपने सामने ब्रम्हा जी को देख कर बोला- ये सब क्या है,


हनुमान से युद्ध करने से पहले मेरा शरीर का फटने की हद तक फूलना,,

फिर आपका वहां अचानक आना और ये कहना कि वहां से जितना दूर हो सके चले जाओ,


मुझे कुछ समझ नही आया,,


ब्रम्हा जी बोले-, पुत्र जब तुम्हारे सामने हनुमान जी आये, तो उनका आधा बल तममे समा गया, तब तुम्हे कैसा लगा,,


बाली- मुझे ऐसा लग जैसे मेरे शरीर में शक्ति की सागर लहरें ले रही है,,

ऐसे लगा जैसे इस समस्त संसार मे मेरे तेज़ का सामना कोई नही कर सकता,,

पर साथ ही साथ ऐसा लग रहा था जैसे मेरा शरीर अभी फट पड़ेगा,,,


ब्रम्हा जी बोले- हे बाली,


मैंने हनुमान जी को उनके बल का केवल दसवां भाग ही लेकर तुमसे युद्ध करने को कहा,,

पर तुम तो उनके दसवें भाग के आधे बल को भी नही संभाल सके,,


सोचो, यदि हनुमान जी अपने समस्त बल के साथ तुमसे युद्ध करने आते तो उनके आधे बल से तुम उसी समय फट जाते जब वो तुमसे युद्ध करने को घर से निकलते,,


इतना सुन कर बाली पसीना पसीना हो गया,,


और कुछ देर सोच कर बोला- प्रभु, यदि हनुमान जी के पास इतनी शक्तियां है तो वो इसका उपयोग कहाँ करेंगे,,


ब्रम्हा- हनुमान जी कभी भी अपने पूरे बल का प्रयोग नही कर पाएंगे,,

क्योंकि ये पूरी सृष्टि भी उनके बल के दसवें भाग को नही सह सकती,,


ये सुन कर बाली ने वही हनुमान जी को दंडवत प्रणाम किया और बोला,, जो हनुमान जी जिनके पास अथाह बल होते हुए भी शांत और रामभजन गाते रहते है और एक मैं हूँ जो उनके एक बाल के बराबर भी नही हूँ और उनको ललकार रहा था,,

मुझे क्षमा करें,,


और आत्मग्लानि से भर कर बाली ने राम भगवान का तप किया और अपने मोक्ष का मार्ग उन्ही से प्राप्त किया,,


तो बोलो,

*पवनपुत्र हनुमान की जय,*

*जय श्री राम जय श्री राम,,*


कृपया ये कथा जन जन तक पहुचाएं,और पुण्य के भागी बने,,जय श्री राम जय हनुमान🙏🙏


*🙏राम राम जी🙏*

हल छठ की पूज

हल चंदन षष्ठी

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व्रत महात्म्य विधि और कथा

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भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की षष्ठी बलराम जन्मोत्सव के रूप में देशभर में मनायी जाती है। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार मान्यता है कि इस दिन भगवान शेषनाग ने द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण के बड़े भाई के रुप में अवतरित हुए थे। इस पर्व को हलषष्ठी एवं हरछठ के नाम से भी जाना जाता है। जैसा कि मान्यता है कि बलराम जी का मुख्य शस्त्र हल और मूसल हैं जिस कारण इन्हें हलधर कहा जाता है इन्हीं के नाम पर इस पर्व को हलषष्ठी के भी कहा जाता है। इस दिन बिना हल चले धरती से पैदा होने वाले अन्न, शाक भाजी आदि खाने का विशेष महत्व माना जाता है। गाय के दूध व दही के सेवन को भी इस दिन वर्जित माना जाता है। साथ ही संतान प्राप्ति के लिये विवाहिताएं व्रत भी रखती हैं। 


हिन्दू धर्म के अनुसार इस व्रत को करने वाले सभी लोगों की मनोकामनाएं पूरी होती है. मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण और राम भगवान विष्णु जी का स्वरूप है, और बलराम और लक्ष्मण शेषनाग का स्वरूप है. पौराणिक कथाओं के संदर्भ अनुसार एक बार भगवान विष्णु से शेष नाग नाराज हो गए और कहा की भगवान में आपके चरणों में रहता हूं, मुझे थोड़ा सा भी विश्राम नहीं मिलता. आप कुछ ऐसा करो के मुझे भी विश्राम मिले. तब भगवान विष्णु ने शेषनाग को वरदान दिया की आप द्वापर में मेरे बड़े भाई के रूप में जन्म लोगे, तब मैं आपसे छोटा रहूंगा।


हिन्दू धर्म के अनुसार मान्यता है कि त्रेता युग में भगवान राम के छोटे भाई लक्ष्मण शेषनाग का अवतार थे, इसी प्रकार द्वापर में जब भगवान विष्णु पृथ्वी पर श्री कृष्ण अवतार में आए तो शेषनाग भी यहां उनके बड़े भाई के रूप में अवतरित हुए. शेषनाग कभी भी भगवान विष्णु के बिना नहीं रहते हैं, इसलिए वह प्रभु के हर अवतार के साथ स्वयं भी आते हैं. बलराम जयंती के दिन सौभाग्यवती स्त्रियां बलशाली पुत्र की कामना से व्रत रखती हैं, साथ ही भगवान बलराम से यह प्रार्थना की जाती है कि वो उन्हें अपने जैसा तेजस्वी पुत्र प्राप्त करें।


शक्ति के प्रतीक बलराम भगवान श्री कृष्ण के बड़े भाई थे, इन्हें आज्ञाकारी पुत्र, आदर्श भाई और एक आदर्श पति भी माना जाता है। श्री कृष्ण की लीलाएं इतनी महान हैं कि बलराम की ओर ध्यान बहुत कम जाता है। लेकिन श्री कृष्ण भी इन्हें बहुत मानते थे। इनका जन्म की कथा भी काफी रोमांचक है। मान्यता है कि ये मां देवकी के सातवें गर्भ थे, चूंकि देवकी की हर संतान पर कंस की कड़ी नजर थी इसलिये इनका बचना बहुत ही मुश्किल था ऐसें में देवकी के सातवें गर्भ गिरने की खबर फैल गई लेकिन असल में देवकी और वासुदेव के तप से देवकी का यह सत्व गर्भ वासुदेव की पहली पत्नी के गर्भ में प्रत्यापित हो चुका था। लेकिन उनके लिये संकट यह था कि पति तो कैद में हैं फिर ये गर्भवती कैसे हुई लोग तो सवाल पूछेंगें लोक निंदा से बचने के लिये जन्म के तुरंत बाद ही बलराम को नंद बाबा के यहां पालने के लिये भेज दिया गया था।

 

बलराम जी का विवाह 

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यह मान्यता है कि भगवान विष्णु ने जब-जब अवतार लिया उनके साथ शेषनाग ने भी अवतार लेकर उनकी सेवा की। इस तरह बलराम को भी शेषनाग का अवतार माना जाता है। लेकिन बलराम के विवाह का शेषनाग से क्या नाता है यह भी आपको बताते हैं। दरअसल गर्ग संहिता के अनुसार एक इनकी पत्नी रेवती की एक कहानी मिलती है जिसके अनुसार पूर्व जन्म में रेवती पृथ्वी के राजा मनु की पुत्री थी जिनका नाम था ज्योतिष्मती। एक दिन मनु ने अपनी बेटी से वर के बारे में पूछा कि उसे कैसा वर चाहिये इस पर ज्योतिष्मती बोली जो पूरी पृथ्वी पर सबसे शक्तिशाली हो। अब मनु ने बेटी की इच्छा इंद्र के सामने प्रकट करते हुए पूछा कि सबसे शक्तिशाली कौन है तो इंद्र का जवाब था कि वायु ही सबसे ताकतवर हो सकते हैं लेकिन वायु ने अपने को कमजोर बताते हुए पर्वत को खुद से बलशाली बताया फिर वे पर्वत के पास पंहुचे तो पर्वत ने पृथ्वी का नाम लिया और धरती से फिर बात शेषनाग तक पंहुची। फिर शेषनाग को पति के रुप में पाने के लिये ज्योतिष्मती ब्रह्मा जी के तप में लीन हो गईं। तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने द्वापर में बलराम से शादी होने का वर दिया। द्वापर में ज्योतिष्मती ने राजा कुशस्थली के राजा (जिनका राज पाताल लोक में चलता था) कुडुम्बी के यहां जन्म लिया। बेटी के बड़ा होने पर कुडुम्बी ने ब्रह्मा जी से वर के लिये पूछा तो ब्रह्मा जी ने पूर्व जन्म का स्मरण कराया तब बलराम और रेवती का विवाह तय हुआ। लेकिन एक दिक्कत अब भी थी वह यह कि पाताल लोक की होने के कारण रेवती कद-काठी में बहुत लंबी-चौड़ी दिखती थी पृथ्वी लोक के सामान्य मनुष्यों के सामने तो वह दानव नजर आती। लेकिन हलधर ने अपने हल से रेवती के आकार को सामान्य कर दिया। जिसके बाद उन्होंनें सुख-पूर्वक जीवन व्यतीत किया।

 

बलराम और रेवती के दो पुत्र हुए जिनके नाम निश्त्थ और उल्मुक थे। एक पुत्री ने भी इनके यहां जन्म लिया जिसका नाम वत्सला रखा गया। माना जाता है कि श्राप के कारण दोनों भाई आपस में लड़कर ही मर गये। वत्सला का विवाह दुर्योधन के पुत्र लक्ष्मण के साथ तय हुआ था, लेकिन वत्सला अभिमन्यु से विवाह करना चाहती थी। तब घटोत्कच ने अपनी माया से वत्सला का विवाह अभिमन्यु से करवाया था।

 

बलराम जी के हल की कथा

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बलराम के हल के प्रयोग के संबंध में किवदंती के आधार पर दो कथाएं मिलती है। कहते हैं कि एक बार कौरव और बलराम के बीच किसी प्रकार का कोई खेल हुआ। इस खेल में बलरामजी जीत गए थे लेकिन कौरव यह मानने को ही नहीं तैयार थे। ऐसे में क्रोधित होकर बलरामजी ने अपने हल से हस्तिनापुर की संपूर्ण भूमि को खींचकर गंगा में डुबोने का प्रयास किया। तभी आकाशवाणी हुई की बलराम ही विजेता है। सभी ने सुना और इसे माना। इससे संतुष्ट होकर बलरामजी ने अपना हल रख दिया। तभी से वे हलधर के रूप में प्रसिद्ध हुए।


एक दूसरी कथा के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण की पत्नी जाम्बवती का पुत्र साम्ब का दिल दुर्योधन और भानुमती की पुत्री लक्ष्मणा पर आ गया था और वे दोनों प्रेम करने लगे थे। दुर्योधन के पुत्र का नाम लक्ष्मण था और पुत्री का नाम लक्ष्मणा था। दुर्योधन अपनी पुत्री का विवाह श्रीकृष्ण के पुत्र से नहीं करना चाहता था। इसलिए एक दिन साम्ब ने लक्ष्मणा से गंधर्व विवाह कर लिया और लक्ष्मणा को अपने रथ में बैठाकर द्वारिका ले जाने लगा। जब यह बात कौरवों को पता चली तो कौरव अपनी पूरी सेना लेकर साम्ब से युद्ध करने आ पहुंचे।


कौरवों ने साम्ब को बंदी बना लिया। इसके बाद जब श्रीकृष्ण और बलराम को पता चला, तब बलराम हस्तिनापुर पहुंच गए। बलराम ने कौरवों से निवेदनपूर्वक कहा कि साम्ब को मुक्तकर उसे लक्ष्मणा के साथ विदा कर दें, लेकिन कौरवों ने बलराम की बात नहीं मानी।


ऐसे में बलराम का क्रोध जाग्रत हो गया। तब बलराम ने अपना रौद्र रूप प्रकट कर दिया। वे अपने हल से ही हस्तिनापुर की संपूर्ण धरती को खींचकर गंगा में डुबोने चल पड़े। यह देखकर कौरव भयभीत हो गए। संपूर्ण हस्तिनापुर में हाहाकार मच गया। सभी ने बलराम से माफी मांगी और तब साम्ब को लक्ष्मणा के साथ विदा कर दिया। बाद में द्वारिका में साम्ब और लक्ष्मणा का वैदिक रीति से विवाह संपन्न हुआ।


बलदेव (हल चंदन छठ) पूजा विधि

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कथा करने से पूर्व प्रातःकाल स्नानादि से निवृत्त हो जाएं।


पश्चात स्वच्छ वस्त्र धारण कर गोबर लाएं।


इस तालाब में झरबेरी, ताश तथा पलाश की एक-एक शाखा बांधकर बनाई गई 'हरछठ' को गाड़ दें।


तपश्चात इसकी पूजा करें।


पूजा में सतनाजा (चना, जौ, गेहूं, धान, अरहर, मक्का तथा मूंग) चढ़ाने के बाद धूल, हरी कजरियां, होली की राख, होली पर भूने हुए चने के होरहा तथा जौ की बालें चढ़ाएं।


हरछठ के समीप ही कोई आभूषण तथा हल्दी से रंगा कपड़ा भी रखें। बलदेव जी को नीला तथा कृष्ण जी को पीला वस्त्र पहनाये।


पूजन करने के बाद भैंस के दूध से बने मक्खन द्वारा हवन करें।


पश्चात कथा कहें अथवा सुनें।


ध्यान रखें कि इस दिन व्रती हल से जुते हुए अनाज और सब्जियों को न खाएं और गाय के दूध का सेवन भी न करें, इस दिन तिन्नी का चावल खाकर व्रत रखें


पूजा हो जाने के बाद गरीब बच्चों में पीली मिठाई बांटे.


हलषष्ठी की व्रतकथा निम्नानुसार है

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प्राचीन काल में एक ग्वालिन थी। उसका प्रसवकाल अत्यंत निकट था। एक ओर वह प्रसव से व्याकुल थी तो दूसरी ओर उसका मन गौ-रस (दूध-दही) बेचने में लगा हुआ था। उसने सोचा कि यदि प्रसव हो गया तो गौ-रस यूं ही पड़ा रह जाएगा। 


यह सोचकर उसने दूध-दही के घड़े सिर पर रखे और बेचने के लिए चल दी किन्तु कुछ दूर पहुंचने पर उसे असहनीय प्रसव पीड़ा हुई। वह एक झरबेरी की ओट में चली गई और वहां एक बच्चे को जन्म दिया।


वह बच्चे को वहीं छोड़कर पास के गांवों में दूध-दही बेचने चली गई। संयोग से उस दिन हल षष्ठी थी। गाय-भैंस के मिश्रित दूध को केवल भैंस का दूध बताकर उसने सीधे-सादे गांव वालों में बेच दिया।


उधर जिस झरबेरी के नीचे उसने बच्चे को छोड़ा था, उसके समीप ही खेत में एक किसान हल जोत रहा था। अचानक उसके बैल भड़क उठे और हल का फल शरीर में घुसने से वह बालक मर गया।


इस घटना से किसान बहुत दुखी हुआ, फिर भी उसने हिम्मत और धैर्य से काम लिया। उसने झरबेरी के कांटों से ही बच्चे के चिरे हुए पेट में टांके लगाए और उसे वहीं छोड़कर चला गया।


कुछ देर बाद ग्वालिन दूध बेचकर वहां आ पहुंची। बच्चे की ऐसी दशा देखकर उसे समझते देर नहीं लगी कि यह सब उसके पाप की सजा है। 


वह सोचने लगी कि यदि मैंने झूठ बोलकर गाय का दूध न बेचा होता और गांव की स्त्रियों का धर्म भ्रष्ट न किया होता तो मेरे बच्चे की यह दशा न होती। अतः मुझे लौटकर सब बातें गांव वालों को बताकर प्रायश्चित करना चाहिए।


ऐसा निश्चय कर वह उस गांव में पहुंची, जहां उसने दूध-दही बेचा था। वह गली-गली घूमकर अपनी करतूत और उसके फलस्वरूप मिले दंड का बखान करने लगी। तब स्त्रियों ने स्वधर्म रक्षार्थ और उस पर रहम खाकर उसे क्षमा कर दिया और आशीर्वाद दिया।


बहुत-सी स्त्रियों द्वारा आशीर्वाद लेकर जब वह पुनः झरबेरी के नीचे पहुंची तो यह देखकर आश्चर्यचकित रह गई कि वहां उसका पुत्र जीवित अवस्था में पड़ा है। तभी उसने स्वार्थ के लिए झूठ बोलने को ब्रह्म हत्या के समान समझा और कभी झूठ न बोलने का प्रण कर लिया।


कथा के अंत में निम्न मंत्र से प्रार्थना करें

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गंगाद्वारे कुशावर्ते विल्वके नीलेपर्वते।

स्नात्वा कनखले देवि हरं लब्धवती पतिम्‌॥

ललिते सुभगे देवि-सुखसौभाग्य दायिनि।

अनन्तं देहि सौभाग्यं मह्यं, तुभ्यं नमो नमः॥


अर्थात्👉 हे देवी! आपने गंगा द्वार, कुशावर्त, विल्वक, नील पर्वत और कनखल तीर्थ में स्नान करके भगवान शंकर को पति के रूप में प्राप्त किया है। सुख और सौभाग्य देने वाली ललिता देवी आपको बारम्बार नमस्कार है, आप मुझे अचल सुहाग दीजिए।


बलदाऊ की आरती 

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कृष्ण कन्हैया को दादा भैया, अति प्रिय जाकी रोहिणी मैया


श्री वसुदेव पिता सौं जीजै…… बलदाऊ

 

नन्द को प्राण, यशोदा प्यारौ , तीन लोक सेवा में न्यारौ


कृष्ण सेवा में तन मन भीजै …..बलदाऊ

 

हलधर भैया, कृष्ण कन्हैया, दुष्टन के तुम नाश करैया


रेवती, वारुनी ब्याह रचीजे ….बलदाऊ

 

दाउदयाल बिरज के राजा, भंग पिए नित खाए खाजा


नील वस्त्र नित ही धर लीजे,……बलदाऊ

 

जो कोई बल की आरती गावे, निश्चित कृष्ण चरण राज पावे

बुद्धि, भक्ति  ‘गिरि’  नित-नित लीजे …..बलदाऊ


आरती के बाद श्री बलभद्र स्तोत्र और कवच का पाठ अवश्य करें।


बलदेव स्तोत्र

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दुर्योधन उवाच- स्‍तोत्र श्रीबलदेवस्‍य प्राडविपाक महामुने। वद मां कृपया साक्षात् सर्वसिद्धिप्रदायकम् ।


प्राडविपाक उवाच- स्‍तवराजं तु रामस्‍य वेदव्‍यासकृतं शुभम्। सर्वसिद्धिप्रदं राजञ्श्रृणु कैवल्‍यदं नृणाम् ।।


देवादिदेव भगवन् कामपाल नमोऽस्‍तु ते। नमोऽनन्‍ताय शेषाय साक्षादरामाय ते नम: ।।


धराधराय पूर्णाय स्‍वधाम्ने सीरपाणये। सहस्‍त्रशिरसे नित्‍यं नम: संकर्षणाय ते ।।


रेवतीरमण त्‍वं वै बलदेवोऽच्‍युताग्रज। हलायुध प्रलम्बघ्न पाहि मां पुरुषोत्तम ।।

बलाय बलभद्राय तालांकाय नमो नम:। नीलाम्‍बराय गौराय रौहिणेयाय ते नम: ।।


धेनुकारिर्मुष्टिकारि: कूटारिर्बल्‍वलान्‍तक:। रुक्म्यरि: कूपकर्णारि: कुम्‍भाण्‍डारिस्‍त्‍वमेव हि ।।


कालिन्‍दीभेदनोऽसि त्‍वं हस्तिनापुरकर्षक:। द्विविदारिर्यादवेन्‍द्रो व्रजमण्‍डलारिस्‍त्‍वमेव हि ।।


कंसभ्रातृप्रह‍न्‍तासि तीर्थयात्राकर: प्रभु:। दुर्योधनगुरु: साक्षात् पाहि पा‍हि प्रभो त्‍वत: ।।


जय जयाच्‍युत देव परातपर स्‍वयमनन्‍त दिगन्‍तगतश्रुत। सुरमुनीन्‍द्रफणीन्‍द्रवराय ते मुसलिने बलिने हलिने नम: ।।


य: पठेत सततं स्‍तवनं नर: स तु हरे: परमं पदमाव्रजेत्। जगति सर्वबलं त्‍वरिमर्दनं भवति तस्‍य धनं स्‍वजनं धनम् ।।


श्रीबलदाऊ कवच

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दुर्योधन उवाच- गोपीभ्‍य: कवचं दत्तं गर्गाचार्येण धीमता। सर्वरक्षाकरं दिव्‍यं देहि मह्यं महामुने ।


प्राडविपाक उवाच- स्‍त्रात्‍वा जले क्षौमधर: कुशासन: पवित्रपाणि: कृतमन्‍त्रमार्जन: ।

स्‍मृत्‍वाथ नत्‍वा बलमच्‍युताग्रजं संधारयेद् वर्म समाहितो भवेत् ।।


गोलोकधामाधिपति: परेश्‍वर: परेषु मां पातु पवित्राकीर्तन: ।

भूमण्‍डलं सर्षपवद् विलक्ष्‍यते यन्‍मूर्ध्नि मां पातु स भूमिमण्‍डले ।।


सेनासु मां रक्षतु सीरपाणिर्युद्धे सदा रक्षतु मां हली च ।

दुर्गेषु चाव्‍यान्‍मुसली सदा मां वनेषु संकर्षण आदिदेव: ।।


कलिन्‍दजावेगहरो जलेषु नीलाम्‍बुरो रक्षतु मां सदाग्नौ ।

वायौ च रामाअवतु खे बलश्‍च महार्णवेअनन्‍तवपु: सदा माम् ।।


श्रीवसुदेवोअवतु पर्वतेषु सहस्‍त्रशीर्षा च महाविवादे ।

रोगेषु मां रक्षतु रौहिणेयो मां कामपालोऽवतु वा विपत्‍सु ।।


कामात् सदा रक्षतु धेनुकारि: क्रोधात् सदा मां द्विविदप्रहारी ।

लोभात् सदा रक्षतु बल्‍वलारिर्मोहात् सदा मां किल मागधारि: ।।


प्रात: सदा रक्षतु वृष्णिधुर्य: प्राह्णे सदा मां मथुरापुरेन्‍द्र: ।

मध्‍यंदिने गोपसख: प्रपातु स्‍वराट् पराह्णेऽस्‍तु मां सदैव ।।


सायं फणीन्‍द्रोऽवतु मां सदैव परात्‍परो रक्षतु मां प्रदोषे ।

पूर्णे निशीथे च दरन्तवीर्य: प्रत्यूषकालेऽवतु मां सदैव ।।


विदिक्षु मां रक्षतु रेवतीपतिर्दिक्षु प्रलम्‍बारिरधो यदूद्वह: ।।

ऊर्ध्‍वं सदा मां बलभद्र आरात् तथा समन्‍ताद् बलदेव एव हि ।।


अन्‍त: सदाव्‍यात् पुरुषोत्तमो बहिर्नागेन्‍द्रलीलोऽवतु मां महाबल: ।

सदान्‍तरात्‍मा च वसन् हरि: स्वयं प्रपातु पूर्ण: परमेश्‍वरो महान् ।।


देवासुराणां भ्‍यनाशनं च हुताशनं पापचयैन्‍धनानाम् ।

विनाशनं विघ्नघटस्‍य विद्धि सिद्धासनं वर्मवरं बलस्‍य ।।


हलषष्ठी शुभ मुहूर्त:

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षष्ठी तिथि 27 अगस्त 2021 दिन शुक्रवार को शाम 6.51 बजे से आरम्भ होगी और 28 अगस्त को रात्रि 8.55 बजे तक रहेगी।


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कृष्ण और राधा का पुनर्मिलन

कुंवारे कृष्ण और विवाहिता  राधा की प्रेम कहानी को हमारी संस्कृति की सबसे आदर्श और पवित्र प्रेम-कथा का दर्ज़ा हासिल है। विवाहेतर और परकीया प्रेम के ढेरों उदाहरण विश्व साहित्य में है, लेकिन इस प्रेम को आध्यात्मिक ऊंचाई सिर्फ भारतीय संस्कृति और काव्य ने दिया है। ऊंचाई भी कुछ इतनी कि हिन्दू धर्म के रूढ़िवादियों को भी इस बात पर अचरज नहीं होता कि कृष्ण की पूजा उनकी पत्नियों की जगह राधा के साथ क्यों होती है। और यह भी कि राधा अपने पति के बजाय कृष्ण के साथ क्यों पूजी जाती है। पुराणों के अनुसार कृष्ण राधा से उम्र में छोटे थे और इस गहरे प्रेम का अंत भी बहुत शीघ्र ही हो गया। परिस्थितिवश कृष्ण किशोरावस्था में गोकुल से मथुरा गए और फिर मथुरा से द्वारिका पलायन कर गए। विस्थापन के बाद राजकाज की उलझनों, मथुरा पर कंस के श्वसुर मगधराज जरासंध के निरंतर आक्रमणों और द्वारिका को बसाने की कोशिशों के बीच कृष्ण को कभी इतना अवसर नहीं मिला कि वे दुबारा राधा से मिलकर उन्हें सांत्वना और प्रेम का भरोसा दे सके। युवा और प्रौढ़ हो जाने के बाद किशोरावस्था की उन्मुक्त चेतना धीरे-धीरे साथ छोड़ जाती है। उसकी जगह सामाजिक और पारिवारिक मर्यादाओं का संकोच हावी होने लगता है। कृष्ण ने चोरी-छिपे दूत के रूप में भरोसा और आध्यात्मिक ज्ञान बांटने के लिए मित्र उद्धव को राधा के पास जरूर भेजा, लेकिन विरही मन कहीं अध्यात्म की विवेचना सुनता है भला ? 


ज्यादातर पुराणों में गोकुल से जाने के बाद कृष्ण की राधा से मुलाक़ात का कोई प्रसंग नहीं मिलता। लोक में भी यह मान्यता है कि कृष्ण के वृन्दावन से जाने के बाद उनकी राधा से दुबारा कभी भेंट नहीं हो सकी थी। ब्रह्मवैवर्त पुराण, कुछ संस्कृत काव्यों और सूर साहित्य में विरह के सौ कठिन वर्षों के बाद एक बार फिर राधा और कृष्ण की एक संक्षिप्त-सी मुलाक़ात का उल्लेख अवश्य आया है। उनके जीवन की शायद अंतिम मुलाक़ात। जगह था कुरुक्षेत्र तीर्थ जहां सूर्यग्रहण के मौके पर प्राचीन काल से ही बहुत बड़ा मेला लगता रहा है। सूर्योपासना के उद्देश्य से कृष्ण रुक्मिणी के साथ सदल बल वहां पहुंचे थे। कृष्ण की तीर्थयात्रा की सूचना मिलने पर बाबा नन्द अपने कुटुंब और कृष्ण के कुछ बालसखाओं के साथ कुरुक्षेत्र आ गए। उनके साथ राधा भी अपनी सहेलियों के साथ हो ली थी। कृष्ण के बालसखाओं और राधा की सहेलियों ने कुरुक्षेत्र तीर्थ के एक शिविर में  कुछ देर दोनों की एकांत भेंट का प्रबंध किया था। बचपन के बाद सीधे बुढ़ापे की उस मुलाक़ात में क्या हुआ होगा, इसकी कल्पना ही की जा सकती है। उस मुलाक़ात के सम्बन्ध में सूरदास ने लिखा है :


राधा माधव भेंट भई 

राधा माधव, माधव राधा, कीट भृंग ह्वै जु गई 

माधव राधा के संग राचे, राधा माधव रंग रई 

माधव राधा प्रीति निरंतर रसना कहि न गई। 


सोचिए तो सौ वर्षों के अंतराल के बाद दो उत्कट प्रेमियों की उस छोटी-सी भेंट में न जाने कितने आंसू बहे होंगे। भूले बिसरी कितनी स्मृतियां जीवंत हो उठी होंगी। कितनी व्यथाएं उभरी और दब गई होंगी। कैसे-कैसे उलाहने सुने, सुनाए गए होंगे। कितना प्रेम बरसा होगा और कितना विवाद। या क्या पता कि भावातिरेक में शब्द ही साथ छोड़ गए हों ! जीवन के अंतिम पहर में दो प्रेमियों के मिलन का वह दृश्य अद्भुत तो अवश्य रहा होगा। गुप्तचरों के माध्यम से कृष्ण की पत्नी रुक्मिणी को जब इन दो पुराने प्रेमियों की इस भेंट की सूचना मिली तो वे स्वयं राधा से मिलने का हठ ठान बैठी। रुक्मिणी की जिद पर राधा से उनकी मुलाक़ात भी कराई गई। उल्लेख आया है कि राधा का आतिथ्य करने के बाद रुक्मिणी ने उन्हें स्नेहवश कुछ ज्यादा ही गर्म दूध पिला दिया था। राधा तो हंसकर वह सारा दूध पी गई, लेकिन देखते-देखते कृष्ण के बदन में फफोले पड़ गए। यह प्रेम की आंतरिकता का चरम था। 


इस संक्षिप्त मिलन के बाद कृष्ण पर क्या बीती, इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता। हां, इस मिलन के बाद राधा की जो अनुभूति प्रकट हुई है, वह तो किसी भी संवेदनशील मन को व्यथित कर देने के लिए पर्याप्त हैं। 'ब्रह्मवैवर्त पुराण' में कुरुक्षेत्र से लौटते समय राधा ने मन की बात साझा करते हुए अंतरंग सहेली ललिता से जो कहा, वह यह है :


प्रियः सोsयं कृष्णः सहचरि कुरूक्षेत्रमिलित 

स्तथाहं सा राधा तद्दिमुभयो संगमसुखम

तथाप्यन्तः खेलन्मधुरमुरलीपञ्चमजुषे

मनो में कालिंदीपुलिनविपिनाय स्पृहयति। 


सखि, प्रियतम कृष्ण भी वही हैं। मैं राधा भी वही हूं। कुरूक्षेत्र में आज हमारे मिलन का सुख भी वही था। तथापि इस पूरी मुलाक़ात में मैं कृष्ण की वंशी से गूंजता कालिंदी का वह जाना पहचाना तट ही तलाशती रही। यह मन तो उन्हें फिर से वृंदावन में ही देखना चाह रहा है।

ध्रुवगुप्त

मईया मोरी व्हाट्सएप्प बहुत सतायो महाकवि व्हाट्सप्प

 *कान्हा की फरियाद अपनी माँ से:*                     

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बहुत सतायो

सब ग्वाल बाल मिल जुल

नया ग्रुप बनायो

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बहुत सतायो

😂😜😱😂😜😂

मैं सबसे छोटा सा बालक

    ग्रुप में जगह न पायो

सब बैठे चैटटिंग करते है

      मोसो गाय चरवायो

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     बहुत सतायो

😂😜😱😂😜😱😂

बलदाऊ कहते है मुझसे

       बंसी मती बजायो

बंसी की धुन सुन सुन के

     रिंगटोन भूली जायो

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          बहुत सतायो

😂😜😱😂😜😱😂

राधा के संग सभी गोपियाँ

      व्हाट्सएप्प पर बतियायो

राधा को अब मेरी बतियाँ

       तनिको नाही सुहायो

मईया मोरी व्हाट्सएप्प

       बहुत सतायो

😆😅😂😉😃😊

किसके घर कितना माखन है

    सब गूगल पर आयो

माखन मिश्री छोड़ ग्वाल सब

       बर्गर पिज़्ज़ा खायो

मईया मोरी व्हाट्सएप्प

        बहुत सतायो

😊😃😉😆😅😅😂

सब घर काफी चाय बनत है

      दूध खतम हुई जायो

अब माखन के नाम पर सब

     अमूल का भोग लगायो

मईया मोरी व्हाट्सएप्प

       बहुत सतायो-

मैं माखन का चोर कहाउँ

    पर माखन ना पायो


*आप सभी को कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएँ ।

अटूट बंधन

 #लघुकथा2 / #कहानीआजकी


🌹 शादी-अटूट बंधन 🌹


पतिदेव एक MNC में उच्च पद पर कार्यरत हैं। इनकी अरेंज्ड मैरिज है। इनकी पत्नी गाँव की सीधी- सादी महिला हैं, जो घर संभालने में, रसोई बनाने में, पूजा-पाठ करने में तो निपुण हैं, पर आज कल की hi-fi technology  से कोसों दूर है, क्योंकि वो कम पढ़ी लिखी हैं।

शादी को  8 साल हो चुके हैं। स्मार्ट फ़ोन, कंप्यूटर, लैपटॉप पत्नी जी ने शादी के बाद ही देखे हैं।।

पतिदेव चाहते हैं कि उनकी पत्नी सब कुछ सीखे पर पत्नी जी जैसी हैं, वैसी ही खुश हैं। वो खुद को बदलना नहीं चाहतीं।

यह दोनों एक महानगर की hi-rise सोसाइटी में 8थ फ्लोर पर 6 महीने पहले ही रहने आए हैं। पतिदेव की कंपनी ने तरक्की के साथ-साथ यहां तबादला कर दिया है। ये फ्लैट भी कंपनी ने ही दिया है।

एक दिन पतिदेव बेचारे थके -हारे आफिस से घर लौटे।

पत्नी जी चाय ले आईं, पर चाय में दूध नहीं था। चाय देखकर पति ने खीजते हुए पूछा- "ये चाय ऐसी क्यों है"?

"क्योंकि घर में दूध खत्म हो गया था?", पत्नी जी ने जवाब दिया।

"तो नीचे ही शॉप है सोसाइटी में , दूध ले आती!!!,"

"चली तो जाती, पर 8 मंज़िल तक सीढियाँ चढ़कर आना पड़ता" (पत्नी को लिफ्ट चलाना नही आता था,)

यह सुनकर पतिदेव बहुत नाराज़ हो गए। गुस्से में चिल्लाते हुए बोले, " तुमसे कितनी बार कहा है लिफ्ट चलाना सीख लो। ये कोई इतनी बड़ी बात भी नहीं है, पर तुम्हे कोई इंटरेस्ट ही नहीं है। तंग आ चुका हूँ तुमसे। इससे तो मैं अकेला ही अच्छा हूँ। तुम तो मेरा पीछा छोडोगी नही, मैं ही चला जाता हूँ इस घर से" और वो उठकर बाहर जाने लगे।

पत्नी थोड़ा सकपकाई और तुरंत ही पतिदेव को रोकने के लिए मान मनुहार करने लगी।

पर जब पतिदेव नही माने तो पत्नी कुछ यूँ बोली,-


तुम हो मॉडर्न म्यूजिक, मैं क्लासिकल संगीत पिया,

अपना तन मन जीवन मैंने तुम्हे दिया।

तुम हमसे खुश रहो या दुखी,

जैसी हूँ,जो हूँ, तुम्हारे लिए अब तो हूँ मैं ही।

जन्म भर का है ये साथ, यूँ ही ना छूट पाएगा,

रूठ कर हमसे कहाँ जाइएगा।

ये शादी हमारी है खट्टी,मीठी,तीख़ी भेल सी,

परफेक्ट तो ना तुम हो, ना हूँ मैं ही।

और प्रियतम मेरे,

कोशिश करूँगी जैसी तुम चाहो , वैसी बनने की,

पर रहूँगी फिर भी ऐसी ही।


यह सुनकर पतिदेव का सारा गुस्सा काफूर हो गया।

इनके होंठों पर मुस्कुराहट तैर गई।


😂😂🙏

🌹🌹तू सिर्फ मेरी है🌹🌹

 #लघुकथा11#/ कहानीआजकी




"ये मेरी बच्ची नहीं है।", अतुल गुस्से में कड़कते हुए  बोला।


"ये क्या कह दिया तुमने,जानते भी हो इसका मतलब।", ऋतु अतुल की बात सुनकर रुआँसी हो गई।


"हाँ-हाँ अच्छी तरह जानता हूँ और ये भी जानता हूँ कि तुम मेरी गैरहाज़िरी में क्या-क्या गुल खिलाती फिरती थीं। माँ और भाभी ने मुझे सब बता दिया है।", अतुल की आवाज़ और तेज़ हो गई।


"ओह, अब समझी तो ये आग उन दोनों की लगाई है।", ऋतु ने व्यंग्यात्मक लहज़े में कहा।


"खबरदार जो तुमने उनके बारे में एक शब्द भी कहा।", चिल्लाते हुए अतुल ने उसे खा जाने वाली नज़रों से देखा।


"तुम्हे इतनी सी बात समझ नहीं आती कि वो तुम्हारा घर उजाड़ना चाहते हैं।", ऋतु की आवाज़ में अनुनय था।


"सब समझ आता है मुझे, बच्चा नहीं हूँ मैं, जो कुछ देख न सकूँ।"


"सब समझती हूँ मैं, क्या देख सकते हो तुम। तुम वही देखते हो जो वो दोनो तुम्हे दिखाती हैं। क्या तुम्हें मुझ पर इतना सा भी यकीन नहीं? मेरा यकीन करो अतुल, ये तुम्हारी ही बच्ची है।


"मैं कुछ नहीं सुनना चाहता। मैं ये कभी नहीं मान सकता। तुम अभी के अभी इसे लेकर यहां से चली जाओ, अपने बाप के घर।"


कहकर अतुल निकल गया और ऋतु जस की तस खड़ी रह गई।

बाहर दोनो औरतों के लबों पर कुटिल हँसी थी।


ऋतु की बच्ची अभी 4 महीने की होने वाली थी।अतुल पूरे साल भर के बाद लौटा था।

बस इसी बात को मुद्दा बनाकर उसकी गृहस्थी में आग लगाई जा रही थी।कारण था अतुल की कमाई हड़पना।


इसलिए उन दोनों औरतों ने मिलकर ऋतु और उसकी बच्ची को अतुल की ज़िंदगी से बाहर निकालने के लिए ये योजना बनाई और आते ही अतुल के कान भर दिए।


अतुल भी ठहरा कान का कच्चा। उसने आव देखा न ताव सीधा ऋतु पर इल्ज़ाम लगा दिया।


शाम होते-होते ऋतु ने भी ठान लिया था कि वो अतुल के आगे और नहीं गिड़गिड़ाएगी।

बच्ची के होने से पहले तक वो जॉब करती थी। उसने दोबारा से जॉब के लिए अप्लाई कर दिया।


रात को अतुल के आने के बाद----


"तुम गई नहीं अभी तक इस_ _ _ _ _ _ को लेकर", अतुल आते ही गरजा।


"क्या यह तुम्हारा अंतिम फ़ैसला है।", ऋतु ने अतुल से पूछा।उसकी आवाज़ में तटस्थता थी।


"हाँ..हाँ।"


"तो ठीक है। बीवी हूँ तुम्हारी। ब्याह के लाये थे तुम मुझे समाज के सामने। अपनी ज़िंदगी के 2 साल दिए हैं तुम्हारी गृहस्थी को।वैसे भी तुम्हारे इस घिनौने इल्ज़ाम के बाद मैं भी इस घर में नहीं रहना चाहती। पर ऐसे नहीं जाऊँगी, फुल एंड फाइनल सेटलमेंट करो अभी। मेरा और मेरी बच्ची का हक़ दो और मेरा-तुम्हारा रिश्ता खत्म।"


"हक़....कैसा हक़...?"


"अच्छा! तुम्हे नहीं पता?", ऋतु के लबों पर व्यंग्यात्मक हँसी उभर आई, "मिस्टर हस्बैंड! मुझे अबला नारी मत समझना।सीधी तरह से मेरी बात मान लो, वरना जो मैं अपनी सी पर आ गई, तो तुम और तुम्हारे घर वाले न घर के रहेंगे न घाट के।", ऋतु की आँखें अचानक अंगारों सी दहक उठीं।


अतुल ने ये एक्सपेक्ट नहीं किया था। उसने ऋतु का ये रूप कभी नहीं देखा था।

एक पल को वो सकते में आ गया। फिर खुद को सँभालते हुए बोला,"जो तुम्हें चाहिए मिल जाएगा,पर उसके बाद मै तुम्हारी और इसकी सूरत भी नहीं देखना चाहता।"


ऋतु इस बात के लिए पहले की तैयार थी, इसलिए उसने अपना बैग पहले ही पैक कर लिया था।


"मुझे भी कोई शौक नहीं तुम्हारे साथ रहने का, तुम्हारी सूरत देखने का। सो मैं दूसरे रूम में शिफ्ट हो रही हूँ। जब डाइवोर्स पेपर्स रेडी हो जाए तो बता देना। तब तक मेरा तुम्हारा कोई संबंध नहीं होगा।"


और वो कमरे से निकल गई।


अब वो बस अपना और अपनी बच्ची का काम करती, बाकी किसी काम को हाथ तक न लगाती और अतुल उसकी तरफ तो वो देखती तक नहीं।


महीने भर तक ऐसा ही चलता रहा।

एक महीने बाद अतुल ने ऋतु के सामने डाइवोर्स पेपर रख दिये।अब तक ऋतु ने जॉब भी जॉइन कर ली थी और अपनी बच्ची के लिए एक बेबी केअर सेंटर भी तलाश लिया था।


ऋतु ने पेपर्स पढ़े और साइन कर दिए।


इसके बाद ऋतु ने अतुल की ओर एक एनवोल्प बढ़ाया।

"ये क्या है?", अतुल ने पूछा।


"ये तुम्हारी बेवकूफी का सबूत है, जो ये साबित करेगा कि तुम पढ़े लिखे बेवकूफ हो। जा रही हूँ मैं, बस एक बात जरूर कहूँगी जब तक तुम्हारी ज़िंदगी मे तुम्हारी माँ और भाभी ये दो औरतें हैं, तब तक तुम्हारा कभी भला नहीं हो सकता।"


"री........तू।", अतुल चिल्लाया।


"ना ना.....",अतुल के हाथ मे दिए पेपर्स की तरफ इशारा करते हुए ऋतु बोली।

अतुल एनवोल्प खोलने लगा।


ऋतु अपना बैग उठाया और बच्ची को थामकर कहा, "तू सिर्फ मेरी है।" और चल दी। दरवाज़े पर पहुँचकर उसने पलट कर अतुल की ओर देखा।


अतुल के चेहरे पर हैरानी और पश्चाताप के भाव थे और हाथ में डीएनए रिपोर्ट उसकी और उसकी बच्ची की।


उसकी हालत देखकर ऋतु के लबों पर एक स्वाभिमानी हँसी उभर आई। उसने अतुल के घिनोने इल्ज़ाम के जवाब में ये करारा प्रहार किया था।

आत्मविश्वास से भरी ऋतु कमरे से बाहर निकल गई।


अतुल रिपोर्ट हाथ मे पकड़े ठगा सा, उसे देखता रह गया।


समाप्त।

(मौलिक व स्वरचित)

कृष्ण का मोहक राज

 कृष्ण सांवरे थे, ऐसा नहीं है। हमने इतना ही कहा है सांवरा कह कर, कि कृष्ण के सौंदर्य में बड़ी गहराई थी; जैसे गहरी नदी में होती है, जहां जल सांवरा हो जाता है। यह सौंदर्य देह का ही सौंदर्य नहीं था–यह हमारा मतलब है। खयाल मत लेना कि कृष्ण सांवले थे। रहे हों न रहे हों, यह बात बड़ी बात नहीं है। लेकिन सांवरा हमारा प्रतीक है इस बात का कि यह सौंnदर्य शरीर का ही नहीं था, यह सौंदर्य मन का था; मन का ही नहीं था; यह सौंदर्य आत्मा का था। यह सौंदर्य इतना गहरा था, उस गहराई के कारण चेहरे पर सांवरापन था। छिछला नहीं था सौंदर्य। अनंत गहराई लिए था।


यoह तुम्हारा मोर के पंखों से बना हुआ मुकुट, यह तुम्हारा सुंदर मुकुट, जिसमें सारे रंग समाएं हैं! वही प्रतीक है। मोर के पंखों से बनाया गया मुकुट प्रतीक है इस बात का कि कृष्ण में सारे रंग समाए हैं। महावीर में एक रंग है, बुद्ध में एक रंग है, राम में एक रंग है–कृष्ण में सब रंग हैं। इसलिए कृष्ण को हमने पूर्णावतार कहा है…सब रंग हैं। इस जगत की कोई चीज कृष्ण को छोड़नी नहीं पड़ी है। सभी को आत्मसात कर लिया है। कृष्ण इंद्रधनुष हैं, जिसमें प्रकाश के सभी रंग हैं। कृष्ण त्यागी नहीं हैं। कृष्ण भोगी नहीं हैं। कृष्ण ऐसे त्यागी हैं जो भोगी हैं। कृष्ण ऐसे भोगी हैं जो त्यागी हैं। कृष्ण हिमालय नहीं भाग गए हैं, बाजार में हैं। युद्ध के मैदान पर हैं। और फिर भी कृष्ण के हृदय में हिमालय है। वही एकांत! वही शांति! अपूर्व सन्नाटा!


कृष्ण अदभुत अद्वैत हैं। चुना नहीं है कृष्ण ने कुछ। सभी रंगों को स्वीकार किया है, क्योंकि सभी रंग परमात्मा के हैं।

जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएं


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ढोल, गवार, शूद्र, पशु रारी ( नारी नहीं )❌ *आज तक गलत प्रचारित किया गया है*

 ❌ ~*सही शब्द हैं  रारी ✅👇🏿*

*

ढोल, गवार, क्षुब्ध पशु, रारी.!”* नारी नहीं


*श्रीरामचरितमानस मे, शूद्रों और नारी का अपमान कहीं भी नहीं किया गया है।*

*भारत के राजनैतिक शूद्रों* को पिछले 450 वर्षों में गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित हिंदू महाग्रंथ 'श्रीरामचरितमानस' की कुल 10902 चौपाईयों में से

 *आज तक मात्र 1 ही चौपाई पढ़ने में आ पाई है, और वह है भगवान श्री राम का मार्ग रोकने वाले समुद्र द्वारा भय वश किया गया अनुनय का अंश है जो कि सुंदर कांड में 58 वें दोहे की छठी चौपाई है ..*

*"ढोल, गँवार, क्षुब्ध, पशु नारी.! सकल ताड़ना के अधिकारी”*

इस सन्दर्भ में चित्रकूट में मौजूद तुलसीदास धाम के पीठाधीश्वर और विकलांग विश्वविद्यालय के कुलाधिपति श्री राम भद्राचार्य जी जो नेत्रहीन होने के बावजूद संस्कृत, व्याकरण, सांख्य, न्याय, वेदांत, में 5 से अधिक GOLD Medal जीत चुकें हैं।

महाराज का कहना है कि बाजार में प्रचलित रामचरितमानस में 3 हजार से भी अधिक स्थानों पर अशुद्धियां हैं और..

*इस चौपाई को भी अशुद्ध तरीके से प्रचारित किया जा रहा है।*

उनका कथन है कि..

*तुलसी दास जी महाराज खलनायक नहीं थे,*

आप स्वयं विचार करें

*यदि तुलसीदास जी की मंशा सच में शूद्रों और नारी को प्रताड़ित करने की ही होती तो क्या रामचरित्र मानस की 10902 चौपाईयों में से वो मात्र 1 चौपाई में ही शूद्रों और नारी को प्रताड़ित करने की ऐसी बात क्यों करते ?*

यदि ऐसा ही होता तो..

*भील शबरी के जूठे बेर को भगवान द्वारा खाये जाने का वह चाहते तो लेखन न करते।यदि ऐसा होता तो केवट को गले लगाने का लेखन न करते।*

स्वामी जी के अनुसार..

*ये चौपाई सही रूप में -*

*ढोल,गवार, शूद्र,पशु,नारी नहीं है*

बल्कि यह *"ढोल,गवार,क्षुब्ध पशु,रारी” है।*

ढोल = बेसुरा ढोलक 

गवार = गवांर व्यक्ति 

क्षुब्ध पशु = आवारा पशु जो लोगो को कष्ट देते हैं 

रार = कलह करने वाले लोग

चौपाई का सही अर्थ है कि जिस तरह बेसुरा ढोलक, अनावश्यक ऊल जलूल बोलने वाला गवांर व्यक्ति, आवारा घूम कर लोगों की हानि पहुँचाने वाले..

*(अर्थात क्षुब्ध, दुखी करने वाले पशु और रार अर्थात कलह करने वाले लोग जिस तरह दण्ड के अधिकारी हैं.!*

 उसी तरह मैं भी तीन दिन से आपका मार्ग अवरुद्ध करने के कारण दण्ड दिये जाने योग्य हूँ।

स्वामी राम भद्राचार्य जी जो के अनुसार श्रीरामचरितमानस की मूल चौपाई इस तरह है और इसमें ‘क्षुब्ध' के स्थान पर 'शूद्र' कर दिया और 'रारी' के स्थान पर 'नारी' कर दिया गया है।

भ्रमवश या भारतीय समाज को तोड़ने के लिये जानबूझ कर गलत तरह से प्रकाशित किया जा रहा है।इसी उद्देश्य के लिये उन्होंने अपने स्वयं के द्वारा शुद्ध की गई अलग रामचरित मानस प्रकाशित कर दी है।रामभद्राचार्य कहते हैं धार्मिक ग्रंथो को आधार बनाकर गलत व्याख्या करके जो लोग हिन्दू समाज को तोड़ने का काम कर रहे है उन्हें सफल नहीं होने दिया जायेगा।

  आप सबसे से निवेदन है , इस लेख को अधिक से अधिक share करें।*

और

*तुलसीदास जी की चौपाई का सही अर्थ लोगो तक पहुंचायें हिन्दू समाज को टूटने से बचाएं।*

*विश्व का कल्याण हो*

    *जय श्रीराम*



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शनिवार, 28 अगस्त 2021

रामायण

 🚩श्री रामचरित मानस पाठ 🚩 / ( dw१४९) 


भगवा.न राम प्रयाग नगरी पहुँच गए हैं। श्री राम ने आकर त्रिवेणी का दर्शन किया, जो स्मरण करने से ही सब सुंदर मंगलों को देने वाली है। फिर आनंदपूर्वक (त्रिवेणी में) स्नान करके शिवजी की सेवा (पूजा) की और विधिपूर्वक तीर्थ देवताओं का पूजन किया॥ (स्नान, पूजन आदि सब करके) तब प्रभु श्री रामजी भरद्वाजजी के पास आए। उन्हें दण्डवत करते हुए ही मुनि ने हृदय से लगा लिया। मुनि के मन का आनंद कुछ कहा नहीं जाता। मानो उन्हें ब्रह्मानन्द की राशि मिल गई हो॥ श्री रामजी ने रात को वहीं विश्राम किया और प्रातःकाल प्रयागराज का स्नान करके और प्रसन्नता के साथ मुनि को सिर नवाकर श्री सीताजी, लक्ष्मणजी और सेवक गुह के साथ वे चले॥(चलते समय) बड़े प्रेम से श्री रामजी ने मुनि से कहा- हे नाथ! बताइए हम किस मार्ग से जाएँ। मुनि ने शिष्यों को बुलाया। मुनि ने (चुनकर) चार ब्रह्मचारियों को साथ कर दिया, जिन्होंने बहुत जन्मों तक सब सुकृत (पुण्य) किए थे।


गोस्वामी तुलसीदास जी प्रभु श्रीराम के महात्मय और 

यमुनातीर निवासियों का प्रेम का अदभुत वर्णन करते हुए   हैं  ॥


अयोध्या कांड के प्रयाग पहुँचना, भरद्वाज संवाद, यमुनातीर निवासियों का प्रेम घटनाक्रम में गोस्वामी तुलसीदास जी तीर्थ राज प्रयाग की महिमा का व्याख्यान करते हुए लिखते हैं।


ग्राम निकट जब निकसहिं जाई। देखहिं दरसु नारि नर धाई॥

होहिं सनाथ जनम फलु पाई। फिरहिं दुखित मनु संग पठाई॥


भावार्थ:-जब वे किसी गाँव के पास होकर निकलते हैं, तब स्त्री-पुरुष दौड़कर उनके रूप को देखने लगते हैं। जन्म का फल पाकर वे (सदा के अनाथ) सनाथ हो जाते हैं और मन को नाथ के साथ भेजकर (शरीर से साथ न रहने के कारण) दुःखी होकर लौट आते हैं॥


दोहा :

बिदा किए बटु बिनय करि फिरे पाइ मन काम।

उतरि नहाए जमुन जल जो सरीर सम स्याम॥


भावार्थ:-तदनन्तर श्री रामजी ने विनती करके चारों ब्रह्मचारियों को विदा किया, वे मनचाही वस्तु (अनन्य भक्ति) पाकर लौटे। यमुनाजी के पार उतरकर सबने यमुनाजी के जल में स्नान किया, जो श्री रामचन्द्रजी के शरीर के समान ही श्याम रंग का था॥


चौपाई :

सुनत तीरबासी नर नारी। धाए निज निज काज बिसारी॥

लखन राम सिय सुंदरताई। देखि करहिं निज भाग्य बड़ाई॥


भावार्थ:-यमुनाजी के किनारे पर रहने वाले स्त्री-पुरुष (यह सुनकर कि निषाद के साथ दो परम सुंदर सुकुमार नवयुवक और एक परम सुंदरी स्त्री आ रही है) सब अपना-अपना काम भूलकर दौड़े और लक्ष्मणजी, श्री रामजी और सीताजी का सौंदर्य देखकर अपने भाग्य की बड़ाई करने लगे॥


अति लालसा बसहिं मन माहीं। नाउँ गाउँ बूझत सकुचाहीं॥

जे तिन्ह महुँ बयबिरिध सयाने। तिन्ह करि जुगुति रामु पहिचाने॥


भावार्थ:-उनके मन में (परिचय जानने की) बहुत सी लालसाएँ भरी हैं। पर वे नाम-गाँव पूछते सकुचाते हैं। उन लोगों में जो वयोवृद्ध और चतुर थे, उन्होंने युक्ति से श्री रामचन्द्रजी को पहचान लिया॥


सकल कथा तिन्ह सबहि सुनाई। बनहि चले पितु आयसु पाई॥

सुनि सबिषाद सकल पछिताहीं। रानी रायँ कीन्ह भल नाहीं॥


भावार्थ:-उन्होंने सब कथा सब लोगों को सुनाई कि पिता की आज्ञा पाकर ये वन को चले हैं। यह सुनकर सब लोग दुःखित हो पछता रहे हैं कि रानी और राजा ने अच्छा नहीं किया॥


गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस के तापस प्रकरण घटनाक्रम का संपूर्ण वर्णन अगले अंक/लेख में.......।


https://www.facebook.com/groups/230086995786466/?ref=share

🚩जय सियाराम 🚩

शुक्रवार, 27 अगस्त 2021

दिनेश श्रीवास्तव के दोहे

 दोहा-छंद


                   *शनि*



धर्मभीरु करते सभी,शनि पूजन शनिवार।

मेरे लिए समान हैं,सभी सोम-इतवार।।


बिन वैज्ञानिक सोच के,बनते लीक- फ़क़ीर।

कभी ग्रहों के खेल से,बनती क्या तकदीर।।?


नव ग्रह में ही एक है, 'शनि' की अपनी चाल।

अपनी गति से वह चले,हम पूछें क्यों हाल।।?


यह खगोल विज्ञान है,करें अध्ययन आप।

राहु- केतु-शनि का तभी, कर पाएँगे माप।।


पौराणिक बातें सभी,राहु-केतु-शनि दोष।

पूजन कर मिलता रहा,केवल मिथ्या तोष।।


कर्म करें,सत्कर्म करें,चलें कर्मपथ आप।

चिंता मत करिए कभी,राहु-केतु-शनि शाप।।


तर्कशील बनकर रहें,कर्म करें निष्पाप।

हिम्मत क्या शनि का कभी,दे सकता जो ताप।।?


मंदिर मस्जिद बंद हैं,आज कॅरोना काल।

राह,केतु,शनि हैं कहाँ,कुछ तो करें धमाल।।


पुलिस चिकित्सक नर्स हैं,यही हमारे देव।

राहु-केतु-शनि छोड़कर,इनकी करिए सेव।।


मनसा वाचा कर्मणा,करें आचरण शुद्ध।

राहु-केतु-शनि छोड़कर,बनिये आप प्रबुद्ध।।


                     दिनेश श्रीवास्तव

ऊंचा क़द*

 🙏 प्रस्तुति - आत्म स्वरुप 

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👉 *


*चार महीने बीत चुके थे, बल्कि 10 दिन ऊपर हो गए थे, किंतु बड़े भइया की ओर से अभी तक कोई ख़बर नहीं आई थी कि वह पापा को लेने कब आएंगे. यह कोई पहली बार नहीं था कि बड़े भइया ने ऐसा किया हो. हर बार उनका ऐसा ही रवैया रहता है. जब भी पापा को रखने की उनकी बारी आती है, वह समस्याओं से गुज़रने लगते हैं. कभी भाभी की तबीयत ख़राब हो जाती है, कभी ऑफिस का काम बढ़ जाता है और उनकी छुट्टी कैंसिल हो जाती है. विवश होकर मुझे ही पापा को छोड़ने मुंबई जाना पड़ता है. हमेशा की तरह इस बार भी पापा की जाने की इच्छा नहीं थी, किंतु मैंने इस ओर ध्यान नहीं दिया और उनका व अपना मुंबई का रिज़र्वेशन करवा लिया.*


दिल्ली-मुंबई राजधानी एक्सप्रेस अपने टाइम पर थी. सेकंड एसी की निचली बर्थ पर पापा को बैठाकर सामने की बर्थ पर मैं भी बैठ गया. साथवाली सीट पर एक सज्जन पहले से विराजमान थे. बाकी बर्थ खाली थीं. कुछ ही देर में ट्रेन चल पड़ी. अपनी जेब से मोबाइल निकाल मैं देख रहा था, तभी कानों से पापा का स्वर टकराया, “मुन्ना, कुछ दिन तो तू भी रहेगा न मुंबई में. मेरा दिल लगा रहेगा और प्रतीक को भी अच्छा लगेगा.”


*पापा के स्वर की आर्द्रता पर तो मेरा ध्यान गया नहीं, मन-ही-मन मैं खीझ उठा. कितनी बार समझाया है पापा को कि मुझे ‘मुन्ना’ न कहा करें. ‘रजत’ पुकारा करें. अब मैं इतनी ऊंची पोस्ट पर आसीन एक प्रशासनिक अधिकारी हूं. समाज में मेरा एक अलग रुतबा है. ऊंचा क़द है, मान-सम्मान है. बगल की सीट पर बैठा व्यक्ति मुन्ना शब्द सुनकर मुझे एक सामान्य-सा व्यक्ति समझ रहा होगा. मैं तनिक ज़ोर से बोला, “पापा, परसों मेरी गर्वनर के साथ मीटिंग है. मैं मुंबई में कैसे रुक सकता हूं?” पापा के चेहरे पर निराशा की बदलियां छा गईं. मैं उनसे कुछ कहता, तभी मेरा मोबाइल बज उठा. रितु का फोन था. भर्राए स्वर में वह कह रही थी, “पापा ठीक से बैठ गए न.”

“हां हां बैठ गए हैं. गाड़ी भी चल पड़ी है.”  “देखो, पापा का ख़्याल रखना. रात में मेडिसिन दे देना. भाभी को भी सब अच्छी तरह समझाकर आना. पापा को वहां कोई तकलीफ़ नहीं होनी चाहिए.”*


“नहीं होगी.” मैंने फोन काट दिया. “रितु का फोन था न. मेरी चिंता कर रही होगी.”

पापा के चेहरे पर वात्सल्य उमड़ आया था. रात में खाना खाकर पापा सो गए. थोड़ी देर में गाड़ी कोटा स्टेशन पर रुकी और यात्रियों के शोरगुल से हड़कंप-सा मच गया. तभी कंपार्टमेंट का दरवाज़ा खोलकर जो व्यक्ति अंदर आया, उसे देख मुझे बेहद आश्‍चर्य हुआ. मैं तो सोच भी नहीं सकता था कि रमाशंकर से इस तरह ट्रेन में मुलाक़ात होगी.

एक समय रमाशंकर मेरा पड़ोसी और सहपाठी था. हम दोनों के बीच मित्रता कम और नंबरों को लेकर प्रतिस्पर्धा अधिक रहती थी. हम दोनों ही मेहनती और बुद्धिमान थे, किंतु न जाने क्या बात थी कि मैं चाहे कितना भी परिश्रम क्यों न कर लूं, बाज़ी सदैव रमाशंकर के हाथ लगती थी. शायद मेरी ही एकाग्रता में कमी थी. कुछ समय पश्‍चात् पापा ने शहर के पॉश एरिया में मकान बनवा लिया. मैंने कॉलेज चेंज कर लिया और इस तरह रमाशंकर और मेरा साथ छूट गया.


*दो माह पूर्व एक सुबह मैं अपने ऑफिस पहुंचा. कॉरिडोर में मुझसे मिलने के लिए काफ़ी लोग बैठे हुए थे. बिना उनकी ओर नज़र उठाए मैं अपने केबिन की ओर बढ़ रहा था. यकायक एक व्यक्ति मेरे सम्मुख आया और प्रसन्नता के अतिरेक में मेरे गले लग गया, “रजत यार, तू कितना बड़ा आदमी बन गया. पहचाना मुझे? मैं रमाशंकर.” मैं सकपका गया. फीकी-सी मुस्कुराहट मेरे चेहरे पर आकर विलुप्त हो गई. इतने लोगों के सम्मुख़ उसका अनौपचारिक व्यवहार मुझे ख़ल रहा था.* वह भी शायद मेरे मनोभावों को ताड़ गया था, तभी तो एक लंबी प्रतीक्षा के उपरांत जब वह मेरे केबिन में दाख़िल हुआ, तो समझ चुका था कि वह अपने सहपाठी से नहीं, बल्कि एक प्रशासनिक अधिकारी से मिल रहा था. उसका मुझे ‘सर’ कहना मेरे अहं को संतुष्ट कर गया. यह जानकर कि वह बिजली विभाग में महज़ एक क्लर्क है, जो मेरे समक्ष अपना तबादला रुकवाने की गुज़ारिश लेकर आया है, मेरा सीना अभिमान से चौड़ा हो गया. कॉलेज के प्रिंसिपल और टीचर्स तो क्या, मेरे सभी कलीग्स भी यही कहते थे कि एक दिन रमाशंकर बहुत बड़ा आदमी बनेगा. हुंह, आज मैं कहां से कहां पहुंच गया और वह…


पिछली स्मृतियों को पीछे धकेल मैं वर्तमान में पहुंचा तो देखा, रमाशंकर ने अपनी वृद्ध मां को साइड की सीट पर लिटा दिया और स्वयं उनके क़रीब बैठ गया. एक उड़ती सी नज़र उस पर डाल मैंने अख़बार पर आंखें गड़ा दीं. तभी रमाशंकर बोला, “नमस्ते सर, मैंने तो देखा ही नहीं कि आप बैठे हैं.”  मैंने नम्र स्वर में पूछा, “कैसे हो रमाशंकर?”

“ठीक हूं सर.”

“कोटा कैसे आना हुआ?”

“छोटी बुआ की बेटी की शादी में आया था. अब मुंबई जा रहा हूं. शायद आपको याद हो, मेरा एक छोटा भाई था.”

“छोटा भाई, हां याद आया, क्या नाम था उसका?” मैंने स्मृति पर ज़ोर डालने का उपक्रम किया जबकि मुझे अच्छी तरह याद था कि उसका नाम देवेश था.

“सर, आप इतने ऊंचे पद पर हैं. आए दिन हज़ारों लोगों से मिलते हैं. आपको कहां याद होगा? देवेश नाम है उसका सर.”


पता नहीं उसने मुझ पर व्यंग्य किया था या साधारण रूप से कहा था, फिर भी मेरी गर्दन कुछ तन-सी गई.  उस पर एहसान-सा लादते हुए मैं बोला,“देखो रमाशंकर, यह मेरा ऑफिस नहीं है, इसलिए सर कहना बंद करो और मुझे मेरे नाम से पुकारो. हां तो तुम क्या बता रहे थे, देवेश मुंबई में है?”

“हां रजत, उसने वहां मकान ख़रीदा है. दो दिन पश्‍चात् उसका गृह प्रवेश है.

चार-पांच दिन वहां रहकर मैं और अम्मा दिल्ली लौट आएंगे.”

“इस उम्र में इन्हें इतना घुमा रहे हो?”  “अम्मा की आने की बहुत इच्छा थी. इंसान की उम्र भले ही बढ़ जाए, इच्छाएं तो नहीं मरतीं न.”

“हां, यह तो है. पिताजी कैसे हैं?”


“पिताजी का दो वर्ष पूर्व स्वर्गवास हो गया था. अम्मा यह दुख झेल नहीं पाईं और उन्हें हार्टअटैक आ गया था, बस तभी से वह बीमार रहती हैं. अब तो अल्ज़ाइमर भी बढ़ गया है.”

“तब तो उन्हें संभालना मुश्किल होता होगा. क्या करते हो? छह-छह महीने दोनों भाई रखते होंगे.” ऐसा पूछकर मैं शायद अपने मन को तसल्ली दे रहा था. आशा के विपरीत रमाशंकर बोला,  “नहीं-नहीं, मैं तो ऐसा सोच भी नहीं सकता. अम्मा शुरू से दिल्ली में रही हैं. उनका कहीं और मन लगना मुश्किल है. मैं नहीं चाहता, इस उम्र में उनकी स्थिति पेंडुलम जैसी हो जाए. कभी इधर, तो कभी उधर. कितनी पीड़ा होगी उन्हें यह देखकर कि पिताजी के जाते ही उनका कोई घर ही नहीं रहा. वह हम पर बोझ हैं.”


*मैं मुस्कुराया, “रमाशंकर, इंसान को थोड़ा व्यावहारिक भी होना चाहिए. जीवन में स़िर्फ भावुकता से काम नहीं चलता है. अक्सर इंसान दायित्व उठाते-उठाते थक जाता है और तब ये विचार मन को उद्वेलित करने लगते हैं कि अकेले हम ही क्यों मां-बाप की सेवा करें, दूसरा क्यों न करे.”*

*“पता नहीं रजत, मैं ज़रा पुराने विचारों का इंसान हूं. मेरा तो यह मानना है कि हर इंसान की करनी उसके साथ है. कोई भी काम मुश्क़िल तभी लगता है, जब उसे बोझ समझकर किया जाए. मां-बाप क्या कभी अपने बच्चों को बोझ समझते हैं? आधे-अधूरे कर्त्तव्यों में कभी आस्था नहीं होती रजत, मात्र औपचारिकता होती है और सबसे बड़ी बात जाने-अनजाने हमारे कर्म ही तो संस्कार बनकर हमारे बच्चों के द्वारा हमारे सम्मुख आते हैं. समय रहते यह छोटी-सी बात इंसान की समझ में आ जाए, तो उसका बुढ़ापा भी संवर जाए.”*


मुझे ऐसा लगा, मानो रमाशंकर ने मेरे मुख पर तमाचा जड़ दिया हो. मैं नि:शब्द, मौन सोने का उपक्रम करने लगा, किंतु नींद मेरी आंखों से अब कोसों दूर हो चुकी थी. रमाशंकर की बातें मेरे दिलोदिमाग़ में हथौड़े बरसा रही थीं. इतने वर्षों से संचित किया हुआ अभिमान पलभर में चूर-चूर हो गया था. प्रशासनिक परीक्षा की तैयारी के लिए इतनी मोटी-मोटी किताबें पढ़ता रहा, किंतु पापा के मन की संवेदनाओं को, उनके हृदय की पीड़ा को नहीं पढ़ सका. क्या इतना बड़ा मुक़ाम मैंने स़िर्फ अपनी मेहनत के बल पर पाया है. नहीं, इसके पीछे पापा-मम्मी की वर्षों की तपस्या निहित है.


आख़िर उन्होंने ही तो मेरी आंखों को सपने देखने सिखाए. जीवन में कुछ कर दिखाने की प्रेरणा दी. रात्रि में जब मैं देर तक पढ़ता था, तो पापा भी मेरे साथ जागते थे कि कहीं मुझे नींद न आ जाए. मेरे इस लक्ष्य को हासिल करने में पापा हर क़दम पर मेरे साथ रहे और आज जब पापा को मेरे साथ की ज़रूरत है, तो मैं व्यावहारिकता का सहारा ले रहा हूं. दो वर्ष पूर्व की स्मृति मन पर दस्तक दे रही थी. सीवियर हार्टअटैक आने के बाद मम्मी बीमार रहने लगी थीं.

एक शाम ऑफिस से लौटकर मैं पापा-मम्मी के बेडरूम में जा रहा था, तभी अंदर से आती आवाज़ से मेरे पांव ठिठक गए. मम्मी पापा से कह रही थीं, “इस दुनिया में जो आया है, वह जाएगा भी. कोई पहले, तो कोई बाद में. इतने इंटैलेक्चुअल होते हुए भी आप इस सच्चाई से मुंह मोड़ना चाह रहे हैं.”

“मैं क्या करूं पूजा? तुम्हारे बिना अपने अस्तित्व की कल्पना भी मेरे लिए कठिन है. कभी सोचा है तुमने कि तुम्हारे बाद मेरा क्या होगा?” पापा का कंठ अवरुद्ध हो गया था, किंतु मम्मी तनिक भी विचलित नहीं हुईं और शांत स्वर में बोलीं थीं, “आपकी तरफ़ से तो मैं पूरी तरह से निश्‍चिंत हूं. रजत और रितु आपका बहुत ख़्याल रखेंगे, यह एक मां के अंतर्मन की आवाज़ है, उसका विश्‍वास है जो कभी ग़लत नहीं हो सकता.”


इस घटना के पांच दिन बाद ही मम्मी चली गईं थीं. कितने टूट गए थे पापा. बिल्कुल अकेले पड़ गए थे. उनके अकेलेपन की पीड़ा को मुझसे अधिक मेरी पत्नी रितु ने समझा. यूं भी वह पापा के दोस्त की बेटी थी और बचपन से पापा से दिल से जुड़ी हुई थी. उसने कभी नहीं चाहा, पापा को अपने से दूर करना, किंतु मेरा मानना था कि कोरी भावुकता में लिए गए फैसले अक्सर ग़लत साबित होते हैं. इंसान को प्रैक्टिकल अप्रोच से काम लेना चाहिए. अकेले मैं ही क्यों पापा का दायित्व उठाऊं? दोनों बड़े भाई क्यों न उठाएं? जबकि पापा ने तीनों को बराबर का स्नेह दिया, पढ़ाया, लिखाया, तो दायित्व भी तीनों का बराबर है. छह माह बाद मम्मी की बरसी पर यह जानते हुए भी कि दोनों बड़े भाई पापा को अपने साथ रखना नहीं चाहते, मैंने यह फैसला किया था कि हम तीनों बेटे चार-चार माह पापा को रखेंगे. पापा को जब इस बात का पता चला, तो कितनी बेबसी उभर आई थी उनके चेहरे पर. चेहरे की झुर्रियां और गहरा गई थीं. उम्र मानो 10 वर्ष आगे सरक गई थी. सारी उम्र पापा की दिल्ली में गुज़री थी. सभी दोस्त और रिश्तेदार यहीं पर थे, जिनके सहारे उनका व़क्त कुछ अच्छा बीत सकता था, किंतु… सोचते-सोचते मैंने एक गहरी सांस ली.


*आंखों से बह रहे पश्‍चाताप के आंसू पूरी रात मेरा तकिया भिगोते रहे. उफ्… यह क्या कर दिया मैंने. पापा को तो असहनीय पीड़ा पहुंचाई ही, मम्मी के विश्‍वास को भी खंडित कर दिया. आज वह जहां कहीं भी होंगी, पापा की स्थिति पर उनकी आत्मा कलप रही होगी. क्या वह कभी मुझे क्षमा कर पाएंगी? रात में कई बार अम्मा का रमाशंकर को आवाज़ देना और हर बार उसका चेहरे पर बिना शिकन लाए उठना, मुझे आत्मविश्‍लेषण के लिए बाध्य कर रहा था. उसे देख मुझे एहसास हो रहा था कि इंसानियत और बड़प्पन हैसियत की मोहताज नहीं होती. वह तो दिल में होती है. अचानक मुझे एहसास हुआ, मेरे और रमाशंकर के बीच आज भी प्रतिस्पर्धा जारी है. इंसानियत की प्रतिस्पर्धा, जिसमें आज भी वह मुझसे बाज़ी मार ले गया था. पद भले ही मेरा बड़ा था, किंतु रमाशंकर का क़द मुझसे बहुत ऊंचा था.*


गाड़ी मुंबई सेंट्रल पर रुकी, तो मैं रमाशंकर के क़रीब पहुंचा. उसके दोनों हाथ थाम मैं भावुक स्वर में बोला, “रमाशंकर मेरे दोस्त, चलता हूं. यह सफ़र सारी ज़िंदगी मुझे याद रहेगा.” कहने के साथ ही मैंने उसे गले लगा लिया.

आश्‍चर्यमिश्रित ख़ुशी से वह मुझे देख रहा था. मैं बोला, “वादा करो, अपनी फैमिली को लेकर मेरे घर अवश्य आओगे.”


*“आऊंगा क्यों नहीं, आखिऱ इतने वर्षों बाद मुझे मेरा दोस्त मिला है.” ख़ुशी से उसकी आवाज़ कांप रही थी. अटैची उठाए पापा के साथ मैं नीचे उतर गया. स्टेशन के बाहर मैंने टैक्सी पकड़ी और ड्राइवर से एयरपोर्ट चलने को कहा. पापा हैरत से बोले, “एयरपोर्ट क्यों?” भावुक होकर मैं पापा के गले लग गया और रुंधे कंठ से बोला, “पापा, मुझे माफ़ कर दीजिए. हम वापिस दिल्ली जा रहे हैं. अब आप हमेशा वहीं अपने घर में रहेंगे.” पापा की आंखें नम हो उठीं और चेहरा खुशी से खिल उठा.*


“जुग जुग जिओ मेरे बच्चे.” वह बुदबुदाए. कुछ पल के लिए उन्होंन अपनी आंखें बंद कर लीं, फिर चेहरा उठाकर आकाश की ओर देखा. मुझे ऐसा लगा मानो वह मम्मी से कह रहे हों, देर से ही सही, तुम्हारा विश्‍वास सही निकला.

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लोक कथा विमर्श -2

 10.09.2020


आज के लोकरंग में चर्चा होगी .... छत्तीसगढ़ के लोक पर्व नगमत की, एक कस्बा जांजगीर के नगर के रूप में परिवर्तित होने के लोक अनुभवों की और सोन नदी के कछार के उन लहलहाते खेतों की ....!

श्री सतीश कुमार सिंह एक सजग नागरिक बोध के कवि है , जो वर्तमान में शिक्षक और लेखन के प्रारम्भिक दौर में कुशल पत्रकार भी रह चुके हैं।

इनकी कविताओं / नवगीतों में लोकजीवन के अनेकों दृश्य बिम्ब सहजता से प्राप्त होते हैं। 

इनका कविता संकलन " सुन रहा हूं इस वक़्त " की कविताएं ग्रामीण जीवन व उससे जुड़े सरोकारों से लबरेज़ हैं ,जिसमें समय और समाज का रचनात्मक द्वंद प्रतिरोधी चेतना के साथ उपस्थित है।

सतीश जी हिंदी कविता के कुछ गिने चुने रचनाकारों  में एक हैं ,जिन्होंने अंचल की मिट्टी में पैर गीला कर स्थानीयता की अनुभूति जन्य अनुभवों को समझ कर अपनी वर्गीय चेतना और विश्व दृष्टि को विकसित किया है।

_लक्ष्मीकांत मुकुल


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छत्तीसगढ़ की लोक परंपरा -

 नगमत 

               सतीश कुमार सिंह 


छत्तीसगढ़िया लोक समाज में विभिन्न परंपराओं की अद्भुत छटा देखने को मिलती है । यहाँ शैव , वैष्णव और शाक्त मत के अलावा सिद्धों और नाथों का प्रभाव भी दृष्टिगोचर होता है । हरियाली अमावस्या को मनाए जाने वाले पर्व " हरेली " को कृषि यंत्रों की पूजा के साथ गांव देहात में मंत्र दीक्षा की शुरूआत भी होती है और पुराने मंत्र साधक अपने स्थानीय गुरू के समक्ष अपने मंत्र की पुनरावृत्ति करते हैं जिसे जन समाज के लोग मंत्र लहुटाना कहते हैं । 

  जब गाँवों तक विज्ञान की पहुँच नहीं थी तब खेती किसानी करने वाले लोग इसी लोक विश्वास और जड़ी बूटी आदि स्थानीय औषधियों से अपने आत्मबल के साथ मेहनत मजदूरी करते जाड़ा , घाम और बरसात को झेलते हुए अपने कर्म क्षेत्र में डटे रहते थे । उनके अवचेतन के भय  को मंत्र पर उनकी आस्था सम्हाले रहती थी । चिकित्सा विज्ञान भी यह मानता है कि औषधि से भी अधिक औषधि पर विश्वास काम करता है । इस गहरी बात को छत्तीसगढ़ का लोक समाज गहराई से समझता रहा है । यही वजह है कि अपने आपको मंत्र से अभिरक्षित रखने के लिए इन लोक परंपराओं को गुरूमुखी साधना बनाकर उत्सव का रूप दिया गया है । हरियाली अमावस्या यानि हरेली के पाँचवे दिन नागपंचमी का पर्व मनाया जाता है । इस दिन किसान अपने घरों और खेतों में नाग नागिन की पूजा करते हैं और उन्हें दूध लाई ( लावा ) का प्रसाद अर्पित करते हैं । खेतों में कीड़े मकोड़ों और चूहों को खाकर सर्प फसलों की रक्षा करते हैं । किसानों के मन में उनके लिए भी आभार की उदात्त  भावना है जिनसे उसे विष का भय रहता है । वे फसलों की सुरक्षा के साथ अपने परिवार को भी इस आपात भय से बचाए रखने की प्रार्थना करते हैं । कहते हैं कि साँप न दूध पीते हैं और न लाई खाते हैं । उनका आहार कीट पतंग और छोटे मोटे जीव जंतु ही है पर मनुष्य तो जो खाता है वही उसे अपनी भावनाओं के साथ समर्पित करता है । यह भावप्रधान जगत अद्भुत है जहाँ व्यष्टि से समष्टि तक एक मांगलिक अवधारणा की अविच्छिन्न परिपाटी है । इसी नागपंचमी पर्व पर नगमतिहा गुरू अपने शिष्यों को पीढ़ा - पाठ देते हैं जो सर्पमंत्र की दीक्षा कहलाती है । 

 नागपंचमी पर मेरे शहर जांजगीर की पुरानी बस्ती के कहरापारा में " नगमत " का आयोजन प्रतिवर्ष  किया जाता है । यह परंपरा छत्तीसगढ़ के बहुत से गांवों और कस्बों में अब भी जीवित है । इस दिन " सपहर " मंत्र की दीक्षा नए शिष्यों को नगमत गुरू प्रदान करते हैं। पीढ़े पर नाग नागिन और गुरू के चित्र को वर्तमान पीढ़ा गुरू लेकर बैठता है । यहाँ पीढ़ी या पीढ़ा से आशय पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे परिपाटी से भी है इसलिए इसे पीढ़ा - पाठ कहा जाता है ।

 साबर मंत्र ही स्थानीय बोली बानी में सपहर मंत्र के रूप में प्रचलित है । चूंकि यह साँप से संबंधित है इसलिए इसे सपहर मंत्र भी कहा जाता है । यानि साँप के विष को हरने वाला मंत्र सपहर , जिसकी अबूझ रचना में इस तरह ध्वन्यात्मकता और प्रवाह है कि इसके रचयिता लोक गुरूओं की प्रतिभा का लोहा मानना पड़ता है । सपहर मंत्र के दौरान झांझ और मांदर की उत्तेजक थाप के साथ लयबद्ध रूप से गुरू महिमा को बखान कर गाये जाने वाले मंत्र की एक बानगी देखिए -


गुरूसत गुरूसत गुरे नीर

गुरूसाय रे शंकर गुरू लछमी

गुरू तंत्र मंत्र गुरू लखे निरंजन

गुरू बिन होमे ल 

कोने देवय ओ नागिन 

गुरू बिन होमे ल


इस मंत्र के गूढार्थ हैं जिसमें गुरू तत्व की प्रधानता है । गुरूसत यानि गुरू सत्य है , गुरे नीर- गुरू जल की तरह तरल है , गुरूसाय रे शंकर - गुरूशंकर है और प्रमुख है , गुरू लक्ष्मी गुरूतंत्र मंत्र गुरू लखे निरंजन - गुरू ही लक्ष्मी है और निराकार निरंजन को देखनेवाला तथा जाननेवाला है । उसके भीतर प्राणों का होम करने वाला नगमतिहा है । यह इस छोटे से मंत्र का अभिप्राय है जिसे मैंने अपनी दृष्टि से समझने का प्रयास किया है ।

  इसके अलावा और भी कई मंत्र हैं जिसे आज के दिन गुरू के सामने पढ़कर उसके शब्द के अभ्यास को शिष्यगण जोर जोर से पाठ कर दुहराते तथा कंठस्थ करते हैं और पीढ़े पर बैठा गुरू कहीं कुछ कमी होने पर उसे वहीं  दुरूस्त करवाते हैं । मंत्र का प्रभाव जब चढ़ता है तो साधक शिष्य को नाग भरता है और वह तंद्रा में आकर कीचड़ में सराबोर हो नाग की तरह मांदर की ध्वनि में लोटता है तब माना जाता है कि उसका सपहर मंत्र सध गया । इसके पश्चात गुरू उसे होम सुंघाते हैं और वह तंद्रा से जागृत होकर अपनी स्वाभाविक चेतना में वापस लौटता है । 

इन सारी क्रियाओं में मुझे शैव मत की छत्तीसगढ़ में प्रधानता स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है । शिव पार्वती की ही लोक मे गुरूपद के रूप से महिमा है और उन्हें नगमतिहा साधक लोग विशेष तौर पर नागपंचमी के इस आयोजन में पूजते हैं । उनके अनगढ़ और अटपटे मंत्र को साबर मंत्र से जोड़ा जा सकता है । रामचरित मानस में भी गोस्वामी तुलसीदास जी ने साबर मंत्र की चर्चा करते हुए लिखा है -


अनमिल आखर अरथ न जापू । प्रकट प्रभाव महेस प्रतापू  ।


अर्थात जिसके अक्षरों में न मेल है न ही जिसका कोई अर्थ है और न जिसका जाप ही होता है फिर भी भगवान शंकर के प्रताप से इन साबर मंत्रों का प्रभाव है । इसके साथ ही नगमत की समाप्ति के बाद एक औषधि भी खिलाया जाता है जो गुरू अपने हाथों से अभिमंत्रित कर सबको प्रदान करता है । कहते हैं कि इसे खाने से साल भर विष का कोई प्रभाव शरीर पर नहीं पड़ता । मैं भी इसे प्रसाद स्वरूप ले लेता हूँ । यह इतना कड़ुवा होता है कि इसे मुँह में रखते ही थूकने को जी करता है । पर थूकने की सख्त मनाही होती है । कहा जाता है कि चबाकर निगल जाने पर ही इसका साल भर असर रहता है । 

 बहरहाल ••जो कुछ भी है यह हमारे छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति और विरासत का अमूल्य हिस्सा है और मुझे अपने इन सांस्कृतिक मूल्यों और उसके क्रियात्मक उपादानों से बहुत लगाव और प्यार है । इन ठेठ देहाती और मन के साफ सुथरे लोगों के बीच आत्मीयता का जो संस्पर्श पाता हूँ उससे भीतर बाहर तरोताजा हो जाता हूँ । नागपंचमी पर्व की शाम मैं इन्ही नंगमतिया साथियों के साथ गुजारता हूँ । एक दिन पहले वे मुझे नेवता ( आमंत्रण ) देते हैं । कुछ सालों से उनके बीच जा रहा हूँ और मांदर की धमक के साथ भाव से भरे नगमतिहा साधकों से गुरू की वंदना सुनते हुए आनंदित और विभोर हो जाता हूँ  । आप भी कभी नागपंचमी पर मेरे शहर आइए •• आपको भी ले चलूंगा पुरानी बस्ती के नगमत के इस लोक आयोजन में । यह एक सुदीर्घ परंपरा का हिस्सा है । इसे हम छत्तीसगढ़ियों को सहेजकर भी तो रखना है । 


( देखिए आयोजन के कुछ सुलभ चित्र •••)


सतीश कुमार सिंह

पुराना काॅलेज के पीछे बाजारपारा, जांजगीर

मोबाइल नंबर  - 94252 31110k

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     जांजगीर, कल आज और कल

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                    सतीश कुमार सिंह 


अपने शहर में रहकर स्मृतियों को खंगालना और यहाँ से बाहर रहकर उसकी यादों में जीना दोनों में बहुत अंतर है । कई बार पास रहते हुए ढेर सारी चीजें छूट जाती हैं और दूर रहकर सबकुछ झलकने लगता है । जब अपने शहर पर कुछ लिखने बैठा हूँ तो कुछ इसी तरह के पशोपेश से दो चार हो रहा हूँ । काॅलेज के दिनों में उपेंद्रनाथ अश्क का पढ़ा हुआ उपन्यास " शहर में घूमता आईना " याद आ रहा है जिसका पात्र अपने नगर से बाहर रहकर लंबे अंतराल के बाद लौटता है और इस दौरान इतना कुछ बदल गया होता है कि वह हर जगह भौंचक हो जाता है । लेखक इस पात्र को आइने की तरह शहर भर में घुमाता है और वह अपने कस्बेनुमा शहर की गलियों , मुहल्ल्लों तथा अपने वाकिफकारों से दो चार होते हुए उनके जीवन के उथल-पुथल तथा बदलाव को दर्ज़ करते चलता है । मगर मैं अपने इस शहर में तकरीबन तीस वर्षों से रह रहा हूँ और पीछे लौटकर अपने हिस्से के अनुभवों के साथ उन परिवर्तनों पर निगाह जमाने में लगा हूँ जिसका कहीं न कहीं मैं भी एक अंग रहा हूँ । 

  अविभाजित मध्यप्रदेश में छत्तीसगढ़ की हैसियत एक पिछड़े हुए क्षेत्र की थी और यहाँ के प्रति लोगों की धारणाएं भी अलग अलग तरह से रहीं । वर्तमान जांजगीर-चांपा जिला तब बिलासपुर जिले का एक राजस्व अनुविभाग था और उस समय यहाँ पदस्थ एसडीएम की हैसियत किसी कलेक्टर से कम नहीं होती थी । जब यह जिला 25 मई 1998 को अस्तित्व में आया तब जांजगीर और चांपा नगर के जनमत और माँग को वरीयता देते हुए दोनों शहर को मिलाकर इसे जांजगीर- चांपा जिले के रूप में प्रशासनिक तौर पर गठित किया गया । इसके पहले कलेक्टर हुए डाॅ. व्ही एस निरंजन जो अपनी अधिवार्षिकी पूरी कर चुके हैं । वे बताते हैं कि अपने हाथों से फीता काटकर इस जिले को एक छोटी टेबल और कुर्सी लगाकर इसके अधो संरचना को विकसित करने में यहाँ के स्थानीय निवासियों का मुझे भरपूर साथ मिला । " डाॅ. निरंजन का लगाव यहाँ से इसलिए भी ज्यादा था कि वे अपनी नौकरी के शुरुआती दिनों में यहाँ एसडीएम के रूप में पदस्थ हुए थे । 

 यहाँ के पुरावैभव और सांस्कृतिक विरासत की अगर बात करें तो सबसे पहले 12 वीं शताब्दी में बने विष्णु मंदिर की चर्चा आती है । छत्तीसगढ़ के संस्कृति विभाग में  उपसंचालक, इतिहासकार एवं पुरातत्ववेत्ता राहुल कुमार सिंह अपने एक आलेख में इस नगर के इतिहास को जांजगीर के विष्णु मंदिर की पृष्ठभूमि में तथा आसपास के क्षेत्रों से प्राप्त विभिन्न पुरातात्विक सामग्री के आधार पर आदिम युग अथवा कम से कम मध्य पाषाण युग से संबद्ध करते हैं । उनका मानना है कि कबरा पहाड़ और सिंघनपुर में आदिम युग के चित्रित शैलाश्रय से इस बात की तसदीक होती है । उनके मुताबिक अभिलिखित प्रमाणों में जाजल्लपुर नगर रतनपुर राज्य के हैहय वंशीय राजा जाज्वल्यदेव प्रथम ( ईस्वी सन 1090 - 1120 ) ने बसाया था । अपभ्रंशवश इसी जाजल्लपुर का नाम कालांतर में जांजगीर हो गया । जिला मुख्यालय से तकरीबन 49 किलोमीटर की दूरी पर महानदी के तट पर स्थित नगर शिवरीनारायण भी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है । यहाँ के मंदिर और जांजगीर के विष्णु मंदिर को लेकर जो दंतकथाएं प्रचलित हैं उसका जिक्र बेगलर ने भी किया है जिसके अनुसार शिवरीनारायण और जांजगीर के मंदिर निर्माण को लेकर प्रतिस्पर्धा थी । कहा जाता है कि भगवान नारायण ने घोषणा की थी कि जो मंदिर पहले बनेगा उसमें वे प्रवेश करेंगे । शिवरीनारायण का मंदिर पहले पूर्ण हुआ और नारायण उसमें प्रविष्ट हुए । इसके बाद जांजगीर के मंदिर को उसी हालत में अधूरा छोड़ दिया गया । आज भी शिवरीनारायण के नर - नारायण मंदिर की बड़ी मान्यता इस क्षेत्र में है जहाँ की माघी पूर्णिमा मेला अंचल में प्रसिद्ध है । जांजगीर के विष्णु मंदिर से संबंधित इन दंतकथाओं में पाली के मंदिरों को भी जोड़ा जाता है । इस किवदंती में यह कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण छमासी रात में हो रहा था यानि तब रात छ: महीने की हुई थी जब शिवरीनारायण , जांजगीर और पाली के मंदिर भी इसी रात में बनाए जा रहे थे । जब जांजगीर के विष्णु मंदिर के शिखर को स्थापित करने की तैयारी हो रही थी तभी पक्षियों ने चहचहाना शुरू कर दिया और मंदिर अधूरा रह गया । कुछ लोग मानते हैं कि इसके पार्श्व में स्थित शिव मंदिर ही इसका शिखर है । इसी तरह से इस अधूरे विष्णु मंदिर के सामने जो भीमा तालाब है उसे भी लेकर लोक में अनेक कथाएं चर्चित हैं जिसमें कहा जाता है कि महाभारत के बलशाली पात्र भीम ने इस जगह पर पाँच बार फावड़ा चलाकर खुदाई की थी इसीलिए इस तालाब का नाम भीमा तालाब हुआ । विष्णु मंदिर जहाँ पुरातत्व विभाग के संरक्षण में है वहीं  भीमा तालाब का सौदर्यीकरण स्थानीय प्रशासन के द्वारा किया जा रहा है । जांजगीर जिले के अतीत को लेकर ढेर सारी कहानियां हैं । उन सबकी चर्चा करने में एक पूरा ग्रंथ तैयार किया जा सकता है । मैनें संक्षेप में इसके पुरातात्विक और सांस्कृतिक विरासत की बातों को रेखांकित करने का प्रयास किया है । 

इसके वर्तमान पर जब हम नजर डालते हैं तो यह आज भी अपने कस्बाई संस्कारों और सरोकारों के साथ प्रगति की ओर अग्रसर है । यहाँ के लोगों में राजनीतिक जागरूकता के साथ साथ आपसी संबंधों में गांव गंवई के लोगों जैसी एक आत्मीयता और समावेशी उदारता स्पष्ट दिखाई पड़ती है ।

 तकरीबन 92 प्रतिशत सिंचित रकबा वाले इस जिले में धान का बम्पर उत्पादन होता है । राजस्व रिकार्ड के अनुसार कुल 913 ग्रामों में आबाद ग्रामों की संख्या 905 है । 9 विकास खंड , सक्ती , मालखरौदा , डभरा , बम्नीहडीह , पामगढ़, बलौदा ,अकलतरा , जैजैपुर और 13 तहसीलों जांजगीर , अकलतरा , बलौदा , चांपा , सक्ती , पामगढ़,डभरा ,नवागढ़, मालखरौदा , जैजैपुर, बम्हनीडीह , बाराद्वार , अड़भार  में विस्तारित जांजगीर चांपा में लगभग 52 उद्योग स्थापित हैं । अभी हाल ही में प्रदेश के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने बम्हनीडीह, बाराद्वार तथा अड़भार को नया तहसील बनाने की घोषणा की है । वनक्षेत्र यहाँ मात्र 4.11प्रतिशत है जो राज्य में सबसे कम है । प्रदेश में सबसे गर्म स्थान चांपा को माना जाता है जहाँ ग्रीष्म ऋतु में लू के तेज झकोरे चलते हैं । यहाँ के कोतमीसोनार में स्थित मगरमच्छ पार्क एक महत्वपूर्ण परियोजना है जो एक शानदार पर्यटन स्थल के रूप में विकसित हुआ है । पूरे देश में यह मगरमच्छ परियोजना सातवें स्थान पर है । भौगोलिक दृष्टि से इसकी सीमाएं उत्तर में कोरबा , दक्षिण में रायपुर , पूर्व में रायगढ़ और पश्चिम में बिलासपुर को छूती हैं जहाँ औसत वर्षा लगभग 1273.6 व समान वर्षा 1300 एमएम है ।  जिले में चांपा कोसा , कांसा और कंचन के रूप में प्रसिद्ध है जहाँ कोसा उद्योग को यहाँ के बुनकर समुदाय के कारीगरों ने  निर्यात कर कौशेय वस्त्रों के व्यापार को वर्तमान में विश्व स्तर पर पहुंचा दिया है । वहीं उत्कल प्रांत से आए हुए कसेर समाज के लोग यहाँ कांसे के बर्तन बनाते हैं जिसकी अपनी अलग पहचान है  । चांपा में कांसे के बर्तन बनाने के लिए 18 से 20 भट्ठियाँ ( कारखाने ) हैं जहाँ कांसे के बर्तन तथा शुद्ध कांसे के सम्मिश्रण को गलाया जाता है । यह बहुत ही श्रम साध्य कार्य है जिसे टोलियों में किया जाता है ।  इसी तरह यहाँ स्वर्णकार समाज के द्वारा सोने चांदी के आभूषण की डिजाइनिंग पूरे देश में प्रसिद्ध है ।

 इस स्थान के सांस्कृतिक विरासत , कृषि और पुरातात्विक महत्व को रेखांकित करने के लिए   प्रत्येक वर्ष जाज्वल्यदेव लोक महोत्सव एवं एग्रीटेक कृषि मेला का आयोजन किया जाता है जिसे राष्ट्रीय स्तर पर चिन्हांकित किया गया है । सन् 2002 में छत्तीसगढ़  के प्रथम विधानसभा अध्यक्ष स्व. राजेंद्र प्रसाद शुक्ल ने 12 वीं शताब्दी के प्राचीन विष्णु मंदिर के प्रांगण में इसका उद्घाटन 7 जनवरी 2002 में किया था । तब छत्तीसगढ़ राज्य धीरे धीरे आकार ले रहा था । आज यह महोत्सव पूरे देश में अपनी अलग छाप छोड़ने में सफल रहा है । जिले के इस प्रतिष्ठापूर्ण आयोजन में उन्नत कृषि यंत्रों की प्रदर्शनी, देश के कृषि वैज्ञानिकों की संगोष्ठी तथा पशु मेला सहित जिले के विकास प्रदर्शनियों के मेला स्थल पर लगे स्टालों को देखकर जांजगीर के विकास यात्रा की पूरी बानगी दिखाई पड़ती है । विविधताओं से भरे जांजगीर चांपा जिले के विकास को गढ़ने में यहाँ के जिलाधिकारियों की तथा दलगत राजनीति से ऊपर उठकर  स्थानीय जनप्रतिनिधियों की विशिष्ट भूमिका रही है ।


पुराना काॅलेज के पीछे , जांजगीर 

जिला - जांजगीर-चांपा ( छत्तीसगढ़  ) 495668

मोबाइल नं - 7000196453

                  94252 31110


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[अपने हिस्से में मैं 

एक नदी मांगूगा •••

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सोन नदी के साथ कुछ इस तरह से मेरा बचपन जुड़ा रहा कि अब भी कभी कभी उसकी धार में उतरकर उसी खिलंदड़ेपन को तलाशता हूँ जो बाल्यकाल में स्मृतियों में संरक्षित रह गया था । इसके तट पर हमारी खेतीबाड़ी रही है जिसे चोरिया खार और केरहाचाकर के नाम से जाना जाता है । मेरे परदादा रूद्र सिंह को तलवा गाँव की मालगुजारी मिली थी । उनके दो बेटों जनक सिंह और केवल सिंह में उनकी मृत्यु के बाद यह मिल्कियत बँट गई थी । मेरे दादा जनक सिंह को ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते चोरिया खार और केरहाचाकर की जमीनें जेठासी में मिलीं थीं जो सोन नदी के तट पर बेहद उपजाऊ जमीन के रूप में जानी जाती थी । उनकी मृत्यु के बाद उनके पाँच बेटों में यहाँ की खेती बँट गईं जिसमें मेरे पिता का भी हिस्सा था जिनका मैं अकेला वारिस हूँ । यहाँ सोन नदी के आसपास छोटे झाड़ के जंगल हैं और कुछ सिदार आदिवासी परिवार हैं जो हमारे पुरखों की खेती की देखभाल करते थे और उसे जोंत - बोकर अपनी आजीविका चलाते । वे सोन नदी में जाल डालते , धीर और चोरिया ( मछली पकड़ने का देसी उपकरण ) लगाकर मछली पकड़ते तो बाबूजी के साथ मैं भी साथ जाता था । 10 -11 साल की उमर में सोन नदी के पानी में उन्हीं आदिवासियों ने मुझे तैरना सिखाया और उनके बच्चों के बीच मैं हिल मिलकर रहा । वे मेरा नाम नहीं लेते सब मालिक के बाबू कहते थे और आज भी बचे हुए बुजुर्ग और बचपन में साथ खेले साथी भी यही कहते हैं । कई बार बाबूजी से जिद कर मैं उनके बीच रूक जाता था और वे बड़े विश्वास से अपने इकलौते बेटे को उनके बीच छोड़ दिया करते थे । माँ बहुत नाराज होती थी तो उन्हें बाबूजी समझाते थे कि रहने दो उनके बीच उसे मेरे बाद वही तो सब सम्हालेगा । हमारे आदिवासी मुख्तियार के यहाँ तुलसी मंजरी के बारीक चावल के साथ मांगुर , पढ़िना , केवई , सरांगी , रोहू , मिरकल , गिमना मछली बनता था और तरह तरह के जंगली भाजियों के साथ , ठेलका और टिंडे की सब्जी , बनरमकेलिया ( भिंडी की जंगली प्रजाति ) के तरकारियों का स्वाद मिलता था । सोन नदी में अपने साथियों के साथ तैरकर भोजन करने आता और गुलेल लेकर सोन नदी के तट के जंगलों में मस्ती करते सूरज डूबने तक घूमता रहता । इस नदी में घुला हुआ मेरा बालमन अब भी डुबकियां लगाने को मचलता है और जब यहाँ काम के सिलसिले में जाना होता है तो मैं तड़के ही नहाने के सामान के साथ निकल जाता हूँ और स्नान और भोजन कर ही लौटता हूँ ।

मुझे याद है 1982 के आसपास का वह भीषण अकाल हमारे क्षेत्र में जब सूखा पड़ा था तब पानी की बूँद के लिए लोग तरसते थे । गाँव में पीने के पानी के लिए टैंकर आता था । बाबूजी ने सोन नदी के एक गहरे स्थान को बँधवा दिया था जिसे सब दहरा कहते थे । जब हमारे गाँव के सारे तालाब सूख गये थे तब इसी दहरा में नहाने के लिए मेरे गाँव से 4 बजे सुबह बैलगाड़ी से परिवार के लोग नहाने जाया करते थे । गाँव से सात किलोमीटर की दूरी पर स्थित सोननदी के इस दहरा ने तब सबको आश्रय दिया था । 

  नदी हमारे जीवन की सांस्कृतिक सभ्यता की धारा के साथ हमें कठिन क्षणों में शरण देने वाली भी है और जब वह प्राकृतिक आपदाओं में घिरकर अपनी सीमाओं से पार चली जाती है तो अपने भीतर सबको समो भी लेती है । सोन नदी हमेशा नियंत्रित रही और इसने हम पर सदा ही अपना प्यार लुटाया । सोन नदी की सोच की लहरों में बहते मुझे मेरे नवगीत का  मुखड़ा याद आ रहा है -  


सागर के जल से 

प्यास कहाँ बुझती है

अपने हिस्से में

मैं एक नदी मांगूगा


सतीश कुमार सिंह

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[9/10, 10:44 AM] लतिका वैष्णव: लोक पर्व नगमत के विषय में बहुत अच्छी जानकारी मिली है  ज्ञानवर्धन के लिए सादर आभार 🙏💐💐


[9/10, 11:22 AM] +91 6265 543 562: इतिहास एक उत्सुकता भरा विषय है मनुष्य की यह सहज प्रवृत्ति होती है कि वह अपने को जाने _पहचाने । पूर्वजों के द्वारा अपनाई गई संस्कृति को समझे और उसका चिंतनमनन कर आज के परिप्रेक्ष्य में उसका संवर्धन करे ।

सतीश सिंह जी ने आज बहुत विस्तार से और सारगर्भित रूप में

जांजगीर-चांपा का इतिहास सूत्र पटल पर रखा है । पढ़कर बहुत सी नई जानकारियां प्राप्त हुई ग्यान का संवर्धन हुआ है‌ ।

ऐसी दुर्लभ जानकारी के लिए सतीश जी को साधुवाद देना चाहूंगा और सूत्र का भी आभार तो बनता ही है । धन्यवाद ।


[9/10, 11:46 AM] +91 88716 65060: जांजगीर-चांपा जिले के अतीत और वर्तमान पर आपने बहुत अच्छा लिखा है । किसी भी स्थान का इतिहास अपने आप में बहुत सारी चीजें समेटे होता है । राजाओं और राजवंशों का इतिहास अलग चलता है तथा जन का इतिहास अलग से होता है। विडंबना यह कि हम तक केवल राजाओं और राजवंशों का इतिहास ही पहुंचता है ।जनता का इतिहास या तो लोक कथाओं में लोकगीतों में मिलता है अथवा वह किंवदंतियों  में मिलता है । परंतु इतिहास केवल कहानी किससे और किंवदंतियों में नहीं होता उसके पुरातात्विक प्रमाण मिलने जरूरी होते हैं। किसी स्थान का इतिहास लिखने के लिए वहां के पर्याप्त पुरातात्विक प्रमाण उपस्थित न होने की स्थिति में अनुमान के आधार पर भी काम चलाया जाता है परंतु यह अलग-अलग लोगों के अलग-अलग होते हैं । इन मंदिरों का शिल्प देख कर अच्छा लगा । मंदिर के अधूरा रहने के कुछ और कारण भी रहे होंगे सबसे प्रमुख कारण तो सत्ता परिवर्तन अथवा आर्थिक कारण ही होता है । संभव है ऐसा कुछ इस बात का कोई लिखित अभिलेख भी उपलब्ध हो ।


[9/10, 1:14 PM] राजकिशोर राजन: लोकरंग आज मन भर पढ़ने का मन कर रहा है।जांजगीर से शुरू कर सोन नदी के कछार तक विस्तृत यह रंग अद्भुत है।सातीश कुमार सिंह की कविताई की चर्चा से ले कर सोन नदी की मछलियों और गुलेल तक की चर्चा तन मन को विभोर करनेवाला है।

बहुत बहुत बधाई लक्ष्मीकांत मुकुल जी।आज छत्तीसगढ़ और बिहार एकमेक हो गया है।

बधाई।🌹


[9/10, 7:15 PM] विजय सिंह,जगदलपुर: लोक रंग हमेशा की  तरह आज भी चित्रों, तस्वीरों और सतीश  के कलम से खिला हुआ  है ।  जिसे अपने अंदाज में मुकुल जी ने प्रस्तुत  किया  है ।  पहले तो दोनों साथियों  को मन से आभार!  समृद्ध  लेख और समृद्ध  लोक परंपरा  ,लोक जीवन, लोक गाथाओं, लोक इतिहास  से जोड़ने के लिए  ! जांजगीर  में लगातार  जाता रहा हूँ  ! बहुत   से महत्वपूर्ण  साहित्यिक  आयोजन हमने वहां किये हैं  और कई बार सतीश, विजय राठौर  भैया, नरेन्द्र  दादा के बुलावे  पर  जांजगीर   पहुंचता रहा हूँ  ! छत्तीसगढ़   में जांजगीर  नगर अपनी राजनीतिक  चेतना के साथ  सक्रिय  साहित्यिक  गतिविधियों  के  लिए  अलग से रेखांकित  किया जाता है।  यहाँ साहित्य  - संस्कृति  की अपनी पुख्ता ज़मीन है ।  और आज सतीश के नगमत लेख से लोक समाज की विभिन्न जीवंत परंपराओं  से भी परिचित  हुआ  ! यह सही  है कि गांवों में लोक चेतना  ,लोक  विश्वास  ,लोक आत्मबल हमसे अधिक  सशक्त  है वे लोग  आज भी इस मोबाइल  ,कम्प्यूटर  युग में बिना घड़ी  के आसमान  को देख कर आपको सही  समय बता देंगे ..और बहुत  सी औषधि  तो वह जंगल जाकर ले आयेंगे और आपका बुखार - सर्दी और बिमारी रफा - दफा... बस्तर के जंगल में बड़ी बड़ी लाल चीटियाँ  मिलती है जो सबसे घने पेड़ रहती है जिसे यहाँ के निवासी  अपने शरीर  में कटवाकर  102, 103 बुखार उतरवा लेते हैं  !  वहीं  इस चिंटी को पिस कर  चटनी के रूप में भी खा भी लेते हैं  जिसे हल्बी "चापड़ा चटनी " कहते हैं  ! मैं यह सब सतीश के इस महत्वपूर्ण  लेख के सन्दर्भ  में बता रहा हूँ  जिसमें सांप के विष को हरने की प्रथा को जांजगीर  में सपहर मंत्र कहा जाता है  ! यह अद्भुत   शिष्य - गुरू पंरपरा  है जो गुरू अपने हाथों  से अभिमंत्रित  करके सबको प्रदान करता  है इसे खाने से साल भर विष का कोई  प्रभाव  शरीर  पर नहीं  पड़ता... जांजगीर  शहर की   स्मृतियों   को भी सतीश ने बहुत  अच्छे से बुना है ।  और अपने हिस्से  की नदी  में भी सतीश ने अपने पूर्वजों  को याद करते हुए  समृद्ध  लेखन किया  है ।  कुल मिलाकर  आज का लोकरंग मन   को जोड़ता है ।   बहुत  बधाई  सतीश, मुकुल जी... 

👌👌😊


[9/10, 8:19 PM] भास्कर चौधरी: आज के लोकरंग के सरोवर में डुबकी लगाकर अपने आप को तरोताज़ा महसूस कर रहा हूँ। दिनों बाद बिना किसी व्यवधान के भाई सतीश सिंह के तीनों लेख मनोयोग से पढ़ पाया। सचमुच लोकरंग का ज्ञान बहुत गहराई की मांग करता है। मुझे हमेशा से यह बात सालती रही है कि उम्र के इक्कावन वर्ष बीत जाने के बाद भी लोक से गहरे जुड़ने की मेरी आकांक्षा अधूरी ही रही है और मैंने अपना अधिकांश समय छोटे शहरों या क़स्बों में बिताया है...। सतीश भाई ने नगमत परम्परा के बहाने छत्तीसगढ़ के समृद्ध लोकजीवन पर बेहतरीन लिखा है। सपहर मंत्र, जड़ीबूटियों, औषधियों और नागपंचमी के अवसर पर नाग-नागिन की तरह मिट्टी में लथपथ होकर मादर की थाप पर गीत और नृत्य के दृश्य के बारे में सोच कर मन रोमांच से भर उठता है। उसी तरह जांजगीर, कल आज और कल लेख से आज के जांजगीर की समृद्ध विरासत और सजग वर्तमान को आसानी से समझा जा सकता है। नरेन्द्र दादा के जांजगीर को भाई सतीश, विजय राठौर भैया, नागवंशी जी और बहुत सारे अग्रज और युवा साहित्यकार और कार्यकर्ता निस्वार्थ भाव व समर्पण से बेहतर भविष्य की ओर ले जा रहे हैं यह तय है। 

तीसरे लेख 'अपने हिस्से में / मैं एक नदी मांगूंगा' में सोन नदी और आदिवासी साथियों से जुड़े बेहद आत्मीय अनुभवों ने मुझे मेरे बचपन की याद दिला दी और दिल किया कि बस सतीश को गले लगा लूं और उनका हाथ पकड़कर उन आदिवासी दोस्तों के बीच ले चलने का आग्रह करूँ ... मछलियों और तरकारियों के ज़िक्र से मुंह में पानी आ गया सचमुच।


आज प्रस्तुत लेख, चित्र और उस पर बातचीत सब कुछ बेहद दिलचस्प और मुझ जैसे अल्पज्ञ के लिए आँखें खोलने वाले रहे। लक्ष्मीकांत मुकुल जी और सतीश भाई को साधुवाद। 

विजय भैया का आभार।


[9/10, 9:04 PM] सतीश कुमार सिंह : लतिका जी आपका हार्दिक धन्यवाद । आप स्वयं एक ऐसे परिवार से जुड़ी हैं जिन्होंने बस्तर के लोक समाज से हम सबका परिचय कराया है ।


[9/10, 9:06 PM] सतीश कुमार सिंह : आपने सही कहा भरत जी कि इतिहास एक उत्सुकता भरा विषय है । इसको जितना खंगालेंगे कुछ न कुछ नया ही मिलता है । आनका बहुत-बहुत धन्यवाद 🌹


[9/10, 9:12 PM] सतीश कुमार सिंह : आपने बहुत महत्वपूर्ण बात कही शरद भाई राजवंशों का इतिहास और जन इतिहास में बहुत अंतर होता है । वस्तुतः जन से ही किसी राजवंश का इतिहास बनता है पर वे नेपथ्य में डाल दिए जाते हैं । हमारी कोशिश उस जन इतिहास को ही उसके लोक संदर्भों के साथ सामने लाने की होनी चाहिए । सत्ता का चरित्र हर कालखंड में एक जैसा ही रहा है इसीलिए यह विभेद एक बड़ी खाई की सीमा तक जा पहुंचा है । बहुत बहुत आभार 🌹🙏


[9/10, 9:15 PM] Lakshmi Kant Mukul: लतिका वैष्णव जी

भरत स्वर्णकार जी

शरद कोकास जी

राजकिशोर राजन जी

विजय सिंह जी

भास्कर चौधरी जी

आप सभी को हार्दिक धन्यवाद

लोक रंग के आज के पोस्ट पर अपनी सार्थक विमर्श / टिप्पणियां  प्रकट / साझा करने के लिए।

सतीश भाई को भी Thanks ,

जिनके लोकधर्मी लेखन के इंद्रधनुषी रंगों से आज का    लोक रंग प्रखर हुआ।


[9/10, 9:17 PM] सतीश कुमार सिंह : लोक की इस व्याप्ति को एक ही रंग और रेखा में आप जैसा जन प्रतिबद्ध कवि ही समझ सकता है राजन जी । आपका बहुत-बहुत धन्यवाद 🙏🌹


[9/10, 9:24 PM] सतीश कुमार सिंह : बस्तर का जो परिदृश्य है उसमें आपके रचनात्मक सरोकार की आभा है विजय भैया । जांजगीर और जगदलपुर के आयोजनों का सिलसिला और उसकी यादें भी एक तरह से हमारी धरोहर हैं जिसमें एक तरफ लाला जगदलपुरी जैसे साहित्य नेतृत्वकर्ता और दूसरी तरफ दादा नरेंद्र श्रीवास्तव जैसे समर्थ रचनाकारों की पीढ़ियाँ सृजनरत हैं । आपने दोनों जगह के रचनात्मक सरोकारों को बहुत सही परिप्रेक्ष्य में समझा है और उस पर लिखा है । हार्दिक धन्यवाद भैया 🌹🙏


[9/10, 9:28 PM] सतीश कुमार सिंह : बहुत-बहुत धन्यवाद भास्कर भाई । यह कोरोना संकट टल जाए तो किसी दिन आपको साथ लेकर चलूंगा इस लोक संसार में । यहाँ जो सादगी और सहजता है उससे आप जैसा कवि सम्मोहित हुए बिना नहीं रह सकता । बहुत-बहुत धन्यवाद इस आत्मीय टिप्पणी के लिए 🙏🌹


[9/10, 9:28 PM] विजय सिंह,जगदलपुर: आप सब से निवेदन 

🛑🛑


 आज सतीश ने जांजगीर शहर को लेकर " कल आज और कल" के माध्यम  से जांजगीर  शहर को जीवंतता  से बुना है।  आप सब भी अपने शहर, गांव, जनपद, महानगर जहां  आप रहते हैं   या अपने शहर को छोड़ कर  और  कहीं नौकरी कर रहे हैं  तो हम चाहते  हैं  आप अपने शहर के बारे में लिखें और फोटोग्राफ हो तो और अच्छी  बात!  इसी बहाने हम एक  दूसरे के शहर, गांव, जनपद, नगर की संभावनाओं  ,संस्कृति  ,रीति रिवाज, साहित्यिक  गतिविधियां  ,उपलब्धियों  ,एतिहासिक  सामाजिक  तथ्यों  आदि से जो आप अपने शहर को लेकर महसूस  करते हैं  उससे आपके बहाने हम जुड़ पायेंगे तो लिखिये और लिख कर मुकुा जी को वाट्सअप  कर दीजिये ताकि हम गुरूवार  को आपके शहर ,गांव, नगर से जुड़ सकें

विजय सिंह  

सूत्र


[9/10, 9:33 PM] सतीश कुमार सिंह: यह तो आपकी सदाशयता है मुकुल जी जो इतने अच्छे संयोजन के साथ लोकरंग को एक नई चमक देते हैं और हर बार नये कलेवर के साथ पटल पर उसे प्रस्तुत करते हैं । 

आपका बहुत-बहुत धन्यवाद और आभार मेरे लेखों को सुसंगत ढंग से पेश करने हेतु 🌹🙏


[9/10, 9:35 PM] भास्कर चौधरी: 🙏🙏🙏

कुछ देर पहले ही लक्ष्मीकांत जी से भी बात हुई, वे भी बेहद उत्सुक हैं जांजगीर आने के लिए...


[9/10, 9:36 PM] सतीश कुमार सिंह : यह एक सार्थक दिन होगा जब हम इस दिन हमसे जुड़े साथियों के गाँव शहर से परिचित होंगे । मुकुल जी इसकी जिम्मेदारी लें हमारा आग्रह है । धन्यवाद विजय भैया इस जरूरी पहल के लिए ।


[9/10, 9:39 PM] सतीश कुमार सिंह,: स्वागत है मुकुल जी का । बस आवागमन की सुविधाएं बन जाए तो मिलने जुलने का सिलसिला बन पड़े भास्कर भाई।

लोक कथा vimrsb

 10.09.2020


आज के लोकरंग में चर्चा होगी .... छत्तीसगढ़ के लोक पर्व नगमत की, एक कस्बा जांजगीर के नगर के रूप में परिवर्तित होने के लोक अनुभवों की और सोन नदी के कछार के उन लहलहाते खेतों की ....!

श्री सतीश कुमार सिंह एक सजग नागरिक बोध के कवि है , जो वर्तमान में शिक्षक और लेखन के प्रारम्भिक दौर में कुशल पत्रकार भी रह चुके हैं।

इनकी कविताओं / नवगीतों में लोकजीवन के अनेकों दृश्य बिम्ब सहजता से प्राप्त होते हैं। 

इनका कविता संकलन " सुन रहा हूं इस वक़्त " की कविताएं ग्रामीण जीवन व उससे जुड़े सरोकारों से लबरेज़ हैं ,जिसमें समय और समाज का रचनात्मक द्वंद प्रतिरोधी चेतना के साथ उपस्थित है।

सतीश जी हिंदी कविता के कुछ गिने चुने रचनाकारों  में एक हैं ,जिन्होंने अंचल की मिट्टी में पैर गीला कर स्थानीयता की अनुभूति जन्य अनुभवों को समझ कर अपनी वर्गीय चेतना और विश्व दृष्टि को विकसित किया है।

_लक्ष्मीकांत मुकुल


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छत्तीसगढ़ की लोक परंपरा -

 नगमत 

               सतीश कुमार सिंह 


छत्तीसगढ़िया लोक समाज में विभिन्न परंपराओं की अद्भुत छटा देखने को मिलती है । यहाँ शैव , वैष्णव और शाक्त मत के अलावा सिद्धों और नाथों का प्रभाव भी दृष्टिगोचर होता है । हरियाली अमावस्या को मनाए जाने वाले पर्व " हरेली " को कृषि यंत्रों की पूजा के साथ गांव देहात में मंत्र दीक्षा की शुरूआत भी होती है और पुराने मंत्र साधक अपने स्थानीय गुरू के समक्ष अपने मंत्र की पुनरावृत्ति करते हैं जिसे जन समाज के लोग मंत्र लहुटाना कहते हैं । 

  जब गाँवों तक विज्ञान की पहुँच नहीं थी तब खेती किसानी करने वाले लोग इसी लोक विश्वास और जड़ी बूटी आदि स्थानीय औषधियों से अपने आत्मबल के साथ मेहनत मजदूरी करते जाड़ा , घाम और बरसात को झेलते हुए अपने कर्म क्षेत्र में डटे रहते थे । उनके अवचेतन के भय  को मंत्र पर उनकी आस्था सम्हाले रहती थी । चिकित्सा विज्ञान भी यह मानता है कि औषधि से भी अधिक औषधि पर विश्वास काम करता है । इस गहरी बात को छत्तीसगढ़ का लोक समाज गहराई से समझता रहा है । यही वजह है कि अपने आपको मंत्र से अभिरक्षित रखने के लिए इन लोक परंपराओं को गुरूमुखी साधना बनाकर उत्सव का रूप दिया गया है । हरियाली अमावस्या यानि हरेली के पाँचवे दिन नागपंचमी का पर्व मनाया जाता है । इस दिन किसान अपने घरों और खेतों में नाग नागिन की पूजा करते हैं और उन्हें दूध लाई ( लावा ) का प्रसाद अर्पित करते हैं । खेतों में कीड़े मकोड़ों और चूहों को खाकर सर्प फसलों की रक्षा करते हैं । किसानों के मन में उनके लिए भी आभार की उदात्त  भावना है जिनसे उसे विष का भय रहता है । वे फसलों की सुरक्षा के साथ अपने परिवार को भी इस आपात भय से बचाए रखने की प्रार्थना करते हैं । कहते हैं कि साँप न दूध पीते हैं और न लाई खाते हैं । उनका आहार कीट पतंग और छोटे मोटे जीव जंतु ही है पर मनुष्य तो जो खाता है वही उसे अपनी भावनाओं के साथ समर्पित करता है । यह भावप्रधान जगत अद्भुत है जहाँ व्यष्टि से समष्टि तक एक मांगलिक अवधारणा की अविच्छिन्न परिपाटी है । इसी नागपंचमी पर्व पर नगमतिहा गुरू अपने शिष्यों को पीढ़ा - पाठ देते हैं जो सर्पमंत्र की दीक्षा कहलाती है । 

 नागपंचमी पर मेरे शहर जांजगीर की पुरानी बस्ती के कहरापारा में " नगमत " का आयोजन प्रतिवर्ष  किया जाता है । यह परंपरा छत्तीसगढ़ के बहुत से गांवों और कस्बों में अब भी जीवित है । इस दिन " सपहर " मंत्र की दीक्षा नए शिष्यों को नगमत गुरू प्रदान करते हैं। पीढ़े पर नाग नागिन और गुरू के चित्र को वर्तमान पीढ़ा गुरू लेकर बैठता है । यहाँ पीढ़ी या पीढ़ा से आशय पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे परिपाटी से भी है इसलिए इसे पीढ़ा - पाठ कहा जाता है ।

 साबर मंत्र ही स्थानीय बोली बानी में सपहर मंत्र के रूप में प्रचलित है । चूंकि यह साँप से संबंधित है इसलिए इसे सपहर मंत्र भी कहा जाता है । यानि साँप के विष को हरने वाला मंत्र सपहर , जिसकी अबूझ रचना में इस तरह ध्वन्यात्मकता और प्रवाह है कि इसके रचयिता लोक गुरूओं की प्रतिभा का लोहा मानना पड़ता है । सपहर मंत्र के दौरान झांझ और मांदर की उत्तेजक थाप के साथ लयबद्ध रूप से गुरू महिमा को बखान कर गाये जाने वाले मंत्र की एक बानगी देखिए -


गुरूसत गुरूसत गुरे नीर

गुरूसाय रे शंकर गुरू लछमी

गुरू तंत्र मंत्र गुरू लखे निरंजन

गुरू बिन होमे ल 

कोने देवय ओ नागिन 

गुरू बिन होमे ल


इस मंत्र के गूढार्थ हैं जिसमें गुरू तत्व की प्रधानता है । गुरूसत यानि गुरू सत्य है , गुरे नीर- गुरू जल की तरह तरल है , गुरूसाय रे शंकर - गुरूशंकर है और प्रमुख है , गुरू लक्ष्मी गुरूतंत्र मंत्र गुरू लखे निरंजन - गुरू ही लक्ष्मी है और निराकार निरंजन को देखनेवाला तथा जाननेवाला है । उसके भीतर प्राणों का होम करने वाला नगमतिहा है । यह इस छोटे से मंत्र का अभिप्राय है जिसे मैंने अपनी दृष्टि से समझने का प्रयास किया है ।

  इसके अलावा और भी कई मंत्र हैं जिसे आज के दिन गुरू के सामने पढ़कर उसके शब्द के अभ्यास को शिष्यगण जोर जोर से पाठ कर दुहराते तथा कंठस्थ करते हैं और पीढ़े पर बैठा गुरू कहीं कुछ कमी होने पर उसे वहीं  दुरूस्त करवाते हैं । मंत्र का प्रभाव जब चढ़ता है तो साधक शिष्य को नाग भरता है और वह तंद्रा में आकर कीचड़ में सराबोर हो नाग की तरह मांदर की ध्वनि में लोटता है तब माना जाता है कि उसका सपहर मंत्र सध गया । इसके पश्चात गुरू उसे होम सुंघाते हैं और वह तंद्रा से जागृत होकर अपनी स्वाभाविक चेतना में वापस लौटता है । 

इन सारी क्रियाओं में मुझे शैव मत की छत्तीसगढ़ में प्रधानता स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है । शिव पार्वती की ही लोक मे गुरूपद के रूप से महिमा है और उन्हें नगमतिहा साधक लोग विशेष तौर पर नागपंचमी के इस आयोजन में पूजते हैं । उनके अनगढ़ और अटपटे मंत्र को साबर मंत्र से जोड़ा जा सकता है । रामचरित मानस में भी गोस्वामी तुलसीदास जी ने साबर मंत्र की चर्चा करते हुए लिखा है -


अनमिल आखर अरथ न जापू । प्रकट प्रभाव महेस प्रतापू  ।


अर्थात जिसके अक्षरों में न मेल है न ही जिसका कोई अर्थ है और न जिसका जाप ही होता है फिर भी भगवान शंकर के प्रताप से इन साबर मंत्रों का प्रभाव है । इसके साथ ही नगमत की समाप्ति के बाद एक औषधि भी खिलाया जाता है जो गुरू अपने हाथों से अभिमंत्रित कर सबको प्रदान करता है । कहते हैं कि इसे खाने से साल भर विष का कोई प्रभाव शरीर पर नहीं पड़ता । मैं भी इसे प्रसाद स्वरूप ले लेता हूँ । यह इतना कड़ुवा होता है कि इसे मुँह में रखते ही थूकने को जी करता है । पर थूकने की सख्त मनाही होती है । कहा जाता है कि चबाकर निगल जाने पर ही इसका साल भर असर रहता है । 

 बहरहाल ••जो कुछ भी है यह हमारे छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति और विरासत का अमूल्य हिस्सा है और मुझे अपने इन सांस्कृतिक मूल्यों और उसके क्रियात्मक उपादानों से बहुत लगाव और प्यार है । इन ठेठ देहाती और मन के साफ सुथरे लोगों के बीच आत्मीयता का जो संस्पर्श पाता हूँ उससे भीतर बाहर तरोताजा हो जाता हूँ । नागपंचमी पर्व की शाम मैं इन्ही नंगमतिया साथियों के साथ गुजारता हूँ । एक दिन पहले वे मुझे नेवता ( आमंत्रण ) देते हैं । कुछ सालों से उनके बीच जा रहा हूँ और मांदर की धमक के साथ भाव से भरे नगमतिहा साधकों से गुरू की वंदना सुनते हुए आनंदित और विभोर हो जाता हूँ  । आप भी कभी नागपंचमी पर मेरे शहर आइए •• आपको भी ले चलूंगा पुरानी बस्ती के नगमत के इस लोक आयोजन में । यह एक सुदीर्घ परंपरा का हिस्सा है । इसे हम छत्तीसगढ़ियों को सहेजकर भी तो रखना है । 


( देखिए आयोजन के कुछ सुलभ चित्र •••)


सतीश कुमार सिंह

पुराना काॅलेज के पीछे बाजारपारा, जांजगीर

मोबाइल नंबर  - 94252 31110

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     जांजगीर, कल आज और कल

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                    सतीश कुमार सिंह 


अपने शहर में रहकर स्मृतियों को खंगालना और यहाँ से बाहर रहकर उसकी यादों में जीना दोनों में बहुत अंतर है । कई बार पास रहते हुए ढेर सारी चीजें छूट जाती हैं और दूर रहकर सबकुछ झलकने लगता है । जब अपने शहर पर कुछ लिखने बैठा हूँ तो कुछ इसी तरह के पशोपेश से दो चार हो रहा हूँ । काॅलेज के दिनों में उपेंद्रनाथ अश्क का पढ़ा हुआ उपन्यास " शहर में घूमता आईना " याद आ रहा है जिसका पात्र अपने नगर से बाहर रहकर लंबे अंतराल के बाद लौटता है और इस दौरान इतना कुछ बदल गया होता है कि वह हर जगह भौंचक हो जाता है । लेखक इस पात्र को आइने की तरह शहर भर में घुमाता है और वह अपने कस्बेनुमा शहर की गलियों , मुहल्ल्लों तथा अपने वाकिफकारों से दो चार होते हुए उनके जीवन के उथल-पुथल तथा बदलाव को दर्ज़ करते चलता है । मगर मैं अपने इस शहर में तकरीबन तीस वर्षों से रह रहा हूँ और पीछे लौटकर अपने हिस्से के अनुभवों के साथ उन परिवर्तनों पर निगाह जमाने में लगा हूँ जिसका कहीं न कहीं मैं भी एक अंग रहा हूँ । 

  अविभाजित मध्यप्रदेश में छत्तीसगढ़ की हैसियत एक पिछड़े हुए क्षेत्र की थी और यहाँ के प्रति लोगों की धारणाएं भी अलग अलग तरह से रहीं । वर्तमान जांजगीर-चांपा जिला तब बिलासपुर जिले का एक राजस्व अनुविभाग था और उस समय यहाँ पदस्थ एसडीएम की हैसियत किसी कलेक्टर से कम नहीं होती थी । जब यह जिला 25 मई 1998 को अस्तित्व में आया तब जांजगीर और चांपा नगर के जनमत और माँग को वरीयता देते हुए दोनों शहर को मिलाकर इसे जांजगीर- चांपा जिले के रूप में प्रशासनिक तौर पर गठित किया गया । इसके पहले कलेक्टर हुए डाॅ. व्ही एस निरंजन जो अपनी अधिवार्षिकी पूरी कर चुके हैं । वे बताते हैं कि अपने हाथों से फीता काटकर इस जिले को एक छोटी टेबल और कुर्सी लगाकर इसके अधो संरचना को विकसित करने में यहाँ के स्थानीय निवासियों का मुझे भरपूर साथ मिला । " डाॅ. निरंजन का लगाव यहाँ से इसलिए भी ज्यादा था कि वे अपनी नौकरी के शुरुआती दिनों में यहाँ एसडीएम के रूप में पदस्थ हुए थे । 

 यहाँ के पुरावैभव और सांस्कृतिक विरासत की अगर बात करें तो सबसे पहले 12 वीं शताब्दी में बने विष्णु मंदिर की चर्चा आती है । छत्तीसगढ़ के संस्कृति विभाग में  उपसंचालक, इतिहासकार एवं पुरातत्ववेत्ता राहुल कुमार सिंह अपने एक आलेख में इस नगर के इतिहास को जांजगीर के विष्णु मंदिर की पृष्ठभूमि में तथा आसपास के क्षेत्रों से प्राप्त विभिन्न पुरातात्विक सामग्री के आधार पर आदिम युग अथवा कम से कम मध्य पाषाण युग से संबद्ध करते हैं । उनका मानना है कि कबरा पहाड़ और सिंघनपुर में आदिम युग के चित्रित शैलाश्रय से इस बात की तसदीक होती है । उनके मुताबिक अभिलिखित प्रमाणों में जाजल्लपुर नगर रतनपुर राज्य के हैहय वंशीय राजा जाज्वल्यदेव प्रथम ( ईस्वी सन 1090 - 1120 ) ने बसाया था । अपभ्रंशवश इसी जाजल्लपुर का नाम कालांतर में जांजगीर हो गया । जिला मुख्यालय से तकरीबन 49 किलोमीटर की दूरी पर महानदी के तट पर स्थित नगर शिवरीनारायण भी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है । यहाँ के मंदिर और जांजगीर के विष्णु मंदिर को लेकर जो दंतकथाएं प्रचलित हैं उसका जिक्र बेगलर ने भी किया है जिसके अनुसार शिवरीनारायण और जांजगीर के मंदिर निर्माण को लेकर प्रतिस्पर्धा थी । कहा जाता है कि भगवान नारायण ने घोषणा की थी कि जो मंदिर पहले बनेगा उसमें वे प्रवेश करेंगे । शिवरीनारायण का मंदिर पहले पूर्ण हुआ और नारायण उसमें प्रविष्ट हुए । इसके बाद जांजगीर के मंदिर को उसी हालत में अधूरा छोड़ दिया गया । आज भी शिवरीनारायण के नर - नारायण मंदिर की बड़ी मान्यता इस क्षेत्र में है जहाँ की माघी पूर्णिमा मेला अंचल में प्रसिद्ध है । जांजगीर के विष्णु मंदिर से संबंधित इन दंतकथाओं में पाली के मंदिरों को भी जोड़ा जाता है । इस किवदंती में यह कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण छमासी रात में हो रहा था यानि तब रात छ: महीने की हुई थी जब शिवरीनारायण , जांजगीर और पाली के मंदिर भी इसी रात में बनाए जा रहे थे । जब जांजगीर के विष्णु मंदिर के शिखर को स्थापित करने की तैयारी हो रही थी तभी पक्षियों ने चहचहाना शुरू कर दिया और मंदिर अधूरा रह गया । कुछ लोग मानते हैं कि इसके पार्श्व में स्थित शिव मंदिर ही इसका शिखर है । इसी तरह से इस अधूरे विष्णु मंदिर के सामने जो भीमा तालाब है उसे भी लेकर लोक में अनेक कथाएं चर्चित हैं जिसमें कहा जाता है कि महाभारत के बलशाली पात्र भीम ने इस जगह पर पाँच बार फावड़ा चलाकर खुदाई की थी इसीलिए इस तालाब का नाम भीमा तालाब हुआ । विष्णु मंदिर जहाँ पुरातत्व विभाग के संरक्षण में है वहीं  भीमा तालाब का सौदर्यीकरण स्थानीय प्रशासन के द्वारा किया जा रहा है । जांजगीर जिले के अतीत को लेकर ढेर सारी कहानियां हैं । उन सबकी चर्चा करने में एक पूरा ग्रंथ तैयार किया जा सकता है । मैनें संक्षेप में इसके पुरातात्विक और सांस्कृतिक विरासत की बातों को रेखांकित करने का प्रयास किया है । 

इसके वर्तमान पर जब हम नजर डालते हैं तो यह आज भी अपने कस्बाई संस्कारों और सरोकारों के साथ प्रगति की ओर अग्रसर है । यहाँ के लोगों में राजनीतिक जागरूकता के साथ साथ आपसी संबंधों में गांव गंवई के लोगों जैसी एक आत्मीयता और समावेशी उदारता स्पष्ट दिखाई पड़ती है ।

 तकरीबन 92 प्रतिशत सिंचित रकबा वाले इस जिले में धान का बम्पर उत्पादन होता है । राजस्व रिकार्ड के अनुसार कुल 913 ग्रामों में आबाद ग्रामों की संख्या 905 है । 9 विकास खंड , सक्ती , मालखरौदा , डभरा , बम्नीहडीह , पामगढ़, बलौदा ,अकलतरा , जैजैपुर और 13 तहसीलों जांजगीर , अकलतरा , बलौदा , चांपा , सक्ती , पामगढ़,डभरा ,नवागढ़, मालखरौदा , जैजैपुर, बम्हनीडीह , बाराद्वार , अड़भार  में विस्तारित जांजगीर चांपा में लगभग 52 उद्योग स्थापित हैं । अभी हाल ही में प्रदेश के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने बम्हनीडीह, बाराद्वार तथा अड़भार को नया तहसील बनाने की घोषणा की है । वनक्षेत्र यहाँ मात्र 4.11प्रतिशत है जो राज्य में सबसे कम है । प्रदेश में सबसे गर्म स्थान चांपा को माना जाता है जहाँ ग्रीष्म ऋतु में लू के तेज झकोरे चलते हैं । यहाँ के कोतमीसोनार में स्थित मगरमच्छ पार्क एक महत्वपूर्ण परियोजना है जो एक शानदार पर्यटन स्थल के रूप में विकसित हुआ है । पूरे देश में यह मगरमच्छ परियोजना सातवें स्थान पर है । भौगोलिक दृष्टि से इसकी सीमाएं उत्तर में कोरबा , दक्षिण में रायपुर , पूर्व में रायगढ़ और पश्चिम में बिलासपुर को छूती हैं जहाँ औसत वर्षा लगभग 1273.6 व समान वर्षा 1300 एमएम है ।  जिले में चांपा कोसा , कांसा और कंचन के रूप में प्रसिद्ध है जहाँ कोसा उद्योग को यहाँ के बुनकर समुदाय के कारीगरों ने  निर्यात कर कौशेय वस्त्रों के व्यापार को वर्तमान में विश्व स्तर पर पहुंचा दिया है । वहीं उत्कल प्रांत से आए हुए कसेर समाज के लोग यहाँ कांसे के बर्तन बनाते हैं जिसकी अपनी अलग पहचान है  । चांपा में कांसे के बर्तन बनाने के लिए 18 से 20 भट्ठियाँ ( कारखाने ) हैं जहाँ कांसे के बर्तन तथा शुद्ध कांसे के सम्मिश्रण को गलाया जाता है । यह बहुत ही श्रम साध्य कार्य है जिसे टोलियों में किया जाता है ।  इसी तरह यहाँ स्वर्णकार समाज के द्वारा सोने चांदी के आभूषण की डिजाइनिंग पूरे देश में प्रसिद्ध है ।

 इस स्थान के सांस्कृतिक विरासत , कृषि और पुरातात्विक महत्व को रेखांकित करने के लिए   प्रत्येक वर्ष जाज्वल्यदेव लोक महोत्सव एवं एग्रीटेक कृषि मेला का आयोजन किया जाता है जिसे राष्ट्रीय स्तर पर चिन्हांकित किया गया है । सन् 2002 में छत्तीसगढ़  के प्रथम विधानसभा अध्यक्ष स्व. राजेंद्र प्रसाद शुक्ल ने 12 वीं शताब्दी के प्राचीन विष्णु मंदिर के प्रांगण में इसका उद्घाटन 7 जनवरी 2002 में किया था । तब छत्तीसगढ़ राज्य धीरे धीरे आकार ले रहा था । आज यह महोत्सव पूरे देश में अपनी अलग छाप छोड़ने में सफल रहा है । जिले के इस प्रतिष्ठापूर्ण आयोजन में उन्नत कृषि यंत्रों की प्रदर्शनी, देश के कृषि वैज्ञानिकों की संगोष्ठी तथा पशु मेला सहित जिले के विकास प्रदर्शनियों के मेला स्थल पर लगे स्टालों को देखकर जांजगीर के विकास यात्रा की पूरी बानगी दिखाई पड़ती है । विविधताओं से भरे जांजगीर चांपा जिले के विकास को गढ़ने में यहाँ के जिलाधिकारियों की तथा दलगत राजनीति से ऊपर उठकर  स्थानीय जनप्रतिनिधियों की विशिष्ट भूमिका रही है ।


पुराना काॅलेज के पीछे , जांजगीर 

जिला - जांजगीर-चांपा ( छत्तीसगढ़  ) 495668

मोबाइल नं - 7000196453

                  94252 31110


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[अपने हिस्से में मैं 

एक नदी मांगूगा •••

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सोन नदी के साथ कुछ इस तरह से मेरा बचपन जुड़ा रहा कि अब भी कभी कभी उसकी धार में उतरकर उसी खिलंदड़ेपन को तलाशता हूँ जो बाल्यकाल में स्मृतियों में संरक्षित रह गया था । इसके तट पर हमारी खेतीबाड़ी रही है जिसे चोरिया खार और केरहाचाकर के नाम से जाना जाता है । मेरे परदादा रूद्र सिंह को तलवा गाँव की मालगुजारी मिली थी । उनके दो बेटों जनक सिंह और केवल सिंह में उनकी मृत्यु के बाद यह मिल्कियत बँट गई थी । मेरे दादा जनक सिंह को ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते चोरिया खार और केरहाचाकर की जमीनें जेठासी में मिलीं थीं जो सोन नदी के तट पर बेहद उपजाऊ जमीन के रूप में जानी जाती थी । उनकी मृत्यु के बाद उनके पाँच बेटों में यहाँ की खेती बँट गईं जिसमें मेरे पिता का भी हिस्सा था जिनका मैं अकेला वारिस हूँ । यहाँ सोन नदी के आसपास छोटे झाड़ के जंगल हैं और कुछ सिदार आदिवासी परिवार हैं जो हमारे पुरखों की खेती की देखभाल करते थे और उसे जोंत - बोकर अपनी आजीविका चलाते । वे सोन नदी में जाल डालते , धीर और चोरिया ( मछली पकड़ने का देसी उपकरण ) लगाकर मछली पकड़ते तो बाबूजी के साथ मैं भी साथ जाता था । 10 -11 साल की उमर में सोन नदी के पानी में उन्हीं आदिवासियों ने मुझे तैरना सिखाया और उनके बच्चों के बीच मैं हिल मिलकर रहा । वे मेरा नाम नहीं लेते सब मालिक के बाबू कहते थे और आज भी बचे हुए बुजुर्ग और बचपन में साथ खेले साथी भी यही कहते हैं । कई बार बाबूजी से जिद कर मैं उनके बीच रूक जाता था और वे बड़े विश्वास से अपने इकलौते बेटे को उनके बीच छोड़ दिया करते थे । माँ बहुत नाराज होती थी तो उन्हें बाबूजी समझाते थे कि रहने दो उनके बीच उसे मेरे बाद वही तो सब सम्हालेगा । हमारे आदिवासी मुख्तियार के यहाँ तुलसी मंजरी के बारीक चावल के साथ मांगुर , पढ़िना , केवई , सरांगी , रोहू , मिरकल , गिमना मछली बनता था और तरह तरह के जंगली भाजियों के साथ , ठेलका और टिंडे की सब्जी , बनरमकेलिया ( भिंडी की जंगली प्रजाति ) के तरकारियों का स्वाद मिलता था । सोन नदी में अपने साथियों के साथ तैरकर भोजन करने आता और गुलेल लेकर सोन नदी के तट के जंगलों में मस्ती करते सूरज डूबने तक घूमता रहता । इस नदी में घुला हुआ मेरा बालमन अब भी डुबकियां लगाने को मचलता है और जब यहाँ काम के सिलसिले में जाना होता है तो मैं तड़के ही नहाने के सामान के साथ निकल जाता हूँ और स्नान और भोजन कर ही लौटता हूँ ।

मुझे याद है 1982 के आसपास का वह भीषण अकाल हमारे क्षेत्र में जब सूखा पड़ा था तब पानी की बूँद के लिए लोग तरसते थे । गाँव में पीने के पानी के लिए टैंकर आता था । बाबूजी ने सोन नदी के एक गहरे स्थान को बँधवा दिया था जिसे सब दहरा कहते थे । जब हमारे गाँव के सारे तालाब सूख गये थे तब इसी दहरा में नहाने के लिए मेरे गाँव से 4 बजे सुबह बैलगाड़ी से परिवार के लोग नहाने जाया करते थे । गाँव से सात किलोमीटर की दूरी पर स्थित सोननदी के इस दहरा ने तब सबको आश्रय दिया था । 

  नदी हमारे जीवन की सांस्कृतिक सभ्यता की धारा के साथ हमें कठिन क्षणों में शरण देने वाली भी है और जब वह प्राकृतिक आपदाओं में घिरकर अपनी सीमाओं से पार चली जाती है तो अपने भीतर सबको समो भी लेती है । सोन नदी हमेशा नियंत्रित रही और इसने हम पर सदा ही अपना प्यार लुटाया । सोन नदी की सोच की लहरों में बहते मुझे मेरे नवगीत का  मुखड़ा याद आ रहा है -  


सागर के जल से 

प्यास कहाँ बुझती है

अपने हिस्से में

मैं एक नदी मांगूगा


सतीश कुमार सिंह

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[9/10, 10:44 AM] लतिका वैष्णव: लोक पर्व नगमत के विषय में बहुत अच्छी जानकारी मिली है  ज्ञानवर्धन के लिए सादर आभार 🙏💐💐


[9/10, 11:22 AM] +91 6265 543 562: इतिहास एक उत्सुकता भरा विषय है मनुष्य की यह सहज प्रवृत्ति होती है कि वह अपने को जाने _पहचाने । पूर्वजों के द्वारा अपनाई गई संस्कृति को समझे और उसका चिंतनमनन कर आज के परिप्रेक्ष्य में उसका संवर्धन करे ।

सतीश सिंह जी ने आज बहुत विस्तार से और सारगर्भित रूप में

जांजगीर-चांपा का इतिहास सूत्र पटल पर रखा है । पढ़कर बहुत सी नई जानकारियां प्राप्त हुई ग्यान का संवर्धन हुआ है‌ ।

ऐसी दुर्लभ जानकारी के लिए सतीश जी को साधुवाद देना चाहूंगा और सूत्र का भी आभार तो बनता ही है । धन्यवाद ।


[9/10, 11:46 AM] +91 88716 65060: जांजगीर-चांपा जिले के अतीत और वर्तमान पर आपने बहुत अच्छा लिखा है । किसी भी स्थान का इतिहास अपने आप में बहुत सारी चीजें समेटे होता है । राजाओं और राजवंशों का इतिहास अलग चलता है तथा जन का इतिहास अलग से होता है। विडंबना यह कि हम तक केवल राजाओं और राजवंशों का इतिहास ही पहुंचता है ।जनता का इतिहास या तो लोक कथाओं में लोकगीतों में मिलता है अथवा वह किंवदंतियों  में मिलता है । परंतु इतिहास केवल कहानी किससे और किंवदंतियों में नहीं होता उसके पुरातात्विक प्रमाण मिलने जरूरी होते हैं। किसी स्थान का इतिहास लिखने के लिए वहां के पर्याप्त पुरातात्विक प्रमाण उपस्थित न होने की स्थिति में अनुमान के आधार पर भी काम चलाया जाता है परंतु यह अलग-अलग लोगों के अलग-अलग होते हैं । इन मंदिरों का शिल्प देख कर अच्छा लगा । मंदिर के अधूरा रहने के कुछ और कारण भी रहे होंगे सबसे प्रमुख कारण तो सत्ता परिवर्तन अथवा आर्थिक कारण ही होता है । संभव है ऐसा कुछ इस बात का कोई लिखित अभिलेख भी उपलब्ध हो ।


[9/10, 1:14 PM] राजकिशोर राजन: लोकरंग आज मन भर पढ़ने का मन कर रहा है।जांजगीर से शुरू कर सोन नदी के कछार तक विस्तृत यह रंग अद्भुत है।सातीश कुमार सिंह की कविताई की चर्चा से ले कर सोन नदी की मछलियों और गुलेल तक की चर्चा तन मन को विभोर करनेवाला है।

बहुत बहुत बधाई लक्ष्मीकांत मुकुल जी।आज छत्तीसगढ़ और बिहार एकमेक हो गया है।

बधाई।🌹


[9/10, 7:15 PM] विजय सिंह,जगदलपुर: लोक रंग हमेशा की  तरह आज भी चित्रों, तस्वीरों और सतीश  के कलम से खिला हुआ  है ।  जिसे अपने अंदाज में मुकुल जी ने प्रस्तुत  किया  है ।  पहले तो दोनों साथियों  को मन से आभार!  समृद्ध  लेख और समृद्ध  लोक परंपरा  ,लोक जीवन, लोक गाथाओं, लोक इतिहास  से जोड़ने के लिए  ! जांजगीर  में लगातार  जाता रहा हूँ  ! बहुत   से महत्वपूर्ण  साहित्यिक  आयोजन हमने वहां किये हैं  और कई बार सतीश, विजय राठौर  भैया, नरेन्द्र  दादा के बुलावे  पर  जांजगीर   पहुंचता रहा हूँ  ! छत्तीसगढ़   में जांजगीर  नगर अपनी राजनीतिक  चेतना के साथ  सक्रिय  साहित्यिक  गतिविधियों  के  लिए  अलग से रेखांकित  किया जाता है।  यहाँ साहित्य  - संस्कृति  की अपनी पुख्ता ज़मीन है ।  और आज सतीश के नगमत लेख से लोक समाज की विभिन्न जीवंत परंपराओं  से भी परिचित  हुआ  ! यह सही  है कि गांवों में लोक चेतना  ,लोक  विश्वास  ,लोक आत्मबल हमसे अधिक  सशक्त  है वे लोग  आज भी इस मोबाइल  ,कम्प्यूटर  युग में बिना घड़ी  के आसमान  को देख कर आपको सही  समय बता देंगे ..और बहुत  सी औषधि  तो वह जंगल जाकर ले आयेंगे और आपका बुखार - सर्दी और बिमारी रफा - दफा... बस्तर के जंगल में बड़ी बड़ी लाल चीटियाँ  मिलती है जो सबसे घने पेड़ रहती है जिसे यहाँ के निवासी  अपने शरीर  में कटवाकर  102, 103 बुखार उतरवा लेते हैं  !  वहीं  इस चिंटी को पिस कर  चटनी के रूप में भी खा भी लेते हैं  जिसे हल्बी "चापड़ा चटनी " कहते हैं  ! मैं यह सब सतीश के इस महत्वपूर्ण  लेख के सन्दर्भ  में बता रहा हूँ  जिसमें सांप के विष को हरने की प्रथा को जांजगीर  में सपहर मंत्र कहा जाता है  ! यह अद्भुत   शिष्य - गुरू पंरपरा  है जो गुरू अपने हाथों  से अभिमंत्रित  करके सबको प्रदान करता  है इसे खाने से साल भर विष का कोई  प्रभाव  शरीर  पर नहीं  पड़ता... जांजगीर  शहर की   स्मृतियों   को भी सतीश ने बहुत  अच्छे से बुना है ।  और अपने हिस्से  की नदी  में भी सतीश ने अपने पूर्वजों  को याद करते हुए  समृद्ध  लेखन किया  है ।  कुल मिलाकर  आज का लोकरंग मन   को जोड़ता है ।   बहुत  बधाई  सतीश, मुकुल जी... 

👌👌😊


[9/10, 8:19 PM] भास्कर चौधरी: आज के लोकरंग के सरोवर में डुबकी लगाकर अपने आप को तरोताज़ा महसूस कर रहा हूँ। दिनों बाद बिना किसी व्यवधान के भाई सतीश सिंह के तीनों लेख मनोयोग से पढ़ पाया। सचमुच लोकरंग का ज्ञान बहुत गहराई की मांग करता है। मुझे हमेशा से यह बात सालती रही है कि उम्र के इक्कावन वर्ष बीत जाने के बाद भी लोक से गहरे जुड़ने की मेरी आकांक्षा अधूरी ही रही है और मैंने अपना अधिकांश समय छोटे शहरों या क़स्बों में बिताया है...। सतीश भाई ने नगमत परम्परा के बहाने छत्तीसगढ़ के समृद्ध लोकजीवन पर बेहतरीन लिखा है। सपहर मंत्र, जड़ीबूटियों, औषधियों और नागपंचमी के अवसर पर नाग-नागिन की तरह मिट्टी में लथपथ होकर मादर की थाप पर गीत और नृत्य के दृश्य के बारे में सोच कर मन रोमांच से भर उठता है। उसी तरह जांजगीर, कल आज और कल लेख से आज के जांजगीर की समृद्ध विरासत और सजग वर्तमान को आसानी से समझा जा सकता है। नरेन्द्र दादा के जांजगीर को भाई सतीश, विजय राठौर भैया, नागवंशी जी और बहुत सारे अग्रज और युवा साहित्यकार और कार्यकर्ता निस्वार्थ भाव व समर्पण से बेहतर भविष्य की ओर ले जा रहे हैं यह तय है। 

तीसरे लेख 'अपने हिस्से में / मैं एक नदी मांगूंगा' में सोन नदी और आदिवासी साथियों से जुड़े बेहद आत्मीय अनुभवों ने मुझे मेरे बचपन की याद दिला दी और दिल किया कि बस सतीश को गले लगा लूं और उनका हाथ पकड़कर उन आदिवासी दोस्तों के बीच ले चलने का आग्रह करूँ ... मछलियों और तरकारियों के ज़िक्र से मुंह में पानी आ गया सचमुच।


आज प्रस्तुत लेख, चित्र और उस पर बातचीत सब कुछ बेहद दिलचस्प और मुझ जैसे अल्पज्ञ के लिए आँखें खोलने वाले रहे। लक्ष्मीकांत मुकुल जी और सतीश भाई को साधुवाद। 

विजय भैया का आभार।


[9/10, 9:04 PM] सतीश कुमार सिंह : लतिका जी आपका हार्दिक धन्यवाद । आप स्वयं एक ऐसे परिवार से जुड़ी हैं जिन्होंने बस्तर के लोक समाज से हम सबका परिचय कराया है ।


[9/10, 9:06 PM] सतीश कुमार सिंह : आपने सही कहा भरत जी कि इतिहास एक उत्सुकता भरा विषय है । इसको जितना खंगालेंगे कुछ न कुछ नया ही मिलता है । आनका बहुत-बहुत धन्यवाद 🌹


[9/10, 9:12 PM] सतीश कुमार सिंह : आपने बहुत महत्वपूर्ण बात कही शरद भाई राजवंशों का इतिहास और जन इतिहास में बहुत अंतर होता है । वस्तुतः जन से ही किसी राजवंश का इतिहास बनता है पर वे नेपथ्य में डाल दिए जाते हैं । हमारी कोशिश उस जन इतिहास को ही उसके लोक संदर्भों के साथ सामने लाने की होनी चाहिए । सत्ता का चरित्र हर कालखंड में एक जैसा ही रहा है इसीलिए यह विभेद एक बड़ी खाई की सीमा तक जा पहुंचा है । बहुत बहुत आभार 🌹🙏


[9/10, 9:15 PM] Lakshmi Kant Mukul: लतिका वैष्णव जी

भरत स्वर्णकार जी

शरद कोकास जी

राजकिशोर राजन जी

विजय सिंह जी

भास्कर चौधरी जी

आप सभी को हार्दिक धन्यवाद

लोक रंग के आज के पोस्ट पर अपनी सार्थक विमर्श / टिप्पणियां  प्रकट / साझा करने के लिए।

सतीश भाई को भी Thanks ,

जिनके लोकधर्मी लेखन के इंद्रधनुषी रंगों से आज का    लोक रंग प्रखर हुआ।


[9/10, 9:17 PM] सतीश कुमार सिंह : लोक की इस व्याप्ति को एक ही रंग और रेखा में आप जैसा जन प्रतिबद्ध कवि ही समझ सकता है राजन जी । आपका बहुत-बहुत धन्यवाद 🙏🌹


[9/10, 9:24 PM] सतीश कुमार सिंह : बस्तर का जो परिदृश्य है उसमें आपके रचनात्मक सरोकार की आभा है विजय भैया । जांजगीर और जगदलपुर के आयोजनों का सिलसिला और उसकी यादें भी एक तरह से हमारी धरोहर हैं जिसमें एक तरफ लाला जगदलपुरी जैसे साहित्य नेतृत्वकर्ता और दूसरी तरफ दादा नरेंद्र श्रीवास्तव जैसे समर्थ रचनाकारों की पीढ़ियाँ सृजनरत हैं । आपने दोनों जगह के रचनात्मक सरोकारों को बहुत सही परिप्रेक्ष्य में समझा है और उस पर लिखा है । हार्दिक धन्यवाद भैया 🌹🙏


[9/10, 9:28 PM] सतीश कुमार सिंह : बहुत-बहुत धन्यवाद भास्कर भाई । यह कोरोना संकट टल जाए तो किसी दिन आपको साथ लेकर चलूंगा इस लोक संसार में । यहाँ जो सादगी और सहजता है उससे आप जैसा कवि सम्मोहित हुए बिना नहीं रह सकता । बहुत-बहुत धन्यवाद इस आत्मीय टिप्पणी के लिए 🙏🌹


[9/10, 9:28 PM] विजय सिंह,जगदलपुर: आप सब से निवेदन 

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 आज सतीश ने जांजगीर शहर को लेकर " कल आज और कल" के माध्यम  से जांजगीर  शहर को जीवंतता  से बुना है।  आप सब भी अपने शहर, गांव, जनपद, महानगर जहां  आप रहते हैं   या अपने शहर को छोड़ कर  और  कहीं नौकरी कर रहे हैं  तो हम चाहते  हैं  आप अपने शहर के बारे में लिखें और फोटोग्राफ हो तो और अच्छी  बात!  इसी बहाने हम एक  दूसरे के शहर, गांव, जनपद, नगर की संभावनाओं  ,संस्कृति  ,रीति रिवाज, साहित्यिक  गतिविधियां  ,उपलब्धियों  ,एतिहासिक  सामाजिक  तथ्यों  आदि से जो आप अपने शहर को लेकर महसूस  करते हैं  उससे आपके बहाने हम जुड़ पायेंगे तो लिखिये और लिख कर मुकुा जी को वाट्सअप  कर दीजिये ताकि हम गुरूवार  को आपके शहर ,गांव, नगर से जुड़ सकें

विजय सिंह  

सूत्र


[9/10, 9:33 PM] सतीश कुमार सिंह: यह तो आपकी सदाशयता है मुकुल जी जो इतने अच्छे संयोजन के साथ लोकरंग को एक नई चमक देते हैं और हर बार नये कलेवर के साथ पटल पर उसे प्रस्तुत करते हैं । 

आपका बहुत-बहुत धन्यवाद और आभार मेरे लेखों को सुसंगत ढंग से पेश करने हेतु 🌹🙏


[9/10, 9:35 PM] भास्कर चौधरी: 🙏🙏🙏

कुछ देर पहले ही लक्ष्मीकांत जी से भी बात हुई, वे भी बेहद उत्सुक हैं जांजगीर आने के लिए...


[9/10, 9:36 PM] सतीश कुमार सिंह : यह एक सार्थक दिन होगा जब हम इस दिन हमसे जुड़े साथियों के गाँव शहर से परिचित होंगे । मुकुल जी इसकी जिम्मेदारी लें हमारा आग्रह है । धन्यवाद विजय भैया इस जरूरी पहल के लिए ।


[9/10, 9:39 PM] सतीश कुमार सिंह,: स्वागत है मुकुल जी का । बस आवागमन की सुविधाएं बन जाए तो मिलने जुलने का सिलसिला बन पड़े भास्कर भाई।

खो गयी कहीं चिट्ठियां

 प्रस्तुति  *खो गईं वो चिठ्ठियाँ जिसमें “लिखने के सलीके” छुपे होते थे, “कुशलता” की कामना से शुरू होते थे।  बडों के “चरण स्पर्श” पर खत्म होते...