बुधवार, 12 सितंबर 2012

भूल गए राधाकृष्ण को



संजय कृष्ण :  राधाकृष्ण को हमारे हिंदी लेखकों ने उनकी जन्मशताब्दी पर भी याद नहीं किया। जाहिर है, वे किसी ऐसे गुट के नहीं थे, जो उन्हें याद करता। हिंदी साहित्य जगत में गुटबाजी का ऐसा आलम है कि हम उन्हें याद भी नहीं करते, न जन्म तिथि पर पुण्य तिथि पर। वे ऐसे कथाकार थे, जिन्हें प्रेमचंद पुत्र की तरह प्रेम करते थे, गुरबत के दिनों में उनका खर्च चलाते थे और जब प्रेमचंद का निधन हुआ तो राधाकृष्ण 'हंसÓ को संभालने रांची से बनारस चले गए थे। इनकी कथा-प्रतिभा को देखकर प्रेमचंद ने कहा था 'यदि हिंदी के उत्कृष्ट कथा-शिल्पियों की संख्या काट-छांटकर पांच भी कर दी जाए तो उनमें एक नाम राधाकृष्ण का होगा।Ó
  राधाकृष्ण का जन्म रांची के अपर बाजार में 18 सितंबर 1910 को हुआ था और निधन 3 फरवरी 1979 को। उनके पिता मुंशी रामजतन मुहर्रिरी करते थे। उनकी छह पुत्रियां थीं और एक पुत्र राधाकृष्ण, जो बहुत बाद में हुए। पर, राधाकृष्ण के साथ यह क्रम उलट गया यानी राधाकृष्ण को पांच पुत्र हुए व एक पुत्र। राधाकृष्ण जब चार साल की उम्र के थे तो उनके पिता का निधन हो गया। 1942 में इनकी शादी हुई। उनके निधन के सत्रह साल बाद उनकी पत्नी का देहांत भी 1996 में हुआ। 
 अपनी गुरबत की जिंदगी के बारे में उन्होंने लिखा है, 'उस समय हम लोग गरीबी के बीच से गुजर रहे थे। पिताजी मर चुके थे। घर में कर्ज और गरीबी छोड़ कुछ भी नहीं बचा था। न पहनने को कपड़ा और न खाने का अन्न।Ó अभावों में उनका बचपन बीता। चाह कर भी स्कूली शिक्षा नहीं मिल पाई। किसी तरह एक पुस्तकालय से पढऩे-लिखने का क्रम बना। कुछ दिन मुहर्रिरी सीखी। वहां मन नहीं लगा तो एक बस में कंडक्टर हो गए। 1937 में यह नौकरी भी छोड़ दी। लेकिन इसी दरम्यान कहानी लेखन में सक्रिय हो गए। सबसे पहले 1929 में उनकी कहानी छपी गल्प माला में। इस पत्रिका को जयशंकर प्रसाद के मामा अंबिका प्रसाद गुप्त निकालते थे। कहानी का शीर्षक था-सिन्हा साहब। इसके बाद तो माया, भविष्य, त्यागभूमि आदि पत्र-पत्रिकाओं में लगातार छपने लगे। प्रेमचंद राधाकृष्ण की प्रतिभा देख पहले ही कायल हो चुके थे। इसलिए हंस में भी राधाकृष्ण छपने लगे थे। जब प्रेमचंद का निधन हुआ तो शिवरानी देवी ने हंस का काम देखने के लिए रांची से बुला लिया। यहीं रहकर श्रीपत राय के साथ मिलकर 'कहानीÓ निकाली। पत्रिका चल निकली, लेकिन वे ज्यादा दिनों तक बनारस में नहीं रह सके। इसके बाद वे बंंबई गए और वहां कथा और संवाद लिखने का काम करने लगे। पर बंबई ने इनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर डाला और वे बीमार होकर रांची चले आए। फिर कभी उधर नहीं देखा। कुछ दिनों कलकत्ते में रहे। वहां मन नहीं लगा। इस बीच मां की मृत्यु ने इन्हें तोड़ दिया। अमृत राय ने लिखा हैै, 'मेरी पहली भेंट (राधाकृष्ण से) 1937 के किसी महीने में हुई। वो हमारे घर आए। हम लोग उन दिनों राम कटोरा बाग में रहते थे। हम दोनों ही उस समय बड़े दुखियारे थे। इधर, मेरे पिता को देहांत अक्तूबर 1936 में हुआ था और उधर लालबाबू (राधाकृष्ण को लोग इसी नाम से पुकारते थेे) की मां का देहांत उसी के दो चार महीने आगे-पीछे हुआ था। एक अर्थ में लालबाबू का दुख मेरे दुख से बढ़कर था, क्योंकि उनके पिता तो बरसों पहले उनके बचपन में ही उठ गए थे और फिर अपनी नितांत सगी एक मां बची थी, जिसके न रहने पर लालबाबू अब बिल्कुल ही अकेले हो गए थे।Ó
  राधाकृष्ण 1947 में बिहार सरकार की पत्रिका 'आदिवासीÓ के संपादक बनाए गए। इसका प्रकाशन केंद्र रांची ही था। पहले यह नागपुरी में निकली, लेकिन बाद में हिंदी में निकलने लगी। इस पत्रिका से राधाकृष्ण की एक अलग पहचान बनी। आदिवासियों को स्वर मिला। बाद में वे पटना आकाशवाणी में ड्रामा प्रोड्यूसर हो गए। जब रांची में आकाशवाणी केंद्र की स्थापना (27 जुलाई, 1957)हुई तो वे यहीं आ गए।
 बस कंडक्टरी से आकाशवाणी तक के सफर में गरीबी और अभावों ने कभी साथ नहीं छोड़ा। उन्होंने कभी हार नहीं मानी। लेखनी लगातार सक्रिय रही। उपन्यास, कहानी, नाटक, संस्मरण आदि का क्रम चलता रहा।
राधाकृष्ण ने अपनी कहानियों की लीक खुद ही बनाई। उस दौर में, जब कहानी के कई स्कूल चल रहे थे, प्रसाद की भाव व आदर्श से युक्त, प्रेमचंद की यथार्थवाद से संपृक्त, जैनेंद्र, अज्ञेय के साथ माक्र्सवादी विचारों से प्रभावित कहानियों का चलन था। पर राधाकृष्ण ने किसी भी बड़े नामधारी रचनाकारों का अनुसरण नहीं किया। न उनकी प्रतिभा से कभी आक्रांत हुए। उन्हें अपने जिए शब्दों, अनुभवों पर दृढ़ विश्वास था। आंखन देखी ही वे कहानियां लिखा करते थे। पर, कभी सुदूर देश की समस्या पर भी ऐसी कहानी लिख मारते थे, जैसे वह आंखों देखी हो। आदिवासियों के जीवन और उनकी विडंबना, सहजता और सरलता को भी अत्यंत निकट से जाना-समझा। यह भी देखा कि इनकी ईमानदारी का दिकू (बाहरी आदमी) कैसे लाभ उठाते हैं, उन्हें कैसे ठगते हैं। इसके साथ ही यह भी देखा कि आदिवासी कैसे अपने ही बनाए टोटमों में बर्बाद हो रहे हैं। उनकी 'मूल्यÓ कहानी ऐसी ही एक प्रथा से जुड़ी है। आदिवासियों के उरांव जनजाति में प्रचलित ढुकू प्रथा को लेकर लिखी गई है।  इसी तरह उनकी कहानी 'कानूनी और गैरकानूनीÓ जमीन से जुड़ी हुई है। लेखक की जिंदगी, वसीयतनामा, परिवर्तित, रामलीला, अवलंब, एक लाख सत्तानवे हजार आठ सौ अ_ïासी, कोयले की जिंदगी, गरीबी की दवा निम्र मध्य वर्ग से सरोकार रखने वाली कहानियां हैं। इंसानियत के स्खलन, आदमी की बदनीयती, संवेदनाओं का घटते जाना आदि को बहुत बेधक ढंग से प्रस्तुत करती हैं। विश्वनाथ मुखर्जी ने लिखा है, हिंदी में कुछ कहानियां आई हैं, जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता। गुलेरी जी की 'उसने कहा थाÓ, प्रेमचंदजी की 'मंत्रÓ, कौशिक जी की 'ताईÓ...रांगेय राघव की 'गदलÓ आदि कहानियां भुलाई जाने वाली नहीं हैं। ठीक उसी प्रकार राधाकृष्ण की 'एक लाख चौरासी हजार सात सौ छियासीÓ भी। अमृत राय ने भी माना कि 'अवलंबÓ और 'एक लाख चौरासी हजार सात सौ छियासीÓ जैसी कहानियां हिंदी में बहुत नहीं हैं।Ó
उनकी एक और कहानी जिसकी चर्चा या ध्यान लोगों का नहीं गया, वह है 'इंसान का जन्मÓ। श्रवणकुमार गोस्वामी ने भी राधाकृष्ण पर लिखे अपने विनिबंध में इस कहानी की चर्चा नहीं की है। बंगलादेश पर पाकिस्तानी फौजों के अत्याचार और बाद में भारतीय फौजों के आगे उनके सपर्मण को केंद्र में रखकर बुनी गई है यह कहानी। यह उनके किसी संग्रह में शामिल नहीं है। जबकि रामलीला, सजला (दो खंड), गेंद और गोल संग्रह हैं। इनमें कुल मिलाकर 56 कहानियां हैं। इसके अलावा फुटपाथ, रूपांतर, सनसनाते सपने, सपने बिकाऊ हैं आदि उनके प्रकाशित उपन्यास हैं। नाटक, एकांकी, बाल साहित्य भी अकूत हैं। उनकी ढेर सारी रचनाएं अप्रकाशित भी हैं। अपने समय की प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं में वे प्रकाशित होते रहे, जिनमें साप्ताहिक हिंदुस्तान, आजकल, कादंबिनी, नई कहानियां, विश्वमित्र, विशाल भारत, सन्मार्ग, प्राची, ज्ञानोदय, चांद, औघड़, धर्मयुग, सारिका, नवनीत, बोरीबंदर, माया, माध्यम, संगम, परिकथा, क ख ग, माधुरी, गंगा, त्रिपथगा, प्रताप, वर्तमान प्रमुख हैं।
राधाकृष्ण घोष-बोस-बनर्जी-चटर्जी नाम से व्यंग्य भी लिखते थे। इनके लिखे व्यंग्य पर आचार्य नलिन विलोचन शर्मा ने लिखा है, 'घोष-बोस-बनर्जी-चटर्जी के उपनाम से कहानियां लिखकर हास्य और व्यंग्य के क्षेत्र में युगांतर लाने वाले व्यक्ति आप ही हैं। ...आयासहीन ढंग से लिखा गया ऐसा व्यंग्य हिंदी साहित्य में विरल है।Ó
 ऐसा विरल साहित्यकार हिंदी जगत में उपेक्षित रह गया। आखिर जिस कथाकार ने अपने समय में जयशंकर प्रसाद गुप्त, प्रेमंचद, डा. राजेंद्र प्रसाद, भगवतीचरण वर्मा, मन्मथनाथ गुप्त, आचार्य नंद दुलारे वाजपेयी, अमृत राय, विष्णु प्रभाकर, फादर कामिल बुल्के को अपना प्रशंसक बना लिया था, उसे हमारे आलोचकों ने क्यों उपेक्षित छोड़ दिया?द्
तीन फरवरी को राधाकृष्ण की पुण्यतिथि है। उनकी स्मृति को समर्पित है यह लेख।

रांची / किसी आईने की तलाश में रांची / [संजय कृष्ण]।




किसी आईने की तलाश में रांची
[संजय कृष्ण]।
 मुंशी प्रेमचंद के सहयोगी रहे व्यंग्य कथा सम्राट राधाकृष्ण के शहर रांची में साहित्यिक तापमान- सूचक कांटा बेशक ऊपर-नीचे होता रहता है किन्तु यह कभी शून्य तक नहीं गिरता। ताजा सरगर्म कथा के अनुसार इंदु जी की दुकान से ही यह खबर फूटी कि रणेंद्र ने महुआ माजी के प्रतीक्षित नवीनतम उपन्यास मरंग गोडा नीलकंठ हुआ की निर्मम शल्य क्रिया कर दी है। समीक्षा छपने से पहले ही कलमघिस्सुओं ने चटखारे ले-लेकर उपन्यास का पोस्टमार्टम शुरू कर दिया। मई में ही चर्चा आम हो गयी थी कि समीक्षा नया ज्ञानोदय में आ रही है। समीक्षा पढने के लिए लोग आकुल- व्याकुल होने लगे। जैसे ही जून चढा, हर रोज लोग इंदु जी दुकान पर हाजिरी लगाते, पत्रिका आई क्या? इंदुजी भी रोज सुबह रेलवे स्टेशन जाते, पता करते और फिर उदास हो चले आते। पाठक- साहित्यकार दोनों बेसब्र हो रहे थे। खैर, आधा महीना गुजर जाने के बाद आखिरकार जून का अंक आया। रणेंद्र की समीक्षा सबने देखी-सबने पढी। वरिष्ठ लोगों की प्रतिक्रिया होती, बतिया त ठीके लिखे हैं। और आहत महुआ ने ज्ञानोदय को लंबी प्रतिक्रिया भेज दी। उदारता दिखाते हुए रवींद्र कालिया ने जुलाई के अंक में महुआ माजी की प्रतिक्रिया छाप दी। हिसाब- किताब बराबर..। लंबे समय से रांची में पसरा साहित्यिक सन्नाटा किसी बहाने टूटा था। खैर, माहौल में अभी भी नमी है। ताप है। रांची की पहाडी तप रही है।
अल्बर्ट एक्का चौक इस बात से बेखर नहीं। न इंदु जी की दुकान। आजकल गप्पबाजी का अड्डा यही है। यदि आप यहां नियमित आते हों तो रविभूषण, विद्याभूषण, वासुदेव, पंकज मित्र, महुआ माजी, रणेंद्र, श्रवणकुमार गोस्वामी, अरुण कुमार आदि से मुलाकात संभव है। झारखंड के दूसरे जिले से आने वाले साहित्यकार, कवि, लेखक, भी यहां टकरा ही जाते हैं। हां, एक्टिविस्टनुमा पत्रकार और पत्रकारनुमा एक्टिविस्ट नामक प्राणी भी यहां आसानी से पाए जाते हैं। यहां ज्ञान की विभिन्न सरणियों से गुजरते हुए आप धर्म की गंगा में भी डुबकी लगा सकते हैं। यह बात अलग है कि इस ज्ञानचर्चा में इंदुजी कभी समाधिस्थ नहीं हुए। समाधि जैसे ही लगती, तंद्रा में जाने लगते कि बगल में मामा चाय वाले को तीन में पांच करने का आर्डर दे देते जोकि तरल ऊर्जा का निकटस्थ स्नोत है। सुबह से शाम तक गुलजार रहने वाला अल्बर्ट एक्का चौक को लोग रांची का दिल कहते हैं। हमें न मानने का भी कोई कारण नहीं। इसी के पास है इंदुनाथ चौधरी की मार्डन बुक नामक किताब की दुकान, जिसे लोग उनके शार्ट नेम इंदुजी पुकारते हैं। यही रांची का साहित्यिक मर्मस्थल है। अब रांची तो कोई बनारस है नहीं कि यहां पप्पू चाय की दुकान मिलेगी, न पटना का काफी हाउस न इलाहाबाद...। रांची तो अपन रांची ठहरी। पीठ पर छौव्वा, माथ पर खांची.. यही है रांची की पहचान..। पर वैश्वीकरण ने इस पहचान को भी धूमिल कर दिया है।
जब रांची में बैठकी और गप्पबाजी के अड्डे की तलाश में भटकते हैं तो अपर बाजार के अपने पुराने मकान में व्यंग्य कथा सम्राट राधाकृष्ण के पुत्र सुधीर लाल मिल जाते हैं। कहते हैं कि 1890 में वनिता हितैषी का प्रकाशन बालकृष्ण सहाय के अमला टोली स्थित प्रेस से हुआ। अब इसे श्रद्धानंद रोड कहते हैं। प्रेस में ही साहित्यिक गोष्ठी और बैठकी होती थी। बालकृष्ण सहाय, ठाकुर गदाधर सिंह, बलदेव सहाय, त्रिवेणी प्रसाद.. आदि की महफिल जमती थी। तब रांची आज जैसी नहीं फैली थी। न कंक्रीट के जंगल ही उग पाए थे। वह एक कस्बाई नगरी थी। बित्ते भर की। दूसरी बैठकी यूनियन क्लब में होती थी। यहां बंग समुदाय के लोग ही शरीक होते थे। आठ साल बाद 1898 में सहाय ने आर्यावर्त साप्ताहिक का प्रकाशन शुरू किया। बित्ते भर शहर की पहचान बडी पुख्ता थी। 1924 में छोटानागपुर पत्रिका का प्रकाशन यहां के मारवाडी टोला से प्रारंभ हुआ तो ठाकुरबाडी (गांधीचौक के निकट) मामराज शर्मा के यहां बैठकी शुरू हो गई। मामराज इस पत्रिका के संपादक थे। पत्रिका के कार्यालय में हर रोज बैठक होती थी। मामराज, चिरंजीलाल शर्मा, अयोध्या प्रसाद, जगदीश प्रसाद, देवकीनंदन.. तबके लेखक थे। जगदीश प्रसाद छोटानागपुर पत्रिका के नियमित लेखक थे। गोष्ठी में जगदीश प्रसाद राधाकृष्ण को भी ले जाया करते थे। उनकी आंखें कमजोर थीं। इसलिए जगदीश प्रसाद राधाकृष्ण से बोलकर लिखाते थे। उनके भीतर साहित्य का बीजारोपण यहीं पडा जो बाद में एक सफल कहानीकार और व्यंग्यकार बने। 1926 में अपर बाजार में संतुलाल पुस्तकालय खुला तो अड्डेबाजी यहां जमने लगी। तब युवा लेखक के रूप में अपनी पहचान बना चुके राधाकृष्ण, सुबोध मिश्र, जगदीश नारायण आदि शामिल होते। 1929 में इन युवाओं ने वाटिका नामक हस्तलिखित पत्रिका निकाली।
अपर बाजार में जब सुबोध ग्रंथ माला खुली तो यहीं बैठकी होने लगी। इसके मालिक श्याम सुंदर शर्मा साहित्यिक मिजाज के थे। 1932 में विधा नामक पत्रिका शुरू की। उनके निधन के बाद उनके पुत्र प्रेम नारायण शर्मा भी साहित्यानुरागी थे। बैठकों का दौर जारी रहा। लेकिन सबसे ज्यादा पहचान मेन रोड स्थित फ्रेंड्स केबिन को मिली। यहां की चुस्की के साथ हिन्दी, उर्दू, बांग्ला के साहित्यकार बैठकी करते। राधाकृष्ण, रामकृष्ण उन्मन, मधुकर, प्रफुल्लचंद्र पटनायक, जयनारायण मंडल, रामखेलावन पांडेय, जुगनू शारदेय से लेकर कई राजनीतिज्ञ और पत्रकार भी यहां आया-जाया करते। सत्तर के दशक में राधाकृष्ण के निधन के बाद बैठकी बंद हो गयी। फ्रेण्ड्स केबिन आज भी हैं, लेकिन अब यहां दक्षिण भारतीय व्यंजन परोसे जाते हैं। रातू रोड में भी एक चाय की दुकान थी। मुकुंदी बाबू की। यहां पर भी राधाकृष्ण के अलावा शिवचंद्र शर्मा, भवभूति मिश्र, आदित्य मित्र संताली, नारायण जहानाबादी, डॉ. दिनेश्वर प्रसाद के अलावा रेडियो स्टेशन के कलाकार भी जुटते थे। कचहरी रोड स्थित अभिज्ञान प्रकाशन, स्वीट पैलेस भी अड्डा हुआ करता था।
राधाकृष्ण चाय, बीडी, पान के शौकीन थे। चाय के साथ तो वे घंटों गप्प करते रहते थे। प्रेमचंद के निधन के बाद कुछ महीनों तक बनारस जाकर हंस भी संभाला। रांची आए तो आदिवासी पत्रिका के संपादक हुए। अमृत राय रांची आते तो उन्हीं के यहां महीनों ठहरते। इनके अलावा विष्णु प्रभाकर, कमलेश्वर जैसे रचनाकार भी उनसे मिलने रांची आते रहते। सुधीर एक बात का जिक्र करते हैं। सत्तर के पहले का। रांची में बांग्ला के मशहूर लेखक ताराशंकर बंद्योपाध्याय साल में एक बार राधाकृष्ण से मिलने जरूर आते। लेकिन यह मुलाकात गोपनीय ही रहती। वरिष्ठ साहित्यकार विद्याभूषण कहते हैं कि रांची में वह कल्चर कभी विकसित नहीं हुआ, जो दिल्ली, बनारस, इलाहाबाद और पटना में रहा। लेकिन होटलों और लोगों के आवासों, क्लबों में बैठकें, गोष्ठियां होती रहती थीं। 1960 और 2010 के बीच करीब 31 से ऊपर ऐसी संस्थायें थीं, जहां रचनाशीलता पर बहस होती रही। इनमें प्रतिमान, अभिज्ञान, केंद्र, सुरभि, अभिव्यक्ति, प्रज्ञा, लेखन मंच, तीसरा रविवार, देशकाल, साहित्य लोक प्रमुख हैं। तीसरा रविवार 1986 से 88 तक चला। परिवर्तन बिहार क्लब के बगल में ही सजता था, जिसमें आजके महत्वपूर्ण कथाकार प्रियदर्शन और अश्विनी कुमार पंकज नियमित भाग लेते थे। लेखन मंच से वीरभारत तलवार भी जुडे हुए थे।
चर्चित लेखिका महुआ माजी कहती हैं कि रांची में ऐसी कोई जगह नहीं रही जहां बैठकी होती हो। इसके पीछे गुटबाजी को भी वे कारण बताती हैं जो अपने से ऊपर लोगों को देखना नहीं चाहते। परन्तु वे 1996 में बिहार क्लब में कादंबिनी क्लब का जिक्र करती हैं, जहां माहवार बैठकी होती थी, जिसमें माया प्रसाद, मुक्ति शाहदेव, रेहाना मोहम्मद, अशोक अंचल, आदित्य, प्रभाशंकर विद्यार्थी, बालेंदुशेखर तिवारी शामिल होते थे। हालांकि उषा सक्सेना और ऋता शुक्ला के घर पर भी कुछ लोग जुटते थे। अश्विनी यह सवाल भी उठाते हैं कि पिछले सौ सालों में और इधर झारखंड बनने के बाद भी शहर में कोई सार्वजनिक जगह नहीं है, जहां चाय की दो घूंट के साथ अड्डेबाजी की जा सके। यही मलाल आलोचक रविभूषण को भी है। कहानीकार पंकज मित्र कहते हैं कि बढती माल संस्कृति और बडी-बडी अत्रलिकाओं ने शहर को एक नया चेहरा तो दिया है,लेकिन इस अचानक आई समृद्धि के बीच संस्कृति का दम घुट रहा है। भारत- पाक की साहित्यिक विरासत को संजाने वाले हुसैन कच्छी को भी इस बात का दु:ख है कि शहर का कोई चेहरा नहीं है। मॉल और बडी-बडी बिल्डिगों से शहर नहीं पहचाना जाता, उसकी पहचान उसकी संस्कृति से होती है।
दैनिक जागरण, रांची

शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

यक्ष - प्रशन / भोलानाथ त्यागी

Photo: कविता /
  
यक्ष - प्रशन

कोयल की कूक / और -
कोयला की दलाली में ,
मची , संसदीय  हूक -
इसका कोई समीकरण नहीं बनता ,
लेकिन , राजनीति जब सुलगती है -
तो उसकी परिणिती बुझते कोयला मे ,
परिवर्तित हो जाती है ,
और यह कोयला फिर , खदानों में -
जा छिपता है ,
जिसके ऊपर उगे जंगल में -
कोयल जब कूकती है / तो -
लगता है / मानो संसद में हंगामा चल रहा है ,
और राजनीती की खदान में -
सिर्फ निकलती है - कालिमा ,
जिसमे सभी के हाथ , रंगें होतें हैं ,
मुखिया का रोबोटी चेहरा -
किसी सिकलीगर की याद दिला देता है ,
जो , सुधारता  है ताले -
 बनाता है तालियाँ -
राज ( ? ) कोष हेतु ,
कभी - कभी , हथियार बनाता भी ,
पाया जाता है , सिकलीगर -
जिससे , पनपते हैं अपराध / समाज , राजनीति में ,
और जब ,
राजनीति में , सिकलीगरों की जमात ,
अपना वर्चस्व जमा लेती है ,
तब , खामोशी भी सवाल करने लगती है ,
और सवाल होता है -
कोयला , सफ़ेद क्यों नहीं होता - ?
इसका जवाब -
कोयला कभी नहीं दे पाता --
यक्ष प्रशन ,
गूंजता रह जाता है ...........

                भोलानाथ  त्यागी ,
                मोबा -09456873005

2 · ·

धूमिल की कविताएं



धूमिल
सुदामाप्रसाद पाण्डेय’धूमिल’ मेरे पसंदीदा कवि हैं। धूमिल की कविताओं के संकलन ‘संसद से सडक तक’ तथा ‘कलसुनना मुझे’ समकालीन कविता में उल्लेखनीय माने जाते हैं। धूमिल की कविताओं के अंश लोग अपने लेखों ,भाषणों को असरदार बनाने के लिये करते हैं।
धूमिल का जन्म वाराणसी के खेवली गांव में हुआ था। पढ़ने में मेधावी थे लेकिन शिक्षा दसवीं तक ही हुई। दसवीं के बाद आई टी आई वाराणसी से विद्युत प्राप्त करके इसी संस्थान में विद्युत अनुदेशक के रूप में कार्यरत रहे।
३८ वर्ष की अल्पायु में धूमिल की मष्तिष्क ज्वर से मृत्यु हो गयी।
प्रसिद्ध कथाकार काशीनाथ सिंह धूमिल के मित्रों में से थे । उन्होंने धूमिल पर बेहद आत्मीय लेख लिखे हैं।जिससे धूमिल की सोच का पता चलता है। धूमिल के बारे में एक लेख प्रसिद्ध लेखक श्रीलाल शुक्ल ने भी लिखा है जब धूमिल अपने इलाज के सिलसिले में लखनऊ थे। अशोक चक्रधर के संस्मरणात्मक लेख से उनके व्यक्तित्व का अंदाजा लगता है।
धूमिल की कुछ कवितायें अनुभूति में संकलित हैं। लेकिन जिन कविताओं के लिये धूमिल जाने जाते हैं-मोचीराम, राजकमलचौधरी के लिये,अकाल-दर्शन,प्रोढ़ शिक्षा तथा पटकथा, उनमें से कोई कविता यहां उपलब्ध नहीं है।
धूमिल की कुछ कविताओं के अंश यहां मैं दे रहा हैं। शायद आपको पसन्द आयें ।
कविता के बारे में धूमिल का विचार है:-
एक सही कविता
पहले
एक सार्थक वक्तव्य होती है।
जीवन में कविता की क्या अहमियत है-
कविता
भाष़ा में
आदमी होने की
तमीज है।
लेकिन आज के हालात में -
कविता
घेराव में
किसी बौखलाये हुये
आदमी का संक्षिप्त एकालाप है।
तथा
कविता
शब्दों की अदालत में
अपराधियों के कटघरे में
खड़े एक निर्दोष आदमी का
हलफनामा है।
बुद्धजीवियों,कवियों के बारे में लिखते हुये वे सवाल करते हैं:-
आखिर मैं क्या करूँ
आप ही जवाब दो?
तितली के पंखों में
पटाखा बाँधकर भाषा के हलके में
कौन सा गुल खिला दूँ
जब ढेर सारे दोस्तों का गुस्सा
हाशिये पर चुटकुला बन रहा है
क्या मैं व्याकरण की नाक पर रूमाल बाँधकर
निष्ठा का तुक विष्ठा से मिला दँ?
आज के कठिन समय में प्यार के बारे में लिखते हुये धूमिल कहते हैं:-
एक सम्पूर्ण स्त्री होने के
पहले ही गर्भाधान की क्रिया से गुज़रते हुये
उसने जाना कि प्यार
घनी आबादीवाली बस्तियों में
मकान की तलाश है।
बेकारी, गरीबी, बढ़ती जनसंख्या के बारे में लिखते हुये कहते हैं धूमिल-
मैंने उसका हाथ पकड़ते हुये कहा-
‘बच्चे तो बेकारी के दिनों की बरकत हैं’
इससे वे भी सहमत हैं
जो हमारी हालत पर तरस खाकर,खाने के लिये
रसद देते हैं।
उनका कहना है कि बच्चे हमें
बसन्त बुनने में मदद देते हैं।
देश में एकता ,क्रान्ति के क्या मायने रह गये हैं:-
वे चुपचाप सुनते हैं
उनकी आँखों में विरक्ति है
पछतावा है
संकोच है
या क्या है कुछ पता नहीं चलता
वे इस कदर पस्त हैं-
कि तटस्थ हैं
और मैं सोचने लगता हूँ कि इस देश में
एकता युद्ध की और दया
अकाल की पूंजी है।
क्रान्ति -
यहाँ के असंग लोगों के लिये
किसी अबोध बच्चे के-
हाथों की जूजी है।
अपराधी तत्वों के मजे हैं आज की व्यवस्था में:-
….और जो चरित्रहीन है
उसकी रसोई में पकने वाला चावल
कितना महीन है।
सबसे प्रसिद्ध कविता पंक्तियां धूमिल ने अपनी लंबी कविता पटकथा में लिखीं हैं।इस कविता में आजादी के बाद से सत्तर के दशक तक का देश के हालात का बेबाक लेखा- जोखा है:-
मुझसे कहा गया कि संसद
देश की धड़कन को
प्रतिबिंबित करने वाला दर्पण है
जनता को
जनता के विचारों का
नैतिक समर्पण है
लेकिन क्या यह सच है?
या यह सच है कि
अपने यहां संसद -
तेली की वह घानी है
जिसमें आधा तेल है
और आधा पानी है
और यदि यह सच नहीं है
तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को
अपनी ईमानदारी का मलाल क्यों है?
जिसने सत्य कह दिया है
उसका बुरा हाल क्यों है?
अंत में धूमिल की लंबी कविता ,मोचीराम, पूरी की पूरी यहां दी जा रही है:-
राँपी से उठी हुई आँखों ने मुझे
क्षण-भर टटोला
और फिर
जैसे पतियाये हुये स्वर में
वह हँसते हुये बोला-
बाबूजी सच कहूँ-मेरी निगाह में
न कोई छोटा है
न कोई बड़ा है
मेरे लिये,हर आदमी एक जोड़ी जूता है
जो मेरे सामने
मरम्मत के लिये खड़ा है।
और असल बात तो यह है
कि वह चाहे जो है
जैसा है,जहाँ कहीं है
आजकल
कोई आदमी जूते की नाप से
बाहर नहीं है
फिर भी मुझे ख्याल है रहता है
कि पेशेवर हाथों और फटे जूतों के बीच
कहीं न कहीं एक आदमी है
जिस पर टाँके पड़ते हैं,
जो जूते से झाँकती हुई अँगुली की चोट छाती पर
हथौड़े की तरह सहता है।
यहाँ तरह-तरह के जूते आते हैं
और आदमी की अलग-अलग ‘नवैयत’
बतलाते हैं
सबकी अपनी-अपनी शक्ल है
अपनी-अपनी शैली है
मसलन एक जूता है:
जूता क्या है-चकतियों की थैली है
इसे एक आदमी पहनता है
जिसे चेचक ने चुग लिया है
उस पर उम्मीद को तरह देती हुई हँसी है
जैसे ‘टेलीफ़ून ‘ के खम्भे पर
कोई पतंग फँसी है
और खड़खड़ा रही है।
‘बाबूजी! इस पर पैसा क्यों फूँकते हो?’
मैं कहना चाहता हूँ
मगर मेरी आवाज़ लड़खड़ा रही है
मैं महसूस करता हूँ-भीतर से
एक आवाज़ आती है-’कैसे आदमी हो
अपनी जाति पर थूकते हो।’
आप यकीन करें,उस समय
मैं चकतियों की जगह आँखें टाँकता हूँ
और पेशे में पड़े हुये आदमी को
बड़ी मुश्किल से निबाहता हूँ।
एक जूता और है जिससे पैर को
‘नाँघकर’ एक आदमी निकलता है
सैर को
न वह अक्लमन्द है
न वक्त का पाबन्द है
उसकी आँखों में लालच है
हाथों में घड़ी है
उसे जाना कहीं नहीं है
मगर चेहरे पर
बड़ी हड़बड़ी है
वह कोई बनिया है
या बिसाती है
मगर रोब ऐसा कि हिटलर का नाती है
‘इशे बाँद्धो,उशे काट्टो,हियाँ ठोक्को,वहाँ पीट्टो
घिस्सा दो,अइशा चमकाओ,जूत्ते को ऐना बनाओ
…ओफ्फ़! बड़ी गर्मी है’
रुमाल से हवा करता है,
मौसम के नाम पर बिसूरता है
सड़क पर ‘आतियों-जातियों’ को
बानर की तरह घूरता है
गरज़ यह कि घण्टे भर खटवाता है
मगर नामा देते वक्त
साफ ‘नट’ जाता है
शरीफों को लूटते हो’ वह गुर्राता है
और कुछ सिक्के फेंककर
आगे बढ़ जाता है
अचानक चिंहुककर सड़क से उछलता है
और पटरी पर चढ़ जाता है
चोट जब पेशे पर पड़ती है
तो कहीं-न-कहीं एक चोर कील
दबी रह जाती है
जो मौका पाकर उभरती है
और अँगुली में गड़ती है।
मगर इसका मतलब यह नहीं है
कि मुझे कोई ग़लतफ़हमी है
मुझे हर वक्त यह खयाल रहता है कि जूते
और पेशे के बीच
कहीं-न-कहीं एक अदद आदमी है
जिस पर टाँके पड़ते हैं
जो जूते से झाँकती हुई अँगुली की चोट
छाती पर
हथौड़े की तरह सहता है
और बाबूजी! असल बात तो यह है कि ज़िन्दा रहने के पीछे
अगर सही तर्क नहीं है
तो रामनामी बेंचकर या रण्डियों की
दलाली करके रोज़ी कमाने में
कोई फर्क नहीं है

और यही वह जगह है जहाँ हर आदमी
अपने पेशे से छूटकर
भीड़ का टमकता हुआ हिस्सा बन जाता है
सभी लोगों की तरह
भाष़ा उसे काटती है
मौसम सताता है
अब आप इस बसन्त को ही लो,
यह दिन को ताँत की तरह तानता है
पेड़ों पर लाल-लाल पत्तों के हजा़रों सुखतल्ले
धूप में, सीझने के लिये लटकाता है
सच कहता हूँ-उस समय
राँपी की मूठ को हाथ में सँभालना
मुश्किल हो जाता है
आँख कहीं जाती है
हाथ कहीं जाता है
मन किसी झुँझलाये हुये बच्चे-सा
काम पर आने से बार-बार इन्कार करता है
लगता है कि चमड़े की शराफ़त के पीछे
कोई जंगल है जो आदमी पर
पेड़ से वार करता है
और यह चौकने की नहीं,सोचने की बात है
मगर जो जिन्दगी को किताब से नापता है
जो असलियत और अनुभव के बीच
खून के किसी कमजा़त मौके पर कायर है
वह बड़ी आसानी से कह सकता है
कि यार! तू मोची नहीं ,शायर है
असल में वह एक दिलचस्प ग़लतफ़हमी का
शिकार है
जो वह सोचता कि पेशा एक जाति है
और भाषा पर
आदमी का नहीं,किसी जाति का अधिकार है
जबकि असलियत है यह है कि आग
सबको जलाती है सच्चाई
सबसे होकर गुज़रती है
कुछ हैं जिन्हें शब्द मिल चुके हैं
कुछ हैं जो अक्षरों के आगे अन्धे हैं
वे हर अन्याय को चुपचाप सहते हैं
और पेट की आग से डरते हैं
जबकि मैं जानता हूँ कि ‘इन्कार से भरी हुई एक चीख़’
और ‘एक समझदार चुप’
दोनों का मतलब एक है-
भविष्य गढ़ने में ,’चुप’ और ‘चीख’
अपनी-अपनी जगह एक ही किस्म से
अपना-अपना फ़र्ज अदा करते हैं।
WP Greet Box icon
Hello there! If you are new here, you might want to subscribe to the RSS feed for updates on this topic.


32 responses to “धूमिल की कवितायें”

  1. अतुल
    अब चक्रधर जी ने बताया नही , आप ही बताईये कि यह थेथरई मलाई क्या होती है?
  2. e-shadow
    आदरणीय फुरसतिया जी, आपके साहित्यानुरागी मानस से ऐसे ही रत्न निकलते रहें।
  3. समीर लाल
    वाह भाई फ़ुरसतिया जी, बहुत बढिया जानकारी दी धूमिल जी के बारे मे.नाम सुना था, मगर इतने विस्तार से ज्ञात न था.ऎसे ही ज्ञानवर्धन करते रहें.
  4. अनूप भार्गव
    आप की पसन्द बहुत अच्छी है । धूमिल जी की कविताओं और उन से विस्तृत परिचय करवानें के लिये धन्यवाद।
  5. सागर चन्द नाहर
    धन्यवाद फ़ुरसतिया जी,
    स्व. धूमिल जी की कविता कि ये पंक्तियाँ बहुत कुछ जाती हैं।
    “और बाबूजी! असल बात तो यह है कि ज़िन्दा रहने के पीछे
    अगर सही तर्क नहीं है
    तो रामनामी बेंचकर या रण्डियों की
    दलाली करके रोज़ी कमाने में
    कोई फर्क नहीं है”

मंगलवार, 4 सितंबर 2012

पथ के साथी - महादेवी वर्मा



मुक्त ज्ञानकोष विकिपीडिया से

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


पथ के साथी  
Pathkesathi.jpg
लेखक महादेवी वर्मा
देश भारत
भाषा हिंदी
विषय संस्मरण
प्रकाषक राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
प्रकाषन कि तिथी 1956
पन्नें 92
आई.एस.बी.एन HB-04755
पथ के साथी महादेवी वर्मा द्वारा लिखे गए संस्मरणों का संग्रह हैं, जिसमे उन्होंने अपने समकालीन रचनाकारों का चित्रण किया है। जिस सम्मान और आत्मीयतापूर्ण ढंग से उन्होंने इन साहित्यकारों का जीवन-दर्शन और स्वभावगत महानता को स्थापित किया है वह अपने आप में बड़ी उपलब्धि है। 'पथ के साथी' में संस्मरण भी हैं और महादेवी द्वारा पढ़े गए कवियों के जीवन पृष्ठ भी। उन्होंने एक ओर साहित्यकारों की निकटता, आत्मीयता और प्रभाव का काव्यात्मक उल्लेख किया है और दूसरी ओर उनके समग्र जीवन दर्शन को परखने का प्रयत्न किया है।
'पथ के साथी' में निम्नलिखित 11 संस्मरणों का संग्रह किया गया है-
  • दद्दा (मैथिली शरण गुप्त)
  • निराला भाई
  • स्मरण प्रेमचंद
  • प्रसाद
  • सुमित्रानंदन पंत
  • सुभद्रा (कुमारी चौहान)
  • प्रणाम (रवींद्रनाथ ठाकुर)
  • पुण्य स्मरण (महात्मा गांधी)
  • राजेन्द्रबाबू (बाबू राजेन्द्र प्रसाद)
  • जवाहर भाई (जवाहरलाल नेहरू)
  • संत राजर्षि (पुरुषोत्तमदास टंडन)



पृष्ठ मूल्यांकन देखें
इस पन्ने का मूल्यांकन करें।
विश्वसनीय
निष्पक्षता
पूर्ण
अच्छी तरह से लिखा हुआ।


हम आपको एक पुष्टिकरण ई-मेल भेज देंगे। हम आपका पता किसी के साथ साझा नहीं करेंगे।गोपनीयता नीति

सफलतापूर्वक सहेजा गया
आपके मूल्यांकन अभी तक जमा नहीं किये गये।
आपके मूल्यांकन की अवधि समाप्त हो गयी है।
कृपया इस पृष्ठ को पुन जाँचकर अपना मूल्याँकन जमा करे।
कोई त्रुटि उत्पन्न हुई। कृपया बाद में पुन: प्रयास करें।
धन्यवाद! आपका मूल्याँकन सहेजा गया।
कृपया एक संक्षिप्त सर्वेक्षण को पूरा करने के लिए एक क्षण लें
धन्यवाद! आपका मूल्याँकन सहेजा गया।
क्या आप एक खाता बनाना चाहते हैं?
एक खाता से आपको आपके संपादन के ट्रैक रखने, विचार विमर्श में शामिल होने और समुदाय का एक हिस्सा बनने में मदद मिलेगी।
या
धन्यवाद! आपका मूल्याँकन सहेजा गया।
क्या आप जानते थे कि आप इस पृष्ठ को संपादित कर सकते हैं?

महादेवी वर्मा का संस्मरण - प्रेमचंद जी


 

प्रेमचंदजी से मेरा प्रथम परिचय पत्र के द्वारा हुआ। तब मैं आठवीं कक्षा की विद्यार्थिनी थी!। मेरी 'दीपक' शीर्षक एक कविता सम्भवत: 'चांद' में प्रकाशित हुई। प्रेमचंदजी ने तुरन्त ही मुझे कुछ पंक्तियों में अपना आशीर्वाद भेजा। तब मुझे यह ज्ञात नहीं था कि कहानी और उपन्यास लिखने वाले कविता भी पढ़ते हैं। मेरे लिए ऐसे ख्यातनामा कथाकार का पत्र जो मेरी कविता की विशेषता व्यक्त करता था, मुझे आशीर्वाद देता था, बधाई देता था, बहुत दिनों तक मेरे कौतूहल मिश्रित गर्व का कारण बना रहा।
उनका प्रत्यक्ष दर्शन तो विद्यापीठ आने के उपरान्त हुआ। उसकी भी एक कहानी है। एक दोपहर कौ जब प्रेमचंदजी उपस्थित हुए तो मेरी भक्तिन ने उनकी वेशभूषा से उन्हें भी अपने ही समान ग्रामीण या ग्राम-निवासी समझा और सगर्व उन्हें सूचना दी--गुरुजी काम कर रही हैं।
प्रेमचंदजी ने अपने अट्टहास के साथ उत्तर दिया--तुम तो खाली हो। घडी-दो घड़ी बैठकर बात करो।
और तब जब कुछ समय के उपरान्त मैं किसी कार्यवश बाहर आई तो देखा नीम के नीचे एक चौपाल बन गई है। विद्यापीठ के चपरासी, चौकीदार, भक्तिन के नेतृत्व में उनके चारों ओर बैठे हैं और लोक-चर्चा आरम्भ है।
प्रेमचंदजी के व्यक्तित्व में एक सहज ? संवेदना और ऐसी आत्मीयता थी, जो प्रत्येक साहित्यकार का उत्तराधिकार होने पर भी उसे प्राप्त नहीं होती। अपनी गम्भीर मर्मस्थर्शनी दृष्टि से - उन्होंने जीवन के गंभीर सत्यों, मूल्यों का अनुसंधान किया और ' अपनी सहज - सरलता से, आत्मीयता' से उसे सब ओर दूर-दूर तक पहुंचाया।
जिस युग में उन्होंने लिखना आरम्भ 'किया 'था, उस समय हिन्दी कथा-साहित्य - जासूसी और तिलस्मी कौतूहली जगत् में ही सीमित था। उसी बाल- सुलभ कुतूहल में - प्रेमचन्द उसे एक व्यापक धरातल पर ले आये, जो सर्व सामान्य था। उन्होंने साधारण कथा, मनुष्य की साधारण घर-घर की कथा, हल-बैल की कथा, खेत-खलि-हान की कथा, निर्झर, वन, पर्वतों की कथा सब तक इस प्रकार पहुंचाई कि वह आत्मीय तो थी ही, नवीन भी हो गई।
प्राय: जो व्यक्ति हमें प्रिय होता है, जो वस्तु हमें प्रिय होती है हम '' उसे देखते हुए ' थकते नहीं। जीवन का सत्य ही ऐसा है। जो आत्मीय है वह चिर नवीन भी है। हम उसे बार-बार देखना चाहते हैं। कवि के कर्म से कथाकार का कूर्म भिन्न होता है। 'कवि अन्तर्मुखी रह सकता है और जीवन की गहराई से किसी सत्य को खोज कर फिर ऊपर आ सकता है। लेकिन कथाकार को बाहर-भीतर दोनों दिशाओं में शोध करना पडता है, उसे निरन्तर सबके समक्ष रहना पड़ता है। शोध भी उसका रहस्य- मय नहीं हो सकता, 'एकान्तमय नहीं हो सकता। जैसे गोताखोर जो समुद्र में' जाता है, अनमोल मोती खोजने के लिए, वहीं रहता है और - मोती मिल जाने पर ऊपर आ जाता है। ' परन्तु नाविक को तो अतल गहराई का ज्ञान भी रहना चाहिए और ज्वार-भाटा भी समझना- चाहिए, अन्यथा वह किसी दिशा में नहीं जा सकता।
प्रेमचंद ने जीवन के अनेक संघर्ष झेले और किसी संघर्ष में उन्होंने पराजय की अनुभूति नहीं प्राप्त की। पराजय उनके जीवन में कोई स्थान नहीं रखती थी। संघर्ष सभी एक प्रकार से पथ के बसेरे के समान ही उनके लिए रहे। वह उन्हें छोड़ते चले गये। ऐसा कथाकार जो जीवन को इतने सहज भाव से लेता है, संघर्षों को इतना सहज मानकर, स्वाभाविक मानकर चलता है, वह आकर फिर जाता नहीं। उसे मनुष्य और जीवन भूलते नहीं। वह भूलने के योग्य नहीं है। उसे भूलकर जीवन के सत्य को ही हम भूल जाते हैं। ऐसा कुछ नहीं है कि जिसके सम्बन्ध में प्रेमचंद का निश्चित मत नहीं है। दर्शन, साहित्य, जीवन, राष्ट्र, साम्प्रदायिक एकता, सभी विषयों पर उन्होंने विचार किया है और उनका एक मत और ऐसा कोई निश्चित मत नहीं है, जिसके अनुसार उन्होंने आचरण नहीं किया। जिस पर उन्होंने विश्वास किया, जिस सत्य को उनके जीवन ने, आत्मा ने स्वीकार किया उसके अनुसार उन्होंने निरन्तर आचरण किया। इस प्रकार उनका जीवन, उनका साहित्य दोनों खरे स्वर्ण भी हैं और स्वर्ण के खरेपन को जांचने की कसौटी भी है।

आगे पढ़ें: रचनाकार: महादेवी वर्मा का संस्मरण - प्रेमचंद जी http://www.rachanakar.org/2011/12/blog-post_9126.html#ixzz25UJouYLg

सच्ची दोस्ती /

 🪴"""""""”l"""🪴      बचपन की मित्रता 🌸 जय श्री राधे  🌸_* _उन चारों को होटल में बैठा दे...