शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

इस्मत चुग़ताई की कहानी---- भाभी



भाभी ब्याह कर आई थी तो मुश्किल से पंद्रह बरस की होगी। बढवार भी तो पूरी नहीं हुई थी। भैया की सूरत से ऐसी लरजती थी जैसे कसाई से बकरी। मगर सालभर के अंदर ही वो जैसे मुँह-बंद कली से खिलकर फूल बन गई। ऑंखों में हिरनों जैसी वहशत दूर होकर गरूर और शरारत भर गई।
भाभी आजाद फिजाँ में पली थी। हिरनियों की तरह कुलाँचें भरने की आदी थी, मगर ससुराल और मैका दोनों तरफ से उस पर कडी निगरानी थी और भैया की भी यही कोशिश थी कि अगर जल्दी से उसे पक्की गृहस्थन न बना दिया गया तो वो भी अपनी बडी बहन की तरह कोई गुल खिलाएगी। हालाँकि वो शादीशुदा थी। लिहाजा उसे गृहस्थन बनाने पर जुट गए।
चार-पाँच साल के अंदर भाभी को घिसघिसा कर वाकई सबने गृहस्थन बना दिया। दो-तीन बच्चों की माँ बनकर भद्दी और ठुस्स हो गई। अम्मा उसे खूब मुर्गी का शोरबा, गोंद सटूरे खिलातीं। भैया टॉनिक पिलाते और हर बच्चे के बाद वो दस-पंद्रह पौंड बढ जाती।
आहिस्ता-आहिस्ता उसने बनना-सँवरना छोड ही दिया। भैया को लिपस्टिक से नफरत थी। ऑंखों में मनों काजल और मस्करा देखकर वो चिढ जाते। भैया को बस गुलाबी रंग पसंद था या फिर लाल। भाभी ज्यादातर गुलाबी या सुर्ख ही कपडे पहना करती थी। गुलाबी साडी पर सुर्ख (लाल) ब्लाउज या कभी गुलाबी के साथ हलका गहरा गुलाबी।
शादी के वक्त उसके बाल कटे हुए थे। मगर दुल्हन बनाते वक्त ऐसे तेल चुपडकर बाँधे गए थे कि पता ही नहीं चलता था कि वो पर-कटी मेम है। अब उसके बाल तो बढ गए थे मगर पै-दर-पै बच्चे होने की वजह से वो जरा गंजी-सी हो गई थी। वैसे भी वो बाल कसकर मैली धज्जी-सी बाँध लिया करती थी। उसके मियाँ को वो मैली-कुचैली ऐसी ही बडी प्यारी लगती थी और मैके-ससुराल वाले भी उसकी सादगी को देखकर उसकी तारीफों के गुन गाते थे। भाभी थी बडी प्यारी-सी, सुगढ नक्श, मक्खन जैसी रंगत, सुडौल हाथ-पाँव। मगर उसने इस बुरी तरह से अपने आपको ढीला छोड दिया था कि खमीरे आटे की तरह बह गई थी।
उफ! भैया को चैन और स्कर्ट से कैसी नफरत थी। उन्हें ये नए फैशन की बदन पर चिपकी हुई कमीज से भी बडी घिन आती थी। तंग मोरी की शलवारों से तो वो ऐसे जलते थे कि तौबा! खैर भाभी बेचारी तो शलवार-कमीज के काबिल रह ही नहीं गई थी। वो तो बस ज्यादातर ब्लाउज और पेटीकोट पर ड्रेसिंग गाउन चढाए घूमा करती। कोई जान-पहचान वाला आ जाता तो भी बेतकल्लुफी से वही अपना नेशनल ड्रेस पहने रहती। कोई औपचारिक मेहमान आता तो अमूनन वो अंदर ही बच्चों से सर मारा करती। जो कभी बाहर जाना पडता तो लिथडी हुई सी साडी लपेट लेती। वो गृहस्थन थी, ब थी और चहेती थी, उसे बन-सँवरकर किसी को लुभाने की क्या जरूरत थी!
और भाभी शायद यूँ ही गौडर बनी अधेड और फिर बूढी हो जाती। बहुएँ ब्याह कर लाती, जो सुबह उठकर उसे झुककर सलाम करतीं, गोद में पोता खिलाने को देतीं। मगर खुदा को कुछ और ही मंजूर था।
शाम का वक्त था, हम सब लॉन में बैठे चाय पी रहे थे। भाभी पापड तलने बावर्चीखाने में गई थी। बावर्ची ने पापड लाल कर दिए, भैया को बादामी पापड भाते हैं। उन्होंने प्यार से भाभी की तरफ देखा और वो झट उठकर पापड तलने चली गई। हम लोग मजे से चाय पीते रहे।
धाँय से फुटबाल आकर ऐन भैया की प्याली में पडी। हम सब उछल पडे। भैया मारे गुस्से के भन्ना उठे।
'कौन पाजी है? उन्होंने जिधर से गेंद आई थी, उधर मुँह करके डाँटा।
बिखरे हुए बालों का गोल-मोल सर और बडी-बडी ऑंखें ऊपर से झाँकीं। एक छलाँग में भैया मुँडेर पर थे और मुजरिम के बाल उनकी गिरफ्त में।
'ओह! एक चीख गूँजी और दूसरे लम्हे भैया ऐसे उछलकर अलग हो गए जैसे उन्होंने बिच्छू के डंक पर हाथ डाल दिया हो या अंगारा पकड लिया हो।
'सारी...आई एम वेरी सॉरी...। वो हकला रहे थे। हम सब दौड़ कर गए . देखा तो मुंडेर के उस तरफ़ एक दुबली नागिन-सी लडकी सफेद ड्रेन टाइप और नींबू के रंग का स्लीवलेस ब्लाउज पहने अपने बालों में पतली-पतली उँगलियाँ फेरकर खिसियानी हँसी हँस रही थी और फिर हम सब हँसने लगे।
भाभी पापडों की प्लेट लिए अंदर से निकली और बगैर कुछ पूछे ये समझकर हँसने लगी कि जरूर कोई हँसने की बात हुई होगी। उसका ढीला-ढाला पेट हँसने से फुदकने लगा और जब उसे मालूम हुआ कि भैया ने शबनम को लडका समझकर उसके बाल पकड लिए तो और भी जोर-जोर से कहकहे लगाने लगी कि कई पापड के टुकडे घास पर बिखर गए। शबनम ने बताया कि वो उसी दिन अपने चचा खालिद जमील के यहाँ आई है। अकेले जी घबराया तो फुटबॉल ही लुढकाने लगी। जो इत्तिफाकन भैया की प्याली पर आ कूदी।
शबनम भैया को अपनी तीखी मस्कारा लगी ऑंखों से घूर रही थी। भैया मंत्र-मुग्ध सन्नाटे में उसे तक रहे थे। एक करंट उन दोनों के दरमियान दौड रहा था। भाभी इस करंट से कटी हुई जैसे कोसों दूर खडी थी। उसका फुदकता हुआ पेट सहमकर रुक गया। हँसी ने उसके होंठों पर लडखडाकर दम तोड दिया। उसके हाथ ढीले हो गए। प्लेट के पापड घास पर गिरने लगे। फिर एकदम वो दोनों जाग पडे और ख्वाबों की दुनिया से लौट आए।
शबनम फुदककर मुंडेर पर चढ गई।
'आइए चाय पी लीजिए, मैंने ठहरी हुई फिजाँ को धक्का देकर आगे खिसकाया।
एक लचक के साथ शबनम ने अपने पैर मुंडेर के उस पार से इस पार झुलाए। शबनम का रंग पिघले हुए सोने की तरह लौ दे रहा था। उसके बाल स्याह भौंरा थे। मगर ऑंखें जैसे स्याह कटोरियों में किसी ने शहद भर दिया हो। नीबू के रंग के ब्लाउज का गला बहुत गहरा था। होंठ तरबूजी रंग के और उसी रंग की नेल पॉलिश लगाए वो बिलकुल किसी अमेरिकी इश्तिहार का मॉडल मालूम हो रही रही थी। भाभी से कोई फुट भर लंबी लग रही थी, हालाँकि मुश्किल से दो इंच ऊँची होगी। उसकी हड्डी बडी नाजुक थी। इसलिए कमर तो ऐसी कि छल्ले में पिरो लो।
भैया कुछ गुमसुम से बैठे थे। भाभी उन्हें कुछ ऐसे ताक रही थी जैसे बिल्ली पर तौलते हुए परिंदे को घूरती है कि जैसे ही पर फडफडाए बढकर दबोच ले। उसका चेहरा तमतमा रहा था, होंठ भिंचे हुए थे, नथुने फडफडा रहे थे।
इतने में मुन्ना आकर उसकी पीठ पर धम्म से कूदा। वो हमेशा उसकी पीठ पर ऐसे ही कूदा करता था जैसे वो गुदगुदा-सा तकिया हो। भाभी हमेशा ही हँस दिया करती थी मगर आज उसने चटाख-चटाख दो-चार चाँटे जड दिए।
शबनम परेशान हो गई।
'अरे...अरे...अरे रोकिए ना। उसने भैया का हाथ छूकर कहा, 'बडी गुस्सावर हैं आपकी मम्मी। उसने मेरी तरफ मुँह फेरकर कहा।
इंट्रोडक्शन कराना हमारी सोसायटी में बहुत कम हुआ करता है और फिर भाभी का किसी से इंट्रोडक्शन कराना अजीब-सा लगता था। वो तो सूरत से ही घर की ब लगती थी। शबनम की बात पर हम सब कहकहा मारकर हँस पडे। भाभी मुन्ने का हाथ पकडकर घसीटती हुई अंदर चल दी।
'अरे ये तो हमारी भाभी है। मैंने भाभी को धम्म-धम्म जाते हुए देखकर कहा।
'भाभी? शबनम हैरतजदा होकर बोली।
'इनकी, भैया की बीवी।
'ओह! उसने संजीदगी से अपनी नजरें झुका लीं। 'मैं...मैं...समझी! उसने बात अधूरी छोड दी।
'भाभी की उम्र तेईस साल है। मैंने वजाहत (स्पष्टता) की।
'मगर, डोंट बी सिली...। शबनम हँसी, भैया भी उठकर चल दिए।
'खुदा की कसम!
'ओह...जहालत...।
'नहीं...भाभी ने मारटेज से पंद्रह साल की उम्र में सीनियर कैम्ब्रिज किया था।
'तुम्हारा मतलब है ये मुझसे तीन साल छोटी हैं। मैं छब्बीस साल की हूँ।
'तब तो कतई छोटी हैं।
'उफ, और मैं समझी वो तुम्हारी मम्मी हैं। दरअसल मेरी ऑंखें कमजोर हैं। मगर मुझे ऐनक से नफरत है। बुरा लगा होगा उन्हें?
'नहीं, भाभी को कुछ बुरा नहीं लगता।
'च:...बेचारी!
'कौन...कौन भाभी? न जाने मैंने क्यों कहा।
'भैया अपनी बीवी पर जान देते हैं। सफिया ने बतौर वकील कहा।
'बेचारी की बहुत बचपन में शादी कर दी गई होगी?
'पच्चीस-छब्बीस साल के थे।
'मगर मुझे तो मालूम भी न था कि बीसवीं सदी में बगैर देखे शादियाँ होती हैं। शबनम ने हिकारत से मुस्कराकर कहा।
'तुम्हारा हर अंदाजा गलत निकल रहा है...भैया ने भाभी को देखकर बेहद पसंद कर लिया था, तब शादी हुई थी। मगर जब वो कँवल के फूल जैसी नाजुक और हसीन थीं।
'फिर ये क्या हो गया शादी के बाद?
'होता क्या... भाभी अपने घर की मल्लिका हैं, बच्चों की मल्लिका हैं। कोई फिल्म एक्ट्रेस तो हैं नहीं। दूसरे भैया को सूखी-मारी लडकियों से घिन आती है। मैंने जानकर शबनम को चोट दी। वो बेवकूफ न थी।
'भई चाहे कोई मुझसे प्यार करे या न करे। मैं तो किसी को खुश करने के लिए हाथी का बच्चा कभी न बनूँ...और मुआफ करना, तुम्हारी भाभी कभी बहुत खूबसूरत होंगी मगर अब तो...।
'ऊँह, आपका नजरिया भैया से अलग है। मैंने बात टाल दी और जब वो बल खाती सीधी-सुडौल टाँगों को आगे-पीछे झुलाती, नन्हे-नन्हे कदम रखती मुँडेर की तरफ जा रही थी, भैया बरामदे में खडे थे। उनका चेहरा सफेद पड गया था और बार-बार अपनी गुद्दी सहला रहे थे। जैसे किसी ने वहाँ जलती हुई आग रख दी हो। चिडिया की तरह फुदककर वो मुँडेर फलाँग गई। पल भर को पलटकर उसने अपनी शरबती ऑंखों से भैया को तौला और छलावे की तरह कोठी में गायब हो गई।
भाभी लॉन पर झुकी हुई तकिया आदि समेट रही थी। मगर उसने एक नजर न आने वाला तार देख लिया। जो भैया और शबनम की निगाहों के दरमियान दौड रहा था।
एक दिन मैंने खिडकी में से देखा। शबनम फूला हुआ स्कर्ट और सफेद खुले गले का ब्लाउज पहने पप्पू के साथ सम्बा नाच रही थी। उसका नन्हा-सा पिकनीज कुत्ता टाँगों में उलझ रहा था। वो ऊँचे-ऊँचे कहकहे लगा रही थी। उसकी सुडौल साँवली टाँगें हरी-हरी घास पर थिरक रही थीं। काले-रेशमी बाल हवा में छलक रहे थे। पाँच साल का पप्पू बंदर की तरह फुदक रहा था। मगर वो नशीली नागिन की तरह लहरा रही थी। उसने नाचते-नाचते नाक पर ऍंगूठा रखकर मुझे चिडाया। मैंने भी जवाब में घूँसा दिखा दिया। मगर फौरन ही मुझे उसकी निगाहों का पीछा करके मालूम हुआ कि ये इशारा वो मेरी तरफ नहीं कर रही थी।
भैया बरामदे में अहमकों की तरह खडे गुद्दी सहला रहे थे और वो उन्हें मुँह चिडाकर जला रही थी। उसकी कमर में बल पड रहे थे। कूल्हे मटक रहे थे। बाँहें थरथरा रही थीं। होंठ एक-दूसरे से जुदा लरज रहे थे। उसने साँप की तरह लप से जुबान निकालकर अपने होंठों को चाटा। भैया की ऑंखें चमक रही थीं और वो खडे दाँत निकाल रहे थे। मेरा दिल धक से रह गया। ...भाभी गोदाम में अनाज तुलवाकर बावर्ची को दे रही थी।
'शबनम की बच्ची मैंने दिल में सोचा। ...मगर गुस्सा मुझे भैया पर भी आया। उन्हें दाँत निकालने की क्या जरूरत थी। इन्हें तो शबनम जैसे काँटों से नफरत थी। इन्हें तो ऍंगरेजी नाचों से घिन आती थी। फिर वो क्यों खडे उसे तक रहे थे और ऐसी भी क्या बेसुधी कि उनका जिस्म सम्बा की ताल पर लरज रहा था और उन्हें खबर न थी।
इतने में ब्वॉय चाय की ट्रे लेकर लॉन पर आ गया... भैया ने हम सबको आवाज दी और ब्वॉय से कहा भाभी को भेज दे।
रस्मन शबनम को भी बुलावा देना पडा। मेरा तो जी चाह रहा था कतई उसकी तरफ से मुँह फेरकर बैठ जाऊँ मगर जब वो मुन्ने को पद्दी पर चढाए मुँडेर फलाँगकर आई तो न जाने क्यों मुझे वो कतई मासूम लगी। मुन्ना स्कार्फ लगामों की तरह थामे हुए था और वो घोडे की चाल उछलती हुई लॉन पर दौड रही थी। भैया ने मुन्ने को उसकी पीठ पर से उतारना चाहा। मगर वो और चिमट गया।
'अभी और थोडा चले आंटी।
'नहीं बाबा, आंटी में दम नहीं...। शबनम चिल्लाई। बडी मुश्किल से भैया ने मुन्ने को उतारा। मुँह पर एक चाँटा लगाया। एक दम तडपकर शबनम ने उसे गोद में उठा लिया और भैया के हाथ पर जोर का थप्पड लगाया।
'शर्म नहीं आती...इतने बडे ऊँट के ऊँट छोटे से बच्चे पर हाथ उठाते हैं। भाभी को आता देखकर उसने मुन्ने को गोद में दे दिया। उसका थप्पड खाकर भैया मुस्करा रहे थे।
'देखिए तो कितनी जोर से थप्पड मारा है। मेरे बच्चे को कोई मारता तो हाथ तोडकर रख देती। उसने शरबत की कटोरियों में जहर घोलकर भैया को देखा। 'और फिर हँस रहे हैं बेहया।
'हूँ...दम भी है जो हाथ तोडोगी...। भैया ने उसकी कलाई मरोड़ी . वो बल खाकर इतनी जोर से चीखी कि भैया ने कांप कर उसे छोड़ दिया और वो हंसते-हंसते जमीन पर लोट गई. चाय के दरमियान भी शबनम की शरारतें चलती रहीं। वो बिलकुल कमसिन छोकरियों की तरह चुहलें कर रही थी। भाभी गुमसुम बैठी थीं। आप समझे होंगे शबनम के वजूद से डरकर उन्होंने अपनी तरफ तवज्जो देनी शुरू कर दी होगी। जी कतई नहीं। वो तो पहले से भी ज्यादा मैली रहने लगीं। पहले से भी ज्यादा खातीं।
हम सब तो हँस ज्यादा रहे थे, मगर वो सर झुकाए निहायत तन्मयता से केक उडाने में मसरूफ थीं। चटनी लगा-लगाकर भजिए निगल रही थीं। सिके हुए तोसों पर ढेर-सा मक्खन लगा-लगाकर खाए जा रही थीं, भैया और शबनम को देख-देखकर हम सब ही परेशान थे और शायद भाभी भी फिक्र-मंद होगी, लेकिन अपनी परेशानी को वो मुर्गन खानों में दफ्न कर रही थीं। उन्हें हर वक्त खट्टी डकारें आया करतीं मगर वो चूरन खा-खाकर पुलाव-कोरमा हजम करतीं। वो सहमी-सहमी नजरों से भैया और शबनम को हँसता-बोलता देखती। भैया तो कुछ और भी जवान लगने लगे थे। शबनम के साथ वो सुबह-शाम समंदर में तैरते। भाभी अच्छा-भला तैरना जानती मगर भैया को स्वीमिंग-सूट पहने औरतों से सख्त नफरत थी। एक दिन हम सब समंदर में नहा रहे थे। शबनम दो धज्जियाँ पहने नागिन की तरह पानी में बल खा रही थी।

इतने में भाभी जो देर से मुन्ने को पुकार रही थीं, आ गईं। भैया शरारत के मूड में तो थे ही, दौडकर उन्हें पकड लिया और हम सबने मिलकर उन्हें पानी में घसीट लिया। जब से शबनम आई थी भैया बहुत शरारती हो गए थे। एकदम से वो दाँत किचकिचा कर भाभी को हम सबके सामने भींच लेते, उन्हें गोद में उठाने की कोशिश करते मगर वो उनके हाथों से बोंबल मछली की तरह फिसल जातीं। फिर वो खिसियाकर रह जाते। जैसे कल्पना में वो शबनम ही को उठा रहे थे और भाभी लज्जित होकर फौरन पुडिंग या कोई और मजेदार डिश तैयार करने चली जातीं। उस वक्त जो उन्हें पानी में धकेला गया तो वो गठरी की तरह लुढक गईं। उनके कपडे जिस्म पर चिपक गए और उनके जिस्म का सारा भौंडापन भयानक तरीके से उभर आया। कमर पर जैसे किसी ने रजाई लपेट दी थी। कपडों में वो इतनी भयानक नहीं मालूम होती थीं।
'ओह, कितनी मोटी हो गई हो तुम! भैया ने कहा, 'उफ तोंद तो देखो...बिलकुल गामा पहलवान मालूम हो रही हो।
'हँह... चार बच्चे होने के बाद कमर...।
'मेरे भी तो चार बच्चे हैं... मेरी कमर तो डनलप पिल्लो का गद्दा नहीं बनी। उन्होंने अपने सुडौल जिस्म को ठोक-बजाकर कहा और भाभी मुँह थूथाए भीगी मुर्गी की तरह पैर मारती झुरझुरियाँ लेती रेत में गहरे-गहरे गङ्ढे बनाती मुन्ने को घसीटती चली गईं। भैया बिलकुल बेतवज्जो होकर शबनम को पानी में डुबकियाँ देने लगे।
जब नहाकर आए तो भाभी सर झुकाए खूबानियों के मुरब्बे पर क्रीम की तह जमा रही थीं। उनके होंठ सफेद हो रहे थे और ऑंखें सुर्ख थीं। गटारचे की गुडिया जैसे मोटे-मोटे गाल और सूजे हुए मालूम हो रहे थे।
लंच पर भाभी बेइंतिहा गमगीन थीं। लिहाजा बडी तेजी से खूबानियों का मुरब्बा और क्रीम खाने में जुटी हुई थीं। शबनम ने डिश की तरफ देखकर ऐसे फरेरी ली जैसी खूबानियाँ न हों, साँप-बिच्छू हों।
'जहर है जहर। उसने नफासत से ककडी का टुकडा कुतरते हुए कहा और भैया भाभी को घूरने लगे। मगर वो शपाशप मुरब्बा उडाती रहीं। 'हद है! उन्होंने नथूने फडकाकर कहा।
भाभी ने कोई ध्यान न किया और करीब-करीब पूरी डिश पेट में उंडेल ली। उन्हें मुरब्बा-शोरबा खाता देखकर ऐसा मालूम होता था जैसे वोर् ईष्या-द्वेष के तूफान को रोकने के लिए बंद बाँध रही हों।
'खुदा के लिए बस करो... डॉक्टर भी मना कर चुका है...ऐसा भी क्या चटोरपन! भैया ने कह ही दिया। मोम की दीवार की तरह भाभी पिघल गईं। भैया का नश्तर चर्बी की दीवारों को चीरता हुआ ठीक दिल में उतर गया। मोटे-मोटे ऑंसू भाभी के फूले हुए गालों पर फिसलने लगे। सिसकियों ने जिस्म के ढेर में जलजला पैदा कर दिया। दुबली-पतली और नाजुक लडकियाँ किस लतीफ और सुहाने अंदाज में रोती हैं। मगर भाभी को रोते देखकर बजाए दुख के हँसी आती थी। जैसे कोई रुई के भीगे हुए ढेर को डंडों से पीट रहा हो।
वो नाक पोंछती हुई उठने लगीं, मगर हम लोगों ने रोक लिया और भैया को डाँटा। खुशामद करके वापस उन्हें बिठा लिया। बेचारी नाक सुडकाती बैठ गईं। मगर जब उन्होंने कॉफी में तीन चम्मच शकर डालकर क्रीम की तरफ हाथ बढाया तो एकदम ठिठक गईं। सहमी हुई नजरोंसे शबनम और भैया की तरफ देखा। शबनम बमुश्किल अपनी हँसी रोके हुए थी,भैया मारे गुस्से के रुऑंसे हो रहे थे। वो एकदम भन्नाकर उठे और जाकर बरामदे में बैठ गए। उसके बाद हालात और बिगडे। भाभी ने खुल्लम-खुल्ला ऐलाने-जंग कर दिया। किसी जमाने में भाभी का पठानी खून बहुत गर्म था। जरा-सी बात पर हाथापाई पर उतर आया करती थीं और बारहा भैया से गुस्सा होकर बजाए मुँह फुलाने के वो खूँखार बिल्ली की तरह उन पर टूट पडतीं, उनका मुँह खसोट डालतीं, दाँतों से गिरेबान की धज्जियाँ उडा देतीं। फिर भैया उन्हें अपनी बाँहोंमें भींचकर बेबस कर देते और वो उनके सीने से लगकर प्यासी,डरी हुई चिडिया की तरह फूट-फूटकर रोने लगतीं। फिर मिलाप हो जाता और झेंपी-खिसियानी वो भैया के मुँह पर लगे हुए खरोंचों पर प्यार से टिंचर लगा देतीं, उनके गिरेबान को रफू कर देतीं और मीठी-मीठी शुक्र-गुजार ऑंखों से उन्हें तकती रहतीं।
ये तब की बात है जब भाभी हल्की-फुल्की तीतरी की तरह तर्रार थीं। लडती हुई छोटी-सी पश्चिमी बिल्ली मालूम होती थीं। भैया को उन पर गुस्सा आने की बजाए और शिद्दत से प्यार आता। मगर जब उन पर गोश्त ने जिहाद बोल दिया,वो बहुत ठंडी पड गई थीं। उन्हें अव्वल तो गुस्साही न आता और अगर आता भी तो फौरन इधर-उधर काम में लगकर भूल जातीं।
उस दिन उन्होंने अपने भारी-भरकम डील-डौल को भूलकर भैया पर हमला कर दिया। भैया सिर्फ उनके बोझ से धक्का खाकर दीवार से जा चिपके। रुई के गट्ठर को यूँ लुढकते देखकर उन्हें सख्त घिन आई। न गुस्सा हुए, न बिगडे, शश्लमदा, उदास सर झुकाए कमरे से निकल भागे,भाभी वहीं पसरकर रोने लगीं।
बात और बढी और एक दिन भैया के साले आकर भाभी को ले गए। तुफैल भाभी के चचा-जाद भाई थे। भैया उस वक्त शबनम के साथ क्रिकेट का मैच देखने गए हुए थे। तुफैल ने शाम तक उनका इंतजार किया। वो न आए तो मजबूरन भाभी और बच्चों का सामान तैयार किया।
जाने से पहले भैया घडी भर को खडे-खडे आए।
'देहली के मकान मैंने इनके मेहर में दिए, उन्होंने रुखाई से तुफैल से कहा।
'मेहर? भाभी थर-थर काँपने लगीं।
'हाँ...तलाक के कागजात वकील के जरिए पहुँच जाएँगे।
'मगर तलाक...तलाक का क्या जिक्र है?
'इसी में बेहतरी है।
'मगर...बच्चे...?
'ये चाहें तो उन्हें ले जाएँ...वरना मैंने बोर्डिंग में इंतजाम कर लिया है।
एक चीख मारकर भाभी भैया पर झपटीं...मगर उन्हें खसोटने की हिम्मत न हुई, सहमकर ठिठक गईं।
और फिर भाभी ने अपने नारीत्व की पूरी तरह बेआबरूई करवा डाली। वो भैया के पैरों पर लोट गईं, नाक तक रगड डाली।
'तुम उससे शादी कर लो...मैं कुछ न कहूंगी। मगर खुदा के लिए मुझे तलाक न दो। मैं यूँ ही जिंदगी गुजार दूँगी। मुझे कोई शिकायत न होगी।
मगर भैया ने नफरत से भाभी के थुल-थुल करते जिस्म को देखा और मुँह मोड लिया।
'मैं तलाक दे चुका, अब क्या हो सकता है?
मगर भाभी को कौन समझाता। वो बिलबिलाए चली गईं।
'बेवकूफ...। तुफैल ने एक ही झटके में भाभी को जमीन से उठा लिया। 'गधी कहीं की, चल उठ! ...और वो उसे घसीटते हुए ले गए।
क्या दर्दनाक समाँ था। फूट-फूटकर रोने में हम भाभी का साथ दे रहे थे। अम्मा खामोश एक-एक का मुँह तक रही थीं। अब्बा की मौत के बाद उनकी घर में कोई हैसियत नहीं रह गई थी। भैया खुद-मुख्तार थे बल्कि हम सबके सर-परस्त थे। अम्मा उन्हें बहुत समझाकर हार चुकी थीं। उन्हें इस दिन की अच्छी तरह खबर थी, मगर क्या कर सकती थीं।
भाभी चली गईं...फिजा ऐसी खराब हो गई थी कि भैया और शबनम भी शादी के बाद हिल-स्टेशन पर चले गए।
ननन
सात-आठ साल गुजर गए... कुछ ठीक अंदाजा नहीं... हम सब अपने-अपने घरों की हुईं। अम्मा का इंतकाल हो गया।
आशियाना उजड गया। भरा हुआ घर सुनसान हो गया। सब इधर-उधर उड गए। सात-आठ साल ऑंख झपकते न जाने कहाँ गुम हो गए। कभी साल-दो साल में भैया की कोई खैर-खबर मिल जाती। वो ज्यादातर हिन्दुस्तान से बाहर मुल्कों की चक-फेरियों में उलझे रहे मगर जब उनका खत आया कि वो मुंबई आ रहे हैं तो भूला-बिसरा बचपन फिर से जाग उठा। भैया ट्रेन से उतरे तो हम दोनों बच्चों की तरह लिपट गए। शबनम मुझे कहीं नजर न आई। उनका सामान उतर रहा था। जैसे ही भैया से उसकी खैरियत पूछने को मुडी धप से एक वजनी हाथ मेरी पीठ पर पडा और कई मन का गर्म-गर्म गोश्त का पहाड मुझसे लिपट गया।
'भाभी! मैंने प्लेटफॉर्म से नीचे गिरने से बचने के लिए खिडकी में झूलकर कहा। जिंदगी में मैंने शबनम को कभी भाभी न कहा था। वो लगती भी तो शबनम ही थी, लेकिन आज मेरे मुँह से बेइख्तियार भाभी निकल गया। शबनम की फुआर...उन चंद सालों में गोश्त और पोस्त (मांस-त्वचा) का लोंदा कैसे बन गई। मैंने भैया की तरफ देखा। वो वैसे ही दराज कद और छरहरे थे। एक तोला गोश्त न इधर, न उधर।
जब भैया ने शबनम से शादी की तो सभी ने कहा था... शबनम आजाद लडकी है, पक्की उम्र की है...भाभी...तो ये मैंने शहजाद को हमेशा भाभी ही कहा। हाँ तो शहजाद भोली और कमसिन थी...भैया के काबू में आ गई। ये नागिन इन्हें डस कर बेसुध कर देगी। इन्हें मजा चखाएगी।
मगर मजा तो लहरों को सिर्फ चट्टान ही चखा सकती है।
'बच्चे बोर्डिंग में हैं, छुट्टी नहीं थी उनकी...। शबनम ने खट्टी डकारों भरी सांस मेरी गर्दन पर छोड़कर कहा.
और मैं हैरत से उस गोश्त के ढेर में उस शबनम को, फुआर को ढूँढ रही थी, जिसने शहजाद के प्यार की आग को बुझाकर भैया के कलेजे में नई आग भडका दी थी। मगर ये क्या? उस आग में भस्म हो जाने से भैया तो और भी सच्चे सोने की तरह तपकर निखर आए थे। आग खुद अपनी तपिश में भस्म होकर राख का ढेर बन गई थी। भाभी तो मक्खन का ढेर थी...मगर शबनम तो झुलसी हुई टसयाली राख थी...उसका साँवला-कुंदनी रंग मरी हुई छिपकली के पेट की तरह और जर्द हो चुका था। वो शरबत घुली हुई ऑंखें गंदली और बेरौनक हो गई थीं। पतली नागिक जैसी लचकती हुई कमर का कहीं दूर-दूर तक पता न था। वो मुस्तकिल तौर पर हामिला मालूम होती थी। वो नाजुक-नाजुक लचकीली शाखों जैसी बाँहें मुगदर की तरह हो गई थीं। उसके चेहरे पर पहले से ज्यादा पावडर थुपा हुआ था। ऑंखें मस्कारा से लिथडी हुई थीं। भवें शायद गलती से ज्यादा नुच गई थीं, जभी इतनी गहरी पेंसिल घिसनी पडी थी।
भैया रिट्ज में ठहरे। रात को डिनर पर हम वहीं पहुँच गए।
कैबरे अपने पूरे शबाब पर था। मिस्री हसीना अपने छाती जैसे पेट को मरोडिया दे रही थी, उसके कूल्हे दायरों में लचक रहे थे...सुडौल मरमरीं बाजू हवा में थरथरा रहे थे, बारीक शिफान में से उसकी रूपहली टाँगें हाथी-दाँत के तराशे हुए सतूनों (खम्भों) की तरह फडक रही थीं... भैया की भूखी ऑंखें उसके जिस्म पर बिच्छुओं की तरह रेंग रही थीं...वो बार-बार अपनी गुद्दी पर अनजानी चोट सहला रहे थे।
भाभी...जो कभी शबनम थी...मिस्री रक्कासा (नर्तकी) की तरह लहराई हुई बिजली थी, जो एक दिन भैया के होशों-हवास पर गिरी थी, आज रेत के ढेर की तरह भसकी बैठी थी। उसके मोटे-मोटे गाल खून की कमी और मुस्तकिल स्थायी बदहज्मी की वजह से पीलेपन की ओर अग्रसर हो रहे थे। नियान लाइट्स की रोशनी में उसका रंग देखकर ऐसा मालूम हो रहा था जैसे किसी अनजाने नाग ने डस लिया हो। मिस्री रक्कासा के कूल्हे तूफान मचा रहे थे और भैया के दिल की नाव उस भँवर में चक-फेरियाँ खा रही थीं, पाँच बच्चों की माँ शबनम...जो अब भाभी बन चुकी थी, सहमी-सहमी नजरों से उन्हें तक रही थी, ध्यान बँटाने के लिए वो तेजी से भुना हुआ मुर्ग हडप कर रही थी।
आर्केस्ट्रा ने एक भरपूर साँस खींची...साज कराहे...ड्रम का दिल गूँज उठा...मिस्री रक्कासा की कमर ने आखिरी झकोले लिए और निढाल होकर मरमरीं फर्श पर फैलर् गई।
हॉल तालियों से गूँज रहा था...शबनम की ऑंखें भैया की ढूँढ रही थी...बैरा तरो-ताजा रसभरी और क्रीम का जग ले आया। बेखयाली में शबनम ने प्याला रसभरियों से भर लिया। उसके हाथ लरज रहे थे। ऑंखें चोट खाई हुई हिरनियों की तरह परेशान चौकडियाँ भर रही थीं।
भीड-भाड से दूर...हल्की ऍंधेरी बालकनी में भैया खडे मिस्री रक्कासा का सिगरेट सुलगा रहे थे। उनकी रसमयी निगाहें रक्कासा की नशीली ऑंखों से उलझ रही थीं। शबनम का रंग उडा हुआ था और वो एक ऊबड-खाबड पहाड की तरह गुमसुम बैठी थी। शबनम को अपनी तरफ तकता देखकर भैया रक्कासा का बाजू थामे अपनी मेज पर लौट आए और हमारा तआरुफ कराया।
'मेरी बहन, उन्होंने मेरी तरफ इशारा किया। रक्कासा ने लचककर मेरे वजूद को मान लिया।
'मेरी बेगम... उन्होंने ड्रामाई अंदाज में कहा। जैसे कोई मैदाने-जंग में खाया हुआ जख्म किसी को दिखा रहा हो। रक्कासा स्तब्ध रह गई। जैसे उनकी जीवन-संगिनी को नहीं खुद उनकी लाश को खून में लथपथ देख लिया हो, वो भयभीत होकर शबनम को घूरने लगी। फिर उसने अपने कलेजे की सारी ममता अपनी ऑंखों में समोकर भैया की तरफ देखा। उसकी एक नजर में लाखों फसाने पोशीदा थे। 'उफ ये हिन्दुस्तान जहाँ जहालत से कैसी-कैसी प्यारी हस्तियाँ रस्मों-रिवाज पर कुर्बान की जाती हैं। काबिले-परस्तिश हैं वो लोग और काबिले-रहम भी,जो ऐसी-ऐसी 'सजाएँ भुगतते हैं। ...मेरी शबनम भाभी ने रक्कासा की निगाहों में ये सब पढ लिया। उसके हाथ काँपने लगे। परेशानी छुपाने के लिए उसने क्रीम का जग उठाकर रसभरियों पर उंडेल दिया और जुट गई।
प्यारे भैया! हैंडसम और मजलूम...सूरज-देवता की तरह हसीन और रोमांटिक, शहद भरी ऑंखों वाले भैया, चट्टान की तरह अटल...एक अमर शहीद का रूप सजाए बैठे मुस्करा रहे थे...
...एक लहर चूर-चूर उनके कदमों में पडी दम तोड रही थी...
...दूसरी नई-नवेली लचकती हुई लहर उनकी पथरीली बाँहों में समाने के लिए बेचैन और बेकरार थी।

“दाग न लगने देंगे भगत सिंह की शहादत पर…” *


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।। धीरज भारद्वाज ।।
भगत सिंह की शहादत का मजाक बनाना शायद सरकार के लिए आसान नहीं रह गया। दिल्ली ही नहीं, देश भर में शहीद-ए-आज़म के खिलाफ अदालत में गवाही देने वाले गद्दार शोभा सिंह के खिलाफ लोग एकजुट होने लगे हैं। पंजाब के कई नेताओं ने धमकी दी है कि अगर जल्दी ही सरकार ने अपना फैसला वापस नहीं लिया तो वे सड़क पर आंदोलन करने को मजबूर होंगे।

तीक्ष्ण सूद
पंजाब के वरिष्ठ भाजपा नेता तीक्ष्ण सूद ने कहा है कि विंडसर प्लेस का नाम शोभा सिंह के नाम पर करने का दिल्ली सरकार का यह फैसला करोड़ों देशभक्तों का अपमान है। सूद के मुताबिक पंजाब की जनता दिल्ली सरकार के इस फैसले को किसी हाल में लागू नहीं होने देगी। उन्होंने मीडिया दरबार को बताया कि अगर जरूरत पड़ी तो भगत सिंह के समर्थक ट्रकों में भर कर दिल्ली आ जाएंगे और संसद का घेराव करेंगे।

भगत सिंह क्रांति सेना के सदस्य
इधर दिल्ली में भगत सिंह क्रांति सेना ने सभी कॉलेजों में जागरुकता अभियान चलाने का फैसला किया है। सेना के अध्यक्ष ताजिंदर पाल सिंह बग्गा के मुताबिक इस अभियान के तहत दिल्ली भर के कॉलेजों में पोस्टर बांटे जाएंगे और छात्रों से हस्ताक्षर लेकर प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को ज्ञापन भी सौंपे जाएंगे। बग्गा ने मीडिया दरबार को बताया कि अगर जरूरत पड़ी तो अभियान को देश भर में फैलाया जाएगा।
बहरहाल मीडिया दरबार की यह मुहिम रंग ला रही है और ट्विटर, फेसबुक तथा ऑरकुट के अलावा दूसरे सोशल नेटवर्किंग साइटों पर भी इसके बारे में चर्चा होने लगी। देश के कई अखबारों और टीवी चैनलों ने भी इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाया। दिल्ली आजतक और न्यूज 24 ने इस मामले पर दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित से पूछा तो उन्होंने कहा कि उन्हें इस बात का पता नहीं था कि शोभा सिंह पर क्या आरोप हैं। हालांकि यह बात गले से नीचे उतरने वाली नहीं थी, लेकिन चैनलों ने उनका यह बयान भी प्रसारित किया जिसमें उनहोंने आशवासन दिया कि अब दिल्ली सरकार इस तथ्य की जानकारी को भी गृह मंत्रालय भेजेगी।
हालांकि इतना कुछ हो रहा है, लेकिन चिंता की बात यह है कि अब तक सरकार या केंद्रीय गृह मंत्रालय ने कोई ऐसा संकेत तक नहीं दिया है जिससे कोई दिलासा भी मिल पाए। यहां दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियां लिखना आवश्यक प्रतीत हो रहा है -
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में न सही तेरे सीने में सही
हो कहीं भी मगर आग जलनी चाहिए ।।

शिवनाथ झा ला रहे हैं शहीदों के भूले-बिसरे वंशजों पर फिल्म











1857 में हुए भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के महानायक तात्यां टोपे और जलियांवाला बाग कांड का बदला लेने वाले शहीद-ए-आज़म उधम सिंह का नाम तो आज भी देश भर में बच्चे-बच्चे की जुबान पर है, लेकिन आजादी के लिए अपने तन-मन-धन का बलिदान कर देने वाले इन शहीदों के वंशज़ आज किस बदहाली में अपना जीवन गुजार रहे हैं, यह किसी ने सोचा तक नहीं है। करीब एक सदी तक चले स्वतंत्रता संग्राम के ऐसे अनेकों क्रान्तिकारी थे जिनके परिवारवालों और वंशजों को किसी ने याद नहीं रखा। इन भूले-बिसरे परिजनों और वंशजों की बदहाली को मशहूर पत्रकार शिवनाथ झा एक फीचर फिल्म के माध्यम से बयां करने की तैयारी में हैं।
झा के मुताबिक “डिस्ग्रेसफुल” (अपमानजनक) नाम की इस फिल्म के माध्यम से भारत को आजादी दिलाने वाले ऐसे शहीदों, महापुरुषों और क्रान्तिकारियों के 30 वंशजों से बातचीत के आधार पर उन परिवारों की मौजूदा दुर्दशा को झलकाने का प्रयास किया जाएगा जिनके पुरखो ने 1857 से 1947 तक चले स्वतंत्रता संग्राम में अपना जीवन न्यौछावर कर दिया। शिवनाथ झा ने मीडिया दरबार को बताया कि उन्होंने इस फिल्म की योजना 2009 में ही बना ली थी, लेकिन इसे अंजाम तक लाने में दो साल लग गए।  इस से पहले वे अपनी पत्नी नीना झा के साथ मिलकर “आन्दोलन: एक पुस्तक से” नामक अभियान भी शुरू कर चुके हैं। झा के मुताबिक यह फिल्म भी उसी अभियान का एक हिस्सा है।
झा ने बताया की यह फिल्म उन 30 परिवारों के सदस्यों से बातचीत पर आधारित होगी जो स्वतंत्रता सेनानियों की मौजूदा पीढ़ियों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं और गुमनामी में बदहाल जीवन बिता रहे हैं। उन्होंने कहा कि दिवंगत पूर्व राष्ट्रपति के आर नारायणन ने एक बार कहा था कि भुला दिए गए राष्ट्रनायकों के परिवारों को “राष्ट्रीय परिवार” का दर्जा दिया जाना चाहिए। फिल्म में उनकी इस भावना को भी आगे रखने का प्रयास किया जाएगा।.
झा दम्पति ने देश में संगीतकारों और कलाकारों के लिए तथा बुरे हाल में रह रहे शहीदों के वंशजों के पुनर्वास के मकसद से अपना आन्दोलन शुरू किया था जिसमे प्रयेक वर्ष एक किताब के माध्यम से ऐसे लोगों को पुनर्वासित करने का संकल्प रखा गया है। दोनों ने हाल ही में एक पुस्तक फॉर्गौटेन इंडियन हीरोज़ एंड मार्टियर्स: देयर नेग्लेक्टेड डिसेंडेंट्स – 1857-1947 का विमोचन किया और इस मौके पर शहीद-ए-आज़म उधम सिंह के पौत्र जीत सिंह को 11लाख 50 हजार रुपये की सहायता भी लोकमत समाचार पत्र समूह के मालिक विजय जे डरडा के हाथों प्रदान करवाया।
57 साल के जीत सिंह का ज़िक्र करते हुए झा ने बताया कि जलियांवाला बाग कांड के दोषी अंग्रेज अधिकारी जनरल डायर से बदला लेने वाले शहीद उधम सिंह के इस वंशज को भुला दिया गया है और कितनी बड़ी विडम्बना है कि उनके पौत्र का परिवार मज़दूरी के दम पर चलता था।
झा ने स्वतंत्रता सेनानी तात्यां टोपे की चौथी पीढ़ी के वंशज विनायक राव टोपे का पता 2007 में लगाया था जो कि कानपुर के पास बिठूर में बदहाली में रह रहे थे। झा ने विनायक राव के पुनर्वास की दिशा में काम किया और उन्हें 5 लाख रूपए की आर्थिक मदद दिलाने के अलावे उनकी दो बेटियों को भारतीय रेल में नौकरी दिलवाने में भी सफल रहे। इसके अलावा झा दम्पत्ति ने भारत के अंतिम मुग़ल बादशाह और 1857 के विद्रोहियों के कमांडर-इन-चीफ बहादुर शाह ज़फ़र की पौत्रवधू सुल्ताना बेगम के पुनर्वास के लिए भी काम किया था।









8 टिप्पणियां - “शिवनाथ झा ला रहे हैं शहीदों के भूले-बिसरे वंशजों पर फिल्म”

  1. Vote -1 Vote +1ravinder khatri says:
    सर ! आपके इस नेक काम के लिए दिल से शुभ कामनाएं देता हूँ . ये काम इस देश की सरकार को बहुत पहले करना चाहिए था . लेकिन ये आप जैसे नेक लोगो के माध्यम से हो रहा है ये ठीक रहेगा क्योंकि अगर सरकार इन देश भक्तो के वंशजो को मदद देती तो उसमे से भी ” खा ” जाती और यह सब गन्दी राजनीती की भेंट चढ़ जाता .
    आपके लिए शुभकामनायें !


गुरुवार, 28 जुलाई 2011

स्वामी विवेकानंद का संदेश किसे याद है




रवींद्र नाथ टैगोर का 150वां जन्मदिन मनाने के बाद अब बारी है स्वामी विवेकानंद का जन्मदिन मनाने की. दोनों बंगाल के थे, लेकिन भारत के संदर्भ में दोनों का विजन का़फी अलग था. शिकागो में हुई विश्व धर्म संसद में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के बाद विवेकानंद का़फी प्रसिद्ध हो गए. कदाचित वह आधुनिक भारत के पहले व्यक्ति थे, जिन्हें वैश्विक प्रसिद्धि प्राप्त हुई थी. वह न केवल अच्छे वक्ता थे, बल्कि अच्छे रूप-रंग, अच्छी आवाज़ और गेरुआ वस्त्र के कारण पवित्र इंसान भी दिखते थे. अब यही गेरुआ वस्त्र स्वामियों की पोशाक बन गया है. दूसरी ओर टैगोर ब्रह्म समाज की परंपरा में पले थे. भारतीय रहस्यवाद के माध्यम से विश्व को एशिया का संदेश देकर उन्होंने भी अंग्रेजी समाज पर चोट की, लेकिन उनका धर्म वैश्विक था. सबसे बड़ी बात है कि वह संत नहीं थे, लेकिन टैगोर एक महान उपन्यासकार, नाटककार, कहानीकार, चित्रकार एवं संगीतकार थे.
20वीं सदी के मध्य में राजनीतिक हिंदूवाद रूढ़िवादी हो गया और जातिवाद की समाप्ति, जिसे सुधार का मुख्य आधार होना चाहिए था, को ऐसे ही छोड़ दिया गया. हम लोग अभी तक इसकी क़ीमत चुका रहे हैं. हर दिन दलित महिलाओं और पुरुषों के ऊपर हो रहे अत्याचार की खबर आती है. स्वामी लोग अब इस देश में स़िर्फ पूजे जाते हैं. न तो उन्हें पढ़ा जाता है और न गंभीरता से लिया जाता है.
उनकी अधिकांश कृतियां अब भुला दी गई हैं. टैगोर को अब पश्चिमी देशों में नहीं पढ़ा जाता है. यही नहीं, इस महान साहित्यकार की कृतियों को भारत के लोग भी नहीं पढ़ते हैं. यदि किसी भारतीय से टैगोर के बारे में पूछें तो वह केवल भुनभुनाएगा, जवाब कुछ नहीं देगा. साथ ही उसे यह अ़फसोस भी नहीं होगा कि वह इस महान व्यक्ति के बारे में नहीं जानता है. विवेकानंद को भी कोई ज़्यादा नहीं पढ़ता है. विवेकानंद की संपूर्ण कृतियों का जो संकलन है, न तो उसकी छपाई अच्छी है और न उसे बेहतर ढंग से संपादित किया गया है. उनके अनुयायी उनकी पूजा तो करते हैं, परंतु उनके मूल्यों को नहीं समझते. वे सामान्यत: विवेकानंद को नहीं पढ़ते हैं. विवेकानंद आधुनिक भारत के उन लोगों में से हैं, जिन्हें हिंदूवादी भी उतना ही स्वीकार करते हैं, जितना धर्मनिरपेक्ष लोग. दोनों संभवत: इसलिए ऐसा करते हैं, क्योंकि दोनों में से किसी ने भी उन्हें नहीं पढ़ा है. विवेकानंद आधुनिक भारतीय इतिहास के केंद्र में रहे हैं. विवेकानंद गीता की व्याख्या की वजह से नहीं, बल्कि आधुनिक भारतीय समाज का परीक्षण करने की वजह से आकर्षण के केंद्र में रहे हैं. उन्होंने 1894 में अपने एक भारतीय मित्र को लिखा कि धर्म का काम सामाजिक नियम बनाना नहीं है और न लोगों के बीच विभेद करना, लेकिन फिर भी धर्म की अनुमति से आर्थिक स्थितियों ने ही सामाजिक नियम बनाए हैं और सामाजिक मामलों में धर्म ने जो हस्तक्षेप किया, वह इसकी एक भयानक भूल थी. वह मिशन ऑफ वेदांता में लिखते हैं कि उन्हें अपने भारतीय अनुयायियों से कठोर सत्य कहना है. वह कहते हैं कि अगर कोई अंग्रेज किसी भारतीय की हत्या कर देता है या उसके साथ ग़लत व्यवहार करता है तो उसके लिए ज़िम्मेदार कौन है. उसके लिए ज़िम्मेदार अंग्रेज नहीं, बल्कि भारतीय हैं. हम भारतीय ही अपने राष्ट्र और खुद की दुर्दशा के लिए ज़िम्मेदार हैं. हमारे तानाशाह पूर्वजों ने आम जन को तब तक पददलित किया, जब तक कि वे असहाय नहीं हो गए, जब तक कि ग़रीब लोग इस बात को भूले नहीं कि वे भी इंसान हैं.
जब विवेकानंद को ध्यान से पढ़ते हैं तो ऐसा लगता है कि उनके धर्म संबंधी विचार थोड़े जटिल हैं. यह भारतीय जीवन का केंद्रीय तत्व है. भारत की राष्ट्र रूपी इमारत की बुनियाद स्वामी विवेकानंद के इन्हीं विचारों ने रखी है, लेकिन वह यह भी कहते हैं कि धर्म सामाजिक सुधार का शत्रु है. भारत जातीयता का दंश झेल रहा है, पर इसे स्वीकार नहीं करता है. स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि अगर ब्राह्मणों के पास आनुवांशिक आधार पर ही सीखने की योग्यता अछूतों से अधिक है तो फिर ब्राह्मणों की शिक्षा पर धन मत खर्च करो, सारा धन अछूतों की शिक्षा पर खर्च करो, उन्हीं को इसकी ज़रूरत है. विवेकानंद का ब्राह्मण विरोधी विचार का़फी मज़बूत है. जैसा कि वह भारत में मुसलमानों के आगमन के बारे में लिखते हैं कि भारत पर मुस्लिमों का आक्रमण इस कारण संभव हुआ, क्योंकि ब्राह्मणों ने भारतीयों को सांस्कृतिक एकता प्रदान नहीं की. हज़ारों वर्षों तक इन्होंने लोगों के लिए खज़ाना नहीं खोला और सभी आक्रमणकारी भारत को अपने पैरों तले रौंदते रहे. 20वीं सदी के मध्य में राजनीतिक हिंदूवाद रूढ़िवादी हो गया और जातिवाद की समाप्ति, जिसे सुधार का मुख्य आधार होना चाहिए था, को ऐसे ही छोड़ दिया गया. हम लोग अभी तक इसकी क़ीमत चुका रहे हैं. हर दिन दलित महिलाओं और पुरुषों के ऊपर हो रहे अत्याचार की खबर आती है. स्वामी लोग अब इस देश में स़िर्फ पूजे जाते हैं. न तो उन्हें पढ़ा जाता है और न गंभीरता से लिया जाता है.

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बुधवार, 27 जुलाई 2011

शिखर पर तथागत अवतार तुलसी( tathagat avtar tulsi)




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Tue Jul 13 2010 18:25:16 GMT+0530 (India Standard Time)
बाइस वर्ष के तथागत अवतार तुलसी की उपलब्धियां किसी करिश्मे से कम नहीं हैं। जिस उम्र में हमारे देश के बच्चे आम तौर पर अपनी पढ़ाई पूरी करने में लगे होते हैं और रोजी-रोजगार के लिए सोचना शुरू करते हैं,उस उम्र में तथागत ने लाखों स्टूडेंट्स को दिशा दिखाने का जिम्मेदारी भरा काम संभाल लिया है। वह आईआईटी मुंबई में फिजिक्स पढ़ाने जा रहा है। इस तरह वह देश का सबसे कम उम्र का प्रोफेसर बन गया है।

पटना में पैदा हुए तथागत ने मात्र 9 साल की उम्र में दसवीं, 12 साल की उम्र में बीएससी और 13 साल की उम्र में एमएससी की परीक्षा पास की। फिर उसने 21 वर्ष की उम्र में क्वांटम कंप्यूटरिंग में इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस से पीएचडी की डिग्री हासिल की। लेकिन तथागत की एक उपलब्धि शायद इन सब से ज्यादा है। उसने कनाडा की एक यूनिवर्सिटी का आकर्षक ऑफर ठुकरा कर और भारत में काम करने का निर्णय कर देशवासियों का दिल जीत लिया। उसने साबित किया कि उसके पास भौतिकी और गणित के जटिल सवालों से टकराने की सूझ के साथ-साथ व्यापक सामाजिक दृष्टि भी है। वह अपने देश में रहकर काम करने को अपनी जवाबदेही के तौर पर देखता है। उसका मानना है कि अगर भारत में रह कर काम किया जाए तो ऐसा भी दिन आएगा, जब हमारी आने वाली पीढ़ी को अपनी प्रतिभा साबित करने के लिए विदेशों का रुख़ नहीं करना पड़ेगा।

तथागत का कहना है कि ज्यादातर लोग पैसे के कारण विदेश जाते हैं। लेकिन उसके लिए पैसे से ज्यादा अहम है सरोकार। यही बात तथागत को खास बनाती है। वह क्वांटम कंप्यूटर पर काम कर रहा है। वह सुपर फास्ट कंप्यूटर बनाना चाहता है। जरूरत इस बात है कि तथागत को प्रोत्साहन दिया जाए, तमाम सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएं। वैसे तथागत इस मामले में जरूर सौभाग्यशाली रहा कि उसकी प्रतिभा को उसके परिवार ने जल्दी ही पहचाना और उसके पिता ने हर कदम पर उसका साथ दिया। प्राय: मध्यमवर्गीय परिवार इस मामले में उदासीन रहते हैं। अपने बच्चों को निर्धारित पैटर्न से बाहर निकलने देने का साहस मां-बाप अक्सर नहीं दिखा पाते। शायद यही वजह है कि कई बच्चों के भीतर मौजूद कुछ असाधारण बात दबी रह जाती है। तथागत आज शिखर पर है, पर अभी उसे बहुत आगे जाना है। उससे लोगों की अपेक्षाएं बहुत बढ़ गई हैं। आशा की जानी चाहिए कि वह अपने और देश के सपने जरूर पूरे करेगा।

तथागत तुलसी का तेज दिमाग प्रोग्रामिंग का नतीजा है



[ Posted On Fri 23 Jul 10, 8 : 45 AM]
मुंबई, 12 साल में एमएससी, 21 साल में पीचएडी और 22 साल में प्रोफेसरी करने वाले तथागत अवतार तुलसी के बारे में कहना है कि उनका तेज दिमाग ‘प्रोग्रामिंग’ की देन है। ऐसा उनके पिता प्रोफेसर तुलसी नारायण का दावा है। वह यहां तक कहते हैं कि कोई भी इस तरह की ‘प्रोग्रामिंग’ कर जीनियस दिमाग वाला बच्‍चा पा सकता है। तथागत अवतार तुलसी के माता-पिता के चेहरे पर तब मुस्कान बिखर गई थी जब उनके बेटे को 2003 में दुनिया सात सबसे प्रतिभाशाली युवाओं में शामिल किया गया था। हालांकि तुलसी के माता-पिता ने उसके जन्म से पहले ही यह तय कर लिया था कि तुलसी जीनियस होगा।
अगर तथागत के परिजनों के दावों में दम है तो आज के ज़माने में तुलसी को प्रोग्राम्ड चाइल्ड कहा जाएगा। मूल रूप से बिहार के रहने वाले तथागत अवतार तुलसी के पिता प्रोफेसर तुलसी नारायण प्रसाद सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस करते हैं। और वे ज्योतिषीय-अनुवांशिकी (एस्ट्रो-जेनेटिक्स) में गहरा यकीन रखते हैं। लेकिन उनका दावा है कि कुछ दशक पहले जब उन्होंने यह कहा था कि जन्म लेने वाले बच्चे का लिंग निर्धारित किया जा सकता है तब उनका सिद्धांत खारिज कर दिया गया था और मानो जमाना उनका दुश्मन बन गया था।
लेकिन प्रसाद ने तब अपने सिद्धांत को सही साबित करने की ठान ली थी। इसके बाद प्रसाद एक लड़के के पिता बने और अपनी थियरी को सही साबित करने की कोशिश की। लेकिन आलोचकों ने मेरी एक न सुनी। आलोचकों ने तब भी मेरी थियरी को यह कहकर खारिज कर दिया था कि यह भगवान की देन है। फिर मैंने निश्चय किया कि मैं एक बार फिर लड़के का पिता बनूंगा। और, जब मैं फिर लड़के का पिता बना तो लोग चुप हो गए। उसी वक्त मेरे दिमाग में खयाल आया कि क्यों न किसी मेधावी पुत्र का पिता बना जाए।
हालांकि एस्ट्रोजेनेटिक्स को लेकर बहुत प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। आमतौर पर अनुवांशिकी और ज्योतिष का कोई सीधा संबंध स्थापित नहीं होता है। यही वजह है कि प्रसाद के दावों को लेकर दो तरह की बातें सामने आ रही हैं। कुछ लोग उनकी इस थियरी से सहमत हैं और कुछ लोग उसे बकवास बता रहे हैं। प्रसाद की इस थियरी को लेकर रहस्य बरकरार है। विज्ञान या बयान?
तुलसी प्रसाद ने कहा कि यह एक विज्ञान है। उन्होंने कहा कि हमारे वैदिक साहित्य में ऐसा जिक्र है। प्रसाद के मुताबिक अगर हम इस सिद्धांत को सही तरीके से लागू करें तो हमें ऐसे ही नतीजे मिलेंगे। उनका कहना है कि मनुष्य का शरीर एक संपूर्ण संस्थान है। प्रकृति ने हमारे शरीर को नेमतें बख्शी हैं। शरीर में जरूरी रसायनों के उत्पादन के लिए ग्रंथियां हैं, जिन्हें अपनी मर्जी के मुताबिक संचालित किया जा सकता है। उन्होंने आगे बताया मुझे और मेरी पत्नी को बच्चे के गर्भ में आने से लेकर जन्म तक खान-पान और सेक्स को लेकर हमारे मूड का ध्यान रखना पड़ा। हालांकि, तथागत के पिता के इस बयान को लेकर बंटी हुई प्रतिक्रिया आ रही हैं।

रचनात्मक ऊर्जा से भरपूर हैं खुशवंत सिंह: महेश भट्ट


रचनात्मक ऊर्जा से भरपूर हैं खुशवंत सिंह: महेश भट्ट विवादों में रहने वाले लेखक खुशवंत सिंह अपनी साफगोई और बेखौफ फितरत के लिए जाने जाते हैं। अंग्रेजी-हिंदी में समान रूप से पढे जाने वाले खुशवंत 94 की उम्र में भी युवा ऊर्जा एवं रचनात्मकता से भरपूर हैं। हमेशा कुछ न कुछ करते रहना इन्हें अच्छा लगता है। यूं तो इनकी जिंदगी एक खुली किताब की तरह रही है, लेकिन इनके जीवन के कुछ ऐसे पहलू भी हैं, जो पूरी तरह दुनिया के सामने नहीं आए। इनके व्यक्तित्व के चंद पहलुओं पर रोशनी डाल रहे हैं निर्माता-निर्देशक महेश भट्ट।
हमारी सभ्यता मुनाफेपर चलती है। समाज में उसी की इज्जत व शोहरत होती है, जो मुनाफा ला सके। इसलिए जब कोई वृद्ध मुनाफे में सहायक नहीं होता तो उसे इतिहास के डस्टबिन में डाल कर समाज भूल जाता है। इसी कारण मानव सभ्यता के आरंभिक काल से जीवन के अंतिम 15-20 वर्षो के प्रति लोग डरे रहते हैं। माना जाता है कि जीवन के अंतिम वर्षो में हमारे दिल-ओ-दिमाग में क्रिएटिविटी की धधकती आग बुझने लगती है। रचनाकारों की वास्तविक मौत से पहले सृजनात्मक मौत हो जाती है। यह बात ज्यादातर लोगों के बारे में सच हो सकती है, लेकिन एक व्यक्ति ने इसे झुठला दिया है। उनका नाम खुशवंत सिंह है।
इतिहासकार, लेखक, स्तंभकार व लतीफेबाज, चाहे जिस नाम से भी पुकारें। सच तो यह है कि 94 की उम्र में भी वे जिंदा ज्वालामुखी की तरह हैं, जो हमेशा ऊर्जावान रहते हैं। उनके लेख-स्तंभ आज भी प्रकाशक छापते हैं, वे बेस्ट-सेलर की तरह बिकते हैं।
स्थिर बैठना फितरत नहीं
1950 में उनका पहला कथा संकलन छपा था। तब से उन्होंने द हिस्ट्री ऑफ सिख समेत दर्जनों किताबें लिखी हैं। हाल ही में उनकी किताब ह्वाई आई सपोर्टेड द इमरजेंसी: एसेज एंड प्रोफाइल छप कर आई है।
अधिकतर लोग नहीं जानते कि खुशवंत सिंह पत्रकारिता में अपने जीवन के छठे दशक में आए। एक इंटरव्यू में उन्होंने स्वीकार किया था, मेरा सबसे बडा पाप यह है कि मैं स्थिर बैठना नहीं जानता। किसी बेचैन नदी की तरह हैं वे। बेचैन नदी बहती है और करोडों व्यक्तियों को जिंदगी देती है। इस रहस्यमय सरदार की बेचैन आत्मा लिखती है और करोडों पाठकों को इस जटिल दुनिया को समझने की अंतदर्ृष्टि देती है।
उनसे मेरी पहली मुलाकात 1973 में टाइम्स ऑफ इंडिया की एक पुरानी लिफ्ट में हुई थी। मेरी पहली फिल्म मंजिलें और भी हैं बुरी तरह सेंसर में फंस चुकी थी। रफीक जकारिया की बेटी तसनीम मुझे लेकर उनके पास गई थीं। हम उन्हें राजी करना चाहते थे कि वे मेरी फिल्म के प्रिव्यू में आएं और उसके बारे में इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया में लिखें। उनसे मिलकर खुशी हुई थी। उन्होंने मुझसे कहा, हमें सेंसरशिप का विरोध करना चाहिए। मैं फिल्म देखने के लिए किसी को भेजूंगा।
करियर का उत्कर्ष
खुशवंत ने 1969 में इलस्ट्रेटेड वीकली की कमान संभाली थी। उसके पहले वे अमेरिका में तुलनात्मक धर्म और समकालीन भारत का अध्यापन करते थे। तब वीकली में शादी की तस्वीरें छपती थीं। उन्हें मालूम था कि वे क्या चाहते हैं? खुशवंत को फॉर्म में आने में दो से तीन महीने लगे। उन्होंने वीकली का लुक व फील बदल दिया। उन्होंने तीन फॉर्मूलों का सटीक पालन किया- सूचना दो, चौंकाओ व उत्तेजित करो। इन फार्मूलों ने नतीजे भी दिए।
खुशवंत सिंह ने वीकली को देश के अंग्रेजी पढने-लिखने वालों की साप्ताहिक आदत बना दिया था। वीकली में रॉक एन रोल, वियतनाम युद्ध के विरोध, समांतर संस्कृति और मुक्ति की तलाश में भटक रहे हिप्पियों को जगह मिलने लगी। गोवा में बिकनी पहनी लडकियों की तसवीरों ने सभी को चौंका दिया था। टैबलॉयड जर्नलिज्म की सनसनी थी उनमें, लेकिन उन तसवीरों से यह साफ झलक मिल रही थी कि युवा उस समय क्या सोच रहे थे। खुशवंत के संपादन काल में ही यह टैबलॉयड संस्कृति बढी। उन्होंने कवर पर कम वस्त्रों में फिल्म सिद्धार्थ की सिमी ग्रेवाल को छापा। उस अंक ने देश में हंगामा मचा दिया था। वीकली का सर्कुलेशन बढ गया था।
सच बोलने की हिम्मत
खुशवंत ने वीकली का सर्कुलेशन 60,000 से बढाकर चार लाख तक पहुंचा दिया। आलोचक भी मानते हैं कि उनमें वह सब करने की हिम्मत थी, जिनके बारे में बाकी संपादक सपने में भी नहीं सोच सकते थे। उन्होंने खुल कर लिखा और जीवन के सूर्यास्त में भी वही काम कर रहे हैं। वह खुद को धार्मिक नहीं, सांस्कृतिक सिख कहते हैं। उनमें आजादी के बाद देश को टुकडे करने वाली ताकतों के खिलाफ अकेले खडे होने की हिम्मत थी। उन्होंने अतिवादियों का विरोध किया। एक बार उन्होंने जिंदगी दांव पर लगा कर दिल्ली में दो ऐसे मुसलमानों की रक्षा की, जिन पर गोहत्या का आरोप था और भीड ने उन्हें मारने के लिए घेर लिया था। यह भारत-पाकिस्तान विभाजन के कुछ दिनों बाद की बात है। मैं इन दोनों को छूने नहीं दूंगा। वे निर्दोष हैं। आप चाहें तो पुलिस में रिपोर्ट कर सकते हैं। आप उनसे मारपीट नहीं कर सकते। ऐसी हत्याएं बंद होनी चाहिए। उन्होंने अकेले भीड से बात की। भीड के लौटने के बाद खुशवंत घर लौटे तो उन्हें जबर्दस्त डांट पडी। घर वालों ने पूछा, हीरो बनने की क्या जरूरत थी? लेकिन खुशवंत को कोई डर नहीं था। वे समझते थे कि बुरे वक्त में सभी भारतीयों को यही करना चाहिए।
खुशवंत ने खालिस्तान के पैरोकारों की खुली आलोचना की। उन्होंने जरनैल सिंह भिंडरावाले को नरसंहार के लिए उतावला कहा। इस बयान से वे मुश्किल में फंस गए थे। आतंकवादियों ने उन्हें जान से मारने की धमकी दी। लगभग दस सालों तक उनके घर के बाहर सुरक्षाकर्मी तैनात रहे, लेकिन प्रतिक्रियावादियों के खिलाफ वे लिखते रहे। मैंने दक्षिणपंथियों के खिलाफ बात की तो उन्होंने मेरा समर्थन किया। मेरे सिख दोस्त बताते हैं कि सिख धर्म से उन्हें जुडाव है। उन्होंने ऑपरेशन ब्लूस्टार के बाद मिले पद्मश्री को लौटा दिया और स्वर्ण मंदिर में सेना भेजने के लिए इंदिरा गांधी की आलोचना की।
आलोचनाओं का दौर
खुशवंत की दो आलोचनाएं होती हैं। उनका जिक्रकरना जरूरी समझता हूं। एक तो वे इंदिरा और संजय गांधी के कट्टर समर्थक रहे और उन्होंने इमरजेंसी का अक्षम्य समर्थन किया। दूसरी, अभिव्यक्ति की आजादी के समर्थक उन्हें सलमान रूश्दी की पुस्तक द सैटेनिक वर्सेज पर लगी पाबंदी का जिम्मेदार मानते हैं। उनके मुताबिक राजीव गांधी ने उनसे आग्रह किया था कि वे किताब पढकर बताएं कि इस पर पाबंदी लगनी चाहिए कि नहीं? उन्होंने किताब पढकर उस पर पाबंदी लगाने की सिफारिश की। इस खबर पर अयातुल्लाह खुमैनी ने रूश्दी के खिलाफफतवा जारी किया। खुशवंत के करीबी कहते हैं कि उन्होंने पेंगुइन इंडिया से कहा था कि द सैटैनिक वर्सेज की वजह से दंगे हो सकते हैं। उन्होंने लिखा है, पेंग्विन को एक सलाहकार की हैसियत से मैंने द सैटेनिक वर्सेज न छापने की सलाह दी, क्योंकि इसके छपने से हिंसा हो सकती है। मैं द सैटेनिक वर्सेज पर पाबंदी के खिलाफ था। जो नहीं पढना चाहते, वे न पढें। लेकिन धार्मिक सनक व कट्टरता का क्या करेंगे? पेंगुइन ने किताब प्रकाशित की होती तो उसके दफ्तर में तोड-फोड होती, कर्मचारियों को मारा जाता। लेकिन कई लोग इस वक्तव्य से संतुष्ट नहीं हैं। उनका मानना है कि वे खुद को विवाद से अलग रख सकते थे। उनके एक आलोचक कहते हैं, खुशवंत ने सत्ता के करीब रहने के लोभ में किताब पर पाबंदी लगाने की सिफारिश की। वे अभिव्यक्ति की आजादी के समर्थक थे या नहीं, इससे पता चल जाता है।
कुछ तो खास है
लोग कहते हैं कि जिंदगी परफेक्ट नहीं हो, तभी चकित करती है। आरोपों के बावजूद इसमें शक नहीं कि वह विशेष हैं, राष्ट्रीय धरोहर हैं और हम जैसे व्यक्तियों के आदर्श हैं। उनकी जिंदगी में झांकने पर पता चलता है कि सही चैंपियन वही है, जो अंतिम लक्ष्य तक पहुंचने की सदियों पुरानी धारणा को नहीं मानता। खुशवंत जैसे व्यक्ति सैकडों लक्ष्यों को छूना चाहते हैं, लेकिन उनकी कोई मंजिल नहीं है। वे जज्बे-जुनून के साथ जीते व काम करते हैं। इकबाल के शब्दों में खुशवंत सिंह की जिंदगी और सफर के बारे में कहा जा सकता है कि-
ढूंढता फिरता हूं मैं इकबाल अपने आपको
आप ही गोया मुसाफिर, आप ही मंजिल हूं मैं।
महेश भट्ट

सेक्सी सरदार-ख़तरनाक 'सेक्सुअल टेरेरिस्ट' हैं खुशवंत सिंह

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अतुल अग्रवालअतुल अग्रवाल और खुशवंत सिंह का बहुत गहरा नाता होता जा रहा है,जहा एक जाना जाता है फालतू की बकबास और अश्लीलता के लिए तो दूसरा जाना जाता है उसके विरोध के लिए.जी हाँ हम बात कर रहे है अतुल अग्रवाल जी की जिन्होंने खुशवंत सिंह के गैर सामाजिक लेखों का एक सटीक शैली में विरोध किया था..तो आपके सामने एक बार फिर हाजिर है उसी सटीकता के साथ लिखा गया एक और लेख इस मुद्दे पर आप अपनी राय दे सकते है की क्या सच में खुशवंत सिंह कुछ अच्छा काम कर रहा है या फिर अतुल अग्रवाल का विरोध करना नाजायज है?आकी राय को प्रकाशित किया जायेगा!

मशहूर लेखक खुशवंत सिंह सुधर नहीं सकते। अब मुझे इसका यकीन हो चला है। कहते हैं उम्र के आखिरी पड़ाव में इंसान भगवान को याद करता है और पूजा-पाठ तथा ईश-भक्ति कर अपने पापों के लिए क्षमा मांगता है ताकि उसका परलोक सुधर सके। लेकिन यहां तो उल्टी ही गंगा बह रही है। क्षमा मांगने की तो छोड़िए जनाब, पाप पर पाप किए जाने की लत लगातार बदतर होती जा रही है। दिन-ब-दिन वयोवृद्ध लेखक की ठरक नई-नई हदें बनाती और लांघती जा रही है। ऐसा लग रहा है कि 93 साल की इस कंपकंपाती उम्र में खुशवंत सिंह साहब ने कसम खा ली है कि जनाब वो सभी पाप अभी ही कर लेंगे जो उन्होने ताउम्र नहीं किए या नहीं कर पाए। तभी तो अपनी लंपटता की नई-नई मिसालें देते अघा नहीं रहे हैं वो। वो खुद को भारत का 'अकेला बास्टर्ड' कहवाने में भी गर्व महसूस करते हैं। कोई अगर उन्हे 'पाकिस्तानी रंडी की औलाद' कहे तो भी उनका खून उबाल नहीं मारता और वो मुस्कुराते हुए इसे कुबूल कर लेते हैं। न सिर्फ इस गंदी गाली को सिर-माथे पर लेते हैं बल्कि अपने तमाम जानने वालों को दिखा कर खुश भी होते हैं।
सवाल ये है कि क्या कोई भी गैरतमंद इंसान अपने होशोहवास में इतनी गलीज़ बात सोच अथवा कह सकता है? मैं अपने पाठकों से पूछता हूं कि अगर मैं आपको 'पाकिस्तानी रंडी की औलाद' या 'पाकिस्तानी कुत्ता' या 'लंपट' कहूं तो क्या आपको मुझ पर क्रोध नहीं आएगा? क्या आपका जी नहीं करेगा कि झपट कर मेरा मुंह नोच लें? तो फिर इतनी भद्दी-भद्दी गालियां सुनने या पढने के बावजूद खुशवंत सिंह को खुद पर रश्क क्यों नहीं आता? सवाल ये भी है कि क्या वाकई खुशवंत सिंह अपने होशो-हवास में हैं? या वो इस सूत्र पर अमल कर रहे हैं कि 'बदनाम हुए तो क्या, नाम न होगा'। 'नेगेटिव पब्लिसिटी' को आत्मसम्मान मानने के फेर में तो कहीं खुशवंत ऐसी ऊल-जुलूल बातें नहीं लिख देते? कहीं ये खुशवंत सिंह का 'शाब्दिक आतंकवाद' तो नहीं? कहीं अतृप्त यौन कुंठाओं के शिकार होकर 'सेक्सुअल टेरेरिस्ट' तो नहीं बन गए हैं खुशवंत सिंह? ज़ाहिरा तौर पर इन सवालों के जवाब तलाशे जाने होंगे।
2 मई के 'दैनिक हिंदुस्तान' अख़बार में अपने कॉलम में खुशवंत सिंह ने मेरे लेख का जवाब दिया। ये लेख मैनें खुशवंत सिंह के 18 अप्रैल को लिखे लेख के जवाब में http://www.hindikhabar.com/ पर लिखा था। शीर्षक था 'खुशवंत सिंह की अतृप्त यौन फड़फड़ाहट' (http://www.hindikhabar.com/article_details.php?NewsID=127) इस लेख में मैनें खुशवंत सिंह को 'ठरकी खुशवंत' कहा और उसके पीछे प्रमाणिक तर्क दिए। तर्क ऐसे अकाट्य तथ्यों पर आधारित थे कि खुद खुशवंत सिंह साहब उन्हे गलत नहीं साबित कर सकते थे और न ही उन्होने ऐसा करने का ख़तरा मोल लिया।
अपने ताज़ा लेख में खुशवंत सिंह ने खुद पर गर्व करते हुए कहा है कि "मुझे हमेशा से ही नफरत भरी चिट्ठियां मिलती रही हैं। आमतौर पर मुझे इस तरफ की चिट्ठियां तब आती हैं जब मैं हिंदुस्तान-पाकिस्तान पर कुछ लिखता हूं। या अपने देश में मुसलमानों की दिक्कतों पर लिखने की कोशिश करता हूं। इन चिट्ठियों में अमूमन ये सलाह होती है कि 'पाकिस्तान लौट जाओ' या गालियां होती हैं 'पाकिस्तानी कुत्ते' या 'पाकिस्तानी रंडी की औलाद'। मैं इन्हे संभाल कर रखता हूं और अपने यहां आने वालों को दिखलाता हूं।" खुशवंत आगे लिखते हैं कि "पिछले कुछ महीनों से मुझे ऐसी गालियों भरी चिट्ठियां जब नहीं मिलीं तो मुझे लगा कि मैं लिखने में कुछ गड़बड़ कर रहा हूं और तभी अचानक नफ़रत भरी चिट्ठियों की 'ऑस्कर' आई।"
खुशवंत सिंह ने खुद अपने ठरकपन को उजागर करते हुए लिखा है कि "मैनें अपने एक कॉलम में 4 औरतों के बारे में लिखा था। मुसलमानों से उनकी नफरत को मैनें उनकी ज़िंदगी में सेक्स से जोड़ा था, उनमें उमा भारती भी थीं। उमा ने मुझे हिंदी में चिट्ठी लिखी है। मुझे औरतों के खिलाफ साबित कर दिया है। काश, ये सच होता। मैं तो औरतों को चाहने के चक्कर में बदनाम हूं।" लगे हाथों वो उमा भारती और उनके 'किस के किस्से' को भी कुरेदने से बाज़ नहीं आते।





देखिए आप, खुशवंत सिंह को कितनी बड़ी खुशफहमी है? 93 साल का ये धूर्त इंसान किस हद तक मक्कारी कर रहा है? पहले 4 हिंदू औरतों का मान-मर्दन करता है और बाद में उसे सही करार देने की कुत्सित कोशिश भी करता है? उसे शर्म नहीं आती कि जिन औरतों के बारे में वो अभद्र भाषा का इस्तेमाल कर रहा है अगर उनकी जगह उसके अपने घर की औरतें होतीं तो? क्या तब भी वो इसी तरह से यौन-आतंकवाद का मुज़ाहिरा करता? आखिर अपनी बेटी, बहू अथवा पत्नी के बारे में खुशवंत सिंह ऐसी गंदी बातें क्यों नहीं लिखते? अगर खुशवंत सिंह में हिम्मत है और वो खुद के बड़ा 'तीस मार खां' लेखक होने का ढिंढोरा पीटने का दम भरते फिरते हैं तो अपने परिवार की औरतों के बारे में ऐसी ऊट-पटांग बातें लिख कर दिखाएं। उन्ही के घर की औरतें मार-मार कर उन्हे घर के बाहर फेंक देंगी और फिर लोग कहेंगे कि धोबी का कुत्ता, न घर का न घाट का।

गद्दारी को ये कैसा सम्मान

बुधवार, २७ जुलाई २०११


खुशवंत सिंह के पिता ने दिलवाई थी भगत सिंह को फांसी: दिल्ली सरकार देगी ‘सम्मान



शहीद-ए-आज़म भगत सिंह की एक दुर्लभ तस्वीर
शहीद-ए-आज़म भगत सिंह के बलिदान को शायद ही कोई भुला सकता है। आज भी देश का बच्चा-बच्चा उनका नाम इज्जत और फख्र के साथ लेता है, लेकिन दिल्ली सरकार उन के खिलाफ गवाही देने वाले एक भारतीय को मरणोपरांत ऐसा सम्मान देने की तैयारी में है जिससे उसे सदियों नहीं भुलाया जा सकेगा। यह शख्स कोई और नहीं, बल्कि औरतों के विषय में भौंडा लेखन कर शोहरत हासिल करने वाले लेखक खुशवंत सिंह का पिता ‘सर’ शोभा सिंह है और दिल्ली सरकार विंडसर प्लेस का नाम उसके नाम पर करने का प्रस्ताव ला रही है।

 भगत सिंह का घर
भारत की आजादी के इतिहास को जिन अमर शहीदों के रक्त से लिखा गया है, जिन शूरवीरों के बलिदान ने भारतीय जन-मानस को सर्वाधिक उद्वेलित किया है, जिन्होंने अपनी रणनीति से साम्राज्यवादियों को लोहे के चने चबवाए हैं, जिन्होंने परतन्त्रता की बेड़ियों को छिन्न-भिन्न कर स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त किया है तथा जिन पर जन्मभूमि को गर्व है, उनमें से एक थे — भगत सिंह।
यहां तक कि जवाहरलाल नेहरू ने भी अपनी आत्मकथा में यह वर्णन किया है– भगत सिंह एक प्रतीक बन गया। सैण्डर्स के कत्ल का कार्य तो भुला दिया गया लेकिन चिह्न शेष बना रहा और कुछ ही माह में पंजाब का प्रत्येक गांव और नगर तथा बहुत कुछ उत्तरी भारत उसके नाम से गूंज उठा। उसके बारे में बहुत से गीतों की रचना हुई और इस प्रकार उसे जो लोकप्रियता प्राप्त हुई वह आश्चर्यचकित कर देने वाली थी।
जब दिल्ली में भगत सिंह पर अंग्रेजों की अदालत में मुकद्दमा चला तो भगत सिंह के खिलाफ गवाही देने को कोई तैयार नहीं हो रहा था। बड़ी मुश्किल से अंग्रेजों ने दो लोगों को गवाह बनने पर राजी कर लिया। इनमें से एक था शादी लाल और दूसरा था शोभा सिंह। मुकद्दमे में भगत सिंह को उनके दो साथियों समेत फांसी की सजा मिली।
 'सर' शादी लाल
इधर  दोनों को वतन से की गई इस गद्दारी का इनाम भी मिला। दोनों को न सिर्फ सर की उपाधि दी गई बल्कि और भी कई दूसरे फायदे मिले। शोभा सिंह को दिल्ली में बेशुमार दौलत और करोड़ों के सरकारी निर्माण कार्यों के ठेके मिले जबकि शादी लाल को बागपत के नजदीक अपार संपत्ति मिली। आज भी श्यामली में शादी लाल के वंशजों के पास चीनी मिल और शराब कारखाना है। यह अलग बात है कि शादी लाल  को गांव वालों का ऐसा तिरस्कार झेलना पड़ा कि उसके मरने पर किसी भी दुकानदार ने अपनी दुकान से कफन का कपड़ा भी नहीं दिया। शादी लाल के लड़के उसका कफ़न दिल्ली से खरीद कर लाए तब जाकर उसका अंतिम संस्कार हो पाया था।
शोभा सिंह अपने साथी के मुकाबले खुशनसीब रहा। उसे और उसके पिता सुजान सिंह (जिसके नाम पर सुजान सिंह पार्क है) को राजधानी दिल्ली में हजारों एकड़ जमीन मिली  और खूब पैसा भी। उसके बेटे खुशवंत सिंह ने शौकिया तौर पर पत्रकारिता शुरु कर दी और बड़ी-बड़ी हस्तियों से संबंध बनाना शुरु कर दिया। सर सोभा सिंह के नाम से एक चैरिटबल ट्रस्ट भी बन गया जो अस्पतालों और दूसरी जगहों पर धर्मशालाएं आदि बनवाता तथा मैनेज करता है। आज  दिल्ली के कनॉट प्लेस के पास बाराखंबा रोड पर जिस स्कूल को मॉडर्न स्कूल कहते हैं वह शोभा सिंह की जमीन पर ही है और उसे सर शोभा सिंह स्कूल के नाम से जाना जाता था।  खुशवंत सिंह ने अपने संपर्कों का इस्तेमाल कर अपने पिता को एक देश भक्त और दूरद्रष्टा निर्माता साबित करने का भरसक कोशिश की।
 खुशवंत सिंह की हवेली

 मॉडर्न स्कूल खुशवंत सिंह

 'सर' सोभा सिंह
खुशवंत सिंह ने खुद को इतिहासकार भी साबित करने की कोशिश की और कई घटनाओं की अपने ढंग से व्याख्या भी की। खुशवंत सिंह ने भी माना है कि उसका पिता शोभा सिंह 8 अप्रैल 1929 को उस वक्त सेंट्रल असेंबली मे मौजूद था जहां भगत सिंह और उनके साथियों ने धुएं वाला बम फेका था। बकौल खुशवंत सिह, बाद में शोभा सिंह ने यह गवाही तो दी, लेकिन इसके कारण भगत सिंह को फांसी नहीं हुई। शोभा सिंह 1978 तक जिंदा रहा और दिल्ली की हर छोटे बड़े आयोजन में बाकायदा आमंत्रित अतिथि की हैसियत से जाता था। हालांकि उसे कई जगह अपमानित भी होना पड़ा लेकिन उसने या उसके परिवार ने कभी इसकी फिक्र नहीं की। खुशवंत सिंह का ट्रस्ट हर साल सर शोभा सिंह मेमोरियल लेक्चर भी आयोजित करवाता है जिसमे बड़े-बड़े नेता और लेखक अपने विचार रखने आते हैं, बिना शोभा सिंह की असलियत जाने (य़ा फिर जानबूझ कर अनजान बने) उसकी तस्वीर पर फूल माला चढ़ा आते हैं।

 मेल टुडे में छपा कार्टून
अब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और खुशवंत सिंह की नज़दीकियों का ही असर कहा जाए कि दोनों एक दूसरे की तारीफ में जुटे हैं। प्रधानमंत्री ने बाकायदा पत्र लिख कर दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित से अनुरोध किया है कि कनॉट प्लेस के पास जनपथ पर बने विंडसर प्लेस का नाम सर शोभा सिंह के नाम पर कर दिया जाए।

साहिर लुधियानवी ,जावेद अख्तर और 200 रूपये

 एक दौर था.. जब जावेद अख़्तर के दिन मुश्किल में गुज़र रहे थे ।  ऐसे में उन्होंने साहिर से मदद लेने का फैसला किया। फोन किया और वक़्त लेकर उनसे...