शनिवार, 27 अगस्त 2022

विधि का चमत्कार ❤️

 जंगल में एक गर्भवती हिरनी बच्चे को जन्म देने को थी। वो एकांत जगह की तलाश में घुम रही थी, कि उसे नदी किनारे ऊँची और घनी घास दिखी। उसे वो उपयुक्त स्थान लगा शिशु को जन्म देने के लिये।


वहां पहुँचते ही उसे प्रसव पीडा शुरू हो गयी।

उसी समय आसमान में घनघोर बादल वर्षा को आतुर हो उठे और बिजली कडकने लगी।


उसने दाये देखा, तो एक शिकारी तीर का निशाना, उस की तरफ साध रहा था। घबराकर वह दाहिने मुडी, तो वहां एक भूखा शेर, झपटने को तैयार बैठा था। सामने सूखी घास आग पकड चुकी थी और पीछे मुडी, तो नदी में जल बहुत था।


मादा हिरनी क्या करती ? वह प्रसव पीडा से व्याकुल थी। अब क्या होगा ? क्या हिरनी जीवित बचेगी ? क्या वो अपने शावक को जन्म दे पायेगी ? क्या शावक जीवित रहेगा ? 


क्या जंगल की आग सब कुछ जला देगी ? क्या मादा हिरनी शिकारी के तीर से बच पायेगी ?क्या मादा हिरनी भूखे शेर का भोजन बनेगी ?

वो एक तरफ आग से घिरी है और पीछे नदी है। क्या करेगी वो ?


हिरनी अपने आप को शून्य में छोड, अपने बच्चे को जन्म देने में लग गयी। कुदरत का कारिष्मा देखिये। बिजली चमकी और तीर छोडते हुए, शिकारी की आँखे चौंधिया गयी। उसका तीर हिरनी के पास से गुजरते, शेर की आँख में जा लगा,शेर दहाडता हुआ इधर उधर भागने लगा।और शिकारी, शेर को घायल ज़ानकर भाग गया। घनघोर बारिश शुरू हो गयी और जंगल की आग बुझ गयी। हिरनी ने शावक को जन्म दिया।


हमारे जीवन में भी कभी कभी कुछ क्षण ऐसे आते है, जब हम चारो तरफ से समस्याओं से घिरे होते हैं और कोई निर्णय नहीं ले पाते। तब सब कुछ नियति के हाथों सौंपकर अपने उत्तरदायित्व व प्राथमिकता पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए।अन्तत: यश, अपयश ,हार ,जीत, जीवन,मृत्यु का अन्तिम निर्णय ईश्वर करता है।हमें उस पर विश्वास कर उसके निर्णय का सम्मान करना चाहिए।

❤️🙏

गुरुवार, 25 अगस्त 2022

माँ बस माँ होती हैं / मनु वशिष्ठ

 ✍️ मां!

मां की कोई उम्र नहीं होती

मां बस मां होती है!

चिर युवा भी, चिर वृद्धा भी!!

छोटी उम्र में बच्चों की

देखभाल में खुद को भुला देती है।

और बूढ़ी होने पर भी

बच्चों के लिए दौड़भाग करती है।

अभी तो डांट रही थी

मैं तेरी मां नहीं,तू मेरा कुछ नहीं

भूखा सो जाने पर

चूमती है,पुचकारती है,

खुद से ही बड़बड़ाती, 

खुद को ही कोसती है और 

अंत में गले लगा, दुनिया भर का लाड़

उंड़ेल देती है मेरे गालों पर 

वो बस जानती है दुलार

क्योंकि मां की कोई उम्र नहीं होती 

मां तो बस मां होती है!

चिर युवा भी, चिर वृद्धा भी!!


मां नहीं जानती कोई शौक 

उसे कोई साड़ी पसंद ही नहीं आती

और उन बचे पैसों को

दे देती है मेरी कॉलेज की 

पिकनिक के लिए 

मैंने कभी भी नहीं खरीदते देखा

उसे सोने की नई बाली या कंगन

क्योंकि वो जोड़ रही है पैसे 

मेरी नई बाइक के लिए

मां के कोई शौक, पसंद भी नहीं होते

करती रहती है बस

व्रत अनुष्ठान, पूजा पाठ

हमारी सुख शांति और तरक्की के लिए

और एक दिन बस.....चली जाती है

क्योंकि मां! की कोई उम्र नहीं होती

मां बस मां होती है!

चिर युवा भी, चिर वृद्धा भी!


अपने बच्चों से अथाह प्रेम करती है।

जरा सी हिचकी क्या आई

छोड़ देती है खाने की थाली

पता नहीं क्या खाया होगा

दूर नौकरी पर, 

कौन उसकी पसंद जानेगा

छोटी से फोन मिलवाती है

तसल्ली हो जाने पर ही

थाली का खाना गले से 

उतार पाती है, साथ में 

पिताजी के उलाहने भी पाती है

अब तो उसे, बड़ा बनने दो

मां बस रो देती है 

क्योंकि मां की कोई उम्र नहीं होती

मां तो बस मां होती है!

चिर युवा भी, चिर वृद्धा भी!

___ मनु वाशिष्ठ,

 कोटा जंक्शन राजस्थान


मुन्ना मास्टर बने एडिटर' का ताप / हरीश पाठक

 'मुन्ना मास्टर बने एडिटर' का ताप / हरीश पाठक


ओमप्रकाश अश्क हिंदी के ऐसे पत्रकार हैं  वे जो भी कार्य करते हैं उसे पूरी शिद्दत और ईमानदारी से निभाते हैं-वह संपादन का कार्य हो या लेखन का।यह ईमानदारी और प्रतिबद्धता उनके कार्य में साफ साफ दिखती भी है।

    कल मुझे उनकी नयी किताब ' मुन्ना मास्टर बने एडिटर'(प्रलेक प्रकाशन) प्राप्त हुई।'यह आत्मकथा है या आत्मप्रलाप यह पाठक को तय करना है'- यह वे खुद 'अपनी बात' में लिखते हैं । सच तो यह है कि उनके पत्रकारीय जीवन का यह सफरनामा बेहद रोचक,रोमांचक और मन और दिल के भीतर उतरता है।कुछ घटनाएँ स्तब्ध करती हैं तो कुछ को पढ़कर आँखें नम हो जाती हैं।

      ओमप्रकाश अश्क लम्बे समय तक 'प्रभात खबर' से जुड़े रहे।वे इस अखबार के कई संस्करणों में जिम्मेदार पदों पर रहे पर पद के साथ वेतन नहीं बढ़ सका तो उन्होंने इस्तीफा लिख दिया।यह तब था जब 'राष्ट्रीय सहारा' के गोरखपुर संस्करण में उनकी स्थानीय संपादक के तौर पर नियुक्ति हो चुकी थी।वे 'प्रभात खबर' के तत्कालीन प्रधान संपादक हरिवंश के विश्वास पात्र थे।

      कुछ रिश्ते जिंदगी भर निभाये भी जा सकते हैं।यहाँ भी ऐसा ही हुआ।जब हरिवंश जी और उनका आमना सामना हुआ तब हरिवंश जी 15 दिनों के लिए विदेश जा रहे थे।उन्होंने कहा,"मुझे इस हाल में ही छोड़कर चले जाओगे?'

     रिश्तों की गर्माहट का यह ऐसा मोड़ था जो ओमप्रकाश अश्क को विचलित कर गया।बहुत कुछ उनके सामने थिरकने लगा और वे एक झटके में बोले,"अब नहीं जाऊँगा"।वे रुक गए और 'राष्ट्रीय सहारा' से आया ऑफर लेटर प्रभावहीन हो गया।यह अलग बात है कि बाद के सालों में वे 'राष्ट्रीय सहारा' के पटना संस्करण में स्थानीय सम्पादक रहे।

     आज कहीं नहीं दिखती रिश्तों की यह गर्मजोशी।यह बड़प्पन।यह आत्मीयता।आपसी विश्वास का यह अलिखित विधान।

      ऐसे तमाम किस्सों से भरी यह किताब सम्वेदनशील पाठकों को बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करेगी।

     यह भी जताएगी कि मूल्यों,समर्पण और निष्ठा की पत्रकारिता का ताप क्या होता है?


बुधवार, 24 अगस्त 2022

रसखान / उमा शंकर परमार

 🥎 *रसखान पठान थे। उनके पूर्वज अफगानिस्तान से भारत आए थे। रसखान का कृष्ण प्रेम उनके लौकिक प्रेम का आध्यात्मिक रूपान्तरण था।*

● आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने इतिहास में लिखा है कि रसखान एक सुन्दर लड़के पर फिदा थे। एक दिन उस लडके ने कहा कि सबसे सुन्दर तो कृष्ण हैं, उनसे जाकर मिलो, मथुरा में मिलेगें। तो रसखान मथुरा चले आए। सबसे पूछते कि कृष्ण कहाँ मिलेगा, तो लोगो ने कहा कि तपस्या करो, उनसे प्रेम करो, तभी मिलेंगे। 

● कहते हैं उस समय के श्रीनाथ मन्दिर में उन्होने अपना अड्डा जमाया और कृष्ण की भक्ति में लीन हो गये। 

● यह वही श्रीनाथ मन्दिर है, जिसमे सूरदास भी आश्रय पाये थे। स्वामी हरिदास यहाँ रहे, परमानन्द दास भी यहीं रहते थे। यहाँ के महन्त कृष्णदास थे, जो तुनक मिजाज थे, मगर कृष्ण के भक्त थे।

● वहीं रसखान को कृष्ण जी का 'स्वप्न दर्शन'  हुआ और वो दीवाने होकर पूरे बृजमण्डल में घूमते रहे .... 

● भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द ने रसखान के बारे में कहा था~  *"ऐसे मुसलमानन में कोटिन हिन्दू वारिये"~ अर्थात रसखान जैसे मुसलमानों पर करोडों हिन्दू न्यौक्षावर ...*

● *उमाशंकर सिंह परमार*

भगवती प्रसाफ द्विवेदी का रचना संसार / मुकेश प्रत्यूष

 हिन्दी और भोजपुरी की अधिकांश साहित्यिक विधाओं में लिखने वाले वाले रचनाकार इन दिनों बहुत कम  हैं। भगवती प्रसाद द्विवेदी  उनमें से एक हैं।  काव्‍य की सभी विधाओं मुक्‍तछंद, गीत, नवगीत, दोहा आदि में तो लिखते ही हैं कहानी, उपन्‍यास, बाल सहित्‍य के अतिरिक्त  भिकारी ठाकुर और  महेन्द्र मिश्र जैसे भोजपुरी के अद्वितीय रचनाकारों के व्यक्तित्व और कृतित्व पर किताबें भी  लिखी  हैं। लगभग सत्तर किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। कई सम्मान और  पुरस्कार मिले हैं। लेकिन  इन सबसे निर्लिप्त निरंतर सृजनरत रहते हैं एक सच्चे साधक की तरह।  उनका मकसद कोई हंगामा खड़ा करना नहीं बल्कि अपने समय के सच और अंतस की वेदना को स्वर देना है

 लिखा भी हैं – ‘अंतर की/ असह्य अकुलाहट/ लिखने को उकसाए’।  

 

अपनी भाषा और अपनी मिट्टी से जुड़े रहना अपनी संस्‍कृति से जुड़े रहने की पहचान है। द्विवेदीजी किसी भी भाषा में या किसी भी विधा में लिखें वे अपनी संस्‍कृति को नहीं भूलते। उनके परिवेश की मिट्टी की खुशबू सहज ही महसूस की जा सकती है। साथ ही, इसमें समकालीन सामाजिक-राजनीतिक संदर्भ, रोज-रोज बनती-बदलती दुनिया के सुख-दुख आशा-निराशा और आम आदमी का जीवन-संघर्ष पूरी शिद्दत से मौजूद है।  

 

भूमंडलीकरण के बाद पूरी दुनिया ही गांव में बदल गई है।  दूसरे शब्दों में कहें तो हम वैश्विक नागरिक बन गए हैं। लेकिन इसके चलते बाजार का दबाव हमारे दैनिक जीवन पर ऐसा पड़ा है कि हम गतिशील होने की बजाय ठठस कर खड़े हो गए हैं। कहने को यह हमारी दुनिया का विस्तार है लेकिन सच्चाई यह है कि आम आदमी आज अपने छोटे से दायरे में भी  रोज-रोज सिमट रहा है।  द्विवेदी जी बड़ी बेवाकी से इसका चित्रण करते हुए पूछते हैं - -‘यह कैसा विस्तार की/ जिसमें रोज-ब-रोज/ सिकुड़ना है जहां न तो जड़/ न जमीन ही/ फिर जुड़ाव का नाता क्या/  कोलाहल/ चौराहे से अपनापा क्‍या’।

 

आज बाजार एक नियामक शक्ति हो गई है लेकिन यह बाजार हमारा वह अपना बाजार नहीं जिसमें क्रेता और विक्रेता के बीच आपसी संबंध होता था। दोनों एक-दूसरे के सुख दुख में साथ होते थे। क्रेता की आवश्यकता के अनुसार बाजार में सामान आते थे।  आज पहले सामान आता है और फिर  हमें एहसास कराया जाता है कि हमारा जीवन उस सामान के बिना कैसे चल रहा है।  उस सामान के अभाव में किन सुविधाजनक स्थितियों के बीच हम जी रहे हैं।  अगर यह सामान हमारे घर में आ जाए तो हमारे जीवन में कितना आसान हो जाएगा और ऐसी न जाने कितनी बातें बता कर हमे हमारी आवश्यकता बताई जाती है। बाजार की नजर में हम महज एक उपभोक्ता बनकर रह गए हैं। और, इस बाजारवाद का संरक्षक है अमेरिका। जब उसके राष्‍ट्रपति भारत आए तो उनका ऐसा स्‍वागत किया गया मानों किस्‍से-कहानियों का राजा आ गया हो। 

एक कवि के नाते  द्विवेदी जी इनके दूरगामी परिणामों को लेकर न केवल अपने गीतों  में चिंता जाहिर की बल्कि एक गीत में  व्यंग्‍य करते हुए लिखते हैं – ‘दुनिया के दीवान/ हमारे घर आए’।  इसी को गीत में  आगे लिखते हैं – ‘खेती होगी हवा तो क्‍या/ मंहगी हो दवा तो क्या/ हम गुलाम है बड़े अनुभवी/  बंधक पानी हवा तो क्या’।

 

जाहिर है कि जब कवि ऐसा लिख रहा है तो उसे गुलामी के उन दिनों की याद बरबस आ रही होगी अंग्रेज भी व्यापारी बनकर ही इस देश में आए थे और शासक बन बैठे थे। आज यदि अमेरिका, जिसे द्विवेदी जी  दुनिया का दीवान कह रहे हैं, यही काम कर रहा है।  एक अंदेशा तो सहज ही होता है कि पता नहीं हमारी आने वाली पीढ़ियों को किन-किन तकलीफदेह स्थितियों का सामना करना पड़ेगा।  उसके आगाज की दिखाई देने लगे हैं। एक दोहे में द्विहवेदी जी लिखते हैं – ‘मृगमरीचिका में फंसे/ छूटा अपना गांव/ फटपाथी जीवन बना जलता हुआ अलाव’।

 

दरअसल बाजारीकरण की मार सबसे ज्यादा गांव पर पड़ी है। भोले-भाले ग्रामीण शहर की चमक-दमक देखकर खींचे चले आते हैं  अपने जीवन को सजने-संवरने। होना यह चाहिए था कि विकास से गांव में श्‍हार की मूलभूत सुविधाएं उपलब्‍ध हो जातीं लेकिन  सत्‍ता  की कोशिश गांव के शहरीकरण करने में नहीं उसे एक नया बाजार बनाने में है।  द्विवेदी जी ने एक गीत में इसका मार्मिक चित्रण किया है – ‘कहां खो गया अपना गांव/ कहां गई कान्‍हा और गोपियों की छेड़छाड़/ कहां गई वंशी की तान/ माटी की हमारी पहचानों को निगल गए/ बेजान पक्‍के मकान/ अपने हैं लोग मगर अपनापन शेष नहीं/ रिसते हैं रिश्‍तों के घाव’।

 

विदेशियों के  प्रभावी आगमन के साथ ही उन देसी शासकों  की भी बन आती है जो मातहतों के शोषण को अपना अधिकार मांगते हैं और अपने सहकर्मियों के साथ सहज नहीं होते। द्विवेदीजी  व्यंग्‍य  गीत में ऐसे अधिकारियों पर व्‍यंग्‍य करने से नहीं चूके। लिखा  उनके आने से/  आंखों में चुभता सन्नाटा/  बोले तो लगता जैसे कुत्ते ने काटा/   तीर कमान चढाए/  आए साहब जी’।   द्विवेदीजी सीधा सवाल करते हैं – ‘कहां है वे लोग जो भी बातें उजालों  से भरी’।

 

द्विवेदी जी की गीतों में राजनीतिक विद्रूपताएं  भी उजागर होती हैं।  खासकर जोड़-तोड़  और अपराध की राजनीति के इस दौर में सभी अनायास उनकी  पंक्तियों से सहमत हो जाते हैं। एक गीत में वे  कहते हैं – ‘आप हंसे तो डर लगता है/  हर मुजरिम को पदक दिलाते/   सच को सूली पर लटकाते/  शातिर मुस्कानों की सहमा/  सहमा महानगर लगता है’।

 

जैसा कि मैंने  कहा द्विवेदी जी की रचनाओं के विविध रंग हैं। प्रेम जीवन के लिए जरूरी है। द्विवेदीजी ने  कई प्रेम गीत लिखे हैं। एक में में कहते हैं – ‘मन पलाश सा दहक रहा है। देह गुलाबी आग हो गई’। एक अन्‍य गीत में लिखते हैं – ‘चंदन की वीणा हो गई देह तुम्‍हारी’। यहां ध्‍यान देने की बात है कि द्विवेदी जी प्रेम में देह के महत्‍व से इंकार नहीं करते।

 

इन दिनों विश्‍व-युद्ध की आहट सभी लोग लगभग साफ-साफ सुन रहे हैं। कई देश युद्ध में या उसकी तैयारी में लगे हुए हैं। एक बारूदी गंध फैली हुई है। इसके बावजूद फूल खिल रहे हैं और उसमें खुशबू भी है। 

युद्ध के बीच शांति और प्रेम का प्रतीक। इस उम्मीद को द्विवेदीजी ने अपने एक काव्‍य संग्रह ‘एक और दिन का इजाफा’ में संकलित  एक कविता ‘जिजीविषा’ में बहुत ही अच्‍छे तरीके से व्‍यक्‍त किया है – ‘

जब लहलहा रही हों/ यहां से वहां तक बारूदी फसलें/  झूम रहे हों/  महाविस्‍फोटकों के आदमखोर जंगल/ और फल-फूल रहे हों/  रक्‍तबीजों से खदबदाते हुए/ रोशनी के मुखालिफ/ तब लगता है कितना हैरतअंगेज/ हवाओं का फूलों में गंध भरना/ ति‍तलियों का उनसे गुफ्तगू करना/ भौंरों का बहकना, चिडि़यों का चहकना’।

इस कविता के अंत-अंत तक उनकी आशावादिता बनी रहती है – लिखते हैं – घनघोर घटाओं के बीच भी/ चमक उठती है बिजली/ किलक उठता है कोई बच्‍चा/ ऊसर में भी सीना ताने/ अंकुरित हो जाता है कोई बीज/ और हत्‍यारों पर भी उठ जाते हैं/ किसी तमाशबीन निहत्‍थे के हाथ अब भी’।

 अंतिम पंक्ति है – ‘कुछ कम है क्‍या यह भी’। घोर निराशा के दौर में आशा की किरण द्विवेदीजी की कविताओं में अक्‍सर दिखते हैं। 

जीवन और जगत के तमाम प्रासंगिक विसंगतियों के बीच भविष्य के प्रति एक आशावादी दृष्टिकोण और उसके लिए किया जाने वाला त्याग -  ‘नई  कोनलों की खातिर/ हम झरते जाएंगे।  या हम तो दियना बाती/  तम में जलते जाएंगे’ उनके रचनाकर्म को सार्थकता देता है।


❤️👌🏽😄👍🏽

पारसी थिएटर / रणवीर सिंह

 रणवीर सिंह जी की जरूरी किताब "पारसी थिएटर" पर एक पुराना आलेख।                                                          पारसी थिएटर पर एक ज़रूरी किताब

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                                 --------------------------------------------         देश के जाने माने नाटककार,रंग निर्देशक,इतिहासकार और इप्टा के राष्ट्रीय अद्यक्ष रणवीर सिंह की एक बेहद ज़रूरी और उपयोगी किताब"पारसी थिएटर"सेतु प्रकाशन से प्रकाशित हुई है। किताब में 9वीं सदी से 18वीं सदी के अंत तक का समय भारतीय रंगमंच के लिए एक अंधेरे का समय मानते हुए एक तरह से प्रतिपादित किया गया है कि लगभग 9वीं सदी में संस्कृत नाटकों का जो पर्दा गिरा वह पारसी थिएटर के साथ 18वीं सदी के अंत मे ही उठ पाया। जाहिर है इस किताब की विषय वस्तु पारसी थिएटर है और इसलिए इस लंबे मध्यांतर पर सांकेतिक चर्चा करते हुए लेखक ने अपना ध्यान पारसी रंगमंच के उद्भव,विकास,भाषा, शिल्प और उसके जन सरोकार पर केंद्रित किया है। पारसी थिएटर की पृष्ठभूमि पर चर्चा करते हुए यह रेखांकित किया गया है कि 1843 में जिस समय विष्णुदास भावे ने  पहला मराठी नाटक "सीता स्वयंबर"लिखा ठीक उसी समय अवध में वाज़िद अली शाह ने "राधा कन्हैया का किस्सा"लिखा और मंचित किया।"जोगिया जश्न"जैसे नाटक के सार्वजनिक प्रदर्शन के बाद इस परम्परा को 1853 में अमानत लखनवी ने "इंद्र सभा" मे आगे बढ़ाया जो हिंदी-उर्दू की मिली जुली भाषा की, हिंदुस्तानी की और क़ौमी एकता और साझा संस्कृति की परम्परा थी जिस पर पारसी थिएटर या हिंदुस्तानी थिएटर की नींव पड़ी। भाषा पर उस समय के नाटककार नारायण प्रसाद बेताब का एक शेर बखूबी उधृत किया गया है।"न ठेठ हिंदी न खालिस उर्दू ज़ुबान गोया मिली जुली हो/अलग रहे दूध से न मिसरी डली डली दूध में घुली हो।"                                       किताब बताती है कि पारसी थिएटर के नाटक सामाजिक चेतना,राष्ट्रीय भावना,छुआछूत, जातिभेद और स्त्री अधिकारों की बात भी इसमे होती थी।लेखक ने इस पर कुछ उद्धरण दिए हैं:-"नारायण प्रसाद बेताब ने ऊंच नीच,छुआछूत के खिलाफ "महाभारत" में चेता चमार का सीन लिखा"।                                          दुर्योधन (चमारों का झंडा देख कर) यह झंडे पर क्या लिख छोड़ा है।           सेगा- यथमां वाचं कल्याणी।                  चेता- मावदानि जनेभ्यः।                      द्रोण- चुप चाण्डाल, वेद मंत्र इस मुंह से न निकाल।                                   दुर्योधन- छीन लो यह झंडा।                द्रोण- धूर्तराज,क्या तुझे खबर नहीं तू जाति का चमार है,किसने कहा है कि शूद्रों को वेद मंत्र पढ़ने का अधिकार है।                                                 चेता- इसी वेद मंत्र ने।इसमे परमात्मा मनुष्य मात्र को अपनी कल्याणकारी वाणी का अधिकारी बताता है।राजा-प्रजा,स्त्री, पुरूष, शूद्र, प्रति शूद्र सबको भजन भक्ति में एक सा हकदार ठहराता है।                             लेखक ने पारसी थिएटर द्वारा सेंसर को चकमा दे कर अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ अपनी बात कहने के कई उदाहरण दिए हैं। मिस मेयो की हिंदुस्तान की कथित गंदगी पर लिखी गई किताब "मदर इंडिया"को गांधी ने "गटर इंस्पेक्टर रिपोर्ट"बताया था।1928  में इस पर बेताब ने "कुमारी किन्नर"नाटक लिखा।एक गीत में उन्होंने मिस मेयो को जबाब दिया:-     "बहारे गुल को बुलबुल ही खुशी से देख सकती है/हमेशा चील तकती है तो मुरदारों को तकती है/फ़क़त कूड़े के ढेरों पर नज़र उसकी लपकती है/शिवालय और मस्जिद के खुले हैं गो कि दरवाजे/कुमारी किन्नरी लेकिन वहां जाते हिचकती है।"                      आगा हश्र काश्मीरी ने सुप्रसिद्ध नाटक "यहूदी की लड़की"में अंग्रेजी हुकूमत और अवाम के विरोध को इस तरह उभारा:-"तुम सितम करते रहे और हम सितम देखा किये/खानुमां बर्बाद हो कर रंजोगम देखा किये/जुल्म का हम पर मगर उल्टा असर होता गया/छांटने  से नस्ले-कौमी बराबर होता गया।"                            1857 के पहले स्वाधीनता आन्दोलन के आसपास बंगला,मराठी,हिंदी और विविध भाषाओं में साम्राज्यवाद विरोधी लहर दिखाई देती है जिसके कई उदाहरण इस किताब में दर्ज हैं।1860 में दीनबंधु मित्रा के नाटक "नील दर्पण"की लोकप्रियता से घबरा कर अंग्रेजों ने नाटकों के नियंत्रण के लिए ड्रामेटिक परफॉर्मेंस एक्ट बनाया लेकिन यह क्रम रुका नहीं।                 पारसी थिएटर के शिल्प पर भी किताब में सार्थक चर्चा की गई है।पारसी थिएटर ने एक तरह से टोटल थिएटर की नींव डाली जिसमे नाट्यशास्त्र के सभी तत्व मौजूद थे।सुगठित कहानी,शायरी,नाच,पेंटिंग और स्टेज इफ़ेक्ट।पारसी थिएटर को पर्दे का थिएटर भी कहा जाता था।नाटक में कितने पर्दे हैं इससे दर्शक नाटक दृश्यों के बारे में जान जाता था।नाटक की तैयारी के लिए अभिनेताओं के सम्पूर्ण प्रशिक्षण पर बहुत ध्यान दिया जाता था।शेरो शायरी और गायन का इस तरह इस्तेमाल होता था कि गीत लोगों की ज़ुबान पर चढ़ जाते थे।                       किताब में पारसी थिएटर के संदर्भ में हिंदी-उर्दू विवाद और नाटकों के अनावश्यक हिन्दीकरण पर भी रोशनी डाली गई है।यह किताब पारसी थिएटर के उद्भव,विकास और पतन की मुकम्मल दास्तान है।इसमें आगा हश्र काश्मीरी, नारायण प्रसाद बेताब,राधेश्याम कथावाचक और बाबू बृद्धि चंद्र मधुर की जिन्दगी और कामों की चर्चा के साथ पारसी नाटक मण्डलियों की पूरी सूची है।पारसी थिएटर के मशहूर अभिनेता गणपत लाल डांगी से रणवीर सिंह का साक्षात्कार भी इसमे दर्ज है। कुल मिला कर रंगकर्मियों और नाटक तथा इतिहास में दिलचस्पी रखने वाले हर व्यक्ति के लिए यह एक जरूरी किताब है।

मंगलवार, 23 अगस्त 2022

प्रेमचंद : आख्यान प्रेमियों के दिल के सम्राट / डॉ. भूपेंद्र बिष्ट

 प्रेमचंद : आख्यान प्रेमियों के दिल के सम्राट

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• डॉ. भूपेंद्र बिष्ट


शहर अमीरों के रहने और क्रय विक्रय का स्थान है. उसके बाहर की भूमि उनके मनोरंजन और विनोद की जगह है. उसके मध्य भाग में उनके लड़कों की पाठशालाएं और उनके मुकदमेबाजी के अखाड़े होते हैं, जहां न्याय के बहाने गरीबों का गला घोटा जाता है. शहर के आस - पास गरीबों की बस्तियां होती हैं. बनारस में पांडेपुर ऐसी ही बस्ती है. .....

[ मुंशी प्रेमचंद ( 31 जुलाई 1880 -- 8 अक्तूबर 1936 ) के वृहद् उपन्यास "रंगभूमि" की एकदम प्रारंभिक पंक्तियां. ]


जब बनारस ( काशी हिंदी विश्वविद्यालय, वाराणसी ) में पढ़ता रहा तो शुरू में ही मन ने निश्चय किया हुआ था कि एक दिन पांडेपुर जाऊंगा अवश्य और गया भी, बल्कि जाता भी रहा. चौराहे से थोड़ा आगे बढ़कर सड़क के एक तरफ था ' यादव ढाबा.' क्या कचौड़ी, कितना सुस्वादु चोखा उiस ढाबे का ! 

बस, इसी चौराहे से सारनाथ जा रहा होऊं या "लमही" ( पांडेपुर से 11 कि. मी. -- प्रेमचंद का गांव. ) स्वतः "रंगभूमि" का स्मरण हो आता.

बाद में उ. प्र. सरकार की सेवा में आने पर तैनाती रही जब बनारस में, फिर फिर जाना हुआ पांडेपुर. 

आज प्रेमचंद जयंती पर यह प्रसंग खूब याद आ रहा है. इस मौके पर एक संदर्भ भी शेयर करना चाहता हूं. 


कथा साहित्य में प्लाट कैसा हो, इस पर मुंशी प्रेमचंद ने बहुत मौजू और उपादेय बात लिखी है :  

प्लाट सरल होना चाहिए. बहुत उलझा हुआ, पेचीदा, शैतान की आंत, पढ़ते पढ़ते जी उकता जाय. ऐसे उपन्यास को पाठक ऊब कर छोड़ देता है. एक प्रसंग अभी पूरा नहीं होने पाया कि दूसरा आ गया. वह अभी अधूरा ही था कि तीसरा प्रसंग आ गया, इससे पाठक का चित्त चकरा जाता है. पेचीदा प्लाट की कल्पना इतनी मुश्किल नहीं है, जितनी किसी सरल प्लाट की. .... प्लाट में मौलिकता का होना भी बहुत जरूरी है. प्रेम, वियोग आदि विषय इतनी बार लिखे जा चुके हैं कि उनमें कोई नवीनता नहीं रही बाकी. .... अतः "शुकबहत्तरी" से पाठकों की तस्कीन नहीं होती. प्लाट में कुछ न कुछ ताजगी, कुछ न कुछ अनोखापन ज़रूर होना चाहिए. रही, रोचकता, वह मौलिकता की सहगामिनी है. .....

( माधुरी : 23 अक्तूबर 1922 ) 


अरुण देव ने आज ' समालोचन ' में वरिष्ठ आलोचक और अध्येता रविभूषण का आलेख लगाया है -- "प्रेमचंद और भारतीय लोकतंत्र". अपने समय की लोकतांत्रिक गतिविधियों पर प्रेमचंद की जो दृष्टि थी, उसे इसमें कितने गहरे से बताया और समझाया गया है. इसी तरह दो दिन पूर्व रविभूषण का ही एक और आलेख "गोदान में स्पेकुलेशन" भी यहां लगा है. गोदान (1936) पर विमर्श और चर्चा के सम😂य उसमें ग्रामीण पक्ष के बरक्स नगरीय गतिविधियों पर प्रेमचंद की जो दृष्टि है, उसे या तो छोड़ दिया गया है या वह छूट गया है. विद्वान समीक्षक ने इस आलेख में तार्किक रूप से यह ज्ञापित किया है कि गोदान व्यापक अर्थों में आधुनिक भारत का ब्लू प्रिंट है.


उधर प्रभात रंजन ने ' जानकी पुल ' में आज प्रेमचंद का पत्र जयशंकर प्रसाद के नाम  (1.10.1934) लगाया है, तब उपन्यास सम्राट बंबई में थे और फिल्मों के लिए लिख रहे थे : 

यहां की फिल्म दुनिया देखकर चित्त प्रसन्न नहीं हुआ, सब रूपये कमाने की धुन में. चाहे तस्वीर कितuनी ही गंदी और भ्रष्ट हो, शिक्षित रुचि की कोई जगह नहीं.

मैं तो किसी तरह यह साल पूरा करके भाग आऊंगा. .... 


आज यह सब पढ़ा जाना चाहिए.

धीरपुर की पान वाली / भोलानाथ कुशवाहा

 आईना

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             आज की कविता

वरिष्ठ नवगीतकार सुधांशु उपाध्याय जी के साथ दिल्ली के धीरपुर स्थित आकाशवाणी के हास्टल के बाहर सड़क के किनारे नीम के पेड़ के नीचे चाय-पान की दुकान चलाने वाली महिला की स्थिति को देखकर उपजी दिल्ली की व्यवस्था पर एक कविता / सन् 2007 में प्रकाशित कविता संग्रह 'कब लौटेगा नदी के उस पार गया आदमी' से। ( 23 अगस्त 2022)


            धीरपुर की पानवाली

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धीरपुर की पानवाली ने

दिल्ली का सूत्र खोला

मुस्कुराकर नजर नीची की

चाय-पान में आत्मीयता का रस घोला,

इलाहाबाद को एक क्षण के लिए जीया

मानो त्रिवेणी के जल को

माथे लगाकर पीया,

अपनी छोटी-सी दुकान पर

हुए इस संगम को

कोलकाता से दिल्ली आकर

बसने की कथा से जोड़ कर सीया,

काली मंदिर के पीछे किराये का मकान

सामने बिना छप्पर की दुकान,

पति को इलाज के लिए

दिल्ली लेकर आयी

फिर घर नहीं लौट पायी,

किराया मकान का चार सौ

मेहमान के आने पर

दस रुपये रोज और देना है,

इसी दुकान से परिवार की

नैया खेना है,

सड़क के किनारे के 

मिजाज का क्या कहना

बदलता रहता है

सरकारी बुलडोजर

यहाँ अक्सर चलता रहता है,

अग्निपाखी-सी जली है वह

पूर्णमासी के चाँद-सा ढली है वह,

सड़क के किनारे पेड़ के नीचे

उबलती चाय की भाप से

अपने को बचाती है

हाथ जलने पर भी

मुस्कुराती है,

पान का वीणा ऐसे थमाया

मानो मेहमान अपने गाँव का हो आया,

कुछ कहा कुछ रह गया अनकहा,

लोग चाय पीते हैं

पान खाते हैं

सुर्ती दाँत के नीचे दबाते हैं

रास्ता पूछते हैं

आगे निकल जाते हैं,

भागते शहर में

रुकी है वह

चाय की भाप पर

झुकी है वह।


       --भोलानाथ कुशवाहा

          मिर्जापुर (उ.प्र.)

  मो- 9335466414, 9453764968

सोमवार, 22 अगस्त 2022

अहंकार


प्रस्तुति - रेणु दत्ता / आशा सिन्हा 


 एक संन्यासी एक राजा के पास पहुंचे। राजा ने

उनका खूब आदर-सत्कार किया। संन्यासी कुछ दिन

वहीं रुक गए। राजा ने उनसे कई विषयों पर चर्चा की और

अपनी जिज्ञासा सामने रखी। संन्यासी ने विस्तार

से उनका उत्तर दिया। जाते समय संन्यासी ने राजा से

अपने लिए उपहार मांगा।

राजा ने एक पल सोचा और कहा, जो कुछभी खजाने में है,

आप ले सकते हैं।’संन्यासी ने उत्तर दिया, ‘लेकिन

खजाना तुम्हारी संपत्ति नहीं है,वह तो राज्य का है

और तुम मात्र उसके संरक्षक हो।

राजा बोले, ‘तो यह महल ले लीजिए।’ इस पर

संन्यासी ने कहा ‘यह भी तो प्रजा का है।’ इस पर

राजा ने कहा, ‘तो मेरा यह शरीर ले लीजिए।’

संन्यासी ने उत्तर दिया, शरीर तो तुम्हारी संतान

का है। मैं इसे कैसे ले सकता हूं?

राजा ने हथियार डालते हुए कहा, तो महाराज आप

ही बताएं कि ऐसा क्या है जो मेरा हो और आपको देने

लायक हो?

संन्यासी ने उत्तर दिया, ‘हे राजा, यदि तुम सच में मुझे

कुछ देना चाहते हो, तो अपना अहंकार देदो।

अहंकार पराजय का द्वार है। यह यश का नाश करता है।

यह खोखलेपन का परिचायक है। अहंकार का फल क्रोध

है। अहंकार वह पाप है जिसमें व्यक्ति अपने को दूसरों से

श्रेष्ठ समझता है। वह जिस किसी को अपने से सुखी-संपन्न

देखता है,ईर्ष्या कर बैठता है। अहंकार हमें सभी से अलग कर

देता है।

कृष्ण लीला

 "भगवान जब चलने लगे तो पहली बार घर से

बाहर निकले. ब्रज से बाहर भगवान

की मित्र मंडली बन गयी. सुबल, मंगल,

सुमंगल, श्रीदामा, तोसन, आदि मित्र

बन गये. सब मिलकर हर दिन माखन

चोरी करने जाते. चोर मंडली के अध्यक्ष स्वयं माखन चोर

श्रीकृष्ण थे.सब एक जगह

इकट्टा होकर योजना बनाते कि किस

गोपी के घर चोरी करनी है . आज ‘चिकसोले वाली’

गोपी की बारी थी.भगवान ने गोपी के

घर के पास सारे

मित्रों को छिपा दिया और स्वयं उसके

घ र पहुँच गये.दरवाजा खटखटाने

लगे,भगवान ने अपने बाल और काजल बिखरा लिया.

गोपी ने

दरवाजा खोला, तो श्रीकृष्ण को खड़े

देखा. गोपी बोली – ‘अरे लाला! आज सुबह-

सुबह यहाँ कैसे? कन्हैया बोले – ‘गोपी क्या बताऊँ! आज

सुबह उठते ही, मैया ने कहा लाला तू

चिकसोले वाली गोपी के घर चले जाओ

और उससे कहना आज हमारे घर में संत आ

गए है मैंने तो ताजा माखन

निकला नहीं, चिकसोले वाली तो बहुत सुबह

ही ताजा माखन निकल लेती है

उनसे जाकर कहना कि एक मटकी माखन

दे दो, बदले में दो मटकी माखन

लौटा दूँगी . गोपी बोली – लाला! मै अभी माखन

की मटकी लाती हूँ और मैया से कह

देना कि लौटने की जरुरत नहीं है

संतो की सेवा मेरी तरफ से

हो जायेगी .झट गोपी अंदर गयी और

माखन की मटकी लाई और बोली - लाला ये माखन

लो और ये मिश्री भी ले

जाओ. कन्हैया माखन लेकर बाहर आ गए और

गोपी ने दरवाजा बंद कर लिया .भगवान

ने झट अपने सारे सखाओ

को पुकारा श्रीदामा, मंगल, सुबल,

जल्दी आओ, सब-के-सब झट से बाहर आ गए

भगवान बोले जिसके यहाँ चोरी की हो उसके दरवाजे

पर

बैठकर खाने में ही आनंद आता है, झट

सभी गोपी के दरवाजे के बाहर बैठ गए,

भगवान ने सबकी पत्तल पर माखन और

मिश्री रख दी. और बीच में स्वयं बैठ गए

सभी सखा माखन और मिश्री खाने लगे. माखन के खाने

से पट पट और मिश्री के

खाने से कट-कट की, जब आवाज गोपी ने

अंदर से सुनी तो वह सोचने लगी कि ये

आवाज कहाँ से आ रही है और जैसे

ही उसने दरवाजा खोला तो सारे

मित्रों के साथ श्रीकृष्ण बैठे माखन खा रहे थे.

गोपी बोली – ‘क्यों रे कन्हैया! माखन

संतो को चाहिए था या इन चोरों को? भगवान बोले

-'देखो गोपी! ये

भी किसी संत से कम नहीं है सब के सब

नागा संत है देखो किसी ने भी वस्त्र

नहीं पहिन रखे है, तू इन्हें दंडवत प्रणाम

कर. गोपी बोली - अच्छा कान्हा! इन्हें

दंडवत प्रणाम करूँ, रुको, अभी अंदर से

डंडा लेकर आती हूँ .गोपी झट अंदर

गयी और डंडा लेकर आयी.

भगवान ने कहा- 'मित्रों! भागो,

नहीं तो गोपी पूजा कर देगी. एक दिन जब मैया ताने

सुन सुनकर थक

गयी तो उन्होंने भगवान को घर में

ही बंद कर दिया जब आज गोपियों ने

कन्हैया को नहीं देखा तो सब के सब

उलाहना देने के बहाने नंदबाबा के घर आ

गयी और नंदरानी यशोदा से कहने लगी-

यशोदा तुम्हारे लाला बहुत नटखट है, ये

असमय ही बछडो को खोल देते है, और जब

हम दूध दुहने जाती है तो गाये दूध

तो देती नहीं लात मारती है जिससे

हमारी कोहनी भी टूटे और

दुहनी भी टूटे.घर मै कही भी माखन छुपाकर रखो,

पता नहीं कैसे ढूँढ लेते है

यदि इन्हें माखन नहीं मिलता तो ये

हमारे सोते हुए

बच्चो को चिकोटी काटकर भाग जाते

है, ये माखन तो खाते ही है साथ में

माखन की मटकी भी फोड़ देते है*.

यशोदा जी कन्हैया का हाथ पकड़कर

गोपियों के बीच में खड़ा कर देती है और

कहती है कि ‘तौल-तौल लेओ वीर,

जितनों जाको खायो है, पर गली मत

दीजो, मौ गरिबनी को जायो है’. जब

गोपियों ने ये सुना तो वे कहने लगी - यशोदा हम

उलाहने देने नही आये है आपने

आज लाला को घर में ही बंद करके रखा है

हमने सुबह से ही उन्हें नही देखा है इसलिए

हम उलाहने देने के बहाने उन्हें देखने आए थे.

जब यशोदा जी ने ये सुना तो वे कहने

लगी- गोपियों तुम मेरे लाला से इतना प्रेम करती हो,

आज से ये सारे

वृन्दावन के लाल है . *आध्यात्मिक पक्ष- भगवान समय

ही बछडो को खोल देते है भगवान

को बँधा हुआ जीव

अच्छा नहीं लगता इसलिए भगवान जीव

को मुक्त कर देते है. और सोता हुआ जीव

भी अच्छा नहीं लगता इसलिए भगवान उसे उठा देते है.

माखन ये मन है, और

मटकी ही ये शरीर है, भगवान जब अपने

भक्त का मन चुरा लेते है तो फिर इस देह

का क्या काम इसलिए भगवान इसे फोड़

देते है.

शनिवार, 20 अगस्त 2022

गोस्वामी तुलसीदास

 #तुलसीदास# 

कवि जयंती की पावनता 


एक कवि क्या होता है, वह क्या कर सकता है इसे तुलसीदास की महिमा से समझा जा सकता है! वह निर्गुण को जानते हैं सगुण को साधते हैं। मध्यकालीन समय में कुछ निराकारवादी बर्बर कबीलों के साकार उपद्रव के समक्ष एक सगुण और बेहद ठोस  प्रतिरोध भगवान राम के माध्यम से गोस्वामी तुलसीदास ने रचा। उनके ठीक पहले इसे सूर ने भ्रमरगीत में संभव किया था। निर्गुण पर ऐसा प्रहार कि उधौ जी भागते फिरे! तुलसी भेदरहित दृष्टि लेकर समन्वय करते हैं! कितने झगड़े फरियाये हैं उनकी गिनती नहीं। 


समन्वय के सबसे बड़े कवि तुलसी । वह अवसाद के कवि नहीं हैं और न उन्माद के । न विवाद के। वह मूलतः संवाद के कवि हैं। यही उपनिषदों की और तथागत की भी परम्परा रही है। वह जातिवादी नहीं हैं किंतु वर्णाश्रम को केंद्र में लाना चाहते हैं। वर्णाश्रम शताब्दियों से पॉस्चुलेट की तरह सामने रहा है वह थियोरम नहीं है। जीवन कभी वैसा भी चला होगा। तुलसी तत्कालीन विकृत समाज के प्रतिपक्ष में वर्णाश्रम को कस्टमाइज्ड करके प्रस्तुत करते हैं । वह उनका रामराज्य है जहां न कोई दरिद्र है न दीन । न कोई विबुध है न मलिन। न कोई डिप्रेशन में है न कोई मूर्ख। न कोई भूखा है न प्रताड़ित। आज भी हम ऐसा कोई लोकतंत्र नहीं बना सके हैं। दूसरे निर्गुण मध्यकालीन संतों ने बेगमपुर बसंतदेश और गोकुल आदि जितने तरह की यूटोपियाएं रची हैं सबसे अधिक सगुण और कार्यांकित की जा सकने वाली प्रस्तावना तुलसी की है । 


##


कवितावली में तुलसीदास ने जिस तरह आत्मकथ्य प्रस्तुत किया है वैसा वर्णन किसी कवि ने नहीं किया है। जब अनेक कवि संतई में मगन थे तुलसी ने लिखा कि न किसान को खेती है न व्यापारी के पास व्यापार है । यहाँ तक कि भिखारी के लिए भीख नहीं है मज़दूर के लिए मज़दूरी नहीं है। लोग बेहाल हैं। विवश हैं। आकुल व्याकुल हैं। पेट के लिए लोग क्या क्या नहीं कर रहे हैं। लोगों के पास न जीविका है न और कोई जीवन निर्वाह का उपाय । लोग केवल शोक और दुश्चिंता में डूबे हुए हैं। ज्ञानी भी वंचक निकल गए हैं। लोग बहुरूपिया बनकर जी रहे हैं। पेट के लिए लोग क्या क्या नहीं कर रहे हैं। लोग अपने बेटे बेटियाँ भी बेच रहे हैं। 


यह किस मुगलकालीन स्वर्ण युग का भारत है? ज्ञानी लोग और पंथी लोग निराकरण कर लें। क्या वह अकबरकालीन भारत का ही वर्णन नहीं कर रहे? इसी लिए कि लोग अकबर की इस मायावी छवि के समक्ष अपने वास्तविक रूप को कहीं भूल न जाएँ। तुलसी की यह सूक्ष्म राजनीति है। कोई भी बड़ा कवि अपनी जातीय स्मृतियों और संस्कारों का ही प्रवक्ता होता है या हो सकता है। कुछ जगहों पर ऐसा कहा गया है कि कुछ स्वार्थी लोगों ने अकबर को गोब्राह्मण हितैषी विष्णु -अवतार भी घोषित कर दिया था। तुलसी ऐसी किसी भी काल्पनिक सत्ता के विरोधी हैं। वह ऐसे लोगों के भी विरोधी हैं जो स्वार्थ के लिए कुछ भी सिद्ध कर सकते हैं। 


तुलसी से बड़ा प्रगतिशील और यथार्थवादी कवि कोई दिखता नहीं है। यहाँ पर वह उन अनाम प्राकृत कवियों की पंक्ति में भी आगे खड़े दिख जाते हैं जो केवल दरिद्रता की व्यंजना भर किया करते थे। ऐसा भयानक वर्णन तो उन कवियों ने भी नहीं किया। है। किसी भक्त कवि ने तो नहीं ही किया है। रामचरितमानस में भी कलि वर्णन उनकी उन्हीं अवधारणाओं का निष्कर्ष है। मुगलकालीन व्यापार की सर्वाधिक भ्रष्टता का अविवेक और अतिरेक भारतीय परम्परा को कितना विकृत कर रहा है यह तुलसी के मूल्य बोध का हिस्सा है। आप सहमत हों या असहमत तुलसी इसकी परवाह नहीं करते। जिस परिप्रेक्ष्य से लोकायन को वह संभव कर रहे हैं वहाँ इतिहास के वातायन खुलते हैं। वह केवल इतना कह रहे हैं कि समय निकाल कर उस खिड़की से अंदर झांकें। तुलसी तक आते आते परायेपन के लगभग पाँच छ सौ साल बीत गए हैं। तत्कालीन भारत जिस तरह की सामाजिक संरचना बचा पाया है तुलसी उसे विवेक की आँख से देख रहे हैं और एक आलोचक कवि की हैसियत से सत्य का निरूपण कर रहे हैं। वहाँ विचार और अनुभव दोनों की कोटियाँ बनाते हुए वह भाषा के मोर्चे पर सामने लड़ रहे हैं। 


कहने को बहुत है । फिर कभी। 


-##


ग़ाज़ीपुर के एक हनुमान मंदिर में तुलसीदास की ऐसा छटा वाली मूर्ति स्थापित है। इस वेश में तुलसी बाबा की यह अद्भुत मूर्ति है। यहाँ वह कवियशःप्रार्थी लगते हैं। उनकी पगड़ी न मराठी है न बंगाली। वह भोजपुरी राजसिकता की अनुकृति है जिसका भदेस गमछे वाली पगड़ी है। इसका एक छोर दाहिनी ओर खुला छूटा है। ठीक भोजपुरी पगड़ी की तरह। 


जीवन की राजसिक संधि पर सकल विद्या समधीत तुलसीदास । ऐसा लगता है कि नए नए तुलसी जीवन के संग्राम की ओर बढ़ने वाले हैं। मन में उत्साह और जिगीषा है। लगता है ये निराला के तुलसीदास हैं- युवा और स्नातकोत्तर । यह छवि राजसिक और महिमामयी लगी। 


तुलसीदास में निराला ने लिखा था-

जागा जागा संस्कार प्रबल

रे गया काम तत्क्षण वह जल


यह विदग्ध कामना ही तुलसी के नेत्रों में समा गयी है। 


नीचे जो दोहा है वह इस बात की गर्वोक्ति है कि मैं मैंने पत्नी के उपदेश से राम के प्रति प्रेम का रस चखा।


आज तुलसी जयंती के अवसर पर मेरी ओर से महाकवि तुलसीदास को प्रणाम! 


फ़ोटो - आनंद 

२ अगस्त २०२२,

बेटा, ये बाल यूँ ही सफेद नही हुए है!"

 एक वृद्ध ट्रेन में सफर कर रहा था, संयोग से वह कोच खाली था। तभी 8-10 लड़के उस कोच में आये और बैठ कर मस्ती करने लगे।


एक ने कहा - "चलो, जंजीर खीचते है". दूसरे ने कहा - "यहां लिखा है 500 रु जुर्माना ओर 6 माह की कैद." तीसरे ने कहा - "इतने लोग है चंदा कर के 500 रु जमा कर देंगे."


चन्दा इकट्ठा किया गया तो 500 की जगह 1200 रु जमा हो गए. जिसमे 200 के तीन नोट, 2 नोट पचास के बांकी सब 100 के थे


चंदा पहले लड़के के जेब मे रख दिया गया। तीसरे ने कहा, "जंजीर खीचते है, अगर कोई पूछता है, तो कह देंगे बूढ़े ने खीचा है। पैसे भी नही देने पड़ेंगे तब।"


बूढ़े ने हाथ जोड़ के कहा, "बच्चो, मैने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है, मुझे क्यो फंसा रहे हो?"


लेकिन नही । जंजीर खीची गई। टीटीई आया सिपाही के साथ, लड़कों ने एक स्वर से कहा, "बूढे ने जंजीर खीची है।"


टी टी बूढ़े से बोला, "शर्म नही आती इस उम्र में ऐसी हरकत करते हुए?"


बूढ़े ने हाथ जोड़ कर कहा, "साहब" मैंने जंजीर खींची है, लेकिन मेरी बहुत मजबूरी थी।"


उसने पूछा, "क्या मजबूरी थी?"


बूढ़े ने कहा, "मेरे पास केवल 1200 रु थे, जिसे इन लड़को ने छीन लिए और इस पहले लड़के ने अपनी जेब मे रखे है।" जिसमे 200 के तीन नोट, 2 नोट पचास के बांकी सब 100 के हैं


अब टीटी ने सिपाही से कहा, "इसकी तलाशी लो".


जैसा बूढ़े ने कहा नोट मिलाये गए लड़के के जेब से 1200रु बरामद हुए, जिनको वृद्ध को वापस कर दिया गया और लड़कों को अगले स्टेशन में पुलिस के हवाले कर दिया गया।


पुलिस के साथ जाते समय लड़के ने वृद्ध की ओर घूर के देखा तो वृद्ध ने सफेद दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए कहा -


"बेटा, ये बाल यूँ ही सफेद नही हुए है!"

😁😁😁😁😁😁😁😁😁😁😁😁😁😁😁😁😁😁😁😁😁😁😁😁😁😁😁😁😁😁😁😁😁😁😁😁😁

ज़ब मिल बैठे ❤️आबिद सुरती से रा यात्री और राम अरोड़ा

 अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कार्टूनिस्ट, लेखक, कथाकार श्री आबिद सुरती और कहानीकार श्री राम अरोड़ा जी का आज आवास पर आगमन हुआ

दोनों ही महानुभाव वसुंधरा से ईरिक्शा में हवाखोरी करते हुए कवि नगर पहुंचे

उम्र के 90 वें और 87 वें पायदान पर पहुंच चुके दो मित्रों की करीब तीन घंटे की बैठकी में 

यादों की कईं पिटारियां खुलीं

धर्मवीर भारती, राजेंद्र यादव, कमलेश्वर, कामतानाथ, जितेन्द्र भाटिया, सुधा अरोड़ा, सत्यजीत रे, उत्पल दत्त, विभूति नारायण राय, रवींद्र कालिया, ममता कालिया, चित्रा मुदगल, बलराम, महेश दर्पण, वल्लभ डोभाल, नवीन सागर, कांता भारती, ब्रजेश्वर मदान, कुबेर दत्त, सव्यसाची, हरीश भादानी, सुदीप, सूरज पालीवाल, योगेन्द्र दत्त शर्मा, कमलेश भट्ट ,'कमल', विपिन जैन, सोमेश्वर, सतीश मित्तल (भावना प्रकाशन), राजेंद्र तायल (खुर्जा में पाटरी वाले) सहित कई साहित्यकारों की कई कहानियों के ज़िक्र और संस्मरणों में समय कब व्यतीत हो गया पता ही नहीं चला

भतीजे राजा माधव जी के सौजन्य से 

इन अविस्मरणीय क्षणों के कुछ चित्र और वीडियो 

साझा कर रहा हूं

भेंट स्वरूप आबिद जी द्वारा लाई गईं पुस्तकों और राम अरोड़ा जी द्वारा लाए गए दाना पानी का हार्दिक आभार❤️❤️

गुरुवार, 18 अगस्त 2022

एक झंडा ले लो"""/ सीमा "मधुरिमा"



साहब एक झंडा ले लो  ,


कहता जा रहा था वह

साहब ने कहा , 

हम क्या करेंगे झंडे का

घर में छोटे बच्चे भी नहीं ,

साहब , आपकी इतनी बड़ी गाड़ी है ,

ये अपने देश का झंडा , उसकी शोभा बढायेगा ,

मात्र दो रूपये का ही तो है ,

साहब ले लो न ----

साहब ने उसे तरेरती निगाहों से देखा ,

बच्चा सहम के पीछे हट गया ,

साहब आगे बढ़ गये ,

आगे साहब ने एक पान की दूकान से 

पैक करवाया कुछ पान ,

छुट्टे नहीं थे दस रूपये टिप में दिए ,

साहब आगे बढ़े , एक होटल से बिरयानी लिया

यहाँ भी वेटर को पचास रूपये टिप में दिए ,

साहब आगे बढ़ गये , पहुंचे अपने घर----

कुछ लोग जहां पहले से साहब का इन्तजार रहे थे कर ---

जो थे आस पास के लोग , जो आये थे देने बधाई

सबने मिल खायी स्वतंत्रता दिवस की मिठाई ---

लिया सबने विदा , बोले हम हैं अपने देश पर फ़िदा !!!


सीमा "मधुरिमा"

लखनऊ !!!

बुधवार, 17 अगस्त 2022

क्योंकि मैं लिखता हूँ..../ पवन तिवारी

 मित्रो हर लेखक और कवि को पता होना चाहिए कि वो वास्तव में क्यों लिखता है। उसी तरह यह मेरी कविता मेरे लेखन का घोषणा पत्र है। आप इसे पढ़ने के साथ यूट्यूब पर मुझे इसका वाचन करते हुए सुन भी सकते हैं। यदि मेरा यह घोषणा पत्र सच्चा लगे तो टिप्पणी करें और साझा भी करें।धन्यवाद 👏💐


शीर्षक- क्योंकि मैं लिखता हूँ.....


मर गया होता शायद

न लिखता तो !

गमों के साथ में 

गल गया होता,

घेरे रहती उदासियां 

अक्सर,

इन उदासियों के तले 

दबकर मर गया होता, 

न लिखता तो! 

क्यों जानते हो ?

मैं जिंदा क्यों हूँ ?

मैं लिखता क्यों हूँ?

जानते हो! 

मेरे लिए बचा ही नहीं 

कोई रास्ता! 

मैं लिखता हूँ; 

जिंदा रहने के लिए !

मैं जिंदा हूँ,

इसलिए भी लिखता हूँ.

तुम मेरी अभिव्यक्ति पर 

ठहाके लगाकर 

हँस सकते हो,

अट्टहास के साथ 

उड़ा सकते हो, 

मेरा उपहास !

पर इससे भी नहीं बदल सकता 

मेरा देखा, भोगा और 

क्षण क्षण जिया हुआ सत्य! 

जब कभी तुम 

सभी अपेक्षाओं द्वारा 

जाओगे छले;

सभी संबंधों, 

विश्वासों द्वारा जाओगे ठगे !

शायद तब तुम्हें 

मेरी ये अभिव्यक्ति कचोटे.

और तुम कर लो आत्महत्या !

एक कायर की भाँति।

क्योंकि तुम लिख नहीं सकते!

हाँ, यदि तुम लिखना सीख जाओ तो, 

बच सकते हो;

कायरों की तरह मरने से।

क्योंकि लेखन आप को कायर नहीं 

संघर्ष करना सिखाता है।

अपने को शब्दों में 

व्यक्त करने का 

एक नया ब्रश, एक नयी छीनी

एक नई कला देता है ।

मेरी जिंदगी और मौत के बीच 

अगर कोई खड़ा है तो,

मात्र मेरा लेखन ही है! 

ना होता तो,

कोई उद्देश्य या बहाना ही 

न बचता जीने का; 

बिना उद्देश्य के जीना 

मरना ही तो है।

 या उससे भी बदतर,

जैसे खाली मकान धीरे-धीरे 

खंडहर हो जाता है।

खंडहर होना मरना ही तो है! 

मैं खंडहर नहीं होना चाहता, 

मैं जिंदा हूँ और रहूँगा,

क्योंकि मैं लिखता हूँ।


पवन तिवारी

सम्वाद- 7718080978

poetpawan50@gmail.com

हिंदी के लाल

 मेरे हिंदी साहित्य एवं भाषा के अनुरागी साथियों, बहुत पहले मैनें हिंदी भाषा साहित्य के क्रमिक विकास को लेकर एक लंबी कविता लिखी थी। जिनमें क्रमिक रूप से हिंदी साहित्य के उद्भव से लेकर आधुनिक काल तक के महत्त्वपूर्ण रचनाकारों को शामिल करते हुए एक विनम्र प्रयास किया था। जिसे बड़ी सराहना मिली थी। आज पुनः वर्षों बाद साझा कर रहा हूँ। इससे आप और हिंदी साहित्य के छात्रों को भी लाभ होगा। ऐसा मेरा मत है। आप इसे पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया दें। 


शीर्षक है  -  t, नरपति

चंदरवरदाई, भट्ट केदार


 मधुकर, जगनिक, खुसरो अमीर

फिर रामानंद, तुलसी, कबीर

मीरा, जायसी, कुतुबन, मंझन

सब भक्ति-भाव के थे गुंजन


भूषण और बिहारी अद्भुत

औ रसखान,रहीम भी अद्भुत

हिंदी के ये सरल सहज सुत

खड़े किए हिंदी के नए बुत


एक दास नरोत्तम थे अद्भुत

उनके पद प्यारे थे सचमुच

बस एक सुदामा चरित लाए

जन मन के मन को वे भाए


केशव आये, घन बन छाये

फिर सदल मिश्र, इंशाअल्ला

संग शिवप्रसाद, सुखलाल,लक्ष्मण

और श्रीनिवास भी संग आए


एक श्रद्धाराम फिल्लौरी भी

दूजे बदरीनाथ चौधरी भी

एक महावीर द्विवेदी जी

एक गोपालराम गहमरी भी


    हिंदी का दीप नया आया

वह भारतेंदु था कहलाया

पुनि धारा बही हिंदी जल की

हिंदी सरिता कल - कल सी की


सबने नव, नूतन, नवल लिखे

हिंदी के नव  अध्याय लिखे

एक जगन्नाथ रत्नाकर थे

हिंदी के सच्चे चाकर थे


एक श्याम सुन्दर दास आये

एक देवकीनंदन खत्री  भी

पाछे से गुलेरी भी आये भी

हिन्दी को मिलकर चमकाए


एक पुत्र प्रताप नारायण मिश्र

आये पीछे से कौशिक भी

इन दोनों की अपनी शैली

हिन्दी अपने रंग में रंग ली


    ये चार पुत्र थे चार दिशा

हिंदी की कथा, हिंदी की व्यथा

हिंदी को नव उत्थान दिए

हिंदी को अनगिन मान दिए


थे प्रेमचंद अवतार हुए

हिंदी के लाल गुलाल हुए

फिर धार बही रसधार बही

हिंदी की सोंधी बयार बही


एक रामनरेश त्रिपाठी थे

देशज हिंदी की माटी थे

‘राधिकारमण भी आये थे

वे भी हिन्दी संग छाये थे  


    एक पुत्र थे बालमुकुंद गुप्त

एक पूत हुए हरिऔध सुनो

जयशंकर की भी गूंज सुनो

चहुँ दिशि गूँजी हिंदी की सुनो


एक सुदर्शन पंडित आये

वे हार-जीत सब कुछ बतलाए

जो भी बोले, बस सच बोले

हिंदी के पुत्र जब मुख खोलें


हिंदी का शुक्ल पक्ष आया

वह रामचंद्र था कहलाया

शिव पूजन और गुलाबराय

हिंदी दोनों को बड़ी भाय


    एक अद्भुत बालक और हुआ

हिंदी का जगमग भाल हुआ

मैथिलीशरण वह नाम हुआ

हिंदी का जय-जय गान हुआ


    एक वृंदावन, एक चतुरसेन

एक बालकृष्ण शर्मा नवीन

एक माखनलाल चतुर्वेदी

एक पदुमलाल पुन्ना बख्शी


हिंदी का पुत्र महान हुआ

राहुल साँकृत्यायन नाम हुआ

फिर गया प्रसाद शुक्ल ‘स्नेही’

एक बेचन शर्मा ‘उग्र’ हुआ


सांकृत्यायन के क्या कहने

पर्यटन व लेखन उनके गहने

बहु  भाषाओं के ज्ञानी

दुनिया घूमे,दुनिया मानी


बुद्धि,स्नेह और व्यंग्य, वात्सल्य

देश प्रेम का घोष यहाँ हैं

उग्र रचे सच कड़वा – कड़वा

गया का देश प्रेम यहाँ है


फिर मत पूछो क्या क्या न हुआ

पुनि महादेवी और रामवृक्ष

एक सूर्यकांत ही सूर्य हुआ

हिंदी का चंदन, वीर हुआ


वह महाप्राण फिर कहलाया

मतवाला गया मतवाला बन

लौटा तो निराला कहलाया

हिंदी के लिए सब छोड़ आया


    एक नई प्रथा, एक नया रंग

हिंदी में भरे अनगिनत रंग

हिंदी विरुद्ध कोई बोला तो

गांधी तक से वह लड़ आया


तब हिंदी का वसंत आया

बह चलने लगा समीर मंद

पंत, भगवती, सोहन, बच्चन

सुभद्रा व यशपाल थे सज्जन


ऐसे में श्याम नारायण तड़के

दिनकर, दिनकर बनकर दमके

ऐसे में आलोचना लिए

हजारी, नंद दुलारे धमके


डॉक्टर रामकुमार आये

जगदीश चंद्र पाछे आये

दोनों एक नाव के साथी थे

नाटक विधा संग संग लाए


ऐसे में कन्हैयालाल मिश्र

निबंध पोटली धर लाये

लक्ष्मी नारायण मिश्र हुए

नाटक के लिए प्रसिद्ध हुए


एक कथा पुरुष फिर से आया

जैनेंद्र कुमार वो कहलाया

हिंदी का कुल सरिता सा बहा

हर विधा का तेज प्रसार हुआ


फिर पुत्रों ने हुंकार भरी

हिंदी की खेती हरी - भरी

एक ‘अश्क’ एक ‘नेपाली’

एक नागार्जुन, अज्ञेय हुए


‘अश्क’ की कथा बड़ी मनरंगी

गीत ‘नेपाली’ के सतरंगी

नागार्जुन का लेखन क्रंदन

आम जनों के दुःख का वन्दन


एक अनंत गोपाल शेवड़े थे

    शमशेर बहादुर एक हुए

    एक ‘अंचल’ एक विष्णु प्रभाकर थे       

    द्वारिका प्रसाद को संग लाए


   एक अमृत नागर लाल हुए

   एक मुक्तिबोध दमदार हुए

   जानकी वल्लभ शास्त्री भी

   मेधावी हिंदी के  लाल हुए


   एक रामविलास शर्मा आये

   डॉ नगेंद्र को भी लाए

   हिंदी के तलछट खोज-खोज

   बहुधा विकार को साफ़ किए


   एक भवानी मिश्र हुए

   एक शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ हुए

   एक बच्चन सिंह चुपचाप हुए

   हिंदी के आला लाल हुए


   एक प्रभाकर माचवे थे

   भारत भूषण अग्रवाल हुए

   एक देशज कवि चलकर आया

   था नाम त्रिलोचन धर लाया


   हिंदी चित्रपटों के पट  पर

   गीत लिखे संगीत के तट पर

   हिंदी के स्नेहिल यह दीप

   थे नरेंद्र, शैलेंद्र, प्रदीप


कैसे भूले भैरव प्रसाद को

और फणीश्वरनाथ रेणु को

गांव खेत खलिहान-छाँव को

हिंदी की इस कठिन नाव को


गिरिजाकुमार माथुर आए

कविता संग नाटक ले आए

रांगेय राघव गति से आए

वे अल्प समय में ही छाए


एक नयी पौध उज्वल हिंदी

चमकी बन माथे की बिंदी

रंग-रंग के पुष्प खिले ‘

हिंदी को बहुत से सुमित मिले


विवेकी राय विवेक लिए

परसाई व्यंग्य के बाण लिए

आलोचना का शस्त्र लिए शाही

नीरज झोली में गीत लिए


सब मिश्रित रामदरश लाये

श्रीलाल शुक्ल, मोहन आये

कृष्णा सोबती, हिंदी शोभती

अमरकांत की कथा मोहती


धर्मवीर की कथा कहानी

कुंवर नारायण की कविता रानी

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

उनकी रचना का क्या कहना


नामवर, नाम काम था वैसा

नेमीचंद बहुमुखी प्रतिभा

राजकमल की प्रतिभा न्यारी

मन्नू की लेखनी थी प्यारी


राजेंद्र यादव की आयी बारी

श्रीकांत वर्मा का लेखन भारी

शरद जोशी की यात्रा न्यारी

मटियानी की कहानी प्यारी


सेरा यात्री हिंदी की बाती

दुष्यंत हिंदी ग़ज़ल की थाती

कमलेश्वर के कई कमाल

कथा-कहानी और पत्रकार


उषा का लेखन ऊषा था

केदारनाथ का मन दूजा था

जोशी मनोहर श्याम हुए

कुरु कुरु स्वाहा सन्नाम हुए


हिंदी किशोर गिरिराज किशोर

फिर दूधनाथ हिंदी के मोर

काशी के वासी काशीनाथ

हिंदी से मिले हुए सनाथ


धूल उड़ाते धूमिल आए

और प्रभाकर श्रोत्रिय आये  

भीष्म साहनी आए छाए

नए शब्दों के मेघ भी लाए


 एक रवींद्र कालिया आए

संग हिंदी की ममता लाए

हिंदी में मृदुला मह-महकी  

चित्रा मुद्गल चह - चह चहकी


हिंदी पुत्र नरेंद्र कोहली

जिनकी भाषा मन मोह ली

असगर वजाहत, गोरख पांडे

इनका लेखक ने गाड़े झंडे


हिंदी के रत्न हिंदी के लाल

यह रंग - बिरंगे बाल - गोपाल

यह हिंदी के नभ मंडल के

कुछ गिनती के सूर्य शशि


जाने कितने अगणित है और

उद्गण व असंख्य बौर

ऐसी हिंदी का वंदन है

मनसे हिंदी अभिनंदन है


पवन तिवारी

सम्पर्क – 7718080978

poetpawan50@gmail.com

कैसी आज़ादी? / पवन तिवारी

 

मित्रों अभिव्यक्ति की आजादी और असहिष्णुता की बात करने वालों के साथ बाकायदा एक चर्चा सत्र होना चाहिए और उनसे उस चर्चा में उनके प्रश्नों के उत्तर के साथ कुछ निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर भी पूछे जाने चाहिए


1) आज तक 1004 लेखको को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला है । 

2) जिसमे से 25 लेखको ने ही प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से पुरस्कार लौटाने की बात की है ।जबकि कुछ न्यूज़ चैनल इसे दिखा ऐसे रहे है।जैसे कितनी बड़ी त्रासदी आ गयी हो । 

3) 25 लेखको में से भी केवल 8 ने ही पुरस्कार लौटाने के लिए अकादमी को चिठ्ठी लिखी है ।बाकि ने तो सिर्फ चैनलों के माध्यम से बात ही कही है लौटाने की ।जैसे धमका रहें हो। 

4) 8 में से भी केवल 3 ने ही 1 लाख रुपये का चेक लौटाया है जो पुरस्कार के साथ मिलता है । अब जरा ये जानने का प्रयास किया जाये के इस पुरस्कार को लौटाने का कारण क्या है । लेखको के अनुसार जबसे केंद्र में ये सरकार बनी है ।तब से देश में सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ा है । क्या ये सच है । देखते हैं ।

साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने वाले लेखक तथा उनका सत्य ।


1) नयनतारा सहगल जवाहर लाल नेहरू की भांजी को पुरस्कार मिला 1986 में 

सवाल - क्या पुरस्कार पाने के 29 वर्षों में भारत में राम राज्य था । 1984 के दंगों में 2800 सिख मरे और केवल 2 साल बाद ही पुरस्कार मिला पर लौटाने के बजाय चुपचाप रख लिया ।

2) उदय प्रकाश को वर्ष 2010 में साहित्य पुरस्कार मिला

सवाल - वर्ष 2013 में डाभोलकर की हत्या के बाद पुरस्कार क्यों नहीं लौटाया ।

3) अशोक वाजपेयी को वर्ष 1994 में पुरस्कार मिला ।

सवाल - क्या वर्ष 1994 से वर्ष 2015 तक देश में राम राज्य था ।

4) कृष्णा सोबती को वर्ष 1980 में पुरस्कार मिला । 

 सवाल - वर्ष 1984 के सिख दंगो के वक़्त भावनाएँ आहत क्यों नहीं हुईं ।

5) राजेश जोशी को वर्ष 2002 में पुरस्कार मिला 

 सवाल - क्या इतने वर्षों में सांप्रदायिक हिंसा की घटनाये नहीं हुईं ।

आइये अब कुछ और तथ्य जानें ।

 वर्ष 2009 से लेकर वर्ष 2015 तक सांप्रदायिक हिंसा की 4346 घटनायें हुईं। मतलब वर्ष 2009 से लेकर प्रति दिन औसतन सांप्रदायिक हिंसा की 2 घटनाये हुईं। 

 वर्ष 2013 के मुज्जफरनगर दंगो में 63 लोगो की जान गयी। 

 वर्ष 2012 के असम दंगो में 77 लोग मारे गए ।

 वर्ष 1984 के सिख दंगो में 2800 लोग मारे गए थे ।

 वर्ष 1990 से कश्मीरी पंडितों की 95 प्रतिशत आबादी को कश्मीर छोड़ना पड़ा था ।करीब 4 लाख कश्मीरी पंडितों को उनके घरों से निकाल दिया गया और उन्हें देश के अन्य शहरो में रहने को मजबूर होना पड़ा ।

 अगस्त 2007 हैदराबाद में लेखिका तस्लीमा नसरीन के साथ बदसलूकी की गयी । और उसके खिलाफ फतवा जारी किया गया । और कोलकाता आने से भी रोका गया ।

वर्ष 2012 सलमान रुश्दी को जयपुर आने नहीं दिया गया ।रुश्दी को वीडियो लिंक के जरिये भी बोलने नहीं दिया गया ।    एक लेखक या बुध्धिजीवी के दो अलग पैमाने कैसे हो सकते हैं.

इससे पता चलता है कि ''अभिव्यक्ति की आजादी और असहिष्णुता'' एक  सुनियोजित  मेगाइवेंट है.एक चुनी हुई सरकार को अस्थिर करने के लिए जो इनके अनुरूप नहीं है. ''जो इनके अनुरूप नहीं है'' बस एक मात्र कारण से ये इतना बड़ा मेगाइवेंट कर रहे हैं वास्तव में ये सरकार ही सबसे ज्यादा असहिष्णुता की शिकार है

मंगलवार, 16 अगस्त 2022

आवश्यक सूचना :-*

 *आवश्यक सूचना :-* 

1. जो सतसंगी भाई - बहन दयालबाग अक्टूबर पर जाने वाले है। वे कृपया इस बात का ध्यान रखें कि अपने साथ किसी रिश्तेदार को साथ में बिना दयालबाग के पहले से प्राप्त परमिशन के न ले जाए। अगर अपने साथ भतीजा - भतीजी को भी बेटा - बेटी बनकर न ले जाएंगे। अगर आप ले जाते है तो वहां आपको इस बात का प्रूफ दिखलाना होगा कि यह आपका अपना बेटा - बेटी है। अब दयालबाग में बिना आईडी प्रूफ और बायोमेट्रिक आईडी कार्ड के प्रवेश वर्जित है। 

2. सतसंगी भाई - बहन भी जो दयालबाग जाएंगे उनका बायोमेट्रिक आईडी कार्ड होना अति आवश्यक हैं । बिना बायोमेट्रिक आईडी कार्ड के आपलोग भी नहीं जा सकते है । अतः अभी तक जिन भाई - बहन का बायोमेट्रिक नहीं बना है , वे कृपया बनवाले और सेंटर इंचार्ज में कन्फर्म  हो ले की आपका बायोमेट्रिक हो चुका है या नहीं । 

3.  जो लोग अगर किसी भी अपने सगे - सम्बन्धी को के जाना चाहते है तो पहले दयालबाग से रिहायशी परमिशन पत्र प्राप्त कर ले । 

4. किसी भी तरह का गलत कदम उठाने पर सतसंग से सेंटर के सभी लोगों को या आपको कुछ दिनों तक दयालबाग जाने से रोका जा सकता है ।  

Please be careful.


रा धा स्व अा मी 

सेंटर इंचार्ज भदेजी

13/08/2022

देस_भयो_परदेस / कृपा शंकर मिश्र

 


बँटवारे की वो काली रात। #लाहौर स्टेशन पर तिल रखने भर की जगह नहीं थी, बावजूद इसके लोग एक के उपर एक चढ़े जा रहे थे! सबको जल्दी थी फौरन से पेश्तर इस नापाक पाक से छुटकारा पाने की, वो जगह जो अभी अभी, स्वर्ग से नर्क में तब्दील हुई थी!


इसी काली रात में एक बूढ़े दम्पत्ति स्टेशन से थोड़ी दूर झाड़ियोंं में दम साधे अपना दम निकलने की आशंका में मरे जा रहे थे--


'ये ट्रेन भी छूटी जी! लगता है, अपने ही घर में गला रेते जाने का भाग्य लिखाकर आये हैं हम!'


'ऐसा ना कहो पार्वती! अभी मैं जिंदा हूँ!'--वृद्ध ने पत्नी का कंधा थपथपाया!


'इसी का तो रोना है जी! काश! काश कि आज हमें भी भगवान ने कोई बेटा-बेटी दी होती तो बुढ़ापे में आपको ये असह्य कष्ट नहीं झेलना पड़ता!'


'जिंदगी भर मैं भगवान को कोसता रहा भागवान, केवल इसीलिए कि उसने हमदोनों को संतानहीन रखा! पर आज दंडवत् कर रहा हूँ उन्हें!'


'क्या कह रहे हैं जी! इस त्रासदी में आपकी बुद्धि तो काम कर रही है ना!'


'एकदम पार्वती! रिश्ते जितने कम हों, आँसू उतने कम खर्च होते हैं!'


'मतलब!'


'सोचो! आज मैं बस तुम्हारे लिए और तुम मेरे लिए आशंकित हो! संतानें होतीं तो उनकी चिंता में तो हमदोनों ना मर पाते और ना जी पाते! देख रही हो टेसन पर चलती-फिरती जिंदा लाशों को! किसी के जवान बेटे की लाश तक ना मिल रही तो किसी की बेटी डोली चढ़ने की उम्र में अपनी अस्मत लुटाकर भी जान ना बचा सकी, कौड़ियों के भाव बाजार में एक हाथ से दूसरे हाथ बेची जा रही है!'


'हूँ!'


'बोलो! बर्दाश्त कर पाती ये सदमा! हमदोनों के पास क्या है! अधिक से अधिक जान, जो इस बुढ़ापे में वैसे ही कभी भी जा सकती है! मैं पहले मरुं तो तुम रो लेना और तुम पहले मरी तो मैं छाती पीट लूंगा!'


'जब मरना तय ही है तो हम इस एकांत में क्यों बैठे हैं जी! चलकर अपने घर में ही मौत की प्रतीक्षा क्यों ना करें!'


'हहहहहह घर! बड़ी भोली है रे तू पार्वती! अब ये हमारा घर नहीं, सांप का बिल है जिसमें आश्रय की उम्मीद पालना खुद को नागों से डंसवाना है!'


'फिर, फिर क्या करें हम?'


'हम पैदल ही जायेंगे #हिंदुस्तान, किसी सुनसान बियाबान रास्ते से!'


'क्या कह रहे हैं जी! आपको जंगली जानवरों से डर नहीं लगता!'


'अभी जंगली जानवर इन कसाइयों से एक पायदान नीचे ही हैं पार्वती! उठो, देर ना करो!'


'पर मुझमें इतनी जान नहीं बची जो मीलों पैदल चल सकूं! आप मेरी चिंता छोड़िये और जाइये!'


'अरे वाह! खूब कही तुमने! डोली नहीं है तो क्या, मेरे कंधे तो हैं ना! उनपे लाद के ले चलूंगा तुम्हें! समझ लो कि एक बार फिर बुढ़ापे में तुम्हारा गौना कराकर ले जा रहा हूँ!'


कहकर बूढ़े ने उत्तर की प्रतीक्षा नहीं की, आगे बढ़कर पार्वती को अपने कंधे पर लादा और चल पड़ा एक अंतहीन सफर पर, पीछे अपने पुरखों की निशानी और जीवन की तमाम स्मृतियों की हूक कलेजे में लिए!


वो अंतहीन सफर आज भी जारी है, कब पूरा होगा, ना तो उस बूढ़े दम्पत्ति को पता है और ना हमें! ये जीवन उनकी अगवानी का हमें अवसर देगा या नहीं, नहीं पता!*


कृपा शंकर मिश्र #खलनायक*

गाजीपुर, उ0प्र0*

रविवार, 14 अगस्त 2022

मोबाइल ( से ) परवरिश

 मोबाइल (  से ) परवरिश/ नेतराम भारती


दिवाकर शहर में एक बहुमंजिला सोसाइटी में रहता है l कुछ दिन हुए गाँव से उसकी माँ, अपने छोटे बेटे के लड़के कृष्णा के साथ, उसकी दसवीं वैवाहिक सालगिरह पर आशीर्वाद देने आई है l परंतु यहाँ के हालात, बच्चों की दिनचर्या और अपने स्वभाववश उनके ज़हन में कई प्रश्न उन्हें दिवाकर से पूछने को बाध्य कर रहे थे l

" दिवाकर! बेटा तुम कैसे रहते हो शहर में, मेरी तो कुछ समझ में ही नहीं आ रहा है l तेरा यह लड़का प्रभाकर कुछ खेलता - वेलता भी है?"

"खेलता है न माँ l"

"खेलता है! , मैंने तो नहीं देखा, कहाँ खेलता है?"

"मोबाइल पर माँ l" 

"मोबाइल पे! और मैंने इसे स्कूल - विस्कुल भी जाते नहीं देखा l" 

"जाता है न माँ l" 

" कहाँ जाता है?" 

"मोबाइल पर माँ l" 

" अरे! यह मोबाइल - वोबाइल की रट छोड़ l कहीं पर, कोई स्कूल तो चलता होगा, जहाँ इसके मास्टर - मास्टरनी पढ़ाते होंगे?" 

"है न माँ l" 

" कहाँ?" 

"मोबाइल पर माँ l" 

" बेटा! ये मसखरी की बात नहीं है l ऐसे कैसे तेरे बच्चे दुनियादारी सीखेंगे l इसे देख कृष्णा को, प्रभाकर से तो छोटा ही है न, पर सब जानता है l बाज़ार के सारे मोल - भाव, खरीदारी खुद कर लेता है l पर देखती हूँ, कि तेरे बच्चे, कैसे कोई सामान खरीदना, मोल - भाव करना सीखेंगे? "

" वे भी सीख रहे हैं माँ l"

" मैंने तो कभी बाज़ार जाते नहीं देखा l कब और कहाँ सीख रहे हैं?" 

दिवाकर ने हँसते हुए माँ के दोनों कंधे पकड़ते हुए कहा.. 

"मोबाइल पर माँ l" 

" पढ़ाई मोबाइल पर, खेलकूद मोबाइल पर, खरीदारी मोबाइल पर, हँसना - रोना, दुआ - सलाम, ख़ैर - ख़बर सब मोबाइल पर lअब ये मत कह देना बेटा, कि शहर के बच्चे मोबाइल पर ही जवान हो रहे हैं l" 

अबकी बार दिवाकर निःशब्द हो गया l


नेतराम भारती

शनिवार, 13 अगस्त 2022

नाक' / शोभा अक्षरा

: 'नाक'/ शोभा अक्षरा 


जब वह बारह साल की थी

जून की एक दुपहरी में

उसके ममेरे भाई ने घर पर बाथरूम के पास 

ले जाकर दबाये थे 

उसके हल्के उभरे स्तन

और ज़बरन हाथ को

चमड़े के बेल्ट के नीचे

पैंट की चेन के भीतर डाल दिया था

बेल्ट के बक्कल पर अंग्रेजी का एम बना हुआ था

लम्बी-लम्बी सांसें लेते हुए वो पकड़ा रहा था

 बार-बार उसे अपना गुप्तांग

जिसे उसने फुर्ती से बाहर निकाल कर रख दिया था

वैसे ही जैसे सजाए जाते हैं पारदर्शी काँच के भीतर

सर्राफे की दुकान में सोने और चाँदी के जेवर


अभी मई में उसने क्लास फिफ्थ का 

फाइनल पेपर दिया था

और थोड़ी देर पहले तक उसे

करसिव राइटिंग में कैपिटल एम लिखना बेहद पसंद था

उसके जीवन में हर रोज़ की तरह जब उस दिन भी

आसमान में ढेर सारे हवाई जहाज़ 

जो रफ़ कॉपी के पन्नों से बने हुए 

उड़ रहे थे

उसी वक़्त उस ममेरे भाई की आँखों में हवस 

करंट की तरह सरपट दौड़ रही थी 

 उस रोज किसी खरगोश की तरह झटकते हुए

पूरी ताक़त बटोर कर छुड़ा लिया था उसने अपना हाथ

लेकिन उसकी उंगलियों में एक किस्म की गन्ध अभी बची हुई थी

गन्ध घिनौने लिजलिजेपन में लिपटी हुई

वहाँ से तेज़ी से डर कर भागी थी वह

सोचते हुए कि अब तो कट जाएगी 'नाक'


 नाक जिसे उसकी माँ ने चुपचाप

 नानी के कहने पर कई सालों से छुपा कर रखा है

 एक काले गन्दे सिकुड़े हुए चौकोर कपड़े में गठिया कर

 किनारी जिसकी उधड़ी हुई है और जिसके एक कोने पर

बना हुआ है सफ़ेद कबूतरों का जोड़ा

इन कबूतरों ने चोंच में पकड़ रखा है

एक-एक तिनका हरे रंग का


अब वह थोड़ी बड़ी हो गयी है

और 28 नंबर के साइज की 

सी कप ब्रा पहनती है

एक बार इसी लड़की ने अपने सगे भाई को

थप्पड़ मार दिया था

घर के पास एक पुलिस स्टेशन में सबके सामने

उसी दिन से उसका कोई सगा भाई नहीं है

 और ये वही लड़की है जिसकी वजह से 

अक्सर कट जाती है 'नाक'

नाक बहुत बड़ी है

कटते-कटते ख़त्म भी नहीं हो रही है 


- शोभा अक्षर

(शनिवार, 03 जुलाई, रात दो बजकर पैंतीस मिनट पर)

त्रिदेव त्रिमूर्ति - औरतें / रमा शंकर विद्रोही

 त्रिदेव त्रिमूर्ति / रमा शंकर विद्रोही


 आज स्मृति दिवस पर नमन करते हुए आइए पढ़ते हैं जनपदीय जीवन के सजग चितेरे कवि त्रिलोचन जी की तीन मशहूर कविताएं ...


उस जनपद का कवि हूँ 

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उस जनपद का कवि हूँ जो भूखा दूखा है, 

नंगा है, अनजान है, कला--नहीं जानता 

कैसी होती है क्या है, वह नहीं मानता 

कविता कुछ भी दे सकती है। कब सूखा है 

उसके जीवन का सोता, इतिहास ही बता 

सकता है। वह उदासीन बिलकुल अपने से, 

अपने समाज से है; दुनिया को सपने से 

अलग नहीं मानता, उसे कुछ भी नहीं पता 

दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँची; अब समाज में 

वे विचार रह गये नही हैं जिन को ढोता 

चला जा रहा है वह, अपने आँसू बोता 

विफल मनोरथ होने पर अथवा अकाज में। 

धरम कमाता है वह तुलसीकृत रामायण 

सुन पढ़ कर, जपता है नारायण नारायण।


चंपा काले-काले अक्षर नहीं चीन्हती 

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चंपा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती

मैं जब पढ़ने लगता हूँ वह आ जाती है

खड़ी खड़ी चुपचाप सुना करती है

उसे बड़ा अचरज होता है :

इन काले चिन्हों से कैसे ये सब स्वर

निकला करते हैं।


चंपा सुंदर की लड़की है

सुंदर ग्वाला है : गायें भैंसें रखता है

चंपा चौपायों को लेकर

चरवाही करने जाती है


चंपा अच्छी है

         चंचल है

न ट ख ट भी है

कभी कभी ऊधम करती है

कभी कभी वह कलम चुरा देती है

जैसे तैसे उसे ढूँढ़ कर जब लाता हूँ

पाता हूँ - अब कागज गायब

परेशान फिर हो जाता हूँ


चंपा कहती है :

तुम कागद ही गोदा करते हो दिन भर

क्या यह काम बहुत अच्छा है

यह सुनकर मैं हँस देता हूँ

फिर चंपा चुप हो जाती है


उस दिन चंपा आई, मैंने कहा कि

चंपा, तुम भी पढ़ लो

हारे गाढ़े काम सरेगा

गांधी बाबा की इच्छा है -

सब जन पढ़ना लिखना सीखें

चंपा ने यह कहा कि

मैं तो नहीं पढ़ूँगी

तुम तो कहते थे गांधी बाबा अच्छे हैं

वे पढ़ने लिखने की कैसे बात कहेंगे

मैं तो नहीं पढ़ूँगी


मैंने कहा चंपा, पढ़ लेना अच्छा है

ब्याह तुम्हारा होगा, तुम गौने जाओगी,

कुछ दिन बालम संग साथ रह चला जाएगा जब कलकत्ता

बड़ी दूर है वह कलकत्ता

कैसे उसे सँदेसा दोगी

कैसे उसके पत्र पढ़ोगी


चंपा पढ़ लेना अच्छा है!

चंपा बोली : तुम कितने झूठे हो, देखा,

हाय राम, तुम पढ़-लिख कर इतने झूठे हो

मैं तो ब्याह कभी न करूँगी

और कहीं जो ब्याह हो गया

तो मैं अपने बालम को संग साथ रखूँगी

कलकत्ता में कभी न जाने दूँगी

कलकत्ते पर बजर गिरे।


प्रगतिशील कवियों की नई लिस्ट निकली है 

************************************


प्रगतिशील कवियों की नई लिस्ट निकली है

उस में कहीं त्रिलोचन का तो नाम नहीं था ।

आँखें फाड़-फाड़ कर देखा, दोष नहीं था

पर आँखों का। सब कहते हैं कि प्रेस छली है,

शुद्धिपत्र देखा, उसमें नामों की माला

छोटी न थी । यहाँ भी देखा, कहीं त्रिलोचन

नहीं । तुम्हारा सुन सुन कर सपक्ष आलोचन

कान पक गये थे, मैं ऐसा बैठाठाला

नहीं, तुम्हारी बकझक सुना करूँ । पहले से

देख रहा हूँ, किसी जगह उल्लेख नहीं है,

तुम्हीं एक हो, क्या अन्यत्र विवेक नहीं है ।

तुम सागर लांघोगे? – डरते हो चहले से ।

बड़े बड़े जो बात कहेंगे, सुनी जायगी

व्याख्याओं में उनकी व्याख्या चुनी जायगी।


-  त्रिलोचन 


औरतें 

*****


कुछ औरतों ने अपनी इच्छा से कूदकर जान दी थी

ऐसा पुलिस के रिकॉर्ड में दर्ज है

और कुछ औरतें अपनी इच्छा से चिता में जलकर मरी थीं

ऐसा धर्म की किताबों में लिखा हुआ है


मैं कवि हूँ, कर्त्ता हूँ

क्या जल्दी है


मैं एक दिन पुलिस और पुरोहित दोनों को एक साथ

औरतों की अदालत में तलब करूँगा

और बीच की सारी अदालतों को मंसूख कर दूँगा


मैं उन दावों को भी मंसूख कर दूंगा

जो श्रीमानों ने औरतों और बच्चों के खिलाफ पेश किए हैं

मैं उन डिक्रियों को भी निरस्त कर दूंगा

जिन्हें लेकर फ़ौजें और तुलबा चलते हैं

मैं उन वसीयतों को खारिज कर दूंगा

जो दुर्बलों ने भुजबलों के नाम की होंगी.


मैं उन औरतों को

जो अपनी इच्छा से कुएं में कूदकर और चिता में जलकर मरी हैं

फिर से ज़िंदा करूँगा और उनके बयानात

दोबारा कलमबंद करूँगा

कि कहीं कुछ छूट तो नहीं गया?

कहीं कुछ बाक़ी तो नहीं रह गया?

कि कहीं कोई भूल तो नहीं हुई?


क्योंकि मैं उस औरत के बारे में जानता हूँ

जो अपने सात बित्ते की देह को एक बित्ते के आंगन में

ता-जिंदगी समोए रही और कभी बाहर झाँका तक नहीं

और जब बाहर निकली तो वह कहीं उसकी लाश निकली

जो खुले में पसर गयी है माँ मेदिनी की तरह


औरत की लाश धरती माता की तरह होती है

जो खुले में फैल जाती है थानों से लेकर अदालतों तक


मैं देख रहा हूँ कि जुल्म के सारे सबूतों को मिटाया जा रहा है

चंदन चर्चित मस्तक को उठाए हुए पुरोहित और तमगों से लैस

सीना फुलाए हुए सिपाही महाराज की जय बोल रहे हैं.


वे महाराज जो मर चुके हैं

महारानियाँ जो अपने सती होने का इंतजाम कर रही हैं

और जब महारानियाँ नहीं रहेंगी तो नौकरियाँ क्या करेंगी?

इसलिए वे भी तैयारियाँ कर रही हैं.


मुझे महारानियों से ज़्यादा चिंता नौकरानियों की होती है

जिनके पति ज़िंदा हैं और रो रहे हैं


कितना ख़राब लगता है एक औरत को अपने रोते हुए पति को छोड़कर मरना

जबकि मर्दों को रोती हुई स्त्री को मारना भी बुरा नहीं लगता


औरतें रोती जाती हैं, मरद मारते जाते हैं

औरतें रोती हैं, मरद और मारते हैं

औरतें ख़ूब ज़ोर से रोती हैं

मरद इतनी जोर से मारते हैं कि वे मर जाती हैं


इतिहास में वह पहली औरत कौन थी?

जिसे सबसे पहले जलाया गया?

मैं नहीं जानता

लेकिन जो भी रही हो मेरी माँ रही होगी,

मेरी चिंता यह है कि भविष्य में वह आखिरी स्त्री कौन होगी

जिसे सबसे अंत में जलाया जाएगा?

मैं नहीं जानता

लेकिन जो भी होगी मेरी बेटी होगी

और यह मैं नहीं होने दूँगा ।


  - रमाशंकर यादव 'विद्रोही'

ऑर्गेज़्म की तलाश में / प्रिया वर्मा

 


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अरसे तक समझ नहीं आया 


कि आख़िर क्यों 

चाचा ने बिस्तर अलग कर लिया?

और क्यों तीन बच्चों के साथ देर रात तक ठिठोलियाँ करती चाची

दिन में अपनी जेठानियों के बीच बैठी 

लाल आँखें घूँघट में छिपाए बातें करतीं थीं?


क्यों मोहल्ले के शुक्ला जी के छोटे बेटे ने 

गुपचुप ब्याह कर लिया अपनी ही सगी साली से 

तब, जब उनकी बीवी छः माह के गर्भ से थी?


क्यों चिड़चिड़ा रहीं थीं 

तीस के आर-पार की 

बाहर काम पर जाती स्त्रियाँ?


चालीस तक आते आते वे 

जैसे पके बेल सा मन लिए 

टूट कर अलग हो जाती थीं, डाल से?


आख़िर काम का एक ही तो अर्थ था हमारे धर्म में

और धर्म के बाहर गई लड़कियों की

 या तो बाहर या भीतर  

किसी तरह से भी हत्या कर दी जाती थी। 


यह शादी का मामला था।

ज़िम्मेदारी से भरा और संगीन।

यह सबसे पहले बिस्तर से जुड़ा था, और बिस्तर के बारे में हमें चादर और गद्दे की गुणवत्ता के आगे

बताया नहीं गया। 


और इसलिए बिस्तर साथ बिछकर अब अलग हो रहे थे


जब पिता, चाचा और बड़े, छोटे भाई सब आदि-लक्ष्मण में बदल रहे थे, 

हमसे छिपा कर रखे गए थे कुछ नाम 

जैसे क्लियापेट्रा, तिष्यरक्षिता और, और भी तमाम

पर धर्म के आदिग्रन्थ के पारण के बहाने से

जो दो नाम नहीं बच पाए, वे हमारे संज्ञान में आए


वे शूर्पणखा के अपमान की पृष्ठभूमि पर रावण को युद्ध के नाम पर ललकार दिलाते 

और अम्बा के चरित्र का परिवर्तन करने को उसे लिंगहीन शिखण्डी बनाते


हम सब मान भी लेते। डर जाते हम चरित्र और समाज के नाम पर 


पर आत्मा के लिए धारण करते थे जो धर्म उसमें 

अपनी देह को कब तक छिपाते और 

अपनी स्थूलता को कहाँ ले जाते


आख़िर यह दो देहों का आपसी मामला था

और देह से विलग आत्मा का कोई मसला नहीं था 

तो देह के रेशम पर सलमा सितारे-सी झिलमिल आत्मा तक 

यह यौनिक मसला था। 


एक बिस्तर में जब शरीर दो थे

फिर संतुष्टि का एकतरफ़ा मामला क्यों था?


प्रिया वर्मा

गुरुवार, 11 अगस्त 2022

! हर पुरुष में एक स्त्री होती है !!*/ कृष्ण मेहता

 *!! हर पुरुष में एक स्त्री होती है !!*


सप्तऋषियों में एक ऋषि भृगु थे, वो स्त्रियों को तुच्छ समझते थे। 

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वो शिवजी को गुरुतुल्य मानते थे, किन्तु माँ पार्वती को वो अनदेखा करते थे। एक तरह से वो माँ को भी आम स्त्रियों की तरह साधारण और तुच्छ ही समझते थे। 

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महादेव भृगु के इस स्वभाव से चिंतित और खिन्न थे। 

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एक दिन शिव जी ने माता से कहा, आज ज्ञान सभा में आप भी चले। माँ शिव जी के इस प्रस्ताव को स्वीकार की और ज्ञान सभा में शिव जी के साथ विराजमान हो गई। 

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सभी ऋषिगण और देवताओ ने माँ और परमपिता को नमन किया और उनकी प्रदक्षिणा की और अपना अपना स्थान ग्रहण किया...

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किन्तु भृगु माँ और शिव जी को साथ देख कर थोड़े चिंतित थे, उन्हें समझ नही आ रहा था कि वो शिव जी की प्रदक्षिणा कैसे करे। 

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बहुत विचारने के बाद भृगु ने महादेव जी से कहा कि वो पृथक खड़े हो जाये। 

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शिव जी जानते थे भृगु के मन की बात। 

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वो माँ को देखे, माता उनके मन की बात पढ़ ली और वो शिव जी के आधे अंग से जुड़ गई और अर्धनारीश्वर रूप में विराजमान हो गई। 

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अब तो भृगु और परेशान, कुछ पल सोचने के बाद भृगु ने एक राह निकाली। 

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भवरें का रूप लेकर शिवजी के जटा की परिक्रमा की और अपने स्थान पर खड़े हो गए। 

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माता को भृगु के ओछी सोच पे क्रोध आ गया। उन्होंने भृगु से कहा- भृगु तुम्हे स्त्रियों से इतना ही परहेज है तो क्यूँ न तुम्हारे में से स्त्री शक्ति को पृथक कर दिया जाये..

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और माँ ने भृगु से स्त्रीत्व को अलग कर दिया। 

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अब भृगु न तो जीवितों में थे न मृत थे। उन्हें आपार पीड़ा हो रही थी...

.

वो माँ से क्षमा याचना करने लगे...

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तब शिव जी ने माँ से भृगु को क्षमा करने को कहा। 

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माँ ने उन्हें क्षमा किया और बोली - संसार में स्त्री शक्ति के बिना कुछ भी नही। बिना स्त्री के प्रकृति भी नही पुरुष भी नही। 

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दोनों का होना अनिवार्य है और जो स्त्रियों को सम्मान नही देता वो जीने का अधिकारी नही। 

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आज संसार में अनेकों ऐसे सोच वाले लोग हैं। उन्हें इस प्रसंग से प्रेरणा लेने की आवश्यकता है। 

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वो स्त्रियों से उनका सम्मान न छीने। खुद जिए और स्त्रियों के लिए भी सुखद संसार की व्यवस्था बनाए रखने में योगदान दें...


      🙏 !! जय माँ जगतजननी !! 🙏


      🔥 ॐ श्री गौरीशंकराय नमः 🔥

*🌹

बुधवार, 10 अगस्त 2022

हिंदी की आरती

 हिंदी की आरती 

*

भारती भाषा प्यारी की।

आरती हिन्दी न्यारी की।।

*

वर्ण हिंदी के अति सोहें,

शब्द मानव मन को मोहें।

काव्य रचना सुडौल सुन्दर 

वाक्य लेते सबका मन हर।

छंद-सुमनों की क्यारी की 

आरती हिंदी न्यारी की।।

*

रखे ग्यारह-तेरह दोहा,

सुमात्रा-लय ने मन मोहा।

न भूलें गति-यति बंधन को-

न छोड़ें मुक्तक लेखन को।

छंद संख्या अति भारी की 

आरती हिन्दी न्यारी की।।

*

विश्व की भाषा है हिंदी,

हिंद की आशा है हिंदी।

करोड़ों जिव्हाओं-आसीन 

न कोई सकता इसको छीन। 

ब्रम्ह की, विष्णु-पुरारी की 

आरती हिन्दी न्यारी की।।

*

मंगलवार, 9 अगस्त 2022

गुलज़ार के बहाने....../ आलोक यात्री

 गुलज़ार के बहाने

 खुसरो के कहे "ज़िहाल ए मस्कीं मकुन ब रंजिश..."

 की पड़ताल


आलोक यात्री 


  अपने समय में एक फिल्मी गीत "ज़िहाल ए मस्कीं मकुन ब रंजिश..." खूब लोकप्रिय हुआ था। यह गीत अपने समय में जितना लोकप्रिय हुआ था, उतना ही आज भी लोकप्रिय है।‌ लोकप्रिय होने के साथ यह कर्णप्रिय भी है।‌ गीत के बोल काफ़ी अजीब ओ ग़रीब हैं। फिल्म 'गुलामी' के इस गीत को भी लिखा गुलज़ार साहब ने ही है।‌ गीत के बोल "ज़िहाल ए मस्कीं मकुन ब रंजिश..." का अर्थ मालूम नहीं था। हो सकता है मेरी तरह कई अन्य लोगों को भी "ज़िहाल ए मस्कीं मकुन ब रंजिश..." का अर्थ शायद न पता हो। लेकिन आज जब यह गीत एक बार फिर सुना तो "ज़िहाल ए मस्कीं मकुन ब रंजिश..." फितरतन इस पंक्ति का अर्थ जानने की जिज्ञासा हुई। मेरी पड़ताल आगे बढ़े उससे पहले आप उस गीत से रू-ब-रू होइए जिसकी वजह से यह बात छिड़ी है

"जिहाल-ए-मस्कीं मकुन-ब-रन्जिश

बहाल-ए-हिजरा बेचारा दिल है

सुनाई देती है जिसकी धड़कन

तुम्हारा दिल या हमारा दिल है

     वो आके पहलू में ऐसे बैठे

     के शाम रंगीन हो गई है

     जरा जरा सी खिली तबीयत

     जरा सी गमगीन हो गई है

जिहाल-ए-मस्कीं मकुन-ब-रन्जिश...

     कभी कभी शाम ऐसे ढलती है

     के जैसे घूँघट उतर रहा है

     तुम्हारे सीने से उठता धुआँ

     हमारे दिल से गुजर रहा है

जिहाल-ए-मस्कीं मकुन-ब-रन्जिश...

     ये शर्म है या हया है क्या है

     नजर उठाते ही झुक गयी है

     तुम्हारी पलकों से गिर के शबनम

     हमारी आंखों में रुक गयी है

जिहाल-ए-मस्कीं मकुन-ब-रन्जिश

बहाल-ए-हिजरा बेचारा दिल है..."

  बाकी तो सब ठीक है। गीत भी आला-तरीन है। मामला बस "ज़िहाल-ए-मस्कीं मकुन-ब-रन्जिश बहाल-ए-हिजरा बेचारा दिल है..." पर ही अटका है। और यही पंक्तियां इस पूरे गीत का शबाब हैं। "ज़िहाल-ए-मस्कीं मकुन-ब-रन्जिश बहाल-ए-हिजरा बेचारा दिल है..." का मानी न जानते हुए भी यह गीत बार-बार सुनने की इच्छा होती है।

  फारसी की एक अदीब मित्र से "ज़िहाल-ए-मस्कीं मकुन-ब-रन्जिश बहाल-ए-हिजरा बेचारा दिल है..." का अर्थ पूछा तो उन्होंने इसका अर्थ कुछ यूं बताया -"गरीब की बदहाली को नज़रअंदाज न करो"। एक और उस्ताद से जानना चाह तो उन्होंने इन पंक्तियों की तफसील बताते हुए कहा कि "ज़िहाल" का अर्थ होता है -ध्यान देना या गौर फ़रमाना, "मिस्कीं" का अर्थ है -गरीब, "मकुन" के मायने हैं -नहीं और "हिज्र" का अर्थ है -जुदाई। उनके अनुसार इन पंक्तियों का भावार्थ यह निकला कि "मेरे इस गरीब दिल पर गौर फरमाएं और इसे रंजिश से न देखें। बेचारे दिल को हाल ही में जुदाई का ज़ख्म मिला है।"

 लेकिन... इन पंक्तियों का यह अर्थ जान कर भी तसल्ली नहीं हुई तो सिरखपाई का यह सिलसिला आगे बढ़ता हुआ अमीर खुसरो तक जा पहुंचा। गुलज़ार साहब के "गुलामी" फिल्म के लिए लिखे गए इस गीत की पंक्तियां असल में अमीर खुसरो की एक कविता से प्रेरित हैं। जो फारसी और ब्रज भाषा के मिले-जुले रूप में लिखी गई थी। अब जरा अमीर खुसरो के लिखे पर भी गौर फ़रमाया जाए। जिसकी एक पंक्ति फारसी में तो एक ब्रज भाषा में लिखी गई है...

-"ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल

    दुराए नैना बनाए बतियां।

कि ताब-ए-हिजरां नदारम ऐ जान,

     न लेहो काहे लगाए छतियां।

शबां-ए-हिजरां दरज़ चूं ज़ुल्फ़

वा रोज़-ए-वस्लत चो उम्र कोताह,

     सखि पिया को जो मैं न देखूं

     तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां।

यकायक अज़ दिल, दो चश्म-ए-जादू

ब सद फ़रेबम बाबुर्द तस्कीं,

     किसे पड़ी है जो जा सुनावे

     पियारे पी को हमारी बतियां।

  क्या बेहतरीन प्रयोग किया है अमीर खुसरो ने फारसी और ब्रज भाषा का। "ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल, दुराए नैना बनाए बतियां। कि ताब-ए-हिजरां नदारम ऐ जान, न लेहो काहे लगाये छतियां"... का अर्थ समझते हैं। इसका अर्थ है -"मुझ गरीब की बदहाली को नज़रंदाज़ न करो, नयना चुरा के और बातें बना के।"

  गौरतलब है कि अमीर खुसरो मिज़ाज और कलाम दोनों से ही सूफियाना तुर्क वंश के खड़ी बोली हिंदी के पहले कवि हैं। मध्य एशिया की लाचन जाति के तुर्क सैफुद्दीन के पुत्र अमीर खुसरो का जन्म सन 652 हिजरी में एटा (उत्तर प्रदेश) के पटियाली नामक कस्बे में हुआ था। लाचन जाति के तुर्क चंगेज खां के आक्रमणों से पीड़ित होकर बलवन (1266 ईस्वी) के राज्यकाल में शरणार्थी के रूप में भारत में आ बसे थे। खुसरो की मां बलबन के युद्धमंत्री इमादुतुल मुलक की लड़की, एक भारतीय मुसलमान महिला थी। सात वर्ष की अवस्था में खुसरो के पिता का निधन हो गया था। खुसरो ने किशोरावस्था में कविता लिखना प्रारम्भ किया और बीस वर्ष के होते-होते वे कवि के रूप में प्रसिद्ध हो गए। 

  खुसरो ने सामाजिक जीवन की अवहेलना कभी नहीं की। खुसरो ने अपना सारा जीवन राज्याश्रय में ही बिताया। राजदरबार में रहते हुए भी खुसरो हमेशा कवि, कलाकार, संगीतज्ञ और सैनिक ही बने रहे। भारतीय गायन में क़व्वाली और सितार को इन्हीं की देन माना जाता है। इन्होंने गीत की तर्ज पर फ़ारसी में और अरबी ग़जल के शब्दों को मिलाकर कई पहेलियां और दोहे लिखे।

  खुसरो ने दिल्ली वाली बोली अपनाई जिसे कालांतर में ‘हिंदवी’ नाम दिया गया। खुसरो ने सौ के करीब पुस्तकें लिखीं। जिनमें से अब कुछ ही मौजूद हैं। लेकिन उनके गीत, दोहे, कहावतें, पहेलियां और मुकरियां उन्हें आज भी आवाम में जिंदा रखे हुए हैं। कव्वालों की कई पीढ़ियां सदियों से उन्हें गाती आ रही हैं। जीवन के बहुत सारे प्रसंगों में खुसरो रोज़ याद आने वाले कवियों में से एक हैं।


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रविवार, 7 अगस्त 2022

वेद मित्र शुक्ल के सावन पर सात हिंदी सॉनेट


सावन


 वेद मित्र शुक्ल के सावन पर सात हिंदी सॉनेट


1.

सावन आया है 


सावन है एक माह का, पर, मन हरा भरा

ज़िंदादिल होकर जीता यह अपना जीवन

साथी बदरा भी तो है निशदिन सदा झरा

कैसे भी छूने को धरती का अंतर्मन।


पुरवइया हैं साँसें रितु पावस आह भरे

मधुरितु को कौन भला तड़पाए यारब!

पी-पी करता चातक तो कोई दर्द हरे

है कौन विरह पावक से बच पाए यारब?


पर, दिन जो भी हैं मिले दोस्त! जी भर रहना

हिस्से में जो भी विरह-प्रेम होता जीना,

धरती से नभ तक होकर सावन-सा बहना

शंकर की भाँति गरल भी तो होता पीना।


सावन आया है, जाएगा, फिर आएगा,

जैसे भी हो खुशतर जीना सिखलाएगा।


2.

सावन, कविता, तुम औ शाम


तुमने जो कविता उस शाम सुनायी थी ना

सुनता रहता हूँ अब भी भीतर ही भीतर

सच में, साथ-साथ दिल्ली के कविता जीना

आसां कब, पर, तुम भी तो कवि हो यह दीगर।


सावन की थी उमस किन्तु तुम सहज रहे थे

साधा होगा बारिश, ग्रीष्म, नमी जीवन में

आँखें चुप थी कविता के सुर बोल रहे थे

अच्छा ही है यों रहना कविता वाचन में।


‘क्या चीनी, क्या पाकिस्तानी मानुष हैं सब’

खतरा पैदा करता होगा ऐसे कहना 

समझे है कब भीड़, मॉब-लिंचिंग का युग जब

पर, तुम भी तो; ऐसे ही है तुमको रहना।


सावन, कविता, तुम औ शाम सुनहरी यादें

मेरे खातिर तो ये हुईं शायरी यादें।


3.

फिर इस सावन


पानी-पानी फिर इस सावन शहर हुआ है

पहिये थमे हुए हैं भारी जाम लगा जी

कौन भला जो इसका जिम्मेदार मुआ है

छोड़ो भी, बतलाएं किनका नाम लगा जी?


लजा रही हैं सड़कें अपना हाल देखकर

गड्ढे भर आए हैं जैसे ताल-तलैया

राहगीर ऐसे में माना गुज़र रहे, पर

ऊपर वाला ही मालिक है इनका भैया!


सरकारी दस्तावेज़ों में साफ सफाई

और मरम्मत सड़कों की बारिश से पहले

इन पर जो भी खर्च हुआ है पाई पाई

दर्ज सभी, लेकिन, ज़मीन पर देखो घपले।


कब तक यों बतलाव अत्याचार सहेंगे

चुप्पी साधे रहे अगर, दुर्भाग्य कहेंगे।


4.

ऋतुओँ में है कौन यहाँ, है जैसा सावन?


अनजानेपन में भी हैं जाने से लगते

शायद मौसम का जादू छाया है मितवा!

अनचीन्ही गर्माहट में दोनों ही पगते

सच बतलाऊँ, तो सावन आया है मितवा!


माना बदरा धरती को जाने औ माने

सागर-नदिया से है नाता बड़ा पुराना

लेकिन, भू भी क्या हर इक बदरा को जाने

झरते हैं गुमनाम बने क्या खोना-पाना? 


छाए रहते देखो नित ही नए नवेले

बदरा कारे-कारे हरियाली लाने को 

ठाना सावन ने ही मेघों के ये मेले

मेल-जोल अजनबियों में भी फैलाने को।


ऋतुओँ में है कौन यहाँ, है जैसा सावन?

धरा-गगन का मेल कराए ऐसा सावन।


5.


सावन के मेघों-सा हो



शब्द शब्द हो, बसा गीत जो भीतर, बरसे

प्यास बुझे, ऐ सुनने वालों! बस, इतना मन

भीगो, अवसर है आया, थे जो भी तरसे

सच पूछो, झूमे-गाए अब अपना सावन।


दादुर, मोर, पपीहा ज्यों सब हिलमिल गाएं

नहीं मियाँ-मल्हार, मग़र, कमतर भी है कब?

मस्ती के सुर कैसे भी हों सबको भाएं

गीतों की दुनिया का यह भी तो है इक ढब।


सावन, साजन, बादल, बारिश औ यह धरती

बोल हुए हैं पंक्ति-पंक्ति के, नव रस घोले

हर इक मन को भिगो रहे हैं बारिश झरती

मनवा डोल रहा, देखो, तन भी अब डोले।


बसे गीत भीतर मानो असली धन पाया

सावन के मेघों-सा हो झरने को आया।


6.

बदरा जैसे कवि की कविता 


बदरा जैसी कवि की कविता उमड़े-घुमड़े

गरजे-बरसे रह-रहकर के आसमान से 

आखर-आखर शब्द-शब्द जब रहें न टुकड़े 

कविता रचते कथ्य-भाव के गीतगान से।


भीगे देखो तन हो या मन बनके सावन 

बूँदें पैठी भीतर तक जगमगा रही हैं 

धरती के ऊपर और भीतर जलमय जीवन 

ताल-तलैया, पोखर, नदिया पुनः बही हैं।


रचने वाले इन मेघों को, खोए इनमें 

जैसे कवि मैं कविता हो या कविता में कवि 

काले मेघा तैर रहे हैं उजले दिन में 

ऐसे में तो सच बतलाऊं अद्भुत है छवि।


अनगिन रूपों वाले बदरा देखो भाते 

दूर गगन में कुछ यों गीत रचे हैं जाते।


7.

उम्मीदों के पेड़ उगेंगे 


कविताएँ, गज़लें, नगमे हैं उगा रहे हम

बैठे आस-पास देखो, ये, वे औ तुम भी

भीतर-बाहर बोल रहे औ कुछ गुमसुम भी

बो देंगे दो-चार बीज, अच्छा है मौसम।


बरसे थे बादल यों, बाकी नमी जमीं में

अखुवांयेंगे जल्दी ही हर बीज दोस्त! जो

कविता से कविता फूटेगी मन हरने को

कह पाएगा कौन भला तब कमी ज़मीं में।


अरे धरा तो माँ होती है, सच ही कहता

शब्द अर्थ भावों से इसको आओ सींचें

मसि कागद जो भी मिलता उनको हम भीचें

भीतर-भीतर कुछ तो है जो उगता रहता।


कविता है बोकर तो देखो यह तन-मन में

उम्मीदों के पेड़ उगेंगे फिर जीवन में।



संपर्क: अंग्रेजी विभाग, राजधानी महाविद्यालय,

दिल्ली विश्वविद्यालय, राजा गार्डन, नई दिल्ली-110015 

मोबा.: 9953458727, 9599798727

बनारस पर दो ग़ज़लें / वेद मित्र शुक्ला

 दो ग़ज़लें बनारस पर 🙏

(सोच विचार, जुलाई २०२२, के काशी अंक १३ में)

*1.*

इक नदिया को मान दिया है हर हर गंगे,

सबका ही उपकार किया है हर हर गंगे|


सुबह-ए-बनारस होती है ओ दोस्त! तभी तो,

कहने को आयी दुनिया है हर हर गंगे|


पाप मुक्त होता जल की कुछ छींटों से ही,

भोला-भाला या छलिया है हर हर गंगे|


देश-धर्म, रिश्ते-नाते औ गाँव-शहर ने-

कह-कहकर बस पुण्य लिया है हर हर गंगे|


बीच धार में दीप लिए उम्मीदों के औ –

फूलों वाली इक डलिया है हर हर गंगे|


*2.*


मौसम हो या बेमौसम हो थमे न रेला, चलो बनारस!

दुनियावी या देवों का हो, सबका मेला, चलो बनारस!


ढलने कब दे रौनक देखो, संध्या-वंदन घाट-घाट पर,

जगमग जगमग दीपाराधन है अलबेला, चलो बनारस!


दर्शन काशी-विश्वनाथ के करने सारा ही जग उमड़े,

जब भी, जैसे भी हों दर्शन, उत्तम बेला, चलो बनारस!


कंकर-कंकर में शंकर औ हर घर मंदिर महादेव के,

सब उसके ही, कौन सगा औ है सौतेला, चलो बनारस!


छोड़े है संसार साथ पर, प्यारी काशी साथ न छोड़े,

अंतिम क्षण भी कौन यहाँ पर रहा अकेला, चलो बनारस!


बाहर ही बाहर बस घूमें, भीतर कभी न देखा हमने

‘क्या खोया औ क्या पाया’ का छोड़ झमेला चलो बनारस!

                                               - वेद मित्र शुक्ल  

                     https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=pfbid02FGTwaSTY1ZcgLp1advrWx7WHKj8wq4DYi5j9yBPPe237zg4JQm9h16WjUbSPqeuol&id=1113073210

शनिवार, 6 अगस्त 2022

घर-घर तिरंगा फहरायें / अरविंद अकेला

 

घर-घर तिरंगा फहरायें / अरविंद अकेला 


अपनी तो दिल में यह आरजू,

घर-घर तिरंगा फहरायें,

चूमें अपनी पावन धरती को,

खुशी से सब नाचे गायें।

      अपनी तो दिल में...।


बड़ी मुश्किल से पायी आजादी,

इसे कभी भूल नहीं जायें,

रखें देश की हर सीमा सुरझित,

मिलकर सभी यह कसमें  खायें।

       अपनी तो दिल में...।


नहीं पालें गद्दार गाँव-शहर में,

नहीं आतंकी को घर में बसायें,

जहाँ कहीं दिखे कोई आतंकी,

अतिशीघ्र सब मार गिरायें।

       अपनी तो दिल में...।

      

हर दिल में रहे यह हिन्दुस्तान,

इसके लिए दे दें अपनी जान,

मुख पर रहे सदा वंदे मातरम,

विश्व विजयी तिरंगा लहरायें।

      अपनी तो दिल में...।

         ------0-----

      अरविन्द अकेला,पूर्वी रामकृष्ण नगर,पटना-27

शुक्रवार, 5 अगस्त 2022

रवि अरोड़ा की नजर से.....

 मुकाबला लाल सिंह चड्ढा और दूध पिलाने वालों में


रवि अरोड़ा



 टॉम हैंक्स अभिनीत मशहूर अंग्रेजी फिल्म फॉरेस्ट गंप मुझे बहुत अच्छी लगती है। अब तक कम से कम आधा दर्जन बार तो उसे देख ही चुका होऊंगा । तमाम दुश्वारियों के बावजूद यदि आगे बढ़ने की इच्छा हो तो कुदरत भी रास्ता नहीं रोक सकती, फिल्म का यह संदेश न जाने कितने लोगों के जीवन को रौशन कर गया होगा । फिल्म की अपार सफलता भी यह दर्शाती है कि उसने दुनिया भर के करोड़ों लोगों के दिलों को छुआ है। शायद यही वजह भी रही होगी मात्र 55 मिलियन डॉलर की लागत वाली इस फिल्म ने रिकॉर्ड तोड़ 683 मिलियन डॉलर कमाए और इतने अवॉर्ड जीते कि पूरी दुनिया में इस फिल्म का हल्ला मच गया । मुझे जब से पता चला हुई कि इसी फिल्म की रीमेक हिन्दी में लाल सिंह चड्ढा के नाम से बनी है, मन उसे देखने को बेताब है। यह देखना वाकई सुखद हो सकता है कि भारतीय पृष्ठभूमि में इस लाजवाब कहानी का फिल्मांकन कैसे किया गया होगा। हालांकि #boycottlaalsinghchaddha जैसे मैसेज मुझे भी रोज मिल रहे हैं मगर मुझे पता है कि यह शोर शराबा भी कुछ ऐसा ही है जैसे गधे से गिरने पर कोई गुस्सा कुम्हार पर उतारे। 


इसमें तो कोई शक नहीं कि मिस्टर परफेक्शनिस्ट के नाम से मशहूर आमिर खान ने हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को समृद्ध करने में महती योगदान दिया है। उनके खाते में सरफरोश, लगान, रंग दे बसंती, तारे जमीन पर, थ्री ईडियट्स, पीके और दंगल जैसी बेहतरीन फिल्में हैं जो आम जन मानस में देशभक्ति की भावना को प्रबल करने के साथ साथ अनेक सामाजिक संदेश भी देती हैं। उसके टीवी कार्यक्रम सत्यमेव जयते ने भी देश के असली नायकों से लोगों का परिचय कराया था ।  हालांकि उनकी फ़िल्म लाल सिंह चड्ढा अभी रिलीज नहीं हुई मगर ट्रेलर देख कर तो लोगबाग यही अनुमान लगा रहे हैं कि यह फिल्म भी उम्दा होगी और तारे जमीन पर फिल्म की तरह उन माता पिता के लिए प्रेरणादायक होगी जिनके बच्चे किसी न किसी शारीरिक अथवा मानसिक कमजोरी के साथ इस दुनिया में आए हैं। अपनी क्षमताओं को कम कर के आंकने वाले भी इस तरह की फिल्मों से सकारात्मता से यकीनन ओतप्रोत होते हैं। 


जहां तक फिल्म पीके में उन दृश्यों का सवाल है जिन्हें हिन्दू विरोधी ठहराया जा रहा है, कम से कम मुझे तो उसमें ऐसा कुछ नज़र नहीं आता । यह फिल्म तो पाखंड के खिलाफ गहरा संदेश देती है और पाखंड को ही धर्म समझने वाले यदि इससे खफा हैं तो कोई क्या कह सकता है। सच बताऊं तो लाल सिंह चड्ढा फिल्म का बॉयकॉट करने का शगूफा पूरी तरह राजनीतिक लगता है। एक के बाद एक बड़ी सरकारी विफलताओं से जनता का ध्यान हटाने को हर महीने जो एक शगूफा छोड़ा जाता है , यह उसकी ही नई कड़ी भर है। इस फ़िल्म की मुखालफत इस वजह से भी की जा रही है कि आमिर खान मुसलमान है और अनेक बार खरी खरी बातें भी कर देता है जो पाखंडियों को सहन नहीं होतीं। अब यह फिल्म चलेगी अथवा नहीं यह किसी को नहीं पता । आमिर खान का नाम होने का मतलब फिल्म के अच्छा होने की गारंटी यूं भी नहीं है। अपनी आख़िरी फिल्म ठग्स ऑफ हिंदुस्तान में उन्होंने लोगों को बेहद निराश किया था । अब इस फिल्म के साथ क्या होगा यह तो ग्यारह अगस्त के बाद पता चलेगा ही मगर साथ ही साथ यह भी पता चलेगा कि गणेश जी को दूध पिलाने वालों की तलवार की धार वक्त के साथ कुछ कुंद हुई है या पहले से भी अधिक पैनी।

गुरुवार, 4 अगस्त 2022

कालिदास और पनीहारिन संवाद


प्रस्तुति - रेणु दत्ता / आशा सिन्हा


कालिदास बोले :- माते पानी पिला दीजिए बड़ा पुण्य होगा.

स्त्री बोली :- बेटा मैं तुम्हें जानती नहीं. अपना परिचय दो।

मैं अवश्य पानी पिला दूंगी।

कालिदास ने कहा :- मैं पथिक हूँ, कृपया पानी पिला दें।

स्त्री बोली :- तुम पथिक कैसे हो सकते हो, पथिक तो केवल दो ही हैं सूर्य व चन्द्रमा, जो कभी रुकते नहीं हमेशा चलते रहते। तुम इनमें से कौन हो सत्य बताओ।


कालिदास ने कहा :- मैं मेहमान हूँ, कृपया पानी पिला दें।

स्त्री बोली :- तुम मेहमान कैसे हो सकते हो ? संसार में दो ही मेहमान हैं।

पहला धन और दूसरा यौवन। इन्हें जाने में समय नहीं लगता। सत्य बताओ कौन हो तुम ?

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(अब तक के सारे तर्क से पराजित हताश तो हो ही चुके थे)


कालिदास बोले :- मैं सहनशील हूं। अब आप पानी पिला दें।


स्त्री ने कहा :- नहीं, सहनशील तो दो ही हैं। पहली, धरती जो पापी-पुण्यात्मा सबका बोझ सहती है। उसकी छाती चीरकर बीज बो देने से भी अनाज के भंडार देती है, दूसरे पेड़ जिनको पत्थर मारो फिर भी मीठे फल देते हैं। तुम सहनशील नहीं। सच बताओ तुम कौन हो ?

(कालिदास लगभग मूर्च्छा की स्थिति में आ गए और तर्क-वितर्क से झल्लाकर बोले)


कालिदास बोले :- मैं हठी हूँ ।

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स्त्री बोली :- फिर असत्य. हठी तो दो ही हैं- पहला नख और दूसरे केश, कितना भी काटो बार-बार निकल आते हैं। सत्य कहें ब्राह्मण कौन हैं आप ?


(पूरी तरह अपमानित और पराजित हो चुके थे)


कालिदास ने कहा :- फिर तो मैं मूर्ख ही हूँ ।

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स्त्री ने कहा :- नहीं तुम मूर्ख कैसे हो सकते हो।

मूर्ख दो ही हैं। पहला राजा जो बिना योग्यता के भी सब पर शासन करता है, और दूसरा दरबारी पंडित जो राजा को प्रसन्न करने के लिए ग़लत बात पर भी तर्क करके उसको सही सिद्ध करने की चेष्टा करता है।

(कुछ बोल न सकने की स्थिति में कालिदास वृद्धा के पैर पर गिर पड़े और पानी की याचना में गिड़गिड़ाने लगे)


वृद्धा ने कहा :- उठो वत्स ! (आवाज़ सुनकर कालिदास ने ऊपर देखा तो साक्षात माता सरस्वती वहां खड़ी थी, कालिदास पुनः नतमस्तक हो गए)

माता ने कहा :- शिक्षा से ज्ञान आता है न कि अहंकार । तूने शिक्षा के बल पर प्राप्त मान और प्रतिष्ठा को ही अपनी उपलब्धि मान लिया और अहंकार कर बैठे इसलिए मुझे तुम्हारे चक्षु खोलने के लिए ये स्वांग करना पड़ा।

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कालिदास को अपनी गलती समझ में आ गई और भरपेट पानी पीकर वे आगे चल पड़े।


शिक्षा :-

विद्वत्ता पर कभी घमण्ड न करें, यही घमण्ड विद्वत्ता को नष्ट कर देता है।

दो चीजों को कभी व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिए.....

अन्न के कण को

"और"

आनंद के क्षण को...

(साभार)🚩🙏🇮🇳


शिवतत्व



प्रस्तुति - रेणु दत्ता / आशा सिन्हा


धर्मराज युधिष्ठिर ने जब भीष्म जी से शिवतत्त्व के सम्बन्ध में प्रश्न किया, तब उन्होंने अपनी असमर्थता प्रकट करके कहा कि "श्रीकृष्ण उनकी कृपा के पात्र हैं, उनकी महिमा को जानते हैं और वही कुछ वर्णन भी कर सकते हैं।" 

युधिष्ठिर के प्रश्न से श्रीकृष्ण ने शान्त, समाहित होकर यही कहा कि "भगवान की महिमा तो अनन्त है, तथापि उन्हीं की कृपा से उनकी महिमा को अति संक्षेप में कहता हूँ।" यह कह कर बड़ी ही श्रद्धा से उन्होंने शिव-महिमा का गायन किया। विष्णु भगवान ने तो अपने नेत्रकमल से भगवान की पूजा की है। उसी भक्त्त्युद्रेक से उन्हें सुदर्शन चक्र मिला है।


शिव-विष्णु को तो परस्पर में ऐसा उपास्योपासक सम्बन्ध है कि जो अन्यत्र हो ही नहीं सकता। तम काला होता है। और सत्त्व शुल्क, इस दृष्टि से सत्त्वोपाधिक विष्णु को शुक्लवर्ण होना था और तम उपाधिक रुद्र कृष्णवर्ण होना था और सम्भवतः हैं भी वे स्वरूपः वैसे ही, परन्तु परस्पर एक-दूसरे की ध्यानजनित तन्मयता से दोनो के ही स्वरूप में परिवर्तन हो गया। अर्थात् विष्णु कृष्णवर्ण और रुद्र शुक्लवर्ण हो गये। 


मुरलीरूप से कृष्ण के अधरामृतपान का अधिकार शिव को ही हुआ। श्रीकृष्ण अपने अमृतमय मुखचन्द्र पर, सुमधुर अधरपल्लव पर पधराकर अपनी कोमलांगुलियो से उनके पादसंवाहन करते, अधरामृत का भोग धरते, किरीट-मुकुट का छत्र धरते और कुण्डल से नीराजन करते हैं श्रीराधारूप से श्रीशिव का प्राकट्य होता है, तो कृष्णरूप से विष्णु का, कालीरूप विष्णु का तो शंकररूप से शिव का। "या उमा सा स्वयं विष्णुः" ( रुद्रहृदयोपनिषत् ५ ) इस तरह ये दोनों उभय-उभयात्मा, उभय उभयभावात्मा हैं। 


श्रीशिव का सगुण स्वरूप भी इतना अद्भत, मधुर, मनोहर और मोहक है कि उस पर सभी मोहित हैं। भगवान को तेजोमयी दिव्य, मधुर, मनोहर विशुद्धसत्त्वमयी, मंगलमयी मूर्ति को देखकर स्फटिक, शंख, कुन्द, दुग्ध, कर्पूरखण्ड, श्वेताद्रि, चन्द्रमा सभी लज्जित होते हैं। अनन्तकोटि चन्द्रसागर के मन्थन से समुद्रभूत, अद्भुत, अमृतमय, निष्कलंक पूर्णचन्द्रक भी उनके मनोहर मुखचन्द्र की आभा से लज्जित हो उठता है। मनोहर त्रिनयन, बालचन्द्र एवं जटामुकुट पर दुग्धधवल स्वच्छाकृति गंगा की धारा हठात मन को मोहती है।


हस्ति-शुण्ड से समान विशाल, भूतिभूषित, सुडोल, गोल, तेजोमय अंगद-कंकण-शोभित भुजा, मुक्ता मोतियों के हार, नागेन्द्रहार, व्याघ्रचर्म, मनोहर चरणारविन्द और उनमें सुशोभित नखमणिचन्द्रिकाएँ भावुको को अपार आनन्द प्रदान करती हैं। हिमाद्रि के समान धवलवर्ण स्वच्छ नन्दीगण पर विराजमान रुदाशक्तिरूपा श्रीउमा के संग श्रीशिव ठीक वैसे ही शोभित होते हैं, जैसे धर्मतत्त्व के ऊपर ब्रह्मविद्यासहित ब्रह्म विराजमान हों, किंवा माधुर्याधिष्ठात्री महाशक्ति के साथ मूर्तिमान होकर परमानन्दरसामृतसिन्धु विराजमान हो।


भगवान की ऐसी सर्वमनोहारिता है कि सभी उनके उपासक हैं। कालकूट विष और शेषनाग को गले में धारण करने से भगवान की मृत्यंजयरूपता स्पष्ट है। जटामुकुट में श्रीगंगा को धारण कर विश्वमुक्ति मूल को स्वाधीन कर लिया। अग्निमय तृतीय नेत्र के समीप में ही चन्द्रकला को धारण कर अपने संहारकत्व-पोषकत्वरूप विरुद्ध धर्माश्रयत्व को दिखलाया। सर्वलोकाधिपति होकर भी विभूति और व्याघ्रचर्म को ही अपना भूषण-वसन बनाकर संसार में वैराग्य को ही सर्वापेक्षया श्रेष्ठ बतलाया।


आपका वाहन नन्दी, तो उमा का वाहन सिंह, गणपति का वाहन मूषक, तो स्वामी कार्तिकेय का वाहन मयूर है। मूर्तिमान त्रिशूल और भैरवादिगण आपकी सेवा में सदा संलग्न हैं। ब्रह्मा, विष्णु, राम, कृष्णादि भी उनकी उपासना करते हैं। नर, नाग, गन्धर्व, किन्नर, सुर, इन्द्र, बृहस्पति, प्रजापति प्रभृति भी शिव की उपासना में तल्लीन हैं।


इधर तामस से तामस असुर, दैत्य, यज्ञ, भूत, प्रेत, पिशाच, बेताल, डाकिनी, शाकिनी, वृश्चिक, सर्प, सिहं सभी आपकी सेवा में तत्पर हैं। वस्तुतः परमेश्वर का लक्षण भी यही है कि उसे सभी पूजें। 


पार्वती के विवाह में जब भगवान शंकर प्रसन्न हुए, तब अपनी सौन्दर्य-माधुर्य-सुधामयी दिव्य मूर्ति का दर्शन दिया। बरात में पहले लोग इन्द्र का ऐश्वर्य, माधुर्य देखकर मुग्ध हो गये, समझा कि यही शंकर हैं और उन्हीं की आरती के लिये प्रवृत्त हुए।


जब इन्द्र ने कहा कि "हम तो श्रीशंकर के उपासकों के भी उपासकों में निम्नतम हैं", तब उन लोगों न प्रजापति ब्रह्मा आदि का अद्भुत ऐश्वर्य देखकर उन्हेंं परमेश्वर समझा। जब उन्होंने भी अपने को भगवान का निम्नतम उपासक कहा, तब वे लोग विष्णु की ओर प्रवृत्त हुए और उन्हें ही अद्भुत ऐश्वर्य-माधुर्य-सौन्दर्यसम्पन्न देखकर शंकर समझा। जब श्रीविष्णु ने भी अपने को शंकर का उपासक बतलाया, तब तो सब आश्चर्य-सिन्धु में डुबने लगे।


सचमुच भगवान कृष्ण के श्रीअंग का सौन्दर्य, माधुर्य अद्भुत है। और क्या कौन कहे, उस पर वे स्वयं मुग्ध हो जाते हैं। मणिमय स्तम्भों या मणिमय प्रांगण में प्रतिबिम्बित अपनी ही मधुर, मनोंहर, मंगलमयी मूर्ति को देख, उसके ही संमिलन और परिरम्भण के लिये वे स्वयं विभोर हो उठते हैं।


श्रीमूर्ति के प्रत्येक अंग-भूषणों को भी भूषित करते हैं। कौस्तुभादि मणिगणों ने अनन्त आराधनाओं के अनन्तर अपनी शोभा बढाने के लिये उनके श्रीकण्ठ को प्राप्त किया है, किंबहुना अनन्त गुणगणों ने भी बढाने के लिये उनके श्रीकण्ठ को प्राप्त किया है, किंबहुना अनन्त गुणगणों ने भी अनन्त तपस्याओं के अनन्तर अपनी गुणत्वसिद्धि के लिये जिन, निर्गुण, निरपेक्ष का आश्रयण किया है, वे स्वयं श्रीकृष्ण जिसकी उपासना करें, जिस पर मुग्ध रहें, उसकी महिमा, मधुरिमा का कहना ही क्या?


राधारूप से जिसे प्रतिक्षण हृदय एवं रोम-रोम में रखें वंशीरूप से अधरपल्लव पर रखें, जिनके स्वरूप का निरन्तर ध्यान करें, उनकी महिमा को कौन कह सकता है? शब्द, स्पर्श, रस, गन्ध के माधुर्य में प्राणियों का चित्त आसक्त होता है।


चित्त में अशब्द, अस्पर्श, अरूप, अव्यय ब्रह्म का आरोहण कठिन होता है। इसलिये भगवान ऐसी मधुर, मनोहर मंगलमयी मूर्तिरूप में अपने आपको व्यक्त करते हैं, जिसके शब्द-स्पर्शादि के माधुर्य का पारावार नहीं, जिसके लावण्य, सौन्दर्य, सौगन्ध, सकुमार्य की तुलना कहीं है ही नहीं। मानों भगवान की सौन्दर्य-सुधाजलनिधि मंगलमूर्ति से ही, किंवा उसके सौन्दर्यादि-सुधासिन्धु के एक बिन्दु से ही अनन्त ब्रह्माण्ड में सौन्दर्य, माधुर्य, लावण्य सौगन्ध्य, सौकुमार्य आदि वित हैं।


जब प्राणी का मन प्राकृत कान्ता के सौन्दर्य, माधुर्यादि में आसक्त हो जाता है, तब अनन्तब्रह्माण्डगत सौन्दर्य, माधुर्यादि बिन्दुओं के उद्गम स्थान सौन्दर्यादि सुधाजलनिधि भगवान के मधुर स्वरूप में क्यों न आसक्त होगा? 


भगवान का हृदय भास्वती भगवती अनुकम्पा देवी के परतन्त्र है। संसार में माँगने वाला किसी को अच्छा नहीं लगता, उससे सभी घृणा करते हैं। परन्तु भगवान शंकर तो आक, धतूर, अक्षत, बिल्वपत्र, जलमात्र चढाने वाले से ही सन्तुष्ट होकर सब कुछ देने को प्रस्तुत हो जाते हैं। ब्रह्मा जी पार्वती से अपना दुखड़ा रोते हुए कहते हैं।


"बावरो रावरो नाह भवानी। जिनके भाल लिखी लिपि मेरी सुख की नाहिं निशानी। तिन रंकन को नाक सँवारत हों आयों नकबानी।। 

शिव की दई सम्पदा देखत श्री शारदा सिहाहीं। दीनदयाल देहबोइ भावई यां जस जाहि सुहाहीं।।" ( विनय पत्रिका, शिव स्तुति )


उनका भक्त एक ही बार प्रणाम करने से अपने को मुक्त मानता है। भगवान भी 'महादेव' ऐसे नाम उच्चारण करने वाले के प्रति ऐसे दौड़ते हैं, जैसे वत्सला गौ अपने बछड़े के प्रति - 


"महादेव महादेव महादेवेति वादिनम्। 

वत्सं गौरिव गौरीशो धावन्तमनुधावति।।" 


जो पुरुष तीन बार महादेव, महादेव, महादेव, इस तरह भगवान का नाम उच्चारण करता है, भगवान एक नाम से मुक्ति देकर शेष दो नाम से उसके ऋणी हो जाते है।


"महोदेव महादेव महादेवेति यो वदेत्। 

एकेन मुक्तिमाप्नोति द्वाभ्यां शंभू ऋणी भवेत्।।"

कुछ प्रेरक कहानियाँ / वीरेंद्र सिंह

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