बुधवार, 24 दिसंबर 2014

कुछ मशहूर गजल / Some Famous Ghazlein




Some Famous Ghazlein

बशीर बद्र - लोग टूट जाते हैं, एक घर बनाने में
बशीर बद्र - इतना मत चाहो उसे, वो बेवफ़ा हो जाएगा
बशीर बद्र - मोहब्बतों में दिखावे की दोस्ती न मिला
बशीर बद्र - ऐ यार मगर तेरी गली तेरी गली है
बशीर बद्र - परखना मत, परखने में कोई अपना नहीं रहता
मुनव्वर राना - मुहाजिरनामा
मुनव्वर राना - मैं लोगों से मुलाकातों के लम्हे याद रखता हूँ
मुनव्वर राना - लबो पर उसके कभी बददुआ नहीं होती
मुनव्वर राणा - कोई चेहरा किसी को उम्र भर अच्छा नहीं लगता
मुनव्वर राणा - मियाँ मैं शेर हूँ शेरों की गुर्राहट नहीं जाती
मुनव्वर राना - ये देख कर पतंगे भी हैरान हो गयी
मुनव्वर राना - आपका ग़म मुझे तन्हा नहीं रहने देता
मुनव्वर राना - अगर दौलत से ही सब क़द का अंदाज़ा लगाते हैं
मुनव्वर राना - किसी भी मोड़ पर तुमसे वफ़ादारी नहीं होगी
राहत इन्दौरी - लोग हर मोड़ पर रुक - रुक के संभलते क्यों है
राहत इन्दौरी - सफ़र की हद है वहां तक की कुछ निशान रहे
राहत इन्दौरी - रोज़ तारों को नुमाइश में खलल पड़ता हैं
राहत इन्दौरी - बुलाती है मगर जाने का नईं
राहत इन्दौरी - सुला चुकी थी ये दुनिया थपक थपक के मुझे
कुमार विश्वास - पगली लड़की
कुमार विश्वास - हंगामा
कुमार विश्वास - शोहरत ना अता करना मौला
कुमार विश्वास - क्या अजब रात थी, क्या गज़ब रात थी
कुमार विशवास - नयन हमारे सीख रहे हैं, हँसना झूठी बातों पर
निदा फ़ाज़ली - मैं रोया परदेस में, भीगा माँ का प्यार
निदा फ़ाज़ली - बेसन की सोंधी रोटी पर, खट्टी चटनी जैसी माँ
निदा फ़ाज़ली - हर तरफ हर जगह बेशुमार आदमी
निदा फ़ाज़ली - दिल में ना हो जुर्रत तो मोहब्बत नहीं मिलती
निदा फ़ाज़ली - दुनिया जिसे कहते हैं जादू का ख़िलौना हैं
वसीम बरेलवी - बुरे ज़माने कभी पूछ कर नहीं आते
वसीम बरेलवी - कौन सी बात कहाँ कैसे कही जाती है
वसीम बरेलवी - इक तेरे कहने से क्या मैं बेवफ़ा हो जाऊँगा ?
वसीम बरेलवी - उसूलों पे जहाँ आँच आये टकराना ज़रूरी है
वसीम बरेलवी - परों की अब के नहीं हौसलों की बारी है
अदम गोंडवी - काजू भुने पलेट में विस्की गिलास में
अदम गोंडवी - ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नज़ारों में
अदम गोंडवी - घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है
अदम गोंडवी - मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको
अदम गोंडवी - टी. वी. से अख़बार तक ग़र सेक्स की बौछार हो
क़तील शिफ़ाई - सारी बस्ती में ये जादू नज़र आए मुझको
क़तील शिफ़ाई - लिख दिया अपने दर पे किसी ने, इस जगह प्यार करना मना है
सुदर्शन फ़ाक़िर - वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी
सुदर्शन फ़ाक़िर - आज के दौर में ऐ दोस्त ये मंज़र क्यूँ है
ख़ुमार बाराबंकवी - किस्तों में ख़ुदकुशी का मज़ा हम से पूछिए
ख़ुमार बाराबंकवी - सुना है वो हमें भुलाने लगे है
खुमार बाराबंकवी - ऐसा नहीं कि उन से मोहब्बत नहीं रही
जावेद अख़्तर - जिधर जाते हैं सब जाना उधर अच्छा नहीं लगता
जावेद अख्तर - हमारे शौक़ की ये इन्तिहा थी
जावेद अख्तर - सच ये है बेकार हमें ग़म होता है
जावेद अख्तर - क्‍यों डरें जिन्‍दगी में क्‍या होगा

गुरुवार, 18 दिसंबर 2014


पेशावर के बच्चों के नाम






किसी माँ ने सुबह बच्चे का…
डब्बा तैयार किया होगा !
किसी बाप ने अपने लाल को..
खुलते स्कूल छोड़ दिया होगा !!
किसे पता था वह ..
अब लौटेगा नहीं कभी !
किसे पता था गोलियों से..
भून जायेंगे अरमान सभी !!
बच्चो में रब है बसता..
उस रब से मेरी फ़रियाद है !!
तालिबान यह कैसा तेरा …
मजहब के नाम जिहाद है !!
मेमनों की तरह बच्चे…
मिमियाए जरूर होंगे !
खौफ से डर कर आँखों में
आंसू आये जरूर होंगे !!
तुतलाये शब्दों से रहम की...
भीख भी तुझसे मांगी होगी !
अपने बचाव को हर सीमाये..
उसने दौड़ कर लांघी होगी !!
मासूमो के आक्रन्द से भी न पिघले..
हिम्म्त की तेरे देनी दाद है !
हे आतंकी... यह कैसा तेरा …
मजहब के नाम जिहाद है !!
भारत से दुश्मनी निभाने…
मोहरा बनाया उसने जिसे !
जिस साप को दूध पिलाया..
वही अब डस रहा उसे !
हे आतंक के जन्मदाता….
अब तो कुछ सबक ले !
यदि शरीर में दिल है ..
तू थोड़ा सा तो सिसक ले !
आतंक के साये ने हिला दी..
पाकिस्तान की बुनियाद है !
तालिबान यह कैसा तेरा…
मजहब के नाम जिहाद है !!
कौन धर्म में हिंसा को..
जायज ठहराया गया है !
कुरान की किस आयत में ..
यह शब्द भी पाया गया है !!
कब तक तुम्हारा बच्चा..
इस तरह बेबस रहेगा !
मांग कर देखो हाथ…
साथ हमारा बेशक रहेगा !!
सबक बहुत मिल गया अब..
आतंक की खत्म करनी मियाद है !
तालिबान यह कैसा तेरा…
मजहब के नाम जिहाद है

प्रस्तुति-  सृष्टि शरण , राहुल मानव

गुरुवार, 11 दिसंबर 2014

शिवमूर्ति शिव की मूर्ति सा वंदनीय


 आपने सुना है शिवमूर्ति को

प्रस्तुति-- प्रवीण परिमल, प्यासा रुपक


बहुत कम ही लेखकों के साथ ऐसा होता है कि वे जितना अच्छा लिखते हैं, उतना ही अच्छा बोलते भी हैं। शिवमूर्ति ऐसे ही रचनाकार हैं। जो पढ़ने बैठिए तो लगता है कि एक ही सांस में पूरा खत्म कर लें और जो सुनिए तो बस सुनते ही चले जाइए। उनका कहा रोचक भी होता है और विचारपूर्ण भी। किस्से-कहानी, लोकगीत-दोहा-चौपाई, कहावतें-मुहावरों का तो विपुल भण्डार है उनके पास । चुटकी और व्यंग्य का खिलंदड़ा अन्दाज और हंसी-हंसी में बड़ी बात कह देने का कौशल। शनिवार को सुपरिचित साहित्यकार अखिलेश के नए उपन्यास ‘निर्वासन’ पर चर्चा के लिए लखनऊ में आयोजित संगोष्ठी में उनको सुनना हर बार की तरह अविस्मरणीय अनुभव तो रहा। इस बहाने सोशल मीडिया, समकालीन साहित्यिक परिदृश्य, हिन्दी साहित्य पर विदेशी प्रभाव को लेकर उनकी जो टिप्पणियां सुनने को मिलीं वे भी बहुत महत्वपूर्ण हैं।
शिवमूर्ति फेसबुक पर हैं लेकिन फेसबुक पर साहित्य और साहित्यकारों को लेकर चलने वाली बहसों को लेकर उन्होंने अपने खास अन्दाज में कई बातें कहीं। सन्दर्भ आया फेसबुक पर ‘निर्वासन’ को लेकर पिछले कुछ समय से चलीं टीका-टिप्पणियों का। उन्होंने ही इस ओर ध्यान भी दिलाया और फिर एक-एक कर उसका जवाब भी दिया। बोले-‘पहले तो बंदूक-वंदूक का लाइसेंस जिसको दिया जाता था तो उसको ये देख लिया जाता था कि भाई इसका दिमाग सही सलामत है। ये पागल तो नहीं है, दिवालिया तो नहीं है, ऐसे तो किसी को तान नहीं देगा, जान नहीं ले लेगा। बड़ी खोज खबर होती थी। उसके बाद नीचे से रिपोर्ट ऊपर आते आते जब सब लोग कह देते थे कि ये ठीक-ठाक आदमी है तो उसको लाइसेंस दिया जाता था। लेकिन आजकल ये जो फेसबुक है वह बिना लाइसेंस के सबके पास है। चाहे जिनको जो जिधर चाहता है गोली दाग देता है।’ शिवमूर्ति को बीच में रोकते हुए सभागार में मौजूद वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी राकेश बोले-‘लेकिन इसमें मारक क्षमता नहीं है।’ शिवमूर्ति ने उनकी बात को शामिल करते हुए कहा- ‘मारक क्षमता हो चाहे न हो लेकिन एक बार जिस पर तान देंगे उसे मालूम थोड़े ही है कि इसमें मारक क्षमता है या नहीं है। एअर गन ही आप तान देंगे तो एक बार खून तो सूख ही जाएगा भाई।’
थोड़ा ठहरते हुए शिवमूर्ति ने फिर कहा कि तुलसीदास जी ने रामचरित मानस लिखा उसकी आज कितनी व्याप्ति हो गई है, जन जन में चला गया लेकिन जब वे लिख रहे थे तो उनको ये आशंका थी कि कुछ लोग जरूर इसके खिलाफ होंगे। इसीलिए उन्होंने शुरूआत उसी से की है, जो आलोचक होंगे पहले उन्हीं के बारे में लिख दिया, खलवन्दना काफी देर तक किया है और वन्दना भी करने के बाद उन्होंने लिखा कि ‘हंसिहहिं कूर कुटिल कुबिचारी, जे पर दूषन भूषनधारी’। शिवमूर्ति ने कहा है कि हंसने वाले हंसेंगे चाहे हम जितनी उनकी वन्दना कर लें। मेरे ख्याल से इसी वजह से बाद में लोगों ने वन्दना का रिवाज खत्म कर दिया। एक कहावत को याद करते हुए बोले पहले कभी कहा जाता था ‘बाभन कुकुर हाथीं ये नहीं जाति के साथी’, मेरे हिसाब से ये कहावत पुरानी हो गई है, प्रासंगिकता नहीं रह गई, अब इसे होना चाहिए ‘लेखक कुकुर हाथीं ये नहीं जाति के साथी’। इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ के आयोजन में शिवमूर्ति सोशल मीडिया पर ‘निर्वासन’ को लेकर कही गई बातों पर सिलसिलेवार आते गए जिससे ये पता भी चला कि वे सोशल मीडिया को लेकर कितने सजग हैं। उन्होंने कहा कि एक सज्जन कोई कहते हैं कि ये तो हमसे पढ़ा ही नहीं गया, कोई कहता है कि जगदंबा जैसा कोई चरित्र कहां हो सकता है कि गैस पेट में बनती है तो इतनी आवाज हो जाय कि मुकदमा चल जाय। शिवमूर्ति ने कहा कि उपन्यास में जो मुझे खूबियां लगीं वह अभी जल्दी पता चला कि कुछ लोगों को उपन्यास का वह अविश्वसनीय हिस्सा लगा। बोले कि हमारे यहां तो अतिशयोक्ति में बोलने का रिवाज रहा है, हनुमान जी इतना बड़ा पहाड़ उठाकर साढ़े चार हजार किलोमीटर लेकर चले गए थे। अपने यहां आल्हा में कहा जाता है कि ‘येहि दिन जनम भयो आल्हा को धरती धंसी अढ़ाई हाथ’। लोकसाहित्य में ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं जिनमें इस तरह की बातें की जाती हैं और लोग उसका आनन्द लेते हैं। आनन्द आप तभी ले सकते हैं जब आपके संस्कार हों। शिवमूर्ति ने कहा कि विश्वसनीयता कैसे स्थान पाती है, इसके कई उदाहरण हैं। एक गीत की पंक्ति है,‘भोर भये भिनसरवा की जुनिया, सीता बुहारे खोर’, सीता जी भोर होने पर खोर बुहार रही हैं, खोर दो मकानों के बीच की जगह को कहते हैं। जिसने लिखा होगा इसे वह झोपड़ी में रहने वाला होगा, कोई और होता तो शायद ऐसे न लिखता क्योंकि सीता तो जनक की बेटी थीं वह खोर कैसे बुहार सकती हैं लेकिन हम विश्वसनीयता के मुद्दे पर आते हैं। लोककवि लिखता है कि रामचन्द्र उधर से आ जाते हैं, ‘रामचन्द्र की पड़ी नजरिया सीता भई लरकोर’ अर्थात सीता पर रामचन्द्र की नजर पड़ती है और वह मां बन जाती हैं।
गोष्ठी में शिवमूर्ति यहीं रुके नहीं। उन्होंने विदेशी साहित्य के प्रभाव का मुद्दा भी उठाया। बोले, ‘विदेश का बहुत कुछ आकर आपका टेस्ट बिगाड़ देता है और आपको अपनी देसी चीज अच्छी नहीं लगती है। पिज्जा आ जाता है तो खिचड़ी पीछे चली जाती है। अखिलेश के इस उपन्यास में सारी देसी चीजें हैं, इसमें विदेश की कोई छाया नहीं है या विदेश का कोई प्रभाव शुरू से आखिर तक नजर नहीं आता है।’ वह बोले- ‘जब हमारी रुचि बिगड़ जाती है तो हमें घर की चीज लगती है। परिवार में शक्ल न मिलने पर पति पत्नी में झगड़ा हो सकता है कि भाई यह बच्चा किस पर गया है, परिवार में किसी से इसकी शक्ल नहीं मिल रही है लेकिन साहित्य में उसी को गर्व से अपनाया जा रहा है। अभी एक लेख छपा है, किसी किताब का सार-संक्षेप है जिसमें बताया गया है कि विदेश की रचनाओं के विवरणों की छाया किस प्रकार हमारे कई नामी लेखकों के साहित्य में है। ऐसी रचनाएं मानक बन जाती हैं और जो अपना मौलिक है वह पीछे चला जाता है। याद करिए जब मैला आंचल आया तो किसी बड़े आलोचक ने कहा कि इसकी तो हिन्दी ही सही नहीं, ग्रामर ही सही नहीं, आधा गांव के बारे में कहा गया कि बड़ी गालियां हैं इसे कोई भला आदमी अपने घर में रख ही नहीं सकता, जिन्दगीनामा के बारे में कहा गया कि ये बहुत बोझिल है। अगर इसके लेखक कमजोर दिल के होते तो उन शुरू के चार-पांच सालों में उन्होंने आत्महत्या कर ली होती लेकिन आज जब इतना वक्त गुजर गया तो क्या आप उसे खारिज कर देंगे । आज तो मैला आंचल, आधा गांव ही प्रतिमान बने हुए हैं।’ हालांकि विदेशी साहित्य के प्रभाव के मुद्दे को लेकर संगोष्ठी के एक दूसरे वक्ता वरिष्ठ उपन्यासकार रवीन्द्र वर्मा सहमत नहीं दिखे। उन्होंने कहा-‘प्रेमचंद बहुपठित रचनाकार थे और यथार्थवाद के प्रणेता कहे जाते हैं। उनका यूरोपीय साहित्य पढ़ा हुआ था। असली मुद्दा यह है कि आप उस बाहरी प्रभाव को ग्रहण कैसे करते हैं, क्या आप उसे पचा पाते हैं? बिना उसके श्रेष्ठ साहित्य संंभव नहीं है। खिड़की से आने वाली हवा बहुत जरूरी है। ’इस महत्वपूर्ण साहित्यिक आयोजन की विस्तृत रिपोर्ट समाचार पत्रों में नहीं दिखी तो यह जरूरी लगा कि वहां उपस्थित होने का कुछ लाभ अपने फेसबुक के साथियों को देना चाहिए।
— with Anita Srivastava, Sushil Siddharth, Arun Singh, Kavi Dm Mishra, Shiv Murti, Dr.Lal Ratnakar, Ratan Bhushan and Pragya Pande.Like · · Share · 13 July

साहिर लुधियानवी ,जावेद अख्तर और 200 रूपये

 एक दौर था.. जब जावेद अख़्तर के दिन मुश्किल में गुज़र रहे थे ।  ऐसे में उन्होंने साहिर से मदद लेने का फैसला किया। फोन किया और वक़्त लेकर उनसे...