गुरुवार, 23 फ़रवरी 2023

धुंध_में_पहाड़ / प्रवीण परिमल

 स्मृतियों में शेष अपने पिता की 25वीं #पुण्य_तिथि पर .....


पिता पर केंद्रित मेरी एक कविता और आदरणीय जगदीश नलिन जी द्वारा अंग्रेजी में इसका अनुवाद !

      

धुंध_में_पहाड़ /  प्रवीण परिमल

                  

पिता , धुंध में खड़ा पहाड़ थे शायद !


दिन की तरह ठिठुरते 

उन्हें कभी देखा नहीं मैंने

न ही कभी

धूप का गर्म ओवरकोट पहनते...

कवच की तरह !


विचारों की यह कैसी आंतरिक ऊष्मा थी उनमें

कि कष्ट की बड़ी - सी - बड़ी बूँद भी

गर्म तवे की तरह

उनकी देह को छूते ही 

भष्म हो जाती थी !


पिता , धुंध में खड़ा पहाड़ थे शायद !


इसी पहाड़ की गुफ़ाओं में

हमनें खेले हैं बचपन के दिन

इसी पहाड़ की कंदराओं में

हमने फाड़ी हैं रातों की चादरें !


हमें , मासूम शावकों की तरह...

अपने में उछलता - कूदता देख

कितना ख़ुश होता होगा पहाड़

कितना सुख महसूस करता होगा

हमारे नर्म - मुलायम बालों पर

स्पर्श की उंगलियाँ फेरते हुए !


बिजलियों की कड़कड़ाहट से

हमें , कभी दहशतज़दा नहीं होने दिया पहाड़ ने

न ही हम

उसकी गोद की गर्माहट में सिकुड़े - दुबके

आज तक यह जान पाये

कि आख़िर कैसे झेल लेता था पहाड़

एक ही साथ ---

ठंढ , लू , बारिश तथा आँधी और तूफ़ानों को

कैसे झटक देता था

कँटीली झाड़ियों की तरह

चेहरे की झुर्रियाँ और उम्र की थकानों को !


उसकी मृतप्राय आँखों में

दुख और असंतोष की

कितनी - कितनी गिलहरियाँ छटपटायी होंगी ,

हम आजतक नहीं जान सके !


उसके सामर्थ्य

और सहनशीलता से अनभिज्ञ हम 

अंत तक अपनी ज़रूरतों के   

'डायनामाइट' लगाते रहे

और पहाड़ को 

क्रमश: जर्जर बनाते रहे !


अब , 

जबकि उस पहाड़ की 

महज स्मृति भर शेष है ,

हम अपनी - अपनी छतों के नीचे ...

( जिसमें पिता की देह के टुकड़े शामिल हैं )

...हर तरह से सुरक्षित खड़े हैं

और ठंढ , लू , बारिश

तथा आंधी और तूफ़ानों के फीते हमें नाप रहे हैं

कि धुंध में खड़े उस पहाड़ से 

हम कितने छोटे

अथवा कितने बड़े हैं !


▪प्रवीण परिमल

              


#A_Mountain_In_Fog


Father was perhaps a mountain standing

In fog!


I never saw him

Shivering like day

Nor I ever saw him

Wearing the overcoat of the sunlight

Like armour!


How this internal warmth of

Thought was in him

That also the biggest possible drop

Of trouble just as touching his hot grid

Like body turned to ash!


Father was perhaps a mountain standing

In fog!


In the caves of this very mountain

We have played the days of childhood

In the caverns of this very mountain

We have torn the wrappers of nights!


Seeing us like innocent kids

Jumping and leaping in ourselves

How much pleased the mountain might be

Being

How much relief it might be feeling

Rubbing its fingers of touch

On our soft smooth hair!


The mountain never let us be frightened

From the thundering lightning

Nor we shrinked-hid in warmth of its lap

We couldn't be able to know till today

That after all how the mountain bore

Simultaneously---

Cold,hot wind,rains and gales and storms

How forcibly he ignored

Like thorny bushes

Wrinkles of face and tiredness of age!


How many squirrels of grief and discontent

Might have fluttered in its almost dead eyes

We couldn't know till today!


We unknown to its competence and

Tolerance kept on applying dynamite

For our needs till the end

And making the mountain worn-out

Bit by bit!


Today while there is only the memory

Of the mountain

We are under our roofs separately...

(In which pieces of father's body are included)

Standing quite secured 

And the tapes of cold,hot wind,and rains

Gales and storms are measuring us

That how much smaller or bigger we

Are than the mountain !

              --Parveen Parimal

मंगलवार, 21 फ़रवरी 2023

अल्हड़ सयानी बेटी

 अल्हड़    सयानी   बेटी

              पापा की है  रानी   बेटी

अम्मा  की  बगिया  की जी

                 दुलारी     है    बेटियां


 चमकें   नभ   मंडल 

                  महके     हैं   गुलशन

  खुशबू  दिश   दिशाएं 

             फैलाती      हैं     बेटियां


भैया की  है  जो  बहना

               हैं  मान  जाती   कहना

 राखी  वो  कलाई  पर 

                  बांधती   हैं    बेटियां


डोली  पर  विदा  होए 

              फुट  फुट   अम्मा   रोए

चट्टान से पापा को भी

                रुलाती     है    बेटियां


डा बीना सिंह "रागी"

🐶एक औरत के मरने पर 🔴

 ◆ एक औरत के मरने पर 


जादूगरनी थी वो 

अपनी पीठ से चाबुक के निशान मिटा दिया करती थी 

गाल से तमाचे के भी 


मैंने उसे आँसू से अंजन बनाते देखा है 

आसमान में सुखाती थी अपनी धोती 

और दुनिया कहती थी इन्द्रघनुष उगा है 

छिप कर रोती थी

छिप कर हँसती थी

छिपने में इतनी माहिर कि आँखों से सामने खड़ी रहती थी पर ओझल सी 


पूरी दुनिया अपनी उँगली पर लिए नाचती रहती

और जब तक कर सोती तो सुस्ताने लगती पृथ्वी 


उसके हाथों से आती थी मसालों की महक

और देह से पसीने की गंध 


कभी जो लिपट जाओ उससे तो भीग जाए आत्मा 

न जाने कैसे देखती थी आकाश की उदास हो जाता था नभ 

बरसते थे बदल तो सुलगती थी वह 

कोई स्मृति थी जिसमें डूबती उतराती रहती थी दिन-रात


आँगन को दुनिया और दुनिया को आँगन समझती थी 

और उकडूँ बैठ कर लीप देती थी उत्तरी ध्रुव से लेकर दक्षणी ध्रुव तक 


दुःख उसके आँचल में खोट सिक्कों की तरह बंधे थे 

और पीड़ा कमर में चाबी के गुच्छे की तरह 


भगवान को छाती से लगा कर दूध पिला सकती थी 

पर छोटी बच्ची में बदल जाती थी ईश्वर के आगे 

जबकि ईश्वर था कि उसका बच्चा होना चाहता था 


रसोई में पकाती थी एक अँजुरी चावल 

और न्योत देती थी पितर, बरम, देवता 

चौदहों भुवन, सातों लोक

ब्रह्मा, विष्णु, महेश


जादूगरनी थी वो 

मेरी उम्र थाम के बैठी थी 

सिर पर हाथ फेर कर बच्चा बना देती थी


अनुराग अनंत Anurag Anant

रविवार, 19 फ़रवरी 2023

🌟कड़ी धूप का सफर / किशोर कुमार कौशल

 

           *   *   *   *   *   *

 हमारा जीवन कड़ी धूप का सफर है। इसमें कहीं-कहीं गहरी छाया वाले पेड़ मिलते हैं,जहांँ हम कुछ पल के लिए विश्राम करते हैं। ऐसा भी होता है कि प्यास लगती है मगर पानी नहीं मिलता,भूख लगती है मगर रोटी नसीब नहीं होती। कभी-कभी ऐसा सुखद संयोग होता है कि इस कड़े सफर में कुछ साथी मिल जाते हैं जिनसे बात करते हुए यह आसान जान पड़ता है पर यह भी सच है कि ऐसा कोई साथी नहीं मिलता जो पूरे सफर में साथ दे।


 कभी विचारों में तालमेल नहीं हो पाता तो कभी कुछ और अड़चन हमारे इस कड़ी धूप के सफर को और भी कठिन बना देती है। उनमें से एक अड़चन है हमारा अहंकार। यह अहंकार अकसर ऊंँची जाति में पैदा होने का होता है या अधिक धनवान होने का होता है या किसी बड़े ओहदे का होता है। 


 संतों ने सभी प्रकार का अहंकार बुरा बताया है और इसके अनेक नुकसान बताए हैं,फिर भी हम इसके साथ जीते रहते हैं,अकेले चलते हुए मुश्किलें झेलते हैं,कष्ट सहते हैं किंतु किसी को अपना हमसफर नहीं बनाते।


  यह मनुष्य की कितनी बड़ी भूल है। वह जानता है कि इस संसार में सभी का जन्म और मरण एक जैसा है, खाने-पीने के ढंग भी समान है,सभी रोटी खाते हैं,पानी पीते हैं और इसी वातावरण में सांँस लेते हैं। फिर यह कैसा भेद है,यह कैसा पर्दा है जो जीवन भर हमारी आँखों पर पड़ा रहता है। हम इसके कारण जीवन में बहुत से सुखों से वंचित रह जाते हैं पर सँभलना हमें स्वीकार नहीं, यह जानते हुए भी कि धन और हमारा शरीर नश्वर हैं, एक दिन मिट्टी में मिल जाएं गे फिर भी हम किसी न किसी अहंकार में जीते हैं।


 कभी-कभी हम उपवास  करते हैं, तीर्थयात्रा करते हैं और सत्संग में भी जाते हैं।संतों के प्रवचन सुनते हैं। उस समय अच्छा महसूस करते हैं मगर वहाँ से लौटकर फिर उसी झूठ,अहंकार और छल-प्रपंच के संसार में मग्न हो जाते हैं।  यह कैसी विडंबना है कि व्यक्ति को पता है कि उसके पास जो अहंकार की पूँजी है उससे कुछ अच्छा फल मिलने वाला नहीं है,उससे कोई अच्छा व्यापार होने वाला नहीं है। वह अंततः है हमारे विनाश का ही कारण बनेगी फिर भी हम उसी पूंँजी पर कुंडली मारकर बैठे रहते हैं,दुखी होते हैं पर संँभलना हमें स्वीकार नहीं। 

-----  -----  ------ ------ ------

-- किशोर कुमार कौशल 

 मोबाइल:9899831002

मंगलवार, 14 फ़रवरी 2023

🌷हम पूरबवाले हैं / अरविंद अकेला


हम पूरबवाले हैं / अरविंद अकेला 


जनाब,हम पूरब वाले हैं,

पश्चिम वाले नहीं,

हम कुँवारी लडकियों से,

इश्क नहीं लड़ाते,

नहीं उन्हें,

कभी जाल में फंसाते,

मानते हैं जिन्हें बहन,

उन्हें नहीं सताते हैं।


हम तो पूरब वाले हैं, 

हमें पूरब वाले हीं रहने दो,

कहता हूँ सच तो सच कहने दो,

हम किसी विशेष तिथि को

वेलेंटाइन डे नहीं मनाते हैं,

हम करते हैं जिन्हें बेहद प्यार,

उन्हें दिन विशेष,

प्यार नहीं जताते हैं। 


हमारा प्यार,

सुबह से शुरू होता है,

जो दिन-दोपहर होते हुए, 

रात में खत्म हो जाता है,

हम करते हैं उसे,

बेहद प्यार,

पर उसे,

कभी नहीं बताते हैं।


हमारा प्यार,

शुभ प्रभात से शुरू होता है,

जो चाय की चुश्की से होते हुए,

अपनी ड्यूटी तक जाता है,

आते हैं जब शाम को,

आँखों की झप्पी तक जाता है,

रात में आलिंगन से गुजरते हुए,

मीठे सपने पर खत्म हो जाता है।


हम बाजारवाद के पोषक नहीं,

परिवारवाद के पोषक हैं,

हम जब प्यार में खुश होते हैं,

खीर,पुरी,मिठाई बनवाते हैं,

हम कैडवरी से काम नहीं चलाते,

पुरी मिठाई दुकान उठा लाते हैं,

हम उसे सिर्फ एक गुलाब नहीं देते,

पुरा गुलदस्ता उठा लाते हैं।

            ------0-----

    अरविन्द अकेला,पूर्वी रामकृष्ण नगर,पटना-27

❤प्यार💜

 *विदेश में एक अजीब सा विज्ञापन था:-*

*एक वृद्ध दम्पत्ति चाहिए..!*

*जो साथ में रहे..!!*


एक वृद्ध दम्पत्ति ने फोन किया:-

*हमें जॉब चाहिए..!*

*पर काम क्या करना होगा..??*



वहाँ से आवाज़ आई..

*हम दोनों,*

*डॉक्टर्स हैं..!*

*हमारी माँ तीन महीने पहले चल बसी..!!*

*काम करने के लिए हमारे पास सेवादार हैं..!*

*पर हमें कोई पुछने वाला नहीं है कि,*

*बेटा आज देर से क्यूँ आये..?*

*खाना खाया या नहीं..??*

*हम काम से घर आएँ तो,*

*कोई प्रेम देकर सहला दे..!!*

*उस वृद्ध दंपति की  आँखों में आँसू आ गए..!!*


*जगत की विडम्बना है कि..!*

*जिनके घर में माता-पिता हैं..!*

*उनकी कदर नहीं है..!!*

*और जिनके नहीं हैं,*

*उनको लगता है माता-पिता होते तो अच्छा रहता..!!*


हमेशा याद रखें 


*मुफ्त में सिर्फ मां बाप का प्यार मिलता है..!*

*उसके बाद हर रिश्ते के लिए कुछ ना कुछ चुकाना पड़ता है..!!*

शनिवार, 11 फ़रवरी 2023

सेवा के संबंध में.....

 सेवा के संबंध में

 परम गुरु हुज़ूर डा. लाल साहब का महत्वपूर्ण बचन


बसंत से एक रोज़ पहले


 (पिछले दिन का शेष)


         इधर दो रोज़ से कल और आज मुझे यहाँ दयालबाग़ में मुहल्लों में जाकर के यह देखने का मौक़ा मिला कि हमारे यहाँ कालोनी के जो residents हैं, रहने वाले हैं उनमें सेवा करने का उत्साह है। और बहुत उत्साह है, बड़ी उमंग है और जो उन्होंने अपने मुहल्लों में मकानों की सफ़ाई, उस पर रंग करना, दरवाज़े पर पेन्ट, पालिश करना, सड़कों को साफ़ करना और इस तरह के बहुत से काम करके अपने मुहल्ले को सजाना आदि यह सब जो किया है, उससे मुझे ऐसा अनुमान होता है कि हर सतसंगी दयालबाग़ की सेवा कर सकता है। शायद कुछ लोगों को ऐसा करने में, सेवा करने में दिक्कत हो लेकिन ज़्यादातर सतसंगी और ख़ासतौर से लड़के-लड़कियाँ यहाँ पर ख़ूब काम करते हैं।

         मुझे बड़ी ख़ुशी हुई कि अगर कभी कोई मौक़ा ऐसा पड़ा कि ऐसा प्रबन्ध हम लोगों को अपने आप करना पड़ा तो हमारा क़दम और आगे बढ़ेगा और तेज़ी से काम कर सकेंगे। शायद हमको दूसरे लोगों पर depend (निर्भर) करने की ज़रूरत नहीं रहे, फिर भी इस बात की ज़रूरत है कि आप कम से कम अगले साल- कल से और ज़ोरों के साथ जो भी जिससे सेवा बन सके और जहाँ तक बन सके, वह और ज़्यादा करें।

         अभी इस बचन में इस बात का ज़िक्र था कि हुज़ूर स्वामीजी महाराज यहाँ पधारें, मैं इसमें इतना और जोड़ना चाहता हूँ कि हम सब प्रार्थना करें कि परम गुरु हुज़ूर साहबजी महाराज जिन्होंने दयालबाग़ की स्थापना की वे भी बसंत के मौक़े पर तशरीफ़ लायें और परम गुरु हुज़ूर मेहताजी महाराज जिन्होंने इस बस्ती को हरा-भरा कर दिया, वे भी तशरीफ़ लावें, और मुझे पूरी उम्मीद है कि अगर हुज़ूर ने हमारी प्रार्थना मंज़ूर कर ली तो शायद वह यह देखकर के ख़ुश होंगे कि यहाँ के सतसंगियों ने सेवा का आदर्श सामने रखकर के और जो कुछ उनके बस में था या जो कुछ वे कर सकते थे, उन्होंने हुज़ूर के स्वागत करने के लिए किया। उन लोगों ने सारे दयालबाग़ की सफ़ाई करके दयालबाग़ को चमका दिया और मुझे यह भी उम्मीद है कि हुज़ूर मेहताजी महाराज तशरीफ़ लावेंगे तो जिन लोगों ने मेहनत की है और इस सेवा में भाग लिया है, उन सबको ज़रूर इनाम मिलेगा। आख़िर हुज़ूर साहबजी महाराज ने जो फ़रमाया था कि सतसंगियों को सतसंग कम्यूनिटी की सेवा करने के लिए select कर (चुन) लिया गया है, बहुत पुरानी बात है पूरी होकर रहेगी। अगर आप इसमें सहयोग देंगे तो काम हल्का हो जायेगा और जल्दी हो जायेगा। तो मैं आप सबसे यही दरख़्वास्त करूँगा कि सेवा का आदर्श सामने रखिये। जो जिससे बन पड़े, उतनी सेवा कीजिए। सतसंगी भाइयों की सेवा कीजिए, संगत की सेवा कीजिए, संस्थाओं की सेवा कीजिए और सेवा करते वक्त़ यह मत सोचिए कि इसके एवज़ में हमको तो ये मिल जाना चाहिये, वो मिल जाना चाहिए। उसमें सेवा में गड़बड़ी हो जाती है। सेवा जो करे, वह यह सोच करके करे कि सेवा का मौक़ा ज़िन्दगी में कभी कभी मिलता है। अगर आप सेवा का मौक़ा एक मर्तबे खो देंगे तो पता नहीं कि दोबारा इस तरह का मौक़ा आपको मिल सके या न मिल सके। अगर मैंने कोई बात जो आपको पसंद नहीं आयी हो, कह दी हो तो उसका ख़्याल नहीं करियेगा। जो कोई अच्छी बात मैंने कही हो, उसी पर ध्यान दीजिएगा। राधास्वामी

 



शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2023

प्रेमचंद

 मुंशी प्रेमचंद 1935 के नवंबर महीने में दिल्ली आए। वे बंबई से वापस बनारस लौटते हुए दिल्ली में रुक गए थे। उनके मेजबान ‘रिसाला जामिया’ पत्रिका के संपादक अकील साहब थे। उन दिनों जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी करोल बाग में थी। उसे अलीगढ़ से दिल्ली शिफ्ट हुए कुछ समय ही हुआ था। प्रेमचंद और अकील साहब मित्र थे। जामिया में प्रेमचंद से मिलने वालों की कतार लग गई। इसी दौरान एक बैठकी में अकील साहब ने प्रेमचंद से यहां रहते हुए एक कहानी लिखने का आग्रह किया। ये बातें दिन में हो रही थीं। प्रेमचंद ने अपने मित्र को निराश नहीं किया। उन्होंने उसी रात को जामिया परिसर में अपनी कालजयी कहानी ‘कफन’ लिखी। वो उर्दू में लिखी गई थी। कफन का अगले दिन जामिया में पाठ भी हुआ। उसे कई लोगों ने सुना। ये कहानी त्रैमासिक पत्रिका ‘रिसाला जामिया’ के दिसंबर,1935 के अंक में छपी थी। ये अंक अब भी जामिया मिलिया इस्लामिया की लाइब्रेरी में है। ‘कफन’ को प्रेमचंद की अंतिम कहानी माना जाता है। 1936 में उनकी मृत्यु हो गई।


#premchand #kafan #jamiamilliaislamia #jamia



नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर का मज़ार है। निगाह चढ़ावे और चादर पर रखनी चाहिए। ऐसा काम ढूँढना जहाँ कुछ ऊपरी आय हो। मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चाँद है, जो एक दिन दिखाई देता है और घटते-घटते लुप्त हो जाता है, ऊपरी आय बहता हुआ स्रोत है, जिससे सदैव प्यास बुझती है। वेतन मनुष्य देता है, इसी से उसमें वृद्धि नहीं होती। ऊपरी आमदनी ईश्वर देता है, इसी से उसकी बरकत होती है।


- प्रेमचंद


[ स्रोत : 'नमक का दारोगा' कहानी से ]

#premchand #hindi


गुरुवार, 9 फ़रवरी 2023

ममतामयी माँ / विजय केसरी



ममतामई मां रामावती देवी के पार्थिव शरीर को  अग्नि के सुपुर्द कर हम सबों ने अपने - अपने पारिवारिक और सामाजिक कर्तव्य का निर्वाहन किया था।  उनका पार्थिव शरीर चंद घंटों में ही धू - धू कर अग्नि को समर्पित हो गया था। रामावती बचपन से ही बड़ी दयालु और ममतामई थी  । रामावती मां के इस ममतामई और मधुर व्यवहार के चलते उन्हें सभी प्यार करते थे । उनकी शव यात्रा में गांव के हर तबके के लोग और दूर दराज के लगभग सभी रिश्तेदार सम्मिलित हुए थे ।‌ कई लोग श्मशान घाट में ही रामावती के व्यवहार की प्रशंसा कर रहे थे। रामावती का मृत्यु इकासी वर्ष की उम्र में हुई थी ।‌ अपने पीछे एक भरा पूरा परिवार छोड़ गई थी। वह ससुराल सुहागन आई थी । वह चार बेटों के कंधे पर चढ़कर सुहागन ही विदा हुई । इस बात की भी चर्चा लोग कर रहे थे।

 रामावती  देवी दुनिया से विदा हो चुकी थी। लेकिन उसकी चर्चा आज भी लोग करते नहीं थकते हैं।  रामावती देवी लोगों की स्मृतियों में  सदा जीवित रहेंगी। जब भी  उसकी चर्चा होती है,..  रामावती देवी पुनः जीवित हो उठती हैं । रामावती देवी स शरीर नहीं रह कर भी उसकी ममता भरी बातें  लोगों को प्रेरित करती रहेगी।

  रामावती देवी की जैसी सूरत थी, उसी अनुरूप उसकी सीरत थी। वह विपरीत परिस्थितियों में भी कभी संयम नहीं खोती थी ।  उन्हें  जब भी कोई भला - बुरा कह देता, तब भी वह मुस्कुराकर कर चुप रह जाती थी। यह मेरा परम सौभाग्य है कि ऐसी ममतामई मां का दामाद बनने का मुझे सुअवसर प्राप्त हुआ। मैं, बीते तैंतालीस वर्षों से उन्हें देखता आ रहा हूं । मिलता रहा हूं।  बातचीत करता रहा हूं । उन्हें कभी भी गुस्से में नहीं देखा। वह सबों से बड़े ही अच्छे तरीके से मिला करती थी । वह घर आए मेहमानों के स्वागत में जी जान लगा दिया करती थी। उनके लिए कोई पराया नहीं था बल्कि सब अपने ही थे। वह रामावती से ममतामई मां बन गई थी। सच्चे अर्थों में वह सिर्फ अपने ही परिवार की मां नहीं थी बल्कि पूरे गांव, समाज की मां बन गई थी।

मुझे जैसे ही यह खबर मिली कि सासू मां रामावती देवी अब इस दुनिया में नहीं रहीं। यह सुनकर बड़ा दुख हुआ।  उनका ममतामई चेहरा और ममता भरी  बातें मेरी स्मृतियों में एक साथ घूमने लगीं। मेरी आंखों से आंसू खुद-ब-खुद  छलक पड़े थे। मैं निःशब्द हो गया था।  मेरे मन मस्तिष्क में सिर्फ उनका चेहरा ही बार-बार घूम रहा था।  मैं इस सोच में डूब गया था  कि इसकी सूचना अपनी पत्नी को कैसे दूं। ...

फिर भी मैंने  मन को बांधकर, हिम्मत कर, मां की मृत्यु की सूचना अपनी  धर्मपत्नी को दिया । यह खबर सुनकर उनकी आंखों से भी आंसू  बह पड़े थे । वह बार - बार यही कह रही थीं, 'अब मैं किसे  मां कहूंगी ।' यह कह कर वह रोए जा रही थी।

तब मैंने उनसे कहा,- 'अब जो होनी को मंजूर था,वह तो हो गया। अब हिम्मत से हम सबों को काम लेना होगा। आज ही उनका अंतिम संस्कार होना है।  इसलिए जल्द ही उनका अंतिम दर्शन करने के लिए चलना भी होगा।'

यह सुनकर मेरी पत्नी ने कहा,-' ठीक है। चलती हूं।'

 हम सब जल्द ही गाड़ी से गोंदली पोखर पहुंच गए। रामावती देवी के घर के बाहर भारी भीड़ लगी हुई थी। उनका पार्थिव शरीर रंग-बिरंगे नूतन कपड़ों से सजा हुआ था । अर्थी को भी बहुत ही अच्छे ढंग से सजाया गया था। ममतामई मां रामावती देवी का श्रृंगार देखते बन रहा था। मानो रामावती देवी गहरी निंद्रा में सोई हुई हो । गहरी निंद्रा में सोए रहने के बावजूद मुख पर मुस्कान उसी तरह बनी हुई थी। उसकी मांग का सिंदूर की लालिमा अलग ही छटा बिखेर रही थी। उनके हाथों में सजी चूड़ियां रंग खनकने के लिए तैयार थीं। उनके दोनों हाथों और पैरों को गुलाबी रंग से ऐसा रंग दिया था, जैसे मानो  वह  कुछ ही पलों में उठकर चल पड़ेंगी। वहां उपस्थित सभी स्त्री, पुरुष, बच्चे उनके पार्थिव शरीर को स्पर्श कर ममतामई मां रामावती से आशीर्वाद प्राप्त कर रहे थे। औरतें, रामावती देवी की मांग में सिंदूर भर कर  सदा सुहागन बनी रहने का आशीर्वाद प्राप्त कर रही थीं। रामावती के जाने का दुःख सबों के चेहरे पर जरूर उभरा हुआ था । लेकिन चेहरे पर उदासी के कोई भाव नहीं दिख रहे थे । बाजा वाले बाजा बजाने के लिए आ चुके थे।  बस !  उन्हें शोभायात्रा के निकलने का इंतजार था। 

 मेरी पत्नी अपनी मां के पार्थिव शरीर को पकड़कर विलाप कर रही थी। वह बार-बार यही कह रही थी, 'अब मैं किसे अपनी मां कह कर बुलाऊंगी"! उनके इस करुणामई विलाप पर सबकी आंखें भर आईं थीं। वहां खड़ी एक  स्त्री ने मेरी पत्नी को पकड़कर कहा, 'यह संसार का दस्तूर है,  यहां जो आया है, उसे एक न एक दिन जाना ही पड़ेगा। रामावती मां हम सब की मां थी। उम्र हो गई थी। चलते फिरते चली गई। ऐसी मौत कहां किसी को नसीब होती है । भगवान उन्हें स्वर्ग में  स्थान प्रदान करेंगे '

 तभी दूसरी औरत ने यह कहा, 'रामावती मां पूरा जीवन जी ली थी । उसने नाती - पोता और परनाती तक देख ली थीं। वह बहुत भली थी। उसने पूरे परिवार को बांधे रखा था। साथ ही रामावती मां कभी किसी  को पराया नहीं समझी। क्या घर? क्या बाहर? सबों को बांधे रखी थी।  लेकिन एक न एक दिन तो उसे जाना ही था । आज वह चल बसी । वह किसी की दासी भी नहीं बनी । चुपके से चल निकली। ऐसी मौत कहां है किसी को नसीब होती है।'

मेरी पत्नी इन बातों को सुनकर चुप जरूर हुई लेकिन अंदर ही अंदर रो रही थीं। उनके आंखों से आंसू रुक ही नहीं रहे थे। वह कब तक मां के  पार्थिव शरीर को पकड़े रहतीं। अंततः भारी मन से उसने खुद को मां के पार्थिव शरीर से अलग किया। 

रामावती मां के चारों पुत्र, चार कोनो से पार्थिव शरीर को कंधा देकर निकल पड़े थे। बाजा वाले बाजा बजा रहे थे । राम नाम सत्य है। राम नाम सत्य है। इस नारे के साथ शव यात्रा शमशान भूमि की ओर आगे बढ़ रही थी। 

 रामावती मां की शव यात्रा देखते बन रही थी। कोरोना के प्रतिबंधों के बावजूद लोग मुंह पर मास्क लगाकर रामावती मां  की अर्थी को कंधा दे रहे थे। शव यात्रा में शामिल लोग अर्थी को कंधा देने के लिए उतावले हो रहे थे। लोग अर्थी को कंधा देकर खुद को भाग्यशाली समझ रहे थे।  इस शव यात्रा में सैकड़ों की संख्या में लोग जुटे थे। रामावती मां की शव यात्रा में शामिल लोगों को देखकर प्रतीत हो रहा था कि यह किसी अति विशिष्ट जन की शव यात्रा हो।

आसपास के जितने भी रिश्तेदार थे। लगभग सभी इस शव यात्रा में शामिल थे। उनकी शव यात्रा में नाती - पोता सहित पर नतनी  भी शामिल थी। लोग कह रहे थे,  'रामावती मां कितनी भाग्यशाली है कि उसकी शव यात्रा में परनतनी भी शामिल हो गई'। रामावती मां की एक पोती उनके पार्थिक शरीर का अंतिम दर्शन के लिए धनबाद से निकल चुकी थी। रामावती मां की अर्थी को अंतिम बार गाड़ी से उतारकर जमीन पर कर्मकांड के लिए रखा गया। तभी उसकी पोती ज्योति पहुंची गई थी।उसने ममतामई रामावती दादी के पार्थिव शरीर का अंतिम बार दर्शन किया । उसकी आंखें भर गई थी। दादी की गोद में पली बड़ी हुई थी।

इतनी कड़कड़ाती ठंड में भी उनके पार्थिव शरीर का अंतिम दर्शन करने के लिए काफी लोग श्मशानघाट पंहुच  रहे थे। कई लोगों को विलंब से सूचना मिलने के बावजूद उनके पार्थिव शरीर का अंतिम दर्शन करने के लिए पहुंचे  थे। लेकिन तब तक रामावती मां के पार्थिक शरीर को अग्नि के हवाले कर दिया गया था । इस स्थिति में लोगों ने जलती हुई अग्नि में अपनी ओर से लकड़ियां अर्पित कर श्रद्धांजलि अर्पित किया था। 

इकासी वर्ष पूर्व रामावती मां का इस धरा पर आना हुआ था । उनका रांची के एक संपन्न  व्यवसाई परिवार में हुआ था। रामावती, बचपन से ही दयालु, हंसमुख और मिलनसार स्वभाव की थीं। इसी कारण परिवार के सभी सदस्य उन्हें खूब प्यार करते थे। रामावती मां मिडिल तक ही पढ़ाई कर पाई थी। तभी  रांची के  गोंदली पोखर निवासी जगदीश साहू से इनकी शादी कर दी गई । रांची शहर में पली बढ़ी रामावती मां, शादी के बाद जब ससुराल आई,  ग्रामीण परिवेश में उन्हें थोड़ा अजीब जरूर लगा था। लेकिन रामावती मां  धीरे धीरे कर उस परिवेश में ऐसा रच बस गई, जैसे वह इसी परिवेश की हो। 

  वह ससुराल में पहले ही दिन से अपने मृदु व्यवहार से परिवार के सदस्यों का दिल जीत ली थीं। वह अपने सास - ससुर का बड़ा ही ख्याल रखती । सास - ससुर की सेवा में कोई कसर नहीं छोड़तीं थी। उनसे जितना बन पड़ता,  दोनों की खिदमत करती । जब तक सास ससुर जीवित रहें। दोनों अपने पुत्र बधु रामावती मां का बहुत ही नाम लिया करते थे।  उन दोनों ने कई बार  इस बात की चर्चा भी मुझसे की थी।

रामावती मां बचपन से ही धार्मिक स्वभाव की थी। उनका यह स्वभाव जीवन पर्यंत बना रहा। ईश्वर पर उनकी गहरी आस्था थी । वह हिंदू रीति-रिवाज और पर्व को बहुत ही मन से मनाती थी। वह पर्व पर उपवास किया करती थी।  ईश्वर पर गहरी आस्था रहने के चलते उन्होंने तीर्थ यात्रा भी की। घर पर अगर कोई मांगने वाले आ जाए तो उसे वह खाली हाथ नहीं लौटाती थी। मांगने वाले को स सम्मान कुछ ना कुछ देकर विदा करती थी। उनका यह स्वभाव जीवन के अंतिम क्षणों तक बना रहा था ।  

 रामावती मां का दान पर बड़ा से विश्वास था । उन्होंने एक बार दान के संबंध में  कहा था, 'दान देने से धन नहीं घटता है । दान देने से मन निर्मल होता है। दान देने से घर में सद्बुद्धि और शांति की स्थापना होती है। ईश्वर ने जो मुझे दिया है, उसे ही ईश्वर के पुत्र को अर्पित कर रहा हूं । जो भी लोग यहां यहां दान करते हैं, उन पर सदा ईश्वर की कृपा बरसती रहती है। दान से मन के विकार मिटते हैं । दान जीवन का सर्वोत्तम धर्म है। इसलिए सब लोगों को दान करना चाहिए'।  

रामावती मां  ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी । इसके बावजूद रामचरितमानस और महाभारत में वर्णित कथा को बड़े ही चाव के साथ सुनाया करती थी। टीवी में चल रहे धार्मिक धारावाहिक को बड़े ही चाव से देखा करती थी। धार्मिक विषयों पर उन्हें बातचीत करना बहुत ही अच्छा लगता था।

रामावती मां में एक खासियत यह थी कि जीवन पर्यंत वह लोगों को आशीर्वाद देती रही थी। जो भी रिश्तेदार अथवा मोहल्ले के लोग उनसे मिलने आते, उनका पैर छूते, वह उन्हें आशीर्वाद देने में कोई कमी नहीं करती। उनके आशीर्वाद के ये शब्द,.. 'बेटा ? तुम खुब तरक्की करो । खूब कमाओ। खुब फलो फूलो। तुम्हारे घर में कोई कमी नहीं हो । सदा स्वस्थ रहो'। 

  रामावती मां के उपरोक्त बातें उनसे मिलने जुलने वाले शायद कभी भी भुला नहीं पाएंगे । वह जिस अंदाज में  अपने मिलने जुलने वाले को आशीर्वाद दिया करती , उनके चेहरे के भाव भी आशीर्वाद से ओतप्रोत होता था। उनका यह स्वभाव सबसे अलग और निराला था। कई लोग सिर्फ उनका आशीर्वाद लेने के लिए  उनके पास पहुंचते थे । कई रिश्तेदारों का मानना है,  'रामावती मां ने जो आशीर्वाद दिया, वह उसके जीवन में फलित हो गया ।' यह उनके व्यक्तित्व की विशालता थी। वह साधारण जरूर थी। वह साधारण कार्य जरूर करती थी । लेकिन उनका यही साधारण कार्य असाधारण बनता चला गया।  उनकी यही सहजता, सरलता उन्हें देवीय गुणों से ओतप्रोत कर दिया था। जो उनके मुख से निकले आशीर्वाद लोगों को फलित हो रहे हैं।

रामावती मां के चार पुत्र और दो पुत्री हैं। उसने अपने चार पुत्रों और दोनों पुत्रियों को उचित शिक्षा प्रदान किया। उन्होंने अपने सभी बच्चों को नैतिकता की शिक्षा प्रदान किया। उनके  सभी लड़के व्यवसाय में अच्छे  सेटल हैं। उन्होंने चारों बच्चों की शादी बहुत ही अच्छे घरों में की। चारों पुत्र बधुएं आज्ञाकारी हैं। उनका घर पोता - पोती,  नाती - नतनी से भरा है।  उनकी दोनों बेटियां अच्छे घरों में विहाई गई हैं। 

  रामावती मां,  रिश्ते में मेरी सासु मां जरूर लगती हैं।  मेरे दिल में उनका स्थान मां से कम नहीं है।  जब भी मैं उसे मिला। उनका पैर छूआ। उनसे आशीर्वाद लिया। हर बार मैंने एक नई ऊर्जा महसूस किया।  उनका आशीर्वाद मुझको बहुत ही फलित हुआ। जब मेरी शादी हुई थी, तब मेरी आर्थिक स्थिति बहुत बेहतर नहीं थी। वह इस बात को जानती थी। एक बार उन्होंने कहा,  'बेटा! चिंता मत करो । मैं तुम्हें आशीर्वाद देती हूं, तुम लोग खूब कमाओगे और खूब आगे बढ़ोगे।'

उनका आशीर्वाद सच हुआ । आज मैं आर्थिक रूप से बहुत ही बेहतर स्थिति में हूं। हमारे दोनों बच्चे भी अच्छे पदों पर कार्यरत हैं। रामावती मां एक आदर्श पत्नी। एक आदर्श मां। एक आदर्श पुत्री। एक आदर्श चाची । एक आदर्श दादी - नानी थी। उनका प्रेम सबों के लिए समान रूप से था। 


विजय केसरी,

(कथाकार / स्तंभकार)

 पंच मंदिर चौक, हजारीबाग - 825 301

 मोबाइल नंबर : 92347 99550

बुधवार, 8 फ़रवरी 2023

हमारा इश्क भी झूठा नहीं था ।

 छोटी बहर की नई ग़़ज़ल आप सभी को नज्र 


                                                                                  वो तो पहले कभी ऐसा नहीं था 

हमारा इश्क  भी झूठा नहीं था ।


मुकर वो जायेंगे अपनी जु़बा से

कभी हमनें भी ये सोचा नहीं था ।


मिले थे जख़्म उल्फ़त में जो मुझको

अभी वो जख़़्म भी सूखा नहीं था ।


कहे दुनियां बुरा उसको भले ही 

मगर नज़रो का वो गन्दा नहीं था ।


वो हारा तो था अपनो से यहॉ पर 

मगर हिम्मत से वो हारा नहीं था ।


हुई नाकामियां हांसिल भले ही

मगर अन्दर से वो टूटा नहीं था । 


अभी बदले हुए दिन है आज उसके

मगर गुरबत को वो भूला नहीं था ।


तड्पता दर्द से कितना हो लेकिन

मगर सब से वो कहता नहीं था ।


बिछड् भी जायेंगे एक दूसरे से 

कभी ख़्वाब में सोचा नहीं था ।

तुम्हारे बग़ैर / पाश ( पूरी कविता 👇 )

 


तुम्हारे बग़ैर मैं बहुत खचाखच रहता हूँ 

यह दुनिया सारी धक्कमपेल सहित 

बे-घर पाश की दहलीज़ें लाँघकर आती-जाती है 

तुम्हारे बग़ैर मैं पूरे का पूरा तूफ़ान होता हूँ 

ज्वारभाटा और भूकंप होता हूँ 


तुम्हारे बग़ैर 

मुझे रोज़ मिलने आते हैं आइंस्टाइन और लेनिन 

मेरे साथ बहुत बातें करते हैं 

जिनमें तुम्हारा बिल्कुल ही ज़िक्र नहीं होता 

मसलन : समय एक ऐसा परिंदा है 

जो गाँव और तहसील के बीच उड़ता रहता है 

और कभी नहीं थकता 

सितारे जुल्फ़ों में गूँथे जाते 

या जुल्फ़ें सितारों में—एक ही बात है 

मसलन : आदमी का एक और नाम मेन्शेविक है 

और आदमी की असलियत हर साँस में बीच को खोजना है 

लेकिन हाय-हाय... 

बीच का रास्ता कहीं नहीं होता 

वैसे इन सारी बातों से तुम्हारा ज़िक्र ग़ायब रहता है 


तुम्हारे बग़ैर 

मेरे पर्स में हमेशा ही हिटलर का चित्र परेड करता है 

उस चित्र की पृष्ठभूमि में 

अपने गाँव की पूरे वीराने और बंजर की पटवार होती है 

जिसमें मेरे द्वारा निक्की के ब्याह में गिरवी रखी ज़मीन के सिवा 

बची ज़मीन भी सिर्फ़ जर्मनों के लिए ही होती है 


तुम्हारे बग़ैर, मैं सिद्धार्थ नहीं—बुद्ध होता हूँ 

और अपना राहुल 

जिसे कभी जन्म नहीं देना 

कपिलवस्तु का उत्तराधिकारी नहीं 

एक भिक्षु होता है 


तुम्हारे बग़ैर मेरे घर का फ़र्श—सेज नहीं 

ईंटों का एक समाज होता है 

तुम्हारे बग़ैर सरपंच और उसके गुर्गे 

हमारी गुप्त डाक के भेदिए नहीं 

श्रीमान बी.डी.ओ. के कर्मचारी होते हैं 

तुम्हारे बग़ैर अवतार सिंह संधू महज़ पाश 

और पाश के सिवाय कुछ नहीं होता 


तुम्हारे बग़ैर धरती का गुरुत्व 

भुगत रही दुनिया की तक़दीर 

या मेरे जिस्म को खरोंचकर गुज़रते अ-हादसे 

मेरा भविष्य होते हैं 

लेकिन किंदर! जलता जीवन माथे लगता है 

तुम्हारे बग़ैर मैं होता ही नहीं। 


#pash #


अवतार सिंह पाश 


अहमद फ़राज़

 हम तो यूँ ख़ुश थे कि इक तार गरेबान में है 

क्या ख़बर थी कि बहार इस के भी अरमान में है 


एक ज़र्ब और भी ऐ ज़िंदगी-ए-तेशा-ब-दस्त 

साँस लेने की सकत अब भी मिरी जान में है 


मैं तुझे खो के भी ज़िंदा हूँ ये देखा तू ने 

किस क़दर हौसला हारे हुए इंसान में है 


फ़ासले क़ुर्ब के शो'लों को हवा देते हैं 

में तिरे शहर से दूर और तू मिरे ध्यान में है 


सर-ए-दीवार फ़रोज़ाँ है अभी एक चराग़ 

ऐ नसीम-ए-सहरी कुछ तिरे इम्कान में है 


दिल धड़कने की सदा आती है गाहे-गाहे 

जैसे अब भी तिरी आवाज़ मिरे कान में है 


ख़िल्क़त-ए-शहर के हर ज़ुल्म के बा-वस्फ़ 'फ़राज़' 

हाए वो हाथ कि अपने ही गरेबान में है 


अहमद फ़राज़

पति नही चाहिए दोस्त चाहिए

 पति नही चाहिए दोस्त चाहिए 

सुबह उसके डर से उठ कर नही बनानी चाय

अलसा जाना है...

कहना है यार बना दो न आज तुम चाय

पति नही चाहिए जो क्या पहनूं, बाहर न जाउं, किसी से बात न करूं, बस उसके हिसाब से जीवन जियूँ, 


दोस्त चाहिए , जो कहे कि ऐसे ही तो पसंद किया था इन्ही खूबियों( अब कमिया है)के साथ वैसे ही रहा करो!!

पति नही चाहिए, के खिड़की में आँखे गाड़कर मुझे किसी से बात करता देख शक की कोई पूरी कहानी बना ले

चमड़ी उधेड़ देने की बात करे...

"साली दुनियाँ भर के लोगो से बतियाती है"

के क्षोभ से मरता रहे,और अपना गुस्सा मुझपर निकाले,

दोस्त चाहिए जो

प्यार से पूछे और कहे यार तुम कितने जल्दी लोगों से  जान पहचान कर लेती हो न

कितनी सोशल हो

बात करने का संकोच नहीं तुममें

मैं नही कर पाता हूँ सहज इतनी बातें

पति नही चाहिए

मेरे मासूम सपनों का सुन कर भी जिसकी नाराजगी की जमीन में कांटे उग आए

यात्राओं में कौन आवारा औरतें है जो अकेली जाती है

कमाएं हम और मौज के सपनें तुम देखो,

दोस्त चाहिए

खुद हो जो कहे

कभी दोस्तो के साथ पहाड़ की यात्रा पर जाना

रुकना किसी रात उनके घर

बारिशों में कभी चाय पार्टी करना

बहुत बहुत अच्छा फील करोगी

खूब ऊर्जा के साथ लौटोगी घर में 

पति नही चाहिए

जिसकी कॉलर साफ करूँ

जिसके जूते जगह पर रखूं जिसकी गाड़ी की चाभी देना न भूलूँ

जिससे बात कहने और सुनने में भरी रहूं डर से

दोस्त चाहिए

जिसे गलबहियां डाल कहूँ 

जरा मेरी तारीफ करना

कोई गीत गाना मेरे लिए 

मेरे नखरे उठाओ

बस आज

मैं लो फ़ील कर रही

पति नही चाहिए

जो बारिश होते चीखने लगे

बाहर के कपड़े उठा लेती 

सामान अंदर कर लेती 

उधर खिड़की पर बैठी मूर्खो सी भींग रही हो, ग्वार औरत

दोस्त चाहिए

तेज बारिश में हाथ खींच कहे खिड़की पूरी खोल दो

आने दो तेज बौछार

भिंगो न यार साथ में

कपडे फिर सुखा लेंगे.

अहमद फ़राज़

 अब के रुत बदली तो ख़ुशबू का सफ़र देखेगा कौन

ज़ख़्म फूलों की तरह महकेंगे पर देखेगा कौन


देखना सब रक़्स-ए-बिस्मल में मगन हो जाएँगे

जिस तरफ़ से तीर आयेगा उधर देखेगा कौन


वो हवस हो या वफ़ा हो बात महरूमी की है

लोग तो फल-फूल देखेंगे शजर देखेगा कौन


हम चिराग़-ए-शब ही जब ठहरे तो फिर क्या सोचना

रात थी किस का मुक़द्दर और सहर देखेगा कौन


आ फ़सील-ए-शहर से देखें ग़नीम-ए-शहर को

शहर जलता हो तो तुझ को बाम पर देखेगा कौन


अहमद फ़राज़

वसीम बरेलवी

 देख इन आंखों  में एक  अश्क न  छोडा हमने

किस कदर  पास  किया  है तेरे ग़म  का हमने


ज़िन्दगी आज हक़ीक़त है कल अफ़साना थी

भूल  जाओ के  कभी  प्यार  किया  था  हमने


ये समझकर  ये  नेमत  भी  किसे  मिलती  है

लम्ह- ए- ग़म को भी हंस हंस के गुज़ारा है हमने


आज तक जिसकी सज़ा काट रहे हो 'वसीम '

ज़िन्दगी  ले के  बडा  जुर्म   किया  था  हमने


प्रो वसीम बरेलवी

आसिफ़ मिर्ज़ा آصِف

 इस तरह से मुझे सताने की

उनकी आदत है भूल जाने की

اِس طرح سے مُجھے ستانے کی

اُن کی عادَت ہے بُھول جانے کی


चोर नज़रों से कोशिशें उनकी

दिल लुभाने की दिल चुराने की

چور نَظروں سے کوششیں اُن کی

دِل  لُبَھانے کی دِل چُرانے کی


अहले दिल वो नहीं है उनका दिल

मेरी कोशिश है दिल बनाने की

 اَہلِ دِل  وہ نہیں ہے اُن کا دِل

میری کوشِش ہے دِل بَنانے کی


बारहा दिल तुम्हें पुकारेगा

जब भी आएगी बात जाने की

بارہا دِل تُمہیں پُکارے گا

جَب بھی آئے گی بات جانے کی


आधे दुश्मन तो यूँ ही मर जाते

मेरी आदत जो मुस्कुराने की

  آدھے دُشمن تو یُوں ہی مَر جاتے

میری عادت جو مُسکُرانے کی


आज फिर से बहार आएगी

फिर ख़बर है जो उनके आने की

 آج پِھر سے بَہار  آئےگی 

پِھر خَبَر ہے جو اُن کے آنے کی


मेरी ग़ज़लें महक रहीं आसिफ़

अब ज़रूरत नहीं तराने की

 میری غَزلیں مَہَک رہیں آصِف

اَب ضَرُورَت نَہیں تَرانے کی

 आसिफ़ मिर्ज़ा       آصِف مِرزا

मंगलवार, 7 फ़रवरी 2023

प्यार

 

प्रस्तुति - रेणु दत्ता / आशा सिन्हा 


एक नदी किनारे एक पेड़ था, और पास के गांव का एक बच्चा, अपनी स्कूल की छुट्टी के बाद..रोज उस पेड़ के पास आ कर बैठता था, कभी उस पर चढ़ता, कभी उसकी डाली पर झूलता, और कभी नदी से पानी ला कर उस पेड़ पर डाल भी देता था.. अपना काफी समय वो बच्चा उस पेड़ के साथ बीतता था, और पेड़ को भी उस बच्चे की आदत हो गई थी, अब पेड़ भी रोज उस बच्चे के आने का इंतजार करता और बच्चे के आने पर बहुत खुश हो जाता था..

धीरे धीरे वक्त बीतता रहा,और वो बच्चा भी बड़ा हो गया,

उसको एक लड़की से प्यार हो गया, और अब वो उस लड़की को भी पेड़ के पास लाने लगा, दोनो घंटो उस पेड़ की छांव में बैठे रहते, उसके आस पास खेलते, झूला झूलते, और पेड़ को भी बहुत अच्छा लगता था, वो भी दोनो के लिए अपने पत्ते बिछा देता था ताकि दोनो आराम कर सके, अपने Jjमीठे फल भी उनको देता ताकि उनकी भूख मिट जाए.. पर कुछ दिनो बाद दोनो ने वहा आना बंद कर दिया, पर पेड़ उनका इंतजार करता रहता..

कई दिनों बाद वो लड़का पेड़ के पास आया, वो बहुत उदास था, और वो पेड़ के नीचे आ कर बैठ गया,

पेड़ ने भी उसके लिए ठंडी हवा करना शुरू कर दिया..

फिर पेड़ ने कहा, उदास क्यों हो? मेरे साथ खेलो, मेरी डाल पर झूला झूलो.. 

तो लड़के ने गुस्से में कहा.. मै अब कोई छोटा बच्चा नहीं हूं, बहुत सारी समस्या है मेरी जिंदगी में, पर तुम क्या समझोगे..

तो पेड़ ने कहा, मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूं, मुझे अपनी समस्या बताओ, शायद में तुम्हारी कोई मदद कर दू..

तो लड़के ने कहा, मुझे पैसों की जरूरत है, अगर मुझे पैसे नही मिले तो वो लड़की मुझसे दूर हो जायेगी, और हम कभी एक नही हो पाएंगे.. बताओ अब इसमें तुम क्या कर पाओगे?

तो पेड़ ने कहा, चिंता मत करो, एक काम करो, मेरे सारे फल तोड़ लो, और इनको गांव के बाजार में ले जा कर बेच दो, तुमको बहुत पैसे मिल जायेंगे..

लड़का बहुत खुश हुआ, और उसने ऐसा ही किया और वहा से वापस चला गया.. और कई महीनो तक वापस लौट कर नहीं आया.. पर पेड़ उसका इंतजार करता रहा.

फिर एक दिन वापस वो लड़का उदास हो कर उस पेड़ के पास आया, पेड़ उसको देख कर बहुत खुश हुआ..

पेड़ ने कहा, केसे हो? मेरे पास आओ, उदास क्यों हो?

तो लड़का बोला, तुम्हारे फल बेच कर हमको पैसे मिले थे, जिससे हम दोनो ने शादी कर ली थी, और अब मुझे गांव में अपना घर बनाना है, मै बहुत परेशान हूं, अपना घर कैसे बनाऊं, कुछ समझ नही आ रहा..

पेड़ ने उसकी बात सुनी, कुछ देर सोचा और कहा..

तुम उदास मत हो, एक काम करो, तुम मेरी सारी डालियां काट लो और ले जाओ, इससे तुम अपना घर आसानी से बना पाओगे.. 

ये सुन कर लड़का बहुत खुश हो गया, वो जल्दी से कुल्हाड़ी लाया और उसने उस पेड़ की सारी डालियां काट दी और उनको ले कर अपने गांव चला गया.. और कई महीनो तक वापस नहीं आया..

कई महीनो बाद, वो लड़का रोते हुए उस पेड़ के पास आया, वो बहुत ही उदास लग रहा था, ये देख कर पेड़ भी बहुत उदास हो गया, और पेड़ ने पूछा, क्या हुआ है तुमको? तुम रो क्यों रहे हो? मुझे बताओ मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूं.. शायद मैं कुछ मदद कर पाऊं..

तो लड़के ने रोते रोते कहा कि, उस लड़की ने मुझे छोड़ दिया है, उसको किसी और से प्यार हो गया है, और वो उसके साथ चली गई है, मेरी नौकरी भी छूट गई है, और अब मेरे पास पैसे भी नहीं हैं, अब मुझे यहां नही रहना है, मुझे शहर जाना है, पर कैसे जाऊ? मेरे पास किराए के पैसे तक नहीं है..

पेड़ ने उस लड़के की सारी बात सुनी, और बहुत देर सोचने के बाद उसको कहा, एक काम करो, तुम मेरा ये तना काट लो, इससे एक नाव बहुत आसानी से बन जायेगी, और नाव से तुम ये नदी पार करके आसानी से शहर पहुंच जाओगे..

लड़के ने भी ऐसा ही किया, उसने पेड़ का पूरा तना काट दिया, और सिर्फ पेड़ का कुछ हिस्सा छोड़ दिया.. फिर उसने एक नाव बनाई और वहा से चला गया..

उसको जाता देख, जो पेड़ का बचा हुआ आखरी हिस्सा था.. वो भी यही सोच रहा था की ये बिना किसी परेशानी के शहर तक पहुंच जाए तो अच्छा है।

पेड़ को ये भी पता था की अब ये लौट कर मेरे पास कभी वापस नहीं आएगा, क्योंकि ये मेरे पास सिर्फ लेने आता था और अब तो मेरे पास उसको देने के लिए कुछ भी नहीं है।

आज के वक्त में भी रिश्ते ऐसे ही हो गए हैं, सब एक दूसरे से सिर्फ लेने में लगे हुए हैं, पर पेड़ जैसा कोई नहीं बनना चाहता है, पर दूसरो से उम्मीद ये रखते हैं की वो पेड़ की तरह सिर्फ देता जाए..

सच तो यही है कि " किसी की खुशी के लिए, अपना सब कुछ लुटा देना ही, सच्चा प्यार है।"

पोस्ट पढ़ने का शुक्रिया..🙏🙏

और आपको ये कहानी कैसी लगी जरूर बताना..🙏

सोमवार, 6 फ़रवरी 2023

श्याम बेनेगल और रीति कालीन कवि भूषण


 श्याम बेनेगल ने अपने मशहूर सीरियल “भारत एक खोज” में जिस अकेली हिंदी कविता का स्थान दिया है वह है रीतिकाल के कवि भूषण की। कहा जाता है कि भूषण को जब मराठा वीर शिवाजी के राजतिलक की सूचना मिली तो उन्होंने उनकी प्रशस्ति में कविताई लिखी और चल पड़े कानपुर से पूना की तरफ। अधारी कांधे पर टांगे यह कवि शिवाजी के राजमहल के पास एक कुएं पर रुका। डोर की सहायता से लोटा भर पानी निकाला पिया और फिर कुएं की जगत पर भांग पीसने लगे। उसी समय एक घुड़सवार वहां से गुजरा। उत्तर के हिंदुस्तान से आए इस अजनबी को देख कर घुड़सवार वहां ठिठका और अभिवादन कर उसके इतनी दूर दक्खन आने का कारण पूछा। भूषण ने कहा कि मैं एक गरीब ब्राह्मण हूं। सुना है कि शिवाजी का राजतिलक होने वाला है इसलिए उनके दरबार में सुनाने के लिए कवित्त लिखा है। घुड़सवार ने उनसे कविताई सुनाने को कहा। भूषण ने सुनाई तो घुड़सवार ने उसे फिर सुनाने को कहा। इस तरह जब भूषण ने 36 दफे वह कवित्त सुना डाला और घुड़सवार ने फिर सुनाने को कहा तो भूषण ने कहा आपको ही सुना कर मैं थक जाऊंगा तो कल शिवाजी के दरबार में क्या सुनाऊंगा? घुड़सवार अपने असली रूप में आ गया और बताया कि मैं ही शिवाजी हूं और ब्राह्मण देवता तुमने 36 बार यह कवित्त सुनाया है इसलिए तुम्हें मैं 36 गांवों की जागीर बख्शता हूं और 36 सहस्त्र स्वर्ण मुद्राएं भी। अब सच्चाई तो पता नहीं लेकिन वह कवित्त मैं यहां दे रहा हूं। कवित्त है-


“इंद्र जिमि जंब पर, बाड़व सुअंब पर, रावण सदंभ पर रघुकुल राज है।

पौन बारिवाह पर, संभु रतिनाह पर ज्यों सहसबाहु पर राम द्विजराज है।।

दावा द्रुम दंड पर, चीता मृगझुंड पर, भूषण वितुंड पर जैसे मृगराज है।

तेज तम अंस पर, कान्ह जिमि कंस पर त्यों म्लेच्छ वंश पर सिंह शिवाराज है।।


यह कविता उस समय की राजभाषा बृज में है इसलिए इसकी लाइनें माडर्न हिंदी विद्वानों को अशुद्ध लग सकती हैं।



बुधवार, 1 फ़रवरी 2023

रवि अरोड़ा की नजर से......

 

आज्ञा के स्तर का सवाल / रवि अरोड़ा

 


शाहरूख खान की फिल्म पठान द्वारा की जा रही ताबड़तोड़ कमाई ने कई चीजें एक साथ तय कर दी हैं। पहली तो यह कि कुछ जहरीले लोगों के आह्वान भर से हमारी फिल्में न चलती हैं और न ही फ्लॉप होती हैं। दूसरी बात यह कि नफरती गैंग को उतना ताकतवर समझने की जरूरत नहीं है, जितना कि वह खुद को दिखाता है। तीसरी यह कि सत्ता पर काबिज़ लोगों को भी समझ आ गया है कि अपने पिछलग्गू मूर्खों को भरमाने से अधिक जरूरी है दुनिया के सामने अपनी साफ सुथरी छवि पेश करना। चौथी और अंतिम बात यह कि तमाम तरह के षड्यंत्रों के बावजूद पूरा आवा का आवा हिंदू-मुस्लिम की कथित आंधी के चपेट में नहीं आया है और अभी भी इस मुल्क में थोड़ी गुंजाइश बाकी है। 


तमाम विवादों के बीच रिलीज़ हुई फिल्म पठान की बॉक्स ऑफिस पर धूम को मात्र किसी फिल्म की सफलता असफलता की नजर से देखने की भूल कतई नहीं करनी चाहिए । इस फिल्म के भविष्य से ही तय होना था कि क्या सेंसर बोर्ड के सर्टिफिकेट भर से देश में कोई फिल्म रिलीज हो सकती है अथवा भगवा ब्रिगेड की अनुमति भी अब जरूरी होगी ? यह भी तय होना था कि इस्लामिक नाम वाले कलाकारों को फिल्म इंडस्ट्री छोड़ देनी चाहिए या पूर्व की तरह उन्हें आगे भी काम मिलता रहेगा ? यह भी साबित होना था कि फिल्मों के विषयवस्तु तय करते समय निर्माता निर्देशक स्वतंत्र बने रहेंगे या एक खास वर्ग की इच्छा के अनुरूप ही अब वे अपनी फिल्में बनाने को बाध्य होंगे ? वगैरह वगैरह।  शुक्र है कि तमाम आशंकाएं निर्मूल साबित हुईं और इस फिल्म को पसंद कर देश की जनता से साबित कर दिया कि समाज में बेशक ज़हर से भरे लोग हैं मगर सभी जहरीले हों ऐसा भी नहीं है। जनता जनार्दन को यह बात कतई समझ नहीं आई कि मात्र तीन सेकंड के लिए नायिका द्वारा भगवा कपड़े पहनने से सिनेमा घरों में आग लगाने अथवा फिल्म के बायकॉट की क्या जरूरत है जबकि हमारी फिल्मों में भगवा कपड़े का अच्छा बुरा इस्तेमाल तभी से होता आया है जबसे फिल्में बननी शुरू हुई हैं ? खास बात यह भी रही कि एक शालीन और देशभक्त होने की शाहरूख खान की छवि ने इस मामले में अपनी महती भूमिका निभाई और लोगों को यह बात भी पसंद नहीं आई कि स्वतंत्रता सेनानी के परिवार से आने वाले शाहरूख खान का विरोध उन लोगों द्वारा ही क्यों किया जा रहा है जिनके नायक और पूर्वज अंग्रेजों के पिट्ठू थे ? 


आंकड़े बता रहे हैं कि मात्र चार दिन में अपनी लागत से दोगुनी कमाई इस फिल्म ने कर ली है और अब यह सर्वाधिक कमाई करने वाली फिल्म का रिकार्ड बनाने की ओर बढ़ रही है। फिल्म की इस सफलता से उन लोगों के चेहरे उतरे हुए हैं जो 140 करोड़ भारतीयों को हांकने का दम भर रहे थे । बेशक हम भारतीय हांके जाते रहे हैं और भविष्य में भी हम नहीं हांके जाएंगे,ऐसा कोई दावा भी नहीं किया जा सकता मगर हांके जाने लायक कोई बात भी तो हो ? इतिहास गवाह है कि आज़ादी के बाद से हमें बारंबार हांका गया है और हमने खुशी खुशी भेड़ों के रेवड़ जैसा व्यवहार किया है । मगर यह तो हद ही हो गई कि अब यह भी ऊपर से तय हो कि हमें कौन सी फिल्म देखनी है और कौन सी नहीं ? हमारे खान पान, हमारे लिबास, हमारे तीज त्यौहार और आचरण तक तो चलो सहन हो भी जाए मगर अब मनोरंजन का साधन भी कोई और तय करे, यह न हो पाएगा । बेशक हम आज्ञाकारी समाज बनते जा रहे हैं मगर फिर भी हांकने वालों को भी तो अपनी आज्ञा का स्तर थोड़ा सुधारना होगा या नहीं ?




खो गयी कहीं चिट्ठियां

 प्रस्तुति  *खो गईं वो चिठ्ठियाँ जिसमें “लिखने के सलीके” छुपे होते थे, “कुशलता” की कामना से शुरू होते थे।  बडों के “चरण स्पर्श” पर खत्म होते...